मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

नए वर्ष के आगमन पर..
(कँवल भारती)

नया वर्ष तू क्या लेकर आया है?
आशाएं विश्वास हमें तो करना ही है
क्यों न करेंगे? करते ही आये हैं.
वांच रहे हैं लोग राशियाँ राशिफल में
कुछ के चेहरे मुरझाये हैं,
कुछ के फिर भी खिले हुए हैं.
आँखों देखा नहीं समझते, कागद लेखे सीस नवाते.
पता नहीं क्यों विसराते हम इस यथार्थ को
वृक्ष बबूल का बोएँगे तो आम कहाँ पाएंगे?
बोएँगे नफरत जग में तो प्यार कहाँ पाएंगे?
बिरलाओं के लिए उजड़ते रहे झोंपड़े ज्यों ही,
क्या रोक पाएंगे कदम बगावत के हम?
शायद सत्ता का चरित्र ही यह है
धरती खाली हो गरीब से जल्दी,
कुछ का करें सफाया बागी, कुछ का सेना.
नए वर्ष में लगता है अब ये ही होना.
सीमित दंगे राष्ट्रवाद के फल देवेंगे कारपोरेट को,
हम आपस में सिर फोड़ेंगे, वे ‘सुधार’ को तेज करेंगे.
हम खेलेंगे जाति-धर्म के अंगारों से,
वे लूटेंगे सकल पदारथ जो भू-माहीं.
नए वर्ष में क्या है उनके लिए नया कुछ,
जिन्हें रोज ही कुआँ खोद पानी पीना है,
जिनके श्रम से खड़ी हुई अट्टालिकाएं हैं,
जिनके श्रम शोषण से रहते स्वस्थ भद्र जन,
लेकिन जिनके पास अभाव है हर सुविधा का.
नया वर्ष मंगलमय उनका, जिनका कल भी मंगलमय था,
नया वर्ष सुखमय भी उनका, जिनके सुख का पार नहीं है.
अरे अमीरो ! अरे शोषको !! अरे शासको !!!
खूब मनाओ जश्न रात-भर, नाचो-गाओ,
वक्त तुम्हारा, वक्त तुम्हारा, वक्त तुम्हारा !
सोए हैं रहनुमा हमारे,
वे भी कल जागेंगे, देंगे साथ तुम्हारा ! साथ तुम्हारा !!
(३०-१२-२०१४)






सोमवार, 8 दिसंबर 2014

क्या जनता जागरूक हो रही है?
(कॅंवल भारती)
एक तन्त्र के रूप में पिछले पचास सालों में धर्म का दायरा जितना अधिक बढ़ा है, उतना ही अधिक उस तन्त्र से लोगों का मोह भंग भी हुआ है। सबसे पहले बात उन तन्त्रों पर, जो दलित वर्गों के बीच तेजी से विकसित हुए। अतीत में जितने भी सन्त दलितों में हुए, उन सभी के नाम से नए-नए सन्त पैदा हो गए और रातों-रात उनके विशाल काय आश्रम भी खड़े हो गए। मेहनत कश गरीब लोग अपनी गरीबी और अशिक्षा वश मुक्ति के लिए उनके आश्रमों में जाते हैं और शोषण के जाल में फॅंस जाते हैं। वे तथाकथित स्वयंभू सन्त उनकी अशिक्षा और गरीबी का फायदा उठाते हैं, जिससे उन्हें श्रद्धा और चढ़ावा के साथ-साथ भोग के लिए सुन्दर औरतें भी मिलती हैं। वे इस ब्रह्मजाल से इतना अकूत धन इकट्ठा करते हैं कि उनकी कई पीढि़याॅं तर जाती हैं। फिर वे अपनी जान, अपने माल और अपने ब्रह्मजाल की सुरक्षा के लिए हथियार खरीदते हैं और अपनी सेना खड़ी करते हैं। वे लक्जरी गाडि़यों में चलते हैं और विलासिता का जीवन जीते हैं। सुरक्षा ऐसी कड़ी बनाते हैं कि परिन्दा भी सीधे उन तक नहीं पहुॅंच सकता। उनके अपार अंधभक्त श्रद्धालुओं की भीड़ को देखकर राजनीतिक दलों के नेता भी चुनावों में उनका ‘आशीर्वाद’ लेने पहुॅंचते हैं, और यहीं से शुरु होता है उन्हें ‘मानवेत्तर प्राणी का ‘विशेष’ दर्जा मिलने का सिलसिला। फिर उनके गन्दे पाॅव जमीन पर नहीं पड़ते। जब प्रधानमन्त्री, मुख्यमन्त्री और मन्त्रियों से लेकर बड़े-बड़े उच्च अधिकारियों तक उनके आश्रम में शीश नवा रहे हैं, तो स्वम्भू सन्त का भी फायदा और नेताओं का भी फायदा; और अंधभक्त श्रद्धालु तब और भी उनके मुरीद हो जाते हैं। वे समझते हैं, जब इतने बड़े-बड़े लोग बाबाजी के आगे नतमस्तक हैं, तो बाबा सचमुच बड़े पहुॅंचे हुए सन्त हैं। पर, इस हकीकत को सिर्फ नेता ही जानता है कि वे कोई सन्त-वन्त नहीं हैं, सब धर्मभीरुता का खेल है। लेकिन कानून पता नहीं, कहाॅं से बीच में आ गया, जो उन्हें दो कौड़ी का भी नहीं समझता। वह उन्हें और आम आदमी दोनों को एक ही नजर से देखता है। बेचारे जेल में बन्द आसाराम और अब सन्त रामपाल, मुझे पक्का यकीन है, कानून को ही कोस रहे होंगे।
स्वम्भू रामपाल की गिरफ्तारी पर हरियाणा में उनके भक्तों ने कोई उपद्रव नहीं किया, जैसाकि प्रायः स्वम्भुओं के भक्तों द्वारा होता रहा है। आसाराम की गिरफ्तारी के विरोध में भी देश के किसी कोने में कोई धरना-प्रदर्शन नहीं हुआ था। हालांकि, उनके खड़े किए हुए तन्त्र ने जरूर कुछ शक्ति-प्रदर्शन किया थां। इसका क्या मतलब है? क्या लोग जागरूक हो रहे हैं? हाॅं, यह कहा जा सकता है कि लोग जागरूक हो रहे हैं। पर यह जागरूकता लोकतन्त्र के दो स्तम्भों से आई है। वे हैं एक न्यायपालिका और दूसरी मीडिया। न्यायपालिका के डंडे ने इन तथाकथित सन्तों की सारी सन्तई निकाल दी और मीडिया ने असलियत दिखाकर उनको ऐसा नंगा किया कि जो जनता उन पर श्रद्धा करती थी, वह उन पर थूकने लगी। रामपाल की गिरफ्तारी के बाद, उनके सतलोक आश्रम के भीतर की, जो सूचनाएॅं मीडिया ने उपलब्ध कराईं, वे बेहद चैंका देने वाली हैं। बिहार, राजस्थान और मध्यप्रदेश तक से लोग अपने दुखों के निवारण के लिए वहाॅं आए हुए थे। कई औरतों के साथ दुराचार तक वहाॅं हुआ था।
सवाल यह है कि इतनी दूर-दराज से लोग सतलोक आश्रम में कैसे पहुॅंचे? ऐसा भी नहीं है कि रेडियो, टेलीविजन और अखबारों में उन्हें बुलाने का कोई विज्ञापन निकला हो। फिर इतनी बड़ी संख्या में लोग वहाॅं कैसे पहुॅंच गए? इसी तन्त्र को जनता को समझना है, क्योंकि इसी तन्त्र से इतनी बड़ी संख्या में लोग इन सन्तों के आश्रमों में पहुॅंचते हैं या पहुॅंचाए जाते हैं। इस काम के लिए ये सन्त अपने एजेण्ट नियुक्त करते हैं, जो गरीब और पिछड़े इलाकों में परेशान लोगों को बाबा के चमत्कारी किस्से सुनाकर उन्हें ऐसा बाॅंधते हैं कि वे गरीब उनके जाल में फॅंस जाते हैं। ऐसे ही फॅंसे हुए लोग तथाकथित सन्त रामपाल के सतलोक आश्रम में बन्द थे, जो पुलिस के आपरेशन से मुक्त होकर अपने घर पहुॅंचे थे। अब वे समझ गए कि ये कैसा भगवान कि पुलिस पकड़ कर ले गई? अगर उनमें कुछ भी भगवान का सत् होता, तो पुलिस भस्म नहीं हो जाती?
