गुरुवार, 19 जनवरी 2017

नवेन्दु महर्षि : ईश्वर का दलित अवतार
(कँवल भारती)
कई साल हुए देहरादून में रूपनारायण सोनकर की किसी किताब के लोकार्पण  कार्यक्रम में नवेन्दु महर्षि से एक छोटी सी मुलाकात हुई थी. फिर देहरादून में ही एक और कार्यक्रम में एक बार फिर उनसे मिलना हुआ था. होटल के एक कमरे में रूपनारायण सोनकर ने पीने-पाने की कुछ व्यवस्था की थी. दो पेग पीने के बाद ही नवेन्दु जी की जुबान उनके नियन्त्रण से बाहर हो गयी थी. जबर्दस्त हंगामा, और तीसरा पेग बनाने के बाद वह उसे टेबिल पर रखकर जो गायब हुए तो लौट कर ही नहीं आये. उनसे तीसरी मुलाकात 2016 में देहरादून में ही उनके दस कविता-संग्रहों और विश्व धर्मग्रंथ ‘प्रभु प्रकाश’ के विमोचन के अवसर पर होनी थी, पर उनके द्वारा ही ऐनवक्त पर मना कर दिया गया कि कार्यक्रम कैंसिल हो गया है. इसलिए वह मुलाकात हो नहीं पायी. हालाँकि वह कार्यक्रम उसी दिन नियत समय पर हुआ था. क्या राजनीति थी, यह तो वह ही जाने.
बस कुल जमा यही दो मुलाकातें उनसे मेरी हैं. इससे ज्यादा जो कुछ भी मैं उनके बारे में जानता. हूँ, उसका आधार उनकी किताबें ही हैं. हालाँकि फोन उनके आते रहते हैं, वह अपनी किताबें भी भेजते रहते हैं, मोटी से मोटी और पतली से पतली किताब भी उन्होंने मुझे भेजी है. उनकी इतनी ज्यादा किताबें मेरे पास इकठ्ठा हो गयी हैं कि उनको रैक में रखने के लिए जगह नहीं बची है, तो मैंने उनको इधर-उधर रख छोड़ा है. किताबों के बीच में उनके पत्र भी रखे मिलते हैं. उनका सुलेख बहुत अच्छा है, और हमारी पीढ़ी में वह सबसे ज्यादा लिखने वालों में भी हैं. एक दिन जब उनका फोन आया, तो मैंने पूछा, ‘अब तक कितनी किताबें हो गयीं?’ तो हंस कर बोले, ‘साठ से ऊपर हो गयीं हैं.’ मैंने कहा, यही रफ़्तार रही, तो शतक होना कोई बड़ी बात नहीं है.’
अपनी किताबों के प्रकाशन में उनको दिक्कत नहीं आती, क्योंकि पैसे की कोई कमी उनके पास नहीं है. ऐसी सुविधा के साथ कौन प्रकाशक तैयार न होगा? वह साधन-संपन्न तो नहीं हैं, पर सुविधा-संपन्न जरूर हैं. विवाह किया नही है, सो बाल-बच्चों और घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी से भी मुक्त हैं. इंटर कालेज में प्रिन्सिपल थे. वेतन अच्छा था. सो उन्होंने धन और खालीपन की सुविधा का भरपूर उपयोग लिखने और उसे छपवाने में ही किया. वह यह अच्छी तरह जानते हैं कि लिखा हुआ अगर छपे नहीं तो घास की ओस की तरह उसका कुछ भी मोल नहीं है. इसलिए उन्होंने अपने हर लिखे शब्द को जनता तक पहुँचाने के लिए प्रकाशित कराया. कोई भी उनके इस जीवन से ईर्ष्या कर सकता है, पर इस जीवन का दर्द भी उनके जीवन में खूब झलकता है. जैसे मीरा ने अपने काव्य में अपने अदृश्य और अमूर्त प्रिय से संवाद किया है, वैसे ही नवेन्दु भी अपने अदृश्य और अमूर्त प्रिय से अपनी कविताओं में संवाद करते हैं. यह संवाद निरंतर और हर तरह से चलता रहता है. उनके हाल के दस कविता संग्रह इसी संवाद के संग्रह हैं.. एक बानगी ‘ओ प्रिया तुम’ संग्रह से देखिए—

ऑंखें मेरी हैं रूप की प्यासी प्रिये
मन में प्रेम की भरी है उदासी प्रिये
मेरे पास कोई कोठी और मकान नहीं
सुख-सुविधाओं का कोई सामान नहीं.
