शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

बुनियाद के पत्थर:
बुद्धसंघ प्रेमी: आज होते तो 80 के होते
(कंवल भारती)
                कहाबत है कि जो होता है, अच्छे के लिए होता है। इस कहाबत से नियतिवाद मजबूत होता है, पर इस पर मुझे विश्वास करने को मन करता है। शायद कुछ घटनाएँ अपने आप घटित होती हैं, जो हमारे वश में नहीं होतीं। 1979 में जब मेरी प्रेस सील्ड हुई और मैं सड़क पर आ गया, तो मेरे पास समाज के कुछ प्रभावशाली लोगों से मिलने के सिवाए कोई चारा नहीं था। इसी बीच मैं आंबेडकर-मिशन के नेताओं के सम्पर्क में आया। वे बड़े अच्छे, मेहनती और सहयोगी लोग थे। वे गाँव-गाँव जाकर आंबेडकर और बुद्ध का प्रचार करते थे। मैं भी इसी मिशन से जुड़ गया। वह मेरी विवशता भी थी, क्योंकि रोजगार हो गया था, घर में खाने का ठिकाना नहीं था, विमला को उनके माँ  के घर छोड़़ दिया था। अकेला था, सो मिशन में रहकर घूमना भी हो रहा था और खाना भी मिल रहा था। गाजियाबाद, हापुड़ और दिल्ली के ग्रामीण इलाकों में कार्यक्रम होते थे, जहाँ पहले मेरा संक्षिप्त भाषण होता था, उसके बाद देर रात तक गाना-बजाना चलता था। रागनियों और भजनों के द्वारा वे डा. आंबेडकर तथा बुद्ध का प्रचार करते थे और अंधविश्वास पर प्रहार करते थे। यह वह बुनियाद थी, जिसके ऊपर बाद में दलित साहित्य और राजनीति के भव्य भवन का निर्माण हुआ था। बुनियाद के इन पत्थरों में प्रमुख थे- बुद्ध संघ प्रेमी, मास्टर मिथन सिंह बौद्ध, सत्यपाल बौद्ध, मास्टर हुकुम सिंह, वेगराज तूफान, गंगासहाय गौतम, हर स्वरूप, नानक, धर्मवीर, देवरत्न, लालचन्द, धर्मसिंह गौतम, शिब्बन लाल सनेही तथा और भी बहुत सारे साथी, जिनका नाम मुझे अब याद नहीं आ रहा है। ये सब साधारण लोग थे, ज्यादा पढ़े-लिखे भी नहीं थे। इनमें कोई दर्जी का काम करता था, कोई राजमिस्त्री था, कोई मोची था, तो अनेक दिहाड़ी मजदूर थे। हुकुम सिंह तो गाजियाबाद की नवयुग मार्कीट में चबूतरे पर बैठकर मोची का काम करते थे, लेकिन गजब के गायक थे। देवरत्न भी बहुत अच्छे गायक थे।
                इस मिशन ने मेरे भीतर के लेखक को नई रोशनी दी थी और मुझमें नई रचनात्मक ऊर्जा भरी थी। सबसे पहले मैं मास्टर मिथन सिंह बौद्ध के सम्पर्क में आया था, वे हापुड़ में दर्जी का काम करते थे। उनका जीवन बड़ा कष्ट-साध्य था। पत्नी का देहान्त हो गया था, दो पुत्र थे, खुद खाना बनाते थे। लेकिन अच्छे कवि और गायक थे। वह ज्यादातर यात्रा में रहते थे, अपनी सेहत पर कभी ध्यान नहीं देते थे। इसी बीच उनकी रीढ़ की हड्डी में कैंसर हो गया, और 10 जनवरी 2003 को वे संसार से चले गए। उस दिन आंबेडकर मिशन ने अपना एक जुझारू सैनिक खोया था, ऐसा सैनिक, जो बार-बार पैदा नहीं होता। पर दलित साहित्य इस योद्धा को नहीं जानता।
