मंगलवार, 28 जून 2016

प्रोफेसर श्याम लाल की नई किताब
(कँवल भारती)      
प्रोफेसर श्याम लाल जी की नई पुस्तक पोलिक्स आॅफ दि अनटचेबुल्स-काॅंग्रेस एण्ड दि भंगीज: ए सोशियो एनालिसिसनाम से रावत पब्लिकेशन, जयपुर से आई है। वे जानेमाने समाजशास्त्री हैं, और पटना विश्वविद्यालय, पटना तथा जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर में कुलपति रह चुके हैं। वे स्वच्छकार समाज से आते हैं। गत दिनों उनकी आत्मकथा दि अनटोल्ड स्टोरी आॅफ ए भंगी वाइस चांसलरकी काफी चर्चा हुई थी। उनकी एक दर्जन से भी अधिक पुस्तकों में ट्राइबल लीडरशिप, दि रैगर मूवमेंट, आंबेडकर एण्ड दलित मूवमेंट, भंगीज इन ट्रांजिशन, एजुकेशन अमंग ट्राइबल्स, मर्हिर्ष नवल: ए ग्रेट भंगी सेन्ट, आंबेडकर एण्ड नेशन बिल्डिंग, अनटचेबल मूवमेंट इन इंडिया महत्वपूर्ण और विचारोत्तेजक कृतियाॅं हैं। इसी कड़ी में स्वच्छकार समुदाय पर उनकी यह एक नई बेजोड़ किताब है, जिसमें उन्होंने सफाई कर्मचारियों के रूप में उनके राजनीतिक संघर्ष और काॅंग्रेस के साथ उनके रिश्तों का मूल्याॅंकन किया है। उनकी तीन पुस्तकें हिन्दी में भी उपलब्ध हैं-(1) ‘सामाजिक न्याय एवं दलित राजनीति’, (2)  ‘एक भंगी कुलपति की अनकही कहानीऔर (3) ‘भारत में अछूत आन्दोलन’ (इस किताब का हिन्दी अनुवाद 1911 में मैंने किया है)।
पोलिक्स आॅफ दि अनटचेबुल्सपुस्तक के केन्द्र में आरम्भ से अन्त तक स्वच्छकार समाज है। परिचयके अन्तर्गत डा. श्याम लाल जी एक सूत्रवाक्य लिखते हैं, जो एक प्रश्न भी है, और उसी का जवाब देने की कोशिश उन्होंने इस पुस्तक में की है। वे लिखते हैं-भंगी समुदाय राजनीतिक रूप से उतने संगठित और जागरूक नहीं हैं, जितने अन्य अनुसूचित समुदाय हैं, जैसे, उत्तर प्रदेश में चमार और जाटव, राजस्थान में मेघवाल, चमार, बैरवा और रैगर तथा महाराष्ट्र में महार। भंगी अपने सामाजिक और राजनीतिक महत्व को अभी नहीं जानते हैं, इसलिए वे उससे अधिकतम लाभ भी नहीं उठा पाते हैं।’ (पृष्ठ 23)
डा. श्याम लाल जी ने इसके कारणों की पूरी गहनता से छानबीन की है। वे चिन्ता व्यक्त करते हैं कि 1932 के गाॅंधी-आंबेडकर-पैक्ट के बाद जो सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवर्तन दलित वर्गों में हुए, उससे भंगी समुदाय क्यों वंचित रहा? इसका पहला कारण उनकी दृष्टि में वही है, जो मैंने सूत्रवाक्य के रूप में ऊपर उद्धरित किया है। इसके सिवा वे दो अन्य कारण भी बताते हैं, जैसे, एक, ‘भंगी समुदाय की राजनीति मुख्य रूप से काॅंग्रेस की नीतियों की पिछलग्गू बनकर रही है। देश के अन्य दलित समुदायों ने अपने भाग्य को कभी भी किसी एक पार्टी से बाॅंधकर नहीं रखा, बल्कि वे उन सभी पार्टियों से जुड़े, जिनमें उनको अपना हित दिखाई दिया। तीसरा कारण वे यह बताते हैं कि भंगी नेता अपने समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करते, क्योंकि उनकी आवाज काॅंग्रेस के पास बंधक रखी होती है।
निस्सन्देह डा. साहब के इन तर्कों में दम है। यही कारण है कि व्यक्तिगत तौर पर कुछ गिने-चुने वाल्मीकि नेता ही लाभान्वित हुए हैं और उनका भरपूर विकास हुआ है, जबकि बाकी वाल्मीकि समाज का पेशा आज भी सफाई कार्य ही बना हुआ है। उन्होंने इतिहास में जाकर गहन पड़ताल की है। उनका यह कहना एक दम सही है कि स्वतन्त्रता से पूर्व, जब डा. आंबेडकर दलित-मुक्ति की लड़ाई लड़ रहे थे, मेहतर समाज अपने खून-पसीने की कमाई से हजारों रुपए की थैली गाॅंधी और काॅंग्रेस को भेंट कर रहा था। स्वतन्त्रता के बाद भी उसकी सक्रिय भागीदारी गाॅंधी और काॅंग्रेस के आन्दोलन में रही। डा. लाल गलत नहीं कहते हैं कि मेहतर और काॅंग्रेस पार्टी दोनों में अविच्छेद्य सम्बन्ध बन गया था। काश यह न हुआ होता, तो आज इस समुदाय की सामाजिक और आर्थिक तसवीर कुछ दूसरी ही होती।
इस दृष्टि से डा. श्याम लाल जी की यह पुस्तक बेहद पठनीय है, खास तौर से वाल्मीकि समाज के लिए जो अभी भी राजनीतिक रूप से जागरूक और संगठित नहीं है। इस लिहाज से इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद भी शीघ्र आना चाहिए।
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इस पुस्तक का एक संक्षिप्त परिचय देने की मैं यहाॅं कोशिश करता हूॅं। भंगीशार्षक अध्याय में उन्होंने उसकी उत्पत्ति पर विस्तार से प्रकाश डाला है, जिसमें विभिन्न राज्यों में उसके अलग-अलग नामों, उसके मिथकीय, ऐतिहासिक, नृविज्ञानी, जातीय और आक्रमण के सिद्धान्तों पर आधारित तथ्यों पर बात करते हुए उसकी वर्तमान स्थिति पर गम्भीर चर्चा की है। यहाॅं हम उससे विभिन्न राज्यों में उसके अलग-अलग नामों की तालिका उद्धृत करते हैं। इसके अनुसार, बंगाल में हरि, हादी; उत्तर प्रदेश में वाल्मीकि, धानुक; मध्य प्रदेश में मेहतर, भंगी; असाम में मेहतर, भंगी; उड़ीसा में मेहतर, भंगी, वाल्मीकि, मादिगा; बिहार में मेहतर; तमिलनाडु में थोटी; आन्ध्र प्रदेश में मादिगा; पंजाब में मीरा, लालबेग, चूहड़ा, बालाशाही, वाल्मीकि; महाराष्ट्र में घरे, भंगी; गुजरात में हलालखोर, हेला, बरवाशिया; दिल्ली में भंगी, वाल्मीकि; कर्नाटक में मादिगा; केरल में मादिगा और राजस्थान में भंगी, मेहतर, चूहड़ा और वाल्मीकि नाम प्रचलित हैं।
