बुधवार, 31 अगस्त 2016

आजादी के 70 साल और दलित जातियां
कॅंवल भारती
               
                दो सवाल जहन में उभरते हैं। पहला, इन 70 सालों में भारत की दलित जातियों को कितनी आजादी मिली? और दूसरा, इन 70 सालों में दलित जातियों ने कितनी तरक्की की? ये दोनों सवाल इतने अहम हैं कि इनमें से एक को भी नहीं छोड़ा जा सकता। हालांकि इन दोनों सवालों पर दो बड़े ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं। पर मैं यहाँ  बहुत ही संक्षेप में बात करूँगा।
                पहले सवाल को लेते हैं। आजादी के बाद से ही दलित जातियों के लिए बहुत सी योजनाएं  बनाई गईं और आज भी बनाई जाती हैं। इन योजनाओं के पीछे यह भाव रहता है कि हमें दलितों के लिए कुछ करना है।मुझे इस सम्बन्ध में डा. आंबेडकर का एक कथन आज भी प्रासंगिक लगता है। उन्होंने एक बार कहा था कि अक्सर हिन्दू नेताओं को यह कहते सुना जाता है कि हमें दलितों के लिए कुछ करना है।पर किसी भी नेता को, जो दलित समस्या में रुचि रखता है, यह कहते हुए नहीं सुना जाता कि हमें सवर्ण हिन्दुओं को बदलने के लिए कुछ करना है।वे कभी नहीं कहते कि हिन्दुओं को कैसे सुधारें? या उनके रूढ़िवादी विचारों में कैसे परिवर्तन लायें?’ डा. आंबेडकर बिल्कुल ठीक कहते थे कि दलित समस्या अस्पृश्यता की समस्या है। हिन्दू इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि दलित उनके अपने समाज के नहीं हैं। वे हिन्दुओं के लिए पराए हैं और यह परायापन उन दोनों के बीच हमेशा बना रहता है। इसी कारण से दलितों और सवर्णों के बीच आज भी स्वाभाविक मित्रता नहीं होती। वे दलितों के साथ राजनीतिक मित्रता तो कर सकते हैं, क्योंकि इस मि़त्रता से उन्हें सत्ता में आने का अवसर मिल सकता है, पर वे उनसे सामाजिक मित्रता नहीं करना चाहते, क्योंकि ऐसी मित्रता उनके धर्म के विरुद्ध जाती है। दिलचस्प है कि हिन्दू इसे गलत भी नहीं मानते, क्योंकि यह उनके धर्म का मामला है, और शायद इसीलिए वे दलितों की दयनीय स्थिति के लिए स्वयं को जिम्मेदार भी नहीं मानते हैं। इसी सन्दर्भ में एक बहुत महत्वपूर्ण सवाल यहाँ  जहन में आता है, जिसे डा. आंबेडकर ने भी अपने समय में उठाया था कि भारत में दलित सन्तों और नायकों के सामाजिक समानता के आन्दोलन क्यों सफल नहीं हो सके? क्या उनके मित्र या समर्थक नहीं थे? यदि वे थे, तो उन्होंने दलितों का समर्थन और सहयोग क्यों नहीं किया? उन्होंने इस आन्दोलन का इसलिए समर्थन नहीं किया, क्योंकि वह आन्दोलन उनकी नजर में हिन्दूधर्म के विरुद्ध विद्रोह था। यह तो आरक्षण का कानून है, जो दलितो को पढ़ने-लिखने और नौकरियों के अवसर देता है, वरना, हिन्दू बहुमत आज भी उन्हें अनपढ रखकर उनसे गुलामी के काम ही कराता रहता। इसलिए आज यही हिन्दू बहुमत उनके आरक्षण के विरुद्ध आवाज उठाता है। यही हिन्दू बहुमत संसद में दलित-मुद्दे पर चर्चा से गायब रहता है और यही हिन्दू बहुमत आज भी अस्पृश्यता का पूरी दृढ़ता से पालन करता है। यही हिन्दू बहुमत और उनके शंकराचार्य और धर्मगुरु मन्दिरों में दलितों के प्रतिबन्ध को जायज ठहराते हैं। कौन इन्कार करेगा कि यह छह दशकों की आजादी की कहानी नहीं है? हालांकि राजनीतिक आजादी सभी को मिली है, पर सामाजिक और आर्थिक आजादी अभी भी सबके हिस्से में नहीं आई है, और दलित जातियां  इसमें सबसे ज्यादा हाशिए पर हैं।


दलितों की राजनीतिक स्वतन्त्रता और प्रगति पर चर्चा जरूरी है। यह इसलिए भी कि 1932 के पूना पैक्ट से शुरु हुआ दलित राजनीति का सफर-इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी और शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन से भारतीय रिपब्लिकन पार्टी और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) तक, भारत की सत्तर साला आजादी में मायने रखता है। निश्चित रूप से इसे लोकतन्त्र की एक बड़ी विजय के रूप में रेखांकित किया जा सकता है। लेकिन इस पर धैर्य के साथ विचार करना होगा, क्योंकि मेरी दृष्टि में यह राजनीतिक स्वतन्त्रता का उपभोग तो है, पर यह एक बड़ा सवाल भी खड़ा करता है, जो यह है कि स्वतन्त्र भारत में दलित जातियों को अपनी पृथक राजनीति स्थापित करने की परिस्थितियां  क्यों पैदा हुईं? दूसरे शब्दों में पृथक दलित राजनीति की जरूरत क्यों पड़ी? क्या यह उन शासकों की असफलता नहीं है, जिनके हाथों में स्वतन्त्र भारत की बागडोर आई? जिस कांग्रेस ने भारत पर चार दशकों तक निष्कण्टक राज किया, उसने पूना पैक्ट के अनुपालन में राजनैतिक आरक्षण की खानापूरी के लिए दो तरह के दलितों को सांसद और विधायक बनवाया-(एक) जो अशिक्षित थे और जिनमें कांग्रेस आलाकमान की ली हजूरीकरने के सिवा कोई योग्यता नहीं थी, और (दो) जिनकी योग्यता डा. आंबेडकर के परिवर्तनवादी मिशन से दलितों को दूर रखने की थी। परिणामतः, कांग्रेस