गुरुवार, 30 मई 2013

लोकतंत्र में हिंसा
(कँवल भारती)
क्या लोकतंत्र में हिंसा उचित है? शायद ही कोई इसका जवाब हाँ में देना चाहेगा. लेकिन फिर भी हिंसा लगातार जारी है. भारत का कोई भी राज्य हिंसा से अछूता नहीं है. यह अब आम समस्या हो गयी है. लेकिन लोकतंत्र के प्रहरियों ने कभी भी इस पर कारगर तरीके से विचार नहीं किया. यह विषय मुख्य रूप से चर्चा के केन्द्र में तभी आता है, जब हिंसा के शिकार बड़े नेता होते हैं. हालाँकि अब तक यह हिंसा लाखों निर्दोष लोगों की जान ले चुकी है, कभी गोलियों से तो कभी बम-विस्फोट से, कभी धर्म के नाम पर, कभी भाषा के नाम पर और कभी जाति के नाम पर गुमराह लोगों की हिंसा से तो कभी उसके विरोध में सरकार की प्रतिहिंसा से. इस हिंसा की कुछ दिन चर्चा होती है, फिर सब शांत. किन्तु, अब जब शांति मार्च (सलवा जुडूम) के अगुआ कांग्रेसी नेता महेन्द्र कर्मा और अन्य प्रतिनिधि नेताओं की माओवादियों ने हत्या कर दी, तो पूरा सत्तातन्त्र विचलित नजर आने लगा है. सारी राजनीतिक पार्टियां नक्सलवाद और माओवादियों के खिलाफ लामबंद हो गयी हैं कि बस अब वे उनका खात्मा करके ही रहेंगे. विडम्बना यह है कि उनकी यह खात्मा-योजना भी प्रतिहिंसा के सिवा कुछ नहीं है.
आइये, कुछ सवालों पर विचार करें. राजनीतिक पार्टियां कह रही हैं कि छत्तीसगढ़ में माओवादियों का हमला लोकतंत्र पर प्रहार है. केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश कह रहे हैं कि वे आतंकवादी हैं और उनके विरुद्ध वैसी ही कार्यवाही होनी चाहिए, जैसी आतंकवादियों के साथ की जाती है, क्योंकि वे संविधान, लोकतंत्र और लोकतान्त्रिक संस्थाओं में कोई आस्था नहीं रखते हैं. उधर माओवादियों का कहना है कि लोकतंत्र और संविधान के नाम पर चलाया जा रहा महेन्द्र कर्मा का (सलवा जुडूम) शांति मार्च आदिवासियों की तबाही का मार्च था. गांव के गांव पुलिस ने जलाकर रख कर दिए थे, हजारों लोग घर से बेघर हो गये, पुलिस वाले लड़कियों और औरतों को घरों से खींचकर ले जाते थे, उनके साथ बलात्कार करके उनकी हत्याएं कर देते थे, बर्बरता की सारी हदें पार करते हुए पुलिस ने एक डेढ़ साल के बच्चे का हाथ काट दिया था और एक महिला के गुप्तांग में पत्थर भर दिए थे. क्या यह किसी आतंक से काम था? क्या इसी को लोकतंत्र कहते हैं? यह सब किस संविधान और लोकतंत्र के तहत किया गया था? यह कैसा शांति मार्च (सलवा जुडूम) था, जो आदिवासियों पर कहर ढा रहा था? कल्याण और योजनाओं के नाम पर वहाँ शोषण और लूट का धंधा चल रहा था. महेन्द्र कर्मा आदिवासी जनता के नहीं, पूंजीपतियों के हितैषी थे और उन्हीं के लिए आदिवासियों को जंगल-जमीन से बेदखल करने का काम कर रहे थे. और यह कैसा सलवा जुडूम था? यह सलवा जुडूम आदिवासियों के लिए आतंक का पर्याय बन गया था. कहते हैं कि महेन्द्र कर्मा से थर्राते थे लोग. उसी के इशारे पर लोग पुलिस की हैवानियत का शिकार होते थे. जब कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सारे सुबूत एकत्र करके सलवा जुडूम के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाया और सुप्रीम कोर्ट ने हकीकत जानने के बाद जब सरकार को फटकार लगाई, तब जाकर सलवा जुडूम बंद हुआ, पर पुलिस के आदिवासियों पर अत्याचार फिर भी बंद नहीं हुए. यह कहानी है, महेन्द्र कर्मा और उनके सलवा जुडूम की. क्या इसे जायज ठहराया जा सकता है?
निस्संदेह, हिंसा का रास्ता गलत है. हिंसा में अक्सर निर्दोष लोग ही मारे जाते हैं, दोषी और अपराधी लोग बहुत कम इसके शिकार होते हैं. इसलिए हिंसा का समर्थन कभी नहीं किया जा सकता. माओवादी भी एकदम हिंसा के रास्ते पर नहीं आये होंगे. नक्सलवादी भी शुरू में अहिंसक ही थे. हिंसा का रास्ता उन्होंने बाद में अपनाया होगा, जब वे मजबूर हुए होंगे. सवाल यह है कि लोग अहिंसक क्यों नहीं बने रह सकते? उन्हें कौन मजबूर करता है हिंसा के लिए? इसका मेरे पास तो एक ही जवाब है कि उन्हें हिंसा के लिए राज्य मजबूर करता है. राज्य से मेरा मतलब सरकार से है. हमारे भारतीय लोकतंत्र में सरकार भले ही जनता के द्वारा जनता के लिये चुनी जाती है और कहा भी उसे जनता की सरकार ही जाता है. पर जनता सबसे ज्यादा असंतुष्ट अपनी इसी सरकार से होती है. गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, अशिक्षा, आवास, बिजली, पानी और चिकित्सा आदि न जाने कितनी ढेर सारी समस्याएं हैं, जिनसे जनता बराबर जूझ रही है और अभी तक किसी भी समस्या का पूरी तरह हल नहीं हुआ है. दूसरी तरफ जनता का खून चूसने वाले पूंजीपति, शोषक, दलाल, ठेकेदार और हर क्षेत्र के माफिया दिन दूनी-रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ते जा रहे हैं. जब जनता अपनी समस्या के समाधान के लिए लोकतान्त्रिक तरीके से मांग करती है, शांतिपूर्ण प्रदर्शन करती है, तो पुलिस उन्हें रोकती है, उन्हें सरकार के मुखिया से नहीं मिलने देती और जब जनता मुखिया तक पहुँचने के लिए आगे बढ़ती है, तो पुलिस उन पर बल-प्रयोग करती है, उन पर लाठियां बरसाती है, जरूरत पड़ती है तो गोलियाँ भी चलाती है, जिसमें जनता के हाथ-पैर टूटते हैं, सिर भी फूटते हैं और वे मरते भी हैं. तब जनता को पता चलता है कि उसने जो