मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013


वाम मित्रों से कुछ सवाल 
(कँवल भारती)

मेरे वामपंथी मित्र मेरे कांग्रेस में जाने पर बहुत नाराज हैं. अब शायद मैं उनके लिए अछूत हो गया हूँ. पर मैं यह जानना चाहता हूँ कि उन्होंने कोई राजनैतिक विकल्प खड़ा क्यों नहीं किया? बिहार, प. बंगाल और केरल के अलावा उसका अस्तित्व कहाँ है? सीपीएम क्यों कांग्रेस को समर्थन देती रही है? वाम दलों ने दलित-पिछड़ों और मजदूरों के हक में कोई तीसरा मोर्चा क्यों नहीं बनाया? जब जनता शोषण और दमन के खिलाफ राजनैतिक बदलाव चाहती है, तो वाम राजनीति उसके लिए पार्टी का विकल्प क्यों नहीं खड़ा करती? क्यों शोषित और मजदूर जनता उत्तर प्रदेश में पूंजीवादी दलों को ही वोट देते हैं? वाम संगठनों के पास लाखों की संख्या में प्रशिक्षण प्राप्त कार्यकर्ता हैं, फिर क्यों कोई वाम पार्टी खड़ी नहीं हो पा रही है? गाँधी ने लोगों से पढाई-लिखाई छोड़ कर आज़ादी के आन्दोलन में भाग लेने को कहा था. वाम नेतृत्व ऐसा आवाहन जनता से क्यों नहीं करते?
मैं अपने बारे में बता दूं कि तीन मीटिंगों से मेरा मोह भंग हुआ था. पहली मीटिंग सीपीएम की थी जो दिल्ली में हुई थी. उसमे मैंने देखा कि दलित उत्पीडन के मुद्दे पर भी सीपीएम के नेता सम्भ्रान्त किस्म की राजनीति कर रहे हैं, वातानुकूलित कमरे में अंग्रेजी में बहस. दूसरी मीटिंग मैंने जनसुनवाई के रूप में भदोही में अटेंड की थी, दबंगों के अत्याचारों से पीड़ित दलितों ने अपनी आपबीती सुनाई थी, जो इतनी दर्दनाक थी कि मेरे रोंगटे खड़े हो गये थे. पर विकल्प क्या था? मेरे लिए सवाल यह था कि वे वोट किसे देंगे? इन्हीं पूंजीवादी दलों में से ही किसी एक को? तीसरा अनुभव मेरा इलाहाबाद का है, जहाँ मैंने जनता की भाषा में समाजवादी आन्दोलन को खड़ा करने के लिए मौजूदा वाम शब्दावली को बदलने की बात कही थी, पर किसी ने भी मेरा समर्थन नहीं किया, उन्होंने भी नहीं, जो आज मुझसे बेहद खफा हैं.

20 अक्टूबर   2013
आरक्षण, जातिवाद और दलित-मुक्ति का प्रश्न
(कॅंवल भारती)
दलित वर्ग के लिये आरक्षण भारतीय समाज में सबसे ज्यादा विवाद का विषय है, शायद ही कोई दूसरा विषय हो, जिस पर इतनी ज्यादा बहस होती हो और  सिर्फ बहस ही नहीं, बल्कि यह  दलित और सवर्ण के बीच नफरत और तनाव का कारण है। यह स्थिति दो कारणों से पैदा हुई है। एक इस वजह से कि दलित-मुक्ति के सवाल को कमजोर जातियों की मुक्ति के रूप में एक सामाजिक क्रान्ति के अर्थ में समझने की कोशिश नहीं की गयी, जो भारतीय राष्ट्र और लोकतन्त्र की की महान सेवा है। और, दूसरे इस वजह से कि वोट की राजनीति ने इसे जातीय रंग दे कर दलित बनाम सवर्ण का संवेदनशील मुद्दा बना दिया। यही राजनीति आरक्षण के सवाल पर अलोकतान्त्रिक बहस का जन्मदाता है।
इसलिये दलित-आरक्षण के सवाल को लोकतान्त्रिक नजरिये से समझने की जरूरत है। क्या  हजारों वर्षों से समान अधिकारों और हर तरह की आजादी से वंचित करके रखी गयीं दलित जातियों की मुक्ति सरकार की सहायता के बिना सम्भव हो सकती थी? राज्य के संरक्षण की जरूरत कमजोर लोगों को ही होती है। लेकिन इसी तथ्य के आधार पर आज आरक्षण-विरोधी लोग गरीबी का सवाल उठाते हैं और जाति के आधार पर दलितों के आरक्षण का विरोध करते हैं। निस्सन्देह वे अपने तर्क में सही हैं। पर यहाॅं इस तथ्य को भुला दिया जाता है कि दलित जातियाॅं गरीबी की वजह से समान अधिकारों और सुविधाओं से वंचित नहीं थीं, बहुत सी दलित जातियाॅं उत्पादन से जुड़ी थीं और उनके पास पैसा था। वे पैसा देकर पढ़ सकते थे, पर उनके लिये शिक्षा के दरवाजे बन्द थे। उनकी इतनी हैसियत थी कि वे सोने के जेवर खरीद सकते थे और पक्का घर बना सकते थे। पर उन्हें साफ कपड़े और जेवर पहनने की मनाही थी, पक्के मकान बनाने की मुनादी थी, मन्दिरों में घुसने और राजमार्गों पर चलने तक पर पाबन्दी थी। यहाॅं तक कि उन्हें गन्दे, घृणित और कठोर काम करने के सिवा स्वच्छ और सम्मानजनक व्यवसाय करने की भी आजादी नहीं थी। वे भारतीय समाज-व्यवस्था में अछूत थे, जिन्हें छूना तो दूर, सवर्ण हिन्दू उनकी परछाॅंई से भी बच कर चलते थे। ये भारत माॅं के वे सपूत थे, जो दिन भर माॅं की कठोर सेवा करते थे, पर माॅं की ममता का आॅंचल उनके सिर पर नहीं था। इतिहास में पहली बार उनके मानवीय अधिकारों की आवाज डा0 आंबेडकर ने उठायी थी। यह भारत के ज्ञात इतिहास में दलित-मुक्ति की पहली लड़ाई थी। यह देश की आजादी से भी बड़ी लड़ाई थी, क्योंकि यह देश के उन करोड़ों लोगों की आजादी की लड़ाई थी, जो हजारों साल से मनुष्य होने की गरिमा से वंचित गुलाम बन कर जी रहे थे। इसी लड़ाई की बदौलत दलितों के लिये शिक्षा के दरवाजे खुले और उन्हें नौकरियों और विधायिका में आरक्षण मिला।
यह कहना बिल्कुल भी सही नहीं होगा कि आरक्षण से दलितों को फायदा नहीं पहुॅंचा है। जो दलित जातियाॅं निम्न से भी निम्नतम वर्ग में थीं, उनमें आज यदि एक मध्यवर्ग विकसित हुआ है, तो उसका कारण आरक्षण ही है। आज वे शासन से लेकर प्रशासन तक हर क्षेत्र में सक्रिय हैं। साहित्य, कला, विमर्श और रंगकर्म के क्षेत्र में भी उन्होंने अपनी विशिष्ट पहिचान बनायी है। यह एक बड़ा सामाजिक परिवर्तन है, जो आरक्षण की वजह से ही इस देश में हुआ है। यहाॅं यह बताना बहुत जरूरी है कि शिक्षा के सिर्फ दरवाजे खुले थे, सब कुछ मुफ्त नहीं था। वजीफा मिलता था, जो बहुत मामूली  था, फीस भी देनी पड़ती थी और कापी-किताबें भी खुद ही खरीदना पड़ती थीं। लेकिन सच यह है कि वजीफे ने हमारी पढ़ाई-लिखाई में कोई भूमिका नहीं निभायी थी। हमारे लिये महत्वपूर्ण सिर्फ यह था कि हम अब पढ़ सकते थे। लेकिन उस वक्त फीस के दस-बीस पैसे भी देने की औकात हमारे लोगों की नहीं होती थी। इसलिये काफी सारे बच्चे तीसरी-चैथी और बहुत हुआ तो आठवीं क्लास के बाद ही पढ़ाई छोड़ देते थे। सरकार ने यदि उस समय मुफ्त शिक्षा और मुफ्त किताबों की व्यवस्था की होती, तो वह दलित-शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ा परिवर्तन होता। लेकिन सरकार दलितों की शिक्षा के प्रति गम्भीर नहीं