के अशिक्षित दलित प्रतिनिधि सवर्णों के चमचा बने रहे और काॅंग्रेस के आंबेडकरविरोधी दलित प्रतिनिधियों ने अस्सी के दशक तक हिन्दी पट्टी के शहर-कस्बों में डा. आंबेडकर को दलितों के बीच पहुंचने ही नहीं दिया, हालांकि यह स्थिति महाराष्ट्र में नहीं थी, पर वहाँ  उसने आंबेडकर के आन्दोलन को तोड़ने में दूसरे तरीके अपनाए। कांग्रेस सरकारों की नीतियां  सभी राज्यों में दलितों को कुछ योजनाओं तक सीमित रखकर लाभार्थी बनाकर रखने की ही थीं, जिसका मकसद समाज में यथास्थिति बनाए रखने का था। कारण, अंग्रेजों के जाने के बाद भारतीय ब्राह्मण शासकों ने पूरे देश में लोकशाही की आड़ में ब्राह्मणशाही कायम करने का काम बहुत तेजी से किया। भारत गणराज्य का पहला राष्ट्रपति ही 101 ब्राह्मणों के, न केवल पैर धोकर अपनी कुर्सी पर बैठा था, बल्कि उसने विशाल ब्रह्मभोज का अनुष्ठान भी किया था। और यह कहना गलत न होगा कि इसी ब्राह्मणभक्ति से कांग्रेस ब्राह्मणों की संरक्षक बन गई थी।
            एक बार डा मुल्कराज आनन्द ने सम्पत्ति के मौलिक अधिकार के प्रश्न पर डा. आंबेडकर से पूछा था, तो उसके जवाब में उन्होंने कहा था, ‘नेहरू की सरकार में केवल गैर ब्राह्मणों ने मौलिक अधिकार के रूप में निजी सम्पत्ति के खिलाफ लड़ाई लड़ी है। किन्तु बाबू राजेन्द्रप्रसाद को इसी से लग गया कि नेहरू भारत को रूस बनाना चाहते हैं, और सवर्ण हिन्दुओं ने व्यक्ति के अन्य अधिकारों को केवल निर्देशक सिद्धान्तों के रूप में संसद में लड़ने के लिए माना।इसी से समझा जा सकता है कि सवर्ण हिन्दू अपने विशेषाधिकारों को छोड़ने को तैयार नहीं हैं। अगर भारत के सारे दलित आज गन्दा काम करना बन्द कर दें, तो देश का कोई गाँव-शहर ऐसा नहीं होगा, जहाँ  उन पर हिंसा न शुरु हो जाए। गुजरात इसका ताजा उदाहरण है।
डा. आंबेडकर दलितों को भी एक वर्ग मानते थे, जो भारत का सबसे कमजोर वर्ग है। उनका अपने समय के कम्युनिस्टों से असल विरोध इसी बात पर था कि वे भारत में वर्णव्यवस्था को नहीं देख रहे थे, जो सुस्पष्ट वर्गविभाजन है, और जिसने दलित को सबसे कमजोर वर्ग बनाकर रखा है। उनका कहना था कि इस सबसे कमजोर वर्ग को दबाकर समाजवाद नहीं लाया जा सकता। उन्होंने बहुत सही सवाल उठाया था कि जो समाजवादी यह सोचते हैं कि साम्राज्यवाद के खत्म होने के बाद भारत में पूंजीवाद के अवशेष भी खत्म हो जायेंगे, वे दिग्भ्रमित हैं। अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी भारत में जमींदार, मिल मालिक, साहूकार और ब्राह्मणवाद रहेगा, जो गरीब जनता का खून चूसता रहेगा। इसलिए उन्होंने राजनीति में वर्गचेतना पर जोर दिया था। आंबेडकर की बात गलत नहीं थी। आजादी के बाद राजे-रजवाड़े, नवाबी और जमींदारी तो खत्म हुई, पर वे ही कांग्रेस में शामिल होकर देश के शासक भी बने और उन सबने मिलकर पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद को इतना मजबूत किया कि उसके भार तले दलित जातियां  कुचली जाकर कराहने लगी थीं। तमाम कागजी सरकारी योजनाओं के बावजूद, उनका दमन और शोषण जारी रहा। शहरों में थोड़ी-बहुत तरक्की जरूर हुई, पर गांवों में वे गाजर-मूली की तरह काटे जाते रहे। दलितों की सामूहिक हत्याओं के इतने काण्ड देश के गांवों में हुए कि उनका लोमहर्षक वर्णन करने के लिए हजारों पृष्ठ चाहिए। गांवों में ही नहीं, कस्बों में भी, वे दलित, जिन्होंने सवर्ण हिन्दुओं के अत्याचारों से बचने के लिए अपनी पशु से भी बदतर जिन्दगी को अपना भाग्य मानकर स्वीकार कर लिया था, पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुलाम बने रहे और अपनी स्थिति से कभी ऊपर नहीं उठ सके। वे शिकायत करते भी, तो किससे करते? थानेदार से लेकर विधायक-सांसद तक उनके प्रति हमदर्दी नहीं रखते थे। आवाज उठाने वाले तमाम दलितों को या तो मार दिया जाता था, या झूठे मुकदमों में जेल भिजवा दिया जाता था। और, उनकी औरतों के साथ बदसलूकी करना तो जैसे दबंग सवर्णों का जन्मजात अधिकार ही था। यही वह दौर था, जब पूरे भारत में गांवों से पीड़ित दलित जातियों का शहरों में पलायन हो रहा था। इस पलायन ने ही उनको संघर्ष करना सिखाया, हालांकि वहाँ  भी वे आर्थिक रूप से कमजोर ही रहे, पर कुछ गांवों के रोज-रोज के जुल्म से बच गए थे।