क्या जनता का शोषण करने वाले इन तथाकथित सन्तों से छुटकारा सम्भव है? शायद नहीं। जब तक धर्मभीरुता रहेगी, नए-नए भगवान पैदा होते ही रहेंगे। अगर देश में गरीबी और अशिक्षा बनी रहेगी, तो धर्मभीरुता भी बनी रहेगी। और पॅंूजीवाद से संचालित धर्मतन्त्र यही चाहता है कि भारत में गरीबी और अशिक्षा हमेशा बनी रहे।
(24 नवम्बर 2014)



गीता पर खतरनाक राजनीति
(कॅंवल भारती)
तवलीन सिंह वह पत्रकार हैं, जिन्होंने लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी के पक्ष में लगभग अन्धविश्वासी पत्रकारिता की थी। लेकिन अब वे भी मानती हैं कि मोदी सरकार ने जब से सत्ता सॅंभाली है, एक भूमिगत कट्टरपंथी हिन्दुत्व की लहर चल पड़ी है।उनकी यह टिप्पणी साध्वी निरंजन ज्योति के रामजादे-हरामजादेबयान पर आई है। लेकिन इससे कोई सबक लेने के बजाए यह भूमिगत हिन्दू एजेण्डा अब गीताके बहाने और भी खतरनाक साम्प्रदायिक लहर पैदा करने जा रहा है। मोदी सरकार की विदेश मन्त्री सुषमा स्वराज ने हिन्दू धर्म ग्रन्थ गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने की मांग की है। उन्होंने गीता की वकालत में यह भी कहा है कि मनोचिकित्सकों अपने मरीजों का तनाव दूर करने के लिए उन्हें दवाई की जगह गीता पढ़ने का परामर्श देना चाहिए। इससे भी खतरनाक बयान हरियाणा के मुख्यमन्त्री मनोहरलाल खटटर का है, जिन्होंने यह मांग की है कि गीता को संविधान से ऊपर माना जाना चाहिए। इसका साफ मतलब है कि खटटर भारतीय संविधान की जगह गीता को भारत का संविधान बनाना चाहते हैं।
दरअसल, मोदी के प्रधानमन्त्री बनते ही संघपरिवार का हिन्दुत्व ऐसी कुलांचे मार रहा है, जैसे उसके लिए भारत हिन्दू देश बन गया है और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत में पेशवा राज लौट आया है। शायद इसीलिए गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने की मांग करके संघपरिवार और भाजपा के नेता भारत को पाकिस्तान बनाना चाहते हैं। जिस तरह पाकिस्तान में कटटर पंथियों के दबाव में ईश-निन्दा कानून बनाया गया है, और उसके तहत अल्लाह और कुरान की निन्दा करने वालों के विरुद्ध फांसी तक की सजा का प्राविधान है, जिसके तहत न जाने कितने बेगुनाहों को वहां अब तक मारा जा चुका है। ठीक वही स्थिति भारत में भी पैदा हो सकती है, यदि कटटर हिन्दुत्व के दबाव में गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित कर दिया जाता है। शायद कटटरपंथी हिन्दू पाकस्तिान जैसे ही खतरनाक हालात भारत में भी पैदा करना चाहते हैं, क्योंकि गीता के राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित होने का मतलब है, जो भी गीता की निन्दा करेगा, वह राष्ट्र द्रोह करेगा और जेल जाएगा। इस साजिश के आसान शिकार सबसे ज्यादा दलित और आदिवासी होंगे, क्योंकि ये दोनों समुदाय गीता के समर्थक नहीं हैं। इसके तहत अन्य अल्पसंख्यक, जैसे मुस्लिम, ईसाई और सिख समुदाय भी हिन्दू कटटरपंथियों के निशाने पर रहेंगे। वैसे इस खतरनाक मुहिम की शुरुआत नरेन्द्र मोदी ने ही जापान के प्रधानमन्त्री को गीता की प्रति भेंट करके की थी।
सवाल यह भी गौरतलब है कि गीता में ऐसा क्या है, जिस पर आरएसएस और भाजपा के नेता इतने फिदा हैं कि उसे राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करना चाहते हैं? सुषमा जी कहती हैं कि उससे मानसिक तनाव दूर होता है। मानसिक तनाव तो हर धर्मग्रन्थ से दूर होता है। ईसाई और मुस्लिम धर्मगुरुओं की मानें, तो बाइबिल और कुरान से भी तनाव दूर होता है। सिखों के अनुसार गुरु ग्रन्थ साहेबके पाठ से भी तनाव दूर होता है। अगर तनाव दूर करने की विशेषता से ही गीता राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित होने योग्य है, तो बाइबिल, कुरान और गुरु ग्रन्थ साहेब को भी राष्ट्रीय ग्रन्थ क्यों नहीं घोषित किया जाना चाहिए। लेकिन, यहाँ यह तथ्य भी विचारणीय है कि बाइबिल, कुरान और गुरु ग्रन्थ साहेब में सामाजिक समानता का जो क्रान्तिकारी दर्शन है, क्या वैसा क्रन्तिकारी दर्शन गीता में है? क्या गीता के पैरोकार यह नहीं जानते हैं कि गीता में वर्णव्यवस्था और जातिभेद का समर्थन किया गया है और उसे ईश्वरीय व्यवस्था कहा गया है? यदि गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ बनाया जाता है, तो क्या वर्णव्यवस्था और जातिभेद भी भारत की स्वतः ही राष्ट्रीय व्यवस्था नहीं हो जाएगी? क्या आरएसएस और भाजपा के नेता इसी हिन्दू राष्ट्र को साकार करना चाहते हैं, तो उन्हें समझ लेना चाहिए कि भारत में लोकतन्त्र है और जनता ऐसा हरगिज नहीं होने देगी।
यह भी कहा जा रहा है कि भाजपा के नेताओं का गीता-शिगूफा यादव समाज को, जो अपने को कृष्ण का वंशज मानता है, भाजपा के पक्ष में धु्रवीकृत करने की सुनियोजित राजनीति है। उत्तर प्रदेश और बिहार में यादवों की काफी बड़ी संख्या है, जो वर्तमान राजनीति में मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव के वोट बैंक बने हुए हैं। लेकिन आरएसएस और भाजपा के नेता प्रतीकों की जिस राजनीति में अभी भी जी रहे हैं, उसका युग कब का विदा हो चुका है। आज की हिन्दू जनता 1990 के समय की नहीं है, जो थी भी, उसमें भी समय के साथ काफी परिवर्तन आया है। कुछ मुट्ठीभर कटटरपंथियों को छोड़ दें, तो आज के समाज की मुख्य समस्या शिक्षा, रोजगार और मूलभूत सुविधाओं की है, मन्दिर और गीता-रामायण की नहीं है। अतः यदि भाजपा गीता के सहारे यादव समाज को लक्ष्य बना रही है, तो उसे सफलता मिलने वाली नहीं है।
(8 दिसम्बर 2014)


मंगलवार, 18 नवंबर 2014




15 नवम्बर 2014 को कथाक्रम-2014’ लखनऊ  में मेरे जिस वक्तव्य पर बवाल मचा था, मैं उसे यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ. मेरे आलेख का शीर्षक था--
वे हमें जातिवादी कहते हैं
(कॅंवल भारती)
                एक लम्बे अरसे के बाद मैं कथाक्रम-2014’ में आया हूॅं। जब पहली बार सम्भवतः सन् 2000 में मैं इस मंच से बोला था, तो मुझे अभी तक याद है, मेरे एक मित्र ने दिल्ली में मुझसे कहा था, ‘कथाक्रममें तो आप दहाड़ रहे थे। अब जब हमारा बोलना भी लोगों को दहाड़ना लगता है, तो इससे आप समझ सकते हैं कि हमारी आलोचना को किस रूप में लिया जाता है। इसलिए मैं ऐसी संगोष्ठियों में जाने से बचने की कोशिश करता हूॅं। मैंने बहुत से सेमीनारों में भाग लिया है और इस नतीजे पर पहुॅंचा हॅंू कि एक-दो दलित लेखकों को सिर्फ सन्तुलन के लिए बुला लिया जाता है, बाकी तो उद्घाटन से लेकर समापन तक का सारा अनुष्ठान दूसरे ही लोग सम्पन्न करते हैं। इसका साफ मतलब है कि गैर-दलित लेखकों की नजर में हम सिर्फ सन्तुलन के लिए हैं। वे दलित आलोचना को हिन्दी आलोचना के विकास के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। हम जब दलित के पक्ष की बात करते हैं, या डा. आंबेडकर की बात करते हैं, या ज्योतिबा फूले की बात करते हैं, तो वे हमें जातिवादी कहते हैं और सीधे हमें साहित्य से उठाकर राजनीति में पटक देते हैं। और तब हमारी आलोचना उनकी नजर में एक विमर्श से ज्यादा अहमियत नहीं रखती। हम बताना चाहते हैं कि हमारी आलोचना विमर्श नहीं है, बल्कि आलोचना की तीसरी धारा है, जैसे दूसरी धारा प्रगतिवादी या माक्र्सवादी है। दरअसल, अभी तक हिन्दी साहित्य में जितनी भी धाराएॅं चली हैं- जैसे नई कविता, नई कहानी, छायावाद, प्रयोगवाद, प्रगतिवाद, जनवाद, माक्र्सवाद आदि, वे सब की सब ब्राह्मणों के बीच से ही निकली हैं। इसलिए उन्होंने उन सारी धाराओं को स्वीकार किया। पर उन्होंने कभी यह सपने में भी नहीं सोचा था कि साहित्य की कोई धारा उनके बाहर से भी फूट सकती है। इसलिए वे दलित साहित्य की धारा को साहित्य की धारा नहीं मानते हैं। भले ही वे न मानें, पर मैं बताना चाहता हूॅं कि दलित आलोचना हिन्दी आलोचना को हिन्दुत्व के फोल्ड से बाहर निकालने की कोशिश कर रही है, जिसमें प्रगतिशील आलोचना भी फॅंसी हुई है।
