गुरुवार, 8 अप्रैल 2021

 

मुस्लिम आरक्षण और प्रेमचन्द

(कँवल भारती)

          1934 में पहली बार भारत सरकार ने मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरियों में 25 प्रतिशत आरक्षण की विज्ञप्ति जारी की थी। बस क्या था, प्रेमचंद का हिंदू मन आहत हो गया. जिस राष्ट्रवादी सोच के तहत प्रेमचन्द ने दलितों के लिए पृथक निर्वाचन के अध्किार का विरोध् किया, उसी सोच के तहत उन्होंने मुसलमानों के आरक्षण का भी विरोध् किया। उन्होंने जुलाई 1934 के हंसमें लिखा: साम्प्रदायिकता के नाम पर, मुसलमानों के लिए पच्चीस प्रति}ात स्थान सुरक्षित कर दिए गए हैं। हमारी समझ में इसका अर्थ यही है कि सरकार हमारी राष्ट्रीय प्रगति को कुचलने का प्रयत्न कर रही है। वह नहीं चाहती कि हममें जीवन आ जाए। इस प्रकार साम्प्रदायिकता का पोषण करके वह हमारी राष्ट्रीयता को हवा में उड़ा देना चाहती है। सरकार का यह रुख बड़ा भयावह है। राष्ट्र के लिए यह कितना खतरनाक सि( होगा, इसकी कल्पना करते ही महान खेद होता है। लेकिन सरकार को इसकी क्या परवाह है? उसे तो राष्ट्रीयता छिÂ-भिÂ करनी है। प्रत्येक समझदार व्यक्ति ने स्पष्ट }ाब्दों में नौकरियों के साम्प्रदायिक विभाजन का विरोध् किया है।

          नौकरियों के साम्प्रदायिक विभाजन का विरोध् करने वाले समझदार राष्ट्रवादी हिन्दू आज भी हैं, जो नौकरियों के जातीय विभाजन का विरोध् कर रहे हैं। और ये समझदार राष्ट्रवादी भला ब्राह्मण के सिवा कौन हो सकते हैं? प्रेमचन्द कितने तुच्छ दिमाग के थे कि मुसलमानों को भारत-राष्ट्र का अंग ही नहीं मान रहे थे! जैसे आज हिन्दुत्ववादी दलितों को भारत-राष्ट्र का अंग नहीं मानते, वरना सुप्रीम कोर्ट पूछता कि उन्हें कितनी पीढ़ियों तक आरक्षण चाहिए? सवाल है कि वह राष्ट्र नीचे कैसे गिर सकता है, जिसके कमजोर वर्ग को वि}ोष प्रावधन से उफपर उठाने की व्यवस्था की जाती है? मुसलमानों के लिए नौकरियों में आरक्षण की विज्ञप्ति 1934 में जारी हुई थी। उस समय तक भारत का विभाजन नहीं हुआ था। मुसलमान भारत-राष्ट्र के ही अंग थे। इसका मतलब यह हुआ कि 1934 तक सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को प्रतिनिध्त्वि प्राप्त नहीं था। दलित और पिछड़ी जातियों को तो }िाक्षित ही नहीं किया गया था। पिफर सरकारी नौकरियों में किनकी इजारेदारी थी। जाहिर है कि ब्राह्मणों, और कुछ कायस्थों की। इसलिए मुसलमानों को 25 प्रति}ात नौकरियाॅं देने से इसी हिन्दू राष्ट्र को खतरा महसूस कर रहा था।

आगे प्रेमचन्द का निहायत बचकाना तर्क देते हैं, जैसे आज भी कुछ छद्म प्रगति}ाील लोग दलितों के आरक्षण के सम्बन्ध् में देते हैंµइसका यह अर्थ नहीं कि हम मुसलमानों की उÂति के विरोध्ी हैं। हमें उनके लिए 25 प्रति}ात स्थानों के सुरक्षित होने पर भी खेद नहीं है, खेद है इस साम्प्रदायिक मनोवृत्ति पर, जिससे राष्ट्रीयता का गला घुट रहा है।  वाह रे, प्रेमचन्द, मुस्लिम-विरोध्ी भी हैं, पर नहीं हैं, बस खेद है कि मुसलमानों को नौकरियाॅं देने से राष्ट्रीयता का गला घुट रहा है। कौन मूर्ख कहेगा कि यह प्रेमचन्द का  मुस्लिम-विरोध्ी वक्तव्य नहीं है? छद्म प्रगति}ाील ऐसे ही बोलते हैं कि हम दलितों के विरोध्ी नहीं हैं, हम दलितों की तरक्की चाहते हैं। पर उनको आरक्षण देने से राष्ट्रीयता का गला घुट रहा है।

