प्रोफेसर श्याम लाल की नई किताब
(कँवल
भारती)
प्रोफेसर श्याम लाल जी की नई पुस्तक ‘पोलिक्स
आॅफ दि अनटचेबुल्स-काॅंग्रेस एण्ड दि भंगीज: ए सोशियो एनालिसिस’ नाम
से रावत पब्लिकेशन, जयपुर से आई है। वे जानेमाने समाजशास्त्री हैं,
और
पटना विश्वविद्यालय, पटना तथा जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय,
जोधपुर
में कुलपति रह चुके हैं। वे स्वच्छकार समाज से आते हैं। गत दिनों उनकी आत्मकथा ‘दि
अनटोल्ड स्टोरी आॅफ ए भंगी वाइस चांसलर’ की काफी चर्चा हुई थी। उनकी एक दर्जन
से भी अधिक पुस्तकों में ट्राइबल लीडरशिप, दि रैगर मूवमेंट, आंबेडकर
एण्ड दलित मूवमेंट, भंगीज इन ट्रांजिशन, एजुकेशन अमंग
ट्राइबल्स, मर्हिर्ष नवल: ए ग्रेट भंगी सेन्ट, आंबेडकर
एण्ड नेशन बिल्डिंग, अनटचेबल मूवमेंट इन इंडिया महत्वपूर्ण और
विचारोत्तेजक कृतियाॅं हैं। इसी कड़ी में स्वच्छकार समुदाय पर उनकी यह एक नई बेजोड़
किताब है, जिसमें उन्होंने सफाई कर्मचारियों के रूप में उनके राजनीतिक संघर्ष
और काॅंग्रेस के साथ उनके रिश्तों का मूल्याॅंकन किया है। उनकी तीन पुस्तकें
हिन्दी में भी उपलब्ध हैं-(1) ‘सामाजिक न्याय एवं दलित राजनीति’,
(2) ‘एक भंगी कुलपति की अनकही कहानी’
और
(3) ‘भारत में अछूत आन्दोलन’ (इस किताब का हिन्दी अनुवाद 1911
में मैंने किया है)।
‘पोलिक्स आॅफ दि अनटचेबुल्स’ पुस्तक
के केन्द्र में आरम्भ से अन्त तक स्वच्छकार समाज है। ‘परिचय’ के
अन्तर्गत डा. श्याम लाल जी एक सूत्रवाक्य लिखते हैं, जो एक प्रश्न भी
है, और उसी का जवाब देने की कोशिश उन्होंने इस पुस्तक में की है। वे
लिखते हैं-‘भंगी समुदाय राजनीतिक रूप से उतने संगठित और
जागरूक नहीं हैं, जितने अन्य अनुसूचित समुदाय हैं, जैसे,
उत्तर
प्रदेश में चमार और जाटव, राजस्थान में मेघवाल, चमार,
बैरवा
और रैगर तथा महाराष्ट्र में महार। भंगी अपने सामाजिक और राजनीतिक महत्व को अभी
नहीं जानते हैं, इसलिए वे उससे अधिकतम लाभ भी नहीं उठा पाते
हैं।’ (पृष्ठ 23)
डा. श्याम लाल जी ने इसके कारणों की पूरी गहनता
से छानबीन की है। वे चिन्ता व्यक्त करते हैं कि 1932 के
गाॅंधी-आंबेडकर-पैक्ट के बाद जो सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवर्तन दलित
वर्गों में हुए, उससे भंगी समुदाय क्यों वंचित रहा? इसका
पहला कारण उनकी दृष्टि में वही है, जो मैंने सूत्रवाक्य के रूप में ऊपर
उद्धरित किया है। इसके सिवा वे दो अन्य कारण भी बताते हैं, जैसे, एक,
‘भंगी
समुदाय की राजनीति मुख्य रूप से काॅंग्रेस की नीतियों की पिछलग्गू बनकर रही है।
देश के अन्य दलित समुदायों ने अपने भाग्य को कभी भी किसी एक पार्टी से बाॅंधकर
नहीं रखा, बल्कि वे उन सभी पार्टियों से जुड़े, जिनमें उनको
अपना हित दिखाई दिया। तीसरा कारण वे यह बताते हैं कि भंगी नेता अपने समुदाय का
प्रतिनिधित्व नहीं करते, क्योंकि उनकी आवाज काॅंग्रेस के पास