दलित चिन्तन की दृष्टि में हिन्दी साहित्य का इतिहास और हिन्दी आलोचना दोनों ही जातिवादी हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास में सिर्फ तीन कहानियाॅं लिखने वाले ब्राह्मण लेखक का नाम मिल जाएगा। लेकिन दर्जनों पुस्तकें लिखने वाले किसी भी दलित लेखक का नाम नहीं मिलेगा। मैं हीरा डोम की बात नहीं करता, जिन पर एक दूसरी ही बहस छेड़ दी गई है। पर, मैं स्वामी अछूतानन्द हरिहरकी बात जरूर करुॅंगा, जो कवि और नाटककार के साथ-साथ एक मासिक पत्र के सम्पादक भी थे। पर, हिन्दी साहित्य के इतिहास में उनका कोई जिक्र नहीं है। कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकरअपनी किताब में उनको नकली स्वामी कहकर उनका गन्दा मजाक उड़ा सकते हैं, गणेश शंकर विद्यार्थी प्रतापमें उनके विरोध में लेख लिख सकते हैं, पर हिन्दी साहित्य के इतिहासकार उन्हें इतिहास में स्थान नहीं देते। क्योंकि उनकी नजर में वे जातिवादी थे, दलित की बात करते थे, दलितों पर लिखते थे। पर, दलितों पर लिखने वाले उन्हीं के समकालीन प्रेमचन्द उनके लिए महान लेखक थे, वे उनके लिए जातिवादी नहीं हैं, वे इतिहास में प्रगतिशील लेखक के रूप में दर्ज हैं। चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु, जिन्होंने 40, 50 और 60 के दशकों में 100 से भी ज्यादा पुस्तकें लिखकर हिन्दी बेल्ट में ब्राह्मणवाद के खिलाफ दलित वर्गों में क्रान्ति का बिगुल बजाया था, उनका नाम हिन्दी साहित्य के इतिहास में नहीं मिलेगा। पर उन्हीं के समकालीन वेद-विरोधी राहुल सांकृत्यायन का नाम मिल जाएगा, क्योंकि वे ब्राह्मण थे। जिस तरह वैदिकी हिन्सा हिन्सा नहीं कहलाती है, उसी तरह ब्राह्मण का ब्राह्मण-विरोध भी विरोध नहीं कहलाता है। उन्हें राहुल सांकृत्यायन स्वीकार्य हैं, पर चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु स्वीकार्य नहीं हैं, क्योंकि वे ब्राह्मण नहीं हैं। इसलिए मैं कहता हूॅं कि हिन्दी साहित्य का इतिहास और आलोचना दोनों ही जातिवादी हैं।
                अभी मैं मैनेजर पाण्डेय का एक इण्टरव्यू पढ़ रहा था लहकमें। धर्मवीर यादव और संजीव चंदन ने उनसे बातचीत की है। मैनेजर पाण्डेय कहते हैं कि दलित दृष्टि असहमति को बर्दाश्त नहीं कर सकती। पर, मैं बताना चाहता हूॅं कि ब्राह्मण दृष्टि असहमति को बर्दाश्त नहीं करती है। दलित बेचारों की हैसियत ही क्या है, जो असहमति को बर्दाश्त नहीं करेंगे? उनके हाथ में है क्या, जो वे कुछ कर लेंगे? अभी तक तो सारा व्यवस्था और नियामन ब्राह्मणों के ही हाथों में है। विश्वविद्यालयों में भी अभी उन्हीं का बोलबाला है। अब संघपरिवार की सरकार है, तो यह वर्चस्व और भी बढ़ेगा। काॅंग्रेस सरकार में यूजीसी पैसा देती थी, तो विश्वविद्यालय दलित साहित्य पर सेमिनार करा लेते थे। अब वह सब बन्द हो जाएॅंगे। अब देखते हैं, कितने विश्वविद्यालय दलित साहित्य पर सेमिनार कराते हैं? दलित साहित्य और दलितों के अब बहुत बुरे दिन आने वाले हैं। ओबीसी के लिए फिर भी दरवाजे खुले हुए हैं, हिन्दी के सरकारी संस्थान उन्हें सम्मान-पुरुस्कार दे देते हैं। पर दलितों के लिए वहाॅं भी दरवाजे बन्द होते जा रहे हैं। इसका कारण है कि ओबीसी ब्राह्मणवाद के लिए उतना बड़ा खतरा नहीं है, जितना बड़ा खतरा दलित वर्ग है। मोदी खुद पिछड़े वर्ग से आते हैं, पर परम हिन्दू-भक्त हैं।
                मैनेजर पाण्डेय कहते हैं कि दलित दृष्टि की सीमा यह है कि वह अपने प्रति असहमति को बर्दाश्त नहीं कर सकती।लेकिन वे इसी इण्टरव्यू में दलित लेखक डा. धर्मवीर के बारे में कहते हैं कि जब धर्मवीर ने उनके बारे में कुछ लिखा, तो उन्होंने धर्मवीर को पढ़ना छोड़ दिया। अब बताइए कि असहमति कौन बर्दाश्त नहीं कर रहा है? मैनेजर पाण्डेय के इसी साक्षात्कार से असहमति का एक और उदाहरण लेते हैं। वे कहते हैं, उन्होंने धर्मवीर की पुस्तक कबीर के आलोचकको दलित विमर्श की पुस्तक कहा था, इस पर धर्मवीर नाराज हो गए और कुछ दिन बाद राष्ट्रीय सहारा में श्यौराजसिंह बेचैन ने लेख लिखकर कहा कि आखिर मैनेजर पाण्डेय का पांडित्य प्रगट हो ही गया। अब क्या इसके बाद संवाद की कोई गुंजाइश बचती है क्या?’ इससे क्या जाहिर होता है? क्या मैनेजर पाण्डेय अपनी ही सीमा नहीं बता रहे हैं? आखिर संवाद की गुंजाइश खत्म होने का मतलब क्या है? आप संवाद कहाॅं कर रहे हैं? आप तो फैसला सुना रहे हैं? आप आलोचना की पुस्तक को विमर्श की पुस्तक कहकर फैसला ही दे रहे हैं। श्यौराजसिंह क्या गलत कह रहे थे? यह मैनेजर पाण्डेय का पांडित्य ही तो है, जो उन्होंने आलोचना को विमर्श बता दिया? यह कौन सा सिद्धान्त है कि मैनेजर पाण्डेय जो व्याख्या करें, वह आलोचना है और जो व्याख्या दलित लेखक करे, वह विमर्श है? अगर मैं कहूॅं कि मैनेजर पाण्डेय का सारा आलोचनात्मक साहित्य विमर्श का साहित्य है, वह आलोचना है ही नहीं, तो तो क्या वे मानेंगे?                धर्मवीर यादव और संजीव चंदन ने डा. मैनेजर पाण्डेय से एक सवाल हजारीप्रसाद द्विवेदी पर पूछा था। उन्होंने पूछा था कि क्या हजारीप्रसाद द्विवेदी की कबीर पर जो आलोचना है, उसे इस तरह देखा जाए कि आचार्य शुक्ल पर उनका ब्राह्मणवाद अधिक हावी था, कबीर द्विवेदी जी की आलोचना-दृष्टि का एक शिफ्ट है?’ इस सवाल के उत्तर में डा. पाण्डेय कहते हैं- रामचन्द्र शुक्ल को ब्राह्मणवादी कहना दलित दृष्टि से साहित्य पर विचार करना है। अगर आचार्य शुक्ल ब्राह्मणवादी थे, तो जिस जायसी का हिन्दी में कहीं नाम नहीं था, उसकी सम्पूर्ण ग्रन्थावली को 200 पृष्ठों की भूमिका के साथ क्यों प्रकाशित करवाते? इसलिए यह कहना मुझे उचित नहीं जान पड़ता कि शुक्ल जी ब्राह्मणवादी थे।यह है वर्गीय आलोचना का फर्क। ब्राह्मण आलोचक को आचार्य शुक्ल ब्राह्मणवादी नजर नहीं आते हैं, पर दलित आलोचकों को वे ब्राह्मणवादी ही नजर आते हैं। हिन्दी आलोचना किन्तु-परन्तु से आगे नहीं बढ़ी है। वह सवाल नहीं उठाती है। वह खण्डन नहीं करती है। वह इतिहास की गहराई में नहीं जाती है, क्योंकि इतिहास से अनभिज्ञ है। इसीलिए उन्हें शुक्ल जी ब्राह्मणवादी नजर नहीं आते हैं। शुक्ल जी जब ब्राह्मणवादी नहीं थे तो जाहिर है कि वह पाण्डेय जी की नजर में मानववादी या प्रगतिवादी थे। वे इसका प्रमाण भी देते हंै कि उन्होंने जायसी ग्रन्थावली का सम्पादन किया था। लेकिन हकीकत यह है कि रामचन्द्र शुक्ल को जायसी इसलिए पसन्द थे, क्योंकि जायसी ने तुलसीदास की तरह ही राजा-रानियों के मिथकों पर काव्य-रचना की है और वेद-ब्राह्मण के चरणों में शीश नवाया है। शुक्ल जी ने खुद अपनी भूमिका में लिखा है कि जो वेद के मार्ग पर नहीं चलता है, उसे जायसी अच्छा नहीं समझते। जायसी की वेदों में आस्था थी, इसलिए वह शुक्ल जी को प्रिय थे। पर उन्हें कबीर प्रिय नहीं थे, क्योंकि वह वेद, पुराण और ब्राह्मण तीनों को नकारते थे। अगर मैनेजर पाण्डेय को शुक्ल जी का यह ब्राह्मणवाद दिखाई नहीं देता, तो इसीलिए कि वर्गीय चेतना से वे ग्रस्त हैं।
                मैं हिन्दी के मूर्धन्य आलोचकों से, चाहे वे नामवर सिंह हों, मैनेजर पाण्डेय हों, पूछना चाहता हूॅं कि जब वे आलोचना की दूसरी परम्परा चला सकते हैं, तो हम तीसरी परम्परा क्यों नहीं चला सकते? हमारी पहली-दूसरी दोनों परम्परा की आलोचना से तमाम असहमतियाॅं हैं, जिन्हें हमने अपनी आलोचना में बाकायदा दर्ज किया है, हमने अपनी आलोचना को इतिहास से जोड़ा है, जबकि पहली-दूसरी परम्परा के आलोचक इतिहास की तरफ पीठ किए हुए खड़े हैं। मैं इसका उदाहरण कबीर की आलोचना से देता हूॅं। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने कबीर को वेदान्ती, वैष्णवी और रामानन्द का शिष्य सिद्ध करने में हर साधन अपनाया है, जो इतिहास से परे है। इसलिए दलित आलोचक उनसे सहमत नहीं हंै। मेरी जानकारी में रामानन्द को कबीर का गुरु बताए जाने का पहला खण्डन 1942 में डा. राकेश गुप्त ने सम्मेलन पत्रिकामें लेख लिखकर किया था। उन्होंने आचार्य शुक्ल और अयोध्या सिंह हरिऔध की मान्यताओं का जोरदार खण्डन इस लेख में किया था। उस समय तक द्विवेदी जी की कबीर नहीं आई थी। तब किसी हिन्दी आलोचक ने न उसे विमर्श कहा था और न उसका विरोध किया था। शायद वह आलोचना उनके वर्ग के भीतर से आई थी। पर जब दलित आलोचक डा. धर्मवीर ने इस पर विस्तार से काम किया और कबीर के ब्राह्मण आलोचकों की इतिहास-विरोधी एवं तथ्य-विरोधी आलोचना की चिन्दी-चिन्दी कर दी, तो हल्ला मच गया। उन्हें ब्राह्मणवाद का किला, जिसे बड़े परिश्रम से द्विवेदी जी ने बनाकर खड़ा किया था, ढहता हुआ नजर आने लगा। तब साहित्य की ब्राह्मणवादी लाबी ने दो काम किए। पहला दलित आलोचना को दलित विमर्श कहना शुरु किया और दूसरा, उस लाबी ने मोटी रकम देकर द्विवेदी जीे के मण्डन में और धर्मवीर के खण्डन में काम करने के लिए डा. पुरुषोत्तम अग्रवाल को तैयार किया। उन्होंने डा. पुरुषोत्तम अग्रवाल को इसलिए यह काम सौंपा, क्योंकि वह ब्राह्मण नहीं हैं। जब डा. पुरुषोत्तम अग्रवाल ने मिथकीय और अर्नगल प्रलाप के साथ अकथ कहानी प्रेम कीलिखकर हजारीप्रसाद द्विवेदी की ही लाइन पर, बल्कि उससे भी बढ़कर कबीर को वेदान्ती, वैष्णवभक्त और रामानन्द का शिष्य घोषित कर दिया, तो तुरन्त ब्राह्मणवादी लाबी ने उसे विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में लगा दिया। एक सीधा सा तर्क इन आलोचकों की समझ में नहीं आता कि जो कबीर वेदविरोधी थे, पुराणविरोधी थे, ब्राह्मणविरोधी थे और सगुणविरोधी थे, वे वेदान्ती, वैष्णवी और रामानन्दी कैसे हो सकते हैं? वे रामानन्द के ऐसे शिष्य को, जो रामानन्द की वेद-वेदान्त, वर्णव्यवस्था और वैष्णवी आस्थाओं का खण्डन कर रहा था, रामानन्द का जबरदस्ती शिष्य क्यों बनाने पर तुले हैं?
