शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2014

क्या डॉ. आंबेडकर विफल हुये?
कॅंवल भारती
                दलित चिन्तक एवं लेखक आनन्द तेलतूमड़े ने कहा है कि आंबेडकर के सारे प्रयोग, ब्राह्मणवाद के प्रति उनकी नफरत के कारण, विफलता में समाप्त हुये। यह बात उन्होंने चण्डीगढ़ में 'जाति प्रश्न और मार्क्सवाद' विषय पर आयोजित एक पाँच दिवसीय (12-16 मार्च 2013) संगोष्ठी में कही थी। कात्यायनी ने मुझे भी इस संगोष्ठी में आमन्त्रित किया था, आमन्त्रण पत्र में कुछ केन्द्रीय मुद्दे भी दिये गये थे, जिनमें जाति प्रश्न पर मार्क्सवादी प्रतिपक्ष था। मैं आंबेडकरवादी पक्ष रखने के मकसद से इस संगोष्ठी में जाने के लिये बहुत उत्सुक था, पर अपने घुटने की तकलीफ की वजह से नहीं जा सका था। लेकिन संगोष्ठी की जो रिपोर्ट पढ़ने को मिली, वह दलितों को निराश करती है।
पहले आनन्द तेलतूमड़े की बात को लें। उन्हें मैं पिछले कुछ महीनों से जानता हूँ। वे मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर में एक सेमिनार (20-21 नवम्बर 2012) में मुख्य अतिथि थे और मैं मुख्य वक्ता। संयोग से हम दोनों के पेपर भी एक ही विषय पर थे- आंबेडकर और मार्क्स के विचारों पर। लेकिन फर्क यही था कि उनका पेपर अंग्रेजी में था, मेरा हिन्दी में। पर, मेरे पेपर में भी आलोचना के केन्द्र में मार्क्सवादी थे और उनके पेपर में भी। लेकिन एक भिन्नता बौद्ध धर्म को लेकर जरूर थी, जिसे मैं दलित जातियों में जाति-विनाश के रूप में देखता हूँ और वे उसे एक विफल प्रयोग मानते हैं। जब वे दलित आन्दोलन और राजनीति पर चर्चा करते हैं, तो जाति की राजनीति का विरोध करते हैं, जो सही भी है और जैसा कि मैं भी अक्सर कहता हूँ कि जाति की राजनीति डॉ. आंबेडकर के समाजवादी विचारों के विरुद्ध पूँजीवाद को मजबूत करती है। लेकिन जब वे जाति व्यवस्था पर आंबेडकर के लेखन पर चर्चा करते हैंतो वे उसके विरोधी हो जाते हैं। कम्युनिस्टों और ब्राह्मणवादियों की दृष्टि में उनका यही विरोध उन्हें आंबेडकर-विरोधी बना देता है चण्डीगढ़-संगोष्ठी में आनन्द तेलतूमड़े द्वारा जो व्याख्यान दिया गयाउसे यू-ट्यूब पर सुनने के बाद मुझे भी वे आंबेडकर-विरोधी ही नजर आये।उन्होंने कहा कि अंबेडकरवाद नाम की कोई चीज नहीं है और आंबेडकर की 'भारत में जाति' तथा 'जाति का उन्मूलन' पुस्तकों में उनके सभी समाधन गलत हैं। लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि वे समाधन किस तरह गलत हैं, न ही वे आंबेडकर का कोई अकादमिक मूल्याँकन कर सके।
                संगोष्ठी के आमन्त्रण-पत्र में दी गयी तहरीर इस बात की गवाही है कि संगोष्ठी का मकसद ही जाति प्रश्न पर आंबेडकर के नेतृत्व की असफलता और अप्रासंगिकता को रेखांकित करना था।इसलिये मैं इस आलेख में पहले उन्हीं बिन्दुओं पर चर्चा करना चाहता हूँ, जो संगोष्ठी के आमन्त्राण-पत्र में उठाये गये हैं। वे कहते हैं कि दलित प्रश्न को हल करने की प्रक्रिया के बिना व्यापक मेहनतकश अवाम की वर्गीय एकजुटता और उनकी मुक्ति-परियोजना की सफलता की कल्पना नहीं की जा सकती। बात सही है, लेकिन जब वे ये कहते हैं कि 'जो मार्क्सवाद को सच्चे अर्थों में आज भी क्रान्तिकारी व्यवहार का मार्गदर्शक मानते हैंउनके लिये यह अनिवार्य हो जाता है कि वे मार्क्सवादी नज़रिये से जाति प्रश्न के हर पहलू की सांगोपांग समझदारी बनाने की कोशिश करेंशोध्-अध्ययन और वाद-विवाद करें', तो सवाल यह जरूर पैदा होता है कि जब मार्क्सवाद में जाति का प्रश्न है ही नहीं, तो उस नज़रिये से शोध-अध्ययन और वाद-विवाद कोई कर भी कैसे सकता हैदुनिया जानती है कि मार्क्सवाद वर्ग की बात करता हैजाति की नहीं। फिर मार्क्सवादी नज़रिये से जाति के प्रश्न पर चर्चा करने की जरूरत क्या है? क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि वे एक गम्भीर बीमारी का इलाज उस पैथी में ढूँढ रहे हैं, जिसका उसमें इलाज ही नहीं है।
वे एक और बिन्दु उठाते हुये कहते हैं, 'ऐसे मार्क्सवादी अकादमीशियनों की कमी नहीं है, जो सबऑल्टर्न स्टडीज़ और 'आइडेण्टिटी पॉलिटिक्स'की पद्धति की मार्क्सवादी पद्धति के साथ खिचड़ी पकाकर 'वर्ग अपचयनवादी दोषों'को दुरुस्त करने की कोशिश कर रहे हैं। अतः इस विषय पर विस्तृत बहस-मुबाहसे की और अधिक जरूरत है।'मतलब साफ है कि उन्हें दलित अस्मिता की राजनीति पसन्द नहीं है। वे अपनी विचारधरा के साथ दलित विचारधरा की खिचड़ी नहीं चाहते। सम्भवतः, इसीलिये वे मार्क्सवाद और आंबेडकरवाद का समन्वय भी नहीं चाहते हैं, जिसका उल्लेख संगोष्ठी में पढ़े गये उनके आधर-आलेख में मिलता है। इसका अर्थ यह हुआ कि जो दलित बुद्धिजीवी जाति और वर्ग-विहीन समाज का सपना लेकर मार्क्स और आंबेडकर की विचारधरा के साथ चल रहे हैंवे उनकी नजर में गलत काम कर रहे हैं। इसका उन्हें बिल्कुल अहसास नहीं है कि इससे सामाजिक क्रान्ति को कितना धक्का लगेगा। वे सिर्फ मार्क्सवाद के जरिये क्रान्ति लाना चाहते हैं, जो वे आज तक नहीं ला सके। भारत के कम्युनिस्ट डॉ. आंबेडकर के समय से क्रान्ति का ढोल पीटते आ रहे हैं, पर सफल नहीं हो सके। वे भरसक दलितों पर विजय पाने की कोशिश करते हैं, परन्तु आज तक दलितों को अपनी विचारधरा से नहीं जोड़ पाये। किसी समय उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों में कम्युनिस्ट पार्टी से बीस-बाईस विधायक और आधा दर्जन के करीब सांसद हुआ करते थे। पर, आज क्या स्थिति है? वह जनाधर रेत की दीवार की तरह भरभरा कर क्यों ढह गया? कहाँ चला गया वह सारा जनाधार? क्या इसका कारण यह नहीं है कि वे कम्युनिस्ट थे ही नहीं, ब्राह्मणवादी मानसिकता वाले सवर्ण थे? वे छद्म कम्युनिस्ट थे और अपनी ब्राह्मणवादी मानसिकता से मुक्त ही नहीं हुये थे। इसलिये जब दलित उभार की आँधी चली, तो वे अपने जातीय अहं की तुष्टि के लिये उन्हीं पार्टियों में चले गये, जहाँ उनका वर्चस्व था।
