शनिवार, 4 अप्रैल 2015


बाबू जगजीवनराम: एक संस्मरण
(कॅंवल भारती)
एक समय भारतीय राजनीति में दलित अस्मिता के स्तम्भ माने जाने वाले बाबू जगजीवन राम आज दलितों द्वारा लगभग भुला दिए गए हैं। इस विस्मृति के दो कारण मैं समझ पाया हूॅं, एक, डा. आंबेडकर के साथ उनकी गलत तुलना, और दो, उनका काॅंग्रेसी होना। हालांकि वह काॅंगे्रस के अध्यक्ष भी रहे थे और आपात काल में काॅंगे्रस छोड़कर उन्होंने अपनी अलग पार्टी (काॅंगे्रस फाॅर डेमाक्रेसी) भी बनाई थी, जनता पार्टी में भी रहे थे और बाद में देवराज अर्श की काॅंगे्रस में चले गए थे, पर इससे उनकी पहिचान में कोई फर्क नहीं आया था। वह आजीवन पहिचाने काॅंगे्रसी नेता के रूप में ही गए। ठीक कल्याण सिंह और उमा भारती की तरह, जो भाजपा छोड़कर  अपनी अलग पार्टी बनाकर भी भाजपाई छवि में कैद थे। इसका कारण शायद यही था कि वह किसी पृथक सामाजिक और लोकतान्त्रिक आन्दोलन की उपज नहीं थे, बल्कि उनकी प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा काॅंगे्रस में ही हुई थी।
लेकिन, बाबू जी के साथ यह दुखद ही है कि उन्हें डा. आंबेडकर के सन्दर्भ में देखने की कोशिश की जाती है, जो एक गलत कोशिश है। दोनों के बीच कोई तुलना होनी ही नहीं चाहिए, क्योंकि दोनों नेताओं के राजनीतिक मार्ग और विचार अलग-अलग थे। पर, कुछ भावुक आंबेडकरवादियों ने उनकी छवि खलनायक की बना दी है। इन्हीं में एक रेवती राम थे, जो मेरे जनपद में खण्ड विकास अधिकारी के पद पर तैनात थे। उन्होंने एक छोटी सी पुस्तिका ‘बाबासाहेब डा. अम्बेडकर और बाबू जगजीवन राम’ नाम से लिखी। उसमें कुछ बातें बहुत ही अभद्र थीं, जैसे- बाबासाहेब गोरवर्ण थे, पर बाबूजी उसके विलोम थे; बाबासाहेब महार थे, जो सैनिक जाति है, जबकि बाबूजी चमार थे, जो हीन जाति है; बाबासाहेब की शिक्षा अमेरिका, जर्मन और इंग्लैण्ड में हुई थी और उन्होंने सर्वोच्च डिग्रियाॅं हासिल की थीं, जबकि बाबूजी की शिक्षा बीएचयू में हुई थी और वह सिर्फ बी.एससी. पास थे; बाबासाहेब अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे, जिनके सामने बाबूजी को साक्षर ही कहा जा सकता है, इत्यादि। विडम्बना यह है कि इस पुस्तिका के छपने का कारक भी मैं ही था। यह पुस्तिका जब बाबूजीके हाथों में गई, तो उसने ऐसी विपत्ति खड़ी की कि उसने मुझे सड़क पर पटक दिया था। यह प्रसंग मैं आगे बताऊॅंगा । पहले यह बता दूॅं कि मामला क्या था?