डा. साहब ने इस अध्याय में इस सवाल का बहुत ही तार्किक विश्लेषण किया है कि इन लोगों को भंगी किस आधार पर कहा गया? वे सवाल करते हैं कि क्या ये लोग पहले बहिष्कृत घोषित किए गए और बाद में उनसे गन्दे काम कराए गए? या वे लोग आरम्भ से ही यह गन्दा काम कर रहे थे, इसलिए अछूत घोषित किए गए? अगर इन सवालों का उत्तर यह है कि ये लोग आरम्भ से गन्दा काम नहीं कर रहे थे, और बाद में उनको गन्दा काम करने के लिए मजबूर किया गया, तो वे कहते हैं कि फिर दूसरा सवाल यह पैदा होता है कि आखिर वे कारण और मजबूरियाॅं क्या थीं? इस अध्याय में उन्होंने उन्हीं कारणों और मजबूरियों को तलाशने का काम किया है। उन्होंने डा. आंबेडकर के सिद्धान्त पर भी विचार किया है, और अन्य ऐतिहासिक कारणों पर भी। पर उन्होंने किसी एक मत को निष्कर्ष के रूप में स्वीकार नहीं किया है, वरन् उनकी दृष्टि में लोगों को भंगी बनाने में सभी सिद्धान्तों की भूमिका अहम रही है। लेकिन उनका महत्वपूर्ण सवाल यह है, जो उन्होंने मुस्लिम और ब्रिटिश काल के दौरान मेहतर बनाए जाने के सिद्धान्त की भी आलोचना करते हुए भी उठाया है कि अगर सामान्य लोगों को मानव-मल उठाने के गन्दे काम में लगाने के लिए विवश किया गया था, तो उन्होंने विद्रोह क्यों नहीं किया? उसे अपनी नियति मानकर स्वीकार क्यों कर लिया था? यह सचमुच एक बड़ा सवाल है, जिस पर विचार किया जाना जरूरी है।
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अखिल भारतीय सफाई मजदूर कांग्रेस की स्थापना कब और क्यों हुई और उसका दूरगामी प्रभाव क्या पड़ा? इस किताब का अगला अध्याय इसी विषय पर है। श्याम लाल जी बताते हैं कि महाराष्ट्र में साठ के दशक में सफाई कर्मचारियों के कुछ छोटे-मोटे संगठन चल रहे थे, जिनको भंग करके 1964 में महाराष्ट्र के तत्कालीन काॅंग्रेसी विधायक भगवानदास कांद्रा की अध्यक्षता में प्रदेश स्तर पर राष्ट्रीय सफाई मजदूर काॅंग्रेसनाम से एक संगठन बना था। उसके दो साल बाद उनके नेताओं ने अखिल भारतीय स्तर पर संगठन की जरूरत को लेकर 21 मई 1966 को एक बड़ा सम्मेलन किया, जिसका उद्घाटन तत्कालीन केन्द्रीय रक्षा मन्त्री कृष्णा मेनन ने किया था। इसमें मुख्य भूमिका पंजाब के भंगी नेता यशवंत राय की थी। इन्हीं की अध्यक्षता में 23 मई 1966 को बम्बई में अखिल भारतीय सफाई मजदूर काॅंग्रेसका गठन हुआ। डा. लाल के अनुसार, यशवंत राय सभ्रान्त परिवार से थे। उनके पिता की मृत्यु उनके बचपन में ही हो गई थी और उनका लालन-पालन लाला लाजपत राय के परिवार में हुआ था। उनकी शिक्षा पंजाब और लन्दन में हुई थी। इससे समझा जा सकता है कि सफाई मजदूर संगठन अपने जन्म से ही काॅंग्रेस की योजना था। वह एक स्वतन्त्र संगठन कभी नहीं रहा। यशवंत राय तेरह साल तक उसके अध्यक्ष रहे। पर, उसके कलकत्ता में हुए बारहवें अधिवेशन में काॅंग्रेस के पूर्व रेलवे मन्त्री सरदार बूटा सिंह अध्यक्ष चुने गए, जबकि राय उसके मनोनीत चेयरमेन बनाए गए। डा. लाल लिखते हैं कि बूटा सिंह को अध्यक्ष चुनने के पीछे कारण यह था कि वह प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाॅंधी के काफी निकट थे, इसलिए एक तो उनसे सरकार और पार्टी संगठन में भंगियों के लिए भागीदारी की अपेक्षा थी, दूसरे, सफाई मजदूर काॅंग्रेस के लिए वह आवश्यक धन और अन्य संसाधन उपलब्ध करा सकते थे। लेकिन, लेखक के अनुसार, परिणाम ज्यादा अच्छा नहीं रहा। हालांकि काॅंग्रेस ने अन्य पिछड़े, ट्राइबल और हरिजन संगठनों के साथ-साथ सफाई मजदूर काॅंग्रेस के लिए भी कार्यालय वगैरा उपलब्ध कराया था, और अनेक राज्यों में कुछ महत्वपूर्ण भंगी नेताओं को सरकार में मन्त्री भी बनवाया था। डा. लाल लिखते हैं कि इस प्रोत्साहन ने भंगी नेताओं को काॅंग्रेस-समर्थक बना दिया और परिणामतः वे अपने सभी कार्यक्रमों का आरम्भ और अन्त काॅंग्रेस की प्रशंसा और वकालत से करने लगे। काॅंग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय नेता सफाई मजदूर काॅंग्रेस के सम्मेलनों की अध्यक्षता करते थे, यहाॅं तक कि इन्दिरा गाॅंधी और राजीव गाॅंधी तक सफाई मजदूर काॅंग्रेस में रुचि लेते थे। इसके कारण कुछ सफाई मजदूर नेताओं को काॅंग्रेस ने विधान सभा और लोकसभा के टिकट भी दे दिए थे। लेकिन इससे पूरे समाज पर क्या प्रभाव पड़ा? इस पर कुछ नहीं लिखा गया है।
डा. श्याम लाल आगे अखिल भारतीय सफाई मजदूर काॅंग्रेस की एक ऐतिहासिक रैली का उल्लेख करते हैं, जो 21 सितम्बर 1990 को नई दिल्ली के वोट क्लब मैदान में हुई थी। इसमें सम्पूर्ण भारत के सफाई मजदूरों ने भाग लिया था और अनेक प्रस्ताव पारित हुए थे, जिनमें सफाई कार्य का राष्ट्रीयकरण करना, उसे तकनीकी सेवा घोषित करना और तद्नुरूप वेतन का निर्धारण करना, सफाई कर्मियों को निःशुल्क आवास देना, आश्रित को नौकरी देना, वाल्मीकि जयन्ती पर अवकाश घोषित करना और बूटा सिंह के नेतृत्व में भरोसा करना शामिल था। किन्तु लेखक ने इन प्रस्तावों को, ज्यों-का-त्यों प्रस्तुत करने के सिवा, उनका आलोचनात्मक विश्लेषण नहीं किया है, जो अखरता है।