इन्हीं मास्टर मिथन सिंह ने मेरा परिचय सीलमपुर (दिल्ली) निवासी बुद्धसंघ प्रेमी से कराया था। पहले ही परिचय में मैं उनकी कविता, उनकी गायकी और उनकी सादगी का कायल हो गया था। वे पेशे से राजमिस्त्री थे। कुर्ता या कमीज के साथ धोती पहनते थे। उनका प्राचीन नाम बलवन्त सिंह प्रेमी जड़ौदवी था। मूलतः मेरठ के रहने वाले थे, जहाँ के जड़ौद गाँव  में वह 15 मई 1935 को पैदा हुए थे। हिन्दू विचारों में उनका विश्वास था, पर एक दिन मेरठ के भैसाली मैदान में डा. आंबेडकर का भाषण सुनकर वह उनके ऐसे भक्त हुए कि हिन्दू विचार पीछे छूट गए और बाबासाहेब के विचार उनके दिल-दिमाग में ऐसे बैठे कि आजीवन बैठे रहे। 1964 में वह भारतीय रिपब्लिकन पार्टी से जुड़े और उसके भूमि आन्दोलन में शामिल होकर जेल गए। बाबासाहेब के 75वें जन्मदिवस, 14 अप्रैल 1965 को वह आंबेडकर भवन, नई दिल्ली में बौद्धधर्म की दीक्षा लेकर बलवन्त सिंह प्रेमी जड़ौदवी से बुद्धसंघ प्रेमी बन गए। बौद्धधर्म के प्रचार के लिए उन्होंने सिनेमा स्लाइड बनवाई और एक प्रोजेक्टर खरीद कर अपने को धम्म के प्रचार में लगा दिया। जिन दिनों मैं उनसे मिला करता था, वह धूम्रपान करते थे, जिसने आगे चलकर उन्हें दमा ने जकड़ लिया था। बीमारी बढ़ी कि उनका बाहर आना-जाना भी लगभग बन्द हो गया था। और, अन्ततः 30 सितम्बर 1997 को, वह 62 वर्ष की अल्पायु में इस संसार से चले गए। किन्तु, दलित साहित्य के निर्माण में बुनियाद के इस पत्थर को अब कोई याद नहीं करता।
                उनके साथ मेरा गहरा आत्मीय सम्बन्ध था। जिन दिनों मैं 1981 में भन्ते शान्त रक्षक और दिल्ली शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के महामन्त्री श्री मोहन लाल के सहयोग से पहाड़गंज में मोतिया खान के बुद्धविहार में रह रहा था, तो लगभग हर दस-पन्द्रहवें दिन उनसे मिलने सीलमपुर जाता था। कई बार वह भी बुद्धविहार आकर मिलते थे। न्यू सीलमपुर में मार्कीट के पास ही डी ब्लाक की एक गली में उनका मकान था, जिसके ऊपर उन्होनें सीमेन्ट से नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा सम्बुद्धस्सलिखवाया हुआ था। दुमंजिला मकान था। रहन-सहन बहुत साधारण था। एक दिन मैं गया, तो देखा, वह जमीन पर उकड़ॅंू बैठकर खा रहे थे। खाने की यही परम्परा उस समय लगभग सभी दलित परिवारों में थी। इसी अवस्था में मैंने भी उनके साथ कई बार खाना खाया था, जो अक्सर मांसाहारी होता था, और, उन दिनों मैं मांस खाता ही था।