 मुसलमानों के सवाल पर प्रेमचन्द आगे और भी घोर सनातनी हिन्दूवादी दृष्टिकोण से लिखते हैंµनौकरियों के इस प्रकार विभाजन से क्या होगा? साम्प्रदायिक द्वेष की मनोवृत्ति पनपनेगी, ध्र्मान्ध्ता बढ़ेगी, हृदय ईष्र्यालु होंगे, योग्यता का मूल्य गिर जायगा। मूल्य रहेगा साम्प्रदायिकता का। उसी का भयानक ताण्डव दृष्टिगोचर होगा, और यह राष्ट्र के लिए कितना घातक हो सकता है, यह किसी भी समझदार व्यक्ति की समझ से बाहर की बात नहीं है। प्रत्येक समझदार व्यक्ति इस दृष्टिकोण का विरोध् करेगा और चाहेगा कि नौकरियाॅं सम्प्रदाय के नाम पर नहीं, योग्यता के नाम पर दी जाएॅं। 

ये ठीक वही तर्क हैं, जो सनातनी हिन्दू और छद्म प्रगति}ाील हिन्दू दलितों के आरक्षण के बारे में आज भी देते हैं। इन तर्को में सबसे बेहूदा तर्क योग्यता का है। यह तर्क इसलिए दिया जाता है, क्योंकि द्विज हिन्दू अपने सिवा किसी अन्य को योग्य मानते ही नहीं, और दलितों को तो बिल्कुल भी नहीं। जब मुलायम सिंह यादव पहली बार उत्तरप्रदे}ा में मुख्यमंत्राी बने थे, तो इन्हीं योग्यहिन्दुओं ने दीवालों पर नारा लिखा थाµअहीर का काम भैंस चराना है, }ाासन करना नहीं।असल में द्विज हिन्दू और खास तौर से ब्राह्मण समझते हैं कि वे योग्य हैं, इसलिए }ाासन-प्र}ाासन और न्यायपालिका में मुख्य हैं। पर यह सच नहीं है, सच यह है कि सत्ता उनको चाहती है, इसलिए वे हर जगह हैं। चूॅंकि सत्ता उन्हीं के हाथों में है, इसलिए योग्य-अयोग्य का पैमाना भी उन्हीं के हाथों में है। 

 

 

 

 

गाँधी पूना-पैक्ट और प्रेमचन्द

(कँवल भारती)

                1930 में साइमन कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद,  जिसका गाँधी के आह्वान पर देशभर में कांग्रेस पार्टी ने विरोध किया था, ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत के लोगों की साम्प्रदायिक मांग  के अनुसार भारतीय संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए लन्दन में गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया गया था। इसमें भारत, ब्रिटिश सरकार और राजनैतिक दलों के 89 सदस्य शामिल किए गए थे, जिनमें दलित वर्गों के डा. आंबेडकर सहित 13 आमंत्रित सदस्य थे। पहला सम्मेलन 12 नवम्बर 1930 को शुरू हुआ और 19 जनवरी 1931 को समाप्त हुआ। चूँकि इस सम्मेलन में कांग्रेस का कोई प्रतिनिधि शामिल नहीं हुआ था, इसलिए सम्मेलन में कोई निर्णय नहीं लिया जा सका। अतः दूसरा सम्मेलन 7 सितम्बर 1931 को आरम्भ हुआ, जिसमें कांग्रेस के गाँधी सहित कई नेता शामिल हुए। यह सम्मेलन 1 दिसम्बर 1931 को समाप्त हुआ। और ब्रिटिश प्रधानमंत्री का निर्णय 17 अगस्त 1932 को घोषित हुआ। इस निर्णय में दलित वर्गों के लिए पृथक निर्वाचन का अधिकार दिया गया था। गाँधी इस अध्किार के विरुद्ध 20 सितम्बर 1932 को आमरण अनशनपर बैठ गए। यह अनशन गाँधी के प्राणों की रक्षा के लिए, हिन्दुओं के पक्ष में दलित वर्गों के अधिकारों की बलि के रूप में एक समझौते के साथ खत्म हुआ। उस समय गाँधी पूना की यरवदा जेल में थे। अतः 24 सितम्बर 1932 को जेल में ही समझौते पर हस्ताक्षर हुए। यह समझौता इतिहास में पूना-पैक्ट के नाम से जाना जाता है।