चुनाव होते, तो दलितों को वोट नहीं डालने दिया जाता था। उनके नामों के वोट सवर्ण खुद ही डाल देते थे। जो दलित वोट डालने का साहस करते थे, तो उन्हें लाठी-डण्डों के सहारे खदेड़ दिया जाता था। शहरों में स्थिति कुछ भिन्न थी। चुनावों से पहले कांग्रेस के नेता दलित बस्तियों में जाते, एकाध हैण्डपम्प लगवा देते, कुछ बच्चों का वजीफा बनवा देते, और उनकी पंचायत को वर्तन आदि खरीदने के लिए सौ-दो-सौ रुपए दे देते, बस बस्ती के सारे दलित वोट कांग्रेस को चले जाते थे। यही कांग्रेस का दलित उद्धार था। यह मैं कल्पना से नहीं कह रहा हूँ, बल्कि मैं इसका साक्षी हूँ। कांग्रेस ने अपने चालीस साला साम्राज्य में दलितों के वोट तो लिए, पर किसी भी राज्य में दलित को मुख्यमन्त्री नहीं बनाया। दलितों के लिए यदि कोई ढंग की लड़ाई सकता था, तो वह कम्युनिस्ट ही लड़ सकते थे। वे चाहते तो कांग्रेस का एक बड़ा विकल्प तैयार कर सकते थे, दलितों में आत्मसम्मान पैदा कर सकते थे, उन्हें अधिकारों का पाठ पढ़ा सकते थे और उन्हें अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष करना सिखा सकते थे। पर गांवों का तो पता नहीं, मैंने अपने शहर में भी किसी कम्युनिस्ट नेता को दलित बस्ती में कभी नहीं देखा। इसका कारण इसके सिवा और कुछ क्या हो सकता है कि वे भी सवर्ण ही थे, और दलितों के अछूत बने रहने से उनके भी सामाजिक हित पूरे होते थे। 
            ये ही वे सामाजिक परिस्थितियां  थीं, जो पृथक दलित राजनीति का कारण बनीं। हिन्दी पट्टी में भारतीय रिपब्लिकन पार्टी ने दस्तक दी, और उसके दो शेरों-बुद्धप्रिय मौर्य और संघप्रिय गौतम ने दलित वर्गों को डा. आंबेडकर के नाम और उनके आन्दोलन से जोड़ दिया। परिणामतः, विचारों की एक नई दुनिया उनके सामने खुल गई, जो इससे पहले किसी दलित कांग्रेस नेता ने उनके सामने नहीं खोली थी। पढेलिखे लोगों ने डा. आंबेडकर की जीवनियां  मॅंगाकर पढ़नी शुरु कीं। और देखते-देखते पूरा उत्तर प्रदेश नीले झण्डों और हाथी के निशान वाले बैनरों से रंग गया था। परिणामतः, 1967 में पहली बार 11 विधायक भारतीय रिपब्लिकन पार्टी से जीतकर उत्तर प्रदेश की विधान सभा में पहुंचे, जो आंबेडकर आन्दोलन के क्रान्तिकारी नेता थे। इसी दौर में भारतीय रिपब्लिकन पार्टी ने पूरे देश में भूमिहीनों को भूमि देने का जबरदस्त आन्दोलन चलाया, जिसने सरकारों को भूमि देने के लिए बाध्य कर दिया था। पर, इस आन्दोलन ने कांग्रेस की नींद हराम कर दी थी, कांग्रेस की मतलब सवर्णों की। और, फिर जो प्रतिक्रान्ति कांग्रेस ने शुरु की, तो शीघ्र ही भारतीय रिपब्लिकन पार्टी खण्ड-खण्ड होकर बिखरती गई और कांग्रेस के आगोश में समाती गई। परिणाम, कांग्रेस फिर से दलितों की मजबूरी बन गई।
इसी बीच कांशीराम का उदय हुआ और उनके कर्मचारी संगठन बामसेफ’, सामाजिक संगठन दलित शोषित समाज संघर्ष समितिऔर राजनीतिक संगठन बहुजन समाज पार्टीने दलित की जगह बहुजन राजनीति का सूत्रपात किया और भारतीय रिपब्लिकन पार्टी के अभाव को भर दिया। उन्होंने दलितों को स्वाभिमान दिया, संघर्ष की चेतना दी और उनकी मुक्ति का वह मार्ग दिया, जो सत्ता तक जाता था। उत्तर प्रदेश में यह पार्टी चार बार अपनी सरकार बना चुकी है।
निश्चित रूप से बहुजन समाज पार्टी की राजनीति में वर्ग चेतना नहीं है, जाति चेतना है। पर यह नहीं भूलना चाहिए कि इस जाति चेतना की जनक कांग्रेस है। वह तो सिर्फ उसका उपयोग कर रही है।

 18-8-2016

शुक्रवार, 8 जुलाई 2016

निशाने पर मुसलमान
कॅंवल भारती

यह सचमुच हैरानी की बात है कि कभी इस्लाम पर खतरे की बातें करने वाले लोगों ने आज खुद पूरी मुस्लिम कौम को खतरे में डाल दिया है। इस्लाम न कल खतरे में था और न आज खतरे में है। सच्चाई यह है कि खतरे में धर्म नहीं, मनुष्य होते हैं। इतिहास इस बात का गवाह है कि लाखों यहूदी मौत के घाट उतारे गए, पर उनका धर्म जीवित है; लाखों ईसाई मारे गए, पर ईसाईधर्म जीवित है; लाखों बौद्धों का कत्लेआम हुआ, उनके मठ और विहार नष्ट किए गए, पर बौद्धधर्म नष्ट नहीं हुआ; और हिन्दुओं पर भी कम अत्याचार नहीं हुए, पर हिन्दूधर्म अपनी तमाम परम्पराओं के साथ जीवित है। लेकिन दिलचस्प यह है कि यह सारा खूनखराबा धर्म के नाम पर हुआ, और आज भी धर्म के ही नाम पर ही लोगों को मारा जा रहा है।
आज मुसलमान पूरी दुनिया में निशाने पर हैं। उन्हें शक की निगाह से देखा जा रहा है, हवाई अड्डों पर उनकी कड़ी चेकिंग की जाती है और यदि सार्वजनिक स्थानों पर कोई जालीदार टोपी पहने काली दाढ़ी वाला युवा दिख जाता है, तो लोगों में दहशत भर जाती है। अमरीका में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार ट्रिम्प ने तो अमरीका में उनके प्रवेश पर पाबन्दी तक लगाने का ऐलान कर दिया है।
यह संकट सिर्फ बाहर ही नहीं है, बल्कि खुद मुसलमानों के भीतर भी है, खुद मुस्लिम देशों में वे सुरक्षित नहीं हैं। वे शिआ के नाम पर मारे जा रहे हैं, सुन्नी के नाम पर मारे जा रहे हैं, बाजारों में मारे जा रहे हैं, रेस्तराओं में मारे जा रहे हैं, बसों और ट्रेनों में मारे जा रहे हैं, स्कूलों में मारे जा रहे हैं, मस्जिदों में मारे जा रहे हैं, यहाॅं तक कि अल्लाह की बारगाह में इबादत करते हुए मारे जा रहे हैं। यह कैसा जिहादी जुनून है कि जिन मुसलमानों को दुनिया में ज्ञान-विज्ञान में तरक्की करनी थी, वह आज उनकी ही आबादी का दुश्मन बना हुआ है?