उस कालखण्ड में, दिल्ली में दलित कविता के दो बड़े केन्द्र थे, एक बिहारी लाल हरित, जिनके नाम से शाहदरा में बिहारी कालोनी है, और, दो, बुद्धसंघ प्रेमी। दोनों ही कविता में सर्वाधिक लोकप्रिय हस्ताक्षर थे। कविता में दोनों ने ही अपने अनेक शिष्य बनाए थे। हरित जी के शिष्यों में उस समय के नामी कवि लक्ष्मीनारायण सुधाकर, राजपाल सिंह राज, कुसुम वियोगी और मोती लाल सन्त थे। प्रेमी जी के भी बहुत सारे शिष्य थे, जिनमें मास्टर मिथन सिंह, लाल चन्द और धर्म सिंह इत्यादि मुख्य थे। चूंकि मैं लोकधारा की कविता के भी उतना ही निकट था, जितना साहित्यिक धारा की कविता के, इसलिए मुझे दोनों ही प्रिय थे। हरित जी की यह विशेषता थी कि वह लोक और मुख्य धारा दोनों में लिखते थे। बुद्धसंघ प्रेमी भी उनका बहुत आदर करते थे, एक तो इसलिए कि वह अत्यन्त वरिष्ठ थे, और, दूसरे, इसलिए कि उन्होंनें तत्कालीन मुख्यधारा के कवियों में अपना सम्मानजनक स्थान बनाया हुआ था। उन दिनों हरित जी के आवास पर कवि गोठियां  हुआ करती थीं, जिनमें एक-दो बार मैं भी राज और कुसुम वियोगी के साथ शरीक हुआ था। प्रेमी जी भी वहाँ अक्सर आते थे, और उस अवसर पर वह अपनी लडि़यां  सुनाते थे, जो एक दम साहित्यिक मिजाज की कविता होती थी।
अचानक, मुझे 1982 में दिल्ली छोड़ना पड़ा। दिल्ली काम की तलाश में गया था, और कोई काम न मिलने के कारण राजधानी में किसके बूते रहा जाता। शुरु में कुछ दिनों मैं मास्टर वतन स्वरूप के घर पर रहा, उसके बाद कुछ दिनों लक्ष्मीनगर में डा. एम. एस. पवन के घर में शरणार्थी रहा। उन्होंने अपने घर में क्लीनिक बना रखा था, जिसमें एक हाल में कई बैड थे, उन्हीं में से एक बैड पर मैं रात को सो जाता था। वहाँ का माहौल मेरे लिए बहुत कष्टदायी था। डाक्टर की पत्नी उनके छोटे भाई की पत्नी पर बहुत जुल्म करती थी, जो मुझसे देखा नहीं जाता था; शायद वह गरीब घर की थी। यह अच्छा हुआ कि उस घर से मैं जल्दी निकल आया था। इसी बीच मुझे सरकारी नौकरी के लिए लखनऊ जाना पड़ा, और इस तरह दिल्ली ही नहीं छूटी, दिल्ली के सभी साथी भी छूट गए थे। प्रेमी जी से फिर कभी मिलना नहीं हुआ।
अपने लखनऊ प्रवास के दौरान मैंने प्रज्ञा साहित्यपत्रिका (सितम्बर 1996) में लखनऊ के दलित समाज सेवी श्री प्रेमचन्द आर्य पर एक लेख लिखा था। मेरे उस लेख को पढकर प्रेमी जी का 15 दिसम्बर 1996 का लिखा एक पत्र मुझे मिला था, जो बहुत ही संवेदनात्मक था। ठीक 14 साल के बाद, मुझे उनका यह पत्र मिला था। उस पत्र में उन्होंने लिखा था-