थी। इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जिस स्कूल में मेरी प्राइमरी पढ़ाई हुई, वह एक पुरानी बदसूरत बिल्डिंग में टाट-पट्टियों वाला स्कूल था, जिसे नगरपालिका चलाती थी। वह बिल्डिंग और भी जर्जर होती गयी, तब ऊपर के कमरे बन्द कर दिये गये, आॅंगन में कक्षाएॅं लगने लगीं, यहाॅं तक कि एक कमरे में दो-दो क्लासों के बच्चे बैठाये जाने लगे थे। अब तो वहाॅं एक मार्कीट बनी हुई है, स्कूल न जाने कहाॅं चला गया? उत्तरप्रदेश में सरकारी प्राइमरी स्कूलों की स्थिति आज भी लगभग वैसी ही है। लेकिन यह तो सच है ही कि अगर ये स्कूल भी नहीं खुलते, तो गरीब दलित कोई तरक्की नहीं कर सकते थे।
मेरे लिये यह मानना मुश्किल है कि आरक्षण सिर्फ एक सियासी मामला है। पर हाॅं यह सच है कि यह अब वोट की सियासत से जुड़ गया है और कोई भी पार्टी इसके विरोध में नहीं जा सकती। लेकिन सियासत इस बात को लेकर होती है कि उन लोगों को आरक्षण के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए, जो लगातार लाभ उठा रहे हैं और अब जो इतने सक्षम हैं कि उनकी गिनती एक खास वर्ग में होने लगी है। वे सम्पन्न हैं और अपने बच्चों को बढि़या से बढि़या और ऊॅंची से ऊॅंची शिक्षा दिलाने की हैसियत रखते हैं। इसलिये यह माॅंग गलत भी नहीं है कि दूसरे जरूरतमन्द गरीब दलितों के हित में  सम्पन्न वर्ग को आरक्षण के दायरे से बाहर रखा ही जाना चाहिए। सियासी मामला इस बात को लेकर भी है कि आरक्षण को कब तक जारी रखा जाय, जबकि निजीकरण की वजह से सरकारी क्षेत्र में नौकरियाॅं लगातार कम होती जा रही हैं। इसीलिये कुछ दलित संगठन निजी क्षेत्र में भी आरक्षण के लिये आन्दोलन कर रहे हैं। निजी क्षेत्र के उपक्रम इसके विरोध में इसलिये हैं, क्योंकि वे दलितों को अयोग्य मानने की अपनी सामन्ती मानसिकता से ग्रस्त हैं।
अब सबसे मुख्य सवाल यह है कि क्या दलित समाज आरक्षण के सहारे आगे बढ़ेगा? मौजूदा दलित राजनीति और संगठन इसी विचार को लेकर चल रहे हैं। लेकिन यह आरक्षण अब दलित जातियों के उन करोड़ों लोगों के लिये, जो बेरोजगार, गरीब और शिक्षा से वंचित हैं, कोई मायने नहीं रखता है, क्योंकि आरक्षण का फायदा लेने के लिये पढ़ाई-लिखाई जरूरी है और पढ़ाई-लिखाई के सारे संसाधन मॅंहगाई और निजीकरण की वजह से गरीब दलितों की पहुॅंच से दूर होते जा रहे हैं। मिड डे मील और मनरेगा के बल पर वे अपने बच्चों का भविष्य नहीं बना सकते। इसलिये आरक्षण की राजनीति केवल धनी दलित वर्ग की राजनीति के सिवा कुछ नहीं है।
बेहतर तो यह होगा कि भारत से जातिवाद खत्म हो और बिना किसी भेदभाव के सभी लोगों को शिक्षा, विकास और नौकरियों के समान अवसर मिलें। मगर यह खत्म इसलिये नहीं हो रहा है, क्योंकि जहाॅं इसे धर्म और जाति की राजनीति  पाल-पोस रही ह,ै वहाॅं हिन्दू धर्माचार्य भी ब्राह्मणवाद और ब्राह्मण शास्त्रों में जनता के अन्धविश्वास को निरन्तर मजबूत कर रहे है। इसलिये हमारे लोकतन्त्र में यह एक बड़ी समस्या है कि ब्राह्मणवाद का खात्मा कैसे हो? जब तक ब्राह्मणवाद मानसिकता में जिन्दा रहेगा, जब तक दलितों के प्रति हिन्दू समाज की नफरत मिटने वाली नहीं है और आरक्षण एक सियासी मामला बना रहेगा।