दहशतगर्दी के समर्थक कहते हैं कि इसका जिम्मेदार अमरीका है। वे कहते हैं कि अमरीका ने ही आतंकवाद पैदा किया है और वही उसको पालपोस रहा है। कुछ समर्थक मानते हैं कि इराक-युद्ध और सद्दाम हुसैन को फाॅंसी दिए जाने के बाद मुसलमानों का गुस्सा आतंकवाद के रूप में उभरा है। अगर ऐसा है तो यह बड़ा दिलचस्प है कि इस्लाम के नाम पर आतंक फैलाने वाले मुसलमान अपने ही धर्म-भाइयों को मार रहे हैं। वे उन मुसलमानों को मार रहे हैं, जिनका इराक-युद्ध से कुछ भी लेना-देना नहीं है। वे स्कूलों में घुसकर पढने वाले बच्चों का खून बहा रहे हैं, जिन्होंने ठीक से अभी दुनिया में कदम भी नहीं रखे हैं। वे जिस तरह से लोगों को अंधाधुंध मार रहे हैं, जो एक दम बेकसूर और बेगुनाह हैं, उससे पता चलता है कि उनका मकसद सिर्फ दहशत फैलाना है, और कुछ भी नहीं। हैरत होती है कि वे न अपने आकाओं से सवाल करते हैं और न अपने दिल से पूछते हैं कि जिन मासूमों का खून बहाने का मिशन उन्हें दिया गया है, उससे इस्लाम का या मुसलमानों का या उनके आकाओं का कौन सा मिशन पूरा हो रहा है? विचित्र है कि इस आतंक के खिलाफ मुस्लिमों की आवाज बहुत दबी-दबी सी है। हालांकि यह इस बात का सुबूत नहीं है कि वे अलकायदा या इस्लामिक स्टेट जैसे खूॅख्वार आतंकी संगठनों को पसन्द करते हैं। इसका कारण शायद यह है कि भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश समेत पूरी दुनिया के आम मुसलमानों का धार्मिक नेतृत्व उन धर्मगुरुओं के हाथों में है, जो अपने-अपने तरीके से उन्हें इस्लाम समझाते हैं और अपने फायदे के लिए उनका इस्तेमाल करते हैं। उदाहरण के तौर पर बरेली और देवबन्दी सम्प्रदायों के धर्मगुरु अपने-अपने अकीदतमन्दों को इस तरह प्रशिक्षित करते हैं कि नमाज पढ़ने के तरीके तक पर वे एक-दूसरे का सिर फोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं। अभी पिछले दिनों बरेलवी सम्प्रदाय के एक मौलाना ने देवबन्दी मजलिस में शिरकत की, जो मुस्लिम एकता के लिए आयोजित की गई थी, तो बरेलवी अकीदे के मुसलमान मौलाना के खिलाफ हो गए। मौलाना ने माफी माॅंग कर मामले को खत्म किया। इस तरह के फिरकों और धर्मगुरुओं की जबरदस्त जकड़बन्दी को तोड़ना अकीदतमन्द मुसलमानों के लिए एक नामुमकिन सा काम है। ऐसे मुसलमान आतंकवाद के खिलाफ किसी बड़ी मुहिम या तहरीक में अपने धर्मगुरुओं की मरजी के खिलाफ कैसे भाग ले सकते हैं? यह सही है कि आतंकवाद के खण्डन में कुछ उलेमाओं (धर्मगुरुओं) के बयान आते रहते हैं, और अधिकांश इसे इस्लाम-विरोधी भी मानते हैं, पर इसके खिलाफ दुनिया भर के मुसलमानों को संगठित करने वाले किसी भी आन्दोलन का नेतृत्व वे नहीं करते।
अभी बांग्लादेश के एक पत्रकार सैयद बदरुल अहसन ने अपने एक लेख में, जो इसी 8 जुलाई को हिन्दी में भी ‘अमर उजाला’ में प्रकाशित हुआ है, लिखा है कि ‘ढाका, पेरिस, ब्रसेल्स, इस्तांबुल, बगदाद और मदीना समेत दुनिया भर में इस्लामी स्टेट के ये कथित जिहादी नास्तिक हैं।’ अभी तक उन्हें इस्लाम का दुश्मन तो कहा जाता रहा है, पर उन्हें नास्तिक किसी ने नहीं कहा था। आज पहली बार उन्हें किसी ने नास्तिक कहा है। दिलचस्प है कि यह नास्तिक शब्द की नई अवधारणा है। मनुष्यता में विश्वास करने वाले नास्तिकों के लिए यह अपमानजनक हो सकता है कि वे बेगुनाहों का खून भी बहाते हैं। पर, यह सचमुच परिहास है। इस्लामी नजरिए से मुस्लिम-भ्रातृत्व उसका सबसे बड़ा सामाजिक फलसफा है। पर इस्लामी स्टेट के जिहादी इसी फलसफे को तार-तार कर रहे हैं। उसकी दूसरी सबसे बड़ी ताकत फलसफा-ए-तौहीद (एकेश्वरवाद) है, जिसका मतलब सिर्फ यही नहीं है कि एक ईश्वर के सिवा दूसरा कोई ईश्वर नहीं है, वरन् यह भी है कि मुसलमान वह श्रेष्ठ समुदाय है, जिसे अल्लाह के बन्दों की भलाई की जिम्मेदारी सौंपी गई है और जिसका काम भलाई के कामों को अंजाम देना और बुरे कामों को रोकना है। इस लिहाज से अल्लाह के बेगुनाह बन्दों का कत्ल करने वाले ये कथित इस्लामी जिहादी मुसलमान तो नहीं हो सकते। अगर मुस्लिम-भ्रातृत्व और फलसफा-ए-तौहीद में उनका अकीदा होता, तो वे अवश्य ही इस गुनाह से बचते। कुरान में, जिसे मुसलमान पाक और आसमानी किताब मानते हैं, कहा गया है कि (3ः138) ‘यह मानव जाति के अधिकारों का घोषणापत्र और अल्लाह से डरने वालों के लिए मार्गदर्शन और हिदायत है।’ 1990 में ‘इस्लामिक फाउण्डेशन ट्रस्ट’ मद्रास ने जो ‘यूनिवर्सल इस्लामिक डिक्लेरेशन आॅफ ह्यूमन राइट्स’ प्रकाशित किया था, उसमें भी इस आयत को मुख्य आधार बनाया गया था। तो क्या बेगुनाहों का खून बहाना, मासूम बच्चों को गोलियों से भूनना और शहरों को तबाह करना अल्लाह की हिदायत और घोषणा है? जाहिर है कि नहीं है। इसलिए मैं इन कथित जेहादियों को इस मायने में नास्तिक कहा भी जा सकता है कि उन्हें अल्लाह का खौफ वास्तव में नहीं हैं। शायद ये जानते हैं कि अगर अल्लाह सच में है, तो वह अपने बन्दों को इन शैतानों से जरूर बचाता। शायद यही वजह है कि मुस्लिम-भ्रातृत्व और फलसफा-ए-तौहीद उनके लिए कोई अहमियत नहीं रखता है।
एक डा. जाकिर नाईक हैं, जो प्रवीण तोगड़िया की तरह, डाक्टर का पेशा छोड़कर, धर्म के उपदेशक बन गए हैं। वह इस्लामी रिसर्च फाउण्डेशन के संस्थापक हैं, और पीस टीवी पर इस्लाम पर तुलनात्मक तकरीरें करते हैं। इस्लाम के मौजूदा तमाम फिरकों में एक फिरका उनका भी है। एक समय मैं उनके भाषण को नियमित रूप से सुनता था, यह जानने के लिए कि वह इस्लाम की किस तरह की व्याख्याएॅं करते हैं। डा. नाईक तीस से भी ज्यादा देशों में दो हजार से भी ज्यादा सभाएॅं कर चुके हैं, जिन्हें सुनने के लिए हजारों की संख्या में पढ़ेलिखे नौजवान आते हैं। उनके ट्विटर और फेसबुक एकाउण्ट को भी लगभग सवा करोड़ लोग फाॅलो करते हैं। एक तरह से देखा जाए, तो पढ़ेलिखे मुसलमानों पर डा. जाकिर नाईक का प्रभाव अन्य इस्लामी धर्मगुरुओं से ज्यादा पड़ता है। इसलिए, इस्लामी स्टेट के जिहादियों को मुख्यधारा से जोड़ने की क्षमता इस व्यक्ति में सबसे ज्यादा है। पर यह विचित्र है कि डा. जाकिर नाईक की तकरीेरें और इस्लामी व्याख्याएॅं पढ़ेलिखे मुस्लिम नौजवानों को ही और भी ज्यादा उग्र और जेहादी बनाती हैं। क्या ‘मानव जाति के लिए इस्लाम का घोषणापत्र’ को जाकिर जैसे धर्मगुरु जिहादी मुसलमानों में क्यों नहीं भरते?