मेरा जीवन है पूरा एक सन्यासी प्रिये
चाहूँ तो सुख सारे मैं उठा सकता हूँ
मौज मस्ती में पैसे खूब लुटा सकता हूँ
नौकरी है मेरे पास अच्छी खासी प्रिये
मन में प्रेम की भरी है उदासी प्रिये
तुम मिलो तो सब मिल जाए
सब क्या मुझे फिर रब मिल जाये
यही एक कमी बस जरा सी है प्रिये
मन में प्रेम की भरी है उदासी प्रिये
जीवन में धन-दौलत मैंने जोड़ी नहीं
मेरे पास रिश्वत की एक कौड़ी नहीं
तेरी सूरत बस सपने में है तराशी प्रिये
मन में प्रेम की भरी है उदासी प्रिये
     सपने में तराशी गयी प्रिये की सूरत में नवेन्दु का चेतन खो गया और उसका साक्षात वह अवचेतन में करने लगे. इसकी परिणिति अध्यात्म में हुई, जो स्वाभाविक थी. तन्हाई उनके पास थी ही, उसमें था उनकी आभासी प्रिये का साथ, जिसका अंत उनमें प्रभुदय से हुआ. अब उनका संवाद प्रभु से चलता रहा. और प्रभु ने उन्हें इस लोक का अपना पैगम्बर बना दिया. उन पर प्रभु-वाणी उतरने लगी और वह उसे कागज पर उतारने लगे.
     असल में नवेन्दु जी शुरू से ही अकेलेपन के शिकार रहे हैं. जब वह नौ साल के थे, तो उनकी माँ ने नक्स साल के छोटे भाई को पेट से चिपका कर तालाब में डूबकर आत्महत्या कर ली थी. उनके पिता पेशे से दर्जी थे, जो बाद में दर्जीगीरी छोड़कर ईंटों के भट्टे पर काम करने लगे थे. पिता उनको बचपन में योगी-संयासियों और पुराणों की कहानियां सुनाया करते थे, जिन्होंने उनको अंतर्मुखी बनाने में बड़ी भूमिका निभाई. उन्होंने अपनी इस कैफियत का वर्णन ‘मेरे मन की बाइबिल’ में इस तरह किया है—
‘मुझे एकांत सेवन की आदत है. मैं काफी समय तक अकेले में बैठा रहता हूँ और संसार के बारे में चिंतन-मनन करता रहता हूँ. विद्यालय जाता हूँ, (तो) वहाँ भी खाली घंटों में स्टाफरूम में बैठने के बजाय विद्यालय की छत पर चला जाता हूँ और वहाँ भी अकेला बैठा रहता हूँ. शहर के रेस्तरां में जाता हूँ और वहाँ भी मैं मित्रों से थोड़ा अलग एक कोने की कुर्सी पर खामोश बैठा रहता हूँ. कम बोलना और अधिक-से-अधिक चिंतन-मनन करने का मेरा स्वभाव हो गया है और ऐसे रहते मुझे कई साल गुजर चुके हैं और धीरे-धीरे मुझे कुछ अलौकिक अनुभव होने लगे हैं.’ (पृ. 136)
     इन अलौकिक अनुभवों का भी उन्होंने उल्लेख किया है, जो आपको अविश्वसनीय लग सकते हैं. पर वे उनके साथ हुए हैं. उनमें एक अनुभव उनके बाथरूम का है, जो उनके अनुसार इस तरह था—
     ‘मैं नहाने के लिए उठा हूँ. बाथरूम में गया हूँ. बाल्टी में पानी भरा रखा है. मैंने टूथब्रश किया है और उसके बाद फर्श पर बैठकर डिब्बे से पानी अपने ऊपर डालना शुरू कर दिया है. रोज की तरह ही मेरे कंधे के पास से एक आवाज सी मेरे कानों को सुनाई दे रही है. जैसी धीरे-धीरे घड़ा भरने की आवाज होती है. आवाज से ही जैसे घड़ा भरने का अनुमान लग जाता है, वैसे ही मैंने भी पानी डालना बंद कर दिया है और उठ खड़ा हुआ हूँ. सहसा मेरी दृष्टि नीचे फर्श की ओर गयी है और मैं आश्चर्य से भर उठा हूँ, क्योंकि फर्श पूरी तरह सूखा पड़ा है और बाल्टी का सारा पानी मेरे कंधों और मेरी पीठ के पिछले हिस्से में ही कहीं समा गया है.’ (वही)
