शुक्रवार, 8 जुलाई 2016

निशाने पर मुसलमान
कॅंवल भारती

यह सचमुच हैरानी की बात है कि कभी इस्लाम पर खतरे की बातें करने वाले लोगों ने आज खुद पूरी मुस्लिम कौम को खतरे में डाल दिया है। इस्लाम न कल खतरे में था और न आज खतरे में है। सच्चाई यह है कि खतरे में धर्म नहीं, मनुष्य होते हैं। इतिहास इस बात का गवाह है कि लाखों यहूदी मौत के घाट उतारे गए, पर उनका धर्म जीवित है; लाखों ईसाई मारे गए, पर ईसाईधर्म जीवित है; लाखों बौद्धों का कत्लेआम हुआ, उनके मठ और विहार नष्ट किए गए, पर बौद्धधर्म नष्ट नहीं हुआ; और हिन्दुओं पर भी कम अत्याचार नहीं हुए, पर हिन्दूधर्म अपनी तमाम परम्पराओं के साथ जीवित है। लेकिन दिलचस्प यह है कि यह सारा खूनखराबा धर्म के नाम पर हुआ, और आज भी धर्म के ही नाम पर ही लोगों को मारा जा रहा है।
आज मुसलमान पूरी दुनिया में निशाने पर हैं। उन्हें शक की निगाह से देखा जा रहा है, हवाई अड्डों पर उनकी कड़ी चेकिंग की जाती है और यदि सार्वजनिक स्थानों पर कोई जालीदार टोपी पहने काली दाढ़ी वाला युवा दिख जाता है, तो लोगों में दहशत भर जाती है। अमरीका में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार ट्रिम्प ने तो अमरीका में उनके प्रवेश पर पाबन्दी तक लगाने का ऐलान कर दिया है।
यह संकट सिर्फ बाहर ही नहीं है, बल्कि खुद मुसलमानों के भीतर भी है, खुद मुस्लिम देशों में वे सुरक्षित नहीं हैं। वे शिआ के नाम पर मारे जा रहे हैं, सुन्नी के नाम पर मारे जा रहे हैं, बाजारों में मारे जा रहे हैं, रेस्तराओं में मारे जा रहे हैं, बसों और ट्रेनों में मारे जा रहे हैं, स्कूलों में मारे जा रहे हैं, मस्जिदों में मारे जा रहे हैं, यहाॅं तक कि अल्लाह की बारगाह में इबादत करते हुए मारे जा रहे हैं। यह कैसा जिहादी जुनून है कि जिन मुसलमानों को दुनिया में ज्ञान-विज्ञान में तरक्की करनी थी, वह आज उनकी ही आबादी का दुश्मन बना हुआ है?
दहशतगर्दी के समर्थक कहते हैं कि इसका जिम्मेदार अमरीका है। वे कहते हैं कि अमरीका ने ही आतंकवाद पैदा किया है और वही उसको पालपोस रहा है। कुछ समर्थक मानते हैं कि इराक-युद्ध और सद्दाम हुसैन को फाॅंसी दिए जाने के बाद मुसलमानों का गुस्सा आतंकवाद के रूप में उभरा है। अगर ऐसा है तो यह बड़ा दिलचस्प है कि इस्लाम के नाम पर आतंक फैलाने वाले मुसलमान अपने ही धर्म-भाइयों को मार रहे हैं। वे उन मुसलमानों को मार रहे हैं, जिनका इराक-युद्ध से कुछ भी लेना-देना नहीं है। वे स्कूलों में घुसकर पढने वाले बच्चों का खून बहा रहे हैं, जिन्होंने ठीक से अभी दुनिया में कदम भी नहीं रखे हैं। वे जिस तरह से लोगों को अंधाधुंध मार रहे हैं, जो एक दम बेकसूर और बेगुनाह हैं, उससे पता चलता है कि उनका मकसद सिर्फ दहशत फैलाना है, और कुछ भी नहीं। हैरत होती है कि वे न अपने आकाओं से सवाल करते हैं और न अपने दिल से पूछते हैं कि जिन मासूमों का खून बहाने का मिशन उन्हें दिया गया है, उससे इस्लाम का या मुसलमानों का या उनके आकाओं का कौन सा मिशन पूरा हो रहा है? विचित्र है कि इस आतंक के खिलाफ मुस्लिमों की आवाज बहुत दबी-दबी सी है। हालांकि यह इस बात का सुबूत नहीं है कि वे अलकायदा या इस्लामिक स्टेट जैसे खूॅख्वार आतंकी संगठनों को पसन्द करते हैं। इसका कारण शायद यह है कि भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश समेत पूरी दुनिया के आम मुसलमानों का धार्मिक नेतृत्व उन धर्मगुरुओं के हाथों में है, जो अपने-अपने तरीके से उन्हें इस्लाम समझाते हैं और अपने फायदे के लिए उनका इस्तेमाल करते हैं। उदाहरण के तौर पर बरेली और देवबन्दी सम्प्रदायों के धर्मगुरु अपने-अपने अकीदतमन्दों को इस तरह प्रशिक्षित करते हैं कि नमाज पढ़ने के तरीके तक पर वे एक-दूसरे का सिर फोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं। अभी पिछले दिनों बरेलवी सम्प्रदाय के एक मौलाना ने देवबन्दी मजलिस में शिरकत की, जो मुस्लिम एकता के लिए आयोजित की गई थी, तो बरेलवी अकीदे के मुसलमान मौलाना के खिलाफ हो गए। मौलाना ने माफी माॅंग कर मामले को खत्म किया। इस तरह के फिरकों और धर्मगुरुओं की जबरदस्त जकड़बन्दी को तोड़ना अकीदतमन्द मुसलमानों के लिए एक नामुमकिन सा काम है। ऐसे मुसलमान आतंकवाद के खिलाफ किसी बड़ी मुहिम या तहरीक में अपने धर्मगुरुओं की मरजी के खिलाफ कैसे भाग ले सकते हैं? यह सही है कि आतंकवाद के खण्डन में कुछ उलेमाओं (धर्मगुरुओं) के बयान आते रहते हैं, और अधिकांश इसे इस्लाम-विरोधी भी मानते हैं, पर इसके खिलाफ दुनिया भर के मुसलमानों को संगठित करने वाले किसी भी आन्दोलन का नेतृत्व वे नहीं करते।
अभी बांग्लादेश के एक पत्रकार सैयद बदरुल अहसन ने अपने एक लेख में, जो इसी 8 जुलाई को हिन्दी में भी ‘अमर उजाला’ में प्रकाशित हुआ है, लिखा है कि ‘ढाका, पेरिस, ब्रसेल्स, इस्तांबुल, बगदाद और मदीना समेत दुनिया भर में इस्लामी स्टेट के ये कथित जिहादी नास्तिक हैं।’ अभी तक उन्हें इस्लाम का दुश्मन तो कहा जाता रहा है, पर उन्हें नास्तिक किसी ने नहीं कहा था। आज पहली बार उन्हें किसी ने नास्तिक कहा है। दिलचस्प है कि यह नास्तिक शब्द की नई अवधारणा है। मनुष्यता में विश्वास करने वाले नास्तिकों के लिए यह अपमानजनक हो सकता है कि वे बेगुनाहों का खून भी बहाते हैं। पर, यह सचमुच परिहास है। इस्लामी नजरिए से मुस्लिम-भ्रातृत्व उसका सबसे बड़ा सामाजिक फलसफा है। पर इस्लामी स्टेट के जिहादी इसी फलसफे को तार-तार कर रहे हैं। उसकी दूसरी सबसे बड़ी ताकत