टगले अध्याय में लेखक ने बूटा सिंह के उत्थान और पतन पर संक्षिप्त प्रकाश डाला है कि किस तरह राजीव गाॅंधी की मृत्यु के बाद प्रधानमन्त्री बने नरसिम्हाराव ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया। टिकट न मिलने पर उन्होंने काॅंगे्रस से इस्तीफा देकर राजस्थान से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीता। उसी समय वह भाजपा में शामिल हुए और बाजपेयी सरकार में संचार मन्त्री बने। पर कुछ ही समय बाद उन्होंने भाजपा भी छोड़ दी और पुनः काॅंग्रेस में जाने का प्रयास किया। पर उन्हें टिकिट नहीं दिया गया। उन्होंने जयललिता, मायावती और पुनभाजपा से भी सम्पर्क किया और समाजवादी पार्टी से भी। बात न बनने पर वह जलोरा सीट से फिर निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़े और वह 2014 का चुनाव हार गए।

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राजनीति पार्टियों और सवर्ण हिन्दुओं द्वारा भंगियों के साथ किया जाने वाला भेदभावइस पुस्तक का महत्वपूर्ण अध्याय है। प्रोफेसर लिखते हैं कि अभी तक के अध्ययन बताते हैं कि भंगी समाज चार प्रकार के भेदभावों से पीड़ित है-राजनीतिक पार्टियों का भेदभाव, सवर्ण हिन्दुओं का भेदभाव, सरकार का भेदभाव और अन्य अछूत जातियों का भेदभाव। उनके अनुसार, काॅंग्रेस में निष्ठा रखने वाले भंगी आज वहाॅं उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। उन्हें काॅंग्रेस से टिकट नहीं मिल रहा है और विधानसभाओं और लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व नाममात्र का रह गया है। 1957 में स्थिति फिर भी अच्छी थी, पर इसके बाद उनका प्रतिनिधित्व बराबर कम होता चला गया और आज स्थिति यह है कि 2014 की लोकसभा की 544 सीटों में केवल एक भंगी है, जो बेहद निराशाजनक है। राज्यसभा की स्थिति इससे भी बदतर है। लाल साहब लिखते हैं कि वर्ष 1952 से 2000 तक काॅंग्रेस ने भंगी समाज से एक भी व्यक्ति को राज्यसभा के लिए नहीं चुना था। राज्यसभा में पहली बार भंगी समुदाय का सांसद 2005 में देखा गया था, जिसे भाजपा ने चुना था। राजनीति में उन्हें स्वीकार किया जाना अभी बाकी है।
पर सवर्ण हिन्दुओं की उपेक्षा आम तौर से दलितों के और खास तौर से भंगी जाति के प्रति राजनीति में ही नहीं, समाज में भी दिखाई देती है। डा. लाल लिखते हैं कि सवर्ण हिन्दू तीन कारणों से दलितों को हिन्दू फोल्ड में रखना चाहते हैं। पहला, अस्पृश्यता के कारण, जिनके स्पर्श से वे अशुद्ध हो जाते हैं। दूसरे, दलित उनके लिए सबसे सस्ते और अवैतनिक मजदूर हैं। और तीसरे, एक व्यक्ति एक वोट की राजनीतिक संस्कृति में दलित जातियाॅं प्रभुत्वशाली जातियों और वर्गों के लिए वोट बैंक की जरूरत बनी हुई हैं। इसलिए वे दलित जातियों के धर्मान्तरण का विरोध धार्मिक कारणों से नहीं करते हैं, बल्कि उसका कारण सामाजिक और आर्थिक है। इसके पीछे उनकी सोच यह रहती है कि अगर दलित जातियाॅं हिन्दूधर्म या उनकी जातिव्यवस्था से अलग हो गईं, तो सवर्ण हिन्दुओं को काफी कुछ खोना पड़ जायेगा।यही कारण है कि भंगी समुदाय का सामाजिक और आर्थिक उत्थान नहीं हो पा रहा है। एक्शन एड की एक रिपोर्ट के हवाले से डा. लाल लिखते हैं कि मैला उठाने पर प्रतिबन्ध लगने के बावजूद यह प्रथा अभी भी अस्तित्व में है। इसी की वजह से उनमें शिक्षा का विकास नहीं हो पा रहा है, क्योंकि स्कूलों में उनके बच्चों के साथ भेदभाव होता है और वे स्कूल छोड़ देते हैं। उन्होंने आगे भंगी समुदाय के उस विकास पर भी प्रकाश डाला है, जिसे हम सम्भ्रान्त या अभिजात का विकास कह सकते हैं। इस सम्बन्ध में उनके सभी आॅंकड़े हालांकि राजस्थान प्रदेश के हैं, फिर भी विचारणीय हैं। व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में भी कुछ तरक्की भंगी समुदाय ने की है। उनके अनुसार उन्होंने गैस एजेन्सी, पेट्रोल पम्प, प्रिन्टिंग प्रेस, आइरन वर्क शाप, और होटल खोले हैं। कुछ शिक्षित भंगियों ने डेयरी भी खोली हैं।
सरकार के भेदभाव के उनके आॅंकड़े भी अधिकांशतः राजस्थान तक ही सीमित हैं। वे लिखते हैं कि राजस्थान लोक सेवा आयोग में बैरवा, चमार, यहाॅं तक कि भील और मीणा भी सदस्य है, पर सरकार ने अभी तक एक भी भंगी को सदस्य नहीं बनाया है। सरकार विभागों और संस्थानों में भंगियों का प्रतिनिधित्व निराशाजनक है। लगभग 1150 पदों में केवल 53 पद भंगी समुदाय के पास हैं। इस पर डा. लाल टिप्पणी करते हैं कि यही वह महत्वपूर्ण समय है, जब भंगियों को अपने आप को बदलना होगा। उन्हें अपनी कार्यशैली बदलनी होगी और अन्य समुदायों की तरह अपने अधिकारों के लिए लड़ना होगा। वे वाल्मीकियों के लिए पृथक आरक्षण का समर्थन करते हुए लिखते हैं कि पंजाब पहला राज्य है, जिसने वाल्मीकियों मजहबी सिखों के लिए 50 प्रतिशत कोटा फिक्स किया है। हालांकि इसे चमार, आदिधर्मी और रमदसियों ने हाईकोर्ट में चुनौती दी थी, पर कोर्ट ने सरकार के फैसले को बनाए रखा है। इसके विरुद्ध की गई अपील सुप्रीम कोर्ट ने भी खारिज कर दी थी। वे कहते हैं कि भंगी समुदाय के पास अपनी गरीबी और दुखों को दूर करने तथा सामाजिक न्याय को हासिल करने का एकमात्र रास्ता केवल पृथक आरक्षण का ही है।
