(15 साल पहले लिखी गयी ‘आक्रोश’ की यह
समीक्षा टिप्पणी खो गयी थी, जो डा एन. सिंह के सौजन्य और सी. बी. भारती के प्रयास
से आज मिली)
लड़कर छीन लेना फिर से स्वत्व ......
(कंवल भारती)
आज
अगर कोई मुझसे यह पूछे कि मेरे प्रिय दलित कवि कौन-कौन हैं, तो जो सूची मैं तैयार
करूंगा, उसमंे डाॅ0 सी0बी0भारती का नाम जरूर होगा। हिन्दी में सम्भवतः डाॅ0 सी0बी0भारती
ही वे कवि हैं, जिन्होंने सबसे कम लिखा है पर वे सबसे ज्यादा
उद्धरित किये गये हैं। दलित कविता पर कोई लेख उनकी कविता के बगैर पूरा नहीं होता।
यह इसलिये नहीं कि वे सबके प्रिय हैं, बल्कि इसलिये कि दलित कविता का आत्म
संघर्ष यदि सिलसिलेवार किसी कविता संग्रह में उभरता है, तो वह डाॅ0 सी0बी0भारती
का एक मात्र कविता संग्रह ‘‘आक्रोश‘‘ ही है। यही नहीं,
‘‘दलित
साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’’ जैसा गम्भीर निबन्ध भी पहली दफा डाॅ0 सी0बी0 भारती
ने ही लिखा। यह निबन्ध भी सर्वाधिक चर्चित हुआ और सर्वाधिक उद्धरित किया गया। यदि
वे इस विषय पर आगे काम करते, तो इस विषय की पहली किताब भी उन्हीं की
होती। ’’दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’’ जब लोकप्रिय हुआ,
तो
मुझ समेत कई लोगों ने उन्हें इस विषय पर पूरी किताब लिखने का सुझाव दिया था। वे इस
विषय पर बहुत अच्छा काम कर सकते थे, क्योंकि ’’सौन्दर्य
शास्त्र’’ उनकी पी0एच0डी0 थीसिस का विषय
रह चुका है। परन्तु वे इस ओर ध्यान नहीं दे सके।
दलित
कवि जिन दिनों अपने रचना-कर्म में माक्र्सवादी प्रभावों से जूझ रहे थे और जनवादी
शब्दों को उपेक्षा से देख रहे थे, डाॅ0 सी0बी0भारती उन दिनों जनवादी शब्दों का प्रयोग दलित चेतना
के अर्थ में धड़ल्ले से कर रहे थे। उन्होंने अपने कविता-संग्रह का नाम ही ‘‘आक्रोश’’
रखा,
जो
एक जनवादी शब्द है। इसकी भूमिका डाॅ0 एन0सिंह ने लिखी है
और यह अकारण नहीं है कि उन्होंने अपनी भूमिका को ‘‘अग्नि आखर ये’’
नाम
दिया है। सचमुच ये कविताएं ‘‘अग्नि आखर’’ ही हैं। लेकिन,
यह
अग्नि विध्वंस नहीं करती है, विध्वंस के खिलाफ आदमी को युद्धरत
बनाती है। ’’आक्रोश’’ शीर्षक कविता
अत्यन्त सरल, सीधी और सपाट-बयानी की कविता है। उसके मूल में
जो आक्रोश है, वह शासक वर्ग की
आँखों में आँखे डालकर सवाल करता है-
यदि आबाद न कर पाते तुम
मुहब्बतों से यह देश
कम से कम बरबाद तो न किया होता
इसे अपनी नफरत की फितरत से। (पृष्ठ-9)
दलित
चेतना के अर्थ में जनवादी चेतना का यह अभिनव प्रयोग है, जो हमें ’’आक्रोश’’
में
मिलता है। इस कविता की सौन्दर्य चेतना माक्र्सवादी नहीं है। यह दलित साहित्य की वह
सौन्दर्य दृष्टि है, जो मुहब्बतों से देश को आबाद होते देखना चाहती
है। यह सच है कि कवि जिस शासक वर्ग से मुखातिब है, उससे मुहब्बत की
अपेक्षा नहीं की जा सकती। यह माक्र्सवादी अर्थशास्त्र का शासक वर्ग नहीं है,
जिसे
सर्वहारा की तानाशाही से समाप्त किया जा सकता है, बल्कि यह वह
शासक वर्ग है, जिसे हिन्दू समाज-व्यवस्था ने बनाया है और उसे
इस व्यवस्था को मिटाकर ही समाप्त किया जा सकता है।
दलित
चिन्तन के लिये सवाल यह नहीं है कि शासक वर्ग ने सत्ता कैसे कायम की? सवाल
उसके लिये यह है कि दलितवर्ग ने उसे कैसे कायम होने दिया? -
क्यों
नहीं फड़की थी तुम्हारी भुजाएं
क्यों
शून्य रहा तुम्हारा दिमाग
क्यों
काम नहीं आयी तुम्हारी शक्ति
.......
....... ........ .........