सरकार चुनी है, वह जनता के लिए काम ही नहीं करती, वह तो उनका खून चूसने वाले पूंजीपतियों, बड़े व्यापारियों, दलालों और माफियायों के लिए काम करती है. तभी उसे यह भी पता चलता है कि पुलिस भी जनता की नहीं, उसी सरकार की रक्षा करती है, जो उसका शोषण करती है. यहाँ हिंसा की शुरुआत किसने की? स्पष्ट है कि सरकार ने की. अब जनता को लगता है कि वह ठगी गयी है. सरकार और जनता की समस्यायों के बीच में पुलिस, पीएसी, सीआरपीएफ और फ़ौज खड़ी है. वह हरचंद जनता को सरकार तक नहीं पहुँचने देगी. अगर यह न रहे, तो जनता एक मिनट में सरकार से निपट ले, पर जनता डरती है, पुलिस-पलटन से, जो उसकी लाशें बिछा देगी. इसलिए यह सच है कि जनता की हिंसा में इतने लोग नहीं मरते हैं, जितने ज्यादा लोग राज्य की हिंसा में मरते हैं. 1987 में पीएसी ने मेरठ में 27 लोगों को हिंडन नदी के किनारे ले जाकर गोलियों से भून दिया था. उनका क्या कुसूर था? राज्य की ऐसी दरिंदगी की प्रतिक्रिया में लोगों को हिंसक होने से कैसे रोका जा सकता है? 
राज्य की हिंसा का एक और खतरनाक रूप है, सिविलियन जनता को आत्मरक्षा के नाम पर निजी हथियार रखने का अधिकार (यानी लाइसेंस) देना. इस अधिकार के तहत धनाढ्य और दबंग वर्ग को कमजोरों को दबा कर रखने का लाइसेंस मिल गया. इसी ने सत्ता पक्ष के लिये  वैकल्पिक पुलिस का भी काम किया. चुनावों के समय यह वैकल्पिक पुलिस क्या नहीं करती? बूथ कैप्चरिंग से लेकर, अपहरण और हत्याएं तक करती है.  सरकार के इसी सामंती निर्णय से गांव-गांव में पक्ष-प्रतिपक्ष में खून की होली खेली जाने लगी. इससे आतंकित जनता भेंड़ की तरह सत्ता-पक्ष के दबंगों के पीछे चलती है और उनको आश्रय देने वाले नेता उनके बल पर अपना किला मजबूत करते हैं. बहुत से लोगों ने तो शौकिया ही बंदूकें ले ली हैं, जिनकी जरूरत उन्हें कभी नहीं पड़ती. वे घर में पड़े-पड़े जंग खाती हैं या शादी-खुशी के मौकों पर ‘हर्ष-फायरिंग’ में चलती हैं, जहां कभी-कभी निशाना चूकने पर यह फायरिंग भी निर्दोष लोगों की जानें ले लेती है.
 किसी भी नेता ने यह सवाल नहीं उठाया कि सिविलियन को हथियार देने की क्या जरूरत है? वे क्यों उठायें? सबसे ज्यादा जरूरत तो उन्हीं को पड़ती है. विधायक-सांसद को तो छोड़िये, छुटभैय्ये नेता तक हथियारों से लैस रहते हैं और मंत्रियों का तो कहना ही क्या? वे तो सशस्त्र कमांडो के घेरे में ही चलते हैं. यह सारा उपक्रम इसलिए है कि जनता का प्रतिनिधि जनता से दूर रहें. जब प्रतिनिधि ही जनता से दूरी बनाकर रहेंगे, तो फिर सवाल है कि लोकतंत्र में वे किस का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं? तब क्या वे जन-आक्रोश और हिंसा को रोक पायेंगें? और रोकेंगे, तो हिंसा से ही.
मैं यहाँ एक उदाहरण अपने शहर का देता हूँ. पिछले पचास सालों में हमारी जनसंख्या में इस कदर वृद्धि हुई है कि छोटे शहरों में भी घनी आबादी हो गयी है. चप्पे-चप्पे पर मकान बन गये हैं. जहां खेत हुआ करते थे, वहाँ भी इमारतें खड़ी हो गयी हैं. फुटपाथों पर सब्जियाँ बिकती हैं, अब से नहीं, 25-30 साल से बिकती हैं. दस साल पहले नगर पालिका परिषद ने नाले पर 22 दुकानें बनवा दीं थीं, हालाँकि नाला पाटा नहीं गया था, उस पर स्लेब डाला गया था. अब सत्ता-पलट में समाजवादी पार्टी की सरकार बन गयी. शहर के एक विधायक सरकार में दूसरे दर्जे के कद्दावर मंत्री बन गये. मंत्री बनते ही उन्हें शहर को खूबसूरत स्वर्ग बनाने की सनक सवार हो गयी. सो शहर में तोड़-फोड़ शुरू हो गयी. अवैध कब्जों के नाम पर तमाम गरीबों के मकान तोड़ दिए गये, नाले पर बनीं 22 दुकानें तोड़ दी गयीं, और 25-30 साल पुरानी सब्जी मण्डी उजाड़ दी गयी. रोती आँखों से वे गरीब, असहाय, मजलूम लोग अपने आशियाने, अपने रोजगार उजड़ते हुए देखते रहे, वे विरोध में कुछ कर नहीं सकते थे, क्योंकि उनकी लाशें बिछाने के लिए वहाँ सरकार की सशस्त्र पुलिस मौजूद थी. मजलूमों की उस भीड़ में क्या किसी का भी मन बगावत करने का न हुआ होगा? जरूर हुआ होगा. पर पुलिस बल के डर ने उसे चुप करा दिया होगा. क्या यही लोकतंत्र है? यही समाजवाद है? एक समाजवादी सरकार का यही काम है कि वह लोगों के घर और रोजगार उजाड़े? सरकार की तरफ से तो हिंसा हो ही गयी, जिसे ‘अतिक्रमण ऑपरेशन’ का वैधानिक नाम भी दे दिया गया. पर यदि इस तथाकथित ऑपरेशन के वक्त कोई मजलूम एक पत्थर भी हाथ में उठा लेता, तो क्या होता? सरकार की हिंसा इस कदर भयानक हो जाती कि पता नहीं कितने मजलूम उसकी गिरफ्त में आते और पता नहीं वे कितनी संगीन धाराओं में जेल में सड़ रहे होते. सरकार की हिंसा के खिलाफ जनता का उठाया गया पत्थर ही तो नक्सलवाद जैसे हिंसक आंदोलनों की आधारशिला रखता है.
डा. आंबेडकर ने इस हिंसा को बहुत पहले ही भांप लिया था. 1950 में उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था कि हमने सिर्फ राजनीतिक लोकतंत्र हासिल किया है. अभी सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र हासिल करना बाकी है. इस विरोधाभास को अगर जल्दी नहीं मिटाया गया, तो जनता चुप नहीं बैठेगी. वह इस लोकतंत्र के मन्दिर को, जिसे इतनी मेहनत से बनाया गया है,  ध्वस्त कर सकती है.
( 30 मई 2013 )