अन्य अछूत जातियों के द्वारा भंगियों के साथ किए जाने वाले भेदभाव के सम्बन्ध में लेखक का कहना है कि पूरे देश में दलित जातियाॅं जातिव्यवस्था के विरोध में हैं, पर यह आश्यर्चजनक है कि वे स्वयं आन्तरिक जातिव्यवस्था से ग्रस्त हैं। इनमें भंगी सबसे ज्यादा अछूत और अशुद्ध समझे जाते हैं। वे कहते हैं कि सभी दलित जातियाॅं भंगी समुदाय से भेदभाव करती करती हैं। उनके अनुसार चमार पहली प्रभुत्वशाली जाति है, दूसरे स्थान पर रैगर है, खटीक तीसरे स्थान पर है, और अन्तिम पायदान पर भंगी है, जिसका कोई भी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक आधार नहीं है।
आगे के अध्यायों में लेखक ने भंगी समुदाय के द्वारा किए गए उन प्रयासों का वर्णन किया है, जो उनके शैक्षिक, सामाजिक और आर्थिक उत्थान के साथ-साथ उनकी मूलभूत आवश्यकताओं के सम्बन्ध में हैं। यह वर्णन सरकार की कथनी और करनी के जिस यथार्थ को सामने लाता है, वह अन्यन्त निन्दनीय है। इसी क्रम में काॅंग्रेस के विख्यात नेताओं के झूठ और यथार्थ पर भी डा. लाल ने गम्भीर चर्चा की है। इसमें उन्होंने गाॅंधी जी, जवाहरलाल नेहरू, इन्दिरा गाॅंधी, राहुल गाॅंधी के विचारों को उद्धरित किया है, जिसमें इन नेताओं ने बताया है कि भंगियों के हित में क्या-क्या किया जाना चाहिए। पर वे बताते हैं कि हकीकत ठीक इसके विपरीत है। उन्होंने इस बात को भी रेखांकित किया है कि राजस्थान में अशोक गहलोत ने, जो अपने को गाॅंधीवादी कहते थे, अपने शासन में गाॅंधी की शिक्षा के विरुद्ध भंगियों की ही ससबसे ज्यादा उपेक्षा की थी। वे उदाहरण देते हैं कि 2007 में जिस बसुन्धरा राजे की भाजपा सरकार ने पहली बार डा. आंबेडकर फाउण्डेशनकी स्थापना करके डा. आंबेडकर के प्रति सम्मान व्यक्त किया था, उस संस्थान को अशोक गहलोत ने 2008-2013 के अपने काॅंग्रेसी शासन में एक पैसे का भी आवण्टन नहीं किया था। वे लिखते हैं कि जिस काॅंग्रेस को भंगी समुदाय सबसे ज्यादा समर्थन करता था, उसका अब काॅंग्रेस से मोह भंग हो गया था और 2013 के विधानसभा चुनावों में उसने काॅंग्रेस को वोट न देने का निश्चय किया था। वे राजनीतिक पार्टियाॅं और भंगी समुदायनामक अध्याय में इस बात का भी खुलासा करते हैं कि बसुन्धरा राजे ने 2003-2008 में अपने शासन में पहली बार में राज्य के सभी विभागों को रिक्त पदों पर भंगी समुदाय के युवकों को भर्ती करने का सर्कुलर जारी किया था, जिसके परिणामस्वरूप भारी संख्या में भंगी युवको को विभिन्न विभागों में नौकरी मिली थी। किन्तु जब भाजपा की पराजय के बाद काॅंग्रेस सत्ता में आई, तो उसने इस सर्कुलर पर रोक लगादी। लेकिन वे यह भी कहना नहीं भूलते कि भंगियों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने में भाजपा ने भी कोई रुचि नहीं ली थी। वह लिखते हैं कि 1985 से राजस्थान विधानसभा में कोई भी भंगी विधायक नहीं चुना गया। इसी अध्याय में वे एक और मार्के का खुलासा करते हैं कि चुनाव आयोग द्वारा जो हाल में ष्छव्ज्।ष् का विकल्प लागू किया गया था, उसका प्रयोग राजस्थान में उच्च जातियों के मतदाताओं ने सुरक्षित सीटों पर दलित जातियों के उम्मीदवारों के खिलाफ किया था। उन्होंने इसको अनेक सुरक्षित सीटों पर प्राप्त वोटों की संख्या से साबित भी किया है।
भंगियों की मुक्तिअध्याय में लेखक ने गाॅंधी जीे के इस कथन के प्रकाश में कि मेरा अगर पुनर्जन्म हो, तो एक भंगी के घर में हो, ताकि मैं उन्हें मैला उठाने के अमानवीय, घृणित और गन्दे काम से मुक्ति दिला सकूॅंआज भी इस अमानवीय, घृणित और गन्दे प्रथा के जारी रहने पर सवाल उठाया है। उन्होंने ऐसे अनेक स्त्री-पुरुषों के बयान दर्ज किए हैं, जो आज भी इस गन्दे काम को बहुत ही मामूली उजरत पर कर रहे हैं। यह सचमुच वाजिब सवाल है कि काॅंग्रेस अपने छह दशकों के लम्बे शासन में भी इस गन्दे काम से भंगियों को छुटकारा नहीं दिला पाई। इसका कारण इसके सिवा और क्या हो सकता है कि भंगियों की मुक्ति काॅंग्रेस की प्राथमिकता में ही नहीं थी। इसी क्रम में उन्होंने अन्ना आन्दोलन और आम आदमी पार्टीपर भी एक अध्याय लिखा है, जो यह रेखांकित करता है कि दिल्ली में पहली बार वाल्मीकि समुदाय काॅंग्रेस के फोल्ड से बाहर निकला और खुलकर अरविन्द केजरीवाल का समर्थन किया। आम आदमी पार्टी ने पाॅंच वाल्मीकियों को टिकिट दिए थे, जिनमें से तीन उम्मीदवार जीते थे। इनमें एक राखी विलडान भी थी, जो दिल्ली की पहली वाल्मीकि महिला मन्त्री बनी।
इस पुस्तक का अन्तिम अध्याय काॅंग्रेस ने मूलाधार खोयाशीर्षक से है, जिसमें लेखक ने पूरी सच्चाई से स्पष्ट किया है कि वाल्मीकि समुदाय के नेता यह समझने लगे हैं कि काॅंग्रेस की वजह से ही वाल्मीकि समाज आज भी अन्तिम पंक्ति में है, और अब उन्होंने अपना भविष्य भाजपा में देखने का मन बना लिया है।
निस्सन्देह डा. श्याम लाल की वाल्मीकि समुदाय पर आधारित अछूतों की राजनीतिपुस्तक ज्वलन्त सवाल उठाती है और इसे पढ़ते हुए कोई कारण नहीं है कि हम यह न मानें कि इस समुदाय के साथ सिर्फ सरकारों ने ही नहीं, सिर्फ सवर्ण हिन्दुओं ने ही नहीं, बल्कि दलित वर्गों ने भी अन्याय किया है।
(28 जून 2016)


रविवार, 19 जून 2016

अविस्मरणीय मुद्रा जी
कॅंवल भारती

                ‘जाने वाले लौटकर नहीं आते, जाने वालों की याद आती है।मेरे ही शहर के मशहूर शाइर दिवाकर राही का यह मकबूल शेर आज मुद्रा राक्षस के निधन पर रह-रहकर याद आ रहा है। सचमुच मुद्रा जी लौटकर नहीं आयेंगे, पर उनकी याद हमेशा आयेगी। जब भी लखनऊ जाना होगा, उनकी याद आयेगी और एक सूनापन महसूस होगा।
