गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

संसद में बदतमीजी
(कँवल भारती)
      आज संसद में तेलंगाना के मुद्दे पर जिस बदतमीज अमाननीय सांसद राजगोपाल ने मिर्च-स्प्रे करके जो गुंडई दिखायी है, उसकी जितनी भी निंदा की जाये, कम है. निस्संदेह, इस घटना ने आज के दिन को भारत के संसदीय इतिहास का सर्वाधिक काला दिन बना दिया है. इस घटना ने केवल संसद की गरिमा को ही ठेंगा नहीं दिखाया है, बल्कि जनता की नजर में इन माननीय सांसदों को भी अमाननीय बना दिया है. हालाँकि ये सांसद बिल फाड़ने, माइक तोड़ने, कुर्सियां उठाकर फेंकने, असंसदीय भाषा का इस्तेमाल करने और हाथापाई करने की अपनी गुंडई से पहले भी संसद को शर्मसार करते रहे हैं, पर बाप रे! मिर्च का स्प्रे! यह तो गुंडई का वह दुस्साहस है, जो आगे चलकर संसद में किसी को भी गोली मारने की हद तक जा सकता है. क्या इसी तरह गुंडई करके ये जनता की नुमाइंदगी करेंगे? लेकिन अब समय आ गया है कि इसे रोकने के लिए संसद को ही कुछ सख्त कानून बनाने होंगे. लेकिन कानून तो सांसद ही बनायेंगे. क्या वे बना पायेंगे? उन्हें बनाना ही होगा, वरना संसद सुरक्षित नहीं रहेगी और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र अपनी सबसे कलंकित संसद के लिए कुख्यात हो जायेगा.
      सुना है कि संसद ने राजगोपाल और उनकी गुंडई में साथ देने वाले 16 सांसदों को निलंबित कर दिया है. किन्तु, यह कार्यवाही पर्याप्त नहीं कही जा सकती. वह इसलिए कि कानून सबके लिए बराबर होना चाहिए. मिर्च स्प्रे करना आपराधिक कृत्य है. यह कृत्य अगर किसी आम आदमी ने बाज़ार, माल या अन्य आम जगह पर किया होता, तो पुलिस उसके साथ क्या सुलूक करती, यह हम सब जानते हैं. पुलिस उसके हाथ-पाँव तो तोड़ती ही, उसे जेल भी भिजवा चुकी होती. सवाल यह है कि गुंडई करने वाले राजगोपाल और उनके साथी सांसदों को पुलिस के हवाले क्यों नहीं किया गया? उन्हें जेल भेजने की कार्यवाही क्यों नहीं की गयी? क्या इसलिए कि ये “माननीय” हैं? क्या माननीय होना कानून से ऊपर होना है? तब क्या कानून सबके लिए बराबर नहीं है? अगर लोकतंत्र में समस्याओं का हल सांसद इसी तरह गुंडई से करते रहेंगे, तब क्या ये आपराधिक चरित्र के सांसद इस देश में अराजकता फैलाने का काम नहीं कर रहे हैं?
अगर संसद को अराजक होने से सचमुच बचाना है, तो सबसे पहले गुंडे-लफंगे, मनी-माफिया, रेत-माफिया, खनिज-माफिया, औद्योगिक घरानों के दलाल, बलात्कारी, अपराधी, और बाहुबलियों को संसद और विधान मंडलों में भेजने का रास्ता बंद करना होगा. अवश्य ही यह काम आसान नहीं है, क्योंकि वाम दलों को छोड़कर लगभग सभी स्थापित पार्टियाँ ऐसे ही अराजक तत्वों के बल पर सत्ता में आना चाहती हैं, यहाँ तक कि दलित-पिछड़ों की राजनीति करने वाली पार्टियाँ भी.
      तीसरा कदम जनता को उठाना होगा. उसे बहिष्कार करना होगा, ऐसे अराजक तत्वों का, जो उनकी नुमाइंदगी के नाम पर धब्बा बनी हुई हैं.
(13 फरवरी 2014)