बंधक रखी होती है।
निस्सन्देह डा. साहब के इन तर्कों में दम है।
यही कारण है कि व्यक्तिगत तौर पर कुछ गिने-चुने वाल्मीकि नेता ही लाभान्वित हुए
हैं और उनका भरपूर विकास हुआ है, जबकि बाकी वाल्मीकि समाज का पेशा आज भी
सफाई कार्य ही बना हुआ है। उन्होंने इतिहास में जाकर गहन पड़ताल की है। उनका यह
कहना एक दम सही है कि स्वतन्त्रता से पूर्व, जब डा. आंबेडकर
दलित-मुक्ति की लड़ाई लड़ रहे थे, मेहतर समाज अपने खून-पसीने की कमाई से
हजारों रुपए की थैली गाॅंधी और काॅंग्रेस को भेंट कर रहा था। स्वतन्त्रता के बाद
भी उसकी सक्रिय भागीदारी गाॅंधी और काॅंग्रेस के आन्दोलन में रही। डा. लाल गलत
नहीं कहते हैं कि मेहतर और काॅंग्रेस पार्टी दोनों में अविच्छेद्य सम्बन्ध बन गया
था। काश यह न हुआ होता, तो आज इस समुदाय की सामाजिक और आर्थिक तसवीर
कुछ दूसरी ही होती।
इस दृष्टि से डा. श्याम लाल जी की यह पुस्तक
बेहद पठनीय है, खास तौर से वाल्मीकि समाज के लिए जो अभी भी
राजनीतिक रूप से जागरूक और संगठित नहीं है। इस लिहाज से इस पुस्तक का हिन्दी
अनुवाद भी शीघ्र आना चाहिए।
2
इस पुस्तक का एक संक्षिप्त परिचय देने की मैं
यहाॅं कोशिश करता हूॅं। ‘भंगी’ शार्षक अध्याय
में उन्होंने उसकी उत्पत्ति पर विस्तार से प्रकाश डाला है, जिसमें विभिन्न
राज्यों में उसके अलग-अलग नामों, उसके मिथकीय, ऐतिहासिक,
नृविज्ञानी,
जातीय
और आक्रमण के सिद्धान्तों पर आधारित तथ्यों पर बात करते हुए उसकी वर्तमान स्थिति
पर गम्भीर चर्चा की है। यहाॅं हम उससे विभिन्न राज्यों में उसके अलग-अलग नामों की
तालिका उद्धृत करते हैं। इसके अनुसार, बंगाल में हरि, हादी; उत्तर
प्रदेश में वाल्मीकि, धानुक; मध्य प्रदेश में मेहतर, भंगी;
असाम
में मेहतर, भंगी; उड़ीसा में मेहतर, भंगी,
वाल्मीकि,
मादिगा;
बिहार
में मेहतर; तमिलनाडु में थोटी; आन्ध्र प्रदेश
में मादिगा; पंजाब में मीरा, लालबेग, चूहड़ा,
बालाशाही,
वाल्मीकि;
महाराष्ट्र
में घरे, भंगी; गुजरात में हलालखोर, हेला, बरवाशिया;
दिल्ली
में भंगी, वाल्मीकि; कर्नाटक में मादिगा; केरल में मादिगा
और राजस्थान में भंगी, मेहतर, चूहड़ा और वाल्मीकि नाम प्रचलित हैं।
डा. साहब ने इस अध्याय में इस सवाल का बहुत ही
तार्किक विश्लेषण किया है कि इन लोगों को भंगी किस आधार पर कहा गया? वे
सवाल करते हैं कि क्या ये लोग पहले बहिष्कृत घोषित किए गए और बाद में उनसे गन्दे
काम कराए गए? या वे लोग आरम्भ से ही यह गन्दा काम कर रहे थे,
इसलिए
अछूत घोषित किए गए? अगर इन सवालों का उत्तर यह है कि ये लोग आरम्भ
से गन्दा काम नहीं कर रहे थे, और बाद में उनको गन्दा काम करने के लिए
मजबूर किया गया, तो वे कहते हैं कि फिर दूसरा सवाल यह पैदा होता
है कि आखिर वे कारण और मजबूरियाॅं क्या थीं? इस अध्याय में
उन्होंने उन्हीं कारणों और मजबूरियों को तलाशने का काम किया है। उन्होंने डा.