                यह आधुनिक भारत के राजनीतिक इतिहास की वह महत्वपूर्ण घटना है, जिसे इतिहास में ठीक से दर्ज नहीं किया गया। न केवल हिन्दू इतिहासकारों ने इसकी उपेक्षा की, बल्कि वामपंथी और मुस्लिम इतिहासकारों ने भी इसे दर्ज करना आवश्यक नहीं समझा। कई हिन्दू और वामपंथी इतिहासकारों ने इस घटना को एक पैरे में ही निपटा दिया, तो कई को इस कदर घृणा थी कि उन्होंने डा. आंबेडकर का उल्लेख करना भी पसन्द नहीं किया और जिन्होंने किया, उन्होंने निहायत हिकारत के साथ किया, जिसमें अयोध्या सिंह ने तो आंबेडकर को हरामी तक घोषित कर दिया।  इतिहासकारों के साथ-साथ उस दौर के हिन्दू पत्रकारों ने भी गाँधी की प्रशंसा और आंबेडकर की निन्दा की, उन्हें जाहिल और असभ्य कहा। प्रेमचन्द ने भी डा. आंबेडकर का कोई बहुत ज्यादा उल्लेख नहीं किया। कसीदा उन्होंने गाँधी की शान में ही काड़े, आंबेडकर के प्रति कोई सम्मान व्यक्त नहीं किया, सिवाए गाँधी से समझौता करने के प्रसंग को छोड़कर।

                प्रेमचन्द की इस दृष्टि का पता हमें उनके मासिक पत्र हंसऔर जागरणमें छपे संपादकीय लेखों से चलता है। इसमें सन्देह नहीं कि उस दौर के नन्ददुलारे वाजपेयी जैसे हिन्दू पत्रकारों की तरह प्रेमचन्द भी गाँधी-भक्त थे। गाँधी उनके लिए सन्त थे, जिन्हें राजनीति से उन्हें कोई लगाव नहींथा।  दलित जातियों को अछूत बनाने का काम, प्रेमचन्द की नजर में, सरकार ने किया था, हिन्दुओं ने नहीं। उन्होंने अप्रैल 1930 के हंसमें लिखा:

क्या जमाने की खूबी है, कि जिन लोगों ने अछूतों को उससे कहीं ज्यादा दलित किया है, जितना कट्टर से कट्टर हिन्दू समाज कर सकता था, वह आज अछूतों के शुभचिन्तक बने हुए हैं। बेगार की सख्तियों का दोष किस पर है, हिन्दू समाज पर या सरकार पर? उन्हें अपढ़ रखने का दोष किस पर है, हिन्दू समाज पर या सरकार पर? उन्हें ताड़ी, शराब, गांजा, चरस पिला-पिलाकर कौन रुपए कमाता है, सरकार या हिन्दू समाज? प्रारम्भिक शिक्षा का बिल सरकार ने पेश किया था, या स्वर्गीय मि. गोखले ने? हमें पूरा विश्वास है कि जिस सरकार ने कितनी ही अछूत जातों को जरायम पेशा बना दिया, उसकी शुभ-चिंतना पर हमारें दलित समाज के नेता लोग भरोसा न करेंगे। 

                बहरहाल प्रेमचन्द की दृष्टि में दलित वर्गों के पृथक राजनीतिक अधिकारों के विरुद्ध गाँधी का आमरण अनशन महान तपथा। उन्होंने 19 दिसम्बर 1932 के जागरणमें लिखा: कल ;20 दिसम्बर को यरवदा जेल में वह महान तप आरम्भ होगा, जिसकी कल्पना से ही रोमांच हो जाता है। भारत की तपोभूमि में इससे पहले भी बड़ी-बड़ी कठिन तपस्याएँ की गई हैं, लेकिन यह तपस्या अभूतपूर्व है। 