भारती जी, बुद्धसंघ प्रेमी की तरफ से आपको जय भीम नमो बुद्धाय। आशा है, आप सपरिवार कुशल होंगे। आगे समाचार यह है कि आपसे मिले हुए काफी समय बीत गया है और मैं आपके पास आ नहीं सकता, क्योंकि मुझे दमे की बीमारी है। इसी कारण मैं कहीं भी जाने लायक नहीं हूँ। मैं घर पर ही रहता हूँ। अभी त्रैमासिक सितम्बर 1996 के अंक में प्रेमचन्द आर्यलेख पढ़ा। बहुत ही खोजपूर्ण लेख है, जो आपने प्रज्ञा साहित्यमें दिया है। वैसे मैं इस पत्रिका का सदस्य नहीं हूँ, फिर भी सम्पादकों ने मेरे पास पत्रिका भेजी है। मैं हृदय से सभी सदस्यों का स्वागत करता हूँ। आप तो मेरे विषय में भली भांति जानते हैं। मैंने जो कविता के माध्यम से समाज की सेवा की है। फिर भी मेरे विषय में आपकी कलम चुप क्यों है? क्या मेरी रचना इस योग्य नहीं है, जो उन पर कुछ लिखा जाय। नेताओं से कोई आशा नहीं है, चाहे वह बौद्ध महासभा के लोग हों, या बीएसपी के। लेखक लेखक के विषय में नहीं सोचेगा, तो कौन सोचेगा? मेरा आपसे अनुरोध नहीं है, बल्कि सुझाव है। जय भीम जय भारत।
तुम्हारा साथी, बुद्धसंघ प्रेमी
15-12-96
                इस पत्र को पढ़कर मेरी रुलाई फूट गई थी। सचमुच उन्हें सबसे ज्यादा अपेक्षा मुझसे ही थी। और वह यह समझते थे कि मैं उन्हे भूल गया था। पर बात यह नहीं थी। असल में प्रज्ञा साहित्य के सम्पादक डा. रामकृष्ण राजपूत ने मुझसे प्रेमचन्द आर्य पर एक लेख माँगा था। कारण यह था कि प्रेमचन्द आर्य भी उसी फर्रूखाबाद जनपद से थे, जहाँ से राजपूत जी हैं। अगर मैं बुद्धसंघ प्रेमी जी पर कोई लेख लिखता, तो कौन छापता? आज की तरह न उस वक्त फेसबुक था, और न आज की जैसी दलित/बहुजन पत्रिकाएं थीं। जो थीं, उनकी प्राथमिकताएँ  राजनीतिक थीं। भला, बुद्धसंघ प्रेमी, किसी का क्या राजनीतिक भला कर सकते थे? फिर भी मैं उस वक्त अपना दायित्व नहीं निभा सका था, जिसका मुझे दुख है। पर अब बुद्धसंघ प्रेमी और उनका लोक काव्यशीर्षक योजना मैंने हाथ में ले ली है, जिसे मई 2016 में उनकी 80 वीं जयन्ती पर दिल्ली में ही विमोचन करने का मनोरथ है।
प्रेमी जी ने कुल 22 काव्य-पुस्तकें लिखीं थीं, जिनके नाम हैं- (1) अपमान का बदला, (2)  प्रेमी की दृष्टि, (3) अशोक का शस्त्र त्याग, (4) भगवान बुद्ध या कृष्ण, (5) सामाजिक क्रान्ति, (6) चिन्तन चिन्गारी, (7) प्रेमी की लडि़यां , भाग-1, (8) प्रेमी की लडि़यां, भाग-2, (9) प्रेमी की लडि़यां, भाग-3, (10), प्रेमी की लडि़यां, भाग-4, (11) प्रेमी की लडि़यां, भाग-5, (12) शम्बूक वध, (13) बैरिस्टर अम्बेडकर, (14) क्रान्तिदूत अम्बेडकर, (15) मत-मतान्तर, (16) शोषित जन जागृति, (17) थोथे तीर, (18) प्रेमी की कुण्डलियां, (19) चाण्डाल कन्या, (20) त्याग और आग, (21) उत्थान के स्वर, तथा (22) सोचो और बदलो।        