21 अक्टूबर 2013

   



सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

कानून को इतना अन्धा नहीं होना चाहिए
कॅंवल भारती
31 दिसम्बर 1930 को गोलमेज सम्मेलन, लन्दन में दलित वर्गों के प्रतिनिधित्व पर बोलते हुए डा0 आंबेडकर ने कहा था कि दलित वर्गों को यह भय है कि भारत का भावी संविधान इस देश की सत्ता को जिन बहुसंख्यकों के हाथों में सौंपेगा, वे और कोई नहीं, रूढि़वादी हिन्दू ही होंगे। अतः दलित वर्ग को आशंका है कि रूढि़वादी हिन्दू अपनी रूढि़यों और पूर्वाग्रहों को नहीं छोड़ेंगे। और जब तक वे अपनी रूढि़यों, कट्टरपन और पूर्वाग्रहों को नहीं छोड़ते, दलितों के लिये न्याय, समानता और विवेक पर आधारित समाज एक सपना ही रहेगा। इसी सम्मेलन में आंबेडकर ने यहाॅं तक कहा था कि भारतीयों की मानसिकता साम्प्रदायिक है, हालांकि हम आशा कर सकते हैं कि एक समय आयेगा, जब वे साम्प्रदायिक दृष्टि का परित्याग कर देंगे; पर यह आशा ही है, सत्य नहीं है। इसलिये उन्होंने जोर देकर कहा कि कुछ समय के लिये भारतीय सेवाओं में अंग्रेजों को ही रखा जाय और भारतीयों को न लिया जाय, क्योंकि भारतीयों को लेने से दलितों पर अत्याचार बढ़ जायेगा।
डा0 आंबेडकर के ये शब्द आजादी के बाद दलितों पर हुए दमन और अत्याचार के हर काण्ड के सन्दर्भ में प्रासंगिक हो जाते हैं। आंबेडकर अपनी शंका में गलत नहीं थे। जिन रूढि़वादी हिन्दुओं के हाथों में स्वतन्त्र भारत की सत्ता आयी, उसका प्रथम राष्ट्रपति 108 ब्राह्मणों के पैर धोकर अपनी कुर्सी पर बैठा था। केन्द्र में पंडित नेहरू प्रधानमन्त्री थे, तो सभी राज्यों के मुख्यमन्त्री भी ब्राह्मण बनाये गये थे। सिर्फ यही नहीं, कार्यपालिका और न्यायपालिका सहित पूरे प्रशासन-तन्त्र पर ब्राह्मणों के वर्चस्व ने भारत में एक ऐसे साम्प्रदायिक और रूढि़वादी शासन की आधारशिला रख दी थी, जिससे यह आशा करना ही व्यर्थ था कि वह दलित वर्गों के प्रति सम्वेदनशील और न्यायप्रिय होगा। परिणामतः,  स्वतन्त्र भारत में दलितों पर जुल्मों की जो बाढ़ शुरु हुई, वह अब तक थम नहीं रही है। जिस देश का संविधान सबके लिये समान न्याय पर आधारित हो, उस देश में यदि दलितों पर जुल्म और हिन्सा के बेलछी, लक्ष्मणपुर-बाथे, देहुली, परसबीघा, कफल्टा, साढूपुर, कुम्हेर, पूरनपुर, गुलबर्गा, पनवारी, खैरलान्जी और मिर्चपुर जैसे नृशंस काण्ड-पर-काण्ड होतेे हैं, तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि उसके मूल में वही रूढि़वादी हिन्दुत्व (और सामन्तवाद) है, जिसकी आशंका डा0 आंबेडकर ने की थी।