अतः, कहना न होगा कि भारत का कम्युनिस्ट आन्दोलन इसी जातीय मानसिकता के कारण दलित जातियों में लोकप्रिय नहीं हो सका। मार्क्सवादियों का यह कहना सही है कि अस्मिता की राजनीति ने दलितों में वर्ग-चेतना विकसित नहीं होने दी। परदलितों का यह कहना भी सही है कि कम्युनिस्ट नेतृत्व अपने ब्राह्मणवादी चोले से बाहर ही नहीं निकला। उसने यह समझने की कोशिश ही नहीं की कि दलितों के लिये अस्मिता सबसे ज्यादा जरूरी चीज क्यों बन गयी? क्यों वे आज भी आरक्षण को अपने लिये सबसे ज्यादा जरूरी समझते हैं? मुझे नहीं लगता कि किसी मार्क्सवादी ने इस सवाल पर विचार किया होगा। अगर किसी ने किया भी होगा, तो सिर्फ इस वजह से कि राजनीतिक मंच पर वह दलित-विरोधी न समझ लिये जायें। क्या मार्क्सवादी यह जानने की कोशिश करेंगे कि उनसे कहाँ गलती हुयी है? यह गलती उनसे उसी दौर में हुयी, जब देश में आजादी की लड़ाई चल रही थी। तब उन्होंने उसी काँग्रेस का साथ दिया था, जो राजाओं-महाराजाओं, ब्राह्मणवादियों और पूँजीवादियों के साथ खड़ी थी। उस समय डॉ. आंबेडकर पूँजीवाद और ब्राह्मणवाद के खिलाफ समाजवादियों से अपीलें कर रहे थे कि वे काँग्रेस के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनायें। पर, समाजवादी नेता तब जाति के सवाल पर डॉ. आंबेडकर के साथ खड़े होने के लिये बिल्कुल भी तैयार नहीं थे। वे सिर्फ वर्ग की ही बातें करते थे, जो वे आज भी करते हैं। जातियों में वर्ग हैंइससे इन्कार नहीं है। परवे इसे क्यों नहीं स्वीकार करते कि भारत में वर्ग जाति के बाद आता है। तब वे जाति व्यवस्था पर नजर क्यों नहीं डालतेजिसने एक बड़ी आबादी को सारे अधिकारों और मनुष्य होने की गरिमा तक से वंचित करके रखा हुआ था। क्या इस आबादी को समाज में अधिकार और मनुष्य की गरिमा दिलाने का डॉ. आंबेडकर का आन्दोलन गलत था? क्या यह दलितों की स्वतन्त्रता और मुक्ति की लड़ाई नहीं थी? आज जिस पूँजीवादी समाज में हम सब रहते हैं, उसमें यदि दलित पढ़-लिख गये हैं, शासन-प्रशासन में आ गये हैं, साहित्यकार और कलाकार हो गये हैं, उनमें एक मध्य वर्ग विकसित होने लगा है और कुछ उद्योगपति भी बनने लगे हैं, तो निस्सन्देह यह सब अस्मिता और भागीदारी की राजनीति के कारण हुआ है और यह भी सच है कि यह सब आरक्षण के कारण हुआ है, भले ही इससे पूँजीवाद मजबूत होता हो। लेकिन विचार का बिन्दु यहाँ यह है कि वंचित जातियाँ यह कैसे बरदाश्त कर लें कि उनको छोड़ कर बाकी सब लोग पढ़ें-लिखें, तरक्की करें, अफसर बनें, जज बनें, सारी सुविधाओं के साथ कोठियों में रहें और वे जिन्दगी भर अनपढ़, गरीब, फटेहाल मजदूर बने रहें और झुग्गी-झोंपड़ियों और फुटपाथों पर ही जिन्दगी गुजार दें। अगर अस्मिता की राजनीति ने उन्हें भी कुछ तरक्की करने का रास्ता दिखाया हैतो वे कम्युनिस्ट आन्दोलन से क्यों जुड़ेंगेजो आज भी उनकी अस्मिता को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। हम जानते हैं कि वर्गीय दृष्टि से यह सही नहीं हैपरन्तु दलितों में वर्गों का निर्माण होने में अभी समय लगेगावंचित जातियों में वर्ग-निर्माण की प्रक्रिया बहुत धीमी होती है,जब वर्ग पूरी तरह बन जायेंगेतब समाजवाद की चेतना भी दलितों में विकसित होनी ही है। पूँजीवाद का विकास ही वर्ग निर्माण की प्रक्रिया को जन्म देता है और जो दलितों में अवश्यम्भावी है।
दलित चिन्तन अक्सर इस बात को उठाता है कि स्वतन्त्रता-संग्राम के दौरान समाजवादी नेताओं ने डॉ. आंबेडकर के दलित-स्वतन्त्रता-आन्दोलन को समर्थन नहीं दिया। यह समझ में नहीं आने वाली पहेली है कि वह उनकी नजरों में समाजवादी आन्दोलन क्यों नहीं थाआज मार्क्सवादियों को इस सवाल पर आत्मचिन्तन और मन्थन करने की आवश्यकता है कि क्यों उनके नेतृत्व ने साम्राज्यवाद का विरोध तो कियापर
ब्राह्मणवाद का विरोध नहीं कियाक्यों उनके नेतृत्व ने दलित-मुक्ति के सवाल को अपने कार्यक्रम में शामिल नहीं कियाऔर क्यों उन्होंने सामाजिक क्रान्ति के बिना राजनीतिक क्रान्ति को महत्व दिया? संगोष्ठी के आधार आलेख में इस सत्य को स्वीकार किया गया है कि भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व, जन्म से ही, ढीला-ढाला था। वह यह भी स्वीकार करता है कि 'जिस (कम्युनिस्ट) पार्टी के पास 1951 तक भारतीय क्रान्ति का कोई कार्यक्रम ही नहीं था, उससे सिर्फ जाति प्रश्न पर सुस्पष्ट दिशा की अपेक्षा भला कैसे की जा सकती थी?' इससे साफ पता चलता है कि डॉ. आंबेडकर के दलित-नेतृत्व के महत्वपूर्ण दौर में कम्युनिस्ट पार्टी इस योग्य ही नहीं थी कि अपने उत्तरदायित्व को