                मैं बहुत ज्यादा न कहकर, अन्त में हिन्दी आलोचकों से कहना चाहता हूॅं कि दलित आलोचना के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण मत अपनाइए। ये दोहरे-तीहरे मापदण्ड साहित्य का विकास रोक रहे हैं। यह कहना कि दलित लेखकों के साथ संवाद की गुंजाइश नहीं है, आपके अहंकार को दर्शाता है। आप कहना चाहते हैं कि साहित्य में सिर्फ आप ही नियामक-नियन्ता हैं, हम केवल आपको फालो करें, तो यह अब नहीं चलेगा। 
(13 नवम्बर 2014)










   

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

डा. तुलसीराम का पत्रकारिता-कर्म  
कॅंवल भारती
जिस समय डा. तुलसी राम ‘भारत अश्वघोष’ मासिक का संपादन कर रहे थे, लगभग उसी समय मेरे संपादन में ‘माझी जनता’ साप्ताहिक के संपादन की योजना बन रही थी। संयोग यह भी देखिए कि जिस नागपुर से ‘भारत अश्वघोष’ का प्रकाशन हो रहा था, उसी नागपुर से ‘माझी जनता’ का भी प्रकाशन हो रहा था। अन्तर सिर्फ यह था कि जहाॅं ‘भारत अश्वघोष’ के प्रकाशक-मुद्रक दिलीप मेन्ढे थे, वहाॅं ‘माझी जनता’ के प्रकाशक-मुद्रक शालिग्राम ढोरे थे। ‘भारत अश्वघोष’ का जीवन भी ज्यादा नहीं रहा और ‘माझी जनता’ का भी। ‘भारत अश्वघोष’ का प्रवेशांक जून 1997 में आया और अन्तिम अंक नवम्बर-दिसम्बर 1999 में। ‘माझी जनता’ का प्रवेशांक 28 मई 2000 को निकला और अन्तिम अंक 15 जनवरी 2001 को। अनेक अपरिहार्य कारणों से वह आगे नहीं चल सका, हालांकि पाठकों ने ‘माझी जनता’ को ‘भारत अश्वघोष’ के विकल्प के रूप में देखा था।
‘भारत अश्वघोष’ को संपादक के रूप में डा. तुलसी राम जैसा अद्वितीय विद्वान मिला था, जिनका हिन्दी दलित साहित्य में भी महत्वपूर्ण स्थान है। यह उन्हीं के योग्य संपादन का परिणाम था कि ‘भारत अश्वघोष’ अपने पहले अंक से ही लोकप्रिय हो गया। अगर वह बन्द नहीं हुआ होता, तो आज वह दलित-बौद्ध साहित्य और राजनीति-विमर्श का प्रमुख पत्र होता। फिर भी उसने अपने अल्प समय में इस क्षेत्र में जितना महत्वपूर्ण योगदान दिया, उसे दलित-पत्रकारिता के इतिहास में सदैव स्मरण किया जाएगा।
‘भारत अश्वघोष’ का प्रवेशांक जून 1997 में प्रकाशित हुआ। यह राजनीतिक दृष्टि से वह समय था, जब उत्तर प्रदेश में कांशीराम का बहुजन आन्दोलन अपने चरम पर था और भाजपा से मिलकर मायावती दूसरी बार छह महीने के लिए प्रदेश की मुख्यमंत्री बन गईं थीं। यह एक अनमेल गठबन्धन था, जिसके समर्थन में दलित जनता भी नहीं थी और न कांशीराम के तर्क उसकी समझ में आ रहे थे। इस पर भी भाजपा के प्रति कांशीराम की भाषा आक्रामक थी, शायद दलितों को प्रभावित करने के लिए। यह एक ऐसी राजनीतिक रस्साकसी थी, जिसका कोई अन्त दिखाई नहीं दे रहा था। कांशीराम ने अपनी एक अलग शब्दावली तैयार की हुई थी, जिसमें से वे भाजपा, काॅंग्रेस, जनता दल, कम्युनिस्टों और समाजवादियों आदि के लिए अनेक तरह के शब्द निकालकर संबोधन करते रहते थे। इसी में एक शब्द ‘कोबरा’ था, जिसे उन्होंने भाजपा के लिए प्रयुक्त किया था। डा. तुलसी राम ने ‘भारत अश्वघोष’ के प्रवेशांक में अपनी पहली संपादकीय टिप्पणी कांशीराम के इसी ‘कोबरा’ सम्बोधन पर लिखी थी। इस टिप्पणी का शीर्षक भी उन्होंने ‘कोबरा’ रखा। इस संपादीिय में उन्होंने कोबरा के बहाने उस दौर की सम्पूर्ण दलित राजनीति पर चर्चा की है। उन्होंने बसपा और भाजपा के गठबंधन का समर्थन तो नहीं किया है, पर मायावती को रोकने वाली राजनीतिक परिस्थितियों पर उनकी टिप्पणी बहुत सटीक है। वे लिखते हैं-
‘उत्तर प्रदेश में आम चुनाव के बावजूद किसी पार्टी या गठबंधन का बहुमत न होने की स्थिति में 5 महीने तक किसी की सरकार नहीं बन पाई थी। पिछड़े वर्ग के तथाकथित मसीहा मुलायमसिंह यादव तथा सर्वहारा वर्ग के मसीहा सरदार हरकिशन सिंह सुरजीत, दोनों ही एक साथ मिलकर इस बात पर अड़े हुए थे कि वे किसी भी कीमत पर मायावती को सरकार नहीं बनाने देंगे। दोनों का आरोप था कि बहुजन समाज पार्टी तथा उसके नेता कांशीराम सब के सब जातिवादी हैं, अर्थात् दलितों के हिमायती। यह एक अजीब बात है कि दलितों का हिमायती होना कैसे जातिवादी हो जाता है? जो दलित सदियों से जातिवाद तथा छुआछूत की चक्की में पिसते रहे और जब उन्होंने इन बुराइयों के खिलाफ स्वयं आवाज उठाना शुरु कर दिया, तो वे रातों-रात जातिवादी हो गए।’
इन शब्दों से वे न सिर्फ मण्डलवादियों और माक्र्सवादियों की तथाकथित प्रगतिशील छवि को तोड़ते हंै, बल्कि उन्हें दलितों के विरुद्ध मोर्चा खोलने वाले के रूप में भी रेखांकित करते हैं। वे बिना लाग-लपेट कर लिखते हैं कि ‘जब से मण्डल कमीशन लागू हुआ है, पिछड़ी जातियों के नेताओं ने सबसे अधिक खुलकर दलितों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया है।’ इस संबंध में उनका मत कि ‘जहाॅं कहीं भी पिछड़ी जातियों का राजनीति में वर्चस्व हुआ है, वहाॅं दलित राजनीति लगभग गायब हो गई या गायब कर दी गई।’ वे ‘इसका सबसे बड़ा उदाहरण दक्षिण भारत’ को बताते है। तुलसीराम जी की चिन्ताएॅं बसपा-भाजपा-गठबंधन पर भी व्यक्त हुई हैं। वे इस गठबंधन में संघपरिवार के एक बड़े लक्ष्य को देख रहे थे, जो अगले लोकसभा चुनावों में बीएसपी के साथ मिलकर चुनाव लड़कर केन्द्र में सत्ता हथियाकर अपने हिन्दुत्व को लागू करने के लिए भारतीय संविधान में तोड़-फोड़ करना चाहती थी। उन्होंने इस बात पर भी चिन्ता प्रकट की कि बसपा ने पूर्वी दिल्ली लोकसभा तथा फर्रुखाबाद के विधान सभा चुनावों में ‘कोबरा’ को जिताकर आगामी राजनीति के लिए आत्मघाती कदम उठाया है। इस संपादकीय का अंत बहुत ही रोचक और प्रभावी है। वे लिखते हैं कि वर्तमान में दलित मेढक के बच्चे नहीं रहे, ‘किन्तु हर सवर्ण जब तक सवर्ण होने का दावा करता रहेगा, वह कोबरा ही कहलाएगा। कोबरा को बीन की धुन पर सिर्फ मदारी नचाता है। अब देखना यह है कि कांशीराम अपने कोबरा को कब तक नचाते रहेंगे।’ तुलसीराम जी का यह सवाल सचमुच गौर तलब है, क्योंकि आज हम साफ-साफ देख सकते हैं कि किस तरह कोबरा ने मायावती को कहीं का नहीं छोड़ा है।
निःसन्देह, यह दशक दलित राजनीति के लिए बहुत ज्यादा उथल-पुथल भरा था। मण्डल कमीशन की रिपोर्ट को लागू कराने की जिस लड़ाई को दलितों ने अपने कंधों पर जीता था और अपना खून बहाया था, बाद में उसके हीरो उत्तर प्रदेश में मुलायमसिंह यादव और बिहार में लालूप्रसाद यादव बन बैठे थे। मुलायमसिंह यादव की पार्टी उत्तर प्रदेश में तो सत्ता से बाहर हो गई थी, पर केन्द्र में वे यूनाइटेड फ्रन्ट में शामिल होकर आई. के. गुजराल की सरकार में रक्षा मंत्री बन गए थे। यही समय था, जब उन्होंने डा. आंबेडकर और दलित जातियों के खिलाफ अनाप-शनाप जहरीले बयान देने शुरु कर दिए थे। वे दलित-विरोध में अंधे होकर यहाॅं तक दुष्प्रचार करने लगे थे कि अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारक कानून, जिसे वे ‘हरिजन ऐक्ट’ कहते थे, सवर्णों का उत्पीड़न कर रहा है, और उसे खत्म करने की जरूरत है। डा. तुलसीराम ने ‘भारत अश्वघोष’ के जुलाई-अगस्त 1997 के अंक में अपने संपादकीय में मुलायमसिंह यादव की इस दलित-विरोधी राजनीति की अच्छी खबर ली है। इस संपादकीय का शीर्षक भी जोरदार है- ‘मुसोलिनी सिंह यादव।’ वे इस संपादकीय के आरम्भ में ही लिखते हैं, ‘हमारे देश के रक्षा मंत्री का अब यही नाम है। जिस तरह प्रथम विश्वयुद्ध की विभीषिका के बाद इटली में मुसोलिनी ने जातीय गौरव का गुणगान तथा सबको खुश रखने का वादा करके फासिस्ट व्यवस्था लागू की, अब उसी भूमिका में मुसोलिनी सिंह यादव उतर आए हैं। नाम के साथ ही इन्होंने अपना काम भी बदल लिया है। देश की रक्षा के बारे में सोचना बन्द करके अब वे दलितों की सुरक्षा के लिए बनाए गए कानून को कैसे और कितना जल्दी खत्म कर दिया जाए, के बारे में रात भर सोचते हैं और दिन भर उसी का प्रचार करते रहते हैं।’