आंबेडकर के सिद्धान्त पर भी विचार किया है, और अन्य
ऐतिहासिक कारणों पर भी। पर उन्होंने किसी एक मत को निष्कर्ष के रूप में स्वीकार
नहीं किया है, वरन् उनकी दृष्टि में लोगों को भंगी बनाने में
सभी सिद्धान्तों की भूमिका अहम रही है। लेकिन उनका महत्वपूर्ण सवाल यह है, जो
उन्होंने मुस्लिम और ब्रिटिश काल के दौरान मेहतर बनाए जाने के सिद्धान्त की भी
आलोचना करते हुए भी उठाया है कि अगर सामान्य लोगों को मानव-मल उठाने के गन्दे काम
में लगाने के लिए विवश किया गया था, तो उन्होंने विद्रोह क्यों नहीं किया?
उसे
अपनी नियति मानकर स्वीकार क्यों कर लिया था? यह सचमुच एक बड़ा
सवाल है, जिस पर विचार किया जाना जरूरी है।
3
अखिल भारतीय सफाई मजदूर कांग्रेस की स्थापना कब
और क्यों हुई और उसका दूरगामी प्रभाव क्या पड़ा? इस किताब का
अगला अध्याय इसी विषय पर है। श्याम लाल जी बताते हैं कि महाराष्ट्र में साठ के दशक
में सफाई कर्मचारियों के कुछ छोटे-मोटे संगठन चल रहे थे, जिनको भंग करके 1964
में महाराष्ट्र के तत्कालीन काॅंग्रेसी विधायक भगवानदास कांद्रा की अध्यक्षता में
प्रदेश स्तर पर ‘राष्ट्रीय सफाई मजदूर काॅंग्रेस’ नाम
से एक संगठन बना था। उसके दो साल बाद उनके नेताओं ने अखिल भारतीय स्तर पर संगठन की
जरूरत को लेकर 21 मई 1966 को एक बड़ा
सम्मेलन किया, जिसका उद्घाटन तत्कालीन केन्द्रीय रक्षा
मन्त्री कृष्णा मेनन ने किया था। इसमें मुख्य भूमिका पंजाब के भंगी नेता यशवंत राय
की थी। इन्हीं की अध्यक्षता में 23 मई 1966 को बम्बई में ‘अखिल
भारतीय सफाई मजदूर काॅंग्रेस’ का गठन हुआ। डा. लाल के अनुसार,
यशवंत
राय सभ्रान्त परिवार से थे। उनके पिता की मृत्यु उनके बचपन में ही हो गई थी और
उनका लालन-पालन लाला लाजपत राय के परिवार में हुआ था। उनकी शिक्षा पंजाब और लन्दन
में हुई थी। इससे समझा जा सकता है कि सफाई मजदूर संगठन अपने जन्म से ही काॅंग्रेस
की योजना था। वह एक स्वतन्त्र संगठन कभी नहीं रहा। यशवंत राय तेरह साल तक उसके
अध्यक्ष रहे। पर, उसके कलकत्ता में हुए बारहवें अधिवेशन में
काॅंग्रेस के पूर्व रेलवे मन्त्री सरदार बूटा सिंह अध्यक्ष चुने गए, जबकि
राय उसके मनोनीत चेयरमेन बनाए गए। डा. लाल लिखते हैं कि बूटा सिंह को अध्यक्ष
चुनने के पीछे कारण यह था कि वह प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाॅंधी के काफी निकट थे,
इसलिए
एक तो उनसे सरकार और पार्टी संगठन में भंगियों के लिए भागीदारी की अपेक्षा थी,
दूसरे,
सफाई
मजदूर काॅंग्रेस के लिए वह आवश्यक धन और अन्य संसाधन उपलब्ध करा सकते थे। लेकिन,
लेखक
के अनुसार, परिणाम ज्यादा अच्छा नहीं रहा। हालांकि
काॅंग्रेस ने अन्य पिछड़े, ट्राइबल और हरिजन संगठनों के साथ-साथ
सफाई मजदूर काॅंग्रेस के लिए भी कार्यालय वगैरा उपलब्ध कराया था, और
अनेक राज्यों में कुछ महत्वपूर्ण भंगी नेताओं को सरकार में मन्त्री भी बनवाया था।