8 जुलाई 2016

मंगलवार, 28 जून 2016

प्रोफेसर श्याम लाल की नई किताब
(कँवल भारती)      
प्रोफेसर श्याम लाल जी की नई पुस्तक पोलिक्स आॅफ दि अनटचेबुल्स-काॅंग्रेस एण्ड दि भंगीज: ए सोशियो एनालिसिसनाम से रावत पब्लिकेशन, जयपुर से आई है। वे जानेमाने समाजशास्त्री हैं, और पटना विश्वविद्यालय, पटना तथा जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर में कुलपति रह चुके हैं। वे स्वच्छकार समाज से आते हैं। गत दिनों उनकी आत्मकथा दि अनटोल्ड स्टोरी आॅफ ए भंगी वाइस चांसलरकी काफी चर्चा हुई थी। उनकी एक दर्जन से भी अधिक पुस्तकों में ट्राइबल लीडरशिप, दि रैगर मूवमेंट, आंबेडकर एण्ड दलित मूवमेंट, भंगीज इन ट्रांजिशन, एजुकेशन अमंग ट्राइबल्स, मर्हिर्ष नवल: ए ग्रेट भंगी सेन्ट, आंबेडकर एण्ड नेशन बिल्डिंग, अनटचेबल मूवमेंट इन इंडिया महत्वपूर्ण और विचारोत्तेजक कृतियाॅं हैं। इसी कड़ी में स्वच्छकार समुदाय पर उनकी यह एक नई बेजोड़ किताब है, जिसमें उन्होंने सफाई कर्मचारियों के रूप में उनके राजनीतिक संघर्ष और काॅंग्रेस के साथ उनके रिश्तों का मूल्याॅंकन किया है। उनकी तीन पुस्तकें हिन्दी में भी उपलब्ध हैं-(1) ‘सामाजिक न्याय एवं दलित राजनीति’, (2)  ‘एक भंगी कुलपति की अनकही कहानीऔर (3) ‘भारत में अछूत आन्दोलन’ (इस किताब का हिन्दी अनुवाद 1911 में मैंने किया है)।
पोलिक्स आॅफ दि अनटचेबुल्सपुस्तक के केन्द्र में आरम्भ से अन्त तक स्वच्छकार समाज है। परिचयके अन्तर्गत डा. श्याम लाल जी एक सूत्रवाक्य लिखते हैं, जो एक प्रश्न भी है, और उसी का जवाब देने की कोशिश उन्होंने इस पुस्तक में की है। वे लिखते हैं-भंगी समुदाय राजनीतिक रूप से उतने संगठित और जागरूक नहीं हैं, जितने अन्य अनुसूचित समुदाय हैं, जैसे, उत्तर प्रदेश में चमार और जाटव, राजस्थान में मेघवाल, चमार, बैरवा और रैगर तथा महाराष्ट्र में महार। भंगी अपने सामाजिक और राजनीतिक महत्व को अभी नहीं जानते हैं, इसलिए वे उससे अधिकतम लाभ भी नहीं उठा पाते हैं।’ (पृष्ठ 23)
डा. श्याम लाल जी ने इसके कारणों की पूरी गहनता से छानबीन की है। वे चिन्ता व्यक्त करते हैं कि 1932 के गाॅंधी-आंबेडकर-पैक्ट के बाद जो सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवर्तन दलित वर्गों में हुए, उससे भंगी समुदाय क्यों वंचित रहा? इसका पहला कारण उनकी दृष्टि में वही है, जो मैंने सूत्रवाक्य के रूप में ऊपर उद्धरित किया है। इसके सिवा वे दो अन्य कारण भी बताते हैं, जैसे, एक, ‘भंगी समुदाय की राजनीति मुख्य रूप से काॅंग्रेस की नीतियों की पिछलग्गू बनकर रही है। देश के अन्य दलित समुदायों ने अपने भाग्य को कभी भी किसी एक पार्टी से बाॅंधकर नहीं रखा, बल्कि वे उन सभी पार्टियों से जुड़े, जिनमें उनको अपना हित दिखाई दिया। तीसरा कारण वे यह बताते हैं कि भंगी नेता अपने समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करते, क्योंकि उनकी आवाज काॅंग्रेस के पास बंधक रखी होती है।
निस्सन्देह डा. साहब के इन तर्कों में दम है। यही कारण है कि व्यक्तिगत तौर पर कुछ गिने-चुने वाल्मीकि नेता ही लाभान्वित हुए हैं और उनका भरपूर विकास हुआ है, जबकि बाकी वाल्मीकि समाज का पेशा आज भी सफाई कार्य ही बना हुआ है। उन्होंने इतिहास में जाकर गहन पड़ताल की है। उनका यह कहना एक दम सही है कि स्वतन्त्रता से पूर्व, जब डा. आंबेडकर दलित-मुक्ति की लड़ाई लड़ रहे थे, मेहतर समाज अपने खून-पसीने की कमाई से हजारों रुपए की थैली गाॅंधी और काॅंग्रेस को भेंट कर रहा था। स्वतन्त्रता के बाद भी उसकी सक्रिय भागीदारी गाॅंधी और काॅंग्रेस के आन्दोलन में रही। डा. लाल गलत नहीं कहते हैं कि मेहतर और काॅंग्रेस पार्टी दोनों में अविच्छेद्य सम्बन्ध बन गया था। काश यह न हुआ होता, तो आज इस समुदाय की सामाजिक और आर्थिक तसवीर कुछ दूसरी ही होती।
इस दृष्टि से डा. श्याम लाल जी की यह पुस्तक बेहद पठनीय है, खास तौर से वाल्मीकि समाज के लिए जो अभी भी राजनीतिक रूप से जागरूक और संगठित नहीं है। इस लिहाज से इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद भी शीघ्र आना चाहिए।
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इस पुस्तक का एक संक्षिप्त परिचय देने की मैं यहाॅं कोशिश करता हूॅं। भंगीशार्षक अध्याय में उन्होंने उसकी उत्पत्ति पर विस्तार से प्रकाश डाला है, जिसमें विभिन्न राज्यों में उसके अलग-अलग नामों, उसके मिथकीय, ऐतिहासिक, नृविज्ञानी, जातीय और आक्रमण के सिद्धान्तों पर आधारित तथ्यों पर बात करते हुए उसकी वर्तमान स्थिति पर गम्भीर चर्चा की है। यहाॅं हम उससे विभिन्न राज्यों में उसके अलग-अलग नामों की तालिका उद्धृत करते हैं। इसके अनुसार, बंगाल में हरि, हादी; उत्तर प्रदेश में वाल्मीकि, धानुक; मध्य प्रदेश में मेहतर, भंगी; असाम में मेहतर, भंगी; उड़ीसा में मेहतर, भंगी, वाल्मीकि, मादिगा; बिहार में मेहतर; तमिलनाडु में थोटी; आन्ध्र प्रदेश में मादिगा; पंजाब में मीरा, लालबेग, चूहड़ा, बालाशाही, वाल्मीकि; महाराष्ट्र में घरे, भंगी; गुजरात में हलालखोर, हेला, बरवाशिया; दिल्ली में भंगी, वाल्मीकि; कर्नाटक में मादिगा; केरल में मादिगा और राजस्थान में भंगी, मेहतर, चूहड़ा और वाल्मीकि नाम प्रचलित हैं।