समझती। जब भारत के दलितों ने 1928 में साइमन कमीशन का स्वागत किया था और 1932 में डॉ. आंबेडकर ने गाँधी के साथ दलितों के राजनीतिक प्रतिनिध्त्वि के सवाल पर पूना में समझौता किया था, तब भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की कोई भूमिका दलितों के सन्दर्भ में नहीं थी। अब सवाल यह पैदा होता है कि तब कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका किस सन्दर्भ में थी? जाहिर है कि तब वह काँग्रेस के स्वतन्त्रता आन्दोलन में शामिल थी, जिसका नेतृत्व ब्राह्मणों और पूँजीपतियों के हाथों में था। उस काल में, जैसा कि श्रीपाद अमृत डांगे का कहना था, 'कम्युनिस्ट पार्टी का तात्कालिक लक्ष्य ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकना'था। पर, यहाँ आंबेडकर का सवाल यह था कि ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ना तो ठीक है, पर समाजवादियों के लिये यह सवाल भी गौरतलब होना चाहिये कि ब्रिटिश साम्राज्य के जाने के बाद भारत की शासन-सत्ता किनके हाथों में आयेगी, क्या वह ब्राह्मणों, सामन्तों और पूँजीपतियों के हाथों में ही रहेगी या मजदूर वर्ग के हाथों में आयेगी? समाजवादियों ने इस सवाल को हवा में उड़ा दिया। परिणाम वही हुआ, ब्रिटिश के जाने के बाद ब्राह्मणों, सामन्तों और पूँजीपतियों का ही साम्राज्य क़ायम हुआ। क्या आंबेडकर ने गलत सवाल किया था? उन्होंने यही सम्भावना व्यक्त की थी कि काँग्रेस का राष्ट्रीय आन्दोलन भारत में ब्राह्मण-राज ही कायम करेगा, जिसमें दलित-मजदूरों को कोई आजादी नहीं मिलने वाली है। इसे कोई कितना ही नकारने की कोशिश करेपर सच यही है कि भारत में ब्राह्मणवादी और पूँजीवादी साम्राज्यवाद कायम करने में कम्युनिस्ट और समाजवादी ताकतें अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकतीं।
लेकिन चण्डीगढ़-संगोष्ठी सम्भवतः आंबेडकर को नकारे जाने के लिये ही आयोजित हुयी थी। जिस तरह संगोष्ठी
नहीं किया? और वे उपनिवेशवाद-विरोधी संघष से अलग क्यों रहे? हालांकि स्वयं डॉ. आंबेडकर ने इन सवालों पर काफी कुछ कहा है, जिसे मार्क्सवादी न पढ़ना चाहते हैं और न समझना। चालीस के दशक का राजनैतिक परिदृश्य गवाह है कि जब डॉ. आंबेडकर ने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी बनायी थी, तो एम. एन. राय सहित सारे समाजवादी नेता उनके इसलिये विरोधी हो गये थे कि उन्होंने वर्ग-आधर पर काँग्रेस से बाहर कोई पार्टी क्यों बनायी? इन्हीं में उनके एक विरोधी अखिल भारतीय किसान सभा के अध्यक्ष स्वामी सहजानन्द भी थे, जिन्होंने यह कहते हुये सभी राजनीतिक पार्टियों को काँग्रेस में शामिल होने का आह्नान किया था कि काँग्रेस ही एकमात्र साम्राज्यवाद-विरोधी पार्टी है। इस पर डॉ. आंबेडकर ने स्वामी सहजानन्द को कहा था- यदि काँग्रेस के मन्त्री साम्राज्यवाद के विरोध में मन्त्रिमण्डल से इस्तीफा दे देते हैं, तो वह यह लिख कर देने को तैयार हैं कि वह और उनकी पार्टी काँग्रेस में शामिल हो जायेंगे। उनका कहना था, 'हम सबसे ज्यादा भूखे, सबसे ज्यादा पददलित, गरीब और पीड़ित लोग हैं। हमारे साथ जितना अन्याय हुआ है, उतना किसी के साथ नहीं हुआ है। पर, हम उच्च वर्गों के साथ अपने सारे मतभेद इसी क्षण खत्म करने को तैयार हैं, हम अपनी वर्गीय माँगों को भी छोड़ देंगे और काँग्रेस में शामिल हो जायेंगे, अगर काँग्रेस साम्राज्यवाद से लड़ने का निश्चय करती है।'लेकिन उन्होंने कहा कि यह सच नहीं है कि काँग्रेस साम्राज्यवाद-विरोधी संगठन है। वह साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्षरत नहीं है, बल्कि अपनी संवैधनिक मशीनरी का उपयोग पूँजीपतियों और अन्य निहित स्वार्थों के हितों के लिये कर रही है। वह मजदूरों और किसानों के हितों की बलि चढ़ाकर उनके शोषकों को ही पाल-पोस रही है।'यह पूरी रिपोर्ट 27 दिसम्बर 1938 के 'दि टाइम्स ऑफ इण्डिया' और 'दि बाम्बे क्रॉनिकल' में देखी जा सकती है। यहाँ यह भी गौरतलब है कि जिन स्वामी सहजानन्द ने सभी पार्टियों को काँग्रेस में शामिल होने का आह्वान किया थाबाद में उन्हें ही काँग्रेस छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था।
इसी सवाल पर फरवरी 1938 में डॉ. आंबेडकर ने दलित कामगार सभा में बहुत विस्तार से अपनी बात रखी थी। उन्होंने मजदूरों को काँग्रेस से स्वतन्त्र संगठन बनाने पर बल दिया था, जिसका विरोध कम्युनिस्टों का वह गुट भी कर रहा था, जिसके नेता एम. एन. राय थे। आंबेडकर ने आश्चर्य के साथ कहा कि 'एक कम्युनिस्टऔर वह भी स्वतन्त्र मजदूर संगठन का विरोधी! इतना भयानक विरोधभास! इसने कब्र में लेनिन को भी पागल कर दिया होगा।' उन्होंने सवाल किया कि यदि राय जैसे कम्युनिस्टों की नजर में साम्राज्यवाद का विनाश ही मुख्य लक्ष्य है, तो क्या वे इस बात की गारन्टी दे सकते हैं कि साम्राज्यवाद के समाप्त होने के साथ ही पूँजीवाद के सम्पूर्ण अवशेष भी भारत से समाप्त हो जायेंगे? यदि नहीं, तो दलित मजदूरों को आज से ही क्यों नहीं संगठित होना चाहियेडॉ. आंबेडकर के ये विचार क्या उन्हें साम्राज्यवादी साबित करते हैंक्या वे समाजवादी और कम्युनिस्ट सही थेजो उस काँग्रेस के साथ थेजिसका जन्म ही ब्रिटिश साम्राज्यवाद की रक्षा के लिये हुआ था?