      

मंगलवार, 28 मई 2013

कृष्ण का ‘उतार’ 
(कँवल भारती)
     बौद्ध विद्वान मोतीराम शास्त्री की दिलचस्प खोजों में एक खोज कृष्ण के सम्बन्ध में है, यह मैं बता चुका हूँ. कई मित्रों ने उसे भी जानना चाहा है. पर, इसके लिए हजरत मूसा के जीवन को पहले जानना होगा. कृष्ण के जीवन-चरित्र को लगभग हम सभी लोग जानते हैं. लेकिन हजरत मूसा के बारे में ऐसा शायद नहीं कहा जा सकता. अलबत्ता, मुसलमान भाइयों की जानकारी इस सम्बन्ध में ज्यादा है. अत: यह जानने से पहले कि कृष्ण मूसा का ‘उतार’ किस तरह हैं, हजरत मूसा के जीवन से परिचित होना जरूरी है. कुरान में हजरत मूसा के बारे में बहुत सी सूराओं में जिक्र आया है, पर विस्तार से वर्णन सूरा ‘क़सस’ में आया है. मैंने यहाँ उसी को अपना आधार बनाया है. यहूदियों में फिरऔन के अत्याचार बढ़ गये थे. उसे अपनी हत्या का डर था, इसलिए वह अपने समुदाय के बेटों को कत्ल कर देता था और औरतों को जीवित रहने देता था. जब मूसा पैदा हुए तो इस डर से कि फिरऔन उसे कत्ल न कर दे, उनकी माँ ने मूसा को एक बॉक्स में बंद करके नदी में बहा दिया. उस बॉक्स को फिरऔन के ही घर के किसी  आदमी ने निकाल लिया और वह उसे घर ले गया. जब फिरऔन ने उसे भी कत्ल करने का हुक्म दिया, तो उसकी स्त्री ने कहा कि इसे कत्ल मत करो, यह हमारी आँखों की ठंडक बनेगा. और इस तरह फिरऔन को मार कर अपने समुदाय को उसके अत्याचारों से मुक्त करने वाले मूसा फिरऔन के ही घर में पले. इस तरह मूसा की भी दो माँ हुईं. बड़े होकर मूसा एक लाठी (असा) रखते थे, जिसकी शक्ल सर्प जैसी थी. मूसा का छोटा भाई हारुन था. एक दिन मूसा ने फिरऔन के एक आदमी को मार दिया और इसी बीच फिरऔन को पता चल गया कि यह मूसा ही उसे मारने वाला है. तब फिरऔन ने मूसा के कत्ल की योजना बनाई, पर मूसा वहाँ से पलायन कर गये. बाद में मूसा ने फिरऔन को समुद्र में डुबो कर मारा.
      मोतीराम शास्त्री कहते हैं कि कृष्ण की जीवनी में भी यही समान घटनाएँ हैं. यहाँ फिरऔन की जगह कंस है, यहाँ कंस को भविष्यवाणी होती है कि उसकी बहन का आठवां पुत्र उसकी हत्या करेगा. कंस बहन के छह पुत्र मार देता है. पर आठवें पुत्र कृष्ण को उसके पिता जन्म के तुरंत बाद टोकरी में छिपा कर रातोंरात यमुना नदी पार करके कंस की सीमा से दूर सुरक्षित जगह वृन्दावन में यशोदा के पास पहुंचा देते हैं. इस तरह कृष्ण की भी दो माँ होती हैं. बड़े होकर कृष्ण अपने पास बांसरी रखते हैं. अन्त में कृष्ण कंस का वध करके गोकुलवासियों को उसके अत्याचार से मुक्त करते हैं.
      इस ‘उतार’ प्रसंग में भी बहस की खूब गुजाइश है. अभी एक किताब मैंने भागीरथ मेघवाल की पढ़ी है, जिसका नाम ‘असुर लोक नायक कृष्ण’ है. उनके अनुसार कृष्ण की बाल्य काल की कथा को बौद्ध ग्रन्थ ‘महावंस’ में आयी ‘पाण्डुकाभय’ की कथा से लिया गया है. उनके कथन के अनुसार, कृष्ण और ‘पाण्डुकाभय’ दोनों ही ग्वालों के घर में पले हैं. शिशु को ले जाते समय मार्ग में नदी पड़ने के प्रसंग, कंस को मारने के प्रसंग मिलते जुलते हैं. मामाओं को मारने तक के प्रसंगों में एकरूपता है. बाद के प्रसंगों में यह एकरूपता समाप्त हो जाती है. ‘पाण्डुकाभय’ राजा हो जाता है, कृष्ण राजा नहीं बनते.
      क्या संयोग है कि मूसा भी राजा नहीं बनते हैं, वे धर्मोपदेशक बनते हैं, उसी तरह कृष्ण भी. कुछ भी हो, कृष्ण का हिन्दू समाज में जो व्यापक सम्मान और प्रभाव है, उसे खत्म नहीं किया जा सकता. कृष्ण की गणना विश्व की उन पांच महान विभूतियों में की जाती है, जिन्होंने मानव जाति को प्रभावित किया. ये पांच विभूतियाँ हैं—(1) बुद्ध, (2) ईसा, (3) कृष्ण, (4) मुहम्मद और (5) कार्लमार्क्स. (इस श्रेणी में राम नहीं आते हैं.)
28 मई 2013  