क्यों
हड़प ली गयी तुम्हारी अस्मिता
कैसे
गवां बैठे तुम अपना सारा वजूद (पृष्ठ
-1)
डाॅ0 सी0बी0भारती के कविता संग्रह की पहली कविता इसी सवाल पर खड़ी
है। उन्होंने इस ‘‘चिन्तन का समय’’ कविता में ’’बहुजन’’
शब्द
का प्रयोग किया है। ’’बहु-जन! तुम, बहुजन ही रहे
होगे अवश्य’’, इन पंक्तियों से शुरूआत होती है इस कविता की।
यह कांशीराम और मायावती की राजनैतिक शब्दावली का शब्द नहीं है। कवि ने यहां दलित
वर्ग को ‘‘बहुजन‘‘ नाम देने की कोशिश नहीं की है। यह शब्द इस
कविता में इस अर्थवत्ता के साथ आया है कि शासक वर्ग अल्पसंख्यक है, जबकि
उससे पीड़ित वर्ग की संख्या सर्वाधिक है, वह बहुसंख्या में है। ‘’बहु-जन!
तुम, बहुजन ही रहे होगे अवश्य’’ यही कवि के ’’बहुजन’’ शब्द
का अर्थ है। इस कविता की विशेषता यह है कि इसकी अन्तिम पंक्तियों में दलित चेतना
एक व्यापक जनवादी परिवेश निर्मित करती है- ’’बताओ बहुजन ! यह
वक्त पिष्टपेषण का नहीं/यह वक्त चिन्तन का है।’’ (वही)
एक आत्म-विस्मृत जाति का चिन्तन है यह-
अपने
देश के परिवेश में
हमने
तो की मशक्कत
बांटे
हैं प्यार हमेशा
भरे
हैं लोगों के पेट। (’’घृणा’’
पृष्ठ-4)
और, शासक वर्ग ने इस
जाति को क्या दिया- घृणा, अपमान और भूख। इस घृणा ने दलित जाति को
ही नहीं, पूरे देश को गुलाम बनाने का काम किया। जब जरूरत थी देश की जातियों को
एक राष्ट्र बनने की, शासक वर्ग ने तब दलित वर्ग को अस्पृश्य बना कर
रखा। परिणाम यह हुआ कि-
लड़ भी न पाये थे देश के लिये
कभी न एक होकर हम। (वही)
डाॅ0 सी0बी0भारती
ने मिथकों को भी आज के जनवादी परिवेश में रखकर विचारोत्तेजक बना दिया है, जिसके
केन्द्र से यह दलित सवाल उभरता है कि ‘‘जूठन खाने का यह कैसा तिलिस्म?
’’ शबरी
की जूठन खाकर ‘‘पुरूष से मर्यादा पुरूषोत्तम हो गये राम‘‘
और ’’जूठन
पर ही आजन्म’’ पले हम ’’अछूत हो गये।’’
(और)
’’विदुर का शाक खाकर/भगवान हो गये कृष्ण/और हम पले शाक-पात पर ही जीवन
भर/हम शूद्र हो गये/यह कैसा तिलिस्म/कैसा भेदभाव यह/इस धरती के भगवानों का?’’
(अछूत,
पृष्ठ
7) गरीबी से ज्यादा बड़ी सामाजिक अपमान की पीड़ा होती है, इस
कविता में यही भाव बोध केन्द्र में है।
दलित
और सर्वहारा की चेतना का अद्भुत समन्वय डाॅ0 सी0बी0भारती
की ’’निर्माण’’, ’’घर’’, ’’जोंक’’,
’’तितली’’,
’’कुत्ता’’,
’’ईश्वर
नहीं है’’ और ’’कृषि मजदूर’’ कविताओं मंे
देखने को मिलता है। इन कविताओं में उन्होंनंे कहीं भी दलित और सवर्ण का सवाल नहीं
उठाया है। उन्होंने गरीब को यहां जाति के आधार पर विभाजित नहीं किया है। बस,
हैरानी
उनकी संवेदना में है कि गरीब सवर्ण वर्णव्यवस्था के राजनैतिक अर्थशास्त्र से अनजान
है, जिसके कारण गरीबों के साझा संघर्ष मंे उनका उच्चताबोध भयानक बाधा
पैदा करता है। यथा-
मैने
देखा तुम्हारी तरफ आशाओं से
पर
तुमने दी हमें इसके बदले
घृणा
और केवल घृणा (’’कृषि मजदूर’’
पृष्ठ-58)
यही
भाव ‘‘परिन्दे‘‘ कविता मंे इस बिम्ब में उभरता है-
परिन्दों
मंे एकता होती है
परिन्दे
छोटे बड़े का मन मंे भाव नहीं लाते हैं
क्योंकि
परिन्दों में जातियां नहीं होतीं
जाति
का अहंकार नहीं होता। (’’परिन्दे’’
पृष्ठ-27)
काश,
वर्ग-संघर्ष
के समर्थकों ने जाति-संघर्ष की आवश्यकता को महसूस किया होता। परिन्दे कितने भले कि
उनमें जाति का दम्भ नहीं होता। सवाल यह नहीं है कि ब्राम्हण, क्षत्रिय,
वैश्य