आइये, इस सवाल पर विचार किया जाये कि डॉ. आंबेडकर स्वतन्त्रता-संग्राम से अलग क्यों रहे? इस सम्बन्ध में भी उन्होंने अपना पक्ष खुलकर स्पष्ट किया है, जिसे उनके विरोधी बिलकुल भी समझना नहीं चाहते। मार्क्सवादी और दूसरे समाजवादी भी इसका जो कारण मानते हैं, वह बिल्कुल गलत है। वे मानते हैं कि आंबेडकर वायसराय की कौंसिल (मन्त्रि-परिषद) में शामिल थे, इसलिये उपनिवेशवाद के साथ थे। कौंसिल में और भी बहुत से ब्राह्मण और मुस्लिम शामिल थे, पर उन्हें कोई भी उपनिवेशवादी और अंग्रेज-भक्त नहीं कहता, जबकि वे आंबेडकर की तरह दलितों के हित के लिये नहीं, बल्कि सत्ता-सुख के लिये कौंसिल में शामिल हुये थे। चूँकि अंग्रेज देश के शासक थे, इसलिये दलित अपनी मुक्ति की अपील अंग्रेज से ही कर सकते थे, हिन्दुओं से तो नहीं, जिनके पास कुछ भी ताकत नहीं थी। हिन्दू-मुसलमान सभी अपने दुखों के लिये अंग्रेज से ही अपील करते थे। वे देशद्रोही क्यों नहीं हुयेलेकिन कम्युनिस्टों ने आंबेडकर को देशद्रोही मानाक्योंकि उन्होंने साइमन कमीशन का बहिष्कार नहीं किया थास्वागत किया था। उसे दलितों की दुर्दशा पर ज्ञापन दिया था। गोलमेज सम्मेलन, लन्दन में उन्होंने हिन्दू प्रतिनिधियों का साथ न देकर उनका विरोध करते हुये दलितों के लिये राजनैतिक अधिकारों की माँग की थी। हाँ, यह सब उन्होंने किया था और सही किया था, क्योंकि दलित-हित में यही जरूरी था। उनके इसी संघर्ष से दलितों की मुक्ति के दरवाजे खुले। कम्युनिस्ट और हिन्दूवादी कितना ही आंबेडकर की भूमिका पर सवाल खड़े करेंपर दलित चिन्तन में वे दलित-मुक्ति की लड़ाई के अप्रितम योद्धा थेजिन्होंने अकेले ही दलितों को संगठित कियासंघर्षशील बनाया और राष्ट्रवादियोंहिन्दूवादियों और कम्युनिस्टों के विरोधों-अवरोधों से लगातार जूझते हुये उन्हें वे सारे हक दिलायेजो इससे पहले उन्हें कभी नहीं मिले थे। उन्होंने दलित-मुक्ति के सवाल पर अपनी व्याख्यान पुस्तक 'जाति का उन्मूलन'में पूछा है कि उन हिन्दुओं को आजादी की माँग करते का क्या हक है, जिन्होंने स्वयं करोड़ों लोगों को गुलाम बनाकर रखा हुआ है? जब आंबेडकर ने दलितों के राजनैतिक अधिकारों की माँग की थी, तब बम्बई में तिलक ने कहा था कि महार, मांग, तेली, चमार पार्लियामेंट में बैठ कर क्या करेंगे? ये वही तिलक थे, जिनका नारा 'स्वतन्त्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है'प्रसिद्ध है। डॉ. आंबेडकर ने उन्हें कहा था कि अगर तिलक अछूत जाति में जन्मे होते, तो उनका नारा होता- 'अस्पृश्यता मिटाना मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।'यदि स्वतन्त्रता हिन्दुओं का जन्मसिद्ध अधिकार है, तो यह उन अछूतों का भी जन्मसिद्ध अधिकार क्यों नहीं है, जिन्हें हिन्दुओं ने गुलाम बनाकर रखा है? आंबेडकर के सामने उपनिवेशवाद से भी बड़ा सवाल दलितों की स्वतन्त्रता का सवाल था। उनका कहना था कि यदि एक देश को दूसरे देश पर शासन करने का अधिकार नहीं है, जैसा कि उपनिवेशवाद के खिलाफ हिन्दू तर्क देते हैं, तो फिर एक वर्ग को दूसरे वर्ग पर भी शासन करने का अधिकार नहीं है। हिन्दू सिर्फ अपने लिये आजादी चाहते थे, दलितों को वे हिन्दू फोन्ड में रख कर अपने अधीन शासित बनाकर ही रखना चाहते थे। कम्युनिस्ट पार्टी के पास क्रान्ति की कोई रूपरेखा ही नहीं थी, जिससे यह पता चलता कि क्रान्ति के बाद उनकी समाजवादी या तानाशाही सरकार में दलितों की स्थिति और भूमिका क्या होती? क्या उन्हें सिर्फ अच्छी मजदूरी और मुफ्त मकान मिलता या शासन-प्रशासन में भागीदारी भी मिलती? हिन्दुओं पर दलितों को बिल्कुल भी भरोसा नहीं था। उनका राज ब्राह्मणों और पूँजीपतियों का ही राज होता। ऐसे राजनैतिक घटाटोप में दलितों का भविष्य अंध्कार में ही था, यदि उन्हें डॉ. आंबेडकर का क्रान्तिकारी नेतृत्व नहीं मिला होता। किन्तु यदि वे उपनिवेशवाद के साथ थे, तो उनके विरोधियों के लिये यह जानना जरूरी है कि यह उपनिवेशवाद ही थाजिसने दलितों के लिये उन दरवाजों और रास्तों को खोला थाजिन्हें ब्राह्मणवाद ने बन्द किया था। ब्राह्मणवाद ने उन्हें मानवीय अधिकारों से वंचित रखा थापर यह उपनिवेशवाद ही थाजिसने उन्हें समान मानवाधिकार प्रदान किये थे। ब्राह्मणवाद ने उनको पशुवत स्थिति में रखा था, पर यह उपनिवेशवाद ही था, जिसने उन्हें मानवीय गौरव दिया था।
मार्क्सवादी जाति-मुक्ति का सवाल उठाते हैं, जबकि डॉ. आंबेडकर ने दलित-मुक्ति का सवाल उठाया था। जाति का उन्मूलन वही कर सकते हैं, जिन्होंने इसे बनाया है। यह दलितों की बनायी हुयी व्यवस्था नहीं है, इसलिये दलित इसे नष्ट नहीं कर सकते। चूँकि चण्डीगढ़ की संगोष्ठी जाति-मुक्ति के सवाल पर थी, दलित-मुक्ति के सवाल पर नहीं, इसलिये उन्होंने आंबेडकर को गरियाने में अपनी उर्जा व्यर्थ ही नष्ट की। जाति-मुक्ति का उनके पास न कोई समाधन है और न वे कोई समाधन दे पाये। जाति का उन्मूलन दलितों का विषय नहीं है, इसलिये यह दलित आन्दोलन का कार्यभार कभी नहीं रहा। अतः, मार्क्सवादी चिन्तक डॉ. आंबेडकर और दलित आन्दोलन में जाति-मुक्ति का हल तलाशने की कवायद व्यर्थ ही करते हैं।
बहस में सन्दर्भ के लिये इन्हें भी पढ़ें –


मंगलवार, 21 अक्तूबर 2014


उपेक्षितों के दर्दों की गणना
(कॅंवल भारती)
वीरेन्द्र सारंग का उपन्यास ‘हाता रहीम’ पढ़ने के बाद लगा कि यह उस तरह का उपन्यास नहीं है, जिस तरह के उपन्यास एक खास फ्रेम में सामान्यतः लिखे जा रहे हैं, जिनमें एक मुख्य कथा होती है और उसी के भीतर छोटी-छोटी कथाएॅं, जो साथ-साथ चलती हैं। यह विचारधाराओं के भीतर बुना जाने वाला उपन्यास भी नहीं है, जिनका कि आजकल फैशन चल पड़ा है। इस उपन्यास में कोई बड़ी कथा भी नहीं है और न छोटी कथाएॅं हैं। इसमें सिर्फ देवीप्रसाद हैं, जो ‘हाता रहीम’ के साथ चलते हुए अपनी ही दुनिया को बनते-बिगड़ते देखते हैं, और उसे जी भी रहे हैं। इस दृष्टि से इसे वृतांत अथवा आख्यान भी नहीं कहा जा सकता। पर, मैं ‘हाता रहीम’ को उपन्यास ही कहूॅंगा, एक नई शैली का उपन्यास, जिसकी शैली सचमुच मुश्किल है, तथा उसे साधना और भी मुश्किल।
