गुरुवार, 28 जनवरी 2016

30 जनवरी 2016 को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में मध्यकालीन सन्त: स्त्री सन्दर्भविषय
पर आयोजित कार्यशाला में दिया गया व्याख्यान
भया कबीर उदास: स्त्री सन्दर्भ
(कॅंवल भारती)
       मजदूर घरों के मर्द गरीबी और कर्ज से तंग होकर आज भी पलायन करते हैं और कबीर के समय में भी करते थे। उत्तर प्रदेश के पूर्वान्चल और बिहार से बड़ी संख्या में पुरुष दूसरे राज्यों में काम के लिए जाते हैं। अब तो पुरुष अपनी स्त्रियों को भी साथ ले जाते हैं। लेकिन पहले सिर्फ पुरुष ही पलायन करते थे। आज मोबाइल के युग में वे अपने घर से सैकड़ों-हजारों मील दूर रहकर भी अपने परिवार से बातें कर लेते हैं। लेकिन, पाॅंच-छह सौ साल पहले यह कहाॅं सम्भव था? जब जो पुरुष परदेस जाता था, उसकी स्त्री घर पर रहकर उसकी बाट जोहती थी। घण्टे दिन में, दिन महीनों में और महीने सालों में बदल जाते थे, उसकी स्त्री बाट जोहते-जोहते मर जाती थी। वियोग की इसी पीड़ा की अग्नि में पुरुष भी परदेस में जलता था। कबीर ग्रन्थावली में कबीर की साखियों का एक पूरा अंग बिरह कौ अंगइसी पीड़ा को समर्पित है। कबीर का भाष्य करने वाले पंडितों ने कबीर को रहस्यवादी बनाने की अपनी योजना में इस अंग की साखियों को आत्मा-परमात्मा और साधक-साधना से जोड़कर एक सम्वेदनशील कवि की भावना का सत्यानाश कर दिया है। जबकि, ये साखियाॅं सीधे-सीधे स्त्री के विरह की वेदना की अभिव्यक्तियाॅं हैं।
रात्यूं रूॅंनी बिरहनी, ज्यूॅं बंचैकूॅं कुंज।
कबीर अन्तर प्रजल्या, प्रगट्या बिरहा पुंज।।
       बिरह कौ अंगकी यह पहली साखी है। जैसे क्रौंच अपने प्रिय के प्रेम से वंचित होकर तड़पता है, वैसे ही यह स्त्री अपने प्रियतम से वंचित होकर रातभर रोती है। इसके अन्तस में वियोग की अग्नि जल रही है।
चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभात।
जे जन बिछुटे राम सॅंू, ते दिन मिलै न राति।
कबीर के प्रयोग अदभुत हैं। लेकिन, कबीर के भाष्यकार उनकी साखियों में आए राम शब्द से भ्रमित हो गए हैं। उन्हें लगा कि वह विरह राम के लिए कर रहे हंै। यदि एक संसारी कवि, घर-गृहस्थी वाला कवि, मेहनत-मजदूरी करके जीविका चलाने वाला कवि राम के बिरह में रात दिन रोएगा, तो घर-गृहस्थी के काम कब करेगा, कपड़ा कब बुनेगा, कब बाजार जाएगा? यह विरह ऐसे राम से हो भी कैसे सकता है, जो निर्गुण है, अरूप है? राम तो गरीब-मजदूर समाज की आस्था का स्वाभाविक आधार था, सहारा था। कोई अरूप के प्रेम में सुधबुध कैसे खो सकता है? अब इस साखी को समझें, ‘चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभात,’ चकवी रात को बिछड़ती है, पर प्रभात में चकवे से मिल जाती है। पर, ‘जे जन बिछुटे राम सॅंू, ते दिन मिलै न राति,’ हे राम हमारे जन तो ऐसे बिछड़े हैं कि न रात में मिलते हैं और न दिन में।
बिरहनि ऊभी पंथ सिरि, पंथी बूझै धाईं
एक सबद कहि पीव का, कब रे मिलैंगे आइ।
       मार्मिक अभिव्यक्ति है- स्त्री परदेस से आने वाले राहगीरों से पूछती है, क्या तेरे पीव ने, मेरे पति ने कोई सन्देश भेजा है कि वह कब आकर मिलेंगे? यह एक शब्द सुनने के लिए वह इतनी व्याकुल है कि हर आने वाले से पूछती है।

बिरहिन ऊठै भी पड़ै, दरसन कारनि राम।
मूवाॅं पीछें देहुगे, सो दरसन किहि काम।
       इस स्त्री का पति सालों से नहीं आया है। वह उसके आने या उसका सन्देश आने की बाट जोहते-जोहते तन-मन से इतनी कमजोर हो गई है कि मुझसे तो अब उठकर खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा है। हे राम, अगर वह मेरे मरने के बाद आए, तो सो दरसन किहि काम’, वह दर्शन किस काम के? यह उस स्त्री की व्यथा है, जिसका पति परदेस में है, घर में भी उस पर जुल्म होते हैं और अमीरों तथा सामन्ती व्यवस्था में घर के बाहर भी सुरक्षित नहीं है। वह हॅंस भी नहीं सकती। उसके जीवन में बस रोने के सिवा कुछ नहीं है।
जौं रोऊॅं तो बल घटै, हॅंसौं तो राम रिसाइ।
मनही माॅंहि बिसूरणाॅं, ज्यूॅं घुण काठहि खाइ।
मन ही मन उसको घुटना है। यही घुन लकड़ी की तरह उसके शरीर को खा रहा है।
अन्देसड़ा न भाजिसी, सन्देसो कहियाॅं।
के हरि आयाॅं भाजिसी, के हरि ही पास गयाॅं।
मार्मिक स्वर है- राम से भ्रमित पंडित इस साखी से अपना भ्रम दूर कर सकते हैं। अन्देसड़ा न भाजिसी, सन्देसो कहियाॅं,’ यही दुख है कि उनका कोई सन्देसा नहीं आया है। अब या तो भगवान उसे भेज दे या मुझे ही अपने पास बुला ले। यह उस स्त्री का रुदन है, जिसके पति के आने की सम्भावना खत्म हो गई है।
आई न सकौं तुझपैं, सकॅंू न तूझ बुलाइ।
जियरा यौही लेहुगे, बिरह तपाई तपाई।
       इस स्त्री की पीड़ा घनी है। कह रही है कि मैं तुम्हारे पास आ नहीं सकती और तुम मुझे अपने पास बुला नहीं सकते। तब क्या तड़प-तड़प कर इसी तरह मेरी जान लोगे?
यहु तन जालौं मसि करूॅं, ज्यूॅं धूवाॅं जाइ सरग्गि।
मति वै राम दया करै, बरसि बुझावै अग्गि।
       अत्यन्त मार्मिक- इस स्त्री का विरह इतना तीव्र है कि वह शायद जलकर मृत्यु को गले लगाना चाहती है। कह रही है कि हे राम मुझ पर इतनी दया करना कि जब यह शरीर जलकर राख हो जाय, तो मेरे पति को बादल बनाकर बरसा देना, जिससे यह आग बुझ जाय। शायद इस साखी में पति के मरने पर स्त्री के सती होने की पीड़ा है।
कबीर ने सती होने वाली स्त्री की पीड़ा का बहुत ही मार्मिक और सन्जीदा वर्णन किया है।
कबीर जन मन यौं जल्या, बिरह अगनि सूॅं लागि।
मृतक पीड़ न जाॅंणई, जाणैंगी यहु आगि।
अत्यन्त मार्मिक साखी है। कबीर कहते हैं कि बिरही को आग लगाने के साथ ही (पति के वियोग में सती होने वाली स्त्री को कबीर ने बिरही कहा है) जनमन भी जल गया। जनमन जल गया, यानी एकत्र जनसमूह की सम्वेदनाएॅं भी जल गईं। कबीर कहते हैं, यह जनमन मृतक की पीड़ा को क्या जानेंगे? उसकी पीड़ा को तो यह आग जानेगी।
फाडि़ फुटोला धज करौं, कामलड़ी पहिराउॅं।
जिहि जिहि भेषाॅं हरि मिलै, सोइ सोइ भेष कराउॅं।
       यहाॅं कबीर का अदभुत प्रयोग है-सती के लिए जिस स्त्री को परिवार वाले तैयार करते हैं, उसके सारे रेशमी कपड़े फाड़ कर उसे कम्बल ओड़ा देते हैं। अलग अलग समाजों में अलग अलग प्रथा है। जहाॅं जिस भेष का रिवाज है, वहाॅं उसी भेष में स्त्री को ले जाया जाता है।
नैन हमारे जलि गए, छिन छिन लोड़ैं तुझ।
नाॅं तू मिलै न मैं खुसी, ऐसी वेदन मुझ।
       सती की वेदी पर जिन्दा जलने वाली स्त्री की मार्मिक अभिव्यक्ति है- शास्त्र कहते हैं कि मृतक पति के साथ सती होने वाली स्त्री साक्षात ईश्वर को देखती है। पर वह कहती है-हमारे नैन जल गए, पर न तू मिला, न पति मिला कि मैं खुश होती। ऐसी मेरी वेदना है।
भेला पाया सरप का, भौसागर के माॅंह।
जे छाॅंड़ौं तौ डूबिहौं, गहौं त डसिए बाॅंह।
       साॅंप की नाव से पार होने मार्मिक उपमा है- अगर वह उसे छोड़ता है, तो डूबता है और पकड़े रहता है, तो साॅंप डस लेता है। उसी तरह सती के लिए जाने वाली स्त्री की वेदना है, अगर वह जलने से इनकार करती है, तो समाज उसे जीने नहीं देगा और चिता पर बैठती है, तो आग उसे जलाकर मार देगी। दोनों हालात में मृत्यु निश्चित है।
हाड़ जलै ज्यूॅं लाकड़ी, केस जलैं ज्यूॅं घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।
       सती स्त्री की वेदना पर कबीर की यह सबसे गम्भीर टिप्पणी है। जरा यह देख लें कि कबीर के भाष्यकर्ता इसका अर्थ क्या करते हैं? डा. युगेश्वर का भाष्य है- ऐ मनुष्य, देखो मरने के बाद हड्डियाॅं लकड़ी के समान जलती हैं। केश घास जैसे जलते हैं। सारे शरीर को जलते देखकर सन्त कबीर दुखी हो गए। इस शरीर की क्यों इतनी सेवा की गई?
यह अर्थ डा. युगेश्वर ने अपने संपादित ग्रंथ कबीर समग्र’ (प्रथम भाग) में किया है। इन महाशय ने कबीर को बिल्कुल नासमझ समझ लिया कि उन्होंने अपने जीवन में कोई चिता ही जलती हुई न देखी होगी? क्या मृतक के दाह-संस्कार को देखकर कबीर दुखी हुए होंगे? क्या कबीर नहीं जानते थे कि हिन्दुओं में मृतक को जलाया जाता है? क्या वे नहीं जानते थे कि जो जन्मा है, उसे मरना भी होता है? फिर, मृतक को जलाने पर कैसा दुख? आगे, वह यह भी लिख रहे हैं, ‘ऐसे शरीर की क्यों इतनी सेवा की गयी?’ तब क्या करे आदमी? खाना-पीना, नहाना-धोना सब बन्द कर दे? डा. युगेश्वर यह न समझ सके कि इस साखी में कबीर मृतक शरीर को जलता देखकर दुखी नहीं हो रहे हैं, बल्कि वे जिन्दा स्त्री को जलाये जाने पर दुखी हो रहे हैं। वे इसलिये उदास हैं, क्योंकि एक स्त्री को जिन्दा जलाया जा रहा है। पहले शरीर में आग लगी, फिर केश जलना शुरु हुए और फिर सारा शरीर जलने लगा। यही कबीर के उदास होने का कारण है। कबीर की यह करुणा और सम्वेदना उदासीके रूप में सती के प्रति प्रकट हुई है।
कबीर ग्रन्थावली में, पदावली का पहला पद ही सती के ऊपर है। लेकिन, कबीर के द्विज पाठकों ने उसे विवाह का पद बना दिया, यानी दुलहन मंगलाचार गा रही है और कबीर राजा राम के साथ ब्याह करने चले हैं। उन्होंने कबीर को पुरुष से स्त्री बना दिया। यह पद इस प्रकार है-

दुलहनी गावहु मंगलचार।
हम घरि आये हो राजा राम भरतार।।
तन रत करि मैं मन रत करिहूँ, पंचतत्त बराती।
राँमदेवा मोरैं पाँहुनैं आये मैं जोबन मैं माती।।
सरीर सरोवर बेदी करिहूँ, ब्रह्मा वेद उचार।
राँमदेव सँगि भाँवरी लैहूँ, धंनि धंनि भाग हमार।।
सुर तेतीसूँ कौतिग आये, मुनिवर सहस अठ्यासी।
कहै कबीर हँम ब्याहि चले हैं, पुरिष एक अबिनासी।।