डा. लाल लिखते हैं कि इस प्रोत्साहन ने भंगी नेताओं को काॅंग्रेस-समर्थक बना दिया
और परिणामतः वे अपने सभी कार्यक्रमों का आरम्भ और अन्त काॅंग्रेस की प्रशंसा और
वकालत से करने लगे। काॅंग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय नेता सफाई मजदूर काॅंग्रेस के
सम्मेलनों की अध्यक्षता करते थे, यहाॅं तक कि इन्दिरा गाॅंधी और राजीव
गाॅंधी तक सफाई मजदूर काॅंग्रेस में रुचि लेते थे। इसके कारण कुछ सफाई मजदूर
नेताओं को काॅंग्रेस ने विधान सभा और लोकसभा के टिकट भी दे दिए थे। लेकिन इससे
पूरे समाज पर क्या प्रभाव पड़ा? इस पर कुछ नहीं लिखा गया है।
डा. श्याम लाल आगे अखिल भारतीय सफाई मजदूर
काॅंग्रेस की एक ऐतिहासिक रैली का उल्लेख करते हैं, जो 21
सितम्बर 1990 को नई दिल्ली के वोट क्लब मैदान में हुई थी।
इसमें सम्पूर्ण भारत के सफाई मजदूरों ने भाग लिया था और अनेक प्रस्ताव पारित हुए
थे, जिनमें सफाई कार्य का राष्ट्रीयकरण करना, उसे तकनीकी सेवा
घोषित करना और तद्नुरूप वेतन का निर्धारण करना, सफाई कर्मियों
को निःशुल्क आवास देना, आश्रित को नौकरी देना, वाल्मीकि जयन्ती
पर अवकाश घोषित करना और बूटा सिंह के नेतृत्व में भरोसा करना शामिल था। किन्तु
लेखक ने इन प्रस्तावों को, ज्यों-का-त्यों प्रस्तुत करने के सिवा,
उनका
आलोचनात्मक विश्लेषण नहीं किया है, जो अखरता है।
टगले अध्याय में लेखक ने बूटा सिंह के उत्थान
और पतन पर संक्षिप्त प्रकाश डाला है कि किस तरह राजीव गाॅंधी की मृत्यु के बाद
प्रधानमन्त्री बने नरसिम्हाराव ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया। टिकट न मिलने पर
उन्होंने काॅंगे्रस से इस्तीफा देकर राजस्थान से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में
लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीता। उसी समय वह भाजपा में शामिल हुए और बाजपेयी सरकार
में संचार मन्त्री बने। पर कुछ ही समय बाद उन्होंने भाजपा भी छोड़ दी और पुनः
काॅंग्रेस में जाने का प्रयास किया। पर उन्हें टिकिट नहीं दिया गया। उन्होंने जयललिता,
मायावती
और पुन‘ भाजपा से भी सम्पर्क किया और समाजवादी पार्टी से भी। बात न बनने पर
वह जलोरा सीट से फिर निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़े और वह 2014 का
चुनाव हार गए।
3
‘राजनीति पार्टियों और सवर्ण हिन्दुओं द्वारा
भंगियों के साथ किया जाने वाला भेदभाव’ इस पुस्तक का महत्वपूर्ण अध्याय है।
प्रोफेसर लिखते हैं कि अभी तक के अध्ययन बताते हैं कि भंगी समाज चार प्रकार के
भेदभावों से पीड़ित है-राजनीतिक पार्टियों का भेदभाव, सवर्ण हिन्दुओं
का भेदभाव, सरकार का भेदभाव और अन्य अछूत जातियों का
भेदभाव। उनके अनुसार, काॅंग्रेस में निष्ठा रखने वाले भंगी आज वहाॅं
उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। उन्हें काॅंग्रेस से टिकट नहीं मिल रहा है और