फलसफा-ए-तौहीद (एकेश्वरवाद) है, जिसका मतलब सिर्फ यही नहीं है कि एक ईश्वर के सिवा दूसरा कोई ईश्वर नहीं है, वरन् यह भी है कि मुसलमान वह श्रेष्ठ समुदाय है, जिसे अल्लाह के बन्दों की भलाई की जिम्मेदारी सौंपी गई है और जिसका काम भलाई के कामों को अंजाम देना और बुरे कामों को रोकना है। इस लिहाज से अल्लाह के बेगुनाह बन्दों का कत्ल करने वाले ये कथित इस्लामी जिहादी मुसलमान तो नहीं हो सकते। अगर मुस्लिम-भ्रातृत्व और फलसफा-ए-तौहीद में उनका अकीदा होता, तो वे अवश्य ही इस गुनाह से बचते। कुरान में, जिसे मुसलमान पाक और आसमानी किताब मानते हैं, कहा गया है कि (3ः138) ‘यह मानव जाति के अधिकारों का घोषणापत्र और अल्लाह से डरने वालों के लिए मार्गदर्शन और हिदायत है।’ 1990 में ‘इस्लामिक फाउण्डेशन ट्रस्ट’ मद्रास ने जो ‘यूनिवर्सल इस्लामिक डिक्लेरेशन आॅफ ह्यूमन राइट्स’ प्रकाशित किया था, उसमें भी इस आयत को मुख्य आधार बनाया गया था। तो क्या बेगुनाहों का खून बहाना, मासूम बच्चों को गोलियों से भूनना और शहरों को तबाह करना अल्लाह की हिदायत और घोषणा है? जाहिर है कि नहीं है। इसलिए मैं इन कथित जेहादियों को इस मायने में नास्तिक कहा भी जा सकता है कि उन्हें अल्लाह का खौफ वास्तव में नहीं हैं। शायद ये जानते हैं कि अगर अल्लाह सच में है, तो वह अपने बन्दों को इन शैतानों से जरूर बचाता। शायद यही वजह है कि मुस्लिम-भ्रातृत्व और फलसफा-ए-तौहीद उनके लिए कोई अहमियत नहीं रखता है।
एक डा. जाकिर नाईक हैं, जो प्रवीण तोगड़िया की तरह, डाक्टर का पेशा छोड़कर, धर्म के उपदेशक बन गए हैं। वह इस्लामी रिसर्च फाउण्डेशन के संस्थापक हैं, और पीस टीवी पर इस्लाम पर तुलनात्मक तकरीरें करते हैं। इस्लाम के मौजूदा तमाम फिरकों में एक फिरका उनका भी है। एक समय मैं उनके भाषण को नियमित रूप से सुनता था, यह जानने के लिए कि वह इस्लाम की किस तरह की व्याख्याएॅं करते हैं। डा. नाईक तीस से भी ज्यादा देशों में दो हजार से भी ज्यादा सभाएॅं कर चुके हैं, जिन्हें सुनने के लिए हजारों की संख्या में पढ़ेलिखे नौजवान आते हैं। उनके ट्विटर और फेसबुक एकाउण्ट को भी लगभग सवा करोड़ लोग फाॅलो करते हैं। एक तरह से देखा जाए, तो पढ़ेलिखे मुसलमानों पर डा. जाकिर नाईक का प्रभाव अन्य इस्लामी धर्मगुरुओं से ज्यादा पड़ता है। इसलिए, इस्लामी स्टेट के जिहादियों को मुख्यधारा से जोड़ने की क्षमता इस व्यक्ति में सबसे ज्यादा है। पर यह विचित्र है कि डा. जाकिर नाईक की तकरीेरें और इस्लामी व्याख्याएॅं पढ़ेलिखे मुस्लिम नौजवानों को ही और भी ज्यादा उग्र और जेहादी बनाती हैं। क्या ‘मानव जाति के लिए इस्लाम का घोषणापत्र’ को जाकिर जैसे धर्मगुरु जिहादी मुसलमानों में क्यों नहीं भरते?
8 जुलाई 2016