 1989 में सरकार ने इन अत्याचारों को रोकने के लिये अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम बनाया। किन्तु जब उसका कोई असर नहीं पड़ा, तो 1995 में उसमें संशोधन कर उसे और भी सशक्त बनाया गया। पर दलितों पर अत्याचार इसके बाद भी बन्द नहीं हुए। और इसलिये बन्द नहीं हुए, क्योंकि रूढि़वादी हिन्दू देश के कानून को अपने ठेंगे पर रखते हैं और मनु के कानून को अपने दिल में। अब सवाल यह है कि इतने सशक्त कानून के बाद भी दलितों को न्याय क्यों नहीं मिल रहा है? रूढि़वादी हिन्दुओं के हौसले क्यों बुलन्द हैं? कारण इसका भी यही है कि न्यायपालिका में न्याय करने वाले काबिज तत्व उसी रूढि़वादी समाज से आते हैं, जिनके हाथों में देश की शासन-सत्ता आयी। अतः, कहना न होगा कि सत्ता, पुलिस और न्यायपालिका के गठजोड़ ने दलितों के लिये न्याय को भी दुर्लभ और दमनकारी बना दिया है। रूढि़वादी हिन्दू समुदाय आज भी देश को अपनी बपौती समझते हैं और दलित वर्गों को अपना गुलाम। वे उन्हें न सामाजिक सम्मान देना चाहते हैं और न उनका आर्थिक विकास चाहते हैं। यही कारण है कि जब सामाजिक न्याय की राजनीति ने जाति को आधार बनाया, तो रूढि़वादी हिन्दुओं ने उसे अपने वर्चस्व के लिये चुनौती के रूप में लिया और परिवर्तन की हर धारा को अवरुद्ध करने के लिये वे अमानवीयता की किसी भी हद तक जाने के लिये तैयार हो गये। इसलिये यह सवाल उठना जरूरी है कि क्या 1977 में लक्ष्मणपुर-बाथे में 58 दलितों के हत्यारे, जो सामन्ती रणवीर सेना के लोग थे, बाइज्जत बरी हो सकते थे? कदापि नहीं। हम किसे न्याय कहें-निचली अदालत द्वारा 26 हत्यारों को फाॅंसी की सजा सुनाने के फैसले को या पटना हाईकोर्ट द्वारा उन हत्यारों को बाइज्जत बरी करने के आदेश को? एक अदालत हत्यारों को फाॅंसी की सजा सुना रही है, यह साबित करके कि दलित मजदूरों की हत्याएॅं उनके ही द्वारा की गयीं थीं। किन्तु, दूसरी अदालत, जो उच्च मानी जाती है, पिछले फैसले को उलट देती है, यह साबित करके कि दलितों की हत्याएॅं करने में उनका हाथ नहीं है और वह उन्हें निर्दोष मान कर रिहा कर देती है। यह किस तरह का न्याय है? जो सच निचली अदालत को दिखायी दे रहा था, वह सच उच्च न्यायालय को दिखायी क्यों नहीं दे रहा था? कौन मानेगा कि यह (अ)न्याय सत्ता और न्याय-तन्त्र का वीभत्स चेहरा नहीं है? अगर उच्च न्यायालय के मुताबिक रणवीर सेना के लोगों ने हत्याएॅं नहीं की थीं, तो क्या उन 58 लोगों ने स्वयं ही अपनी नृशंस हत्याएॅं कर ली थीं? अगर उन्होंने ही आत्महत्याएॅं की थीं, तो क्या बच्चों ने भी अपना कत्ल स्वयं कर लिया था? न्याय के नाम पर दलितों के साथ यह कैसी विवेकहीनता है? क्या न्याय के नाम पर यही दमन-चक्र चलेगा? अगर इसका जवाब हाॅं में है, तो भले ही गरीब दलित मजदूर इस हालत में नहीं हैं कि वे प्रतिकार कर सकें, पर याद रहे कि वे नक्सलवाद का आसान शिकार हैं।
1997 में मैंने फूलनदेवी पर लिखे अपने एक लेख (देखिए मेरी पुस्तक ‘समाज, राजनीति और जनतन्त्र’, पृष्ठ 72) में लिखा था- ‘माना कि कानून की देवी देख नहीं सकती, उसकी आॅंखों पर पट्टी बॅंधी होती है। लेकिन यह प्रश्न भी अब उठाया जाना चाहिए कि कानून की देवी (खास तौर से दलित वर्ग के सन्दर्भ में) अन्धी क्यों होती है? अब उसकी आॅखों पर से पट्टी हटाने की जरूरत है, ताकि वह सिर्फ तर्कों, बहसों और साक्षों की आॅखों से ही नहीं, बल्कि अपनी नंगी आॅंखों से भी सत्य को देख सके, यथार्थ का साक्षात कर सके। तर्क और साक्ष्य झूठे और फर्जी हो सकते हैं और ऐसे मामले भी कम नहीं हैं, जब झूठे और फर्जी साक्ष्यों के आधार पर निर्दोष लोगों को अदालतों ने जेल भेजा है। यह अन्याय उनके साथ इसीलिये हुआ कि कानून की देवी अन्धी होती है।’