सातवें दशक में आंबेडकरवाद की लहर मेरे शहर में पहुॅंची थी। जिन लोगों ने यह मुहिम शुरु की थी, वे कुछ सरकारी कर्मचारी थे, जो अलीगढ़-आगरा से पहली नियुक्ति या तबादले पर जिले में तैनात हुए थे। उन्होंने जो ‘मिशन’ शुरु किया, वह कोरा भावुक मिशन था, जो कांशीराम-मायावती पर ही आकर खत्म हो सकता था। मुक्ति का रास्ता वे स्वयं नहीं जानते थे, क्योंकि डा. आंबेडकर की जीवनी और बुद्धधर्म ही उनका मिशन था। उनके मिशन में गाॅंधी और काॅंग्रेस दोनों दलितों के शत्रु थे; मित्र कौन थे, यह उन्हें खुद नहीं पता था, क्योंकि उस समय तक, यानी आजादी के तीन दशकों बाद तक भारत के वामपंथ ने दलित सवालों की ओर करवट नहीं ली थी। लेकिन डा. आंबेडकर का दर्शन खुद में एक वामपंथ है, यह उन अम्बेडकर-मिशनरियों को क्या, खुद मुझे भी दो दशकों के बाद पता चला था। अतः यही भावुक ‘अम्बेडकर-मिशन’ मेरी चेतना में भी रच-बस गया था, जिसने मुझे रेवती राम की पुस्तिका के विस्फोट तक पहुॅंचाया।
बात 1978 की है। महेन्द्रप्रसाद गुप्त के प्रेस और अखबार में कई साल काम करने के बाद अपने मन में भी अपना प्रेस लगाने की इच्छा पैदा हो गई थी। उन दिनों उत्तर प्रदेश सरकार ने अनुसूचित जातियों में लघु उद्योग को प्रोत्साहित करने के लिए एक ‘अनुसूचित जाति वित्त एवं विकास निगम’ स्थापित किया था, जो दलितों को लघु उद्योग लगाने पर बैंक-ऋण पर दस प्रतिशत मार्जिन मनी और गारण्टी देता था। शहर में समाज कल्याण विभाग का एक ‘हरिजन औद्योगिक आस्थान’ भी था, (‘हरिजन’ शब्द 1990 में हटा था), जिसमें सामान्य वर्ग के उद्यमियों के लिए 111 रुपए और दलित वर्ग के उद्यमियों के लिए 25 रुपए माह के किराए पर शेड आवन्टित किए जाते थे। मैंने अपने मित्र रमेश प्रभाकर के साथ इस योजना का लाभ उठाया। पहले हमने दो शेड (संख्या एक और दो) आवन्टित कराए, उसके बाद अपनी-अपनी इकाइयों के लिए बैंकों में ऋण के लिए आवेदन किए। मार्जिन मनी के लिए हमें लखनऊ के कई चक्कर लगाने पड़े। कई आईएएस अधिकारियों, जैसे माता प्रसाद, डी. पी. वरुण और सी. डी. गौतम से उसी वक्त पहली दफा मिलना हुआ था। खैर! सालभर की मशक्कत के बाद हम दोनों की लघु इकाइयाॅं अपने-अपने शेडों में खड़ी हो गईं। शेड संख्या एक में रमेश प्रभाकर का ‘अदिति काॅपी हाउस’ और शेड संख्या दो में मेरा ‘रामपुर प्रिन्टिंग प्रेस’। रामपुर में दलितों की ये पहली इकाइयाॅं थीं, जो हम लोगों ने स्थापित की थीं। इकाइयाॅं लगते ही, जिनके हाथ में शहर का बाजार था, उन बनियों में खलबली मच गई। हमारी इकाइयों को ठप करने की योजनाएॅं बनने लगीं। हम बाजार से पहली बार रू-ब-रू हुए थे, और साफ देख रहे थे कि बाजार हमें अपनाने को तैयार नहीं था और बाजार को अपनाने पर हमारी बरबादी तय थी। आठ घण्टे लगातार मशीन चलने पर ही प्रेस के खर्चे और ऋण की किश्तें निकल सकती थीं, पर बाजार के भरोसे मशीन ठीक से दो घण्टे भी नहीं चल रही थी। उसी समय दिमाग में प्रकाशन शुरु करने का विचार आया। उस वक्त तक मैं एक किताब लिख चुका था-‘डा. अम्बेडकर बौद्ध क्यों बने?’ मैंने उसकी कम्पोजिंग शुरु करा दी। पर किताबें छापने के लिए भी कम्पोजीटर और मशीनमैन को वेतन देने के अलावा कागज के लिए भी नकद पूॅंजी चाहिए थी, जो मेरे पास नहीं थी। तब जाब-वर्क के रूप में छापने के लिए किताबें ढॅंूढ़ने का काम शुरु हुआ। रेवतीराम की किताब ‘बाबासाहेब डा. अम्बेडकर और बाबू जगजीवन राम’ की छपाई इसी आधार पर मेरी प्रेस से हुई थी। उस पर प्रकाशक के रूप में भी ‘बोधिसत्व प्रकाशन’ का नाम छापा गया था, जिसे मैं चला रहा था। इस तरह यह मेरे प्रकाशन की 19वीं किताब थी।
