सोमवार, 29 अक्तूबर 2012


वाल्मीकि जयंती  और दलित मुक्ति का प्रश्न 

कँवल भारती

      आज वाल्मीकि जयंती है. सरकार ने आज की छुट्टी घोषित की है. अगर यह छुट्टी रामायण के रचयिता आदि कवि वाल्मीकि के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए होती, तो यह एक अलग प्रश्न होता. तब वेदों, गीता, महाभारत के रचयिताओं के नाम की छुट्टियों का प्रश्न भी पैदा होता. लेकिन ऐसा नहीं है. यह छुट्टी सरकार ने सफाई कर्मचारियों को ध्यान में रख कर घोषित की है. अब सवाल यह विचारणीय है कि वाल्मीकि का सफाई कर्मचारियों से क्या सम्बन्ध बनता है? वाल्मीकि मंचों से भी इस दिन छुआछूत और दलित मुक्ति पर चर्चा होती है. पर क्यों? यह प्रश्न मुझे बहुत परेशान करता है. मैंने इस विषय में बहुत मंथन किया, बहुत अध्ययन किया और बहुत सोचा, पर मेरा समाधान नहीं हुआ. आज भी यह सवाल अनसुलझा ही है कि दलित मुक्ति से वाल्मीकि का क्या संबंध है? वाल्मीकि ब्राहमण थे,यह बात रामायण ही हमें बताती है. वाल्मीकि ने कठोर तपस्या की, यह भी पता चलता है. दलित परम्परा में तपस्या की अवधारणा ही नहीं है. यह वैदिक परम्परा की अवधारणा  है. इसी वैदिक परम्परा से वाल्मीकि आते हैं. वाल्मीकि का आश्रम भी वैदिक परम्परा का गुरुकुल है, जिसमें ब्राह्मण और  राजपरिवारों के बच्चे विद्या अर्जन करते हैं. ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि वाल्मीकि ने शूद्रों को शिक्षा दी हो. अछूत जातियों की या सफाई कार्य से जुड़े लोगों की मुक्ति के संबंध में भी उनके किसी आन्दोलन का पता नहीं चलता. फिर वाल्मीकि सफाई कर्मचारयों के  भगवान  कैसे हो गए?
       जब हम इतिहास का अवलोकन करते हें, तो १९२५ से पहले हमें वाल्मीकि शब्द नहीं मिलता.  सफाई कर्मचारियों  और चूह्डों को हिंदू फोल्ड में बनाये रखने केउद्देश्य से उन्हें वाल्मीकि से जोड़ने और वाल्मीकि नाम देने की योजना बीस के दशक में आर्य समाज ने  बनाई थी. इस काम को जिस आर्य समाजी पंडित ने अंजाम दिया था, उसका नाम अमीचंद शर्मा था। यह वही समय है, जब पूरे देश में दलित मुक्ति के आन्दोलन चल रहे थे. महाराष्ट्र में डा. आंबेडकर का हिंदू व्यवस्था के खिलाफ सत्याग्रह,  उत्तर भारत में स्वामी अछूतानन्द का आदि हिंदू आन्दोलन और पंजाब में मंगूराम मूंगोवालिया का आदधर्म आन्दोलन उस समय अपने चरम पर थे. पंजाब में दलित जातियां बहुत तेजी से आदधर्म स्वीकार कर रही थीं. आर्य समाज ने इसी क्रांति को रोकने के लिए अमीचंद शर्मा को काम पर लगाया. योजना के तहत अमीचंद शर्मा ने सफाई कर्मचारियों के महल्लों में आना-जाना शुरू किया. उनकी कुछ समस्याओं को लेकर काम करना शुरू किया. शीघ्र ही वह उनके बीच घुल-मिल गया और उनका नेता बन गया. उसने उन्हें डा. आंबेडकर, अछूतानन्द और मंगूराम के आंदोलनों के खिलाफ भडकाना शुरू किया. वे अनपढ़ और गरीब लोग उसके जाल में फंस गए. १९२५ में अमीचंद शर्मा ने 'श्री वाल्मीकि प्रकाश' नाम की किताब लिखी, जिसमें उसने वाल्मीकि को उनका गुरु बताया और उन्हें वाल्मीकि का धर्म अपनाने को कहा. उसने उनके सामने वाल्मीकि धर्म की रूपरेखा भी रखी. आंबेडकर, अछूतानन्द और मंगूराम के आन्दोलन दलित जातियों को गंदे पेशे छोड़ कर स्वाभिमान के साथ साफ-सुथरे पेशे अपनाने को कहते थे. इन आंदोलनों के प्रभाव में आकार तमाम दलित जातियां गंदे पेशे छोड़ रही थीं. इस परिवर्तन से हिंदू बहुत परेशान थे. उनकी चिंता यह थी कि अगर सफाई करने वाले दलितों ने मैला उठाने का काम छोड़ दिया, तो हिंदुओं के घर नर्क बन जायेंगे. इसलिए अमीचंद शर्मा ने वाल्मीकि धर्म खड़ा करके सफाई कर्मी समुदाय को 'वाल्मीकि समुदाय' बना दिया. उसने उन्हें दो बातें समझायीं। पहली यह कि हमेशा हिन्दू धर्म की जय मनाओ, और दूसरी यह कि यदि वे हिंदुओं की सेवा करना छोड़ देंगे, तो न् उनके पास धन आएगा और न् ज्ञान आ पा पायेगा.
      अमीचंद शर्मा का षड्यंत्र कितना सफल हुआ, यह आज हम सबके सामने है.आदिकवि वाल्मीकि के नाम से सफाई कर्मी समाज वाल्मीकि समुदाय के रूप में पूरी तरह स्थापित हो चुका है. 'वाल्मीकि धर्म 'के संगठन पंजाब से निकल कर पूरे उत्तर भारत में खड़े हो गए हैं. वाल्मीकि धर्म के अनुयायी वाल्मीकि की माला और लोकेट पहनते हैं. इनके अपने धर्माचार्य हैं, जो बाकायदा प्रवचन देते हैं और कर्मकांड कराते हैं. ये वाल्मीकि जयंती को प्रगटदिवस कहते हैं. इनकी मान्यता है कि वाल्मीकि भगवान हैं, उनका जन्म नहीं हुआ था, वे कमल के फूल पर प्रगट हुए थे, वे सृष्टि के रचयिता भी हैं और उन्होने रामायण की रचना राम के जन्म से भी चार हजार साल पहले ही अपनी कल्पना से लिख दी थी.