सोमवार, 27 मई 2013

 नेतृत्व पर संकट
(कँवल भारती)

 इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी की हत्या के बाद शायद यह पहला अवसर है, जब राजनीतिक नेतृत्व पर इतना बड़ा हमला हुआ है. इस हमले से जातीय नेतृत्व को अब सावधान हो जाना चाहिए. आदिवासियों के नेता को आदिवासियों ने ही मारा, कुछ तो बात होगी. कार्य है, तो उसका कारण भी होना ही चाहिए. जो खबरें आ रही हैं, वो तो यही बता रही हैं कि महेन्द्र कर्मा शांति-मार्च की आड़ में आदिवासियों को ही हमेशा के लिए शांत करने में लगे हुए थे--घर के घर जला कर, उनकी लाशें बिछा कर. वह सत्ता की मदद से पूंजीपतियों के लिए रास्ता बना रहे थे. आदिवासियों को उनसे इस कदर नफरत थी कि उनकी हत्या करने के बाद उन्होंने उनकी लाश पर नाच कर हर्ष मनाना भी जरूरी समझा.  
     अब सरकार क्या करेगी? खबरें आ रही हैं कि वह बदला लेगी. देश के बड़े नेता, पत्रकार और बुद्धिजीवी भी नक्सलवाद से सख्ती से निपटने की नसीहतें दे रहे हैं. अब जो भी हो. ताकतवर को कौन रोक सकता है. मगर मेरी नजर में अब विचार का मुद्दा यह है कि इस घटना ने अब नेतृत्व के सवाल को नया मोड़ दे दिया है. नेतृत्व और प्रतिनिधित्व दोनों अलग शब्द होते हुए भी एक दूसरे से गहरा संबंध रखते हैं. प्रतिनिधित्व की राजनीति ने ही संसद और विधान मंडलों में दलितो, पिछडों और आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करने वाला नेतृत्व दिया. लगभग हर पार्टी ने  अपना जातीय और वर्गीय नेतृत्व तैयार किया. लेकिन इसकी जो भूमिका और पटकथा कांग्रेस ने लिखी थी, अन्य पार्टियों ने भी उसी का अनुसरण किया. कांग्रेस की पटकथा में प्रतिनिधियों की जो भूमिका थी, उसमे उसे कांग्रेस का प्रतिनिधित्व करना था. उसे अपने वर्ग या जाति को या समुदाय को कांग्रेस का पिछलग्गू बनाना था और कांग्रेस के हित में ही उनका उपयोग करना था. कोई कोई प्रतिनिधि अपने आका के निहित स्वार्थों को पूरा करने के लिए इस स्तर तक चला गया कि वह अपनी जाति, वर्ग और समुदाय का दुश्मन ही बन गया. सभी दलों के प्रतिनिधि सत्ता में आने के बाद यही भूमिका निभाते हैं. इससे हालत यह पैदा हो गयी है कि कोई भी जाति, वर्ग या समुदाय अपने नेतृत्व और प्रतिनिधित्व से खुश नहीं है. दलितो का शोषण दलित नेता ही कर रहे हैं, आदिवासियों पर जुल्म उन्हीं के नेता करा रहे हैं, आदिवासियों के कल्याण के लिए बने झारखंड और छत्तीसगढ़ राज्य में सबसे ज्यादा शोषण आदिवासियों का ही हो रहा है. मुसलमान भी अपने ही नेतृत्व/प्रतिनिधित्व के खिलाफ आवाज़ उठा रहे हैं. क्यों?
        क्या प्रतिनिधित्व की राजनीति असफल हो गयी? या यह प्रतिनिधित्व ही झूठा और मक्कार है? सच तो यह है कि हमारा लोकतंत्र ही प्रतिनिधित्व-विहीन है. और सारे प्रतिनिधि पूजीपति शोषक वर्गों की ही दलाली कर रहे हैं. अब जनता के सारे प्रतिनिधियों के सामने यह गंभीर सवाल है कि क्या  वे अपनी भूमिका को ठीक से निभा रहे हैं? भोले भाले आदिवासियों ने हथियार कैसे उठा लिए? यह मत कहिये कि उन्हें बरगलाया गया. पानी वहीँ भरता है, जहाँ गड्ढे होते हैं. हमारे नेता और प्रतिनिधि मंथन करें कि उन्हें उन गड्ढों को पाटना  है या गृह-युद्ध की लपटों को फैलने देना है.
मई 27, 2013
        