क्या है ‘हाता रहीम’? ‘हाता रहीम’ शहर का एक वार्ड या एरिया है, जो किसी भी नाम से किसी भी शहर में हो सकता है। देवीप्रसाद को इस क्षेत्र की जनगणना करनी है। देवीप्रसाद एक महकमे में तीसरी श्रेणी के कर्मचारी हैं, जिनकी जनगणना में ड्यूटी लग जाती है। पहले तो वे ड्यूटी कटवाने की जुगत लगाते हैं। इसके लिए वे अपने बचपन के अधिकारी मित्र से भी सिफारिश कराते हैं, पर सब बेकार। उनके घुटनों में दर्द रहता है, यह लिख कर भी अपने अधिकारी को देते हैं, पर ड्यूटी फिर भी नहीं कटती है। वे अपने अधिकारी मित्र के साथ अपनी सामाजिक तुलना भी करते हैं, अपनी पत्नी से कहते हैं-‘करोड़ भी क्या हैं उनके लिए। मेरा जितना वेतन है, उनकी बीबी उतना ब्यूटीपाॅर्लर और घूमने-फिरने में खर्च करती है।’ देवीप्रसाद अच्छी तरह जानते हैं कि यह ‘क्लास’ का मामला है, वरना ड्यूटी जरूर कटती। वे यह भी कहते हैं कि अगर वे अधिकारी होते, तो अपनी बेटी की शादी उसके बेटे से करते। ‘हम दोनों पहले यही सोचा करते थे, लेकिन अब हाथ भी नहीं धरने देगा।’ देवी के ही दफ्तर में एक अमर कुमार हैं, जिनकी ड्यूटी हमेशा कट जाती है। देवी कहते हैं, ‘पता नहीं किस घानी का तेल अफसरों को लगाता है।’ ऐसे अमर कुमार हर आॅफिस में मौजूद हैं, जो ड्यूटी न भी करें, तो भी उसका कुछ नहीं बिगड़ता। खैर, देवीप्रसाद को ड्यूटी करनी पड़ती है। उन्हें जनगणना के लिए  वार्ड नम्बर दस का इलाका ‘हाता रहीम वासित’ मिलता है। वे झोला टाॅंगकर चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी अजहर के साथ ‘हाता रहीम वासित’ की ओर चल पड़ते हैं। बस यहीं से उनके सामने एक नई दुनिया उजागर होती है, जो उनकी कल्पना में भी नहीं थी। पहले दिन देवी सिर्फ अपने क्षेत्र में घूमना चाहते हैं। वे एक मस्जिद के पास जाकर खड़े हो जाते हैं। एक अजनबी को वहाॅं खड़ा देखकर वहाॅं के लोग  उन्हें सन्देह से देखने लगते हैं, जो स्वाभाविक भी है। लेकिन देवीप्रसाद चिन्तनशील हैं। इस सन्देह पर उनके दिमाग में कुछ और ही चलता है। आप भी देखिए-
‘देवी खड़े हैं मस्जिद के पास, सोच रहे हैं- ‘कहाॅं से चलूॅं।’ कुछ दूरी पर खड़े एक-दो स्त्री-पुरुष, देवी को निहार रहे हैं, जाॅंच-परख रहे हैं। देवी वहाॅं से हटेंगे नहीं, तो और लोग आ जाएॅंगे, सब की नजर उनकी ओर ही होगी। कोई पूछ भी देगा, ‘भाई आप किसे ढॅंूढ़ रहे हैं।’ कितना संदेह भरा हुआ है लोगों के मन में। हम चाहे जितना पढ़-लिख लें, आगे बढ़ जाएॅं, चाॅंद-तारों को छू-देख लें, परन्तु यह संदेह कब जाएगा? पता नहीं। अब तक चाहिए तो यह था कि देश की सीमा के नाम पर सिर्फ एक लकीर हो, जैसे खेत की मेढ़, और हम घूम आएॅं पूरी दुनिया बे-रोक-टोक। लेकिन यह सपना ही रह जाएगा मनुष्य के लिए। हम पढे-लिखे विद्वान हैं और कितने मूर्ख हैं।’
ये हैं देवी प्रसाद- जो जनगणना-कर्मी के साथ-साथ प्रगतिशील भी हैं। बस्ती घूम लेने के बाद वे जब सेण्टर पर आकर अपने साथियों को अनुभव सुनाते हैं, तो उनकी संवेदना भी बाहर आ ही जाती है-
‘हाय रे हमारा देश! मकान नहीं है लेकिन घर-परिवार है। प्लास्टिक की पन्नी डाले बाहर बैठे हैं बेचारे! और मैं बाहर खड़ा-खड़ा परमानेंट मार्कर खोले सुखा रहा हूॅं। मुझे देखकर एक बूढ़ी औरत चिल्लाने लगी, ‘का आए हो? हमरे पास का है अब! बेटा-बहू तो मार भगाय दिहिन....यही देखे बदे अउलाद हम जनमाये! बोलो! कुछ खाए को लिए हो तो दो।’ मैंने कहा, ‘नहीं माई, हम मकान पर नम्बर लिख रहे हैं....जनगणना हो रही है।’....‘कैसी गणना?’ वह बोली, ‘हमारी गणना बिगड़ी है बाबू! भगवानो नाहीं पूछत है, पता नहीं कब पूरी होगी हमरी गणना! नम्बर डाल रहे हो तो लिख दो हमरे पेट पर तीन-तेरह, हो जाए हमरी तेरही’।’
यह उपन्यास जनगणना के विषय में बहुत ही रोचक जानकारी देता है। सम्भवतः यह इस विषय का पहला उपन्यास है। पर इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि इसे पढ़ना उन उपेक्षित समाजों से रू-ब-रू होना है, जिनके दर्द चीख-चीख कर लोकतन्त्र के हुक्मरानों से सवाल करते हैं कि वे इतने  उपेक्षित क्यों हैं? क्यों वे बुनियादी सुविधाओं तक से वंचित हैं? देवी प्रसाद इन लोगों के हर घर में जाते हैं, उनके भैतिक यथार्थ को देखते हैं, उनसे घण्टों बतियाते हैं, उनके अपनेपन से द्रवित भी होते हैं। देवी सोचते हैं, ‘आम आदमी हो या कोई बड़ा सेठ-महाजन, या कोई मंत्री-अफसर, जनगणना कर्मी भीतर तक घुसकर देखने का अधिकार रखता है? लेकिन क्या बड़े रईस, धन्नासेठ घुसने देंगे। नहीं, वे बरामदे में बैठाएॅंगे, सारा आॅंकड़ा भरवा देंगे, और किसी की हिम्मत नहीं कि ज्यादा मीन-मेख निकाले। देवी के क्षेत्र में ऐसा कोई घर नहीं है। सब गरीब मजदूर, किसान और जरजोदी का काम करने वाले हैं- रोज कमाना, तब खाना।’
गरीब लोगों की जैसी बुद्धि होती है, उसी हिसाब से वे जनगणना का मतलब समझते हैं। कोई समझता है कि सरकार उन्हे पक्का मकान बनाकर देगी। कोई समझ रहा है कि जनगणना यह देखने के लिए हो रही है कि किसके घर में पक्का फर्श है, ताकि उसपर ज्यादा टैक्स लगाया जा सके। ‘हाता रहीम’ में अफवाह फैल जाती है कि जिसका घर पक्का, उसको टैक्स देना होगा। और देवी प्रसाद बता रहे हैं-‘बात पूरी नई बस्ती में फैल गई। कोई पर्दा डाल रहा है, कोई पुआल की टाटी बाॅंध रहा है, कोई टाट बिछाकर ढॅंक रहा है। मकान के विषय में एक संदेह और उसकी सुरक्षात्मक नीति, एक भिन्न प्रकार का मानसिक द्वंद्व-चिन्ता-डर।’
उपन्यास में ऐसे बहुत से मार्मिक प्रसंग आए हैं, जहाॅं जनगणना के सवाल उन उपेक्षित लोगों के जख्मों को हरा कर देते हैं। स्वयं देवी प्रसाद के लिए भी यह जनगणना करना समाज और व्यवस्था के विद्रूप से गुजरना है। देवी प्रसाद देख रहे हैं कि फर्श तो मिट्टी का है, पर अगल-बगल और पीछे की दीवारें तो दूसरे की हैं। देवी सोच में हैं कि इसे घर कैसे कहा जाए और इसे क्या कोड दिया जाए? पूरी बस्ती में उन्हें दो-चार फर्श ही पक्की ईंट और सीमेंट के मिले। पचास प्रतिशत दीवारें उन्हें ऐसी मिलीं, जो मिट्टी-गारे से चिनी गईं थीं। बाकी मिट्टी और घास-फूॅंस की ही दीवारें ज्यादा थीं। देवी खूब परेशान हैं कि इन उपेक्षितों की हालत देखकर, पर वे कुछ कर नहीं सकते। ये गरीब लोग अपनी गरीबी को निभाने की खातिर छोटे-छोटे जाल-बट्टे भी कर लेते हैं, ये प्रसंग भी उपन्यास में आए हैं। दो स्त्रियों के बीच यह संवाद देखिए-
‘आए थे पूछने कि फर्श किसकी बनी है!’ एक स्त्री ने हाथ चमकाया।
‘तुमने काहे बताया कि हमारे दुई कोठरी का फर्श पक्का है!’ दूसरी स्त्री झगड़ रही थी।
‘तुम भी तो हमारे घर की पोल खोल रही हो।.......’‘कौन झूठ कहा! साॅंच को आॅंच का!’