२९ अक्टूबर २०१२

रविवार, 28 अक्तूबर 2012

सवाल प्रतिनिधित्व का है, आरक्षण का नहीं 

कँवल भारती

      नामवर सिंह ने गत दिनों दस किताबों का विमोचन किया। उनमें एक किताब दलित लेखक अजय नावरिया की थी। दसों किताबें सवर्णों की होनी चाहिए थीं। उनमें एक दलित कैसे घुस गया? प्रकाशक की यह मजाल कि वह  सवर्णों  की जमात में दलित को खड़ा कर दे! बस नामवर सिंह का पारा चढ़ गया। वह जितना गरिया सकते थे, उन्होंने दलित को गरियाया। फिर उन्होंने  फतवा दिया कि अगर साहित्य में लेखकों को आरक्षण मिलने लगे तो वह राजनीति की तरह गंदा हो जाएगा। कोई दलित के नाम पर पागल हो चुके इस छद्म वामपंथी से यह पूछे कि अगर सवर्ण इतने ही साफ़ सुथरे थे, तो भारत दो हजार वर्षों तक गुलाम क्यों बना? आज जब दलित लेखक तुम्हारे साहित्य, धर्म और संस्कृति की बखिया उधेड़ रहे हैं, तो तुम्हे यह गन्दा लग रहा है। आज दलित के मुहं में जुबान आ गयी है, अपनी बात कहने के लिए, तो नामवर सिंह को यह गंदगी दिखाई दे रही है। सामन्तवाद की जुगाली करने वाला यह छद्म प्रगतिशील कह रहा है कि साहित्य में आरक्षण देने से राजनीति की तरह साहित्य भी गन्दा हो जायेगा। यह घोर दलित विरोधी बयान ही नहीं है, लोकतंत्र विरोधी बयान भी है। यह राजशाही का समर्थन करने वाला बयान है, जिसमें शूद्रों और दलितों के लिए गुलामी के सिवा कोई अधिकार नहीं थे। ऐसा लगता है कि नामवर सिंह ने इतिहास नहीं पढ़ा है। अगर पढ़ा होता तो उन्हें मालूम होता कि भारत की राजनैतिक सत्ता ब्रिटिश ने कांग्रेस को सौपी थी, न कि दलितों को। चार दशकों तक भारत पर कांग्रेस ने राज किया, जो ब्राह्मणों, सामन्तों और पूंजीपतियों की पार्टी थी। फिर नामवर सिंह बताएं कि राजनीति को किसने गन्दा किया? क्या कांग्रेस में दलितों की चलती थी? दलित तो कांग्रेस में यसमैन थे। वे न नीति निर्माता थे और न फैसला लेने वाले। तब जाहिर है कि राजनीति को गन्दा करने वाले लोग ब्राह्मण, ठाकुर और बनिया हैं। पिछले दस सालों में भ्रष्टाचार के जितने भी घोटाले हुए हैं, उनके करने वाले सब के सब सवर्ण हैं। हाँ, कुछ दलित भी जरूर भ्रष्ट हुए हैं, पर उन्होंने सिर्फ भ्रष्ट व्यवस्था का लाभ उठाया है। दलित नेता चाहे मायावती हों, चाहे मुलायम सिंह, वे व्यवस्था के निर्माता नहीं हैं, सिर्फ लाभार्थी हैं।
      नामवर सिंह किस आरक्षण की बात कर रहे हैं? ऐसा लगता है कि उन्हें आरक्षण फोबिया हो गया है। क्या वह कोई उदाहरण दे सकते हैं कि कब दलित लेखकों ने साहित्य में आरक्षण की मांग की है? दलितों ने नौकरियों में आरक्षण की मांग की है, जो उनका संवैधानिक अधिकार है। इस अधिकार के तहत कुछ दलित विश्वविद्यालयों में नौकरी पा गये हैं। संयोग से वे लेखक भी हैं। अजय नावरिया भी जामिया मिलिया में प्रोफेसर हैं। नामवर सिंह को यही आरक्षण हजम नहीं हो रहा है। साहित्य तो सिर्फ बहाना है। जिन विश्वविद्यालयों में द्विजों का राज था, उनमें दलित उन्हें बर्दाश्त नहीं हो रहा है। कल्पना कीजिये, जब विश्वविद्यालयों में मुट्ठी भर दलितों का यह प्रताप है कि देश के सारे विश्वविद्यालयों में दलित साहित्य पढ़ाया जाने लगा है, तो पचास-साठ साल बाद क्या हाल होगा, जब विश्वविद्यालयों में दलितों का भरपूर प्रतिनिधित्व होगा? दरअसल नामवर सिंह इसीको गंदगी कह रहे हैं। इन सामंतों को कैसे समझाया जाए कि जिसे वो आरक्षण कह रहे हैं, वो प्रतिनिधित्व है। दलित आरक्षण नहीं, अपना प्रतिनिधित्व चाहते हैं। साहित्य में भी दलित लेखक प्रतिनिधित्व की बात करते हैं। अगर नामवर सिंह चाहते हैं कि साहित्य में द्विजों का ही प्रतिनिधित्व बना रहे, तो ऐसा साहित्य अलोकतांत्रिक और वर्णवादी ही होगा। और ऐसा साहित्य आज नहीं तो कल, कूड़ा घर में ही पड़ा होगा।    