      

    

रविवार, 26 मई 2013

क्या बुद्ध को ही राम के चरित्र में रूपांतरित किया गया?
(कँवल भारती)
मोतीराम शास्त्री बनारस के एक बहुत बड़े बौद्ध विद्वान हुए हैं, जो अपनी अनूठी स्थापनाओं की वजह से दलित साहित्य में हमेशा जीवित रहेंगे. उनकी कई स्थापनाओं में से एक स्थापना यह है कि ‘अवतार’ का अर्थ है, ‘उतारा हुआ’ यानी नक़ल. इस आधार पर उनका कहना था कि राम का अवतार बुद्ध का ‘उतार’ है और कृष्ण का अवतार हजरत मूसा का ‘उतार’ है. लखनऊ में 104 रायल होटल में (इस जगह अब बापू भवन खड़ा है) वे प्रेमचंद आर्य के साथ रहते थे, जो बाबू जगजीवन राम के ‘दलित वर्ग संघ’ का प्रांतीय दफ्तर था. उन दिनों मैं लखनऊ में ही रहता था, इसलिए अक्सर उनसे मिलना होता रहता था. मैं जब भी वहाँ जाता, उन्हें बौद्धदर्शन पर ही बात करते पाता था. वे मेरे संघर्ष के दिन थे, रहने का कोई ठौर-ठिकाना था नहीं, महीनों बुद्ध विहार रिसालदार पार्क में रहा और बहुत बार 104 रायल होटल में भी. इस तरह मुझे प्रेमचंद आर्य और मोतीराम शास्त्री दोनों ही का अच्छा संपर्क मिला. प्रेमचंद आर्य की रूचि राजनीति में थी और मोतीराम शास्त्री की साहित्य में. मोतीराम शास्त्री इस कदर अध्ययन-रत रहते थे कि 15-15 दिन तक नीचे नहीं उतरते थे और हमेशा दो-चार लोगों के साथ गोष्ठी जमाए रहते थे. एक बार जब मैं गया तो देखा कि वे अपनी नयी खोज ‘उतार’ पर बात कर रहे थे. वे कह रहे थे कि ‘अवतार’ असल में ‘उतार’ है. ब्राह्मणों ने राम के चरित्र को बुद्ध से उतारा है और कृष्ण के चरित्र को मूसा के जीवन से उतारा है. खोज सचमुच दिलचस्प थी. वे जिस तरह एक-एक घटना को लेकर रामचरित्र का उतार हमारे सामने रख रहे थे, वह हैरान कर देने वाला था. यह 1979-80 की बात होगी. तब तक सब कुछ मौखिक ही था. पर बाद में उन्होंने उसे लिख भी लिया था और छपवा भी दिया था, जो शायद उनकी ‘बौद्ध सहारा शिविर’ नाम से है. इसके अलावा कुछ और खोजें भी उनकी थीं. इनमे एक खोज कबीर और रैदास को लेकर थी, जो आज भी मेरे गले नहीं उतरती. उनका कहना था कि कबीर और रैदास दोनों सन्त बौद्ध स्थविरों--सोपाक और सुप्पिय—के उतार हैं. इस पर मेरी उनसे हमेशा असहमति बनी रही.
      किन्तु जहां तक राम के उतार का सवाल है, वहाँ मोतीराम शास्त्री का मत विचारणीय जरूर है, उसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता. कुछ समानताएं उल्लेखनीय हैं, यथा- बुद्ध (सिद्धार्थ) क्षत्रिय थे, राम भी; सिद्धार्थ का विवाह स्वयंबर में हुआ, राम का भी; सिद्धार्थ को पानी के विवाद पर गृह-त्याग करना पड़ा, राम को केकई के विवाद पर; सिद्धार्थ ने स्वयं यशोधरा को छोड़ा, राम की पत्नी सीता का अपहरण हुआ; सिद्धार्थ सारथी छन्न को लेकर घर से निकले और राम ने सारथी सुमंत के साथ वन-गमन किया; सिद्धार्थ रैवत नाम के ब्राह्मण ऋषि के आश्रम पहुंचे और राम भारद्वाज ब्राह्मण के आश्रम में; सिद्धार्थ को घर वापिस लौटने के लिए बिम्बिसार ने समझाया और राम को भरत ने; बुद्ध ने ‘मार’ को पराजित किया और राम ने रावण को. कुछ समानताएं और भी हैं, जो मुझे अब याद नहीं आ रही हैं. मोतीराम शास्त्री यह भी कहते थे कि राम ने रावण को नहीं, बुद्ध को मारा था. रावण के प्राण उसकी नाभि में थे, जो बुद्ध के मध्यम मार्ग का प्रतीक है. वे कहते थे कि मध्यम मार्ग बौद्धधर्म का प्राणतत्व है. ब्राह्मणों ने बौद्धधर्म को खत्म करने के लिए ही रामकथा गढ़ी थी.
      मोतीराम शास्त्री की इस थ्योरी पर बहस की बहुत गुंजाईश है. और अपने-अपने ढंग से लोग इस पर बहस करेंगे ही. यह बहस कहाँ तक जाती है, देखना यही है.
26 मई 2013