डा. साहब ने इस अध्याय में इस सवाल का बहुत ही तार्किक विश्लेषण किया है कि इन लोगों को भंगी किस आधार पर कहा गया? वे सवाल करते हैं कि क्या ये लोग पहले बहिष्कृत घोषित किए गए और बाद में उनसे गन्दे काम कराए गए? या वे लोग आरम्भ से ही यह गन्दा काम कर रहे थे, इसलिए अछूत घोषित किए गए? अगर इन सवालों का उत्तर यह है कि ये लोग आरम्भ से गन्दा काम नहीं कर रहे थे, और बाद में उनको गन्दा काम करने के लिए मजबूर किया गया, तो वे कहते हैं कि फिर दूसरा सवाल यह पैदा होता है कि आखिर वे कारण और मजबूरियाॅं क्या थीं? इस अध्याय में उन्होंने उन्हीं कारणों और मजबूरियों को तलाशने का काम किया है। उन्होंने डा. आंबेडकर के सिद्धान्त पर भी विचार किया है, और अन्य ऐतिहासिक कारणों पर भी। पर उन्होंने किसी एक मत को निष्कर्ष के रूप में स्वीकार नहीं किया है, वरन् उनकी दृष्टि में लोगों को भंगी बनाने में सभी सिद्धान्तों की भूमिका अहम रही है। लेकिन उनका महत्वपूर्ण सवाल यह है, जो उन्होंने मुस्लिम और ब्रिटिश काल के दौरान मेहतर बनाए जाने के सिद्धान्त की भी आलोचना करते हुए भी उठाया है कि अगर सामान्य लोगों को मानव-मल उठाने के गन्दे काम में लगाने के लिए विवश किया गया था, तो उन्होंने विद्रोह क्यों नहीं किया? उसे अपनी नियति मानकर स्वीकार क्यों कर लिया था? यह सचमुच एक बड़ा सवाल है, जिस पर विचार किया जाना जरूरी है।
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अखिल भारतीय सफाई मजदूर कांग्रेस की स्थापना कब और क्यों हुई और उसका दूरगामी प्रभाव क्या पड़ा? इस किताब का अगला अध्याय इसी विषय पर है। श्याम लाल जी बताते हैं कि महाराष्ट्र में साठ के दशक में सफाई कर्मचारियों के कुछ छोटे-मोटे संगठन चल रहे थे, जिनको भंग करके 1964 में महाराष्ट्र के तत्कालीन काॅंग्रेसी विधायक भगवानदास कांद्रा की अध्यक्षता में प्रदेश स्तर पर राष्ट्रीय सफाई मजदूर काॅंग्रेसनाम से एक संगठन बना था। उसके दो साल बाद उनके नेताओं ने अखिल भारतीय स्तर पर संगठन की जरूरत को लेकर 21 मई 1966 को एक बड़ा सम्मेलन किया, जिसका उद्घाटन तत्कालीन केन्द्रीय रक्षा मन्त्री कृष्णा मेनन ने किया था। इसमें मुख्य भूमिका पंजाब के भंगी नेता यशवंत राय की थी। इन्हीं की अध्यक्षता में 23 मई 1966 को बम्बई में अखिल भारतीय सफाई मजदूर काॅंग्रेसका गठन हुआ। डा. लाल के अनुसार, यशवंत राय सभ्रान्त परिवार से थे। उनके पिता की मृत्यु उनके बचपन में ही हो गई थी और उनका लालन-पालन लाला लाजपत राय के परिवार में हुआ था। उनकी शिक्षा पंजाब और लन्दन में हुई थी। इससे समझा जा सकता है कि सफाई मजदूर संगठन अपने जन्म से ही काॅंग्रेस की योजना था। वह एक स्वतन्त्र संगठन कभी नहीं रहा। यशवंत राय तेरह साल तक उसके अध्यक्ष रहे। पर, उसके कलकत्ता में हुए बारहवें अधिवेशन में काॅंग्रेस के पूर्व रेलवे मन्त्री सरदार बूटा सिंह अध्यक्ष चुने गए, जबकि राय उसके मनोनीत चेयरमेन बनाए गए। डा. लाल लिखते हैं कि बूटा सिंह को अध्यक्ष चुनने के पीछे कारण यह था कि वह प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाॅंधी के काफी निकट थे, इसलिए एक तो उनसे सरकार और पार्टी संगठन में भंगियों के लिए भागीदारी की अपेक्षा थी, दूसरे, सफाई मजदूर काॅंग्रेस के लिए वह आवश्यक धन और अन्य संसाधन उपलब्ध करा सकते थे। लेकिन, लेखक के अनुसार, परिणाम ज्यादा अच्छा नहीं रहा। हालांकि काॅंग्रेस ने अन्य पिछड़े, ट्राइबल और हरिजन संगठनों के साथ-साथ सफाई मजदूर काॅंग्रेस के लिए भी कार्यालय वगैरा उपलब्ध कराया था, और अनेक राज्यों में कुछ महत्वपूर्ण भंगी नेताओं को सरकार में मन्त्री भी बनवाया था। डा. लाल लिखते हैं कि इस प्रोत्साहन ने भंगी नेताओं को काॅंग्रेस-समर्थक बना दिया और परिणामतः वे अपने सभी कार्यक्रमों का आरम्भ और अन्त काॅंग्रेस की प्रशंसा और वकालत से करने लगे। काॅंग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय नेता सफाई मजदूर काॅंग्रेस के सम्मेलनों की अध्यक्षता करते थे, यहाॅं तक कि इन्दिरा गाॅंधी और राजीव गाॅंधी तक सफाई मजदूर काॅंग्रेस में रुचि लेते थे। इसके कारण कुछ सफाई मजदूर नेताओं को काॅंग्रेस ने विधान सभा और लोकसभा के टिकट भी दे दिए थे। लेकिन इससे पूरे समाज पर क्या प्रभाव पड़ा? इस पर कुछ नहीं लिखा गया है।
डा. श्याम लाल आगे अखिल भारतीय सफाई मजदूर काॅंग्रेस की एक ऐतिहासिक रैली का उल्लेख करते हैं, जो 21 सितम्बर 1990 को नई दिल्ली के वोट क्लब मैदान में हुई थी। इसमें सम्पूर्ण भारत के सफाई मजदूरों ने भाग लिया था और अनेक प्रस्ताव पारित हुए थे, जिनमें सफाई कार्य का राष्ट्रीयकरण करना, उसे तकनीकी सेवा घोषित करना और तद्नुरूप वेतन का निर्धारण करना, सफाई कर्मियों को निःशुल्क आवास देना, आश्रित को नौकरी देना, वाल्मीकि जयन्ती पर अवकाश घोषित करना और बूटा सिंह के नेतृत्व में भरोसा करना शामिल था। किन्तु लेखक ने इन प्रस्तावों को, ज्यों-का-त्यों प्रस्तुत करने के सिवा, उनका आलोचनात्मक विश्लेषण नहीं किया है, जो अखरता है।