28 अक्टूबर 2012 
       









मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012


मलाला तुम मर नहीं सकतीं 
कँवल भारती 


तालिबान तुम से  डर गया मलाला 
तुम्हारी तहरीक ने तालिबान को परास्त कर दिया
तुमने इस्लाम को बचा लिया। 
तुम इस्लाम की अप्रितम योद्धा हो 
तुम नहीं मर सकतीं मलाला 
तुम पाक के मुस्लिम इतिहास में हमेशा जीवित रहोगी 
जैसे भारत के हिन्दू इतिहास में शम्बूक जीवित है। 
तुमने तालिबान की वर्ण व्यवस्था को ललकारा है, 
जो ख्वातीन की शिक्षा पर पाबन्दी लगाती है, ठीक उसी तरह 
जैसे शम्बूक ने ललकारा था रामराज्य की वर्ण व्यवस्था को,
जिसमें शूद्रों की शिक्षा पर पाबन्दी थी। 
तालिबान भयभीत था कि अगर लड़कियां पढ़ गयीं, 
तो मुस्लिम समाज बेदार हो जायेगा 
जिसे वह चाहता था अँधेरे में रखना। 
ठीक ऐसे ही रामराज्य  का ब्राह्मण भयभीत था कि अगर शूद्र पढ़ गये, 
तो उसमें ज्ञानोदय हो जायेगा और वह गुलामी छोड़ देगा। 
तुम जानती हो मलाला,
जो तुमने किया वही शम्बूक ने किया था।
तुमने नहीं माना तालिबान के फरमान को, 
और स्कूल जा कर उलट दी  उसकी व्यवस्था
ऐसे ही  शम्बूक ने उलट दी थी
स्थापित कर देह की भौतिक व्यवस्था।
तिलमिलाया था ब्राह्मण, 
जैसे तालिबान तिलमिलाया तुम से।
शम्बूक ने की थी रामराज्य में बगावत 
जैसे तुमने की तालिबान के राज से बगावत। 
तुम खतरा बन गयीं थीं तालिबान की सत्ता  के लिए, 
ऐसे ही शम्बूक बन गया था ब्राह्मण की सत्ता के लिए खतरा।
ब्राह्मण की सत्ता बचाने के लिए
राम को मारना पड़ा था शम्बूक को,
जैसे तालिबान को तुम्हे मारना पड़ा
अपनी सत्ता बचाने के लिए। 
लेकिन तुम मरोगी नहीं मलाला,
मरेगा तालिबान।
तुमने झकझोर दिया है कोमा में पड़े पाकिस्तान को 
जगा दिया औरतों को, 
जागृत हो तुम अब हर मुसलमान लड़की में।
जैसे शम्बूक अब हर शूद्र में जागृत है
अस्मिता और स्वाभिमान के रूप में। 
तुम भी मलाला हमेशा जीवित रहोगी 
मुस्लिम लड़कियों में अस्मिता और स्वाभिमान की 
मशाल बन कर।
                  
                                           कँवल भारती