शुक्रवार, 24 मई 2013

संघ परिवार का दलित आन्दोलन
(कँवल भारती)
पिछले चार साल से संघ परिवार की ओर से हिन्दी में “दलित आन्दोलन पत्रिका” मासिक निकल रही है, जो अपनी भव्यता में किसी भी दलित पत्रिका का मुकाबला नहीं कर सकती. बढ़िया चिकने मैपलीथो कागज पर छपने वाली, बड़े आकार की इस बारह पृष्ठीय पत्रिका का हर पृष्ठ रंगीन होता है. इसके प्रकाशक-संपादक डा. विजय सोनकर शास्त्री हैं, जो एक समय केन्द्र की बाजपेयी सरकार में राष्ट्रीय अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग के अध्यक्ष हुआ करते थे.
अभी तक हम हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता में दलित विमर्श का मूल्यांकन करते रहे हैं, पर अब हमे हिंदू पत्रकारिता में भी दलित विमर्श का अवलोकन करना होगा. यद्यपि हम दलित सवालों पर हिदू नजरिये से अनभिज्ञ नहीं हैं, संघ परिवार के हिंदू लेखकों द्वारा कबीर-रैदास को हिंदूधर्म का रक्षक और डा. आंबेडकर को हिंदुत्व-समर्थक और मुस्लिम-विरोधी बताया ही जाता रहता है. इसी मुहिम के तहत 1992 में बम्बई के ‘ब्लिट्ज’ में “डा. आंबेडकर और इस्लाम” लेखमाला छपी थी. उसी क्रम में 1993 में ‘राष्ट्रीय सहारा’ में रामकृष्ण बजाज ने आंबेडकर को मुस्लिम-विरोधी बताते हुए दो लेख लिखे थे. इसी वैचारिकी को लेकर 1994 में ‘पांचजन्य’ ने ‘सामाजिक न्याय अंक’ निकला था, और 1996 में की गयी अरुण शौरी की टिप्पणी तो सबको ही पता है. लेकिन इस हिन्दूवादी चिन्तन का प्रभाव दलितों पर इसलिए ज्यादा नहीं पड़ा था, क्योंकि उसके वे लेखक गैर दलित (द्विज) थे. संघ का निशाना यहाँ चूक रहा था. उसे दलित वर्गों में आंबेडकर के दलित आन्दोलन की प्रतिक्रांति में शंकराचार्य की सांस्कृतिक एकता, हेडगेवार का हिन्दू राष्ट्रवाद, गोलवलकर का समरसतावाद और दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद स्थापित करना था. इसके लिए उसे जरूरत थी एक दलित की. वह भी ऐसे दलित की, जो संघ की विचारधारा में पला-बढ़ा हो और हिंदुत्व ही जिसका ओढ़ना-बिछौना हो. संघ की यह खोज विजय सोनकर शास्त्री पर जाकर पूरी हुई. और भव्य ‘दलित आन्दोलन पत्रिका’ अस्तित्व में आयी. अब जो काम ‘पांचजन्य’ और ‘वर्तमान कमल ज्योति’ (भाजपा का मुख पत्र) के द्वारा नहीं हो पा रहा था, वह अब ‘दलित आन्दोलन पत्रिका’ के जरिये पटरी पर दौड़ने लगा है. अब उसका हर अंक डा. आंबेडकर के दलित आन्दोलन को हिन्दू फोल्ड में लाने वाली सामग्री पूरी सज-धज से दलितों को प्रस्तुत कर रहा है.
इसी मई माह के अंक में डा. विजय सोनकर शास्त्री अपने सम्पादकीय में लिखते हैं- “दलितोत्थान की दिशा में आदि शंकराचार्य द्वारा चलाये गए सांस्कृतिक एकता का प्रयास अतुल्य था. चार धामों की स्थापना एवं वर्तमान समय में उन धामों की सर्वस्पर्शिता देश के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के स्थूल उदाहरण हैं. इतना ही नहीं, पूर्व काल में चाणक्य की राजनीतिक एकता और अखण्ड भारत के एक लम्बे कालखण्ड का स्वरूप आज राजनीतिक परिदृश्य में चिंतकों एवं विशेषज्ञों को भारतीय राजनीति का पुनरावलोकन के लिए बाध्य कर रही है...(अत:) दलित राजनीति के राष्ट्रवादी स्वरूप की आज परीक्षा की घड़ी है. अद्वतीय राष्ट्रवाद के लिए जानी जाने वाली दलितवर्ग की 1208 जातियों की वर्तमान समय में अग्नि-परीक्षा होगी. सम्पूर्ण दलित समाज भारत की आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा जैसे मुद्दे पर भी राष्ट्रवादियों के साथ खड़ा दिखायी देगा.” इसमें संघ परिवार का मूल एजेण्डा मौजूद है. आंतरिक सुरक्षा का मतलब है हिन्दूधर्म और समाज को बचाना और बाह्य सुरक्षा का मतलब है सीमा के मुद्दे पर भाजपा का समर्थन करना. शंकराचार्य की सांस्कृतिक एकता में दलित कहाँ हैं? विजय सोनकर शास्त्री से यह सवाल तो पूछा ही जाना चाहिए.