कबीर न ब्रह्मा में विश्वास करते हैं, न वेदों में, न तैंतीस कोटि देवताओं को मानते, हैं और न वे ब्राह्मण ऋषि-मुनियों को महत्व देते हैं। उनके राम राजा भी नहीं हैं, निर्गुण और निराकार हैं। फिर कबीर भी स्त्री नहीं हैं, जो राजा राम पुरुष से विवाह करेंगे? द्विज आचार्यों ने कबीर में सखी-भाव को आरोपित कर, उन्हें स्त्री-वेश देने का ब्राह्मणी-कर्म भी किया है। कबीर ऐसे ढकोसलों में न पड़ते हैं और न उनको मानते हैं। तब, इस पद का क्या अर्थ है? यह जानने के लिये हिन्दी के आचार्यों ने अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं किया, यह पद कबीर ग्रन्थावली के जितने भी नुसखे (गुटके) मौजूद हैं, सभी में पहले पद के रूप में शामिल हैं। अतः यह पद प्रक्षिप्त नहीं हो सकता। लेकिन इस तरफ किसी विद्वान का ध्यान नहीं गया, सिवाय अनुराधा के, कि कबीर का यह पद सरोवर के किनारे बेदी पर एक जवान हिन्दू स्त्री को, उसके पति के मरने पर, पति के शव के साथ जिन्दा जलाकर सती करने के लिये ले जाय जाने का वर्णन है। अनुराधा पहली विद्वान हैं, जिन्होंने इस दिशा में हिन्दी मानस का ध्यान आकर्षित किया है। वे लिखती हैं-

‘‘प्रसिद्ध पद दुलहिनी मोरी गावहुँ मंगलचारको मंगलाचारशब्द पर जोर देकर सीधे-सीधे विवाह उत्सव का गीत व्याख्यायित किया गया। लेकिन, विवाह में सरोवर के किनारे वेदीबनाने का विधान तो है ही नहीं और राजस्थान में सती के गीतों को मंगलाचारकहते हैं। यहाँ यह बात उठाते ही व्याख्या खण्ड-खण्ड हो जाती है। सरोवरपर जोर देते ही अर्थ-विधान दुल्हनको सतीके लिये लायी गयी स्त्री में बदल देता है।’’ (हंस, फरवरी 2008, पृष्ठ 39)

अनुराधा ने इब्बनबतूता के यात्रा वृत्तांत से इसकी पुष्टि की है। वे लिखती हैं-

‘‘तत्कालीन दौर के घुमक्कड़ इब्बनबतूता ने अपने यात्रा-वृत्तांत में लिखा है, ‘तीन कोस चलने के बाद हम एक ऐसी जगह पहुँचे जहाँ जल की बहुतायत थी और वृक्षों की सघनता के कारण अंधकार छाया हुआ था। यहाँ चार गुंबद (मन्दिर) बने हुए थे और चारों में एक देवता की मूर्ति प्रतिष्ठित थी। इन चारों के मध्य एक ऐसा सरोवर था, जहाँ वृक्षों की सघन छाया होने के कारण धूप नाम को भी न थी। इस कुंड के पास नीचे स्थल में अग्नि दहकाई गयी। पन्द्रह पुरुषों के हाथों में लकडि़यों के गट्ठे बँधे हुए थे और दस पुरुष अपने हाथ में बड़े-बड़े कुंदे लिये खड़े थे। नगाड़े, नौबत और शहनाई बजाने वाले स्त्रियों की प्रतीक्षा में खड़े थे। इतना कहकर वह प्रणाम कर तुरन्त उसमें कूद पड़ी। बस नगाड़े, ढोल, शहनाई और नौबत बजने लगी। उपस्थित जनता भी चिल्लाने लगी।’’

‘‘कबीर के उक्त पद के काव्य संवेदन को इब्बनबतूता के वर्णन के साथ पढ़ा जाय तो पितृपक्षीय दृष्टियों का वह कमाल उजागर हो जाता है, जो कि काव्य संवेदना को रहस्यवाद का जामा पहनाकर स्त्री इतिहास के करुणतम पक्ष को भी जिन्दा दफन कर देता है। स्त्री के जिन्दा जलाये जाने के अनुष्ठान को विवाह के उत्सव सा दिखा डालता है।’’ (वही, पृष्ठ 39-40)

अनुराधा इस बात को स्वीकार करती हैं कि कबीर सती के रूप में प्रचलित अत्याचारों से व्यथित हैं। यद्यपि वे साईं से मिलन के लिये सती के रूपक का भी प्रयोग करते हैं, पर सती के नाम पर जिस नृशंसता से विधवा स्त्री को जलाकर मार दिया जाता है, उससे वे आहत होते हैं। उनके काव्य में ऐसी घटनाओं के अनेक सजीव चित्रण मिलते हैं, जिन्हें पढ़कर लगता है कि वे अपने समय के सचमुच ही एक जागरूक द्रष्टा थे। वे एक साखी में उस सती स्त्री का वर्णन कर रहे हैं, जो पति का स्मरण करते हुए जलने के लिये घर से निकलती है और ढोल-नगाड़ों के शब्द सुनकर ही अचेत हो जाती है। यथा-

सती जलन कूँ नीकली, पीव का सुमरि सनेह।
सबद सुनत जीव निकल्या, भूलि गयी सब देह।।
    
बिरह को अंगमें कबीर की अनेक साखियों का सम्बन्ध सती-प्रथा से ही है। एक साखी में वे कहते हैं-

बिरह जलाई मैं जलौं, जलती जलहरि जाउँ।
मो देख्याँ जलहरि जलै, संतौ कहाँ बुझाउँ।।
    

इसका शाब्दिक अर्थ है, बिरह में जलती हुई स्त्री जलहर (सरोवर) जा रही है। पर उसे लगता है कि जलहर ही जल रहा है। अनुराधा ने इसकी व्याख्या करते हुए बड़े मार्के की बात कही है ‘‘सती की घटना को जिस सरोवर के किनारे अंजाम दिया जाता है, यदि उसे सरोवर के दूसरे किनारे बैठकर देखा जाये तो निश्चित रूप से जलने वाली परछाईं के कारण सरोवर भी जलता मालूम होगा। चारों तरफ आग ही आग दिखायी दे रही है। सती के लिये तो यह आग ही विभीषिका है। इससे साफ है कि कबीर अकेले हैं, जो इस तरह की घटनाओं के साक्षी हैं। वे समाज के ऐसे क्रिया-कलापांे से संवेदित होते थे।’’
कबीर ने एक पद में एक ऐसी स्त्री का वर्णन किया है, जो गौने के बाद ससुराल आयी है, और जिसने अपने पति का मुँह तक नहीं देखा है। पर उसे पति की लाश के साथ जिन्दा जलने के लिये मजबूर किया जा रहा है। यथा-

मैं सामने पीव गौंहनि आई।
साँईं संगि साध नहीं पूगी, गयौ जोबन सुपिनाँ की नाँई।।
पंच जना मिलि मंडप छायौ, तीन जनां मिलि लगन लिखाई।
सखी सहेली मंगल गावैं सुख-दुख माथै हलद चढ़ाई।।
नाँनाँ रंगैं भाँवरि फेरी, गांठि जोरि बावै पति ताई।
पूरि सुहाग भयो बिन दूलह, चैक कै रंगि धरयो सगौ भाई।।
अपने पुरिष मुख कबहूँ न देख्यौ, सती होत समझी समझाई।
कहै कबीर हूँ सर रचि मरिहूँ, तिरौ कंत ले तूर बजाई।।

इस पद में सती अपनी हृदय विदारक व्यथा कहती है मेरा पीव (पति) गौना कराने आ रहा था। (वह मर गया) मेरा यौवन सपने की तरह खत्म हो गया। घर के रीति-रिवाज के मुताबिक उसे सती होना है। वह अपने विवाह को याद करती है कि कैसे पाँच आदमियों ने मंडप बनाया और तीन लोगों ने लगन लिखी। हल्दी चढ़ी, और पति के साथ गाँठ जोड़कर भाँवरें पड़ीं और आज बिना पति के सारा सुहाग खत्म हो गया। अब सगा भाई ही उसे सती होने के लिये मजबूर कर रहा है। जिस ब्याहता ने पति का मुँह तक नहीं देखा, उसे समझा-बुझाकर सती करने के लिये ले जाया जा रहा है।

       कबीर ने इस पद में जिस घटना का चित्र खींचा है, ऐसी ही एक घटना का जिक्र रिज्कुल्लाह मुश्ताकी की किताब वाव़फेआते मुश्ताकीमें मिलता है, जिसे प्रो. ओमप्रकाश गुप्ता ने अपनी पुस्तक कबीर और समकालीन इतिहासमें दर्ज किया है।
सती से सम्बन्धित कबीर के पदों में आध्यात्मिक शब्दों का प्रयोग बहुत कम हुआ है, लगभग न के बराबर। ऐसे पद सीधे आँखों देखे सामाजिक चित्र हैं। ऐसा ही एक पद इस प्रकार है-

रैनि गयी मति दिन भी जाइ।
भवर उड़े बग बैठै आइ।।
काँचे करवै रहै न पानी, हंसि उड्या काया कुमिलाँनी।।
थरहर थरहर कंपै जीव, नाँ जानूँ का करिहै पीव।
कऊवा उड़ावत मेरी बहियाँ पिराँनी, कहै कबीर मेरी कथा सिराँनी।।
  
इस पद में जरा भी आध्यात्मिकता नहीं है। इसमें कबीर ने उस स्त्री के अन्तद्र्वन्द्व को बिम्बित किया है, जो सती होना नहीं चाहती। इसी द्वन्द्व में रात बीत गयी है और दिन भी बीतने वाला है। जिस तरह कच्ची मिट्टी के करवै में पानी नहीं रुक सकता (वह स्वयं पानी में घुलकर नष्ट हो जाता है) उसी तरह मृतक का शव भी कुम्हलाने लगा है (सड़ने लगा है) वह यह सोचकर थर-थर काँप रही है कि पता नहीं, मृतक पति उसके साथ क्या करेगा। यहाँ अनुराधा ने सही संकेत किया है कि विधवा के ‘‘दिमाग पर यह हावी कर दिया गया है कि सती न होने पर पति भूत बनकर कुछ बुरा करेगा, तुम्हें जीने नहीं देगा।’’ ‘नाँ जाँनूँ का करि है पीवमें इशारा इसी ओर है। कौए बार-बार लाश को नोचने के लिये आ रहे हैं, जिन्हें उड़ाते-उड़ाते उसकी बाहें थक गयी हैं। अन्त में कबीर बड़ी मार्मिक बात कहते हैं कहै कबीर मेरी कथा सिराँनी।अर्थात् वह स्त्री कहती है, मेरी कथा मेरी जिन्दगी भी यहीं खत्म होती है।

कबीर ने हिन्दुओं की इस मान्यता का खण्डन किया है कि विधवा स्त्री स्वेच्छा से सती होती थी। हिन्दू उसे सती होने के लिये बाध्य करते थे। चिता तक ले जाने से पहले उसे भाँग पिलाकर इतना नशे में कर दिया जाता था कि वह अपनी सुध-बुध खो बैठती थी। फिर उसे चिता पर बैठा कर जला दिया जाता था। उसकी चीत्कारें सुनायी न दें, इसलिये ढोल नगाड़े बजाये जाते थे, वह चिता से निकलकर भागे नहीं, इसलिये उसके हाथ-पैर बाँध दिये जाते थे और चिता के चारों ओर मोटे-मोटे डंडे लेकर लोग खड़े होते थे, ताकि यदि वह चिता से उठकर भागने की कोशिश करे, तो वे उसे डंडों से फिर से आग में ढकेल देते थे। कबीर की दृष्टि में यह स्त्री की नृशंस हत्या थी, जिसे सती का नाम दिया गया था। कबीर ने एक स्त्री के मुख से इसका बहुत ही मार्मिक विरोध कराया है। यथा-

हौं तोहि पूछौं हे सखी, जीवत क्यूँ न मराइ।
मूँवा पीछै सत करै, जीवत क्यूँ न कराइ।।
  
इस साखी में स्त्री अपनी वेदना को अपनी सखी के समक्ष प्रकट कर रही है। सती होने के लिये बाध्य की जा रही यह स्त्री सखी से कह रही है, हे सखी, मुझे तब ही क्यों न मार दिया, जब वह (पति) जीवित थे? उनके मरने के बाद मेरे सत की परीक्षा क्यों ली जा रही है। जब वह जीवित थे, तब मेरे सत की परीक्षा क्यों नहीं ली गयी?