‘तुमको भी जानत हैं सब! पाॅंच लोग हो और बारह का राशन कार्ड बना है, नही ंतो भूखे मरते!’‘तुम कौन राजा हरिसचन्द हो! बेटा को अलग दिखाकर गरीब और बिना घर का लिखवा दिया। कालोनी मिल गई और बेचारा शकील रह गया टाट-पन्नी डाले।’
देवी प्रसाद समझ रहे हैं, इन्हीं छोटे-छोटे सुखों की खातिर लड़ते-झगड़ते इन गरीबों की सारी जिन्दगी गुजर जाती है। वे बड़े भवनों की तरह फर्श का मतलब नहीं जानते। उनके लिए जमीन का मतलब है, जहाॅं चींटी-चींटा बिल किए रहते हैं। यहाॅं चूहों के लिए भी बाकायदा जगह होती है। कोने-अन्तरे गोजर बिच्छू के लिए भी स्थान होता है। देवी समझते हैं इन गरीबों का दर्द और यह भी कि फर्श, छत, दीवार, घर क्या होता है? जब वे ये देखते हैं, तो उनके दिमाग में भी उनके गाॅंव-घर की दीवारें, छत और फर्श घूम जाते हैं। दीवार के बारे में सोचने पर देवी को अपनी बूढ़ी माई याद आती हैं, जिनकी मृत्यु बरसात में मिट्टी की दीवार गिरने से हो गई थी। सो देवी प्रसाद हाता रहीम के उपेक्षित लोगों के बीच घुल-मिल जाते हैं, क्योंकि वे भी उसी पृष्ठभूमि से आते हैं।
जनगणना के फार्म में बहुत सारे कोड हैं, जिन्हें देवी प्रसाद को भरने हैं। उन्हें सब कुछ भरना है-घर, परिवार, मकान, दीवार, फर्श, छत, शिक्षा, रोजगार, और इन सबके अलग-अलग कोड हैं। देवी प्रसाद घर-घर जाकर पूछते-बतियाते हैं। जितने लोग उतनी बातें, उतने विचार, पर बेअर्थ की कोई बात नहीं। देवी सोचते हैं- ‘आम जनता की गपशप भी व्यर्थ नहीं होती। जीवन की बारीक सच्चाई से साक्षात्कार करता, भोगता हुआ गाॅंव-कस्बे का व्यक्ति निचले पायदान पर खड़ा है। वह किसी अन्य के सहयोग, आशा और विश्वास को थोड़ा-बहुत एक किनारे करता हुआ आगे बढ़ने-जीने का प्रयास करता है। फिर उसे नई-नई आशाएॅं दिखाई जाती हैं, नया विश्वास दिलाया जाता है। और इसी तरह वह जाल में आधा फॅंसा हुआ आशा की डोर पकड़ लेता है, एक विश्वास के साथ।’
एक अन्य प्रसंग में देवी बस्ती में एक-एक का मुॅंह निहारते हैं और आश्चर्य से देखते रह जाते हैं, ‘कोई कमीज में नहीं है, सब बनियाइन पहने या नंगे बदन हैं। सिर्फ लुंगी या जाघियाॅं जरूरी समझते है गर्मी में।’ वे सोचते हैं, ‘एक सूरत हिन्दुस्तान की यह भी है, कोई देखे तो!’
देवी प्रसाद ने जनगणना करते हुए पूरे समाज की नब्ज टटोल ली है। वे इस नतीजे पर पहुॅंचते हैं कि इन उपेक्षितों के दर्द गाॅंव-समाज के मुखियाओं की वजह से हैं। प्रधान से लेकर डीएम, एसपी तक और विधायक, एमपी से लेकर मन्त्री तक सब बेईमान हैं और कोई भी इन गरीबों के हित में काम नहीं कर रहा है। पर वे कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि सरकारी नौकर हैं, जहाॅं बोलना मना है। लेकिन देवी की परिकल्पना विचारोत्तेजक है। उनका मन होता है- ‘कि कहीं से एक पत्थर उठा लें और अपना सिर कूॅंच दें। यह बस्ता-बोरा फेंक आएॅं किसी नाले में और एक-एक मुखिया का कालर पकड़ कर झकझोर दें, जिनकी वजह से गन्दगी फैली है। कर्तव्य और निष्ठा का पाठ पढ़ाने वाले ये ‘अपना भला, भला जग माहीं’ की तर्ज पर जीते-मरते हैं।’ वीरेन्द्र सारंग लिखते हैं- ‘इस समय देवी को कोई भ्रष्ट मुखिया मिल जाए, तो वे उसकी साॅंस रोक देंगे, तब वह शायद ही संसार छोड़ दें।’
जनगणना ने देवी को बुद्धिज बना दिया है। बुद्धिज क्या है? इस पर उपन्यास में एक लम्बा और सशक्त चिन्तन है। फिलहाल देवी की यह परिभाषा ही बुद्धिज को जानने के लिए काफी है। वे बताते हैं- ‘मैं मनुष्य नहीं हूॅं, आदमी भी नहीं। अब मैं किसी धर्म के आधार पर पहचान नहीं हूॅं। मैं किसी मनु या आदम से नहीं जन्मा हूॅं। मुझे कोई मतलब नहीं है ईसा-मूसा से। मेरे पैदा होने में ईश्वर का हाथ नहीं है। मैं प्राकृतिक संयोग से पैदा होने वाला जीव हूॅं, सो मैं सिर्फ एक व्यक्ति हूॅं। मैं बुद्धि से उत्पन्न हुआ हूॅं, मैं बुद्धिज हूॅं- जैसे, अंड से अंडज और पिंड से पिंडज।’ यह बताने के बाद देवी घोषणा करते हैं- ‘मैं अब बुद्धिज कहलाऊॅंगा और अपनी बौद्धिकता को खतरे से बचाऊॅंगा।’ वीरेन्द्र सारंग ने देवी प्रसाद के चरित्र में अपने को ही प्रस्तुत किया है। और, निस्सन्देह, वीरेन्द्र सारंग ने अपनी बौद्धिकता को बचाया है। पूरे उपन्यास में एक जगह भी वे अपनी बौद्धिकता पर भावुकता को हावी नहीं होने देते हैं। जब देवी दलितों की बस्ती में जाते हैं, तो उन्हें अॅंगनू मिलता है, जिसका बेटा बीए पास है और चमड़े के कारखाने में मैनेजर है। अॅंगनू का बेटा ब्राह्मण-समाज को खूब खरी-खोटी सुनाता है। वह कहता है, ‘अब हम बाभन-ठाकुर को इस पर रखते हैं-ठेंगे पर।’ देवी खुश होते हैं, पर इस बात से नहीं, वह वे सोचते हैं कि उसे बुद्धिज बनाने के लिए ठीक से समझाना होगा।
देवी प्रसाद जातिवादी नहीं हैं। वे बुद्धिज हैं, इसलिए जाति-आधारित जनगणना के भी पक्ष में नहीं हैं। भारत में जाति-आधारित जनगणना 1931 में अंग्रेजों ने कराई थी, जिसका ब्राह्मणों ने तीव्र विरोध किया था। देवी कहते हैं, ‘आज उसे फिर जिन्दा करने का क्या अर्थ!’ वे इसके पीछे ‘फूट डालो और सत्ता पाओ’ वाले दिमाग की सक्रियता देखते हैं। वे जाति को लोकतन्त्र और समाजवादी विचारधारा के प्रतिकूल मानते हैं और इसके लिए समाजवादियों को धिक्कारते हैं। उनका आत्मचिन्तन जारी रहता है- ‘पूरी व्यवस्था का आधार जाति हो जाएगी, तो समाज का क्या होगा? तब हमारा बौद्धिक वर्ग किस रास्ते पर खड़ा मिलेगा?’