     चेतन से कट जाने के बाद आदमी को उसका अवचेतन वही दिखाता है, जो वह देखना चाहता है. ऐसा व्यक्ति अपने एकांत-सेवन की अति से अवचेतन की  आभासी दुनिया का ही होकर रह जाता है. फिर वह ‘इंसान से ईश्वर तक’ की उड़ान भरने लगता है. ऐसी अवस्थिति में नवेन्दु जी को भविष्य की घटनाओं की भी अनुभूति होने लगी. बामियान में तालिबान ने जो हजारों साल पुरानी बुद्ध की मूर्ति तोड़ी थी, उसका पता उन्हें पहले ही एक सपने में हो गया था. इस अद्भुत घटना का उल्लेख उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘इंसान से ईश्वर तक’ में विस्तार से किया है. ऐसा ही एक उल्लेख उन्होंने अपने मुंबई-प्रवास के दौरान घटी घटना का किया है. उन्होंने बैंक से सौ-सौ के दस नोट निकाले थे, और अपनी जेब में रख लिए थे. पर वो रूपये उनकी जेब से अकस्मात गायब हो जाते हैं. वह बहुत खोजते हैं, पर नही मिलते हैं. अब उनके पास खर्चा चलाने के भी पैसे नहीं रह गए हैं. तभी सांताक्रूज स्टेशन के पुल की सीढ़ियां चढ़ते हुए उनके मन में यह भाव आता है कि काश वे रूपये कहीं से उड़कर उनके पास आ जाते. फिर चमत्कार होता है और वह अपनी जेब में हाथ डालते हैं और यह देखकर दंग रह जाते हैं कि वे रूपये उनकी जेब में ऊपर ही रखे हुए हैं. वह लिखते हैं कि इस चमत्कार को देखकर उनकी आँखें नम हो जाती हैं. वह कमरे पर जाकर कुछ देर तक रोते हैं. रो चुकने के बाद उनके भीतर आत्मबोध जाग उठता है. इस आत्मबोध में वह ईश्वर के दूत हो जाते हैं. इस स्थिति का वर्णन उन्होंने इन शब्दों में किया है--
     ‘और आदि शक्ति ने मेरे भीतर ये भाव उदित किये—तुमने सत्य को पा लिया है. तुम स्वयं सिद्ध हो चुके हो. सत्य की तुम्हारी खोज अब पूर्ण हुई. वापस लौट जाओ. संसार तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है. आज की इस घटना ने यह नया विश्वास तुम्हारे भीतर जगाया है कि मैं हर क्षण तुम्हारे पास हूँ और तुम्हारी हरेक गतिविधि को हर क्षण देख रहा हूँ. आज से इस नए विश्वास को तुम हमेशा के लिए अपने मन में सहेज कर रखो. अपने अधूरे छूट गए साहित्यिक कर्म को फिर से शुरू करो और अपनी रचनाओं से संसार में उजाला फैलाओ. अब तुम स्वयं ही ईश्वर हो. फिर से संसार में जाओ, जाओ.’ (पृ. 18)