       इन साखियों के प्रकाश में कबीर स्त्री वेदना के अपने दौर के सबसे संजीदा और सम्वेदनशील कवि हैं। अब रहा सवाल उन पदों का, जिन्हें आधार बनाकर कबीर पर स्त्री विरोधी होने का आरोप है, इस सन्दर्भ में यह समझने की जरूरत है कि कबीर ने कामी और कामिनी इन दो शब्दों का प्रयोग किया है। ये दोनों शब्द व्यभिचारी पुरुष और स्त्री के लिए हैं। और कबीर ने इन दोनों की निन्दा की है। इसके बावजूद, कबीर दुराचार के लिए स्त्री को दोषी नहीं मानते हैं। आज भी पितृ सत्ता के लोग स्त्री को ही दोष देते हैं। पर कबीर कहते हैं-
नारी जननी जगत की, पाल पोस दे तोष।
मूरख राम बिसार कर, ताहि लगावैं दोष।
       इस साखी का उल्लेख प्रभाकर श्रोत्रिय ने अपनी पुस्तक कबीर: विविध आयाममें किया है।
23 जनवरी 2016

      









30 जनवरी 2016 को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में मध्यकालीन सन्त: स्त्री सन्दर्भविषय
पर आयोजित कार्यशाला में दिया गया व्याख्यान
भया कबीर उदास: स्त्री सन्दर्भ
(कॅंवल भारती)
       मजदूर घरों के मर्द गरीबी और कर्ज से तंग होकर आज भी पलायन करते हैं और कबीर के समय में भी करते थे। उत्तर प्रदेश के पूर्वान्चल और बिहार से बड़ी संख्या में पुरुष दूसरे राज्यों में काम के लिए जाते हैं। अब तो पुरुष अपनी स्त्रियों को भी साथ ले जाते हैं। लेकिन पहले सिर्फ पुरुष ही पलायन करते थे। आज मोबाइल के युग में वे अपने घर से सैकड़ों-हजारों मील दूर रहकर भी अपने परिवार से बातें कर लेते हैं। लेकिन, पाॅंच-छह सौ साल पहले यह कहाॅं सम्भव था? जब जो पुरुष परदेस जाता था, उसकी स्त्री घर पर रहकर उसकी बाट जोहती थी। घण्टे दिन में, दिन महीनों में और महीने सालों में बदल जाते थे, उसकी स्त्री बाट जोहते-जोहते मर जाती थी। वियोग की इसी पीड़ा की अग्नि में पुरुष भी परदेस में जलता था। कबीर ग्रन्थावली में कबीर की साखियों का एक पूरा अंग बिरह कौ अंगइसी पीड़ा को समर्पित है। कबीर का भाष्य करने वाले पंडितों ने कबीर को रहस्यवादी बनाने की अपनी योजना में इस अंग की साखियों को आत्मा-परमात्मा और साधक-साधना से जोड़कर एक सम्वेदनशील कवि की भावना का सत्यानाश कर दिया है। जबकि, ये साखियाॅं सीधे-सीधे स्त्री के विरह की वेदना की अभिव्यक्तियाॅं हैं।
रात्यूं रूॅंनी बिरहनी, ज्यूॅं बंचैकूॅं कुंज।
कबीर अन्तर प्रजल्या, प्रगट्या बिरहा पुंज।।
       बिरह कौ अंगकी यह पहली साखी है। जैसे क्रौंच अपने प्रिय के प्रेम से वंचित होकर तड़पता है, वैसे ही यह स्त्री अपने प्रियतम से वंचित होकर रातभर रोती है। इसके अन्तस में वियोग की अग्नि जल रही है।
चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभात।
जे जन बिछुटे राम सॅंू, ते दिन मिलै न राति।
कबीर के प्रयोग अदभुत हैं। लेकिन, कबीर के भाष्यकार उनकी साखियों में आए राम शब्द से भ्रमित हो गए हैं। उन्हें लगा कि वह विरह राम के लिए कर रहे हंै। यदि एक संसारी कवि, घर-गृहस्थी वाला कवि, मेहनत-मजदूरी करके जीविका चलाने वाला कवि राम के बिरह में रात दिन रोएगा, तो घर-गृहस्थी के काम कब करेगा, कपड़ा कब बुनेगा, कब बाजार जाएगा? यह विरह ऐसे राम से हो भी कैसे सकता है, जो निर्गुण है, अरूप है? राम तो गरीब-मजदूर समाज की आस्था का स्वाभाविक आधार था, सहारा था। कोई अरूप के प्रेम में सुधबुध कैसे खो सकता है? अब इस साखी को समझें, ‘चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभात,’ चकवी रात को बिछड़ती है, पर प्रभात में चकवे से मिल जाती है। पर, ‘जे जन बिछुटे राम सॅंू, ते दिन मिलै न राति,’ हे राम हमारे जन तो ऐसे बिछड़े हैं कि न रात में मिलते हैं और न दिन में।
बिरहनि ऊभी पंथ सिरि, पंथी बूझै धाईं
एक सबद कहि पीव का, कब रे मिलैंगे आइ।
       मार्मिक अभिव्यक्ति है- स्त्री परदेस से आने वाले राहगीरों से पूछती है, क्या तेरे पीव ने, मेरे पति ने कोई सन्देश भेजा है कि वह कब आकर मिलेंगे? यह एक शब्द सुनने के लिए वह इतनी व्याकुल है कि हर आने वाले से पूछती है।

बिरहिन ऊठै भी पड़ै, दरसन कारनि राम।
मूवाॅं पीछें देहुगे, सो दरसन किहि काम।
       इस स्त्री का पति सालों से नहीं आया है। वह उसके आने या उसका सन्देश आने की बाट जोहते-जोहते तन-मन से इतनी कमजोर हो गई है कि मुझसे तो अब उठकर खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा है। हे राम, अगर वह मेरे मरने के बाद आए, तो सो दरसन किहि काम’, वह दर्शन किस काम के? यह उस स्त्री की व्यथा है, जिसका पति परदेस में है, घर में भी उस पर जुल्म होते हैं और अमीरों तथा सामन्ती व्यवस्था में घर के बाहर भी सुरक्षित नहीं है। वह हॅंस भी नहीं सकती। उसके जीवन में बस रोने के सिवा कुछ नहीं है।
जौं रोऊॅं तो बल घटै, हॅंसौं तो राम रिसाइ।
मनही माॅंहि बिसूरणाॅं, ज्यूॅं घुण काठहि खाइ।
मन ही मन उसको घुटना है। यही घुन लकड़ी की तरह उसके शरीर को खा रहा है।
अन्देसड़ा न भाजिसी, सन्देसो कहियाॅं।
के हरि आयाॅं भाजिसी, के हरि ही पास गयाॅं।
मार्मिक स्वर है- राम से भ्रमित पंडित इस साखी से अपना भ्रम दूर कर सकते हैं। अन्देसड़ा न भाजिसी, सन्देसो कहियाॅं,’ यही दुख है कि उनका कोई सन्देसा नहीं आया है। अब या तो भगवान उसे भेज दे या मुझे ही अपने पास बुला ले। यह उस स्त्री का रुदन है, जिसके पति के आने की सम्भावना खत्म हो गई है।
आई न सकौं तुझपैं, सकॅंू न तूझ बुलाइ।
जियरा यौही लेहुगे, बिरह तपाई तपाई।
       इस स्त्री की पीड़ा घनी है। कह रही है कि मैं तुम्हारे पास आ नहीं सकती और तुम मुझे अपने पास बुला नहीं सकते। तब क्या तड़प-तड़प कर इसी तरह मेरी जान लोगे?
यहु तन जालौं मसि करूॅं, ज्यूॅं धूवाॅं जाइ सरग्गि।
मति वै राम दया करै, बरसि बुझावै अग्गि।
       अत्यन्त मार्मिक- इस स्त्री का विरह इतना तीव्र है कि वह शायद जलकर मृत्यु को गले लगाना चाहती है। कह रही है कि हे राम मुझ पर इतनी दया करना कि जब यह शरीर जलकर राख हो जाय, तो मेरे पति को बादल बनाकर बरसा देना, जिससे यह आग बुझ जाय। शायद इस साखी में पति के मरने पर स्त्री के सती होने की पीड़ा है।
कबीर ने सती होने वाली स्त्री की पीड़ा का बहुत ही मार्मिक और सन्जीदा वर्णन किया है।
कबीर जन मन यौं जल्या, बिरह अगनि सूॅं लागि।
मृतक पीड़ न जाॅंणई, जाणैंगी यहु आगि।
अत्यन्त मार्मिक साखी है। कबीर कहते हैं कि बिरही को आग लगाने के साथ ही (पति के वियोग में सती होने वाली स्त्री को कबीर ने बिरही कहा है) जनमन भी जल गया। जनमन जल गया, यानी एकत्र जनसमूह की सम्वेदनाएॅं भी जल गईं। कबीर कहते हैं, यह जनमन मृतक की पीड़ा को क्या जानेंगे? उसकी पीड़ा को तो यह आग जानेगी।
फाडि़ फुटोला धज करौं, कामलड़ी पहिराउॅं।
जिहि जिहि भेषाॅं हरि मिलै, सोइ सोइ भेष कराउॅं।
       यहाॅं कबीर का अदभुत प्रयोग है-सती के लिए जिस स्त्री को परिवार वाले तैयार करते हैं, उसके सारे रेशमी कपड़े फाड़ कर उसे कम्बल ओड़ा देते हैं। अलग अलग समाजों में अलग अलग प्रथा है। जहाॅं जिस भेष का रिवाज है, वहाॅं उसी भेष में स्त्री को ले जाया जाता है।
नैन हमारे जलि गए, छिन छिन लोड़ैं तुझ।
नाॅं तू मिलै न मैं खुसी, ऐसी वेदन मुझ।
       सती की वेदी पर जिन्दा जलने वाली स्त्री की मार्मिक अभिव्यक्ति है- शास्त्र कहते हैं कि मृतक पति के साथ सती होने वाली स्त्री साक्षात ईश्वर को देखती है। पर वह कहती है-हमारे नैन जल गए, पर न तू मिला, न पति मिला कि मैं खुश होती। ऐसी मेरी वेदना है।
भेला पाया सरप का, भौसागर के माॅंह।
जे छाॅंड़ौं तौ डूबिहौं, गहौं त डसिए बाॅंह।
       साॅंप की नाव से पार होने मार्मिक उपमा है- अगर वह उसे छोड़ता है, तो डूबता है और पकड़े रहता है, तो साॅंप डस लेता है। उसी तरह सती के लिए जाने वाली स्त्री की वेदना है, अगर वह जलने से इनकार करती है, तो समाज उसे जीने नहीं देगा और चिता पर बैठती है, तो आग उसे जलाकर मार देगी। दोनों हालात में मृत्यु निश्चित है।
हाड़ जलै ज्यूॅं लाकड़ी, केस जलैं ज्यूॅं घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।
       सती स्त्री की वेदना पर कबीर की यह सबसे गम्भीर टिप्पणी है। जरा यह देख लें कि कबीर के भाष्यकर्ता इसका अर्थ क्या करते हैं? डा. युगेश्वर का भाष्य है- ऐ मनुष्य, देखो मरने के बाद हड्डियाॅं लकड़ी के समान जलती हैं। केश घास जैसे जलते हैं। सारे शरीर को जलते देखकर सन्त कबीर दुखी हो गए। इस शरीर की क्यों इतनी सेवा की गई?
यह अर्थ डा. युगेश्वर ने अपने संपादित ग्रंथ कबीर समग्र’ (प्रथम भाग) में किया है। इन महाशय ने कबीर को बिल्कुल नासमझ समझ लिया कि उन्होंने अपने जीवन में कोई चिता ही जलती हुई न देखी होगी? क्या मृतक के दाह-संस्कार को देखकर कबीर दुखी हुए होंगे? क्या कबीर नहीं जानते थे कि हिन्दुओं में मृतक को जलाया जाता है? क्या वे नहीं जानते थे कि जो जन्मा है, उसे मरना भी होता है? फिर, मृतक को जलाने पर कैसा दुख? आगे, वह यह भी लिख रहे हैं, ‘ऐसे शरीर की क्यों इतनी सेवा की गयी?’ तब क्या करे आदमी? खाना-पीना, नहाना-धोना सब बन्द कर दे? डा. युगेश्वर यह न समझ सके कि इस साखी में कबीर मृतक शरीर को जलता देखकर दुखी नहीं हो रहे हैं, बल्कि वे जिन्दा स्त्री को जलाये जाने पर दुखी हो रहे हैं। वे इसलिये उदास हैं, क्योंकि एक स्त्री को जिन्दा जलाया जा रहा है। पहले शरीर में आग लगी, फिर केश जलना शुरु हुए और फिर सारा शरीर जलने लगा। यही कबीर के उदास होने का कारण है। कबीर की यह करुणा और सम्वेदना उदासीके रूप में सती के प्रति प्रकट हुई है।
कबीर ग्रन्थावली में, पदावली का पहला पद ही सती के ऊपर है। लेकिन, कबीर के द्विज पाठकों ने उसे विवाह का पद बना दिया, यानी दुलहन मंगलाचार गा रही है और कबीर राजा राम के साथ ब्याह करने चले हैं। उन्होंने कबीर को पुरुष से स्त्री बना दिया। यह पद इस प्रकार है-

दुलहनी गावहु मंगलचार।
हम घरि आये हो राजा राम भरतार।।
तन रत करि मैं मन रत करिहूँ, पंचतत्त बराती।
राँमदेवा मोरैं पाँहुनैं आये मैं जोबन मैं माती।।
सरीर सरोवर बेदी करिहूँ, ब्रह्मा वेद उचार।
राँमदेव सँगि भाँवरी लैहूँ, धंनि धंनि भाग हमार।।
सुर तेतीसूँ कौतिग आये, मुनिवर सहस अठ्यासी।
कहै कबीर हँम ब्याहि चले हैं, पुरिष एक अबिनासी।।