यहाॅं एक प्रश्न खड़ा होता है, जिसका समाधान उपन्यास में नहीं है, हालांकि होना चाहिए था।  प्रश्न यह है कि जब भारत में अंग्रेजों से पहले जातीय जनगणना नहीं हुई थी, तब क्या देश में पूरी तरह समाजवाद कायम था? सबको शिक्षा, रोजगार, अधिकार के समान अवसर प्राप्त थे? अगर नहीं, तो सच यही था कि तब पूरी व्यवस्था जाति पर खड़ी हुई थी और जाति का अर्थ था वर्णव्यवस्था, जिसमें शूद्र और अतिशूद्र जातियों को शिक्षा-अधिकार से वंचित रखा गया था। लेकिन मैं देवी प्रसाद की इस सोच से सहमत हूॅं कि ‘आज भीतरी सुधार की जरूरत है।’ जमीन के इन कटु प्रश्नों को जानने की जरूरत है कि करोड़ों लोग गरीबी में क्यों जी रहे हैं, जिनकी आमदनी दो जून रोटी भी नहीं है? क्यों आजादी के इतने दिनों बाद भी भरपेट भोजन नहीं, दवाई नहीं, पढ़ाई नहीं, शुद्ध पानी नहीं, रास्ता नहीं, छत नहीं, सुरक्षा नहीं, व्यवस्था नहीं है? और क्यों दूसरी ओर रुपयों पर रखकर नमकीन खाने वाले नेता पनप रहे हैं, क्यों करोड़ो डकारने वाले अफसर हैं, शिक्षा-भूमि के माफिया हैं? अगर ये सब है, तब समाधान क्या है? लोकतान्त्रिक क्रान्ति या रक्तिम क्रान्ति? लोकतान्त्रिक क्रान्ति को तो हम देख ही रहे हैं। और रक्तिम क्रान्ति का अर्थ है देश का सर्वनाश। अच्छा होता, अगर उपन्यास इस समस्या पर भी प्रकाश डालता।
हाता रहीम की बस्तियों में हिन्दू-मुस्लिम-दंगा कभी नहीं हुआ, सब लोग मिल-जुलकर रहते हैं। सामाजिक सद्भाव की मिसाल है रहीम हाता। उपन्यास में एक प्रसंग है, इस्माइल की दुकान पर अखबार आता है। नरेश खबर पढ़कर सुना रहा है- ‘अयोध्या में अठारह साल बाद विश्व हिन्दू परिषद के नेता जुटेंगे। यह खबर सुनकर वहाॅं के लोगों में जो प्रतिक्रिया होती है, वह यह है-
‘फिर सियासी पारा गरम करेंगे ई ससुरे नेता!’ जहीर बोले।‘
अयोध्या तो चुप है। ई ससुरे बेचारी अयोध्या को बीच में ला के अपनी बढ़ाई बखानत हैं। काहे का राम काहे का रहमान!’ जुबैर ने समझदारी की बात की।
‘हमें लड़ाते हैं ई मजहबी नेता साले! खाय के लाल हुए जा रहे हैं। और हमें मन्दिर-मस्जिद’ में उलझाय रहे हैं। अरे, बताओ कि कौन धंधा करें कि रोटी चले, बेटी की शादी हो, लड़के पढ़ें लिखें! हमें चूतिया बनावे चले हैं कि इहाॅं राम रहा तो इहाॅं बाबर!’
‘ई नई बस्ती में कोई माई का लाल है जो हिन्दू मुसलमान में झगड़ा लगायदे, गाॅंड़ काट के रख देंगे साले की!’
अरे नरेशवा! ई मन्दिर-मस्जिद वाली खबर पढ़ के सुनाय तो मुॅंह तोड़ देंगे। अरे देख कवनो मतलब की खबर है। सुई-धागा सस्ता हुआ है का!’
उपन्यास में बहुत सारे प्रसंग देवी प्रसाद और उनकी पत्नी सुशीला के बीच हास-परिहास के  भी हैं। ये प्रसंग बहुत रोचक हैं। इनमें अद्भुत लोक है। ऐसा ही एक प्रसंग है, देवी और सुशीला घूमने निकले हैं। एक जगह शिव-मन्दिर आता है। दो-चार लोग हाथ जोड़कर शिवलिंग का दर्शन कर रहे हैं। यहाॅं सुशीला और देवी प्रसाद के बीच संवाद चलता है-
‘हाथ जोड़कर सिर झुका दीजिए।’ सुशीला ने देवी से कहा।
‘क्यों? यह नहीं होगा मुझसे!’ देवी ने कहा।
‘इसमें क्या लग रहा है, कुछ नहीं! और रुक गए हैं तो बिना मतलब खड़े रहेंगे?’
‘रुकी तुम हो! मैं तो तुम्हारे साथ हूॅं।’
चलिए आपसे कौन बतरस करे! भला कोई आपसे जीत सका है बात में!’