14 अक्टूबर 2013


शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

राहुल गांधी के नाम एक खुला पत्र
सम्माननीय राहुल जी,
           सादर नमस्कार, जय भीम
           निवेदन करना है कि मेरा नाम कँवल भारती है और मैं एक आंबेडकरवादी और समाजवादी विमर्श का लेखक हूँ. मुझे हिंदी दैनिक अख़बार “अमर उजाला” के 10 अक्टूबर के अंक के जरिये पता चला कि आपने अपने एक कार्यक्रम में संभवत: अलीगढ में कहा था कि ‘यदि आप दलित आन्दोलन को आगे ले जाना चाहते हैं, तो इसके लिए एक या दो दलित नेता काफी नहीं हैं, (बल्कि) लाखों दलित नेताओं की जरूरत पड़ेगी. मायावती ने दलित आन्दोलन पर कब्जा कर लिया है और उन्होंने अपने अलावा किसी अन्य दलित नेता को उभरने नहीं दिया है.’
           निश्चित रूप से आपका बयान स्वागतयोग्य है. इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि मायावती ने देश में क्या, उत्तर प्रदेश में भी किसी दलित नेता को उभरने नहीं दिया, जो अपनी क्षमता और योग्यता से उभरे भी, तो उन्होंने उनको भी पार्टी से निकाल कर खत्म कर दिया. यह एक ऐसी पार्टी की वास्तविकता है, जिसका जन्म कांशीराम के सामाजिक आन्दोलनों से हुआ है. यदि सामाजिक आन्दोलनों से निकली हुई कोई बहुजन-हित की पार्टी लाखों-हजारों की बात तो दूर, एक दर्जन दलित नेता भी पैदा नहीं कर सके, तो इसका यही कारण हो सकता है कि अब सामाजिक और लोकतान्त्रिक आन्दोलन उसके सरोकारों में नहीं रह गये हैं. यह दलित आन्दोलन के लिए अवश्य ही चिंताजनक स्थिति है.
           लेकिन मैं आपके समक्ष यहाँ यह प्रश्न रखना चाहता हूँ कि दलित आन्दोलन और दलित-समस्या को लेकर कांग्रेस के भीतर भी कोई गम्भीर चिंता नहीं देखी जाती है. सामाजिक और लोकतान्त्रिक आन्दोलनों से वह भी उतनी ही दूर है, जितना कि बहुजन समाज पार्टी दूर है. कांग्रेस ने कहाँ लाखों दलित नेता पैदा किये? उसने कहाँ रेडिकल दलित नेतृत्व उभारा? अगर कांग्रेस ने ज़मीन से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ जुड़कर दलित आन्दोलन को आगे बढ़ाने में रूचि ली होती, तो मायावती को ज़मीन कहाँ मिल पाती? तब क्या कांग्रेस उत्तरप्रदेश में सत्ता से उखड़ती?
           मान्यवर, नेतृत्व दो प्रकार का होता है— एक रेडिकल और दूसरा स्वतन्त्र, जो व्यक्तिवादी और अवसरवादी हो सकता है. इस दूसरे नेतृत्व से बहुत ज्यादा अपेक्षा नहीं की जा सकती. लेकिन कांग्रेस ने इसी दूसरे दलित नेतृत्व से संबंध ज्यादा बनाये. अपने स्वार्थ के लिए कांग्रेस में यह नेतृत्व स्वामिभक्ति के साथ हमेशा ‘यस मैन’ की भूमिका में रहा और दलित सवालों के प्रति अपनी आँखें मूंदे रहा. इसने अत्याचार, दमन और शोषण के मुद्दों पर न कांग्रेस के भीतर आवाज़ उठायी और न बाहर.