1980 में, रमेश प्रभाकर ने, कापी मैनुफेक्चरिंग का काम बन्द होने के बाद, एक पाक्षिक अखबार निकाला था-‘मूक भारत’। बारह पृष्ठों के उस अखबार के वह प्रधान सम्पादक थे और मैं सम्पादक। वह अखबार भी मेरी ही प्रेस में छपता था। उन दिनों बाबू जगजीवन राम जी दलित गौरव के रूप में सर्वाधिक चर्चित थे। स्थिति यह थी कि जिधर बाबूजी जाते थे, उधर ही दलित वर्ग जाता था। ‘जनता पार्टी’ से बाबूजी अलग हो गए थे, तो दलित वर्ग भी उससे अलग हो गया था, क्योंकि उस समय तक वैकल्पिक दलित राजनीति का उदय नहीं हुआ था। ‘मूक भारत’ की आर्थिक सहायता के लिए रमेश ने दिल्ली चलकर बाबूजी से बात करने का विचार रखा। मुझे विश्वास नहीं था कि वे मदद करेंगे। फिर भी, मैं और रमेश रात की किसी ट्रेन से (यह अप्रेल 1980 के पहले सप्ताह की कोई तारीख होनी चाहिए) चलकर सुबह 8 बजे तक उनके आवास 6, कृष्णा मेनन मार्ग पर पहुॅंच गए। वहाॅं और भी बहुत से मुलाकाती थे। नम्बर आने पर हम भी अन्दर गए। बाबूजी एक बड़े सोफे पर बाईं तरफ बैठे थे। नमस्कार करने के बाद हमने ‘मूक भारत’ के प्रवेशांक की एक प्रति उन्हें भेंट की, जिसमें उनके बारे में मेरा एक लेख छपा था। हमने खड़े-खड़े ही अखबार खोलकर उन्हें उस लेख को दिखाया। रमेश ने अखबार के लिए कुछ मदद माॅंगी और यह भी कहा कि इसे आप पर बेस करना चाहते हैं। इससे पहले हम बाबूजी से कभी नहीं मिले थे। वह हमारी पहली मुलाकात थी। उस पहली मुलाकात में ही वे हमें बहुत सहज लगे थे। उन्होंने हमसे दो बातें कहीं थीं। पहली बात आगरा के जाटवों के सम्बन्ध में थी, जो मैं भूल चुका हूॅं। दूसरी बात बात याद है, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘अपना इतिहास लिखो। और हमारा इतिहास विरोधियों के इतिहास में मिलेगा। वेदों में, स्मृतियों में दो धाराएॅं साथ-साथ चलती हैं, एक विरोध की और दूसरी समर्थन की। जो विरोध की धारा है, वही हमारी धारा है। उसी धारा में मूलनिवासियों का इतिहास है।’ इसके बाद उन्होंने कहा, हर महीने दो हजार रुपए ले जाना। फिर घण्टी बजाकर किसी को बुलाकर उनसे कहा, ‘इन्हें दो हजार रुपए दे दो।’ हम बाहर आए, बाईं ओर स्थित आफिस में गए, जहाॅं उस व्यक्ति ने हमें बिना किसी लिखा-पढ़ी के दो हजार रुपए दे दिए। बाद में पता चला कि वह व्यक्ति त्रिवेणी सहाय थे। 1980 में दो हजार रुपए पर्याप्त थे, एक हजार प्रतियाॅं छापने के बाद भी कुछ रुपए बच जाते थे, जो अन्य मदों में खर्च हो जाते थे।  
यह सिलसिला कुछ महीनों तक ही चला। एक बार रमेश रुपए लेने अकेले दिल्ली गए, बाबूजी से मिले, पर उन्होंने रुपए नहीं दिए। रुपए हम दोनों के एक साथ जाने पर ही मिलते थे। अगर मैं भी अकेले जाता, तो मुझे भी वे शायद रुपए नहीं देते। शायद किसी के भी अकेले जाने से यह विचार आना स्वाभाविक था कि हम दोनों एक दूसरे से अलग हो गए हैं और साथ-साथ नहीं हैं। पर, नवम्बर 1980 में रेवतीराम की पुस्तिका ने सारा खेल बिगाड़ दिया। इसका पता तब चला, जब हम दोनों बाबूजी से रुपए लेने गए और त्रिवेणी सहाय ने हमें बाबूजी से बिना मिलवाए ही बैरंग वापिस लौटा दिया। रमेश ने मेरी तरफ देखा और मैंने उसकी तरफ। माजरा न उसकी समझ में आया और न मेरी। हम वापिस रामपुर आए। उसके कुछ दिनों बाद ही, एक बड़ा विस्फोट हुआ। उस मनहूस दिन की तारीख भी याद नहीं आ रही है। मैं किसी काम से शहर में कहीं गया हुआ था। शाम को लौटकर जब प्रेस आया, तो देखता क्या हूॅं कि प्रेस पर सरकारी ताला लगा हुआ है, जो कपड़े से सिलकर सील्ड कर दिया गया है। उसे देखकर मेरी क्या मनोस्थिति हुई होगी, यह कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है। वह प्रेस ही सील्ड नहीं हुआ था, मेरी जीविका, मेरा भविष्य और मेरा संघर्ष सब सील्ड हो गया था। पता चला कि कुछ किश्तें रुक जाने से बैंक वालों ने पुलिस की सहायता से मेरा प्रेस सील्ड किया है। मुझे इसमें बाबूजी का हाथ नजर आया था। शहर के बाजार और बनियों के लिए यह बहुत ही सुखद समाचार था। बैंक और प्रशासन ने मुझे जिस तरह जलील किया था, उस हालत में मैं रामपुर में नहीं रह सकता था। मैंने रामपुर छोड़ दिया। कहाॅं-कहाॅं भटका, यह एक अलग कहानी है, जिस पर फिर कभी लिखूॅंगा। दो साल के बाद रमेश ने बताया कि इसके पीछे रेवती राम का ही हाथ था। उसी ने मुझे बताया कि पंजाब नेशनल बैंक, रामपुर ने प्रेस को नीलाम करके बकिया कई हजार रुपयों की वसूली का मुकदमा मेरे खिलाफ रामपुर कोर्ट में कर दिया था, पर कोर्ट ने यह कहकर मुकदमा खारिज कर दिया था कि जब आपने एक उद्यमी का उद्योग ही खत्म कर दिया, तो बकिया का कोई मामला नहीं बनता।
यह मेरा बचपना ही था, जो मैंने बाबूजी पर शक किया था।  6 अगस्त 1984 को नई दिल्ली के विट्ठल भाई पटेल भवन के मावलंकर हाल में ‘भारतीय दलित साहित्य अकादमी’ की स्थापना के अवसर पर बाबूजी ने जिस आत्मीयता से मुझसे और रमेश प्रभाकर से बातचीत की थी, और हम सबके बीच खाना खाया था, वह रेवतीराम जैसे संकीर्ण दलितों के मुंह पर सबसे बड़ा तमाचा था।
मैं अपने इस संस्मरणात्मक लेख का समापन बाबू जगजीवन राम के एक भाषण के एक अंश से करना चाहूॅंगा। कहा जाता है कि वे डा. आंबेडकर के विरोधी थे। हो सकता है, रहे हों। पर 24 अप्रेल 1983 को मद्रास में उनके मराठा विश्वविद्यालय के नामान्तर आन्दोलन के पक्ष में दिया गया भाषण उनको आंबेडकर-विरोधी साबित नहीं करता है। उनके उस भाषण का वह अंश मैं यहाॅं प्रस्तुत कर रहा हूॅं-
‘‘डा मराठवाड़ा विश्वविद्यालय को डा. आंबेडकर विश्वविद्यालय के रूप में परिवर्तित करने का प्रश्न वर्षों से टलता आ रहा है। इस माॅंग के लिए महाराष्ट्र के हमारे अनुसूचित जाति के मित्रों ने भारी कीमत चुकाई है, क्योंकि मराठों ने उनके घर जलाए, तथा निर्मम हत्याएॅं कीं। कुछ दिनों पहले आपने अखबारों में पढ़ा होगा कि मराठा विश्वविद्यालय का नामान्तर डा. आंबेडकर विश्वविद्यालय में करने का बिल महाराष्ट्र विधान सभा ने अस्वीकार कर दिया है। महाराष्ट्र विधान सभा में काॅंगे्रस-आई का बहुमत है और महाराष्ट्र मंत्रीमण्डल कांग्रेस-आई का मंत्रीमण्डल है। श्रीमती इन्दिरा गाॅंधी नहीं चाहतीं कि मराठवाड़ा विश्वविद्यालय डा. आंबेडकर विश्वविद्यालय में परिवर्तित किया जाय, अन्यथा काॅंगे्रस बहुमत वाली विधान सभा इस बिल को कैसे अस्वीकार कर देती? जब भी कोई काॅंग्रेसी मुख्यमंत्री मरता है, तो उसके नाम पर एक विश्वविद्यालय की स्थापना हो जाती है। विधानचन्द्र राय पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री थे। जब वह मरे, विधानचन्दं्र राय विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। गोविन्द वल्लभ पन्त मरे और गोविन्द वल्लभ पन्त विश्वविद्यालय स्थापित किया गया। डा. सम्पूर्णानन्द मरे, वह भी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, और उनके नाम से भी सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय बना। ललितनारायण मिश्र तो मुख्यमंत्री भी नहीं थे। उनकी हत्या हुई, उनके नाम पर ललितनारायण मिश्र विश्वविद्यालय बना। तब फिर डा. आंबेडकर विश्वविद्यालय क्यों नहीं बन सकता? क्या इसलिए नहीं बन सकता कि वे दलित थे और इसलिए योग्य नहीं थे कि उनके नाम पर विश्वविद्यालय बने?’’
5 अप्रेल 2015