मुलायम सिंह यादव का यह मायावती-फोबिया था, जिसने उन्हें दलित-विरोधी बना दिया था। किन्तु तुलसीराम जी ने उनके इस दुष्प्रचार की आंकड़ों के साथ कलई खोली। उन्होंने लिखा कि ‘इस समय पूरे देश की जेलों में 51 हजार सजा-प्राप्त कैदी हैं, जिनमें से एक भी कैदी अनुसूचित जाति-जनजाति उत्पीड़न निवारक कानून के तहत सजा नहीं पाया है, तो फिर सिर्फ मध्य तथा पश्चिम यू.पी. में हजारों-हजार सवर्ण-उत्पीड़न के मामले कहाॅं से टपक पड़े? ये मामले उनकी दलित-विरोधी मानसिकता की देन हैं।’
उत्तर प्रदेश में कांशीराम और भाजपा का घमासान और भी तेज हो गया था। कांशीराम ने भाजपा के लिए अपने शब्दकोश से एक और शब्द ‘महागिद्ध’ निकालकर प्रयोग कर दिया था। यह एक अजीब राजनीतिक परिस्थिति थी, जिसमें गठबंधन और संघर्ष साथ-साथ चल रहे थे। सितम्बर-अक्तूबर 1997 के अंक में तुलसीराम जी का ‘महागिद्ध जटायू’ शीर्षक संपादकीय इसी परिस्थिति पर है। वे सत्ता-संघर्ष के हिसाब से इस शब्द को काफी तर्क-संगत मानते हैं। एक संस्कृत श्लोक का संदर्भ देते हुए वे लिखते हैं कि ‘गिद्ध जितना ही ऊॅंचाई से उड़ता है, उसे धरती उतनी ही साफ दिखाई देती है।’ पर उसे हरी-हरी फसलें और घाटियाॅं न दिखाई देकर मरे हुए आदमी या जानवरों की लाशें दिखाई देती हैं।’ लेकिन भाजपा को ‘लाशें बाद में, मस्जिदें पहले दिखाई देंगी। उसे दिखाई देगा कहीं बाबरी का खण्डहर, तो कहीं मथुरा या काशी का ज्ञानवापी।’ समझौते के अनुसार मायावती को छह माह शासन करने के बाद भाजपा के कल्याण सिंह को कुर्सी सौंपनी थी। पर कांशीराम ने समझौते के विरुद्ध विधान सभा अध्यक्ष केशरीनाथ त्रिपाठी को हटाने की नई माॅंग भाजपा नेतृत्व के सामने रख दी। इस माॅंग के पीछे कांशीराम को अपने विधायकों का दल बदल कराने का भय था। यहाॅं तुलसीराम जी ने अच्छी चुटकी ली है कि ‘इस समय सारा भारत कांशीराम से डरता है, फिर स्वयं कांशीराम अपनी ही पार्टी के विधायकों से क्यों डर गए?’ वे लिखते हैं, ‘इसमें कोई शक नहीं कि कांशीराम देश की राजनीति में इस समय एक शक्तिशाली व्यक्तित्व के रूप में उभर चुके हैं, किन्तु ठीक इसके विपरीत अपनी पार्टी-राजनीति के सन्दर्भ में वे एक निहायत कमजोर व्यक्ति सिद्ध हुए हैं, अन्यथा पिछले वर्ष नवम्बर में वे बीएसपी के 67 विधायकों को चार महीने तक पार्टी दफ्तर में बन्द ताले के अन्दर कैदी जीवन बिताने पर क्यों मजबूर करते?’ कांशीराम बड़बोले ही साबित हुए। उनकी कोई शर्त नहीं मानी गई और मायावती को मुख्यमंत्री की कुर्सी कल्याण सिंह के लिए छोड़नी ही पड़ी। इस पूरे प्रकरण पर तुलसीराम जी ने अपने संपादकीय में बहुत ही सटीक टिप्पणी की है-
‘आधुनिक भारत में सवर्णों का दलित-प्रेम सिर्फ वोट के लिए होता है। इस प्रक्रिया में संघपरिवार का बीएसपी-प्रेम हिन्दुत्व को मजबूत बनाने के लिए है। दिल्ली वाली रैली में मायावती ने घोषणा की थी कि सत्ता एक ऐसी चाभी है, जिससे कोई भी द्वार खोला जा सकता है। यह कहकर उन्होंने संघपरिवार से अपने गठबंधन को न्यायोचित ठहराया है। यह बात सही है कि सत्ता कोई भी द्वार खोलने वाली चाभी है, किन्तु उससे कुछ द्वार खोलने के बाद उसे फिर से बन्द करने के लिए महागिद्ध को सौंप दी जाए, यह ‘एक कदम आगे और दो कदम पीछे’ जाने के बराबर है। यदि किसी भी हालत में दलितों के सहयोग से हिन्दुत्व की आक्रामक जड़ें मजबूत होती हैं, तो यह दलित राजनीति के अन्त होने की शुरुआत होगी।’
यह संपादकीय जिन पंक्तियों से समाप्त होता है, वह आज के सन्दर्भ में महाविस्फोटक है। वे पंक्तियाॅं हैं, ‘कहा जाता है कि किसी पेड़ को सूखा-सड़ा तब मानिए, जब उसपर गिद्ध बैठ जाए। उत्तर प्रदेश की सत्ता रूपी पेड़ पर कांशीराम के ही शब्दों में एक ‘महागिद्ध’ फिर से बैठ चुका है, जो उड़कर दिल्ली पर भी बैठना चाहता है। यदि ऐसा हुआ तो उस ठूठें पेड़ की तरह इस देश के सूख जाने का ही इन्तजार करना पड़ेगा।’ आज कितना जल्दी यह परिस्थिति पैदा हो गई!
आज यदि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा केन्द्र में काबिज है तो इसका काफी हद तक श्रेय कांशीराम और मायावती को ही जाता है, जिन्होंने भाजपा से बार-बार गठबन्धन करके आक्रामक हिन्दुत्व को मजबूत किया और जनता का विश्वास खोया। दलित राजनीति के इतिहास में बसपा का उल्लेख हमेशा एक ऐसी पार्टी के रूप में किया जाएगा, जिसने शार्टकट रास्ते से सत्ता हासिल करने के लिए अपने बनाए सिद्धान्तों को खुद ही तोड़ा। सत्ता के लोभ में ये दोनों दलित नेता उलटी खोपड़ी के साबित हुए, जिन्होंने जिनसे संघर्ष करना चाहिए था, उनसे हाथ मिलाया और जिनसे हाथ मिलाना चाहिए था, उनसे संघर्ष किया। प्रोफेसर तुलसी राम ने नवम्बर-दिसम्बर 1997 के अंक में ‘विभीषण राज’ शीर्षक संपादकीय में बसपा की इसी आत्मघाती राजनीति पर प्रकाश डाला है। एक जगह वे बिल्कुल सही निष्कर्ष देते हैं कि ‘कांशीराम द्वारा स्थापित ‘बहुजन समाज’, जिसमें देश की आबादी का 85 प्रतिशत हिस्सा आता है, तथा जिनमें मुख्य रूप से दलित, पिछड़े और मुसलमान शामिल हैं, की अवधारणा लगभग पूरी तरह से ध्वस्त हो गई है।’ उत्तर प्रदेश में 21 सितम्बर 1997 को कल्याण सिंह को सत्ता सौंपने के एक महीने बाद ही मायावती ने राज्यपाल को समर्थन-वापसी का पत्र सौंप दिया। सरकार अल्पमत में आ गई, जिसे राज्यपाल ने 21 अक्टूबर को बहुमत साबित करने को कहा। इस पूरी कहानी पर प्रकाश डालते हुए तुलसीराम जी लिखते हैं कि मायावती ने अपने 67 विधायकों को पार्टी-दफ्तर में बन्द कर दिया। विश्वास-मत वाले दिन वे उन्हें 13 गाडि़यों में भरकर सदन में ले गईं। ‘वहाॅं बैठक शुरु होते ही घमासान युद्ध शुरु हो गया और अनेक विधायक बुरी तरह घायल हुए। मायावती ने किसी तरह भागकर अपनी जान बचाई। किन्तु उनकी पार्टी के 12 विधायक मार्कन्डे चन्द के नेतृत्व में बीजेपी खेमे में जा मिले।’ तुलसीराम जी लिखते हंै कि ‘सबसे हैरत की बात यह थी कि स्वयं कांशीराम के राजनीतिक सलाहकार चैधरी नरेन्द्र सिंह भी उनका साथ छोड़कर कल्याण के साथ चले गए।’ दरअसल कांशीराम-मायावती की सिद्धान्तहीनता ने यह स्थिति पैदा की थी। जब सत्ता के लिए वे किसी से भी हाथ मिला सकते थे, तो उसी सत्ता के लिए उनके विधायक क्यों नहीं किसी से हाथ मिला सकते? इस सन्दर्भ में तुलसीराम जी के संपादकीय की ये अन्तिम पंक्तियाॅं बहुत सुन्दर हैं-
‘बीजेपी के हिन्दुत्व पर तत्कालीन प्रधानमंत्री राव ने विश्वास किया और बाबरी मस्जिद ढह गई; कांशीराम ने विश्वास किया और बीएसपी टूट गई। दलितों का भविष्य में फिर कभी हिन्दुत्व से समझौता करना, दीमक लगी लकड़ी के दो खम्भों के बीच पर बॅंधी रस्सी पर चलना होगा। इतिहास बताता है कि हिन्दुत्व जिसे गले लगाता है, उसका गला दबा देता है। यह परिणति बौद्ध धम्म की भी हुई थी। अन्ततोगत्वा, संघपरिवार यह बात अब बार-बार दोहरा रहा है कि वह उत्तर प्रदेश जैसा ‘विभीषण राज’ पूरे देश में लागू करेगा। जाहिर है, संघपरिवार के लिए विभीषण अब विष्णु के ग्यारहवें अवतार हैं।’
हिन्दुत्व ने जिसका गला दबाया, उसका ताजा उदाहरण किसी समय आरपीआई के जुझारू नेता रहे संघप्रिय गौतम हैं, जो अब घर में पड़े हुए अपने अन्तिम दिन काट रहे हैं।
25 नवम्बर 1997 को भारत के चुनाव आयोग ने बहुजन समाज पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी घोषित किया। इस पर पार्टी को बधाई देते हुए तुलसीराम जी ने ‘भारत अश्वघोष’ के जनवरी-फरवरी 1998 के अंक में अपने संपादकीय में लिखा है कि ‘बीएसपी एक राष्ट्रीय पार्टी तो बन गई है, किन्तु इसके साथ ही इसके नेताओं की जिम्मेदारी और भी बढ़ गई है, क्योंकि इस राष्ट्रीय दरजे को हमेशा कायम रखना आवश्यक है। ऐसा तभी सम्भव है, जब दलित एकता को कायम रखते हुए उसका उपयोग सकारात्मक दिशा में किया जाए।’