                मुद्रा जी को पढ़ते हुए उनसे मिलने की इच्छा होती थी, पर उनके घर का कोई पता-ठिकाना मेरे पास नहीं था। उस समय तक लखनऊ में मेरा किसी भी लेखक से खास परिचय नहीं हुआ था। एक दारापुरी जी से जरूर परिचय हो गया था, जिनसे कभी-कभार उनके इन्दिरा भवन स्थित आफिस में जाकर मिल भी लेता था। मैं सम्भवतः सुलतानपुर में तैनात था। मैं वहाँ से अपने निजी या सरकारी कार्य से विभाग के मुख्यालय में आता रहता था। मुख्यालय प्रागनारायण मार्ग पर कल्याण भवन में था। चारबाग से आते हुए मैं अक्सर जीपीओ, नरही, सिकन्दर बाग और गोखले मार्ग के रास्तों पर नजर रखता था कि शायद फ्रेंच कट दाढ़ी में कोई व्यक्ति नजर आ जाय, और वह मुद्रा जी हों। अखबारों में उनके लेख के साथ जो फोटो छपता था, उसमें उनकी फ्रेंच कट दाढ़ी होती थी, इसलिए उनका यही चित्र मेरे दिमाग में बसा हुआ था। एक बार गोखले मार्ग से ही एक फ्रेंच कट दाढ़ी वाला व्यक्ति विक्रम में चढ़ा, तो मैं बहुत देर तक उस व्यक्ति को देखता रहा और समझने की कोशिश करता रहा कि क्या यही मुद्रा जी हैं। पर वह नहीं थे, वह शरीर से भी भारी थे। एक बार अमीनाबाद के इलाके में भी मैं इसी पागलपन के साथ मुद्रा जी से अचानक मिलने की कोशिश कर रहा था। लेकिन इस तरह से कोई चमत्कार कभी नहीं हुआ, पर जब सालों बाद हकीकत में उनके घर जाना हुआ, तो पता चला कि वह तो सचमुच अमीनाबाद के ही करीब थे। लेकिन यह उनसे मेरी पहली मुलाकात नहीं थी, अलबत्ता उनके घर पहली बार ही जाना हुआ था।
                मुद्राजी से मेरी पहली मुलाकात काफी देर से हुई थी। वर्ष ठीक से याद नहीं है। शायद वह 2000 या उससे पहले का कोई वर्ष हो सकता है, जब कथाक्रम के किसी आयोजन में मैंने पहली दफा उनको देखा और सुना था। वर्णव्यवस्था, वेद, उपनिषद, कौत्स, मनु और प्रेमचन्द आदि पर उनका व्याख्यान विचारोत्तेजक था। मैंने देखा कि अपनी टिप्पणियों से दलित विमर्श को उरोज पर पहुंचा देने वाले गैर दलित वक्ताओं में वही एक मात्र वक्ता थे। रात को खाने से पूर्व वहाँ व्हिस्की और बीयर पीने की व्यवस्था थी। कुछ अपवादों कों छोड़कर, जिनमें अदम गोंडवी और एक-दो महिलायें थीं, सभी पी रहे थे। सच्ची कहूँ तो इस तरह के माहौल से मेरा वास्ता पहली दफा पड़ा था। अपनी जन्मजात हीनता की ग्रन्थी के कारण मैं उस माहौल में स्वयं को अनफिट सा महसूस कर रहा था। मुझे तब पीने का शऊर भी असल में नहीं था। साल में कभी-कभार कुछ देशी पीने वालों के साथ जरूर बैठ जाता था, एकाध गिलास आँख  मींचकर हलक में उतार भी लेता था। पर यहाँ पूरा बार ही सजा हुआ था। मैंने व्हिस्की का एक गिलास उठाया और उसमें पानी की जगह बीयर डालने के लिए जैसे ही बोतल उठाई, शैलेन्द्र जी ने तुरन्त टोक दिया, ‘अरे, न..न..! व्हिस्की में बीयर नहीं डाली जाती।और मैं, जो अपनी हीनता-ग्रन्थी से पहले से ही ग्रस्त था, झेंपकर रह गया था। दो-तीन पैग पीने के बाद काशीनाथ सिंह, राजेन्द्र यादव और श्रीलाल शुक्ल के बीच जो नानवेज डायलागशुरु हुआ, और जिस तरह काशीनाथ सिंह ने मुद्राजी की चांद बजाई और जिस तरह श्रीलाल शुक्ल आज की प्रख्यात, और तब की उदीयमान कथा लेखिका से बार-बार गले मिलने की स्थिति में पहुँच रहे थे, और किस तरह शशिभूषण द्विवेदी एक ग्लैमरस युवा लेखिका पर बाग-बाग हुए जा रहे थे, यह सब देखना मेरे लिए सचमुच एक नया अनुभव था। लेकिन मुद्राजी इस फूहड़पन का अपनी मुस्कान के साथ आनन्द ले रहे थे। अपनी चांद बजाए जाने पर भी वह मुस्करा ही रहे थे। पीना उनकी कमजोरी थी, पर बहकना उनकी आदत में शुमार नहीं था।
                इस पहली मुलाकात में उनसे कुछ खास बातचीत नहीं हो सकी थी। हाँ, उनका टेलीफोन नम्बर और घर का पता मैंने जरूर ले लिया था। अब मैं फोन पर उनसे बात कर लेता था। बहुत से विषयों पर उनसे चर्चा भी फोन पर हो जाती थी। मेरा लखनऊ आना लगा ही रहता था, जब भी आता और मेरे पास समय रहता तो मैं राजेन्द्र नगर में राजवैद्य माताप्रसाद सागर से जरूर मिलता था। लखनऊ में गर्दिश के दिनों में मेरे शरणदाताओं में भी वह प्रमुख थे। एक दिन वैद्य जी से ही मैंने दुर्विजय गंज का रास्ता पूछा, तो बोले, रानीगंज के चैराहे से बाएं मुड़ जाना, सीधे उनके घर पर ही पहुँच जाओगे। और, सचमुच, मैं उसी रास्ते से मुद्रा जी के घर पहुँच गया। उन दिनों मोबाइल फोन नहीं था, और लैंडलाइन फोन वैद्य जी के घर पर भी नहीं था, इसलिए उन्हें पूर्व सूचना देने या उनसे समय लेने का अवसर नहीं था। मैंने घर के बाहर लगी घण्टी बजाई। खिड़की में से एक युवा चेहरा नजर आया, पूछा, कौन? मैंने अपना परिचय दिया, और कुछ क्षण बाद दाहिनी तरफ के एक कमरे में मुझे बैठा दिया गया। कमरा बहुत साधारण था। दीवाल पर एक चित्र टंगा था, जिसमें दो विपरीत लिंगी छोटे बच्चे आपस में किस कर रहे थे। एकाध पेंटिंग भी थी। बैठने के लिए कुछ कुर्सियां और बीच में एक मेज थी। वह किधर से भी स्टडी रूम नहीं था, इसलिए कि उसमें कुछ किताबें आदि नहीं थीं। उसी समय मुद्रा जी ने कमरे में प्रवेश किया, कैसे हो कंवल?