इसी सम्पादकीय में आगे डा. आंबेडकर भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समर्थक बना दिए गए  हैं. वे लिखते हैं- “डा. आंबेडकर द्वारा संविधान-निर्माण के साथ एक सांस्कृतिक राष्ट्र भारत को एक नयी पहचान दिए जाने के उपरान्त देश में सामाजिक क्रान्ति के आधार पर आर्थिक विकास एवं राजनीतिक क्षेत्र के संचालन को देखा जा सकता है.” वे अन्त में लिखते हैं- “अब आवश्यकता है कि एक बार पुनः डाक्टर आंबेडकर के हिन्दू कोड बिल, महिला सशक्तिकरण, आर्थिक उत्थान के सिद्धांत, मजदूर सगठनों की भूमिका और सामाजिक क्षेत्र में सामाजिक समरसता की संस्तुति का स्वागत किया जाये.” इसमें नयी बात ‘सामाजिक समरसता’ है, जिसे डा. आंबेडकर के नाम से जोड़ा गया है और यही संघ परिवार का मूल सामाजिक कार्यक्रम है. ‘सामाजिक समरसता’ का मतलब है जातीय और वर्गीय संघर्ष को रोकना. संघ के नेता कहते हैं, सामाजिक असमानता का सवाल न उठायो, जिस तरह हाथ की सभी अंगुलियां समान नहीं हैं, पर उनके बीच समरसता है, उसी तरह समाज में जातीय समानता पर जोर मत दो, उनके बीच समरसता बनायो. और यही  वर्ण-व्यवस्था का दार्शनिक समर्थन है.
इसी अंक में दलितों को भाजपा से जोड़ने वाला दूसरा लेख है- ‘बाबासाहब डा. आंबेडकर नरेन्द्र मोदी की डायरी में.’ इसमें दो उपशीर्षक हैं—‘डा. आंबेडकर ने वंचित समाज को दी एक नयी पहचान’ और ‘दलित समाज के लिए समभाव और ममभाव आवश्यक.’ दलितों के लिए ‘वंचित’ शब्द संघ का दिया हुआ है. एक समय मायावती जी ने भी ‘वंचित’ शब्द का खूब प्रयोग किया था, जब उन्होंने भाजपा से गठबंधन किया था. ‘समभाव’ और ‘ममभाव’ क्या है? इसे  समझते हुए लेख कहता है- “हम अपने पुराणों, अपने इतिहास और अपने महापुरुषों की ओर दृष्टि करें तो एक बात स्पष्ट रूप से दिखायी देती है कि उस युग की सिद्धि के मूल में उस समय के युगपुरुषों ने समाज के छोटे-से-छोटे आदमी को साथ लेने के लिए जाग्रत प्रयास किया था, उसके बाद ही सफलता मिली थी.” ये नरेन्द्र मोदी के शब्द हैं, जिनमे वे दलितों के प्रति हिन्दू संस्कृति में समभाव की मौजूदगी का हवाला दे रहे हैं. इसी तरह का हवाला उन्होंने  ‘ममभाव’ का भी दिया है- “प्रभु राम को सरयू पार कर चित्रकूट में पहुँचना था तो केवट को साथ लिए बिना वे वहाँ कैसे पहुँचते? अवतारी प्रभु राम के लिए लंका पहुँचना कोई कठिन काम था-ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है; परन्तु लंका जाने के लिए सेतु बांधने के लिए अपने चौदह वर्ष के वनवास के समय उन्होंने वानरों को अपना साथी बनाया था. रामजी ने शबरी को माता कौशल्या से जरा भी कम सम्मान नहीं दिया था.”
‘दलित आन्दोलन पत्रिका’ दलितों को उन्हीं हिन्दू मिथकों से जोड़ना चाहती है, जिनसे वे बाहर आ चुके हैं. जिन पौराणिक कहानियों में दलितों का विश्वास नहीं है, यह पत्रिका उन्हीं पर उन्हें गर्व करना सिखा रही है. संघ परिवार चाहता है कि दलित जातियां हिदुत्त्व के लिए शबरी, हनुमान और वानरों की भूमिका में ही अपने को सीमित रखें. डा. आंबेडकर और दलित आन्दोलन को विकृत रूप में पेश करने वाले संघ परिवार और भाजपा से पूछा जाना चाहिए कि उनका यह ‘समभाव’ और ममभाव’ उस समय क्यों ‘शत्रुभाव’ में बदल जाता है, जब दलित वर्ग के लोग अपने विकास के लिए आरक्षण की मांग करते हैं? यह ‘समभाव’ और ममभाव’ 1992 में मंडल कमीशन के खिलाफ सड़कों पर क्यों आ गया था? क्यों पिछड़ी जातियों के आरक्षण के खिलाफ हिन्दू छात्रों से आत्मदाह कराया जा रहा था?
नरेन्द्र मोदी ने अपने लेख में इतिहास की एक घटना का भी विकृतिकरण किया है. वे कहते हैं- “सामाजिक क्रान्ति के एक प्रेरणापुरुष वीर मेघमाया भी थे. वीर मेघमाया के व्यक्तित्व से सारी राज्य व्यवस्था प्रभावित हुई थी. वीर मेघमाया ने समाज के कल्याण के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी. उन्होंने राजसत्ता से मांग की, ‘हमे तुलसी और पीपल की पूजा करने का अवसर मिले.’ वीर मेघमाया की इस छोटी सी मांग में एक लम्बे युग की दिशा थी, दर्शन था...जो विचार डा. बाबासाहब आंबेडकर को उन्नीसवीं सदी में सूझा, वही विचार वर्षों पूर्व मेघमाया ने सुझाया था कि मेरा समाज इस सांस्कृतिक प्रवाह से कहीं दूर न चला जाये.”
वाह! नरेन्द्र मोदी जी, सफ़ेद झूठ बोलने में संघ परिवार और आपका कोई क्या मुकाबला करेगा? कब आंबेडकर ने मेघमाया की तरह तुलसी और पीपल की पूजा करने का अधिकार माँगा था? सच तो यह है कि न वीर मेघमाया ने तुलसी और पीपल की पूजा का अधिकार माँगा था, और न डा. आंबेडकर ने. जिन वीर मेघमाया की बात नरेन्द्र मोदी कर रहे हैं, वो अछूत साधु थे, जो विक्रमी संवत ग्यारह सौ में गुजरात में हुए थे. ब्राह्मणों ने साजिश करके उनकी (नर)बलि दी थी. बलि से पहले उन्होंने राजा के सामने अछूतों को गले में हांडी और कमर में झाडू लटका कर चलने की प्रथा समाप्त करने की शर्त रखी थी, जिसकी राजाज्ञा उसी दिन राजा ने जारी की थी. ‘आदिहिन्दू’ आन्दोलन के प्रवर्तक स्वामी अछूतानन्द ने इस घटना पर 1926 में ‘मायानन्द बलिदान’ नाम से सांगीत (नाटक) लिखा था.