इसी अंक में तुलसीराम जी ने एक और संपादकीय आलेख ‘कम्युनिस्टों का गैर-काॅंग्रेसी बुढ़ापा’ शीर्षक से लिखा है। इसमें उन्होंने भारत में कम्युनिस्ट राजनीति पर बहुत ही तीखे सवाल खड़े किए हैं। यह संपादकीय 1998 में होने वाले आम चुनावों के सन्दर्भ में है। तुलसीराम जी आरम्भ में ही एक महत्वपूर्ण सवाल उठाते हैं, लगभग सभी आम चुनावों में भारत की कम्युनिस्ट पार्टियाॅं ‘सम्प्रदायवाद’ का का मुद्दा उठाकर बीजेपी को परास्त करने का नारा देती रही हैं। (पर) इनका यह नारा हर बार उस समय थोथा साबित हो जाता है, जब ऐन मौके पर साम्प्रदायिकता की देवी बीजेपी को भूलकर ये पार्टियाॅं काॅंेग्रेस को ही दुश्मन नम्बर एक मानकर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आक्रामक हिन्दुत्व के पंजे को मजबूत करने से बाज नहीं आती।’ वे इस चुनाव में भी कम्युनिस्ट पार्टियों की इसी भूमिका को देख रहे थे। भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन का इतिहास क्रान्ति का इतिहास न होकर स्वार्थ की राजनीति का इतिहास ज्यादा है। तुलसीराम जी ने इस क्षुद्र राजनीति को पूरी शिद्दत से रेखांकित किया है। वे लिखते हैं कि 1925 में कानपुर में स्थापित कम्युनिस्ट पार्टी 1964 में रूसी-चीनी लाइन के बीच लटकते हुए दो टुकड़े हो गई। दूसरा टुकड़ा बना सीपीआईएम। पर 1969 में सशस्त्र क्रान्ति के सवाल पर इसमें से भी टूटकर एक और टुकड़ा सीपीआई-एमएल बन गया। इसके बाद जो फूट शुरु हुई, तो देखते ही देखते उसके 100 से भी ज्यादा टुकड़े हो गए। तुलसीराम जी सवाल उठाते हैं कि भारत की ये शताधिक कम्युनिस्ट पार्टियाॅं चाहतीं तो 100 से भी ज्यादा बार क्रान्तियाॅं कर चुकी होतीं। किन्तु ऐसा एक बार भी नहीं हुआ। इसके कारणों पर वे प्रकाश डालते हुए लिखते हैं-
‘भारत की कम्युनिस्ट पार्टियाॅं कभी भी एक सिद्धान्त पर सहमत नहीं हो पाईं। भारतीय राज्य क्या है, के बारे में सीपीआई कहती है कि यह ‘नेशनल बुर्जुवा स्टेट’ अर्थात राष्ट्रीय पूॅंजीपति का राज्य है; सीपीआईएम का कहना है कि यह ‘बुर्जुवा लैण्डलार्ड स्टेट’ अर्थात पूॅंजीवादी जमीन्दार का राज्य है तथा सीपीआईएमएल एवं अन्य नक्सलवादियों का मानना है कि यह ‘सेमी-कोलोेनियल’ तथा ‘सेमी-फ्यूडल स्टेट’ अर्थात अर्धउपनिवेशिक तथा अर्ध सामन्ती राज्य है। जिस देश में राज्य के चरित्र-चित्रण में ही कम्युनिस्टों के बीच इतने गम्भीर मतभेद हैं, वहाॅं क्रान्ति की बात कहाॅं तक और कैसे समझ में आवे?’
तुलसीराम जी इस संपादकीय में एक बहुत ही मार्के की बात यह कहते हैं कि ‘1975 में इन्दिरा गाॅंधी ने इमरजेन्सी घोषित करके जनतान्त्रिक अधिकारों पर रोक लगाई, जिसके कारण संजय गाॅंधी का राजनीतिक उदय होते ही काॅंग्रेस के पतन की शुरुआत हो गई। किन्तु इसका फायदा कम्युनिस्टों को न मिलकर साम्प्रदायिक शक्तियों को ही मिला।’ हम यह भी कह सकते हैं कि कम्युनिस्टों ने उन परिस्थितियों का फायदा उठाने की कोशिश ही नहीं की। मतलब साफ है कि कम्युनिस्ट पार्टियाॅं क्रान्ति करना तो दूर, वे धीरे-धीरे अपने को ही हाशिए पर ले जा रहीं थीं और भाजपा के लिए रास्ता साफ कर रहीं थीं। तुलसीराम जी कहते हैं कि कम्युनिस्टों ने क्षेत्रीयवाद से ग्रस्त होकर राजनीति की है, इसीलिए उन्होंने हाथ में ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने के अवसर को भी खो दिया था। वे अंत में लिखते हैं, ‘यदि क्षेत्रीय दलों के चंगुल से निकलकर कम्युनिस्ट पार्टियाॅं साम्प्रदायिक संघपरिवार को हराने के लिए गैर-काॅंग्रेसवाद की नीति को नहीं छोड़तीं, तो इस देश में फासिस्ट व्यवस्था लागू होने से कोई नहीं रोक सकता।’ यह भविष्यवाणी सच ही साबित होने जा रही है।
‘प्रेस-पुराण’ ‘भारत अश्वघोष’ के मार्च-अप्रैल 1998 के अंक का संपादकीय है, जिसमें से अगर अटलबिहारी वाजपेयी का नाम निकालकर आज के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम रख दिया जाए, तो यह आज भी प्रासंगिक है। यह संपादकीय दृश्य मीडिया की भूमिका पर सवाल खड़े करता है, जो उस समय अटलबिहारी वाजपेयी का उसी तरह अंधा गुणगान कर रहा था, जिस तरह आज वह मोदी का अंधा गुणगान कर रहा है। पुराण चूॅंकि मिथ्या गल्प हैं, इसलिए तुलसीराम जी ने प्रेस को उन्नीसवाॅं गल्प पुराण कहा है, ‘जो बाकी पुराने 18 पुराणों से कहीं ज्यादा खतरनाक भूमिका निभा रहा है।’ यह प्रेस-पुराण अटलबिहारी वाजपेयी को महान स्वतन्त्रता सेनानी और देश का सबसे योग्य व्यक्ति बताकर मिथक फैला रहा है, जबकि संपादकीय कहता है कि वाजपेयी ने स्वयं 1942 में कोर्ट में लिख का दिया था, कि ‘वह रात में आल्हा सुनने गए थे, जहाॅं कुछ क्रान्तिकारियों ने भीड़ को उकसाकर फारेस्ट विभाग की एक आफिस को तोड़ दिया था। किन्तु अपने बयान में उन्होंने महुवा तथा ककुवा का नाम लेकर कहा कि उन दोनों ने आफिस तोड़ने में हिस्सा लिया था। ककुवा आज भी जिन्दा है। उन्होंने साफ कहा है कि यदि अटलबिहारी वाजपेयी उस अंग्रेज कोर्ट में वैसा बयान नहीं देते, तो न तो उन्हें (ककुवा) को सजा होती, और न गाॅंव पर जुर्माना (पड़ता)।’ यही मिथक आज का प्रेस-पुराण नरेन्द्र मोदी के बारे में फैला रहा है और उनकी छवि देश के सबसे योग्य, सक्षम और मसीहा के रूप में गढ़ रहा है, जबकि हकीकत ठीक इसके विपरीत है।
1998 में केन्द्र में अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बन गई थी। 11 मई 1998 को उन्होंने बुद्ध-पूर्णिमा के दिन पोखरन के रेगिस्तान में तीन परमाणु बमों का परीक्षण किया था। वैज्ञानिकों ने इस अवसर पर कहा था, ‘बुद्ध मुस्कराए।’ उस समय मैंने अखबारों में लिखा था कि ‘बुद्ध कतई नहीं मुस्कराए थे।’ करुणा, मैत्री और अहिंसा के महामानव हिंसा के अस्त्र पर मुस्करा भी कैसे सकते थे? डा. तुलसीराम ने अपने मई-जून 1998 के संपादकीय ‘बुद्ध की मुस्कान पर हिन्दू बम’ में इस कृत्य को युद्धोन्माद भड़काने वाला महाविनाशक कहा है। वे एक जगह लिखते हैं, ‘ऐटम बम की सारी तैयारी इन्दिरा गाॅंधी से लेकर संयुक्त मोर्चा के प्रधानमंत्रियों तक ने की, किन्तु ( अटलबिहारी वाजपेयी ) अपने कार्यकाल में मात्र 40 दिन के भीतर उसका विस्फोटक कराकर अकेले ही सारा जश्न मनाने का वे आनन्द ले रहे हैं।’ पर वे इसे आरएसएस का गुप्त एजेण्डा बताते हुए लिखते हैं कि देश भर में गिरती छवि को बचाने और आगामी किसी भी चुनाव में ‘ऐटम बम का श्रेय और युद्धोन्माद भड़काकर विजय हासिल करके राष्ट्रपति प्रणाली वाली तानाशाही लादने के उद्देश्य से संघपरिवार ने बम-विस्फोट का यह घातक कदम उठाया है।’