यही है दिमाग में भरने का तरीका।’ और देवी प्रसाद गाने लगे- ‘मन तोहे किहि बिध मैं समझाऊॅं। सोना होय तो सुहाग मॅंगाऊॅं, बंकनाल रस लाऊॅं।’
सुशीला आगे की पंक्ति गाने लगी- ‘गियान सबद की फूॅंक चलाऊॅं, पानी पर पिघलाऊॅं। मन तोहे किहि बिध मैं समझाऊॅं।’

देवी को नई बस्ती में एक कटु अनुभव भी हुआ है, जिसके मूल में दरअसल उनका सुधारवादी रवैया है। वे जनगणना करने के साथ-साथ लोगों को साफ-सफाई से रहने और बिजली-पानी कम खर्च करने की नसीहत भी देते चलते हैं। इस पर कुछ लोग उनका विरोध भी करते हैं। ऐसा ही एक कटु वाकया वे अपनी पत्नी को सुनाकर दिल हल्का करते हैं- ‘क्या कहूॅं सुशीला! मैं यहाॅं किसी से बिजली-पानी बचाने की बात करता हूॅं, तो वह ऐसे भागता है जैसे मैं कुत्ता होऊॅं! और वह कहता है-‘खर्च करता हूॅं तो पैसा भी देता हूॅं, तुमसे मतलब?’ एक घर ऐसा मिला कि पहले तो बैठाया, चाय पिलाया, फिर मेरी बात सुनकर धमकी देने लगा कि, ‘बन्द करवा दूॅंगा, जहाॅं तुम खड़े हो, यहाॅं कुत्ते भी मूतने से डरते हैं, तुम चले कैसे आए!’ देवी बताते हैं, वह किसी बड़े अधिकारी या मन्त्री का घर था, जिसके सामने वाली सड़क रोज सुबह धुली जाती थी। पेड़ों पर पाइप से पानी छिड़का जाता था। और इस काम में कम-से-कम एक घण्टा सड़क पर पानी बहता था।
सारतः, ‘हाता रहीम’ जनगणना पर लिखा गया ऐसा पहला उपन्यास है, जो जनगणना के बहाने गरीबों के दर्दों और जख्मों को उकेरता है, पर वे दर्द और जख्म सूचनाओं में दिखाई नहीं देते। वरना, जनगणना के बाद भी उनकी हालत जस-की-तस नहीं रहती। एक जनगणना-कर्मी के लिए भले ही यह सूचनाएॅं एकत्र करने का काम हो, पर वीरेन्द्र सारंग के लिए यह महज सूचनाएॅं एकत्र करने का काम नहीं है। उनका मूल स्वर उपन्यास में यही है कि संख्याओं और सूचनाओं के आधार पर किसी भी समाज की सामाजिक और आर्थिक सच्चाई को नहीं समझा जा सकता। यह जानने के बाद कि कितने लोगों के पास घर नहीं है, छत नहीं है, दीवारें नहीं हैं, फर्श नहीं है, पानी नहीं है, टायलेट नहीं है, नहाने का कमरा नहीं है, रसोई नहीं है, गैस नहीं है, रोजगार नहीं है, फोन-कम्प्यूटर नहीं हैं, शिक्षा नहीं है, तो यह सवाल भी जहन में पैदा होता है कि ये सारी चीजें उनके पास क्यों नहीं हैं? कौन है इसके लिए जवाबदेह? और कब तक ये सारी चीजें उन्हें प्राप्त हो जाएॅंगी? सबसे बड़ा सवाल भी कि लोकतन्त्र में इन उपेक्षितों को उन्हीं के हाल पर क्यों छोड़ दिया गया है, जबकि वे भी अपने भले दिनों के लिए ही वोट देते हैं?
21 अक्टूबर 2014











गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

अब यह नहीं चलेगा
(कँवल भारती)

तुमने किस साजिश से हमें पढ़ने नहीं दिया,  अब समझ में आ रहा है.
तुमने क्या-क्या नहीं किया हमें बर्बाद करने के लिए
सिर्फ इसलिए कि हम तुम्हारे सांस्कृतिक गुलाम बने रहें--
तुमने निर्गुण राम को,  जो हमें कबीर ने दिया था,
राक्षसों और असुरों के बधिक राजा राम का रूप दे दिया
एक आदिवासी को बनाकर गुलाम बैठा दिया उनके चरणों में
और हमने कुछ नहीं कहा,  खामोश ही रहे,
तुम्ही ने लिखा,  तुम्ही ने थोपा,
हमने अनुकरण किया,  हम अशिक्षित कैसे समझ सकते थे तुम्हारा जाल?
जिन्दा भी कहाँ रहने दिया था तुमने उसे
जिसने भी चाहा था तुम्हारी बराबरी करना.
शस्त्र-विद्या में पारंगत एकलव्य का अंगूठा इसीलिए न काटा था तुमने
कि वो अर्जुन से आगे जा रहा था,
और तुमने अपना काला इतिहास लिख दिया
कि एकलव्य ने खुद अपना अंगूठा दान किया था गुरु को,
जो वह था ही नहीं.
तुम्ही ने लिखा, तुम्ही ने थोपा
हमने अनुकरण किया,  हम अशिक्षित कैसे समझ सकते थे तुम्हारा जाल?
क्यों मरवाया था तुमने राम से शम्बूक को?
इसीलिए न कि वो तुम्हारी वर्णव्यवस्था को उलट रहा था?
तुमने कितना बड़ा झूठ गढ़ा था कि वो राम के हाथों मृत्यु का याचक बन
सदेह स्वर्ग जाने की कामना से उल्टा तप कर रहा था.
तुम्ही ने लिखा, तुम्ही ने थोपा
हमने माना, हम अशिक्षित कैसे समझ सकते थे तुम्हारा जाल?
कितनी क्रूर हिंसा की थी तुमने हिरण्यकश्यप के साथ
तुमने क्यों फड़वाया था भूखे शेर से उसका जिस्म?
इसीलिए न कि वो विष्णु-विरोधी, देव-विरोधी था,
मानता था स्वधर्म को.
तुमने लिखा कि वह नरसिंह अवतार था जिसने मारा उसे.
कितना बड़ा खतरा रहा होगा वो तुम्हारे ब्राह्मण-धर्म के लिए
कि अवतार लेना पड़ा था उसे मारने के लिए भगवान को.
तुम्ही ने लिखा, तुम्ही ने थोपा
हमने माना, हम अशिक्षित कैसे समझ सकते थे तुम्हारा जाल?
कितना छल किया था तुमने ब्राह्मण-विरोधी देव-विरोधी महिषासुर के साथ
जब दमन नहीं कर सके उसका तो एक रूपसी को भेजा तुमने उसे मारने के लिए
जिसने उसे आठ दिन तक अपने रूप-जाल में फांसा,
और नौवें दिन उसकी हत्या कर दी.
हमारे सांस्कृतिक पुरौधा की हत्यारी दुर्गा को तुमने महाशक्ति बना दिया
अब मनाते हो हर वर्ष उसकी स्मृति में पूजा का देश व्यापी उत्सव 
हमारे जख्मों पर नमक छिड़कने के लिए.
तुम्ही ने लिखा, तुम्ही ने थोपा
हमने माना, हम अशिक्षित कैसे समझ सकते थे तुम्हारा जाल?
अब तक जो भी तुमने चाहा, वही हुआ,
पर भारत में अंग्रेजों के आगमन और लोकतंत्र को आने से तुम नहीं रोक सके,
हम शिक्षित हो गये,
जोतिबा फुले और डा. आंबेडकर जैसे विद्वान का नेतृत्व हमें मिल गया.
हम अब जाग गये हैं, समझ गये हैं तुम्हारा जाल.
कि कैसे तुमने मारा हमारे नायकों को
कैसे हमें बनाया गुलाम?
अब तुम कहते हो कि हम मिथकों की राजनीति कर रहे हैं,
जातिवाद और साम्प्रदायिकता फैला रहे हैं,
और इस आरोप में तुम गिरफ्तार करा रहे हो हमारे लेखकों को,
जब्त करा रहे हो हमारी पत्रिकाओं को.
हम समझ गये हैं कि तुम लोकतंत्र में भी मौजूद हो
हमें फांसी देने के लिए.
नासमझी में हमारे लोगों ने बड़ी गलती की तुम्हें देश का नेतृत्व सौंप कर,
तुम इस योग्य बिल्कुल नहीं हो.
पूरा देश जानता है कि
तुमने मिथक की राजनीति करके पूरे देश में आग लगा दी है
कोई प्रमाण नहीं मिला अयोध्या में राम के होने का
फिर भी तुमने ध्वस्त कर दी बाबरी मस्जिद,
सड़कों पर लोगों का खून बहा दिया एक मिथक के लिए,
तुम मिथक के लिए राजनीति करो तो लोकतंत्र
हम करें तो जातिवाद
अब यह नहीं चलेगा, बिल्कुल नहीं चलेगा.
--कँवल भारती
(9-10-2014)