     अत: कहना न होगा कि इसके बाद का उनका सारा लेखन उनके ईश्वर हो जाने के बाद का लेखन है. परिणामतः 2009 में उनका ‘प्रभूदय’ आया, जिसका उप-शीर्षक उन्होंने यह दिया—‘आकाश से अवतरित एक नया विश्व धर्मग्रंथ.’ और अपने नाम के नीचे लिखा—‘प्रभु पैगम्बर’. इस ग्रन्थ के आमुख में वह दबे-कुचले, वंचित लोगों को संबोधित करते हुए लिखते हैं—‘इस पुस्तक के विचार संसार के भीतर से नहीं, वरन बाहर से आये हैं, अर्थात आकाश से अवतरित हुए हैं. इसलिए तुम इस पुस्तक को ईश्वर की ही पुस्तक समझो.’ उनके अनुसार, ‘प्रभूदय’ का अर्थ है, प्रभु का उदय. प्रभु यानी कि अच्छाई, अर्थात अच्छाई का उदय.’ अंत में वह लिखते हैं—‘यह भूमिका मैं अनंत काल से ही निभाता चला आ रहा हूँ, और प्रभु का दूत बनकर संसार में पहले भी प्रकट होता रहा हूँ और अब एक बार फिर से इस नयी सदी में तुम्हारे बीच संसार में उपस्थित हो चुका हूँ यह सन्देश लेकर.’
     भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं कि ‘जब-जब धर्म की हानि होती है, मैं प्रकट होता हूँ. सब कुछ मेरे ही द्वारा घटित होता है. मैं ही उत्त्पत्ति करता हूँ और मैं ही विनाश करता हूँ.’ ‘प्रभूदय’ में नवेन्दु भी पैगम्बर के रूप में ऐसी ही घोषणा करते हैं. कुछ घोषणाएँ देखिये—
‘सहस्त्रों शताब्दियों से त्राहिमाम-त्राहिमाम करती दबी-कुचली मानवता के दुःख निवारण और उसे शारीरिक-आत्मिक बन्धनों से मुक्त करने हेतु अब मैं धरती पर खुद आ (खुदा) चुका हूँ.’
‘मैं भूमध्य रेखा के ऊपर सातवें आसमान के पर्दे पर स्थित हूँ और वहीँ से मैं हिंद महासागर के समीप के देश हिंदुस्तान में अवतरित हो चुका हूँ. सागर के प्याले के छलकने का और उससे उठी उन सुनामी लहरों की उच्छ्रंखलताओं का कारण भी मैं ही हूँ और इस पृथ्वी की गति में आई तेजी का कारण भी मैं ही हूँ.’ (पृ. 29)
     जिस तरह भगवद्गीता में कृष्ण का विराट रूप दिखाया गया है, वैसा ही विराट रूप ‘प्रभूदय’ में नवेन्दु पैगम्बर भी दिखाते हैं--
‘अय दुनिया के लोगों ! जो ये तुम्हारे भीतर मुझे जानने की जिज्ञासा मौजूद है, तो उसका समाधान करने के लिए ही मैं तुम्हें अपने विषय में यहाँ बतला रहा हूँ. सुनो—
‘मैं चतुर्मुख हूँ, क्योंकि चारों दिशाओं की ओर ही मेरे मुख हैं. मैं दस मुख हूँ, क्योंकि मुझे दशों दिशाओं का ज्ञान है. मैं सहस्र मुख और सहस्र बाहु हूँ, क्योंकि विश्व के सब लोगों के मुख मेरे ही मुख हैं और सबकी बाहें मेरी ही बाहें हैं. मैं अनंत मुख हूँ, क्योंकि मेरे मुखों और छवियों का कोई अंत नहीं है. मैं ब्रह्ममुख हूँ, अर्थात ये समस्त संसार मेरे ही मुख में स्थित हैं. मैं सबका चिंतन करता हूँ. मैं सबका स्मरण करता हूँ. मैं सबका दर्शन करता हूँ. सब मैं ही हूँ और मैं ही सब हूँ. मैं ही रब हूँ.’ (पृ. 40)
     इसी ग्रन्थ में नवेन्दु धर्मदूत कहते हैं, ‘मेरा धर्मग्रन्थ मेरा मन है. मेरा धर्म इंसानियत है और सच्चाई मेरी धार्मिकता है. मेरी आत्मा ही मेरा ईश्वर है. और मनुष्य ही मेरी जाति है.’ (पृ. 340)
     किन्तु ‘मेरी शिक्षाएं’ के अंतर्गत वह 50 शिक्षाएं देते हैं, जिनमें कुछ ये हैं--
·        अपने मन को कभी गिरने मत दो.