यह सचमुच बहुत रोचक है कि जब भी भाजपा सत्ता में आती है, आरएसएस का हिन्दू एजेण्डा लागू होना शुरु हो जाता है। संघपरिवार के सभी संगठन अपने-अपने मिशन में सक्रिय हो जाते हैं। सरकार में उनके मंत्री हिन्दुत्व और संस्कृत पर मिथकीय वक्तव्य देना शुरु कर देते हैं। यही एजेण्डा आज भी चल रहा है और यही तब चल रहा था, जब अटलबिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। उस समय के मानव संसाधन यानी उच्च शिक्षा मंत्री डा. मुरलीमनोहर जोशी संस्कृत पर मिथकीय बयान दे रहे थे कि संस्कृत पूरे ब्रह्माण्ड की भाषा है। इसकी बहुत सही खबर तुलसीराम जी ने जुलाई-सितम्बर, 1998 के अंक में ली है। अपने ‘संस्कृत’ शीर्षक संपादकीय में उन्होंने इस मिथक का जबरदस्त खण्डन किया है कि संस्कृत सारे ब्रह्माण्ड की भाषा है। वे सप्रमाण कहते हैं कि पिछले साढ़े तीन हजार वर्ष के इतिहास में संस्कृत भारत में ही नहीं, विदेश में भी कभी किसी व्यक्ति की मातृभाषा नहीं थी। उन्होंने कहा कि ‘ब्रह्मसूत्र भाष्य’ के रचयिता आदि शंकराचार्य की मातृभाषा मलयालम थी, जिन्होंने अपनी सभी रचनाएॅं संस्कृत में लिखी थीं। उन्होंने लिखा कि शंकराचार्य से शास्त्रार्थ करने वाले मण्डन मिश्र की मातृभाषा भी संस्कृत नहीं थी, बल्कि ‘मैथिली’ थी। उनके अनुसार, याज्ञवलक्य की मातृभाषा ‘तमिल’, कौटिल्य की ‘पंजाबी’, तो मनुस्मृति के रचयिता मनु की मातृभाषा ‘राजस्थानी’ थी। उनका कहना है कि संस्कृत के किसी भी ग्रन्थकार की मातृभाषा संस्कृत नहीं थी। यह उतना ही कटु सत्य है, जितना यह कि आज के किसी भी भारतीय अंग्रेजी लेखक की मातृभाषा अंग्रेजी नहीं है। वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि ‘संस्कृत मूल रूप से मध्य एशिया से आए आर्यों की भाषा है, जिसे यहाॅं के ब्राह्मणों ने अपनाया तो जरूर, किन्तु यह कभी उनकी मातृभाषा नहीं बन सकी।’ तुलसीराम जी यह भी रहस्य उद्घाटित करते हैं कि ‘संघपरिवार के लोग जिन देवों के नाम पर संस्कृत को देववाणी कहते हैं, वे देव ईरान की एक खूंखार लड़ाकू कबीलाई जाति थी, जिसे वहाॅं ‘दीव’ कहा जाता था।’ उनके अनुसार, जब ईरान से आर्य यहाॅं आए, तो वे देव भी उनके साथ आ गए थे। इन्हीं देवों को आर्यों ने मिथकीय देवता का स्वरूप दे दिया था। इस सन्दर्भ में वे संघपरिवार के देशप्रेम पर सवाल उठाते हुए कहते हैं, ‘यदि आर्य भारत के मूल निवासी होते, तो यहाॅं की जनता पर वर्णव्यवस्था जैसी ईश्वर तथा धर्म-आधारित अमानुषिक शोषणकारी व्यवस्था को क्यों लागू करते? क्या ऐसा ही था उनका स्वदेश-प्रेम, जिसकी संघपरिवार आज भी दुहाई दे रहा है?’
अक्टूबर 1998 में संघपरिवार की नई शिक्षा नीति के अन्तर्गत मुरलीमनोहर जोशी ने शिक्षा मंत्रियों के सम्मेलन की शुरुआत राष्ट्रगीत के बदले ‘सरस्वती वन्दना’ से कराई थी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह पहले ही ‘वन्दे मातरम’ और ‘सरस्वती वन्दना’ को अनिवार्य बनाने का आदेश जारी कर चुके थे। इस विषय पर ‘भारत अश्वघोष’ के नवम्बर-दिसम्बर, 1998 के अंक में तुलसीराम जी ने ‘सरस्वती’ नाम से जोरदार संपादकीय लिखा है। वे लिखते हैं, ‘संघपरिवार का तर्क है कि वे देश में नैतिक शिक्षा लागू करना चाहते हैं। जहाॅं तक नैतिक शिक्षा का सवाल है, उसका सरस्वती से कुछ लेना-देना नहीं है। नैतिक शिक्षा तो कबीर तथा रहीम जैसे कवियों के दोहों से फैलती है, जिनका संघपरिवार जन्मजात दुश्मन है।’ इस संपादकीय में सरस्वती के उद्गम और विभिन्न रूपों की चर्चा की गई है और बताया गया है कि सरस्वती ब्रह्मा की पुत्री थी, जिसे उन्होंने अपनी पत्नी बना लिया था। वे यह भी कहते हैं कि सरस्वती शब्द का प्रयोग बुद्धि के विलुप्त होने के सन्दर्भ में किया जाता है। पर, सरस्वती का विद्या से कुछ भी सम्बन्ध है, इस पौराणिक मिथक का वे खण्डन करते हैं और मानते हैं कि वह विद्या की देवी नहीं है। लेकिन यहाॅं यह भी गौर तलब है कि जिस देश में विद्या की इस देवी की पूजा-वन्दना होती है, उसी देश में अशिक्षा और अविद्या सबसे ज्यादा है।
जिस प्रकार आज संघपरिवार मोदी सरकार में इतिहास बदलने के काम को अंजाम दे रहा है, उसी प्रकार वह अटलजी की सरकार में भी इतिहास बदलने का काम कर रहा था। यह काम वह अपने हिन्दू राष्ट्रवाद के मिशन के तहत कर रहा है। ‘भारत अश्वघोष’ का जनवरी-फरवरी, 1999 का संपादकीय इसी ‘इतिहास’ विषय पर है। यह लेख आज भी प्रासंगिक है। लेख के आरम्भ में संपादक तुलसीराम चेतावनी के शब्दों में लिखते हैं, ‘इस समय भाजपा परिवार इतिहास को बड़े खतरनाक स्तर पर तोड़-फोड़ कर उसमें भारत का एक वीभत्स रूप दिखाने में बड़ी आक्रामकता के साथ जुट गया है। यदि वे ऐसा करने में सफल हो गए तो भारत के टुकड़े-टुकड़े होने से कोई नहीं रोक पाएगा।’ इतिहास-भंजन का एक उदाहरण भी उन्होंने दिया है कि किस तरह भाजपा के सांसद विजय गोयल ने कुछ आरएसएस कार्यकर्ताओं को मुस्लिम टोपी पहिनाकर और झुग्गी बस्ती यमुना पुश्ता की 50 गरीब महिलाओं को बुरके पहिनाकर प्रधानमंत्री के निवास पर ले जाकर पोखरन विस्फोट के लिए अटल जी को बधाई दिलवाई थी। हिन्दू राष्ट्रवाद के सम्बन्ध में वे बताते हैं कि जर्मनी में हिटलर ने भी ऐसी ही फर्जी चालों से इतिहास बदलने की कोशिश की थी। वे यह भी बताते हैं कि ‘हिटलर की नात्सी पार्टी से ही नेशनलिज्म का शब्द निकला है, जिसका हिन्दी में अर्थ राष्ट्रवाद होता है।’ वे आगे कहते हैं, ‘आर्य प्रजाति सर्वश्रेष्ठ है, इसका मन्त्रोच्चार सबसे पहले हिटलर ने ही किया था। आज यही ‘आर्य-श्रेष्ठता’ भाजपा परिवार का मूल मन्त्र है।’ वे राष्ट्रवाद को हत्या का दर्शन बताते हुए लिखते हैं, ‘इसी राष्ट्रवाद के कारण कई देशों में फासिस्ट लोग सत्ता में आए, जिन्होंने विश्व को युद्धों में ढकेलकर करोड़ों लोगों की हत्याएॅं कराईं।’ वे यहाॅं एक अत्यन्त महत्वपूर्ण सवाल उठाते हैं कि ‘भाजपा परिवार के सारे इतिहासकार आर्यों को सर्वश्रेष्ठ और मूल भारतीय साबित करने के प्रयास में वर्षों से लगे हुए हैं। पर यदि आर्य भारतीय थे, तो हिटलर ने उन्हें अपना पूर्वज क्यों माना?’ यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसका जवाब कोई भी हिन्दू इतिहासकार नहीं दे सकता।
इतिहास-भंजन का एक और उदाहरण तुलसीराम जी ने राजस्थान के स्कूली पाठ्यक्रम में नौवीं कक्षा की एक पुस्तक से दिया है, जिसमें आरएसएस के विद्वानों ने लिखा है कि ‘जब महाराणा प्रताप के सामने यह प्रस्ताव रखा गया कि वह भी अपनी लड़की का डोला मुगलों के हरम में भेज दें, तो उन्होंने प्रस्ताव को अपमानजनक समझा और घोषणा कर दी कि बप्पा रावल के वंश का रुधिर पवित्र रहेगा।’ तुलसीराम जी इसे झूठा तथ्य बताते हैं, जिसका इतिहास में कहीं जिक्र नहीं है और जिसे सिर्फ ‘अबोध बच्चों के मस्तिष्क में साम्प्रदायिकता का जहर बोने के लिए दिया गया है।’ वे यहाॅं सवाल करते हैं, ‘यह विचित्र लगता है कि जो राणाप्रताप एक अत्यन्त छोटी रियासत के राजा थे तथा इनके जैसे अनेक राजस्थानी राजा आपस में ही लड़ा करते थे, वे भाजपा परिवार के आदर्श बन गए, जबकि अशोक जैसे महान सम्राट को, जिसका राज्य अफगानिस्तान तक फैला था, वे देशद्रोही समझते हैं?’ उन्होंने आरएसएस के इन मिथ्या प्रचारों का भी जबरदस्त खण्डन किया है- कि सर्वप्रथम आर्यों ने ईरान को बसाया था, कि होमर ने वाल्मीकि रामायण की नकल करके ‘इलियाड’ को लिखा था, कि ग्रीक दार्शनिक वेदों से प्रभावित थे, कि मिस्र की परम्परा प्लेटो और पाइथागोरस के अनुसार भारतीय परम्परा पर आधारित थी और यह कि गाय हम सबकी माता है, जिसमें भगवान का निवास होता है, इत्यादि।
कहना न होगा कि आरएसएस इतिहास के पुनर्लेखन के नाम पर इतिहास-भंजन का काम अपने जन्म से ही करता आ रहा है। वह अपने ‘सरस्वती शिशु मन्दिर’ स्कूलों में यही पुनर्लिखित इतिहास पढ़ाता है, जो वास्तविक इतिहास के एक दम विपरीत है। भाजपा जहाॅं-जहाॅं भी सत्ता में आती है, वहाॅं-वहाॅं आरएसएस यही काम करता है। आज इतिहास-भंजन का काम और भी जोर-शोर से चल रहा है, क्योंकि केन्द्र में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार है, और प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी भी उसके निष्ठावान कार्यकर्ता हैं। अभी पिछले दिनों आरएसएस ने दलित जातियों- चमार, खटीक और वाल्मीकि से सम्बन्धित इतिहास की तीन पुस्तकों का विमोचन किया था, जिनमें कहा गया है कि ये हिन्दूधर्म की रक्षा करने वालीं राजपूत जातियाॅं थीं। यह उनके इतिहास-भंजन की सबसे गन्दी मिसाल ही नहीं है, बल्कि सबसे बड़ा झूठ भी है। इन जातियों के लिए हिन्दूधर्म में ऐसा क्या था या हिन्दूधर्म ने उन्हें ऐसा कौन-सा उच्चतम स्थान दे दिया था, जिसके लिए वे उसकी रक्षा करते?