मैंने कहा, ‘जी ठीक हूँ।
फिर बोले, ‘अरे तुम तो मेरे प्रिय लेखक हो, सारे दलित लेखकों में।
यह तो आपका बड़प्पन है।मैंने कहा था।
मैंने कहा, मैंने सुना है कि हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष के लिए आपका नाम गया है। सुनकर उपेक्षा से बोले, ‘मैं अगर जाऊॅंगा, तो नाटक अकादमी में जाऊॅंगा,  इस वाहियात जगह क्यों जाऊॅंगा?’
इसके बाद दलित राजनीति पर चर्चा छिड़ गई। वह चर्चा आंबेडकर के पूना पैक्ट और भगत सिंह से होती हुई आज के कम्युनिस्टों तक चली गई। उन्होंने कांशीराम को बहुजन नायक माना, पर मायावती की तीखी आलोचना की। उन्होंने भारतीय इतिहासकारों, खासकर कम्युनिस्ट इतिहासकारों की भी आलोचना की, जिन्होंने उस सम्पूर्ण स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास की उपेक्षा की, जो फुले और आंबेडकर ने बहुजनों की मुक्ति के लिए लड़ा था। उनका कहना था कि इतिहास के इतने महत्वपूर्ण पक्ष को नकारने का एक ही मललब है कि ये सारे कम्युनिस्ट लेखक अपनी मानसिकता में ब्राह्मणवादी थे। उनके विचारों को सुनते हुए समय का पता ही नहीं चला, घड़ी देखी, तो एक घण्टा होने वाला था। उसी समय मैंने उनसे विदा ली।
इसके बाद तो उनसे मिलने के अनगिनत अवसर मिले। कई बार तो कथाक्रम के ही आयोजनों में मिलना हुआ। कथाक्रम 2014 के आयोजन में वे अस्वस्थ चल रहे थे, स्वयं से न खड़े हो सकते थे, और न चल सकते थे। लेकिन इसके बावजूद वे उसमें शामिल हुए थे। उन्होंने अपने वक्तव्य के आरम्भ में जो कहा था, वह बहुत मार्मिक है-मैं जब यहाँ आने के लिए तैयार हुआ, तो पोती बोली, आप को जो बोलना है, उसे बोल दीजिए, मैं लिख देती हूँ। उसे वहाँ भिजवा दीजिए, वहाँ कोई पढ़ देगा। मैंने कहा, नहीं! वहाँ जाने का मतलब सिर्फ बोलना ही नहीं है, लोगों को सुनना और लोगों से मिलना-जुलना भी होता है। और, मैं चला आया।सभागार में तालियां  बजीं, और बजनी ही चाहिए थीं, क्योंकि उन्होंने साहित्यिक आयोजनों के महत्व और उनकी अर्थवत्ता को रेखांकित किया था।
उनके साथ उसी अवसर की एक तस्वीर मेरे मोबाईल में कैद है, जिसमें सभागार में अग्रिम पंक्ति में वे मेरे साथ बैठे हुए हैं। इस तस्वीर को एक लेखक मित्र ने अपने मोबाइल से खींचकर मुझे मेल किया था। उस मित्र का नाम अब याद नहीं आ रहा है। जब हम बैठे थे, तो उन्हें पेशाब लगा। मुझसे बोले, ‘वह कहाँ  है, जो मेरे साथ आया था? मैंने कहा, मैं नहीं जानता, पर आप मुझे बताइए, क्या करना है?’ उन्होंने कहा, ‘बाथरूम जाना है।मैंने तुरन्त उन्हें उठाया, और उनका हाथ पकड़कर उन्हें टायलेट ले गया। उस समय मैंने जाना कि रोग और बुढ़ापा आदमी को कितना बेबस बना देता है!