उनकी कविताओं की लोकप्रियता का आलम यह था कि लोग उनकी नई किताब का इन्तजार करते थे। किताबों के साथ-साथ उनकी आवाज में उनकी कविताओं के कैसेट भी बिकते थे। यह वह दौर था, जब दलित कविता में बिहारीलाल हरित की तूती बोलती थी और लगभग एक दर्जन से भी ज्यादा दलित कवि उनके शिष्यत्व में कविता कर रहे थे, जिनमें राजपाल सिंह राजऔर सुधाकर प्रमुख थे। पर प्रेमी की राह इन सबसे अपनी अलग थी। उन्होंने लोक छन्द को अपनाया था और सिर्फ अपनाया ही नहीं था, उसमें प्रयोग भी किए थे। हिन्दी कविता में गिरधर की कुंडलियां मशहूर थीं, पर प्रेमी जी ने उसकी तर्ज पर लड़ीछन्द की रचना की थी। उनकी लडि़यां इतनी मशहूर हुईं कि लोग कुंडलियां  भूल गए। जब 1975 में उनकी लडि़यों की पहली पुस्तक प्रेमी की लडि़यां प्रकाशित हुई, तो वह इतनी लोकप्रिय हुईं कि उन्हें एक हजार के संस्करण के बाद, दो हजार प्रतियों का दूसरा संस्करण निकालना पड़ा था। इसके बाद 1976 में इसी नाम से दूसरा भाग, 1978 में (सत्य असत्य की परखनाम से) तीसरा भाग, 1985 में चौथा भाग और 1989 में अन्तिम पांचवां भाग प्रकाशित हुआ था। मैंने सुना है, मराठी के कवि नामदेव ढसाल हर 14 अप्रैल को बाबासाहेब डा. आंबेडकर पर अपनी नई कविता प्रकाशित कराते थे। बुद्धसंघ प्रेमी भी हर 14 अप्रैल को ही अपनी नई किताब प्रकाशित कराते थे। सीलमपुर में शर्माजी की गीता प्रिन्टिंग एजेन्सी थी, जहाँ से उनकी किताबें कम्पोज होकर छपती थीं। शर्माजी से उनके बहुत मधुर सम्बन्ध थे, पर चूँकि प्रेमी जी की किताबों में हिन्दूधर्म और देवी-देवताओं की आलोचना होती थी, इसलिए उन्हें अपने प्रेस की सुरक्षा की भी चिन्ता रहती थी। इसलिए, प्रेमी जी ने अपनी पंचशील प्रिन्टिंग एजेन्सीबनाई और अपनी किताबों पर मुद्रक के रूप में यही नाम छपवाने लगे। उनके प्रकाशन का नाम भी पंचशील लोक साहित्य प्रकाशनथा, जिसके बैनर तले वह अपनी और अन्य कवियों की किताबें प्रकाशित करते थे।
उनकी कविताओं की एक बानगी यहाँ  देना आवश्यक है। 15 दिसम्बर 1996 को बुद्ध संघ प्रेमी ने अपने पत्र में मुझे लिखा था-
आज मैं जिन्दा हूँ, कोई क्यों करेगा मुझको याद।
कुछ कमी महसूस होगी, मेरे मर जाने के बाद।।
                इसी 30 सितम्बर को उनके परिनिर्वाण को 18 वर्ष हो जायेंगे। और उनकी कमी को महसूस भी लोग करते हैं, पर सिर्फ उनके परिवार के लोग। दलित साहित्य में उन्हें कोई याद नहीं करता। दरअसल वह लोक में प्रतिरोध की दस्तक देने वालों में थे। आधुनिक दलित साहित्य का निर्माण उसी बुनियाद पर हुआ। पर, उस बुनियाद को आज के दलित लेखक नहीं पहिचानते।
एक अन्य पत्र में, जो उन्होंने मुझे 7 दिसम्बर 1984 को लिखा था, अपनी बहुत सी कविताएँ एक संकलन के लिए भेजी थीं, जिनका मैं उपयोग नहीं कर सका था। उनमें एक कविता जाति तोड़ मण्डल पर है, जो उनकी लोकप्रिय कविताओं में है। उसकी ये पंक्तियां  दखिए-
यहाँ जातिवाद के पोषक ही बढ़कर बात करते हैं।
दिखावे के लिए खण्डन, वही दिन रात करते हैं।।
सुधारक खुद नहीं सुधरे, सुधारें और को कैसे?