·        मनुष्य को रूप, रंग और जाति से कभी मत देखो, वरन उसके भीतर की मनुष्यता का ही दिग्दर्शन करो.
·        ब्राह्मण दुनिया में जातीयता का पोषक है, इसलिए उसके साये को भी अपना शत्रु समझो. (पृ. 341-343)
इसके बाद वह अपने 59 विचारों को ‘मेरे विचार’ के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जिनमें कुछ ये हैं—
·        जो तुम्हारी एक आँख फोड़े, तुम उसकी दोनों ऑंखें फोडो.
·        जो तुम्हारे एक सदस्य का कत्ल करे, तुम उसके दस सदस्यों का कत्ल करो.
·        हथियार आ जाय, तो आज़ादी खुद-ब-खुद चली आती है.
·        हथियार विचार का अंगरक्षक होता है.
·        विचार के असफल होने पर हथियार का विकल्प चुनना चाहिए. (पृ. 349-352)
आगे वह धर्म और अधर्म क्या है, इसे बताते हैं, जो हम डा. आंबेडकर के ग्रन्थ ‘बुद्ध और उनका धर्म’ में भी इसी तरह पाते हैं. कुछ सूत्र देखें--
·        जो धर्म मनुष्यों को वर्णों में बाँटे, वह धर्म नहीं है, अधर्म है.
·        जो धर्म मनुष्य को अछूत समझे, वह धर्म नहीं, अधर्म है.
·        जो धर्म मनुष्य को मुक्त न करे, वह धर्म नहीं है, अधर्म है.
·        जो धर्म भाग्यवाद की भावना जगाए, वह धर्म नहीं है, अधर्म है. (पृ.354-362)
आप देख सकते हैं कि ‘प्रभूदय’ में प्रभु ने अपनी वाणी उतारने में कितनी विसंगतियाँ की हैं. पहले ईश्वर ने कहा कि ‘मैं चतुर्मुख हूँ’, फिर कहा, ‘दशमुख हूँ’. उसके तुरंत बाद कहा, ‘मैं सहस्र मुख हूँ’, और अंत में कहा कि ‘मेरे मुखों का कोई अंत नहीं है.’ स्पष्ट है कि यह अचेतन की अभिव्यक्ति है.
एक और विरोधाभास— ईश्वर कहता है, मैं सबका स्मरण करता हूँ, सबका दर्शन करता हूँ. और मैं ही रब हूँ.’ क्यों भई, रब को सबके स्मरण और दर्शन करने की क्या आवश्यकता पड़ती है?
यही नहीं, जब आत्मा ही ईश्वर है और मन ही धर्मग्रन्थ है, तो ‘प्रभूदय’ धर्मग्रन्थ क्यों आकाश से उतरा? और जब ईश्वर यह शिक्षा दे रहा है कि मनुष्य को रंग, रूप और जाति की दृष्टि से मत देखो, तो तुरंत ही वह यह शिक्षा क्यों दे रहा है कि ब्राह्मण के साये से भी दूर रहो. वह यह शिक्षा भी दे रहा है कि विचार को हथियार से फैलाओ. यानी, यह ईश्वर खुली हिंसा का समर्थन कर रहा है. क्या हिंसा से समानता, स्वतंत्रता और भाईचारा कहीं स्थापित हुआ है?