कबीर न ब्रह्मा में विश्वास करते हैं, न वेदों में, न तैंतीस कोटि देवताओं को मानते, हैं और न वे ब्राह्मण ऋषि-मुनियों को महत्व देते हैं। उनके राम राजा भी नहीं हैं, निर्गुण और निराकार हैं। फिर कबीर भी स्त्री नहीं हैं, जो राजा राम पुरुष से विवाह करेंगे? द्विज आचार्यों ने कबीर में सखी-भाव को आरोपित कर, उन्हें स्त्री-वेश देने का ब्राह्मणी-कर्म भी किया है। कबीर ऐसे ढकोसलों में न पड़ते हैं और न उनको मानते हैं। तब, इस पद का क्या अर्थ है? यह जानने के लिये हिन्दी के आचार्यों ने अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं किया, यह पद कबीर ग्रन्थावली के जितने भी नुसखे (गुटके) मौजूद हैं, सभी में पहले पद के रूप में शामिल हैं। अतः यह पद प्रक्षिप्त नहीं हो सकता। लेकिन इस तरफ किसी विद्वान का ध्यान नहीं गया, सिवाय अनुराधा के, कि कबीर का यह पद सरोवर के किनारे बेदी पर एक जवान हिन्दू स्त्री को, उसके पति के मरने पर, पति के शव के साथ जिन्दा जलाकर सती करने के लिये ले जाय जाने का वर्णन है। अनुराधा पहली विद्वान हैं, जिन्होंने इस दिशा में हिन्दी मानस का ध्यान आकर्षित किया है। वे लिखती हैं-

‘‘प्रसिद्ध पद दुलहिनी मोरी गावहुँ मंगलचारको मंगलाचारशब्द पर जोर देकर सीधे-सीधे विवाह उत्सव का गीत व्याख्यायित किया गया। लेकिन, विवाह में सरोवर के किनारे वेदीबनाने का विधान तो है ही नहीं और राजस्थान में सती के गीतों को मंगलाचारकहते हैं। यहाँ यह बात उठाते ही व्याख्या खण्ड-खण्ड हो जाती है। सरोवरपर जोर देते ही अर्थ-विधान दुल्हनको सतीके लिये लायी गयी स्त्री में बदल देता है।’’ (हंस, फरवरी 2008, पृष्ठ 39)

अनुराधा ने इब्बनबतूता के यात्रा वृत्तांत से इसकी पुष्टि की है। वे लिखती हैं-

‘‘तत्कालीन दौर के घुमक्कड़ इब्बनबतूता ने अपने यात्रा-वृत्तांत में लिखा है, ‘तीन कोस चलने के बाद हम एक ऐसी जगह पहुँचे जहाँ जल की बहुतायत थी और वृक्षों की सघनता के कारण अंधकार छाया हुआ था। यहाँ चार गुंबद (मन्दिर) बने हुए थे और चारों में एक देवता की मूर्ति प्रतिष्ठित थी। इन चारों के मध्य एक ऐसा सरोवर था, जहाँ वृक्षों की सघन छाया होने के कारण धूप नाम को भी न थी। इस कुंड के पास नीचे स्थल में अग्नि दहकाई गयी। पन्द्रह पुरुषों के हाथों में लकडि़यों के गट्ठे बँधे हुए थे और दस पुरुष अपने हाथ में बड़े-बड़े कुंदे लिये खड़े थे। नगाड़े, नौबत और शहनाई बजाने वाले स्त्रियों की प्रतीक्षा में खड़े थे। इतना कहकर वह प्रणाम कर तुरन्त उसमें कूद पड़ी। बस नगाड़े, ढोल, शहनाई और नौबत बजने लगी। उपस्थित जनता भी चिल्लाने लगी।’’

‘‘कबीर के उक्त पद के काव्य संवेदन को इब्बनबतूता के वर्णन के साथ पढ़ा जाय तो पितृपक्षीय दृष्टियों का वह कमाल उजागर हो जाता है, जो कि काव्य संवेदना को रहस्यवाद का जामा पहनाकर स्त्री इतिहास के करुणतम पक्ष को भी जिन्दा दफन कर देता है। स्त्री के जिन्दा जलाये जाने के अनुष्ठान को विवाह के उत्सव सा दिखा डालता है।’’ (वही, पृष्ठ 39-40)

अनुराधा इस बात को स्वीकार करती हैं कि कबीर सती के रूप में प्रचलित अत्याचारों से व्यथित हैं। यद्यपि वे साईं से मिलन के लिये सती के रूपक का भी प्रयोग करते हैं, पर सती के नाम पर जिस नृशंसता से विधवा स्त्री को जलाकर मार दिया जाता है, उससे वे आहत होते हैं। उनके काव्य में ऐसी घटनाओं के अनेक सजीव चित्रण मिलते हैं, जिन्हें पढ़कर लगता है कि वे अपने समय के सचमुच ही एक जागरूक द्रष्टा थे। वे एक साखी में उस सती स्त्री का वर्णन कर रहे हैं, जो पति का स्मरण करते हुए जलने के लिये घर से निकलती है और ढोल-नगाड़ों के शब्द सुनकर ही अचेत हो जाती है। यथा-

सती जलन कूँ नीकली, पीव का सुमरि सनेह।
सबद सुनत जीव निकल्या, भूलि गयी सब देह।।
    
बिरह को अंगमें कबीर की अनेक साखियों का सम्बन्ध सती-प्रथा से ही है। एक साखी में वे कहते हैं-

बिरह जलाई मैं जलौं, जलती जलहरि जाउँ।
मो देख्याँ जलहरि जलै, संतौ कहाँ बुझाउँ।।
    

इसका शाब्दिक अर्थ है, बिरह में जलती हुई स्त्री जलहर (सरोवर) जा रही है। पर उसे लगता है कि जलहर ही जल रहा है। अनुराधा ने इसकी व्याख्या करते हुए बड़े मार्के की बात कही है ‘‘सती की घटना को जिस सरोवर के किनारे अंजाम दिया जाता है, यदि उसे सरोवर के दूसरे किनारे बैठकर देखा जाये तो निश्चित रूप से जलने वाली परछाईं के कारण सरोवर भी जलता मालूम होगा। चारों तरफ आग ही आग दिखायी दे रही है। सती के लिये तो यह आग ही विभीषिका है। इससे साफ है कि कबीर अकेले हैं, जो इस तरह की घटनाओं के साक्षी हैं। वे समाज के ऐसे क्रिया-कलापांे से संवेदित होते थे।’’
कबीर ने एक पद में एक ऐसी स्त्री का वर्णन किया है, जो गौने के बाद ससुराल आयी है, और जिसने अपने पति का मुँह तक नहीं देखा है। पर उसे पति की लाश के साथ जिन्दा जलने के लिये मजबूर किया जा रहा है। यथा-

मैं सामने पीव गौंहनि आई।
साँईं संगि साध नहीं पूगी, गयौ जोबन सुपिनाँ की नाँई।।
पंच जना मिलि मंडप छायौ, तीन जनां मिलि लगन लिखाई।
सखी सहेली मंगल गावैं सुख-दुख माथै हलद चढ़ाई।।
नाँनाँ रंगैं भाँवरि फेरी, गांठि जोरि बावै पति ताई।
पूरि सुहाग भयो बिन दूलह, चैक कै रंगि धरयो सगौ भाई।।
अपने पुरिष मुख कबहूँ न देख्यौ, सती होत समझी समझाई।
कहै कबीर हूँ सर रचि मरिहूँ, तिरौ कंत ले तूर बजाई।।

इस पद में सती अपनी हृदय विदारक व्यथा कहती है मेरा पीव (पति) गौना कराने आ रहा था। (वह मर गया) मेरा यौवन सपने की तरह खत्म हो गया। घर के रीति-रिवाज के मुताबिक उसे सती होना है। वह अपने विवाह को याद करती है कि कैसे पाँच आदमियों ने मंडप बनाया और तीन लोगों ने लगन लिखी। हल्दी चढ़ी, और पति के साथ गाँठ जोड़कर भाँवरें पड़ीं और आज बिना पति के सारा सुहाग खत्म हो गया। अब सगा भाई ही उसे सती होने के लिये मजबूर कर रहा है। जिस ब्याहता ने पति का मुँह तक नहीं देखा, उसे समझा-बुझाकर सती करने के लिये ले जाया जा रहा है।

       कबीर ने इस पद में जिस घटना का चित्र खींचा है, ऐसी ही एक घटना का जिक्र रिज्कुल्लाह मुश्ताकी की किताब वाव़फेआते मुश्ताकीमें मिलता है, जिसे प्रो. ओमप्रकाश गुप्ता ने अपनी पुस्तक कबीर और समकालीन इतिहासमें दर्ज किया है।
सती से सम्बन्धित कबीर के पदों में आध्यात्मिक शब्दों का प्रयोग बहुत कम हुआ है, लगभग न के बराबर। ऐसे पद सीधे आँखों देखे सामाजिक चित्र हैं। ऐसा ही एक पद इस प्रकार है-

रैनि गयी मति दिन भी जाइ।
भवर उड़े बग बैठै आइ।।
काँचे करवै रहै न पानी, हंसि उड्या काया कुमिलाँनी।।
थरहर थरहर कंपै जीव, नाँ जानूँ का करिहै पीव।
कऊवा उड़ावत मेरी बहियाँ पिराँनी, कहै कबीर मेरी कथा सिराँनी।।
  
इस पद में जरा भी आध्यात्मिकता नहीं है। इसमें कबीर ने उस स्त्री के अन्तद्र्वन्द्व को बिम्बित किया है, जो सती होना नहीं चाहती। इसी द्वन्द्व में रात बीत गयी है और दिन भी बीतने वाला है। जिस तरह कच्ची मिट्टी के करवै में पानी नहीं रुक सकता (वह स्वयं पानी में घुलकर नष्ट हो जाता है) उसी तरह मृतक का शव भी कुम्हलाने लगा है (सड़ने लगा है) वह यह सोचकर थर-थर काँप रही है कि पता नहीं, मृतक पति उसके साथ क्या करेगा। यहाँ अनुराधा ने सही संकेत किया है कि विधवा के ‘‘दिमाग पर यह हावी कर दिया गया है कि सती न होने पर पति भूत बनकर कुछ बुरा करेगा, तुम्हें जीने नहीं देगा।’’ ‘नाँ जाँनूँ का करि है पीवमें इशारा इसी ओर है। कौए बार-बार लाश को नोचने के लिये आ रहे हैं, जिन्हें उड़ाते-उड़ाते उसकी बाहें थक गयी हैं। अन्त में कबीर बड़ी मार्मिक बात कहते हैं कहै कबीर मेरी कथा सिराँनी।अर्थात् वह स्त्री कहती है, मेरी कथा मेरी जिन्दगी भी यहीं खत्म होती है।

कबीर ने हिन्दुओं की इस मान्यता का खण्डन किया है कि विधवा स्त्री स्वेच्छा से सती होती थी। हिन्दू उसे सती होने के लिये बाध्य करते थे। चिता तक ले जाने से पहले उसे भाँग पिलाकर इतना नशे में कर दिया जाता था कि वह अपनी सुध-बुध खो बैठती थी। फिर उसे चिता पर बैठा कर जला दिया जाता था। उसकी चीत्कारें सुनायी न दें, इसलिये ढोल नगाड़े बजाये जाते थे, वह चिता से निकलकर भागे नहीं, इसलिये उसके हाथ-पैर बाँध दिये जाते थे और चिता के चारों ओर मोटे-मोटे डंडे लेकर लोग खड़े होते थे, ताकि यदि वह चिता से उठकर भागने की कोशिश करे, तो वे उसे डंडों से फिर से आग में ढकेल देते थे। कबीर की दृष्टि में यह स्त्री की नृशंस हत्या थी, जिसे सती का नाम दिया गया था। कबीर ने एक स्त्री के मुख से इसका बहुत ही मार्मिक विरोध कराया है। यथा-

हौं तोहि पूछौं हे सखी, जीवत क्यूँ न मराइ।
मूँवा पीछै सत करै, जीवत क्यूँ न कराइ।।
  
इस साखी में स्त्री अपनी वेदना को अपनी सखी के समक्ष प्रकट कर रही है। सती होने के लिये बाध्य की जा रही यह स्त्री सखी से कह रही है, हे सखी, मुझे तब ही क्यों न मार दिया, जब वह (पति) जीवित थे? उनके मरने के बाद मेरे सत की परीक्षा क्यों ली जा रही है। जब वह जीवित थे, तब मेरे सत की परीक्षा क्यों नहीं ली गयी?