                अभूतपूर्व इसलिए, कि यह तप गाँधी हिन्दुत्व को बचाने और दलितों को हिन्दू फोल्ड में रखने के लिए कर रहे थे। उन्होंने आगे लिखा: ज्ञान के लिए, मोक्ष के लिए, प्रभुता के लिए, औरों ने भी तप किए हैं, पर राष्ट्र के लिए प्राणों की आहुति देने का संकल्प महात्मा गाँधी की ही कीर्ति है।प्रेमचन्द ने यह बुद्धि नहीं लगाई कि इस अनशन का राष्ट्र से क्या मतलब? दलितों को पृथक अधिकार मिलने से राष्ट्र पर कौन सा संकट आ रहा था? पर, प्रेमचन्द जानते थे कि राष्ट्र यानी हिन्दुत्व। मुसलमानों को भी पृथक अधिकार मिले थे, उससे राष्ट्र पर कोई संकट नहीं आया था। दलितों को अधिकार मिलने सें ही राष्ट्र खतरे में क्यों पड़ा? वह इसलिए, कि यह खतरा हिन्दू-राष्ट्र पर था। इसलिए प्रेमचन्द के लिए गाँधी दधीचि थे, जिसने हिन्दुत्व के लिए प्राणों का उत्सर्ग किया था। उन्होंने आगे लिखा: धन्य हो महात्मा ! राष्ट्र की सेवा में तुम पहले ही अपना सर्वस्व अर्पण कर चुके थे। एक प्राण रह गया था। उसे भी राष्ट्र ही की भेंट करने जा रहे हो। एक समय दधीचि ने भी राष्ट्र की रक्षा के लिए प्राणों का बलिदान किया था। हम अपनी अश्रद्धा के कारण उसे पौराणिक कथा समझ बैठे थे, पर आज तुमने उस प्राचीन मर्यादा को, उस प्राचीन आदर्श को, उस प्राचीन आत्मोत्सर्ग को, पुनर्जीवित कर दिया। इस छल-प्रपंच के युग में तुमने सत्ययुग की प्रतिष्ठा कर दी और दिखा दिया कि सतयुग और कलयुग केवल हमारे चित्त की वृत्तियाँ हैं। 

                कितने दूरदर्शी थे प्रेमचन्द ! गाँधी के अनशन में भी उन्होंने सतयुग की छवि देख ली। कहाँ सतयुग, जिसमें धर्म चारों पैर पर टिका हुआ था, और कहाँ यह कलयुग, जिसमें शूद्र शासन-प्रशासन में अधिकार मांग रहे हैं, वर्णव्यवस्था का अनुशासन तोड़ रहे हैं ! गाँधी दधीचि की तरह प्राणों का बलिदान देकर प्राचीन मर्यादा और प्राचीन आदर्श को पुनर्जीवित करने जा रहे थे। प्रेमचन्द ने आगे और भी खुलासा किया कि हे महात्मन! राष्ट्र पर इस समय जो संकट पड़ा हुआ है, उसका मोचन तुम्हारे सिवा और कौन कर सकता है?....यरवदा जेल की  ऊॅंची चारदीवारी को भेदती, सरकार की गोपन नीति को चीरती हुई तुम्हारी इस भीषण प्रतिज्ञा की आवाज, आकाशवाणी सी, हमारे कानों में आती है, और सारा देश सचेत हो जाता है...। हमारी आँखें खुल जाती हैं और हम देखते हैं कि जब राष्ट्र ही न रहा, तो स्वराज्य कहाँ, जब संस्कृति ही न रही, तो हमारा अस्तित्व ही कहाँ ? भारतीय राष्ट्र का आदर्श मानव शरीर है, जिसके मुंह, हाथ, उदर और पाँव हैं। इनमें से किसी एक अंग के विच्छेद हो जाने से देह अपंग  या निर्जीव हो जायेगी। हमारे शूद्र भाई इस देह रूपी राष्ट्र के ही कट जायॅं, तो देह की क्या गति होगी?’

                प्रेमचन्द ने यहाँ यह मान लिया है कि भारतीय राष्ट्र का आदर्श वर्णव्यवस्था है, जिसका मुंह ब्राह्मण, हाथ क्षत्रिय, उदर वैश्य और पाँव शूद्र हैं और जब शूद्र ही अलग हो जायेगा, तो राष्ट्र भी नहीं रहेगा, फिर स्वराज्य भी कहाँ? बात सही है, स्वराज्य का मतलब है ब्राह्मणों, क्षत्रियों और बनियों का राज्य। तिलक ने कहा ही था कि स्वराज्य उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। यह जन्मसिद्ध स्वराज्य का अधिकार शूद्रों के लिए नहीं था, बल्कि शूद्रों को अधीन रखने के लिए था। हालाँकि, प्रेमचन्द यह स्वीकार करते हैं कि शूद्रों के साथ हमने अन्याय किया है, उन्हें जी भर कर रौंदा और दला है।  लेकिन वे यह नहीं चाहते कि उन्हें कुछ पृथक प्रतिनिधित्व का अधिकार मिल जाए। इसे प्रेमचन्द गाँधी की तरह ही हिन्दू समाज से अलगाव मानते थे। उन्होंने लिखा: इससे हिन्दू समाज की ही क्षति न होगी, अछूतों का अस्तित्व ही न रहेगा।