विधानसभाओं और लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व नाममात्र का रह गया है। 1957
में स्थिति फिर भी अच्छी थी, पर इसके बाद उनका प्रतिनिधित्व बराबर
कम होता चला गया और आज स्थिति यह है कि 2014 की लोकसभा की 544
सीटों में केवल एक भंगी है, जो बेहद निराशाजनक है। राज्यसभा की
स्थिति इससे भी बदतर है। लाल साहब लिखते हैं कि वर्ष 1952 से 2000 तक
काॅंग्रेस ने भंगी समाज से एक भी व्यक्ति को राज्यसभा के लिए नहीं चुना था।
राज्यसभा में पहली बार भंगी समुदाय का सांसद 2005 में देखा गया
था, जिसे भाजपा ने चुना था। राजनीति में उन्हें स्वीकार किया जाना अभी
बाकी है।
पर सवर्ण हिन्दुओं की उपेक्षा आम तौर से दलितों
के और खास तौर से भंगी जाति के प्रति राजनीति में ही नहीं, समाज में भी
दिखाई देती है। डा. लाल लिखते हैं कि ‘सवर्ण हिन्दू तीन कारणों से दलितों को
हिन्दू फोल्ड में रखना चाहते हैं। पहला, अस्पृश्यता के कारण, जिनके
स्पर्श से वे अशुद्ध हो जाते हैं। दूसरे, दलित उनके लिए सबसे सस्ते और अवैतनिक
मजदूर हैं। और तीसरे, एक व्यक्ति एक वोट की राजनीतिक संस्कृति में
दलित जातियाॅं प्रभुत्वशाली जातियों और वर्गों के लिए वोट बैंक की जरूरत बनी हुई
हैं। इसलिए वे दलित जातियों के धर्मान्तरण का विरोध धार्मिक कारणों से नहीं करते
हैं, बल्कि उसका कारण सामाजिक और आर्थिक है। इसके पीछे उनकी सोच यह रहती
है कि अगर दलित जातियाॅं हिन्दूधर्म या उनकी जातिव्यवस्था से अलग हो गईं, तो
सवर्ण हिन्दुओं को काफी कुछ खोना पड़ जायेगा।’ यही कारण है कि
भंगी समुदाय का सामाजिक और आर्थिक उत्थान नहीं हो पा रहा है। एक्शन एड की एक
रिपोर्ट के हवाले से डा. लाल लिखते हैं कि मैला उठाने पर प्रतिबन्ध लगने के बावजूद
यह प्रथा अभी भी अस्तित्व में है। इसी की वजह से उनमें शिक्षा का विकास नहीं हो पा
रहा है, क्योंकि स्कूलों में उनके बच्चों के साथ भेदभाव होता है और वे स्कूल
छोड़ देते हैं। उन्होंने आगे भंगी समुदाय के उस विकास पर भी प्रकाश डाला है,
जिसे
हम सम्भ्रान्त या अभिजात का विकास कह सकते हैं। इस सम्बन्ध में उनके सभी आॅंकड़े
हालांकि राजस्थान प्रदेश के हैं, फिर भी विचारणीय हैं। व्यापार और
उद्योग के क्षेत्र में भी कुछ तरक्की भंगी समुदाय ने की है। उनके अनुसार उन्होंने
गैस एजेन्सी, पेट्रोल पम्प, प्रिन्टिंग
प्रेस, आइरन वर्क शाप, और होटल खोले हैं। कुछ शिक्षित भंगियों
ने डेयरी भी खोली हैं।
सरकार के भेदभाव के उनके आॅंकड़े भी अधिकांशतः
राजस्थान तक ही सीमित हैं। वे लिखते हैं कि राजस्थान लोक सेवा आयोग में बैरवा,
चमार,
यहाॅं
तक कि भील और मीणा भी सदस्य है, पर सरकार ने अभी तक एक भी भंगी को
सदस्य नहीं बनाया है। सरकार विभागों और संस्थानों में भंगियों का प्रतिनिधित्व
निराशाजनक है। लगभग 1150 पदों में केवल 53 पद भंगी समुदाय
के पास हैं। इस पर डा. लाल टिप्पणी करते हैं कि यही वह महत्वपूर्ण समय है, जब