       इन साखियों के प्रकाश में कबीर स्त्री वेदना के अपने दौर के सबसे संजीदा और सम्वेदनशील कवि हैं। अब रहा सवाल उन पदों का, जिन्हें आधार बनाकर कबीर पर स्त्री विरोधी होने का आरोप है, इस सन्दर्भ में यह समझने की जरूरत है कि कबीर ने कामी और कामिनी इन दो शब्दों का प्रयोग किया है। ये दोनों शब्द व्यभिचारी पुरुष और स्त्री के लिए हैं। और कबीर ने इन दोनों की निन्दा की है। इसके बावजूद, कबीर दुराचार के लिए स्त्री को दोषी नहीं मानते हैं। आज भी पितृ सत्ता के लोग स्त्री को ही दोष देते हैं। पर कबीर कहते हैं-
नारी जननी जगत की, पाल पोस दे तोष।
मूरख राम बिसार कर, ताहि लगावैं दोष।
       इस साखी का उल्लेख प्रभाकर श्रोत्रिय ने अपनी पुस्तक कबीर: विविध आयाममें किया है।
23 जनवरी 2016

      








30 जनवरी 2016 को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में मध्यकालीन सन्त: स्त्री सन्दर्भविषय
पर आयोजित कार्यशाला में दिया गया व्याख्यान
भया कबीर उदास: स्त्री सन्दर्भ
(कॅंवल भारती)
       मजदूर घरों के मर्द गरीबी और कर्ज से तंग होकर आज भी पलायन करते हैं और कबीर के समय में भी करते थे। उत्तर प्रदेश के पूर्वान्चल और बिहार से बड़ी संख्या में पुरुष दूसरे राज्यों में काम के लिए जाते हैं। अब तो पुरुष अपनी स्त्रियों को भी साथ ले जाते हैं। लेकिन पहले सिर्फ पुरुष ही पलायन करते थे। आज मोबाइल के युग में वे अपने घर से सैकड़ों-हजारों मील दूर रहकर भी अपने परिवार से बातें कर लेते हैं। लेकिन, पाॅंच-छह सौ साल पहले यह कहाॅं सम्भव था? जब जो पुरुष परदेस जाता था, उसकी स्त्री घर पर रहकर उसकी बाट जोहती थी। घण्टे दिन में, दिन महीनों में और महीने सालों में बदल जाते थे, उसकी स्त्री बाट जोहते-जोहते मर जाती थी। वियोग की इसी पीड़ा की अग्नि में पुरुष भी परदेस में जलता था। कबीर ग्रन्थावली में कबीर की साखियों का एक पूरा अंग बिरह कौ अंगइसी पीड़ा को समर्पित है। कबीर का भाष्य करने वाले पंडितों ने कबीर को रहस्यवादी बनाने की अपनी योजना में इस अंग की साखियों को आत्मा-परमात्मा और साधक-साधना से जोड़कर एक सम्वेदनशील कवि की भावना का सत्यानाश कर दिया है। जबकि, ये साखियाॅं सीधे-सीधे स्त्री के विरह की वेदना की अभिव्यक्तियाॅं हैं।
रात्यूं रूॅंनी बिरहनी, ज्यूॅं बंचैकूॅं कुंज।
कबीर अन्तर प्रजल्या, प्रगट्या बिरहा पुंज।।
       बिरह कौ अंगकी यह पहली साखी है। जैसे क्रौंच अपने प्रिय के प्रेम से वंचित होकर तड़पता है, वैसे ही यह स्त्री अपने प्रियतम से वंचित होकर रातभर रोती है। इसके अन्तस में वियोग की अग्नि जल रही है।
चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभात।
जे जन बिछुटे राम सॅंू, ते दिन मिलै न राति।
कबीर के प्रयोग अदभुत हैं। लेकिन, कबीर के भाष्यकार उनकी साखियों में आए राम शब्द से भ्रमित हो गए हैं। उन्हें लगा कि वह विरह राम के लिए कर रहे हंै। यदि एक संसारी कवि, घर-गृहस्थी वाला कवि, मेहनत-मजदूरी करके जीविका चलाने वाला कवि राम के बिरह में रात दिन रोएगा, तो घर-गृहस्थी के काम कब करेगा, कपड़ा कब बुनेगा, कब बाजार जाएगा? यह विरह ऐसे राम से हो भी कैसे सकता है, जो निर्गुण है, अरूप है? राम तो गरीब-मजदूर समाज की आस्था का स्वाभाविक आधार था, सहारा था। कोई अरूप के प्रेम में सुधबुध कैसे खो सकता है? अब इस साखी को समझें, ‘चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभात,’ चकवी रात को बिछड़ती है, पर प्रभात में चकवे से मिल जाती है। पर, ‘जे जन बिछुटे राम सॅंू, ते दिन मिलै न राति,’ हे राम हमारे जन तो ऐसे बिछड़े हैं कि न रात में मिलते हैं और न दिन में।
बिरहनि ऊभी पंथ सिरि, पंथी बूझै धाईं
एक सबद कहि पीव का, कब रे मिलैंगे आइ।
       मार्मिक अभिव्यक्ति है- स्त्री परदेस से आने वाले राहगीरों से पूछती है, क्या तेरे पीव ने, मेरे पति ने कोई सन्देश भेजा है कि वह कब आकर मिलेंगे? यह एक शब्द सुनने के लिए वह इतनी व्याकुल है कि हर आने वाले से पूछती है।

बिरहिन ऊठै भी पड़ै, दरसन कारनि राम।
मूवाॅं पीछें देहुगे, सो दरसन किहि काम।
       इस स्त्री का पति सालों से नहीं आया है। वह उसके आने या उसका सन्देश आने की बाट जोहते-जोहते तन-मन से इतनी कमजोर हो गई है कि मुझसे तो अब उठकर खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा है। हे राम, अगर वह मेरे मरने के बाद आए, तो सो दरसन किहि काम’, वह दर्शन किस काम के? यह उस स्त्री की व्यथा है, जिसका पति परदेस में है, घर में भी उस पर जुल्म होते हैं और अमीरों तथा सामन्ती व्यवस्था में घर के बाहर भी सुरक्षित नहीं है। वह हॅंस भी नहीं सकती। उसके जीवन में बस रोने के सिवा कुछ नहीं है।
जौं रोऊॅं तो बल घटै, हॅंसौं तो राम रिसाइ।
मनही माॅंहि बिसूरणाॅं, ज्यूॅं घुण काठहि खाइ।
मन ही मन उसको घुटना है। यही घुन लकड़ी की तरह उसके शरीर को खा रहा है।
अन्देसड़ा न भाजिसी, सन्देसो कहियाॅं।
के हरि आयाॅं भाजिसी, के हरि ही पास गयाॅं।
मार्मिक स्वर है- राम से भ्रमित पंडित इस साखी से अपना भ्रम दूर कर सकते हैं। अन्देसड़ा न भाजिसी, सन्देसो कहियाॅं,’ यही दुख है कि उनका कोई सन्देसा नहीं आया है। अब या तो भगवान उसे भेज दे या मुझे ही अपने पास बुला ले। यह उस स्त्री का रुदन है, जिसके पति के आने की सम्भावना खत्म हो गई है।
आई न सकौं तुझपैं, सकॅंू न तूझ बुलाइ।
जियरा यौही लेहुगे, बिरह तपाई तपाई।
       इस स्त्री की पीड़ा घनी है। कह रही है कि मैं तुम्हारे पास आ नहीं सकती और तुम मुझे अपने पास बुला नहीं सकते। तब क्या तड़प-तड़प कर इसी तरह मेरी जान लोगे?
यहु तन जालौं मसि करूॅं, ज्यूॅं धूवाॅं जाइ सरग्गि।
मति वै राम दया करै, बरसि बुझावै अग्गि।
       अत्यन्त मार्मिक- इस स्त्री का विरह इतना तीव्र है कि वह शायद जलकर मृत्यु को गले लगाना चाहती है। कह रही है कि हे राम मुझ पर इतनी दया करना कि जब यह शरीर जलकर राख हो जाय, तो मेरे पति को बादल बनाकर बरसा देना, जिससे यह आग बुझ जाय। शायद इस साखी में पति के मरने पर स्त्री के सती होने की पीड़ा है।
कबीर ने सती होने वाली स्त्री की पीड़ा का बहुत ही मार्मिक और सन्जीदा वर्णन किया है।
कबीर जन मन यौं जल्या, बिरह अगनि सूॅं लागि।
मृतक पीड़ न जाॅंणई, जाणैंगी यहु आगि।
अत्यन्त मार्मिक साखी है। कबीर कहते हैं कि बिरही को आग लगाने के साथ ही (पति के वियोग में सती होने वाली स्त्री को कबीर ने बिरही कहा है) जनमन भी जल गया। जनमन जल गया, यानी एकत्र जनसमूह की सम्वेदनाएॅं भी जल गईं। कबीर कहते हैं, यह जनमन मृतक की पीड़ा को क्या जानेंगे? उसकी पीड़ा को तो यह आग जानेगी।
फाडि़ फुटोला धज करौं, कामलड़ी पहिराउॅं।
जिहि जिहि भेषाॅं हरि मिलै, सोइ सोइ भेष कराउॅं।
       यहाॅं कबीर का अदभुत प्रयोग है-सती के लिए जिस स्त्री को परिवार वाले तैयार करते हैं, उसके सारे रेशमी कपड़े फाड़ कर उसे कम्बल ओड़ा देते हैं। अलग अलग समाजों में अलग अलग प्रथा है। जहाॅं जिस भेष का रिवाज है, वहाॅं उसी भेष में स्त्री को ले जाया जाता है।
नैन हमारे जलि गए, छिन छिन लोड़ैं तुझ।
नाॅं तू मिलै न मैं खुसी, ऐसी वेदन मुझ।
       सती की वेदी पर जिन्दा जलने वाली स्त्री की मार्मिक अभिव्यक्ति है- शास्त्र कहते हैं कि मृतक पति के साथ सती होने वाली स्त्री साक्षात ईश्वर को देखती है। पर वह कहती है-हमारे नैन जल गए, पर न तू मिला, न पति मिला कि मैं खुश होती। ऐसी मेरी वेदना है।
भेला पाया सरप का, भौसागर के माॅंह।
जे छाॅंड़ौं तौ डूबिहौं, गहौं त डसिए बाॅंह।
       साॅंप की नाव से पार होने मार्मिक उपमा है- अगर वह उसे छोड़ता है, तो डूबता है और पकड़े रहता है, तो साॅंप डस लेता है। उसी तरह सती के लिए जाने वाली स्त्री की वेदना है, अगर वह जलने से इनकार करती है, तो समाज उसे जीने नहीं देगा और चिता पर बैठती है, तो आग उसे जलाकर मार देगी। दोनों हालात में मृत्यु निश्चित है।
हाड़ जलै ज्यूॅं लाकड़ी, केस जलैं ज्यूॅं घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।
       सती स्त्री की वेदना पर कबीर की यह सबसे गम्भीर टिप्पणी है। जरा यह देख लें कि कबीर के भाष्यकर्ता इसका अर्थ क्या करते हैं? डा. युगेश्वर का भाष्य है- ऐ मनुष्य, देखो मरने के बाद हड्डियाॅं लकड़ी के समान जलती हैं। केश घास जैसे जलते हैं। सारे शरीर को जलते देखकर सन्त कबीर दुखी हो गए। इस शरीर की क्यों इतनी सेवा की गई?
यह अर्थ डा. युगेश्वर ने अपने संपादित ग्रंथ कबीर समग्र’ (प्रथम भाग) में किया है। इन महाशय ने कबीर को बिल्कुल नासमझ समझ लिया कि उन्होंने अपने जीवन में कोई चिता ही जलती हुई न देखी होगी? क्या मृतक के दाह-संस्कार को देखकर कबीर दुखी हुए होंगे? क्या कबीर नहीं जानते थे कि हिन्दुओं में मृतक को जलाया जाता है? क्या वे नहीं जानते थे कि जो जन्मा है, उसे मरना भी होता है? फिर, मृतक को जलाने पर कैसा दुख? आगे, वह यह भी लिख रहे हैं, ‘ऐसे शरीर की क्यों इतनी सेवा की गयी?’ तब क्या करे आदमी? खाना-पीना, नहाना-धोना सब बन्द कर दे? डा. युगेश्वर यह न समझ सके कि इस साखी में कबीर मृतक शरीर को जलता देखकर दुखी नहीं हो रहे हैं, बल्कि वे जिन्दा स्त्री को जलाये जाने पर दुखी हो रहे हैं। वे इसलिये उदास हैं, क्योंकि एक स्त्री को जिन्दा जलाया जा रहा है। पहले शरीर में आग लगी, फिर केश जलना शुरु हुए और फिर सारा शरीर जलने लगा। यही कबीर के उदास होने का कारण है। कबीर की यह करुणा और सम्वेदना उदासीके रूप में सती के प्रति प्रकट हुई है।
कबीर ग्रन्थावली में, पदावली का पहला पद ही सती के ऊपर है। लेकिन, कबीर के द्विज पाठकों ने उसे विवाह का पद बना दिया, यानी दुलहन मंगलाचार गा रही है और कबीर राजा राम के साथ ब्याह करने चले हैं। उन्होंने कबीर को पुरुष से स्त्री बना दिया। यह पद इस प्रकार है-

दुलहनी गावहु मंगलचार।
हम घरि आये हो राजा राम भरतार।।
तन रत करि मैं मन रत करिहूँ, पंचतत्त बराती।
राँमदेवा मोरैं पाँहुनैं आये मैं जोबन मैं माती।।
सरीर सरोवर बेदी करिहूँ, ब्रह्मा वेद उचार।
राँमदेव सँगि भाँवरी लैहूँ, धंनि धंनि भाग हमार।।
सुर तेतीसूँ कौतिग आये, मुनिवर सहस अठ्यासी।
कहै कबीर हँम ब्याहि चले हैं, पुरिष एक अबिनासी।।