टगले अध्याय में लेखक ने बूटा सिंह के उत्थान और पतन पर संक्षिप्त प्रकाश डाला है कि किस तरह राजीव गाॅंधी की मृत्यु के बाद प्रधानमन्त्री बने नरसिम्हाराव ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया। टिकट न मिलने पर उन्होंने काॅंगे्रस से इस्तीफा देकर राजस्थान से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीता। उसी समय वह भाजपा में शामिल हुए और बाजपेयी सरकार में संचार मन्त्री बने। पर कुछ ही समय बाद उन्होंने भाजपा भी छोड़ दी और पुनः काॅंग्रेस में जाने का प्रयास किया। पर उन्हें टिकिट नहीं दिया गया। उन्होंने जयललिता, मायावती और पुनभाजपा से भी सम्पर्क किया और समाजवादी पार्टी से भी। बात न बनने पर वह जलोरा सीट से फिर निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़े और वह 2014 का चुनाव हार गए।

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राजनीति पार्टियों और सवर्ण हिन्दुओं द्वारा भंगियों के साथ किया जाने वाला भेदभावइस पुस्तक का महत्वपूर्ण अध्याय है। प्रोफेसर लिखते हैं कि अभी तक के अध्ययन बताते हैं कि भंगी समाज चार प्रकार के भेदभावों से पीड़ित है-राजनीतिक पार्टियों का भेदभाव, सवर्ण हिन्दुओं का भेदभाव, सरकार का भेदभाव और अन्य अछूत जातियों का भेदभाव। उनके अनुसार, काॅंग्रेस में निष्ठा रखने वाले भंगी आज वहाॅं उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। उन्हें काॅंग्रेस से टिकट नहीं मिल रहा है और विधानसभाओं और लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व नाममात्र का रह गया है। 1957 में स्थिति फिर भी अच्छी थी, पर इसके बाद उनका प्रतिनिधित्व बराबर कम होता चला गया और आज स्थिति यह है कि 2014 की लोकसभा की 544 सीटों में केवल एक भंगी है, जो बेहद निराशाजनक है। राज्यसभा की स्थिति इससे भी बदतर है। लाल साहब लिखते हैं कि वर्ष 1952 से 2000 तक काॅंग्रेस ने भंगी समाज से एक भी व्यक्ति को राज्यसभा के लिए नहीं चुना था। राज्यसभा में पहली बार भंगी समुदाय का सांसद 2005 में देखा गया था, जिसे भाजपा ने चुना था। राजनीति में उन्हें स्वीकार किया जाना अभी बाकी है।
पर सवर्ण हिन्दुओं की उपेक्षा आम तौर से दलितों के और खास तौर से भंगी जाति के प्रति राजनीति में ही नहीं, समाज में भी दिखाई देती है। डा. लाल लिखते हैं कि सवर्ण हिन्दू तीन कारणों से दलितों को हिन्दू फोल्ड में रखना चाहते हैं। पहला, अस्पृश्यता के कारण, जिनके स्पर्श से वे अशुद्ध हो जाते हैं। दूसरे, दलित उनके लिए सबसे सस्ते और अवैतनिक मजदूर हैं। और तीसरे, एक व्यक्ति एक वोट की राजनीतिक संस्कृति में दलित जातियाॅं प्रभुत्वशाली जातियों और वर्गों के लिए वोट बैंक की जरूरत बनी हुई हैं। इसलिए वे दलित जातियों के धर्मान्तरण का विरोध धार्मिक कारणों से नहीं करते हैं, बल्कि उसका कारण सामाजिक और आर्थिक है। इसके पीछे उनकी सोच यह रहती है कि अगर दलित जातियाॅं हिन्दूधर्म या उनकी जातिव्यवस्था से अलग हो गईं, तो सवर्ण हिन्दुओं को काफी कुछ खोना पड़ जायेगा।यही कारण है कि भंगी समुदाय का सामाजिक और आर्थिक उत्थान नहीं हो पा रहा है। एक्शन एड की एक रिपोर्ट के हवाले से डा. लाल लिखते हैं कि मैला उठाने पर प्रतिबन्ध लगने के बावजूद यह प्रथा अभी भी अस्तित्व में है। इसी की वजह से उनमें शिक्षा का विकास नहीं हो पा रहा है, क्योंकि स्कूलों में उनके बच्चों के साथ भेदभाव होता है और वे स्कूल छोड़ देते हैं। उन्होंने आगे भंगी समुदाय के उस विकास पर भी प्रकाश डाला है, जिसे हम सम्भ्रान्त या अभिजात का विकास कह सकते हैं। इस सम्बन्ध में उनके सभी आॅंकड़े हालांकि राजस्थान प्रदेश के हैं, फिर भी विचारणीय हैं। व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में भी कुछ तरक्की भंगी समुदाय ने की है। उनके अनुसार उन्होंने गैस एजेन्सी, पेट्रोल पम्प, प्रिन्टिंग प्रेस, आइरन वर्क शाप, और होटल खोले हैं। कुछ शिक्षित भंगियों ने डेयरी भी खोली हैं।
सरकार के भेदभाव के उनके आॅंकड़े भी अधिकांशतः राजस्थान तक ही सीमित हैं। वे लिखते हैं कि राजस्थान लोक सेवा आयोग में बैरवा, चमार, यहाॅं तक कि भील और मीणा भी सदस्य है, पर सरकार ने अभी तक एक भी भंगी को सदस्य नहीं बनाया है। सरकार विभागों और संस्थानों में भंगियों का प्रतिनिधित्व निराशाजनक है। लगभग 1150 पदों में केवल 53 पद भंगी समुदाय के पास हैं। इस पर डा. लाल टिप्पणी करते हैं कि यही वह महत्वपूर्ण समय है, जब भंगियों को अपने आप को बदलना होगा। उन्हें अपनी कार्यशैली बदलनी होगी और अन्य समुदायों की तरह अपने अधिकारों के लिए लड़ना होगा। वे वाल्मीकियों के लिए पृथक आरक्षण का समर्थन करते हुए लिखते हैं कि पंजाब पहला राज्य है, जिसने वाल्मीकियों मजहबी सिखों के लिए 50 प्रतिशत कोटा फिक्स किया है। हालांकि इसे चमार, आदिधर्मी और रमदसियों ने हाईकोर्ट में चुनौती दी थी, पर कोर्ट ने सरकार के फैसले को बनाए रखा है। इसके विरुद्ध की गई अपील सुप्रीम कोर्ट ने भी खारिज कर दी थी। वे कहते हैं कि भंगी समुदाय के पास अपनी गरीबी और दुखों को दूर करने तथा सामाजिक न्याय को हासिल करने का एकमात्र रास्ता केवल पृथक आरक्षण का ही है।