भंगियों को अपने आप को बदलना होगा। उन्हें अपनी कार्यशैली बदलनी होगी और अन्य
समुदायों की तरह अपने अधिकारों के लिए लड़ना होगा। वे वाल्मीकियों के लिए पृथक
आरक्षण का समर्थन करते हुए लिखते हैं कि पंजाब पहला राज्य है, जिसने
वाल्मीकियों मजहबी सिखों के लिए 50 प्रतिशत कोटा फिक्स किया है। हालांकि
इसे चमार, आदिधर्मी और रमदसियों ने हाईकोर्ट में चुनौती दी थी, पर
कोर्ट ने सरकार के फैसले को बनाए रखा है। इसके विरुद्ध की गई अपील सुप्रीम कोर्ट
ने भी खारिज कर दी थी। वे कहते हैं कि भंगी समुदाय के पास अपनी गरीबी और दुखों को
दूर करने तथा सामाजिक न्याय को हासिल करने का एकमात्र रास्ता केवल पृथक आरक्षण का
ही है।
अन्य अछूत जातियों के द्वारा भंगियों के साथ
किए जाने वाले भेदभाव के सम्बन्ध में लेखक का कहना है कि पूरे देश में दलित
जातियाॅं जातिव्यवस्था के विरोध में हैं, पर यह आश्यर्चजनक है कि वे स्वयं
आन्तरिक जातिव्यवस्था से ग्रस्त हैं। इनमें भंगी सबसे ज्यादा अछूत और अशुद्ध समझे
जाते हैं। वे कहते हैं कि सभी दलित जातियाॅं भंगी समुदाय से भेदभाव करती करती हैं।
उनके अनुसार चमार पहली प्रभुत्वशाली जाति है, दूसरे स्थान पर
रैगर है, खटीक तीसरे स्थान पर है, और अन्तिम पायदान पर भंगी है, जिसका
कोई भी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक आधार नहीं है।
आगे के अध्यायों में लेखक ने भंगी समुदाय के
द्वारा किए गए उन प्रयासों का वर्णन किया है, जो उनके शैक्षिक,
सामाजिक
और आर्थिक उत्थान के साथ-साथ उनकी मूलभूत आवश्यकताओं के सम्बन्ध में हैं। यह वर्णन
सरकार की कथनी और करनी के जिस यथार्थ को सामने लाता है, वह अन्यन्त
निन्दनीय है। इसी क्रम में काॅंग्रेस के विख्यात नेताओं के झूठ और यथार्थ पर भी
डा. लाल ने गम्भीर चर्चा की है। इसमें उन्होंने गाॅंधी जी, जवाहरलाल नेहरू,
इन्दिरा
गाॅंधी, राहुल गाॅंधी के विचारों को उद्धरित किया है, जिसमें इन
नेताओं ने बताया है कि भंगियों के हित में क्या-क्या किया जाना चाहिए। पर वे बताते
हैं कि हकीकत ठीक इसके विपरीत है। उन्होंने इस बात को भी रेखांकित किया है कि
राजस्थान में अशोक गहलोत ने, जो अपने को गाॅंधीवादी कहते थे,
अपने
शासन में गाॅंधी की शिक्षा के विरुद्ध भंगियों की ही ससबसे ज्यादा उपेक्षा की थी।
वे उदाहरण देते हैं कि 2007 में जिस बसुन्धरा राजे की भाजपा सरकार
ने पहली बार ‘डा. आंबेडकर फाउण्डेशन’ की स्थापना करके
डा. आंबेडकर के प्रति सम्मान व्यक्त किया था, उस संस्थान को
अशोक गहलोत ने 2008-2013 के अपने काॅंग्रेसी शासन में एक पैसे का भी
आवण्टन नहीं किया था। वे लिखते हैं कि जिस काॅंग्रेस को भंगी समुदाय सबसे ज्यादा
समर्थन करता था, उसका अब काॅंग्रेस से मोह भंग हो गया था और 2013 के
विधानसभा चुनावों में उसने काॅंग्रेस को वोट न देने का निश्चय किया था। वे ‘राजनीतिक
पार्टियाॅं और भंगी समुदाय’ नामक अध्याय में इस बात का भी खुलासा