कबीर न ब्रह्मा में विश्वास करते हैं, न वेदों में, न तैंतीस कोटि देवताओं को मानते, हैं और न वे ब्राह्मण ऋषि-मुनियों को महत्व देते हैं। उनके राम राजा भी नहीं हैं, निर्गुण और निराकार हैं। फिर कबीर भी स्त्री नहीं हैं, जो राजा राम पुरुष से विवाह करेंगे? द्विज आचार्यों ने कबीर में सखी-भाव को आरोपित कर, उन्हें स्त्री-वेश देने का ब्राह्मणी-कर्म भी किया है। कबीर ऐसे ढकोसलों में न पड़ते हैं और न उनको मानते हैं। तब, इस पद का क्या अर्थ है? यह जानने के लिये हिन्दी के आचार्यों ने अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं किया, यह पद कबीर ग्रन्थावली के जितने भी नुसखे (गुटके) मौजूद हैं, सभी में पहले पद के रूप में शामिल हैं। अतः यह पद प्रक्षिप्त नहीं हो सकता। लेकिन इस तरफ किसी विद्वान का ध्यान नहीं गया, सिवाय अनुराधा के, कि कबीर का यह पद सरोवर के किनारे बेदी पर एक जवान हिन्दू स्त्री को, उसके पति के मरने पर, पति के शव के साथ जिन्दा जलाकर सती करने के लिये ले जाय जाने का वर्णन है। अनुराधा पहली विद्वान हैं, जिन्होंने इस दिशा में हिन्दी मानस का ध्यान आकर्षित किया है। वे लिखती हैं-

‘‘प्रसिद्ध पद दुलहिनी मोरी गावहुँ मंगलचारको मंगलाचारशब्द पर जोर देकर सीधे-सीधे विवाह उत्सव का गीत व्याख्यायित किया गया। लेकिन, विवाह में सरोवर के किनारे वेदीबनाने का विधान तो है ही नहीं और राजस्थान में सती के गीतों को मंगलाचारकहते हैं। यहाँ यह बात उठाते ही व्याख्या खण्ड-खण्ड हो जाती है। सरोवरपर जोर देते ही अर्थ-विधान दुल्हनको सतीके लिये लायी गयी स्त्री में बदल देता है।’’ (हंस, फरवरी 2008, पृष्ठ 39)

अनुराधा ने इब्बनबतूता के यात्रा वृत्तांत से इसकी पुष्टि की है। वे लिखती हैं-

‘‘तत्कालीन दौर के घुमक्कड़ इब्बनबतूता ने अपने यात्रा-वृत्तांत में लिखा है, ‘तीन कोस चलने के बाद हम एक ऐसी जगह पहुँचे जहाँ जल की बहुतायत थी और वृक्षों की सघनता के कारण अंधकार छाया हुआ था। यहाँ चार गुंबद (मन्दिर) बने हुए थे और चारों में एक देवता की मूर्ति प्रतिष्ठित थी। इन चारों के मध्य एक ऐसा सरोवर था, जहाँ वृक्षों की सघन छाया होने के कारण धूप नाम को भी न थी। इस कुंड के पास नीचे स्थल में अग्नि दहकाई गयी। पन्द्रह पुरुषों के हाथों में लकडि़यों के गट्ठे बँधे हुए थे और दस पुरुष अपने हाथ में बड़े-बड़े कुंदे लिये खड़े थे। नगाड़े, नौबत और शहनाई बजाने वाले स्त्रियों की प्रतीक्षा में खड़े थे। इतना कहकर वह प्रणाम कर तुरन्त उसमें कूद पड़ी। बस नगाड़े, ढोल, शहनाई और नौबत बजने लगी। उपस्थित जनता भी चिल्लाने लगी।’’

‘‘कबीर के उक्त पद के काव्य संवेदन को इब्बनबतूता के वर्णन के साथ पढ़ा जाय तो पितृपक्षीय दृष्टियों का वह कमाल उजागर हो जाता है, जो कि काव्य संवेदना को रहस्यवाद का जामा पहनाकर स्त्री इतिहास के करुणतम पक्ष को भी जिन्दा दफन कर देता है। स्त्री के जिन्दा जलाये जाने के अनुष्ठान को विवाह के उत्सव सा दिखा डालता है।’’ (वही, पृष्ठ 39-40)

अनुराधा इस बात को स्वीकार करती हैं कि कबीर सती के रूप में प्रचलित अत्याचारों से व्यथित हैं। यद्यपि वे साईं से मिलन के लिये सती के रूपक का भी प्रयोग करते हैं, पर सती के नाम पर जिस नृशंसता से विधवा स्त्री को जलाकर मार दिया जाता है, उससे वे आहत होते हैं। उनके काव्य में ऐसी घटनाओं के अनेक सजीव चित्रण मिलते हैं, जिन्हें पढ़कर लगता है कि वे अपने समय के सचमुच ही एक जागरूक द्रष्टा थे। वे एक साखी में उस सती स्त्री का वर्णन कर रहे हैं, जो पति का स्मरण करते हुए जलने के लिये घर से निकलती है और ढोल-नगाड़ों के शब्द सुनकर ही अचेत हो जाती है। यथा-

सती जलन कूँ नीकली, पीव का सुमरि सनेह।
सबद सुनत जीव निकल्या, भूलि गयी सब देह।।
    
बिरह को अंगमें कबीर की अनेक साखियों का सम्बन्ध सती-प्रथा से ही है। एक साखी में वे कहते हैं-

बिरह जलाई मैं जलौं, जलती जलहरि जाउँ।
मो देख्याँ जलहरि जलै, संतौ कहाँ बुझाउँ।।
    

इसका शाब्दिक अर्थ है, बिरह में जलती हुई स्त्री जलहर (सरोवर) जा रही है। पर उसे लगता है कि जलहर ही जल रहा है। अनुराधा ने इसकी व्याख्या करते हुए बड़े मार्के की बात कही है ‘‘सती की घटना को जिस सरोवर के किनारे अंजाम दिया जाता है, यदि उसे सरोवर के दूसरे किनारे बैठकर देखा जाये तो निश्चित रूप से जलने वाली परछाईं के कारण सरोवर भी जलता मालूम होगा। चारों तरफ आग ही आग दिखायी दे रही है। सती के लिये तो यह आग ही विभीषिका है। इससे साफ है कि कबीर अकेले हैं, जो इस तरह की घटनाओं के साक्षी हैं। वे समाज के ऐसे क्रिया-कलापांे से संवेदित होते थे।’’
कबीर ने एक पद में एक ऐसी स्त्री का वर्णन किया है, जो गौने के बाद ससुराल आयी है, और जिसने अपने पति का मुँह तक नहीं देखा है। पर उसे पति की लाश के साथ जिन्दा जलने के लिये मजबूर किया जा रहा है। यथा-

मैं सामने पीव गौंहनि आई।
साँईं संगि साध नहीं पूगी, गयौ जोबन सुपिनाँ की नाँई।।
पंच जना मिलि मंडप छायौ, तीन जनां मिलि लगन लिखाई।
सखी सहेली मंगल गावैं सुख-दुख माथै हलद चढ़ाई।।
नाँनाँ रंगैं भाँवरि फेरी, गांठि जोरि बावै पति ताई।
पूरि सुहाग भयो बिन दूलह, चैक कै रंगि धरयो सगौ भाई।।
अपने पुरिष मुख कबहूँ न देख्यौ, सती होत समझी समझाई।
कहै कबीर हूँ सर रचि मरिहूँ, तिरौ कंत ले तूर बजाई।।

इस पद में सती अपनी हृदय विदारक व्यथा कहती है मेरा पीव (पति) गौना कराने आ रहा था। (वह मर गया) मेरा यौवन सपने की तरह खत्म हो गया। घर के रीति-रिवाज के मुताबिक उसे सती होना है। वह अपने विवाह को याद करती है कि कैसे पाँच आदमियों ने मंडप बनाया और तीन लोगों ने लगन लिखी। हल्दी चढ़ी, और पति के साथ गाँठ जोड़कर भाँवरें पड़ीं और आज बिना पति के सारा सुहाग खत्म हो गया। अब सगा भाई ही उसे सती होने के लिये मजबूर कर रहा है। जिस ब्याहता ने पति का मुँह तक नहीं देखा, उसे समझा-बुझाकर सती करने के लिये ले जाया जा रहा है।

       कबीर ने इस पद में जिस घटना का चित्र खींचा है, ऐसी ही एक घटना का जिक्र रिज्कुल्लाह मुश्ताकी की किताब वाव़फेआते मुश्ताकीमें मिलता है, जिसे प्रो. ओमप्रकाश गुप्ता ने अपनी पुस्तक कबीर और समकालीन इतिहासमें दर्ज किया है।
सती से सम्बन्धित कबीर के पदों में आध्यात्मिक शब्दों का प्रयोग बहुत कम हुआ है, लगभग न के बराबर। ऐसे पद सीधे आँखों देखे सामाजिक चित्र हैं। ऐसा ही एक पद इस प्रकार है-

रैनि गयी मति दिन भी जाइ।
भवर उड़े बग बैठै आइ।।
काँचे करवै रहै न पानी, हंसि उड्या काया कुमिलाँनी।।
थरहर थरहर कंपै जीव, नाँ जानूँ का करिहै पीव।
कऊवा उड़ावत मेरी बहियाँ पिराँनी, कहै कबीर मेरी कथा सिराँनी।।
  
इस पद में जरा भी आध्यात्मिकता नहीं है। इसमें कबीर ने उस स्त्री के अन्तद्र्वन्द्व को बिम्बित किया है, जो सती होना नहीं चाहती। इसी द्वन्द्व में रात बीत गयी है और दिन भी बीतने वाला है। जिस तरह कच्ची मिट्टी के करवै में पानी नहीं रुक सकता (वह स्वयं पानी में घुलकर नष्ट हो जाता है) उसी तरह मृतक का शव भी कुम्हलाने लगा है (सड़ने लगा है) वह यह सोचकर थर-थर काँप रही है कि पता नहीं, मृतक पति उसके साथ क्या करेगा। यहाँ अनुराधा ने सही संकेत किया है कि विधवा के ‘‘दिमाग पर यह हावी कर दिया गया है कि सती न होने पर पति भूत बनकर कुछ बुरा करेगा, तुम्हें जीने नहीं देगा।’’ ‘नाँ जाँनूँ का करि है पीवमें इशारा इसी ओर है। कौए बार-बार लाश को नोचने के लिये आ रहे हैं, जिन्हें उड़ाते-उड़ाते उसकी बाहें थक गयी हैं। अन्त में कबीर बड़ी मार्मिक बात कहते हैं कहै कबीर मेरी कथा सिराँनी।अर्थात् वह स्त्री कहती है, मेरी कथा मेरी जिन्दगी भी यहीं खत्म होती है।

कबीर ने हिन्दुओं की इस मान्यता का खण्डन किया है कि विधवा स्त्री स्वेच्छा से सती होती थी। हिन्दू उसे सती होने के लिये बाध्य करते थे। चिता तक ले जाने से पहले उसे भाँग पिलाकर इतना नशे में कर दिया जाता था कि वह अपनी सुध-बुध खो बैठती थी। फिर उसे चिता पर बैठा कर जला दिया जाता था। उसकी चीत्कारें सुनायी न दें, इसलिये ढोल नगाड़े बजाये जाते थे, वह चिता से निकलकर भागे नहीं, इसलिये उसके हाथ-पैर बाँध दिये जाते थे और चिता के चारों ओर मोटे-मोटे डंडे लेकर लोग खड़े होते थे, ताकि यदि वह चिता से उठकर भागने की कोशिश करे, तो वे उसे डंडों से फिर से आग में ढकेल देते थे। कबीर की दृष्टि में यह स्त्री की नृशंस हत्या थी, जिसे सती का नाम दिया गया था। कबीर ने एक स्त्री के मुख से इसका बहुत ही मार्मिक विरोध कराया है। यथा-

हौं तोहि पूछौं हे सखी, जीवत क्यूँ न मराइ।
मूँवा पीछै सत करै, जीवत क्यूँ न कराइ।।
  
इस साखी में स्त्री अपनी वेदना को अपनी सखी के समक्ष प्रकट कर रही है। सती होने के लिये बाध्य की जा रही यह स्त्री सखी से कह रही है, हे सखी, मुझे तब ही क्यों न मार दिया, जब वह (पति) जीवित थे? उनके मरने के बाद मेरे सत की परीक्षा क्यों ली जा रही है। जब वह जीवित थे, तब मेरे सत की परीक्षा क्यों नहीं ली गयी?