अन्तिम बार मेरा उनसे मिलना 23 अगस्त 2015 को उमा राय प्रेक्षागार, लखनऊ में हुआ था, जहाँ  वे भगवानस्वरूप कटियार द्वारा सम्पादित रामस्वरूप वर्मा समग्रके लोकार्पण के आयोजन में मुख्य वक्ता के रूप में आए थे। संयोग से वहाँ  भी मुझे उनके ही साथ बैठने का सुयोग मिला था। उस समय उनका स्वास्थ्य मुझे पहले से भी ज्यादा खराब लग रहा था। उन्हें तब बोलने में भी कठिनाई हो रही थी। लेकिन इसके बावजूद वे वहाँ  रामस्वरूप वर्मा के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करने के लिए आए थे। उनका यही गुण हम जैसे लोगों को, जो थोड़ी सी तकलीफ में भी आराम करना पसन्द करते हैं, बहुत प्रेरणा देता है। इस अवसर पर मुद्रा जी ने रामस्वरूप वर्मा के बारे में बोलते हुए कुछ बेबाक टिप्पणियां  कीं थीं, जिन पर चर्चा बेहद जरूरी थी, पर हुई नहीं। उन्होंने कहा था-वह अपने दौर के महत्वपूर्ण व्यक्ति थे, जिन्होंने राजनीति के साथ-साथ दलित-पिछड़ी जातियों को ब्राह्मणवाद के खिलाफ जगाने का काम किया। उस दौर में उन्होंने जिस अर्जक वैचारिकी को स्थापित करने का आन्दोलन खड़ा किया, वह आगे स्थिर नहीं रह सका, क्यों? जिस विचारधारा की आज सबसे ज्यादा जरूरत है, वह उन्होंने दी, पर वह जीवित क्यों नहीं रही? कहीं न कहीं इसके जिम्मेदार स्वयं वर्मा जी भी थे।लेकिन इस बात को वे खुलकर नहीं कह सके थे। इसका कारण या तो उनकी अस्वस्थता थी या फिर वे रामस्वरूप वर्मा के भक्तों को नाराज नहीं करना चाहते थे, जिनका आचरण उनकी वैचारिकी के ठीक विपरीत था। कार्यक्रम के बाद मैंने अपनी शंका उन पर प्रकट की, तो उनका दर्द छलक आया था। मुद्रा जी इस बात को लेकर दुखी थे कि दलित-पिछड़ी जातियाॅं उसी ब्राह्मणवाद को अपने कंधों पर ढो रही हैं, जिसका आजीवन विरोध वर्मा जी ने किया था।
मुद्रा जी से एक अचानक मुलाकात इलाहाबाद में लालबहादुर वर्मा जी के आवास पर हुई थी, जिसका वर्ष याद नहीं आ रहा है, पर, वह इक्कीसवीं सदी का आरम्भिक वर्ष हो सकता है। वह मुलाकात दो मायने में महत्वपूर्ण थी, एक, इसलिए कि वहीं पहली दफा सुभाष गताड़े, विकास राय और रवीन्द्र कालिया से मिलना हुआ था, और, दो, इसलिए कि मुझे मुद्रा जी और कालिया जी के बीच चल रही बातचीत में, जिसमें वे अपनी अन्तरंग यादें साझा कर रहे थे, मुझे साक्षी बनने का अवसर मिला था। उनकी वे सादें बहुत दिलचस्प थीं, इसलिए बीच-बीच में हॅंसी के ठहाके भी लग रहे थे। वहाँ हम सभी समान विचारधारा के लोग थे, पर इसके बावजूद,  मुद्रा जी समकालीन वामपंथ के आलोचक थे। उनकी आलोचना के केन्द्र में वह वामपंथ था, जो जातिचेतना से लड़ना नहीं चाहता था। एक प्रसंग में उन्होंने इस विचार को वहाँ  भी पूरी शिद्दत से रखा था, जिसे मैं देख रहा था कि विकास जी ने उनके विचार को किसी उदाहरण से आगे बढ़ाया था।
यह वह दौर था, जब मुद्रा जी राष्ट्रीय सहारामें अपने नियमित स्तम्भ-लेखन से दलित-पिछड़े वर्गों के हीरो बने हुए थे। वे आंबेडकर और फुले की विचारधारा को अपने लेखन से निरन्तर धार दे रहे थे। उन्होंने चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु, ललईसिंह यादव और रामस्वरूप वर्मा के रिक्त स्थान को बहुत जल्दी भर दिया था। वे दलित वर्गों के आदर्श बन गए थे, और उस मुकाम पर पहुँच गए थे, जहाँ  कोई दलित लेखक भी आज तक नहीं पहुंचा। यह उन्होंने ही हिन्दी जगत को बताया था कि अवसर मिलने पर चाण्डाल जाति में जन्मे रवीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविख्यात कवि बने, और हेला यानी भंगी जाति में जन्मे बिस्मिल्लाह खां विश्व के मशहूर शहनाई वादक बने। इसलिए यह मामूली घटना नहीं है कि लखनऊ की एक संस्था (विश्व शूद्र सभा) ने उन्हें शूद्राचार्यकी उपाधि दी थी। यह गौरव फिर किसी दूसरे लेखक को हासिल नहीं हुआ। यह अलग बात है कि हिन्दी जगत में इसकी बहुत तीखी प्रतिक्रिया हुई थी, और वे रातोंरात जातिवादीकरार दे दिए गए थे। लेकिन वे नहीं जानते थे कि यही जातिवाददलित वर्गों को उत्तिष्ठित और जागृतकर रहा था।
वे हिन्दी साहित्य के उन आलोचकों में थे, जिन्होंने आलोचना के मठ तोड़े थे, और साहित्य का पुनर्मूल्यांकन किया था। इसी पुनर्मूल्यांकन में उन्होंने प्रेमचन्द को दलितविरोधी कहा था। उन्होंने यहाँ  तक कहा कि प्रेमचन्द आज होते, तो दलित उन्हें जिन्दा जला देते। उनके इस विचार की अत्यन्त तीखी आलोचना हुई। वीरेन्द्र यादव ने उनके विरुद्ध तद्भवमें लम्बा लेख लिखा। सम्भवतः उसी समय दिल्ली में दलित साहित्य अकादमी के अध्यक्ष डा. सोहनपाल सुमनाक्षर ने प्रेमचन्द के उपन्यास रंगभूमिको जलाने का अभियान शुरु किया था। इस प्रश्न पर मैं मुद्राजी से पूरी तरह सहमत नहीं था, और प्रेमचन्द के साहित्य जलाना तो हद दर्जे की मूर्खता ही थी।