अन्य अछूत जातियों के द्वारा भंगियों के साथ किए जाने वाले भेदभाव के सम्बन्ध में लेखक का कहना है कि पूरे देश में दलित जातियाॅं जातिव्यवस्था के विरोध में हैं, पर यह आश्यर्चजनक है कि वे स्वयं आन्तरिक जातिव्यवस्था से ग्रस्त हैं। इनमें भंगी सबसे ज्यादा अछूत और अशुद्ध समझे जाते हैं। वे कहते हैं कि सभी दलित जातियाॅं भंगी समुदाय से भेदभाव करती करती हैं। उनके अनुसार चमार पहली प्रभुत्वशाली जाति है, दूसरे स्थान पर रैगर है, खटीक तीसरे स्थान पर है, और अन्तिम पायदान पर भंगी है, जिसका कोई भी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक आधार नहीं है।
आगे के अध्यायों में लेखक ने भंगी समुदाय के द्वारा किए गए उन प्रयासों का वर्णन किया है, जो उनके शैक्षिक, सामाजिक और आर्थिक उत्थान के साथ-साथ उनकी मूलभूत आवश्यकताओं के सम्बन्ध में हैं। यह वर्णन सरकार की कथनी और करनी के जिस यथार्थ को सामने लाता है, वह अन्यन्त निन्दनीय है। इसी क्रम में काॅंग्रेस के विख्यात नेताओं के झूठ और यथार्थ पर भी डा. लाल ने गम्भीर चर्चा की है। इसमें उन्होंने गाॅंधी जी, जवाहरलाल नेहरू, इन्दिरा गाॅंधी, राहुल गाॅंधी के विचारों को उद्धरित किया है, जिसमें इन नेताओं ने बताया है कि भंगियों के हित में क्या-क्या किया जाना चाहिए। पर वे बताते हैं कि हकीकत ठीक इसके विपरीत है। उन्होंने इस बात को भी रेखांकित किया है कि राजस्थान में अशोक गहलोत ने, जो अपने को गाॅंधीवादी कहते थे, अपने शासन में गाॅंधी की शिक्षा के विरुद्ध भंगियों की ही ससबसे ज्यादा उपेक्षा की थी। वे उदाहरण देते हैं कि 2007 में जिस बसुन्धरा राजे की भाजपा सरकार ने पहली बार डा. आंबेडकर फाउण्डेशनकी स्थापना करके डा. आंबेडकर के प्रति सम्मान व्यक्त किया था, उस संस्थान को अशोक गहलोत ने 2008-2013 के अपने काॅंग्रेसी शासन में एक पैसे का भी आवण्टन नहीं किया था। वे लिखते हैं कि जिस काॅंग्रेस को भंगी समुदाय सबसे ज्यादा समर्थन करता था, उसका अब काॅंग्रेस से मोह भंग हो गया था और 2013 के विधानसभा चुनावों में उसने काॅंग्रेस को वोट न देने का निश्चय किया था। वे राजनीतिक पार्टियाॅं और भंगी समुदायनामक अध्याय में इस बात का भी खुलासा करते हैं कि बसुन्धरा राजे ने 2003-2008 में अपने शासन में पहली बार में राज्य के सभी विभागों को रिक्त पदों पर भंगी समुदाय के युवकों को भर्ती करने का सर्कुलर जारी किया था, जिसके परिणामस्वरूप भारी संख्या में भंगी युवको को विभिन्न विभागों में नौकरी मिली थी। किन्तु जब भाजपा की पराजय के बाद काॅंग्रेस सत्ता में आई, तो उसने इस सर्कुलर पर रोक लगादी। लेकिन वे यह भी कहना नहीं भूलते कि भंगियों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने में भाजपा ने भी कोई रुचि नहीं ली थी। वह लिखते हैं कि 1985 से राजस्थान विधानसभा में कोई भी भंगी विधायक नहीं चुना गया। इसी अध्याय में वे एक और मार्के का खुलासा करते हैं कि चुनाव आयोग द्वारा जो हाल में ष्छव्ज्।ष् का विकल्प लागू किया गया था, उसका प्रयोग राजस्थान में उच्च जातियों के मतदाताओं ने सुरक्षित सीटों पर दलित जातियों के उम्मीदवारों के खिलाफ किया था। उन्होंने इसको अनेक सुरक्षित सीटों पर प्राप्त वोटों की संख्या से साबित भी किया है।
भंगियों की मुक्तिअध्याय में लेखक ने गाॅंधी जीे के इस कथन के प्रकाश में कि मेरा अगर पुनर्जन्म हो, तो एक भंगी के घर में हो, ताकि मैं उन्हें मैला उठाने के अमानवीय, घृणित और गन्दे काम से मुक्ति दिला सकूॅंआज भी इस अमानवीय, घृणित और गन्दे प्रथा के जारी रहने पर सवाल उठाया है। उन्होंने ऐसे अनेक स्त्री-पुरुषों के बयान दर्ज किए हैं, जो आज भी इस गन्दे काम को बहुत ही मामूली उजरत पर कर रहे हैं। यह सचमुच वाजिब सवाल है कि काॅंग्रेस अपने छह दशकों के लम्बे शासन में भी इस गन्दे काम से भंगियों को छुटकारा नहीं दिला पाई। इसका कारण इसके सिवा और क्या हो सकता है कि भंगियों की मुक्ति काॅंग्रेस की प्राथमिकता में ही नहीं थी। इसी क्रम में उन्होंने अन्ना आन्दोलन और आम आदमी पार्टीपर भी एक अध्याय लिखा है, जो यह रेखांकित करता है कि दिल्ली में पहली बार वाल्मीकि समुदाय काॅंग्रेस के फोल्ड से बाहर निकला और खुलकर अरविन्द केजरीवाल का समर्थन किया। आम आदमी पार्टी ने पाॅंच वाल्मीकियों को टिकिट दिए थे, जिनमें से तीन उम्मीदवार जीते थे। इनमें एक राखी विलडान भी थी, जो दिल्ली की पहली वाल्मीकि महिला मन्त्री बनी।
इस पुस्तक का अन्तिम अध्याय काॅंग्रेस ने मूलाधार खोयाशीर्षक से है, जिसमें लेखक ने पूरी सच्चाई से स्पष्ट किया है कि वाल्मीकि समुदाय के नेता यह समझने लगे हैं कि काॅंग्रेस की वजह से ही वाल्मीकि समाज आज भी अन्तिम पंक्ति में है, और अब उन्होंने अपना भविष्य भाजपा में देखने का मन बना लिया है।
निस्सन्देह डा. श्याम लाल की वाल्मीकि समुदाय पर आधारित अछूतों की राजनीतिपुस्तक ज्वलन्त सवाल उठाती है और इसे पढ़ते हुए कोई कारण नहीं है कि हम यह न मानें कि इस समुदाय के साथ सिर्फ सरकारों ने ही नहीं, सिर्फ सवर्ण हिन्दुओं ने ही नहीं, बल्कि दलित वर्गों ने भी अन्याय किया है।
(28 जून 2016)