ये कथनी और करनी में, र्फे सब घात करते हैं।।
प्रेमी सबसे ज्यादा अपनी जिन लडि़यों के लिए जाने जाते थे, वे कुछ यहाँ प्रस्तुत हैं। जाति पर ये लडि़यां देखिए-
जब तक रहे समाज में, छुवाछूत का भूत।
लाख यत्न कर प्यार का, नहीं जुड़ेगा सूत।
नहीं जुड़ेगा सूत, लोग कथ कथ के रह गए।
करनी कथनी में फर्क मिला, कागज पर कह गए।
कह प्रेमी कविराय, कही बहुतों ने अब तक।
छूत-भूत न मरे, रहेगी कथनी जब तक।।

जात एक ही जाति है, फिर भी पूछै जात।
जात जात से पूछता, जैसे स्वयं कुजात।
जैसे स्वयं कुजात, कभी नहीं देखी जाती।
जात पूछ कम, जात, जात का बना न साथी।
कह प्रेमी कविराय, जात ने जात न जानी।
एक जात की जात, अनेकों जात बखानी।।
                बुद्धि के शत्रुओं पर उनकी यह लड़ी विचारोत्तेजक है-
देव, आत्मा, ईश्वर, रहते जिनके पास।
उनकी बुद्धी का कभी, होता नहीं विकास।
होता नहीं विकास, ये ही बुद्धी के नासक।
बुद्धी रहे अधीन, रहैं ये तीनों शासक।
कह प्रेमी कविराय, जो इनसे मुक्ति पावे।
फिर देखो यह बुद्धी, नए चमत्कार दिखावे।ं

अन्धे बन पूजा करें, ईश में राख यकीन।
उन मनुषों को जानिए, बिल्कुल बुद्धीहीन।
बिल्कुल बुद्धीहीन, नाहक ही समय बितावें।
खुद को मिलता नहीं, दूसरों को बहकावे।
कह प्रेमी कविराय, मान गौतम की बानी।
ईश्वर में विश्वास, मूर्ख की यह ही निशानी।
                 धार्मिक पाखण्डों पर उनका प्रहार सबसे तेज था, कुछ लडि़यां प्रस्तुत हैं-
बाल मुड़ाने बाल के, तीरथ पर ले जाय।
बालक तो मुड़ता नहीं, खुद ही मुड़कर आय।
खुद ही मुड़कर आय, फॅंसा ठगियों में जाके।
पैसा लिया धरवाय, पत्थर को देव बताके।
कह प्रेमी कविराय, पैसे बिन पैदल धाया।
बालक तो क्या मुड़ा, आप ही मुड़कर आया।

कोई सर मुण्डा हुवा, किसी ने रख लिए बाल।
कोई नंगा हो गया, चला कोई अलफी डाल।
चला कोई अलफी डाल, किसी ने किया लंगोटा।
किसी ने फाड़े कान, उठाया झोली सोटा।
कह प्रेमी कविराय, किस्म है न्यारी न्यारी।
कोई बना महाराज, कोई बन गया भिखारी।

जगह जगह भगवान के, ऊॅंचे भवन बनाय।
भोली जनता के लिए, गिरहकट दिए बिठाय।
गिरहकट दिए बिठाय, सभी करते हैं धोखा।
लेते सबको लूट, लगे जैसे भी मौका।
कह प्रेमी कविराय, बहाना ईश बतावें।
पालें अपना पेट, औरों को मूर्ख बनावें।
                बुद्ध और आंबेडकर की विचारधारा से दलित-जागरण पर रागनी, भजन, कव्वाली, देहाती और फिल्मी गीतों की तर्ज पर उनकी लोकगीतों की रचनाएँ  उनकी अन्य पुस्तकों में मिलती हैं। प्रेमी की दृष्टिपुस्तक से हिन्दुओं के अत्याचार पर भजन-तर्ज पर उनकी एक रचना की ये दो पंक्तियां  देखिए-
दलितों के संग भारत में जब कोई घटना होती।
