गुरुवार, 19 जनवरी 2017

जाबिर हुसैन : राजनेता लेखक 

यह उन दिनों की बात है, जब जाबिर हुसैन साहेब बिहार विधान परिषद के सभापति थे. मुझे मुंगेर में एक कर्यक्रम में भाग लेना था. कार्यक्रम माले यानी मार्क्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से था. मैं सुबह ही पटना पहुच गया था. वहाँ जाकर पता चला कि शहर में दंगा हो गया है और पार्टी ने जहाँ ठहराने की व्यवस्था की थी, गुंडों ने रात में ही तोड़फोड़ और मारपीट कर दी थी. स्वाभाविक था कि लोग दहशत में थे. अब सवाल मेरे सामने यह था कि मैं कहाँ जाऊँ? मुंगेर में कार्यक्रम शाम को था. सवेरे के आठ बज गए थे, अभी मैं फ्रेश भी नहीं हुआ था. मेरे दिमाग में विचार आया कि क्यों न जाबिर साहेब से मदद लूँ. मैंने माले के दफ्तर के बाहर खड़े होकर उनको फोन किया. उस समय तक न मैंने उन्हें देखा था, और न उन्होंने मुझे. बस उतना ही परिचय था, जितना एक लेखक दूसरे लेखक को पत्र-पत्रिकाओं में पढ़कर जानता है. उधर से जब हैलो हुई तो मैंने उन्हें अपनी समस्या बताई. बेहद आशा भरा जवाब मिला--'कँवल जी आप यहाँ खड़े हैं, वहीँ खड़े रहिये. दस मिनट में गाड़ी पहुँच रही है, वह आपको गेस्ट हाउस में ले जायेगी, वहाँ जाकर आप फ्रेश होइए, बाकी इसके बाद बात करेंगे.'
ठीक दस मिनट में मेरे निकट एक एमबेसडर कार आकर रुकी, एक युवक बाहर निकला, नमस्ते किया और मेरा सामान उठाकर गाड़ी में रखा और गाड़ी मुझे सीधे गेस्ट हाउस ले गयी. गेस्ट हाउस पहुँच कर उस युवक ने कहा, ‘मेरा नाम .....जैन है. (शुरू का नाम याद नहीं आ रहा है.) साहब ने बताया है कि सर आप बहुत बड़े लेखक हैं. आपको कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए. यहाँ चाय नाश्ता सब मिलेगा. फिर उसने गेस्ट हाउस के एक कर्मचारी को बुलाकर कहा कि सर सभापति जी के मेहमान हैं, पूरा ध्यान रखना है. फिर उसने मुझे कहा- सर मैं चलता हूँ. मैं ११ बजे आऊंगा. सभापति जी ने आपको बुलाया है.
कमरे में सारी शाही सुविधाएँ थीं, मैं तुरंत फ्रेश होकर, चाय-नाश्ता करके ११ बजे तक तैयार हो गया. ठीक ११ बजे जैन जी आये, और मैं उनके साथ विधान परिषद में जाबिर साहेब के चेंबर में पहुंचा. उस पहली मुलाकात में उन्होंने मुझे वीआईपी का सम्मान दिया, मुझे उन्होंने अपनी कुर्सी के बगल में कुर्सी पर बैठाया, और वहाँ मौजूद लोगों से, मेरा परिचय एक बड़े दलित लेखक के रूप में कराया. वहाँ मौजूद लोगों में प्रसिद्ध लेखक रामधारी सिंह दिवाकर भी थे, जिनसे मेरी पहली भेंट वहीँ पर हुई थी. जाबिर साहेब से मिलने के बाद मुझे लगा कि लेखक को सचमुच उनके जैसा ही सरल, विनम्र, संवेदनशील, मिलनसार और मददगार होना चाहिए. उनके जैसे बड़े पद पर बैठे राजनेता-लेखक के साथ उस दिन जो सम्बन्ध बना, वह आज तक कायम है. आज तो ऐसे-ऐसे लेखक हैं, जो किसी लायक न होकर भी सीधे मुंह बात नहीं करते.
उसी दिन शाम को हम मुंगेर गए, वहाँ रामजीराम और माले के तमाम साथियों का साथ मिला. दूसरे दिन शहर के हालात और भी खराब थे. केवल सरकारी और पुलिस की गाड़ियां ही सड़कों पर सुरक्षित थीं. रात गेस्ट हाउस में ही बिताई और सुबह जाबिर साहेब की गाड़ी ने ही मुझे स्टेशन पहुँचाया.
(६-१०-१६)



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