       इन साखियों के प्रकाश में कबीर स्त्री वेदना के अपने दौर के सबसे संजीदा और सम्वेदनशील कवि हैं। अब रहा सवाल उन पदों का, जिन्हें आधार बनाकर कबीर पर स्त्री विरोधी होने का आरोप है, इस सन्दर्भ में यह समझने की जरूरत है कि कबीर ने कामी और कामिनी इन दो शब्दों का प्रयोग किया है। ये दोनों शब्द व्यभिचारी पुरुष और स्त्री के लिए हैं। और कबीर ने इन दोनों की निन्दा की है। इसके बावजूद, कबीर दुराचार के लिए स्त्री को दोषी नहीं मानते हैं। आज भी पितृ सत्ता के लोग स्त्री को ही दोष देते हैं। पर कबीर कहते हैं-
नारी जननी जगत की, पाल पोस दे तोष।
मूरख राम बिसार कर, ताहि लगावैं दोष।
       इस साखी का उल्लेख प्रभाकर श्रोत्रिय ने अपनी पुस्तक कबीर: विविध आयाममें किया है।
23 जनवरी 2016

      









30 जनवरी 2016 को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में मध्यकालीन सन्त: स्त्री सन्दर्भविषय
पर आयोजित कार्यशाला में दिया गया व्याख्यान
भया कबीर उदास: स्त्री सन्दर्भ
(कॅंवल भारती)
       मजदूर घरों के मर्द गरीबी और कर्ज से तंग होकर आज भी पलायन करते हैं और कबीर के समय में भी करते थे। उत्तर प्रदेश के पूर्वान्चल और बिहार से बड़ी संख्या में पुरुष दूसरे राज्यों में काम के लिए जाते हैं। अब तो पुरुष अपनी स्त्रियों को भी साथ ले जाते हैं। लेकिन पहले सिर्फ पुरुष ही पलायन करते थे। आज मोबाइल के युग में वे अपने घर से सैकड़ों-हजारों मील दूर रहकर भी अपने परिवार से बातें कर लेते हैं। लेकिन, पाॅंच-छह सौ साल पहले यह कहाॅं सम्भव था? जब जो पुरुष परदेस जाता था, उसकी स्त्री घर पर रहकर उसकी बाट जोहती थी। घण्टे दिन में, दिन महीनों में और महीने सालों में बदल जाते थे, उसकी स्त्री बाट जोहते-जोहते मर जाती थी। वियोग की इसी पीड़ा की अग्नि में पुरुष भी परदेस में जलता था। कबीर ग्रन्थावली में कबीर की साखियों का एक पूरा अंग बिरह कौ अंगइसी पीड़ा को समर्पित है। कबीर का भाष्य करने वाले पंडितों ने कबीर को रहस्यवादी बनाने की अपनी योजना में इस अंग की साखियों को आत्मा-परमात्मा और साधक-साधना से जोड़कर एक सम्वेदनशील कवि की भावना का सत्यानाश कर दिया है। जबकि, ये साखियाॅं सीधे-सीधे स्त्री के विरह की वेदना की अभिव्यक्तियाॅं हैं।
रात्यूं रूॅंनी बिरहनी, ज्यूॅं बंचैकूॅं कुंज।
कबीर अन्तर प्रजल्या, प्रगट्या बिरहा पुंज।।
       बिरह कौ अंगकी यह पहली साखी है। जैसे क्रौंच अपने प्रिय के प्रेम से वंचित होकर तड़पता है, वैसे ही यह स्त्री अपने प्रियतम से वंचित होकर रातभर रोती है। इसके अन्तस में वियोग की अग्नि जल रही है।
चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभात।
जे जन बिछुटे राम सॅंू, ते दिन मिलै न राति।
कबीर के प्रयोग अदभुत हैं। लेकिन, कबीर के भाष्यकार उनकी साखियों में आए राम शब्द से भ्रमित हो गए हैं। उन्हें लगा कि वह विरह राम के लिए कर रहे हंै। यदि एक संसारी कवि, घर-गृहस्थी वाला कवि, मेहनत-मजदूरी करके जीविका चलाने वाला कवि राम के बिरह में रात दिन रोएगा, तो घर-गृहस्थी के काम कब करेगा, कपड़ा कब बुनेगा, कब बाजार जाएगा? यह विरह ऐसे राम से हो भी कैसे सकता है, जो निर्गुण है, अरूप है? राम तो गरीब-मजदूर समाज की आस्था का स्वाभाविक आधार था, सहारा था। कोई अरूप के प्रेम में सुधबुध कैसे खो सकता है? अब इस साखी को समझें, ‘चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभात,’ चकवी रात को बिछड़ती है, पर प्रभात में चकवे से मिल जाती है। पर, ‘जे जन बिछुटे राम सॅंू, ते दिन मिलै न राति,’ हे राम हमारे जन तो ऐसे बिछड़े हैं कि न रात में मिलते हैं और न दिन में।
बिरहनि ऊभी पंथ सिरि, पंथी बूझै धाईं
एक सबद कहि पीव का, कब रे मिलैंगे आइ।
       मार्मिक अभिव्यक्ति है- स्त्री परदेस से आने वाले राहगीरों से पूछती है, क्या तेरे पीव ने, मेरे पति ने कोई सन्देश भेजा है कि वह कब आकर मिलेंगे? यह एक शब्द सुनने के लिए वह इतनी व्याकुल है कि हर आने वाले से पूछती है।

बिरहिन ऊठै भी पड़ै, दरसन कारनि राम।
मूवाॅं पीछें देहुगे, सो दरसन किहि काम।
       इस स्त्री का पति सालों से नहीं आया है। वह उसके आने या उसका सन्देश आने की बाट जोहते-जोहते तन-मन से इतनी कमजोर हो गई है कि मुझसे तो अब उठकर खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा है। हे राम, अगर वह मेरे मरने के बाद आए, तो सो दरसन किहि काम’, वह दर्शन किस काम के? यह उस स्त्री की व्यथा है, जिसका पति परदेस में है, घर में भी उस पर जुल्म होते हैं और अमीरों तथा सामन्ती व्यवस्था में घर के बाहर भी सुरक्षित नहीं है। वह हॅंस भी नहीं सकती। उसके जीवन में बस रोने के सिवा कुछ नहीं है।
जौं रोऊॅं तो बल घटै, हॅंसौं तो राम रिसाइ।
मनही माॅंहि बिसूरणाॅं, ज्यूॅं घुण काठहि खाइ।
मन ही मन उसको घुटना है। यही घुन लकड़ी की तरह उसके शरीर को खा रहा है।
अन्देसड़ा न भाजिसी, सन्देसो कहियाॅं।
के हरि आयाॅं भाजिसी, के हरि ही पास गयाॅं।
मार्मिक स्वर है- राम से भ्रमित पंडित इस साखी से अपना भ्रम दूर कर सकते हैं। अन्देसड़ा न भाजिसी, सन्देसो कहियाॅं,’ यही दुख है कि उनका कोई सन्देसा नहीं आया है। अब या तो भगवान उसे भेज दे या मुझे ही अपने पास बुला ले। यह उस स्त्री का रुदन है, जिसके पति के आने की सम्भावना खत्म हो गई है।
आई न सकौं तुझपैं, सकॅंू न तूझ बुलाइ।
जियरा यौही लेहुगे, बिरह तपाई तपाई।
       इस स्त्री की पीड़ा घनी है। कह रही है कि मैं तुम्हारे पास आ नहीं सकती और तुम मुझे अपने पास बुला नहीं सकते। तब क्या तड़प-तड़प कर इसी तरह मेरी जान लोगे?
यहु तन जालौं मसि करूॅं, ज्यूॅं धूवाॅं जाइ सरग्गि।
मति वै राम दया करै, बरसि बुझावै अग्गि।
       अत्यन्त मार्मिक- इस स्त्री का विरह इतना तीव्र है कि वह शायद जलकर मृत्यु को गले लगाना चाहती है। कह रही है कि हे राम मुझ पर इतनी दया करना कि जब यह शरीर जलकर राख हो जाय, तो मेरे पति को बादल बनाकर बरसा देना, जिससे यह आग बुझ जाय। शायद इस साखी में पति के मरने पर स्त्री के सती होने की पीड़ा है।
कबीर ने सती होने वाली स्त्री की पीड़ा का बहुत ही मार्मिक और सन्जीदा वर्णन किया है।
कबीर जन मन यौं जल्या, बिरह अगनि सूॅं लागि।
मृतक पीड़ न जाॅंणई, जाणैंगी यहु आगि।
अत्यन्त मार्मिक साखी है। कबीर कहते हैं कि बिरही को आग लगाने के साथ ही (पति के वियोग में सती होने वाली स्त्री को कबीर ने बिरही कहा है) जनमन भी जल गया। जनमन जल गया, यानी एकत्र जनसमूह की सम्वेदनाएॅं भी जल गईं। कबीर कहते हैं, यह जनमन मृतक की पीड़ा को क्या जानेंगे? उसकी पीड़ा को तो यह आग जानेगी।
फाडि़ फुटोला धज करौं, कामलड़ी पहिराउॅं।
जिहि जिहि भेषाॅं हरि मिलै, सोइ सोइ भेष कराउॅं।
       यहाॅं कबीर का अदभुत प्रयोग है-सती के लिए जिस स्त्री को परिवार वाले तैयार करते हैं, उसके सारे रेशमी कपड़े फाड़ कर उसे कम्बल ओड़ा देते हैं। अलग अलग समाजों में अलग अलग प्रथा है। जहाॅं जिस भेष का रिवाज है, वहाॅं उसी भेष में स्त्री को ले जाया जाता है।
नैन हमारे जलि गए, छिन छिन लोड़ैं तुझ।
नाॅं तू मिलै न मैं खुसी, ऐसी वेदन मुझ।
       सती की वेदी पर जिन्दा जलने वाली स्त्री की मार्मिक अभिव्यक्ति है- शास्त्र कहते हैं कि मृतक पति के साथ सती होने वाली स्त्री साक्षात ईश्वर को देखती है। पर वह कहती है-हमारे नैन जल गए, पर न तू मिला, न पति मिला कि मैं खुश होती। ऐसी मेरी वेदना है।
भेला पाया सरप का, भौसागर के माॅंह।
जे छाॅंड़ौं तौ डूबिहौं, गहौं त डसिए बाॅंह।
       साॅंप की नाव से पार होने मार्मिक उपमा है- अगर वह उसे छोड़ता है, तो डूबता है और पकड़े रहता है, तो साॅंप डस लेता है। उसी तरह सती के लिए जाने वाली स्त्री की वेदना है, अगर वह जलने से इनकार करती है, तो समाज उसे जीने नहीं देगा और चिता पर बैठती है, तो आग उसे जलाकर मार देगी। दोनों हालात में मृत्यु निश्चित है।
हाड़ जलै ज्यूॅं लाकड़ी, केस जलैं ज्यूॅं घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।
       सती स्त्री की वेदना पर कबीर की यह सबसे गम्भीर टिप्पणी है। जरा यह देख लें कि कबीर के भाष्यकर्ता इसका अर्थ क्या करते हैं? डा. युगेश्वर का भाष्य है- ऐ मनुष्य, देखो मरने के बाद हड्डियाॅं लकड़ी के समान जलती हैं। केश घास जैसे जलते हैं। सारे शरीर को जलते देखकर सन्त कबीर दुखी हो गए। इस शरीर की क्यों इतनी सेवा की गई?
यह अर्थ डा. युगेश्वर ने अपने संपादित ग्रंथ कबीर समग्र’ (प्रथम भाग) में किया है। इन महाशय ने कबीर को बिल्कुल नासमझ समझ लिया कि उन्होंने अपने जीवन में कोई चिता ही जलती हुई न देखी होगी? क्या मृतक के दाह-संस्कार को देखकर कबीर दुखी हुए होंगे? क्या कबीर नहीं जानते थे कि हिन्दुओं में मृतक को जलाया जाता है? क्या वे नहीं जानते थे कि जो जन्मा है, उसे मरना भी होता है? फिर, मृतक को जलाने पर कैसा दुख? आगे, वह यह भी लिख रहे हैं, ‘ऐसे शरीर की क्यों इतनी सेवा की गयी?’ तब क्या करे आदमी? खाना-पीना, नहाना-धोना सब बन्द कर दे? डा. युगेश्वर यह न समझ सके कि इस साखी में कबीर मृतक शरीर को जलता देखकर दुखी नहीं हो रहे हैं, बल्कि वे जिन्दा स्त्री को जलाये जाने पर दुखी हो रहे हैं। वे इसलिये उदास हैं, क्योंकि एक स्त्री को जिन्दा जलाया जा रहा है। पहले शरीर में आग लगी, फिर केश जलना शुरु हुए और फिर सारा शरीर जलने लगा। यही कबीर के उदास होने का कारण है। कबीर की यह करुणा और सम्वेदना उदासीके रूप में सती के प्रति प्रकट हुई है।
कबीर ग्रन्थावली में, पदावली का पहला पद ही सती के ऊपर है। लेकिन, कबीर के द्विज पाठकों ने उसे विवाह का पद बना दिया, यानी दुलहन मंगलाचार गा रही है और कबीर राजा राम के साथ ब्याह करने चले हैं। उन्होंने कबीर को पुरुष से स्त्री बना दिया। यह पद इस प्रकार है-

दुलहनी गावहु मंगलचार।
हम घरि आये हो राजा राम भरतार।।
तन रत करि मैं मन रत करिहूँ, पंचतत्त बराती।
राँमदेवा मोरैं पाँहुनैं आये मैं जोबन मैं माती।।
सरीर सरोवर बेदी करिहूँ, ब्रह्मा वेद उचार।
राँमदेव सँगि भाँवरी लैहूँ, धंनि धंनि भाग हमार।।
सुर तेतीसूँ कौतिग आये, मुनिवर सहस अठ्यासी।
कहै कबीर हँम ब्याहि चले हैं, पुरिष एक अबिनासी।।