‘....पत्रिका’ के संपादक डा. विजय सोनकर शास्त्री वर्तमान में  भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता भी चुने गए हैं. इस अवसर पर उनसे डा. कमलेश वर्मा का लिया गया एक साक्षात्कार भी इस अंक में प्रकाशित हुआ है. इस साक्षात्कार में वे एक बात बड़े मार्के की कहते हैं कि ‘दलित राजनीति का आरम्भ तो दलित आन्दोलन से होता है, किन्तु सत्ता प्राप्ति के साथ ही दलित राजनीति का अन्त हो जाता है...दक्षिण भारत के या उत्तर भारत के राजनेताओं का क्रियाकलाप अवसरवादिता के अलावा कुछ नहीं है.’ लेकिन यह उन्होंने नहीं बताया कि यदि भाजपा से दलित जुड़ते हैं तो दलित राजनीति का उत्थान किस दिशा में होगा? जब उनसे पूछा गया कि ‘हिन्दुत्व और दलित राजनीति के बीच विरोध की स्थिति देखी गयी है, भाजपा के भीतर आप कैसे संतुलन बनायेंगे?’ तो उन्होंने कहा कि शिक्षा की कमी के कारण दलितों को गुमराह किया गया. अब प्रायोजित भ्रम टूट रहे हैं. डा. आंबेडकर ने 1935 (सन गलत है) में मनुस्मृति को जलाया था, पर 1948 में उन्होंने अपनी किताब ‘The Untouchables’ में मनु को क्लीनचिट यानी दोषमुक्त किया था. उन्होंने इसी किताब में लिखा है कि मनुकाल में अस्पृश्यता नहीं थी, यहाँ तक कि शूद्र और अन्त्यज भी भारत में कभी अस्पृश्य नहीं था. वे कहते हैं कि ‘हिन्दू संस्कृति में स्थायी अस्पृश्यता का एक भी उदाहरण नहीं प्राप्त होता है.’
विजय सोनकर शास्त्री की यह लीपापोती किसी काम नहीं आने वाली है, क्योंकि मनुस्मृति में ही अस्पृश्यता और शूद्रों के प्रति जघन्य भेदभाव के कानून मौजूद हैं. अगर उन्होंने डा. आंबेडकर की ‘The Untouchables’ की प्रस्तावना ही पढ़ ली होती, तो वे खुद भ्रम के शिकार नहीं होते. भाजपा में दलित राजनीति के सवाल पर सोनकर कहते हैं, ‘भाजपा हिन्दू या दलित की राजनीति नहीं, बल्कि एक वैभवशाली भारत के निर्माण का राजनीतिक लक्ष्य लेकर चल रही है.’ अगर ऐसा है, तो फिर भाजपा नेता हिन्दुत्व का राग क्यों अलाप रहे हैं? क्यों आडवाणी हिन्दू रथ लेकर निकले थे? क्यों बाबरी मस्जिद तोड़ी थी? क्यों मोदी ‘हिन्दू-हिन्दू’ चिल्ला रहे हैं?
‘दलित आन्दोलन पत्रिका’ दलितों के दिमागों में इस विचार को भरने का लक्ष्य लेकर चल रही है कि दलित समस्या के लिए हिन्दू (ब्राह्मण और क्षत्रिय) जिम्मेदार नहीं हैं, बल्कि मुसलमान और ईसाई जिम्मेदार हैं. वे इसी सवाल के जवाब में कहते हैं, ‘1947 के पहले अंग्रेजों का 190 वर्षों तक शासन था. उससे पहले 600 वर्षों तक मुगल, मुस्लिम तुर्क सत्ता में थे. जब आठ सौ वर्षों तक हिन्दू सत्ता में थे ही नहीं, तो विदेशी मुस्लिम और अंग्रेजों को दलित समस्या के लिए जिम्मेदार क्यों नहीं बताया जा रहा है?’ भाजपा के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का यही वह असली अजेंडा है, जिसमें एक ओर इतिहास के साथ जघन्यतम दुराचार है, तो दूसरी ओर दलितों को मुस्लिम और ईसाई-विरोधी बनाने की भयानक साजिश है. यह इतिहास की धारा को उलटने का आपराधिक कृत्य है. क्या वे इस बात को नहीं जानते हैं कि मुसलमानों और ईसाईयों ने ही दलितों को इन्सानी हक और सम्मान दिया? क्या कबीर-रैदास और आंबेडकर इस देश में हो पाते, अगर मुस्लिम और अंग्रेज सत्ता में नहीं होते? ऐसा नहीं हैं कि सोनकर और संघ परिवार के नीति-निर्माता और बौद्धिक आचार्य इस बात को न जानते हों, वे जानते हैं. वे मुस्लिम और ईसाई शासकों के विरोधी ही इसीलिए हैं कि वे यह जानते हैं कि उनकी वजह से ही दलित वर्गों में जागरूकता आयी है, जिसके कारण उनके सनातन धर्म का सारा तानाबाना बिखरा है. महावीर, बुद्ध, शक और हूणों से तो ब्राह्मणों ने अपनी धार्मिक व्यवस्था को बचा लिया था, पर इस्लाम और ईसाईयत के प्रभाव का प्रहार इतना सशक्त था कि ब्राह्मणों की कोई युक्ति अपनी धर्म-व्यवस्था को बचाने में काम न आयी, यहाँ तक कि दयानन्द और विवेकानंद के प्रयास भी धरे-के-धरे रह गये. ‘दलित आन्दोलन पत्रिका’ का अजेंडा भी सफल होने वाला नहीं है, वे चाहे इतिहास का कितना ही विकृतीकारण और लीपापोती करें.      ( 24 मई 2013 )

  

बुधवार, 22 मई 2013


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