‘प्रभूदय’ के बाद नवेन्दु महर्षि (प्रभु पैगम्बर) की दूसरी आसमानी किताब ‘विश्व में शांति’ आई, जिसके समर्पण में उन्होंने लिखा है—‘उस परम शक्तिमान को, जिसने यह पुस्तक आकाश से मुझ पर उतारी.’ अब सवाल यह है कि उस परम शक्तिमान ने दूसरी आसमानी किताब क्यों उतारी? क्या पहली किताब ‘प्रभूदय’ में ईश्वर ने कुछ गलतियाँ कर दी थीं? खैर, इस दूसरी आसमानी किताब के ‘आमुख’ में नवेन्दु महर्षि (प्रभु पैगम्बर) लिखते हैं, ‘यह सन्देश अखिल ब्रह्मांड में जो सर्व व्याप्त है, उसी के द्वारा मुझ तक प्रेषित हुआ है, और मेरे द्वारा तुम तक.’ आमुख के अंत में वह अपना नाम इस तरह लिखते हैं— ‘आपका शुभ चिंतक, जयप्रकाश नवेन्दु महर्षि (अवतार).’ यानी इस दूसरी किताब में वह पैगम्बर से अवतार हो गए हैं. जाहिर है कि जिस मानसिक अवस्थिति में वह विचरण कर रहे हैं, उसमें वह कुछ भी हो सकते हैं. ईश्वर भी और अवतार भी.
     इस ग्रन्थ के पहले अध्याय में ईश्वर ने असभ्य लोगों को रेखांकित किया गया है. उसकी दृष्टि में वे सब असभ्य हैं-- ‘जो तुम्हें छोटा कहते हैं, जो तुमसे भेदभाव करते हैं, जो तुम्हारी अवहेलना करते हैं, जो तुम्हारी हंसी उड़ाते हैं, जो तुम पर व्यंग कसते हैं, जो तुम्हारे मन को ठेस पहुंचाते हैं, जो तुम्हारी प्रतिभा को नहीं मानते हैं, जो तुम्हारे विचारों को गलत कहते हैं, जो तुम्हारी प्रगति रोकते हैं, जो तुम्हें गाली देते हैं, जो तुमसे हिंसा करते हैं, जो नस्लवादी, रंगवादी और जातिवादी हैं, जो अंतरजातीय विवाह करने से रोकते हैं, इत्यादि, इन असभ्य लोगों की लम्बी फहरिस्त है, जिसमें वे लोग भी आ गए हैं, जो उसके विचारों से सहमत नहीं हैं.
‘विश्व में शांति’ ग्रन्थ में ईश्वर का ‘दलितोन्मुख दृष्टिकोण’ हैं. वह कहता है—
‘कुछ मुट्ठी भर लोग ही हैं, जो संसार की तमाम सुविधाओं का मज़ा ले रहे हैं. आनंद ले रहे हैं. उपयोग कर रहे हैं. जबकि समस्त संसार की आबादी का नब्बे प्रतिशत वर्ग हिस्सा मेहनत कर रहा है. संघर्ष कर रहा है. कुछ तकलीफों से दो-चार हो रहा है. असहाय है. लाचार है. बेकार है. विवश है. मजबूर है. शिक्षा से स्वास्थ्य से वंचित है.’ (पृ. 277)
यह समाज का सचमुच यथार्थ चित्रण है. पर इस कटु समाज-व्यवस्था को बदलने का क्या उपाय है? इसे न पैगम्बर नवेन्दु बताते हैं और न उनका ईश्वर बताता है. अगर नब्बे प्रतिशत लोगों के दुखों का अंत धर्म के पास होता, तो समाज कब का बदल गया होता. सच तो है कि धर्म ही उनकी दुर्दशा का कारण है.
फिर इसी ग्रन्थ में ईश्वर यह शिक्षा भी दे रहे हैं— ‘अपना अँधेरा खुद मिटाओ...अपना उत्पीड़न खुद मिटाओ....अपना शोषण खुद मिटाओ...अपना जुल्म खुद मिटाओ...अपनी समस्याएं खुद सुलझाओ...अपना उत्थान खुद करो.’ (पृ. 453-454) यह बुद्ध के ‘अप्प दीपोभव’ की नकल लगती है. सवाल यह है कि जब सबकुछ खुद ही करना है, तो फिर ईश्वर और उसके गुड्डे की क्या जरूरत है?