                समझ में नहीं आता कि प्रेमचन्द हिन्दू समाज की क्षति होने और अछूतों का अस्तित्व खत्म हाने की इतनी बड़ी बात कैसे कह रहे थे? क्या वे हिन्दुओं की ओर से दलितों को चेतावनी दे रहे थे या धमकी? जिस हिन्दू समाज ने एक विशाल आबादी को शिक्षा और अधिकारों से वंचित करके अछूत और सेवक बनाकर रखा हो, वह आबादी अगर जागरूक हो रही थी और शासन-प्रशासन में प्रतिनिधित्व का अधिकार मांग रही थी, तो क्या उससे हिन्दू समाज की क्षति होने का मतलब यह था कि हिन्दुओं के स्वराज्य में कटौती हो जाती? लेकिन इससे दलितों का अस्तित्व कैसे खत्म हो जाता? किसी भी कौम का अस्तित्व अधिकार देने से खत्म होता है, या अधिकार छीनने से?

                ब्रिटिश प्रधानमंत्री के निर्णय में डा. आंबेडकर की जिस मांग को स्वीकार किया गया था, उसके अनुसार दलित वर्गों को पृथक निर्वाचन का अधिकार दिया गया था। मतलब, दलित प्रतिनिधियों का निर्वाचन दलितों के वोटों से होना था, सवर्ण हिन्दुओं के वोटों से नहीं। इसमें हिन्दू समाज की क्या क्षति थी? अगर दलित वर्गों के लोग अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनते, तो जाहिर है कि वे योग्य और हितैषी लोगों को अपना प्रतिनिधि चुनते। यह गाँधी को क्यों सहन नहीं हुआ? इसमें किस तरह दलित वर्ग के लोग हिन्दू समाज से अलग हो रहे थे? क्या वे धर्मान्तरण करके ईसाई या मुसलमान बनने जा रहे थे, जो हिन्दू समाज से अलग हो जाते? कैसे समझ लिया प्रेमचन्द ने कि पृथक निर्वाचन से दलित वर्ग का हिन्दू समाज से अलगाव हो जाता? उन्होंने इस मुद्दे पर गाँधी की आलोचना नहीं की, बल्कि खुद भी उन्हीं के रंग में रंग गए। उन्होंने लिखा: हमें विश्वास है कि अगर आज किसी गाँव के चमार या पासी या मुसहर से जिज्ञासा की जाए, तो वह हिन्दू जाति से अलग होना कदापि स्वीकार न करेगा। वह हिन्दू समाज में रहकर अपना उद्धार चाहता है, हिन्दू समाज से निकलकर नहीं।

 

गाँधी ने समाज में जो भ्रम प्रचारित किया, दुर्भाग्य से प्रेमचन्द भी उसी भ्रम के शिकार हो गए। उन्होंने भी अपने विवेक से नहीं, गाँधी के विवेक से ही दलितों को देखा। गाँधी पृथक निर्वाचन के विरुद्ध संयुक्त निर्वाचन चाहते थे, जिसमें दलित प्रतिनिधियों का निर्वाचन दलितों और सवर्ण हिन्दुओं के संयुक्त वोटों से हो। प्रेमचन्द ने भी इसी का राग अलापा। उन्होंने लिखा: दलितों के उद्धार का सबसे उत्तम साधन है, सम्मिलित निर्वाचन। यही उनके उत्थान का मूल मंत्र है। 

 