करते हैं कि बसुन्धरा राजे ने 2003-2008 में अपने शासन में पहली बार में राज्य
के सभी विभागों को रिक्त पदों पर भंगी समुदाय के युवकों को भर्ती करने का सर्कुलर
जारी किया था, जिसके परिणामस्वरूप भारी संख्या में भंगी युवको
को विभिन्न विभागों में नौकरी मिली थी। किन्तु जब भाजपा की पराजय के बाद काॅंग्रेस
सत्ता में आई, तो उसने इस सर्कुलर पर रोक लगादी। लेकिन वे यह
भी कहना नहीं भूलते कि भंगियों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने में भाजपा ने भी कोई
रुचि नहीं ली थी। वह लिखते हैं कि 1985 से राजस्थान विधानसभा में कोई भी भंगी
विधायक नहीं चुना गया। इसी अध्याय में वे एक और मार्के का खुलासा करते हैं कि
चुनाव आयोग द्वारा जो हाल में ष्छव्ज्।ष् का विकल्प लागू किया गया था, उसका
प्रयोग राजस्थान में उच्च जातियों के मतदाताओं ने सुरक्षित सीटों पर दलित जातियों
के उम्मीदवारों के खिलाफ किया था। उन्होंने इसको अनेक सुरक्षित सीटों पर प्राप्त
वोटों की संख्या से साबित भी किया है।
‘भंगियों की मुक्ति’ अध्याय में लेखक
ने गाॅंधी जीे के इस कथन के प्रकाश में कि ‘मेरा अगर पुनर्जन्म
हो, तो एक भंगी के घर में हो, ताकि मैं उन्हें मैला उठाने के अमानवीय,
घृणित
और गन्दे काम से मुक्ति दिला सकूॅं’ आज भी इस अमानवीय, घृणित
और गन्दे प्रथा के जारी रहने पर सवाल उठाया है। उन्होंने ऐसे अनेक स्त्री-पुरुषों
के बयान दर्ज किए हैं, जो आज भी इस गन्दे काम को बहुत ही मामूली उजरत
पर कर रहे हैं। यह सचमुच वाजिब सवाल है कि काॅंग्रेस अपने छह दशकों के लम्बे शासन
में भी इस गन्दे काम से भंगियों को छुटकारा नहीं दिला पाई। इसका कारण इसके सिवा और
क्या हो सकता है कि भंगियों की मुक्ति काॅंग्रेस की प्राथमिकता में ही नहीं थी।
इसी क्रम में उन्होंने ‘अन्ना आन्दोलन और आम आदमी पार्टी’ पर
भी एक अध्याय लिखा है, जो यह रेखांकित करता है कि दिल्ली में पहली बार
वाल्मीकि समुदाय काॅंग्रेस के फोल्ड से बाहर निकला और खुलकर अरविन्द केजरीवाल का
समर्थन किया। आम आदमी पार्टी ने पाॅंच वाल्मीकियों को टिकिट दिए थे, जिनमें
से तीन उम्मीदवार जीते थे। इनमें एक राखी विलडान भी थी, जो दिल्ली की
पहली वाल्मीकि महिला मन्त्री बनी।
इस पुस्तक का अन्तिम अध्याय ‘काॅंग्रेस
ने मूलाधार खोया’ शीर्षक से है, जिसमें लेखक ने
पूरी सच्चाई से स्पष्ट किया है कि वाल्मीकि समुदाय के नेता यह समझने लगे हैं कि
काॅंग्रेस की वजह से ही वाल्मीकि समाज आज भी अन्तिम पंक्ति में है, और
अब उन्होंने अपना भविष्य भाजपा में देखने का मन बना लिया है।
निस्सन्देह डा. श्याम लाल की वाल्मीकि समुदाय
पर आधारित ‘अछूतों की राजनीति’ पुस्तक ज्वलन्त
सवाल उठाती है और इसे पढ़ते हुए कोई कारण नहीं है कि हम यह न मानें कि इस समुदाय के
साथ सिर्फ सरकारों ने ही नहीं, सिर्फ सवर्ण हिन्दुओं ने ही नहीं,
बल्कि
दलित वर्गों ने भी अन्याय किया है।
(28 जून 2016)