2016 में नवेन्दु महर्षि का 1152 पृष्ठों का एक और विशाल ग्रन्थ ‘प्रभु प्रकाश’ आया. इस ग्रन्थ में उन्होंने पूर्व की पुस्तकें ‘मैं प्रभुदूत हूँ’, ‘लोकधर्म’, ‘प्रभूदय’ और ‘विश्व में शांति’ को भी शामिल कर लिया है. आरम्भ में ‘दो टूक’ में कहा गया है, ‘हे विश्व सज्जनों ! संसार में हजारों साल से जिस पुस्तक की प्रतीक्षा हो रही थी, अब वह पुस्तक आ चुकी है. आकाश से अवतरित हो चुकी है और इस भारत भूमि पर उसका सृजन प्रभु समाज की स्थापना और सत्य की रक्षार्थ हो चुका है.’ इसके अंत में लिखा है—‘तुम्हारा आशीष दाता ‘प्रभु’ (केअर आफ) जयप्रकाश नवेन्दु महर्षि.’
इस विशाल ग्रन्थ के पहले खंड ‘प्रभु की ओर प्रस्थान’ में लेखक ने अपनी आत्मकथा के कुछ पृष्ठ दिए हैं, जिसमें उसने इस बात पर प्रकाश डाला है कि किस तरह ईश्वर ने उन्हें अपना दूत बनाया. इसके बाद दूसरे खंड में ‘प्रभु से बातचीत’ है. यह बहुत ही रोचक बातचीत है. इसमें प्रभु नवेन्दु जी से बात करता है. इसमें भी दो उपखंड हैं, पहले में ईश्वर उन्हें देहरादून से मुम्बई बुलाता है और दूसरे में वह उन्हें मुंबई से देहरादून वापस भेजने को कहता है. पहले मुम्बई वाला वार्तालाप सुनें—
‘एक सुबह जब मैं कमरे में शांत चित अकेला बैठा था, मुझे प्रभु का स्वर सुनाई दिया. प्रभुने कहा— ‘अय नवेन्दु! सच यह है कि देहरादून में तुम्हारे बहुत दुश्मन बन गए थे. विरोधी बन गए थे. षडयंत्रकारी बन गए थे. प्रतिद्वंदी बन गए थे. वे तुम्हें चोट पंहुचा सकते थे. वे तुम्हारा नुक्सान कर सकते थे. वे तुम्हारा अहित कर सकते थे. वे तुम्हें शारीरिक क्षति पहुंचा सकते थे. तुम्हें उनसे दूर करना बहुत जरूरी हो गया था. इसीलिए मैंने तुम्हें अपनी ओर खीचा है. अपने संरक्षण में लिया है, मुम्बई बुलाया है.’ (पृ. 51)
और नवेन्दु मुम्बई चले जाते हैं. सवाल यह है कि ईश्वर ने उन्हें मुम्बई ही क्यों बुलाया? क्या देहरादून ईश्वर के क्षेत्र में नहीं आता था? क्या वह सर्वशक्तिमान उन्हें देहरादून में ही अपने संरक्षण में नहीं ले सकता था? या वह ईश्वर मुम्बई में ही रहता था?