           किन्तु, रेडिकल नेतृत्व समाज में परिवर्तन के लिए काम करता है. उसकी ज़मीन सामाजिक आन्दोलनों की ज़मीन होती है. वह अत्याचार, दमन और शोषण के खिलाफ आवाज उठाता है और जनपक्षधरता की राजनीति करता है. मान्यवर, मुझे कहने दीजिये कि ऐसे रेडिकल दलित नेतृत्व को कांग्रेस ने कभी महत्व नहीं दिया. पूंजीवादी राजनैतिक सत्ताएं ऐसी रेडिकल शक्तियों से भयभीत रहती हैं, और कांग्रेस भी. आंबेडकरवादी आन्दोलनों के ऐसे बहुत से रेडिकल दलित नेताओं को कांग्रेस ने अपने भीतर शामिल किया. लेकिन अफ़सोस ! उसने उनका विकास नहीं किया, न उनके नेतृत्व का लाभ उसने उठाया, वरन उस नेतृत्व को खत्म करने की रणनीति को अंजाम दिया. बीपी मौर्य जैसे कितने ही दलित नेता कांग्रेस की इस रणनीति का शिकार होकर खत्म हो गये, रिपब्लिकन पार्टी (RPI) का सारा रेडिकल नेतृत्व कांग्रेस ने ही खत्म किया, जिसके ताज़ा शिकार रामदास अठावले हुए, जिन्हें अंततः अपने वजूद को बचने के लिए शिव सेना की शरण में जाना पड़ा. क्यों? क्या इस प्रश्न पर आप विचार करना चाहेंगे?
            
           मान्यवर, यह प्रश्न मैं आपके समक्ष इसलिए रख रहा हूँ कि कांग्रेस में  आप एक स्वतन्त्र विमर्शकार के रूप में जाने जाते हैं. अनेक मुद्दों पर आपने अपनी पार्टी के विरुद्ध जाकर अपनी राय व्यक्त की है. और अभी हाल में दागी मंत्रियों को बचाने के लिए कांग्रेस द्वारा लाया गया अध्यादेश आपके ही जोरदार हस्तक्षेप से कानून नहीं बन सका. मान्यवर, दलितों में लाखों दलित नेता मौजूद हैं, जो समाज में परिवर्तन के लिए काम कर रहे हैं. वे भारत की राजनीति में एक सार्थक हस्तक्षेप करना चाहते हैं. पर कांग्रेस में दलित नेतृत्व के दमन के पुराने इतिहास को देखते हुए वे कांग्रेस को अपने शत्रु के रूप में देखते हैं. क्या आप इस स्थिति को बदलने की कोशिश करेंगे? क्या कांग्रेस से जुड़ने वाले रेडिकल दलित नेतृत्व को आप यह भरोसा दिला सकते हैं कि वह अपनी सामाजिक और लोकतान्त्रिक ज़मीन के साथ आपकी पार्टी में अन्त तक चल सकेगा?
           मान्यवर, मैं यह कहने का साहस इसलिए कर रहा हूँ कि जिस दिन आप रामपुर आये थे, उससे एक दिन पहले अर्थात 8 अक्टूबर को केन्द्रीय मानव संसाधन राज्यमंत्री माननीय जितेन्द्र प्रसाद जी ने रामपुर में मुझे कांग्रेस से जोड़ा था, या कहिये मुझे कांग्रेस में शामिल किया था. हालाँकि कांग्रेस में मेरी विधिवत ज्वाइनिंग नहीं हुई है, पर यह हो भी सकती है और नहीं भी, यह इस गारन्टी पर निर्भर करता है कि दलित नेतृत्व पर कांग्रेस का वर्तमान रुख अपने इतिहास को दोहरायेगा या उसे ख़ारिज करेगा?

आपके प्रति ससम्मान.
आपका
कँवल भारती
12-10-2013    
               
प्रतिष्ठा में ,
माननीय श्री राहुल गांधी
कांग्रेस उपाध्यक्ष

नयी दिल्ली