और शूद्र-अतिशूद्र नहीं होने चाहिए। हर समाजों में ये हैं। अमेरिकी समाज में भी ये
हैं। लेकिन फिर भी वहां जन्म से कोई भी ब्राम्हण, क्षत्रिय,
वैश्य, शूद्र-अतिशूद्र नहीं है। वहंा की
सामाजिक व्यवस्था मंे तरलता है। वहां जन्म से कोई भी बुद्धिमान नहीं है। भारत मंे
ब्राम्हण जन्म से हैं। और यह ऐसा ब्राम्हण है कि बुद्धिमान नहीं है, शिक्षित
नहीं है, फिर भी ब्राम्हण हैं। भारत में क्षत्रिय जन्म से हैं और यह ऐसा
क्षत्रिय है कि लड़ाकू नहीं है, सैनिक नहीं है, फिर भी क्षत्रिय
है। भारत में वैश्य जन्म से है और यह ऐसा वैश्य है कि व्यापारी नहीं है, फिर
भी वैश्य हैं। भारत में शूद्र-अतिशूद्र (अछूत) जन्म से हैं और यह ऐसे
शूद्र-अतिशूद्र हैं कि बुद्धिमान हैं, लड़ाकू हैं, व्यापारी हैं,
जन
हैं, परन्तु फिर भी शूद्र-अतिशूद्र हैं। अमेरिकी समाज के बुद्धिमान ज्ञान
का विकास करते हैं, नयी नयी शोधें करते हैं, अविष्कार करते
हैं। लेकिन भारत में जो ब्राम्हण है वह सिर्फ तन्त्र-मन्त्र, पूजा-पाठ,
और
पुरोहिती का काम करता हैे। वह ज्ञान का विकास नहीं करता। उसे जैसा है वैसा ही रखता
है। यह घृणित व्यवस्था है। यह पूरे देश को गुलामी की जंजीरों में जकड़ने की
व्यवस्था है। यह आदमी की चेतन शिक्षा और समझ का दमन है। भारत में यदि यह घृणित
व्यवस्था न हो तो वास्तव में ’’दबाई नहीं जा सकती कोई कौम। दबाया नहीं
जा सकता कोई व्यक्ति/दबाया नहीं जा सकता कोई पूरा समाज।’’ (घिनौनी चालें, पृष्ठ-55)
यह
कौम, व्यक्ति और समाज जनतन्त्र के निर्माण में महत्वपर्ण भूमिका निभाते
हैं और इनका दमन जनतन्त्र का दमन है। हिन्दू समाज की इस वर्ण व्यवस्था ने निश्चित
रूप से जनतन्त्र का दमन किया है। लेकिन, सवाल यह गौर तलब है कि यह व्यवस्था कभी
भी जनतन्त्र-समर्थक नहीं थी। इसका जन्म राजतन्त्र में हुआ और यह सदैव सामन्तवादी
व्यवस्था ही बनी रही। अतः यह कहने की आवश्यकता नहीं कि जनतन्त्र के उदय के साथ ही
इस सामन्तवादी व्यवस्था का विरोध भी पैदा हुआ। और, सचमुच यदि भारत
में जनतन्त्र न आया होता, तो क्या देश की टूटती एकता को बचाने का
संकल्प दलित कवि लेता- ‘‘मैने अब उठा ली है कलम/झाडू के
बदले/करंेगे साफ तुम्हारी सारी गन्दगी/बचायेंगे हम/देश की टूटती एकता को।’’
(कलम
के जरिए, पृष्ठ-12)
ये
पंक्तियां जिस ’कविता कलम के जरिए’ से ली गयी हैं,
वह
बहुत महत्वपूर्ण कविता है जिसकी शुरूआत इन पंक्तियों से होती है- ‘‘तुम
फैलाते रहे गन्दगी/और मैं करता रहा सफाई/चलाता रहा अपनी झाड़ू।’’ (वही
पृष्ठ-12) इसमें अद्भुत संरचनात्मक सूक्ष्मता है, ’गन्दगी’ और ’झाडू’
यहां
दो भिन्न अर्थाें में प्रयुक्त हुए हैं। एक अर्थ तो यही है कि दलित उस गन्दगी को
साफ कर रहा है, जो उसने की ही नहीं। इस गन्दगी को करने वाला
कोई दूसरा है, कम से कम दलित तो नहीं है। दूसरा अर्थ यहां
अत्यन्त प्रगतिशील है। इसमें ’झाडू’ कलम के अर्थ में
है। ’गन्दगी’ विचारों की है, जिसकी सफाई
दलित-कलम करती रही है। इस कविता के द्वारा कवि ने साहित्य के मानदण्ड का सवाल
उठाया है और साहित्य की सौन्दर्य-चेतना की सामाजिक भूमि को रेखांकित किया है। यह
विद्रोह की व्यंजना है, जो डाॅ0 सी0बी0भारती
को इस कविता की संरचनात्मकता में दिखाई देती है।
इस
कविता में विन्यास खंडित है, पर अर्थवत्ता अखंड है। वह पूरी कविता
में समान भाव में है। यदि यह सवाल किया जाय कि गन्दगी की सफाई के बाद क्या होता है?