समझो या नहीं समझो, हिन्दू दे रहा तुम्हें चुनौती।
                इसी पुस्तक में बाबासाहेब के प्रति आज के पढे़-लिखे दलितों की अकृतज्ञता पर फिल्मी तर्ज उलझन सुलझे नापर उनके एक लोकप्रिय गीत की, जिसका प्रसारण 20 अप्रैल 1981 को आकाशवाणी, दिल्ली से भी हुआ था, ये पंक्तियां उल्लेखनीय हैं-
भीम को जाने ना, किसी की तू माने ना।
करता नहीं कुछ करता नहीं।
यहाँ भीमराव ने दिया बदल जमाना।
कभी मिलता नहीं था तुम्हें वक्त पर खाना।
आज धन जोड़े है, वाहन में दौड़े है।
करता नहीं कुछ करता नहीं।

चेतना के स्वरपुस्तक में उनके एक लोकप्रिय भजन की ये पंक्तियां आंबेडकर और बुद्ध के प्रचार में उनके चिन्तन को दर्शाती हैं-
जब तक न समझेगा भीम को, बदले तेरा विचार नहीं।
बौद्धधर्म के बिना भारत में होगा कभी सुधार नहीं।
                ‘शोषित जन जागृतिमें उनका एक गीत रविदास जी हिन्दू नहीं थे; शीर्षक से है, जिसकी ये पंक्तियां महत्वपूर्ण हैं-
रविदास अगर होता हिन्दू, वेदों का खण्डन नहीं करता।
मानव-मानव हैं एक सभी, समता का मण्डन नहीं करता।
ब्राह्मण सब में श्रेष्ठ, कभी इसको भी नहीं स्वीकारा है।
जो मानव हित से दूर की बातें, बुरी तरह ललकारा है।
हिन्दू गर होता रविदास, इनसे तकरार नहीं होता।
जो बुद्ध की छाप नहीं होती, मानव सेे प्यार नहीं होता।
हिन्दूपन की एक बात भी, सन्त ने नहीं स्वीकारी है।
सच्चे बौद्ध को हिन्दू कहना, ‘प्रेमीयह भूल हमारी है।
                ‘थोथे तीरमें उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी को नष्ट करने वाले छद्म आंबेडकरवादियों की जबरदस्त खबर ली है, उन्होंने उन्हें बाबासाहेब का शत्रु कहा है, यथा-
इन बाबुओं की संस्थाएं, पार्टी को खा गई।
नेता ऐसे योग्य निकले, उन्हें गैर नीति भा गई।
15 मई 1983 को भारतीय शोषित समाज जागृति मंच, शाहदरा, दिल्ली ने उनकी पचासवीं रजत जयन्ती पर उनका नागरिक अभिनन्दन किया था। उनको भेंट किए गए अभिनन्दन पत्रमें मंच ने लिखा था- आपने समाज में व्याप्त कुरीति, अंधविश्वास और भेदभाव के घिनौने कार्यों का लेखनी द्वारा खण्डन ही नहीं किया, अपितु बाबासाहेब डा. बी. आर. अम्बेडकर जी के महान आदर्शों पर चलकर समाज को एक नई दिशा प्रदान की। मन, वाणी और कर्म के आधार पर आपने सतपथ का अनुसरण किया। आपने मानव को उसके उच्च कर्मों के आधार पर ही महत्व दिया, न कि जन्म-जाति और कुल के आधार पर। इसीलिए, आप आदर्श मानव के रूप में हमारे सम्मान के पात्र हैं।
निस्सन्देह बुद्धसंघ प्रेमी हमारे सम्मान के पात्र थे। उनको कवि, संस्कृति-कर्मी और बहुजन समाज में सामाजिक क्रान्ति लाने के लिए सदैव स्मरण किया जायगा।

(18 सितम्बर 2015)