हिन्दू जो ठान लेते हैं, उसे पलटने की मजाल आज भी किसी में नहीं है। इसका कारण यह है कि वे शासक वर्ग हैं, अपने हित के लिए किसी भी हद से गुजर सकते हैं। वे जानते थे कि गांवों में दलित वर्ग के लोगों की जीविका उन्हीं पर निर्भर करती थी, जो काफी हद तक आज भी करती है। गांवों में हिन्दुओं के खिलाफ जाने वाले दलितों का सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता था। इससे वे दबे रहते थे। गाँधी के देशभर में फैले भक्त रोज ही डा. आंबेडकर को जान से मारने और परिणाम भुगतने के पत्र भेज रहे थे। अतः अगर डा. आंबेडकर के साथ हिन्दुओं के हित में गाँधी से समझौता नहीं होता, और गाँधी मर जाते, तो इस बात की पूरी तैयारी थी कि गाँव-गाँव और नगर-नगर में दलित जातियों के लोगों के साथ भारी पैमाने पर हिंसा होती। फलतः इसी भारी हिंसा को देखते हुए डा. आंबेडकर ने वही किया, जो गाँधी चाहते थे। दलितों को संयुक्त निर्वाचन का अधिकार के साथ अपनी जीती हुई लड़ाई हारनी पड़ी।

 

आज प्रेमचन्द होते, तो उनसे जरूर पूछा जाता कि जब उनके अनुसार संयुक्त निर्वाचन में दलितों की मुक्ति थी, तो संयुक्त निर्वाचन लागू होने के बाद, उनकी मुक्ति क्यों नहीं हुई? दलितों के प्रतिनिधि हिन्दुओं की कठपुतली क्यों बने हुए हैं? प्रेमचन्द, पता नहीं, संयुक्त निर्वाचन का यह राज क्यों नहीं समझ सके कि वह दलितों को हिन्दुओं का कठपुतली प्रतिनिधि बनाने का खेल था। पूना-समझौते के बाद जो सुरक्षित निर्वाचन क्षेत्र बनाए गए, वे बहुसंख्यक हिन्दू क्षेत्र थे, जो आज भी हैं। इन क्षेत्रों में दलित प्रत्याशियों की विजय हिन्दू वोटों पर निर्भर करती है। इसलिए मजबूरन विजयी दलित प्रतिनिध्यिों करे अपने क्षेत्र के हिन्दुओं की चिन्ता करनी पड़ती है, दलितों की नहीं। जो दलित प्रतिनिधि दलितों की चिंताएं करते हैं, उन्हें पार्टी से दुबारा टिकट नहीं मिलता, और उनके क्षेत्र के हिन्दू भी उनको पसन्द नहीं करते। यह है संयुक्त निर्वाचन का जाल, जिससे डा. आंबेडकर दलितों को मुक्त कराना चाहते थे। गाँधी की चिन्ता यही थी कि पृथक निर्वाचन से दलित प्रतिनिधित्व हिन्दू समाज के लिए चुनौती बन जा जाता, जो भारत राष्ट्र को तो मजबूत करता, पर हिन्दू राष्ट्र को कमजोर कर देता। अगर दलित प्रतिनिधित्व पूरी तरह दलितों पर निर्भर होता, तो दलितों की शिक्षा और आर्थिक निर्भरता के लिए बेहतर योजनाएं बनतीं। यह हिन्दू राष्ट्र को बरदाश्त कैसे बर्दाश्त होता?

इस तरह जब दलित पक्ष की हार और हिन्दू पक्ष की जीत हुई, तो प्रेमचन्द ने 26 सितम्बर 1932 के जागरणमें हर्ष-सम्पादकीयलिखा: समझौता हो गया। छूत-अछूत सभी नेताओं ने मिलकर बम्बई के गवर्नर के पास अपना लिखित समझौता पेश कर दिया और ब्रिटिश और भारत सरकार के पास भी सूचना कर दी गई। आज 26-9-32 का तार है कि भारत मंत्री ने उसे मंजूर कर लिया।इसका श्रेय प्रेमचन्द ने महात्मा गाँधी के अनशन को दिया, जिसे आंबेडकर ने दलितों को धमकाने वाला नाटक कहा था। प्रेमचन्द उसे तपस्या की संज्ञा दी। उन्होंने लिखा: उस महान आत्मा के अनशन व्रत ने, उसकी तपस्या ने, केवल सात दिनों में यह दिखला दिया कि वास्तव में तपस्या कितनी बलवती होती है। उस महान आत्मा की तपस्या ने, ब्रिटेन के महान राजनीतिज्ञों के द्वारा तैयार की गई उस सुदृढ़ दीवार को, जो हिन्दू अछूतों को अलग करने के लिए बड़े गहन कौटिल्य के सीमेंट से तैयार की गई थी, विध्वस्त कर दिया।

4 अप्रैल 2021

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