तो
पहले हमें यह देखना होगा कि ‘‘गन्दगी’’ किसकी? जब
मामला दलित-मुक्ति का हो, तो ’’गन्दगी’’
कोई
रहस्यमय शब्द नहीं रह जाता, जिसका अर्थ समझ में न आये। स्पष्ट रूप
से यह गन्दगी उन विचारों की है, जो समाज में अस्पृश्यता, घृणा,
भेदभाव
और अलगाव की दुर्गन्ध फैलाते हैं। इस दुर्गन्ध की सफाई सुगन्ध फैलाकर ही हो सकती
है। इसी अर्थ-सौन्दर्य की ये पंक्तियां है - ’’तुमने जब जब भी
फैलाई है दुर्गन्ध/तब तब मैंने बिखेरी है खुशबू’’/’’ (वही) और यह ’’खुशबू’’
भी
किसकी? ’’मेहनत’’ की। यह ’’मेहनत’’ शब्द
सफाई-कर्म की समग्रता को समेटे हुए है। दलित जाति जो एक मेहनतकश वर्ग है, अपने
उत्पादन-कर्म से जो निर्माण करता है, वह उसके कठिन श्रम की संरचना है-
जिसमें प्यार की सुगन्ध ही हो सकती है।
यहां
शब्द ‘‘खुशबू की मेहनत’’ गौर तलब है। ‘‘मेहनत की खुशबू’’
और ’’खुशबू
की मेहनत’’ में काफी अन्तर है। मेहनत तो सभी करते हैं।
गन्दगी फैलाने वाले भी मेहनत करते हैं और उस गन्दगी की सफाई करने वाले भी मेहनत
करते हैं। अन्तर यह है कि पहले वर्ग की मेहनत दुर्गन्ध की होती है, घृणा
और तिरस्कार की होती है। किन्तु, दूसरे वर्ग की मेहनत सुगन्ध की,
खुशबू
की होती है और यह खुशबू होती है प्यार की। कल्पना कीजिए कि यदि यह प्यार की खुशबू
दलित के पास न हो और प्रतिक्रिया में वह भी घृणा और क्रोध का प्रदर्शन करे,
तो
क्या होगा? उसका सारा श्रम विध्वंस में बदल जायगा। क्या इस
विध्वंस से ’देश की टूटी एकता’ को बचाया जा
सकेगा? कहना न होगा कि डाॅ0 सी0बी0भारती
ने इस छोटी-सी कविता में ’दलित साहित्य की अवधारणा’ को
अभिव्यंजित किया है।
इस
अवधारणा के मूल मेें मेहनतकश दलित की मुक्ति की चेतना है। निर्माण की भूमि पर
कर्मरत दलित खून-पसीना उन लोगों से सवाल करता है, जो उससे घृणा
करते हैं - ‘‘गलाये हैं हमीं ने अपने शरीर इन दहकती जान लेवा
शैतानी भट्टियों में/मगर आज तुम्हें/हमीं को छूने में हिचक होती है।’’ (निर्माण,
पृष्ठ-13)
इस
कविता के केन्द्र में दलित श्रमिक हैं। यहां माक्र्सवादी वर्ग चेतना के बरक्स इस
सामाजिक यथार्थ को कवि ने उजागर किया है कि सामाजिक अपमान की जो पीड़ा दलित श्रमिक
को मिलती है, वह सवर्ण श्रमिक को नहीं मिलती। उसकी पीड़ा
दोहरी है। वह भूखा भी है और तिरस्कृत भी है। कहने का अर्थ यह है कि जनवादी साहित्य
की धारा तब तक पूर्ण नहीं होगी, जब तक कि वह इस सामाजिक प्रश्न को अपने
केन्द्र में नहीं लायेगा-
जातियां
तोड़ती हैं मनुष्य को
जातियां
जन्माती हैं बिलगाव
जातियां
उपजाती हैं घ्णा
जातियां
मिटाती हंै भाईचारा
जातियां
बोती हैं जहर दिलों में,
जातियां
बुनती हैं असमानता। (जातिविहीन..........
पृष्ठ-59)
इस
प्रश्न पर साहित्य की भूमिका क्या होनी चाहिए? यही दलित
साहित्य का प्रस्थान बिन्दु है: - ‘‘हम नहीं चाहते संकीर्ण आदमियांे
वाला/जर्जर कोई समाज/राष्ट्र और देश।’’ (वही)
लेकिन,
इससे
इनकार नहीं किया जा सकता कि इस तरह का समाज अस्तित्व में है। यह समाज संकीर्ण भी
है और जातियों में भी विभाजित है। लोकतन्त्र में इस समाज के अस्तित्व का क्या अर्थ
है ? निश्चित रूप से
लोकतन्त्र या तो अपनी सही भूमिका में नहीं है या फिर वह बेेमानी हो चुका है। इसका
निर्णय कैसे हो ? डाॅ0 सी0बी0भारती की ‘‘घर’’ कविता इस सवाल
पर हमें कुछ रास्ता दिखा सकती है। पहले शुरू की ये पंक्तियां देखिए:-
घर..............
घर
ही तो नहीं है उन बेघरों के पास
बनाया
जिन्होंने
अपना
आशियाना फुटपाथों पर
रेलवे
लाइन की पटरियों पर
बजबजाते
गन्दे नालों के किनारे। (पृष्ठ-19)
यह
लोकतंत्र में वह समाज है, जो बे-घर है। एक अन्य समाज, जिसके
पास घर है, उसका चित्र यह है -
कुछ
के पास घर हैं भी तो
उन
मलिन बस्तियों में
झुग्गी,
झोपड़ी
के रूप में
जहां
न प्रकाश
न
ही जहां शिक्षा है। (वही)
प्रकाश
और शिक्षा किसी भी समाज के विकास के लिये अनिवार्य व्यवस्थाएं हैं। लेकिन, इस
देश में लाखों लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें ये दोनों व्यवस्थाएं प्राप्त
नहीं है। इस कविता ने इसी सवाल को यहां गम्भीरता से उठाया है। आखिर, ऐसा
क्यों है? कैसा लोक तन्त्र है यह, जहां लोग- ‘‘दे देते हैं
अपना अमूल्य वोट/जिन्होंने किया है बेघर उन्हें/सजाये हैं जिन्होंने अपने
महल/उन्हीं की ठिठरती हड्डियों से।’’ (वही)
निश्चित
रूप से यह कथ्य लोकतन्त्र पर सामन्तवाद के वर्चस्व की सूचना देता है। यह बताता है
कि यदि लोकतन्त्र में ’एक व्यक्ति एक मूल्य’ है तो प्रकाश और
शिक्षा से वंचित लोगो के वोट का क्या यही मूल्य है? सपाटबयानी दलित
कविता का मुख्य प्रतिमान है। दलित कवि रहस्यों में या प्रतीकों में अपनी बात नहीं
कहता, बल्कि अपने अनुभवों को पूरी ईमानदारी के साथ व्यंजना में व्यक्त करता
है। डाॅ0 सी0बी0भारती
अपने कविता-कर्म में किस कदर सपाट हैं, उसकी बानगी यह ’नशा’
कविता
है, जिसकी ये पंक्तियां बेहद विचारोत्तेजक हैं -
व्यथित
होते हैं हम जब अशिक्षा से
सहा
नहीं जाता अपमान
होती
है यन्त्रणाओं की थकान जब
तब
पी लेते हैं कभी कच्ची दारू, कभी भांग
भुलाने
के लिये अपना गम।
पर
तुम तो पी-पीकर हमारा खून
--- ---
---
पालकर
ऊँचे होने का दर्द
--- ---
---
हमेशा
नशे में रहे
कभी
नहीं उतरे नीचे उस जमीन पर
जो
है जमीन मानवता की
जो
है जमीन मैत्री की
करूणा
और भाईचारे की
एकता
की। (पृष्ठ-57)
इस
कविता में दलित की द्विज से सीधी लड़ाई है। दलित पर जो यह आरोप लगाया जाता है कि वह
दारू पीता है, उसकी सघन प्रतिक्रिया यह कविता है। इसमें दलित
द्विज की आंखों में अंगुली डाल कर उसे बताता है कि असल में नशे में कौन है- दलित
या वह द्विज, जो जातीय उच्चता के नशे में हमेशा रहता है और
इस नशे में वह दलित के साथ हमेशा अलगाव बनाकर रखता है। सत्य को साहस के साथ
अभिव्यक्त करने की यह निर्भीकता डाॅ0 सी0बी0भारती के कवि-कर्म की वह विशेषता है, जो
उन्हें प्रमुख दलित कवि बनाती है।
इस
निर्भीक सपाट बयानी की एक अन्य कविता ‘‘जांेक’’ है, जिसकी
संरचना डाॅ0 सी0बी0भारती
ने बड़ी कुशलता से की है। शब्दों के लिहाज से बेहद सुगठित इस कविता की अर्थवत्ता
शासक वर्ग के लिये विनाश की चेतावनी है। इस कविता का विन्यास तीन लघु खंडों में
है। पहले खण्ड में जांेक का यह चरित्र है- ’’जोंक जानती है
सिर्फ/औरों का खून चूसना/जोंक जानती है सिर्फ/औरों के खून से/अपने कद को बड़ा करना।’’
(पृष्ठ-25)
दूसरे
खण्ड में जांेक शोषक में बदल जाती है, जिसका मकसद होता है- ‘‘अपने
शिकार को दर्द देना/ दिन-ब-दिन/उसे कमजोर करते जाना।’’ (वही) और अन्तिम
खण्ड इस अर्थवत्ता के साथ है-
मगर
जोंक नहीं जानती कि एक दिन
उसका
शिकार जरूर बिलबिलायेगा
दर्द
जब सहा न जायेगा
और
खून घटता जायेगा, तब
जरूर
वह गुस्सायेगा।
और,
मसल
दी जायेगी जोंक तब
जोंक
नहीं जानती। (वही)
इस
कविता को दलित-सर्वहारा की सशस्त्र क्रान्ति का नाम भी दिया जा सकता है। इसमें
दलित चिन्तन का विकास हमें दिखायी देता है। इसमें चिन्तन उस ठहराव से बाहर निकला
है, जो हमें मिशनरी दलित कवियों के रचना-कर्म में मिलता है। बुद्ध की शरण
में जाना, निश्चित रूप से हिन्दुत्व से विद्रोह है। पर, खून चूस रही ‘‘जोंक’’
से
मुक्ति उसे मसल कर नष्ट करने से ही मिल सकती है। जोंक के प्रति अहिंसा और मैत्री
का व्यवहार नहीं किया जा सकता। प्रार्थना और अपीलों से जोंक का हृदय-परिवर्तन होने
वाला नहीं है। उसे तो कुचलना ही होगा।
डाॅ0 सी0बी0भारती
की इस कविता के प्रसंग में मुझे मराठी दलित कवि दया पवार की इस कविता का स्मरण हो
रहा है जो इसी भावबोध की अत्यन्त सशक्त कविता है। इस कविता का विमल थोराट ने
हिन्दी में अनुवाद इस प्रकार किया है-
हे
सिद्धार्थ
तुमने
साक्षात मृत्यु के समान अंगुलिमाल को
अपने
सामथ्र्य से
विवश
किया था
तेरे
हम अदने से अनुयायी
इस
विकराल अंगुलिमाल का
हम
कैसे मुकाबला करें?
हे
सिद्धार्थ
अगर
हमने घनघोर संघर्ष किया
तो
हमे माफ कर देना।
‘अंगुलिमाल’
और ’जोंक’
दोनों
एक ही अर्थ में प्रयुक्त हुए शब्द हैं। जिस तरह दया पवार बुद्ध की अहिंसा से
अंगुलिमाल को रोकना अब सम्भव नहीं मानते हैं, उसी तरह डाॅ0 सी0बी0भारती
भी जांेक को कुचलने में ही विश्वास करते हैं। यह दलित वर्ग के लिये घनघोर संघर्ष
करने का सन्देश है। इसमें सन्देह भी नहीं कि सिर्फ संषर्ष ही दलित-मुक्ति का
रास्ता है। जब से दलित वर्ग संघर्ष के पथ पर बढ़ा है, तब से वह न उदास
है और न बे-जुबान। संघर्ष ने उसे इस कदर जागरूक बना दिया है कि वह षडयन्त्रों को
भी अच्छी तरह जानने लगा है। यह भाव-प्रवणता हमें डाॅ0 सी0बी0भारती की एक अन्य कविता ’’तितली’’ में
मिलती है। ’’तितली’’ बड़ा सुन्दर
प्रतीक दलित वर्ग के लिये है। स्वतन्त्र, निर्भय, मुक्त निर्भान्त,
प्रकृति
से पाने वाली भोजन, निरन्तर श्रमरत, लालसाओं से विरत
न बाज और न दगाबाज - तितली के ये सारे गुण दलित वर्ग के ही तो हैं। लेकिन ’’तो
भी बच नहीं पायी वह/शोषकों के खूनी डैनों से/तार-तार कर दिये गये पंख उसके
बार-बार।‘’ (पृष्ठ-29) दलित वर्ग भी
इसी खूनी शोषण का शिकार हुआ है। इस शोषण को उसने भी अब पहचान लिया है। इसलिये-
अब
तितली बेजुबान नहीं है
षडयन्त्रों
से अनजान भी नहीं है वह।
सीख
लिया है उसने संघषों से
जीने
के लिये मरना।
लड़कर
छीन लेना फिर से स्वत्व। (वही)
इस
स्वत्व को हासिल करने में सबसे बड़ी बाधा ईश्वरवाद खड़ी करता है। यह इस धारणा को
पैदा करता है कि सुख-दुख ईश्वर प्रदान करता है। ईश्वर जिसे चाहता है, सुख
देता है और जिसे चाहता है दुख देता है। ईश्वर आदमी की परीक्षा लेता है। इसलिये दुख
की अवस्था में भी आदमी विचलित न हो, धैर्य न खोये। यदि वह संघर्ष करेगा,
तो
यह ईश्वर की व्यवस्था में दखल देना होगा। दलित साहित्य इस ईश्वरवाद को नकारता है।
दलित साहित्य की यह पहली शर्त है कि उसे भाग्यवाद, नियतिवाद और
ईश्वरवाद की धारणाओं को अस्वीकार करना है। कहना न होगा कि उसका दर्शन ईश्वरवादी
नहीं है। डाॅ0 सी0बी0भारती का
कवि-कर्म इस बिन्दु पर जनवादी चेतना से भिन्न है। यद्यपि माक्र्सवाद धर्म को अफीम
का नशा स्वीकार करता है, परन्तु लेनिन के इस मत ने कि धर्म
व्यक्ति का निजी मामला है, धर्म की रूढ़ि के लिये रास्ता बना दिया
है। इससे माक्र्सवादी धारा के बुद्धिजीवियों में कथनी और करनी का अन्तर पैदा हो
गया है। वे लेखन मंे धर्म की रूढि का खंडन करने के बावजूद अपने निजी जीवन में उस
रूढि को बनाये रखते हैं। कुछ अपवाद जरूर हो सकते हैं, पर सच्चाई यही
है कि वर्ण व्यवस्था का खण्डन अभी भी जनवादी लेखन का केन्द्रीय विषय नहीं बन सका
है।
दलित
लेखन में कथनी और करनी का अन्तर्विरोध नहीं है। उसकी विचारधारा में यह छूट नहीं है
कि वह लेखन में क्रान्ति करता रहे और व्यक्तिगत जीवन में रूढ़िवादी बना रहे। दलित
रचना-कर्म की यह मूल चेतना है कि वह ईश्वरवाद का समर्थक नहीं हो सकता। यह सिर्फ
सिद्धान्त की रूढ़ि की वजह से नहीं है, बल्कि सामाजिक सथार्थ के अनुभवों के
आधार पर इस सिद्धान्त का निर्माण हुआ है। डाॅ0 सी0बी0भारती की ’’ईश्वर नहीं है’’ कविता इसी अनुभव
को उद्घाटित करती है- ‘‘देखता हूँ जब भी/किसी गरीब की पीठ पर/शोषण के
बेरहम निशान/लगता है जैसे ईश्वर है ही नहीं।’’ (पृष्ठ-37)
और ’’ईश्वर
कुछ लोगों के स्वार्थ की उपज है/जिससे कि वे सजाते रहें महल अपने/मिटाकर गरीबों की
झोपड़ियों को।’’ (वही) यहां ईश्वर शोषक श्रेणी के एक प्रपंच के
रूप में आया है। इस प्रपंच को स्पष्ट करने के लिये कवि ने एक मार्मिक बिम्ब का
विधान किया है। कलुआ, जो एक गरीब मजदूर है, दिन भर मसक्कत
करने के बाद जब मालिक से मजूरी मांगता है, तो वह झिडकी देकर भगा देता है। वह अपनी
झोंपड़ी मंे थका-मांदा लौट कर पसर जाता है खटिया पर। उसके सामने महाशून्य है- ’’यह
कैसा ईश्वर है/कि जो पसीना बहाता है/मसक्कत करता है/मयस्सर होती है उसे झोपड़ी/
मिलती है उसे मार और गालियां।’’ (पृष्ठ-39) उसके सामने यह
महत्वपूर्ण सवाल है कि जो मेहनत नहीं करता क्यों ’’मयस्सर होता है
उसे महल/मिलती है उसे शीतल बयार।’’
(वही) कलुआ इस आधार पर, इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि ’’इसलिये
ईश्वर इस दुनिया में/शायद/कहीं है नहीं।’’ (वही)
यह
कविता दलित सर्वहारा की नियतिवादी धारणाओं पर जोरदार ढ़ंग से प्रहार करती है और उसे
जागरूक करती है। हम कह सकते हैं कि सामन्तवादी समाज व्यवस्था को समझने की समझ इस
कविता में विद्रोह को जन्म देती है। लेकिन यही विद्रोह डाॅ0 सी0बी0भारती
की ’’धर्म’’ कविता में नहीं है। जनवादी चेतना की दृष्टि से
यह अन्तर्विरोध माना जा सकता है, परन्तु दलित चेतना की दृष्टि से इस
कविता में दलित कविता का दर्शन है, जिसके मूल में धर्म की स्वीकृति है।
दलित लेखक जिस धर्म की बात करता है, उसके केन्द्र में मनुष्य है, न
कि ईश्वर, ब्रम्ह और आत्मा। दलित चिन्तन धर्म के सवाल पर डाॅ आम्बेडकर का
अनुसरण करता है, जिनके अनुसार धर्म का अर्थ मनुष्य और ईश्वर के
बीच सम्बन्ध स्थापित करना नहीं है, बल्कि मुनष्य और मनुष्य के बीच अच्छे
सम्बन्ध स्थापित करना है। डाॅ0 सी0बी0भारती
की ’’धर्म’’ कविता के केन्द्र मंे यही धर्म है -
धर्म
जगाता है विवेक
उपजाता
है करूणा
हिंसा
से विरत करता है धर्म
लाता
है समता
--- ---
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धर्म
फैलाता है मैत्री
जातियां
नहीं जन्माता
मनुष्यता
के बीच
दीवारें
नहीं खड़ा करता धर्म। (पृष्ठ-34)
लगभग
इसी भाव-धारा को डाॅ0 सी0बी0भारती ने ’’मन्दिर’’
कविता
में अभिव्यक्त किया है। इस कविता की ये पंक्तियां विचारणीय हैंः-
गरीब
की रोटियां छीनकर
भूख
से उन्हें तड़फता छोड़कर
उनकी
रोटियों को बदल दिया गया हो संगमरमर में।
और
कर दिया गया हो खड़ा
विशालकाय
मन्दिर। (पृष्ठ-36)
यहां
मन्दिर भी शोषक श्रेणी के प्रपंच के रूप में है। यह मन्दिर किसी भी धर्म का हो
सकता है। जरूरी नहीं है यह हिन्दू मन्दिर है, जैनों और
बौद्धों का मन्दिर भी हो सकता है। मन्दिर को लेकर कवि की दृष्टि धर्म-सापेक्ष नहीं
है। दलित चिन्तन में इस अवधारणा को समझने की जरूरत है। दर असल, दलित
चिन्तन में धर्म की अवधारणा निर्गुणधर्म की अवधारणा है। मन्दिर-मस्जिद सगुणधर्म की
आवश्यकताएं हैं, निर्गुण धर्म इन दोनों से मुक्त है, जैसा
कि कबीर ने कहा है -’’राम अलह का गम नहीं, तहँ घर किया
कबीर।’’ यदि हम मन्दिर-मस्जिद के वर्तमान झगड़े को देखें, तो
वह सगुणवादी साम्प्रदायिकता है, जिसने दोनों समुदायों को एक-दूसरे का
शत्रु बना दिया है। दलित इन दोनों के बीच में कहीं नहीं है। लेकिन जब दलित हिन्दू
बनने की कोशिश करता है या मुसलमान बन जाता है, तब वह भी दोनों
का शत्रु हो जाता है और दंगों में वही सबसे पहले मारा जाता है। अयोध्या का उदाहरण
हमारे सामने है, इस विवाद में अभी न जाने देश-भर में कितने
निर्दोष लोगों का खून और बहेगा। और वह मन्दिर बनेगा, तो क्या होगा-’’उनके
खून से सना सफेद पत्थर/जिसके नीचे दबा दी गयी हों उनकी चीत्कारें/मजहब के नाम
पर/महज अपना उल्लू/सीधा करने के वास्ते।’’ (पृष्ठ वहीं) यही
‘‘मन्दिर’’ की मार्मिक परिणिति है।
दलित
साहित्य में स्वानुभूति का प्रश्न उसकी आधार भूमि के रूप में किया जाता है।
हालांकि नयी कविता के दौर में भी स्वानुभूति का प्रश्न चर्चा में था, पर
उसकी अवधारणा स्पष्ट नहीं थी। स्वयं नामवर सिंह अपनी पुस्तक ’’कविता
के नये प्रतिमान’’ में स्वानुभूति के अर्थ को लेकर एक भ्रामक
बौद्धिक बहस में उलझ गये हैं। दलित चिन्तन ने इस भ्रम को तोड़ा है और तर्क-वितर्क
में न उलझ कर सीधे-सीधे स्वानुभूति को भोगे हुए यथार्थ का नाम दिया है। दलित
लेखकों ने अपने जीवन के यथार्थ को जब शब्द-बद्ध किया तो नयी कविता के दौर से
ज्यादा यह अब विवाद का विषय बन गया। इस लेखन ने साफ-साफ यह स्थापित किया कि कोई भी
गैर-दलित, जिसने दलित-जीवन को नहीं जिया है, प्रामाणिक
अनुभूति के साथ दलित साहित्य नहीं लिख सकता। इसलिये स्वानुभूति और प्रामाणिक
अनुभूति ये दोनों ही शब्द आज सबसे ज्यादा चर्चा में हैं।
इसलिये,
यदि
आज नब्बे प्रतिशत दलित साहित्य आत्म-कथात्मक है, तो इसका कारण
यही है कि स्वानुभूति उसकी आधार भूमि है। दलित लेखक साहित्य में भी अपने अतीत को
जीता है। उसे अपने अतीत से ऊर्जा मिलती है। वह उसका संचित कोष है, जहां
तीखी से तीखी, घृणित से घृणित और असुन्दर से असुुन्दर
अनुभूतियां हैं। वे उसकी स्मृतियों में हमेशा रहती हैं। वह डाॅ0 सी0बी0भारती
के रचना कर्म में ‘‘सिसकता आत्म-सम्मान’’ है - ’’याद
आती है पगडंडियों पर से भी/न गुजरने देने की रोक-टोक /शिक्षकों, सहपाठियों
की कुटिल दृष्टि उनके विहंँसते खिझाते अट्टहास/और ठेस पहुंचाते/घृणित असमान
व्यवहार।’’ (पृष्ठ-62)
यह
आत्मकथात्मक कविता डाॅ0 सी0बी0भारती का ही
भोगा हुआ यथार्थ नहीं है, बल्कि दलित लेखकों की पूरी श्रेणी इसी
यथार्थ को भोग कर आयी है। यह उन सबकी पीड़ा है-
कीडे़
मकोड़ों से बदतर जिन्दगी
तालीम
के अवसरों का अभाव
छीजती
इज्जत
बिखरते
सम्मान
लुटती
बहन-बेटियों की आबरू। (पृष्ठ-63)
’’आक्रोश’’
की
कविताएं निस्सन्देह सशक्त हैं, जिनमें दलित चेतना का जनवादी विकास है
और जो डाॅ0 सी0बी0भारती को प्रतिनिधि दलित कवि बनाती है।
(2-3-2002)
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