इतिहास-भंजन के एक और विद्रूप पर तुलसीराम जी ने ‘भारत अश्वघोष’ के मार्च-मई, 1999 के अंक में चर्चा की है। उनके इस संपादकीय का नाम है ‘बुद्ध तथा अम्बेडकर का देशद्रोह’। वे आरम्भ में ही इस विद्रूप को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं, ‘वर्णव्यवस्था के पोषकों का यह अभियान इस समय काफी तीव्रतर हो गया है, जिसके तहत वे महामानव बुद्ध पर यह आरोप लगा रहे हैं कि उनके शान्तिकामी एवं अहिंसक तथा वर्णव्यवस्था-विरोधी अभियान के कारण भारत गुलाम होता चला गया।’ बुद्ध के सम्बन्ध में आरएसएस का यह आरोप नया नहीं है। 1980 में संघपरिवार के ही एक ब्राह्मण लेखक लक्ष्मी नारायण मिश्र ने बुद्ध के विरोध में ‘कालविजय’ नाम से एक नाटक लिखा था, जिसे आगरा और रूहेलखण्ड विश्वविद्यालयों में एम.ए. के पाठ्यक्रम में पढ़ाया जा रहा था। इस नाटक में केवल यही नहीं कहा गया था कि बुद्ध की अहिंसा ने देश को गुलामी में जकड़ा और उनके वेद-विरोध ने समाज का विघटन किया, बल्कि राहुल और यशोधरा के चरित्र पर भी कीचड़ उछाला गया था। उस समय इस नाटक के विरोध में ललईसिंह यादव ने पूरे हिन्दी क्षेत्र में जबरदस्त प्रदर्शन कराए थे, जिसके देश-व्यापी प्रभाव ने सरकार पर दवाब बनाकर उस नाटक को दोनों विश्वविद्यालयों से हटवाया था। उसी समय मैंने ललईसिंह यादव के आग्रह पर ‘कालविजय’ के जवाब में ‘धम्मविजय’ किताब लिखी थी। तुलसीराम जी ने भी इस इतिहास-भंजन का मुंहतोड़ जवाब अपने संपादकीय में दिया है। वे भारत की गुलामी का एकमात्र कारण वर्णव्यवस्था को मानते हुए लिखते हैं, ‘भारत के गुलाम होने की प्रक्रिया उस समय शुरु हुई, जब यहाॅं पर हिन्दू शासकों का वर्णव्यवस्थावादी शासन पुनः स्थापित हो गया तथा उन्होंने बौद्धों के विनाश की प्रक्रिया लगभग पूरी कर ली, जिसकी शुरुआत पुष्यमित्र ने अन्तिम मौर्य बौद्ध सम्राट बृहद्रथ को मारकर की थी। वर्णव्यवस्था के कारण ही यह देश हमेशा कमजोर होता चला गया है।’
डा. आंबेडकर के सम्बन्ध में भी संघपरिवार यह दुष्प्रचार कर रहा था कि उन्होंने देश के स्वतन्त्रता-संग्राम में भाग नहीं लिया था। इस पर तुलसीराम जी आश्चर्य व्यक्त करते हंै कि डा. आंबेडकर ने भारत की जिस एक चैथाई आबादी की मुक्ति की लड़ाई लड़ी, उसे सवर्ण स्वतन्त्रता सेनानी मुक्ति-आन्दोलन का हिस्सा क्यों नहीं मानते? वे ऐसे लोगों को, जो दलितों की मुक्ति को देश की मुक्ति नहीं मानते हैं, आन्तरिक उपनिवेशवादी कहते हैं। वे प्रश्न करते हैं कि अंग्रेजों के सबसे बड़े दलाल भारत के सारे बड़े जमींदार और राजे-महाराजे थे, किन्तु उनको कोई हिन्दू इतिहासकार देश-द्रोही नहीं लिखता है? वे आंबेडकर के विरोधियों को फटकारते हुए कहते हैं कि ‘डा. आंबेडकर ने वर्णव्यवस्था जैसे आन्तरिक उपनिवेशवाद को बुरी तरह घायल करके उसके कुछ अत्यन्त जहरीले दाॅंतों को तोड़ दिया, इसलिए सवर्णों की उनसे स्थाई तौर पर कुट्टी हो गई है’ और इसीलिए वे उन्हें देशद्रोही कहते हैं।
प्रसंगवश यहाॅं उल्लेखनीय है कि संघपरिवार डा. आंबेडकर पर अंग्रेज-भक्त होने का ही आरोप नहीं लगाता है, बल्कि वह उन्हें मुस्लिम-विरोधी भी बताता है और यह भी कि वे संविधान के वास्तविक निर्माता नहीं थे।
समाजवादी विचारों के जार्ज फर्नान्डीज ने जब भाजपा परिवार में शामिल होकर अपना मुखौटा उतारा था, तो उसी के साथ उन्होंने अपने पतन की पटकथा भी लिख दी थी। भाजपा सरकार में रक्षा मन्त्री बनकर जिस निर्लज्जता से उन्होंने आक्रामक हिन्दुत्व की रक्षा की, उस पर जून-जुलाई, 1999 का संपादकीय ‘कारगिल में जार्ज फर्नान्डीज की पिकनिक’ प्रोफेसर तुलसीराम जी की निर्भीक अभिव्यक्ति से परिचय कराता है। वे उन पर हमलावर होते हुए लिखते हैं कि जिस गैर जिम्मेदारी के साथ ईसाई मिशनरी डा. स्टेन्स और उनके दो बेटों को जलाकर मार डालने वाले बजरंग दल को निर्दोष बताते हुए क्लीन चिट दी है, वह भारत में मिसाल है। वे लिखते हैं, जार्ज स्वयं ईसाई हैं, पर ‘उनकी मानसिकता कर्मकाण्डी ब्राह्मणों जैसी है, क्योंकि ईसाई बनने से पूर्व उनके पूर्वज कर्नाटक के सारस्वत ब्राह्मण थे। अतः जैविकी विज्ञान के नियमों के अनुसार फर्नान्डीज का ब्राह्मणी दिमाग अब भी कायम है, अन्यथा वे हिन्दुत्व की वकालत क्यों करते?’ यही नहीं, तुलसीराम जी कारगिल में पाकिस्तानी सैनिकों की घुसपैठ के लिए भी जार्ज फर्नान्डीज को जिम्मेदार मानते हंै। वे स्पष्ट कहते हैं, ‘पिछले छह महीने के दौरान पाकिस्तान से हजारों घुसपैठिए कारगिल में घुसकर सैकड़ों वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्जा कर लिए और यह आदमी घूम-घूमकर संघपरिवार को दंगा-विरोधी धर्मनिरपेक्षता की क्लीन चिट बाॅंटता रहा।’ वे आगे लिखते हैं कि इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ, जब एक अत्यन्त गैर जिम्मेदार रक्षा मन्त्री सेना के उच्च अधिकारियों को लेकर भाजपा की कार्यकारिणी की मीटिंग में गया। उनके अनुसार, ऐसा उन्होंने फासिस्ट ताकतों को मजबूत करने के उद्देश्य से किया। उन्होंने कहा कि भारत की राजनीति में जार्ज फर्नान्डीज की पहचान एक गैर जिम्मेदार व्यक्तित्व, भड़काऊ स्वभाव, दिखावटी वेशभूषा, आतंकवादियों की वकालत एवं नाटकीय अवसरवादिता में दिखाई देती है।
एक सम्पादक के रूप में डा. तुलसी राम लगातार ‘भारत अश्वघोष’ में संघपरिवार और भाजपा की हिन्दुत्ववादी फासिस्ट राजनीति के विरुद्ध लिख रहे थे। वे अपनी प्रगतिशील पत्रकारिता के जरिए निरन्तर लोगों को लोकतन्त्र के प्रति जागरूक कर रहे थे। वे जिस तरह से फासिस्ट तत्वों की गहराई में जाकर उनकी खबर ले रहे थे और पाठकों को दे रहे थे, उससे उनकी स्वस्थ और निर्भीक पत्रकारिता का ही परिचय नहीं मिलता है, बल्कि देश और समाज के ज्वलन्त सरोकारों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का भी पता चलता है। वे सही मायने में बुद्ध और डा. आंबेडकर के दर्शन के ऐसे  प्रवक्ता हैं, जो जान की बाजी लगाकर भी अडिग रहने वाले हैं। ‘भाजपा गठगन्धन का नाजी एजेन्डा’ (अगस्त-अक्तूबर 1999) जैसा साहसिक संपादकीय लिखने के लिए फौलादी कलम और उसका परिणाम झेलने के लिए फौलादी सीना चाहिए। तुलसीराम जी के पास ये दोनों ही चीजें हैं, इसीलिए वे उसे लिख सके। कहना न होगा कि ‘भारत अश्वघोष’ के अन्तिम अंक में उन्होंने ‘बुद्ध को विश्व हिन्दू परिषद से बचाओ’ सपादकीय लिख कर हिन्दुत्ववादी ताकतों के ऊपर जो अग्निबाण छोड़े हैं, उससे उनकी तुलना सचमुच अश्वघोष से ही की जा सकती है।
(6 नवम्बर, 2014)