कबीर न ब्रह्मा में विश्वास करते हैं, न वेदों में, न तैंतीस कोटि देवताओं को मानते, हैं और न वे ब्राह्मण ऋषि-मुनियों को महत्व देते हैं। उनके राम राजा भी नहीं हैं, निर्गुण और निराकार हैं। फिर कबीर भी स्त्री नहीं हैं, जो राजा राम पुरुष से विवाह करेंगे? द्विज आचार्यों ने कबीर में सखी-भाव को आरोपित कर, उन्हें स्त्री-वेश देने का ब्राह्मणी-कर्म भी किया है। कबीर ऐसे ढकोसलों में न पड़ते हैं और न उनको मानते हैं। तब, इस पद का क्या अर्थ है? यह जानने के लिये हिन्दी के आचार्यों ने अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं किया, यह पद कबीर ग्रन्थावली के जितने भी नुसखे (गुटके) मौजूद हैं, सभी में पहले पद के रूप में शामिल हैं। अतः यह पद प्रक्षिप्त नहीं हो सकता। लेकिन इस तरफ किसी विद्वान का ध्यान नहीं गया, सिवाय अनुराधा के, कि कबीर का यह पद सरोवर के किनारे बेदी पर एक जवान हिन्दू स्त्री को, उसके पति के मरने पर, पति के शव के साथ जिन्दा जलाकर सती करने के लिये ले जाय जाने का वर्णन है। अनुराधा पहली विद्वान हैं, जिन्होंने इस दिशा में हिन्दी मानस का ध्यान आकर्षित किया है। वे लिखती हैं-

‘‘प्रसिद्ध पद दुलहिनी मोरी गावहुँ मंगलचारको मंगलाचारशब्द पर जोर देकर सीधे-सीधे विवाह उत्सव का गीत व्याख्यायित किया गया। लेकिन, विवाह में सरोवर के किनारे वेदीबनाने का विधान तो है ही नहीं और राजस्थान में सती के गीतों को मंगलाचारकहते हैं। यहाँ यह बात उठाते ही व्याख्या खण्ड-खण्ड हो जाती है। सरोवरपर जोर देते ही अर्थ-विधान दुल्हनको सतीके लिये लायी गयी स्त्री में बदल देता है।’’ (हंस, फरवरी 2008, पृष्ठ 39)

अनुराधा ने इब्बनबतूता के यात्रा वृत्तांत से इसकी पुष्टि की है। वे लिखती हैं-

‘‘तत्कालीन दौर के घुमक्कड़ इब्बनबतूता ने अपने यात्रा-वृत्तांत में लिखा है, ‘तीन कोस चलने के बाद हम एक ऐसी जगह पहुँचे जहाँ जल की बहुतायत थी और वृक्षों की सघनता के कारण अंधकार छाया हुआ था। यहाँ चार गुंबद (मन्दिर) बने हुए थे और चारों में एक देवता की मूर्ति प्रतिष्ठित थी। इन चारों के मध्य एक ऐसा सरोवर था, जहाँ वृक्षों की सघन छाया होने के कारण धूप नाम को भी न थी। इस कुंड के पास नीचे स्थल में अग्नि दहकाई गयी। पन्द्रह पुरुषों के हाथों में लकडि़यों के गट्ठे बँधे हुए थे और दस पुरुष अपने हाथ में बड़े-बड़े कुंदे लिये खड़े थे। नगाड़े, नौबत और शहनाई बजाने वाले स्त्रियों की प्रतीक्षा में खड़े थे। इतना कहकर वह प्रणाम कर तुरन्त उसमें कूद पड़ी। बस नगाड़े, ढोल, शहनाई और नौबत बजने लगी। उपस्थित जनता भी चिल्लाने लगी।’’

‘‘कबीर के उक्त पद के काव्य संवेदन को इब्बनबतूता के वर्णन के साथ पढ़ा जाय तो पितृपक्षीय दृष्टियों का वह कमाल उजागर हो जाता है, जो कि काव्य संवेदना को रहस्यवाद का जामा पहनाकर स्त्री इतिहास के करुणतम पक्ष को भी जिन्दा दफन कर देता है। स्त्री के जिन्दा जलाये जाने के अनुष्ठान को विवाह के उत्सव सा दिखा डालता है।’’ (वही, पृष्ठ 39-40)

अनुराधा इस बात को स्वीकार करती हैं कि कबीर सती के रूप में प्रचलित अत्याचारों से व्यथित हैं। यद्यपि वे साईं से मिलन के लिये सती के रूपक का भी प्रयोग करते हैं, पर सती के नाम पर जिस नृशंसता से विधवा स्त्री को जलाकर मार दिया जाता है, उससे वे आहत होते हैं। उनके काव्य में ऐसी घटनाओं के अनेक सजीव चित्रण मिलते हैं, जिन्हें पढ़कर लगता है कि वे अपने समय के सचमुच ही एक जागरूक द्रष्टा थे। वे एक साखी में उस सती स्त्री का वर्णन कर रहे हैं, जो पति का स्मरण करते हुए जलने के लिये घर से निकलती है और ढोल-नगाड़ों के शब्द सुनकर ही अचेत हो जाती है। यथा-

सती जलन कूँ नीकली, पीव का सुमरि सनेह।
सबद सुनत जीव निकल्या, भूलि गयी सब देह।।
    
बिरह को अंगमें कबीर की अनेक साखियों का सम्बन्ध सती-प्रथा से ही है। एक साखी में वे कहते हैं-

बिरह जलाई मैं जलौं, जलती जलहरि जाउँ।
मो देख्याँ जलहरि जलै, संतौ कहाँ बुझाउँ।।
    

इसका शाब्दिक अर्थ है, बिरह में जलती हुई स्त्री जलहर (सरोवर) जा रही है। पर उसे लगता है कि जलहर ही जल रहा है। अनुराधा ने इसकी व्याख्या करते हुए बड़े मार्के की बात कही है ‘‘सती की घटना को जिस सरोवर के किनारे अंजाम दिया जाता है, यदि उसे सरोवर के दूसरे किनारे बैठकर देखा जाये तो निश्चित रूप से जलने वाली परछाईं के कारण सरोवर भी जलता मालूम होगा। चारों तरफ आग ही आग दिखायी दे रही है। सती के लिये तो यह आग ही विभीषिका है। इससे साफ है कि कबीर अकेले हैं, जो इस तरह की घटनाओं के साक्षी हैं। वे समाज के ऐसे क्रिया-कलापांे से संवेदित होते थे।’’
कबीर ने एक पद में एक ऐसी स्त्री का वर्णन किया है, जो गौने के बाद ससुराल आयी है, और जिसने अपने पति का मुँह तक नहीं देखा है। पर उसे पति की लाश के साथ जिन्दा जलने के लिये मजबूर किया जा रहा है। यथा-

मैं सामने पीव गौंहनि आई।
साँईं संगि साध नहीं पूगी, गयौ जोबन सुपिनाँ की नाँई।।
पंच जना मिलि मंडप छायौ, तीन जनां मिलि लगन लिखाई।
सखी सहेली मंगल गावैं सुख-दुख माथै हलद चढ़ाई।।
नाँनाँ रंगैं भाँवरि फेरी, गांठि जोरि बावै पति ताई।
पूरि सुहाग भयो बिन दूलह, चैक कै रंगि धरयो सगौ भाई।।
अपने पुरिष मुख कबहूँ न देख्यौ, सती होत समझी समझाई।
कहै कबीर हूँ सर रचि मरिहूँ, तिरौ कंत ले तूर बजाई।।

इस पद में सती अपनी हृदय विदारक व्यथा कहती है मेरा पीव (पति) गौना कराने आ रहा था। (वह मर गया) मेरा यौवन सपने की तरह खत्म हो गया। घर के रीति-रिवाज के मुताबिक उसे सती होना है। वह अपने विवाह को याद करती है कि कैसे पाँच आदमियों ने मंडप बनाया और तीन लोगों ने लगन लिखी। हल्दी चढ़ी, और पति के साथ गाँठ जोड़कर भाँवरें पड़ीं और आज बिना पति के सारा सुहाग खत्म हो गया। अब सगा भाई ही उसे सती होने के लिये मजबूर कर रहा है। जिस ब्याहता ने पति का मुँह तक नहीं देखा, उसे समझा-बुझाकर सती करने के लिये ले जाया जा रहा है।

       कबीर ने इस पद में जिस घटना का चित्र खींचा है, ऐसी ही एक घटना का जिक्र रिज्कुल्लाह मुश्ताकी की किताब वाव़फेआते मुश्ताकीमें मिलता है, जिसे प्रो. ओमप्रकाश गुप्ता ने अपनी पुस्तक कबीर और समकालीन इतिहासमें दर्ज किया है।
सती से सम्बन्धित कबीर के पदों में आध्यात्मिक शब्दों का प्रयोग बहुत कम हुआ है, लगभग न के बराबर। ऐसे पद सीधे आँखों देखे सामाजिक चित्र हैं। ऐसा ही एक पद इस प्रकार है-

रैनि गयी मति दिन भी जाइ।
भवर उड़े बग बैठै आइ।।
काँचे करवै रहै न पानी, हंसि उड्या काया कुमिलाँनी।।
थरहर थरहर कंपै जीव, नाँ जानूँ का करिहै पीव।
कऊवा उड़ावत मेरी बहियाँ पिराँनी, कहै कबीर मेरी कथा सिराँनी।।
  
इस पद में जरा भी आध्यात्मिकता नहीं है। इसमें कबीर ने उस स्त्री के अन्तद्र्वन्द्व को बिम्बित किया है, जो सती होना नहीं चाहती। इसी द्वन्द्व में रात बीत गयी है और दिन भी बीतने वाला है। जिस तरह कच्ची मिट्टी के करवै में पानी नहीं रुक सकता (वह स्वयं पानी में घुलकर नष्ट हो जाता है) उसी तरह मृतक का शव भी कुम्हलाने लगा है (सड़ने लगा है) वह यह सोचकर थर-थर काँप रही है कि पता नहीं, मृतक पति उसके साथ क्या करेगा। यहाँ अनुराधा ने सही संकेत किया है कि विधवा के ‘‘दिमाग पर यह हावी कर दिया गया है कि सती न होने पर पति भूत बनकर कुछ बुरा करेगा, तुम्हें जीने नहीं देगा।’’ ‘नाँ जाँनूँ का करि है पीवमें इशारा इसी ओर है। कौए बार-बार लाश को नोचने के लिये आ रहे हैं, जिन्हें उड़ाते-उड़ाते उसकी बाहें थक गयी हैं। अन्त में कबीर बड़ी मार्मिक बात कहते हैं कहै कबीर मेरी कथा सिराँनी।अर्थात् वह स्त्री कहती है, मेरी कथा मेरी जिन्दगी भी यहीं खत्म होती है।

कबीर ने हिन्दुओं की इस मान्यता का खण्डन किया है कि विधवा स्त्री स्वेच्छा से सती होती थी। हिन्दू उसे सती होने के लिये बाध्य करते थे। चिता तक ले जाने से पहले उसे भाँग पिलाकर इतना नशे में कर दिया जाता था कि वह अपनी सुध-बुध खो बैठती थी। फिर उसे चिता पर बैठा कर जला दिया जाता था। उसकी चीत्कारें सुनायी न दें, इसलिये ढोल नगाड़े बजाये जाते थे, वह चिता से निकलकर भागे नहीं, इसलिये उसके हाथ-पैर बाँध दिये जाते थे और चिता के चारों ओर मोटे-मोटे डंडे लेकर लोग खड़े होते थे, ताकि यदि वह चिता से उठकर भागने की कोशिश करे, तो वे उसे डंडों से फिर से आग में ढकेल देते थे। कबीर की दृष्टि में यह स्त्री की नृशंस हत्या थी, जिसे सती का नाम दिया गया था। कबीर ने एक स्त्री के मुख से इसका बहुत ही मार्मिक विरोध कराया है। यथा-

हौं तोहि पूछौं हे सखी, जीवत क्यूँ न मराइ।
मूँवा पीछै सत करै, जीवत क्यूँ न कराइ।।
  
इस साखी में स्त्री अपनी वेदना को अपनी सखी के समक्ष प्रकट कर रही है। सती होने के लिये बाध्य की जा रही यह स्त्री सखी से कह रही है, हे सखी, मुझे तब ही क्यों न मार दिया, जब वह (पति) जीवित थे? उनके मरने के बाद मेरे सत की परीक्षा क्यों ली जा रही है। जब वह जीवित थे, तब मेरे सत की परीक्षा क्यों नहीं ली गयी?

       इन साखियों के प्रकाश में कबीर स्त्री वेदना के अपने दौर के सबसे संजीदा और सम्वेदनशील कवि हैं। अब रहा सवाल उन पदों का, जिन्हें आधार बनाकर कबीर पर स्त्री विरोधी होने का आरोप है, इस सन्दर्भ में यह समझने की जरूरत है कि कबीर ने कामी और कामिनी इन दो शब्दों का प्रयोग किया है। ये दोनों शब्द व्यभिचारी पुरुष और स्त्री के लिए हैं। और कबीर ने इन दोनों की निन्दा की है। इसके बावजूद, कबीर दुराचार के लिए स्त्री को दोषी नहीं मानते हैं। आज भी पितृ सत्ता के लोग स्त्री को ही दोष देते हैं। पर कबीर कहते हैं-
नारी जननी जगत की, पाल पोस दे तोष।
मूरख राम बिसार कर, ताहि लगावैं दोष।
       इस साखी का उल्लेख प्रभाकर श्रोत्रिय ने अपनी पुस्तक कबीर: विविध आयाममें किया है।
23 जनवरी 2016