     अब देहरादून वापिस भेजने का वार्तालाप सुनें—
     ‘एक सुबह जब मैं कमरे में शांत चित अकेला बैठा था, मुझे प्रभु का स्वर सुनाई दिया. प्रभु ने कहा— ‘अय नवेन्दु! तुम्हें मुम्बई नहीं रहना है. तुम्हें देहरादून लौटना है. लौटने की तैयारी करो.’ मैंने कहा, ‘मैं देहरादून नहीं लौटूंगा. मैं वहाँ से चला आया हूँ.’ प्रभु ने पूछा, ‘क्यों नहीं लौटना चाहते हो?’ मैंने कहा, ‘वहाँ उत्पीड़न  है, दमन है, शोषण है, भेदभाव हैं. ऐसी जगह मैं अब और रहना नहीं चाहता.’ प्रभु ने कहा, ‘तुम ठीक कहते हो, वहाँ दमन है, शोषण है, उत्पीड़न है. मगर अब तुम्हें उसे मिटाना है. उसका सामना करना है. जिसके लिए तुम्हें लिखना होगा. दुनिया को बदलना होगा और जिसके लिए तुम्हें वापिस लौटना होगा.’ मैंने कहा, ‘ठीक है. मैं ऐसा ही करूँगा.’ प्रभु ने कहा, ‘यही उचित है. ऐसा ही करो.’ (पृ. 79-80)
     और नवेन्दु देहरादून लौट जाते हैं. यहाँ सवाल यह उठता है कि क्या दमन, शोषण और उत्पीड़न सिर्फ देहरादून में ही था, मुम्बई में नहीं था? और क्या नवेन्दु के देहरादून वापिस लौट आने के बाद देहरादून से दमन, शोषण और उत्पीड़न मिट गया? या उन्होंने मिटा दिया? क्या ईश्वर उन्हें मुम्बई में ही रह कर दुनिया को बदलने का काम नहीं करा सकते थे?
हालाँकि, यह धारणा अपने आप में बड़ी क्रान्तिकारी है कि नवेन्दु महर्षि एक अवर्ण ईश्वर के अवतार हैं. 1914 में हीरा डोम ने अपनी एकमात्र उपलब्ध कविता में लिखा था कि ईश्वर मगर के मुंह से गजराज को बचाता है, द्रोपदी की लाज बचाता है, खम्भा फाड़कर प्रहलाद को बचाता है, पर वह हम अछूतों की रक्षा नहीं करता? उन्होंने कविता में सही सवाल उठाया था कि क्या ईश्वर भी हमें छूने से डरता है? हीरा कवि के इस सवाल में यह भाव छिपा था कि ईश्वर सवर्ण है. हीरा डोम के लगभग कई सौ साल पहले कबीर ने इस सवर्ण ईश्वर को नकारा था. उन्होंने चिल्ला-चिल्ला कर कहा था कि उनका ईश्वर वर्ण, जाति और रंग विहीन है. वह निराकार और निरूप है. उसका वास न मन्दिर में है और न मस्जिद में है. वह लोगों के दिलों में वास करता है. यही बात नवेन्दु भी कहते हैं. तब क्या यह मान लिया जाए कि पांच सौ साल के बाद, जब धर्म और ईश्वर दोनों अप्रासंगिक होने जा रहे हैं, नवेन्दु महर्षि एक अवर्ण ईश्वर के अवतार हो गए हैं? विज्ञान के इस युग में यह मानना ही अपने आप में हास्यास्पद होगा. जब हम नवेन्दु महर्षि के साहित्य को पढ़ते हैं, तो उससे हमें न किसी ईश्वर का बोध होता है और न उसके पैगम्बर का. इसके विपरीत, हमें उसमें एकांत-सेवन के एक अतिवादी, मुम्बई में मिली असफलता से हुए एक हताश, पारिवारिक अशांति से एक बिखरे हुए और सामाजिक भेदभाव से पीड़ित एक कुंठित व्यक्ति का एकालाप दिखाई देता है, जिसने अपनी आभासी दुनिया में अपना सर्वोच्च स्थान अपने आप गढ़ लिया है और जिसका कोई तार्किक आधार नहीं है. यद्यपि, उनकी सामाजिक और दार्शनिक वैचारिकी उनकी आधुनिक और वैज्ञानिक सोच का परिचय देती है, जिसमे वह एक लेखक के रूप में और भी महत्वपूर्ण काम कर सकते थे, परन्तु, उनके दिमाग में घुसे ईश्वर और पैगम्बर के कीड़े का क्या किया जाए, जिसने उनकी अवस्थिति को दयनीय बना दिया है. हमारी शुभ कामनाएं उनके साही कर सकते हैं कि वह अपने अवचेतन से बाहर निकलें और चेतन से जुड़ें. इसी में उनकी चेतना प्रखर होगी.
(19 जनवरी 2017)



कोई टिप्पणी नहीं: