सोमवार, 2 जून 2014


हिन्दू-मुसलमान में विभाजित राजनीति

(कॅंवल भारती)

 

 

लोकसभा के चुनावों में जिस तरह साम्प्रदायिकता की चेतना उभर कर आयी है, उससे पक्का लग रहा है कि भारतीय राजनीति में हिन्दू-मुसनमान के दो स्पष्ट ध्रुव बन चुके हैं। स्थिति यह भी लग रही है कि आगामी विधानसभा के चुनावों में भी यही साम्प्रदायिक चेतना हावी रहेगी,  क्योंकि अनुच्छेद 370, कामन सिविल कोड और राम-मन्दिर के उठाये जा रहे विवाद यही माहौल बनाने जा रहे हैं। इसका अर्थ है कि रोजी-रोटी के सवाल पीछे छूटने वाले हैं और हिन्दू-मुस्लिम अस्मिताओं के संघर्ष अहम सवाल बनने वाले हैं। राष्ट्रवाद की इस राजनीति में अस्मिता और सुरक्षा के काल्पनिक अस्त्र एक ओर मुसलमानों को लामबन्द करेंगे, तो दूसरी ओर हिन्दुओं को। ऐसी स्थिति में मुस्लिम-दलित जातियां तो मुसलमानों के साथ रहेंगी ही, पर जो दलित जातियां हिन्दू फोल्ड में हैं, उनका हिन्दुत्व के साथ ध्रुवीकृत होना तय है। यह इस लिहाज से चिन्ताजनक है कि ये दोनों ध्रुव दक्षिणपंथी ही होंगे। अतः राष्ट्रवाद के इस राजनीतिक परिवेश में क्या वाम और दलित वैचारिकी कुछ बदलाव ला सकेगी? जवाब मैं नहीं दे सकता,  पर उनके लिये यह एक गौरतलब सवाल जरूर है। 

मुझसे कुछ मित्र सवाल करते हैं कि मैं राष्ट्रवाद के खिलाफ क्यों हूँ? ये लोग इस तरह का सवाल इसलिये करते हैं, क्योंकि वे राष्ट्रवाद को देशवाद के अर्थ में समझने की गलती करते हैं। मैं डा. आंबेडकर के हवाले से बताना चाहता हूँ कि राष्ट्रीयता एक सामुदायिक अनुभूति है। यह एक समानकौम होने की सामूहिक चेतना भी है। यह चेतना जिनमें होती है, वे सभी एक दूसरे से जुड़े अनुभव करते हैं। पर वह एक दुधारी अनुभूति भी है, जो एक ओर अपने सगे-सम्बन्धियों से भ्रातृत्व की भावना से जोड़ती है, तो दूसरी ओर उन लोगों के प्रति शत्रुता की भावना रखती है, जो उनके सगे-सम्बन्धी नहीं हैं। यह एक ऐसी सामुदायिक चेतना की है, जो लोगों को इतनी मजबूती से बाँधती है कि वे आर्थिक संघर्षों और सामाजिक मतभेदों को भी भुला देते हैं, जबकि वे दूसरे समुदायों के लोगों से अपने सम्बन्ध विच्छेद कर लेते हैं। यही राष्ट्रीयता है और यही राष्ट्रवाद का सारतत्व है। हिन्दूवादी लोग इसी राष्ट्रवाद को भारतीय राष्ट्र से जोड़ते हैं। जबकि भारतीय राष्ट्र जैसी कोई चीज नहीं है। इस राष्ट्र में हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, सिख सभी एक-दूसरे के विरुद्ध दूसरेसमुदाय हैं,  जिनकी अपनी-अपनी राष्ट्रीयताएँ हैं। वे हरेक के राष्ट्र में शत्रु वर्गमें आते हैं। राष्ट्र से एक पहचान उभरती है, जैसे हिन्दू राष्ट्र में हिन्दू की, और मुस्लिम राष्ट्र में मुसलमान होने की। लेकिन क्या भारतीय या हिन्दुस्तानी होने की कोई पहचान उभर पायी? यदि ऐसी कोई पहचान उभरती तो बाल ठाकरे हिन्दी भाषियों पर कहर क्यों ढाते? इसलिये न तो भाषा, न धर्म, न जाति राष्ट्र का निर्माण करते हैं, बल्कि यदि कोई चीज है, जो भारतीयों को राष्ट्र बना सकती है, तो वह भारतीयता की भावना है। इसके सिवा अन्य कोई भी भावना उन्हें राष्ट्र नहीं बना सकती।

पर मुझे नहीं लगता कि इस बात को वे लोग समझेंगे,  जिन्होंने राजनीति के दो ध्रुव बना दिये हैं। क्या लोकतन्त्र में आस्था रखने वाले लोग इस साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के खिलाफ जागरण-अभियान चलायेंगे?

(2 जून 2014)