मुद्रा जी का पूर्व नाम चाहे जो रहा हो, और चाहे वे किसी भी वर्ण या जाति के रहे हों, पर बहुजन समाज ने उन्हें अपना आदर्श मान लिया था। यह इसी का परिणाम था कि मऊ की चमार समाज परिषदके मुखिया पी. डी. टण्डन ने उन्हें अपने राष्ट्रीय अधिवेशन में बतौर मुख्य अतिथि आमन्त्रित किया था। यह अधिवेशन 9 अप्रैल 2006 को मऊ में दाढ़ी चक्की, आंबेडकर पार्क में हुआ था। संयोग से विशिष्ट अतिथि के रूप में मैं भी उसमें उपस्थित था। उनके साथ इस मौके की मुलाकात मेरी सबसे यादगार मुलाकात है। लखनऊ से 8 अप्रैल को हम दोनों को एक ही ट्रेन से मऊ नाथभंजन जाना था। यहाँ  मैं उनकी सादगी और आम आदमी की प्रवृति का जिक्र करना चाहूँगा, जिसने मुझे बौना बना दिया था। वह गरमी की संध्या थी। प्लेटफार्म पर मैं उनका इन्तजार कर रहा था, पर वे कहीं दिखाई नहीं दे तहे थे। ट्रेन  आई, और मैं अपने आरक्षित दूसरे दरजे के वातानुकूलित कोच में बैठ गया, तब मैंने उन्हें फोन किया, (उस वक्त तक वे मोबाईल फोन रखने लगे थे), पूछा कि आप कहाँ  हैं? उनका जवाब था, ‘मैं ट्रेन में हूँ।मैंने कहा, ‘पूरे डिब्बे में मैंने देख लिया, आप यहाँ  तो नहीं हैं।क्योंकि मैं एसी कोच में ही उनके होने की अपेक्षा कर रहा था, और उस ट्रेन में एसी का एक ही डिब्बा था। वे बोले, ‘मैं स्लीपर क्लास में हूँ।मैं सन्न रह गया। उनसे कोच नम्बर पूछकर तुरन्त उनसे मिलने गया। मैं अपनी बर्थ पर खिड़की के पास बैठे हुए पसीने-पसीने हो रहे थे। मैं स्तब्ध था। इतना महान लेख इस अंधेरे कोच में गरमी में बैठा है। मैंने उनसे एसी कोच में चलने की प्रार्थना की कि आप मेरे साथ चलें, मैं सारी व्यवस्था करा दूंगा।पर वे इसके लिए तैयार नहीं हुए। बोले, ‘मैं ठीक हूँ।
पर क्यों?’, मैंने पूछा।
उन्होंने अपने सामने बैठे व्यक्ति की तरफ देखकर कहा, ‘इन्हीं को मुझे ले जाने की जिम्मदारी सौंपी गई है। इन्हें इसी श्रेणी के टिकट मिले हैं। अब इन्हीं के साथ जाना है और इन्हीं के साथ आना है।
दूसरे दिन भोर में ट्रेन मऊ पहुंची। शाम को कार्यक्रम था। हजारों की भीड़ थी, जो मुद्राजी को सुनने आई थी। उस दिन महापंडित राहुल सांकृत्यायन का जन्मदिवस भी था। मुद्रा जी ने राहुल जी के प्रति अपने उदगार प्रकट करते हुए वेद, स्मृतियों, पुराणों और अन्य शास्त्रों से हवाले देकर भारतीय समाज व्यवस्था का जो ब्राह्मणवादी चरित्र उजागर किया, उसे जनता ने मन्त्रमुग्ध होकर सुना। उनके मुख से इतना धाराप्रवाह और विचारोत्तेजक भाषण सुनना स्वयं मेरे लिए भी नया अनुभव था।
दूसरे दिन रात में सम्भवतः 9 बजे की टेªन से हमें वापिस जाना था। रात के भोजन से निवृत्त होकर हम समय से स्टेशन पहुँच गए थे। लेकिन टेªन पांच घण्टे के विलम्ब से दो बजे के भी बाद आई। प्लेटफार्म पर शायद बिजली नहीं थी, इसलिए पंखे भी नहीं चल रहे थे। विकट गरमी और मच्छरों से बचने के लिए हमने वह पांच घण्टे प्लेटफार्म पर ही, कभी बैठकर, तो कभी टहलते हुए, गुजारे थे। उस रात प्लेटफार्म पर टहलते हुए हमारे बीच बहुत सी साहित्यिक और राजनीतिक बातों के अलावा घर-परिवार की बातें भी हुई थीं। उस समय तक मैं उनकी पुस्तक धर्मग्रन्थों का पुनर्पाठको पढ़ चुका था। मैंने उनसे पूछा, ‘आपकी आर्य-थियरी सबसे अलग है। आपने लिखा है कि भारत में केवल ब्राह्मण बाहर से आया है, और वह यहाँ  घुलमिल कर रहने के लिए नहीं आया। इसीलिए उसने अपनी अलगाववादी व्यवस्था स्थापित की और अपनी पृथक पहचान बनाकर रहता है। लेकिन, डा. आंबेडकर की थियरी बिल्कुल अलग है। वह आर्य को भारत का ही मूलनिवासी माने हैं। क्या उनसे इतिहास को समझने में भूल हुई थी?’ उन्होंने बेहिचक कहा था, ‘हाँ, आंबेडकर से भूल हुई थी।
अप्रैल, 2011 में, मैंने मुद्रा जी को अपनी पुस्तक स्वामी अछूतानन्दजी हरिहरऔर हिन्दी नवजागरणभेजी थी। उन्होंने इसकी चर्चा राष्ट्रीय सहारा में 3 जुलाई 2011 के अपने स्तम्भ में की। इस समीक्षा को पढ़कर धर्मवीर आग-बबूला हो गए थे, जिसके जवाब में उन्होंने एक लम्बा खत मुद्राजी को भेजा था। खैर, मैं उस अंश को यहाँ  उद्धृत कर रहा हूँ,  जो यह था-हिन्दी में हाल में एक महत्वपूर्ण दलित विचारक कंवल भारती की एक किताब आई है स्वामी अछूतानन्द हरिहरऔर हिन्दी नवजागरण। मगर ज्यादा बड़ी बात यह है कि जहाँ  भारतेन्दु जैसे लेखक हिन्दी में एंलाइटेनमेंट के अग्रदूत मानकर पूजे जा रहे हैं, वहीं कंवल ने ज्ञानोदय की वास्तविक प्रतिभाओं में से एक अछूतानन्द हरिहरके जीवन, कृतित्व और विचारों पर एक व्यवस्थित और गवेषणात्मक किताब लिखी है, जिसमें हरिहरजी का अन्य हिन्दी लेखकों और विचारकों से तुलनात्मक अध्ययन है। इस पुस्तक का यह तुलनात्मक भाग चकित करने की हद तक संतुलित और विचार गहन है। इसमें धर्मवीर की तरह दुर्भाषा का नाहक इस्तेमाल नहीं है। कंवल जानते हैं कि आलोचना तभी प्रभावी होती है, ज बवह गाली-गलौंच से बचती है।
एक और अविस्मरणीय घटना है। यह घटना 2005 की है। दलित शोध संस्थान की ओर से रामपुर में एक सेमिनार का आयोजन किया गया था। माता प्रसाद जी की स्वीकृति मिल गई थी, पर संस्थान के अध्यक्ष धीरज शील का मुद्रा जी से सम्पर्क नहीं हो पा रहा था। मैंने मुद्राजी को फोन किया और रामपुर में सेमिनार करने की सूचना देते हुए उसमें उन्हें आने का निवेदन किया। उनकी तबीयत तब भी खराब चल रही थी। बोले, ‘कंवल! तबीयत ठीक नहीं चल रही है। पर खैर! तुम्हारे शहर में जरूर आऊॅंगा।उनकी स्वीकृति मिलते ही मैंने उन्हें एसी द्वितीय श्रेणी के रिटर्न टिकिट भेज दिए। निश्चित तारीख पर वे और माता प्रसाद जी दोनों सुबह ही रामपुर आ गए। पर, दस बजे के बाद से जो आँधी-तूफान और उसके बाद मूसलाधार बारिश शुरु हुई, तो उसने थमने का नाम नहीं लिया। ऐसे में न श्रोता आए, और न सेमिनार हो सका। मुद्रा जी का दोपहर का खाना और पीना धीरज शील के घर पर रखा गया था। आँधी-तूफान और बारिश में उन्हें शहर में भी कहीं ले जाना सम्भव नहीं था। उसी दिन, उनकी शाम की टेªन से वापसी थी, अतः, हमने भारी मन से दोनों विभूतियों को विदा किया। मुद्रा जी का मैं आभार ही व्यक्त कर सका था कि अपनी अस्वस्थता में भी उन्होंने मेरा निमन्त्रण स्वीकार किया था। ऐसे थे मुद्रा जी।
19 जून 2016