गुरुवार, 19 जनवरी 2017



विभूतिनारायण राय
(कँवल भारती)

      6 फरवरी 2010, मैं अपने इतिहासकार मित्र ओमप्रकाश गुप्ता के साथ दिल्ली  के विश्व पुस्तक मेले में घूम रहा था. घूमते-घामते हम ‘महात्मा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय’, वर्धा के स्टाल पर पहुंचे, तो वहाँ हमें विश्वविद्यालय के कुलपत महोदय विभूति नारायण राय मिल गए. उन्होंने हमें स्टाल पर बैठा लिया. मैंने उन्हें गुप्ता जी का परिचय कराया. फिर कुछ इधर-उधर की बातचीत के बाद वह मुझसे बोले, कहाँ ठहरे हो? मैंने कहा, कहीं नहीं. आज ही रात की ट्रेन से वापिस जाना है. वह बोले, आज रात को आप मेरे साथ रुकेंगे और सुबह मेरे साथ वर्धा चलेंगे. मैंने कहा, मैं रुकने के हिसाब से आया नहीं हूँ, और मेरे साथ मेरे मित्र हैं, उन्हें छोड़ना मुमकिन नहीं है. पर गुप्ता जी ने काम आसान कर दिया, तुरंत बोले, कँवल, तुम चले जाओ. मेरी चिन्ता मत करो. अब मैं क्या करता. शाम छह बजे तक हम मेले में घूमे, कुछ किताबें खरीदीं. और गुप्ता जी को विदा करके मैं राय साहेब के साथ चला गया. हालाँकि इससे पहले मैं कई बार वर्धा यूनिवर्सिटी में व्याख्यान देने गया हूँ, पर आज यह अचानक का जाना गले नहीं उतर रहा था.
      खैर, उनकी गाड़ी एक भव्य मकान पर (शायद उपेन्द्र जी के) रुकी. मकान में अंदर जाकर जब हम एक जीना चढ़कर ऊपर ड्राइंगरूम में गए, तो देखा कि वहाँ पूरा बार सजा हुआ था, ‘ग़ालिब छुटी शराब’ के लोकप्रिय लेखक रवीन्द्र कालिया, उनकी कहानीकार पत्नी ममता कालिया, कहानीकार वंदना राग, और विकास राय जी पहले से मौजूद थे. एक-दो लोग और थे, जिनका नाम याद नहीं आ रहा है. उस ड्राइंगरूम की दो विशेषताएं थीं, एक उसमें ऊपर जाने के लिए लिफ्ट लगी हुई थी, और दूसरी, उसमें बार का काउंटर बना हुआ था, जिसमें जिन, रम, बीयर, विहस्की सब थीं. मेजबान बहुत ही स्नेही और हँसमुख स्वभाव के थे. वहाँ मुझे सभी जानते थे, सिवाय मेजबान के. पर नाम से शायद वह भी परिचित थे. विभूति जी और मैं एक कोने में आमने-सामने बैठ गए. वहाँ जिसको जो पीना था, पी रहे थे, ममता कालिया और वन्दना राग के गिलासों में जिन थी, और बाकी कुछ विहस्की, तो कुछ रम पी रहे थे. ऊपर से तरह-तरह के नमकीन, पकोड़े और कबाब आ रहे थे. वंदना जी भी हमारे पास आकर बैठ गयीं थीं, उन्हें विभूति जी से बात करनी थी, मेरी उनसे यह दूसरी मुलाक़ात थी, इससे पहले जीबी पन्त समाज विज्ञान संस्थान, झूंसी इलाहाबाद में मैं उनसे मिल चुका था. ड्रिंक्स के बाद डिनर के लिए हम लोग नीचे आये. वहाँ एक बड़ी सी मेज पर खाना लग चुका था. वेज और नान-वेज दोनों. खाना खाने के बाद विभूति जी सीधे ‘इण्डिया इंटरनेशनल सेंटर’ पहुंचे, जहां वह ठहरे हुए थे. रात को मेरा भी ठहरना वहीँ हुआ और एक रात के लिए मैं भी ‘क्लास’ बन गया.
नागपुर के लिए सुबह 9 बजे की फ्लाईट थी. वर्धा से मेरा टिकट बनकर मेल पर आ गया था. हम सुबह सात बजे तैयार हो गए थे. सुबह देखा, तो विभूति जी की मिसेज भी थीं, जिनसे पहली बार मिलना हो रहा था. निहायत सौम्य और भद्र महिला. अचानक एक परेशानी खड़ी हो गयी, हम सब के टिकटों के प्रिंट आउट वह पता नहीं, कहाँ रखकर भूल गए थे. सारा सामान खोलकर देख लिया, पर टिकट नहीं मिले. समय निकला जा रहा था. उन दिनों मोबाइल या लेपटॉप पर टिकट दिखाने का नियम नहीं था. अब एक ही उपाय था कि इण्डिया इंटरनेशनल सेंटर के कम्पयूटर से प्रिंट आउट निकाले जाएँ. और यही किया गया. इस पूरी प्रक्रिया में उनकी मिसेज की कम्पयूटर पर काम करने की फुर्ती गजब की थी. खैर, हम समय से एयरपोर्ट पहुँच गए थे. हवाई जहाज में बैठने के बाद, विभूति जी जो मुझसे मुखातिब हुए, तो नागपुर आने तक यूनिवर्सिटी में चल रही गतिविधियों के बारे में बताते रहे, जो उनके विरूद्ध चल रही थीं. उनकी जुबानी मालूम हुआ कि दलित और पिछड़ी जातियों के छात्र उनके विरुद्ध धरना-प्रदर्शन कर रहे थे, और यू.जी.सी. के चेयरमैन की पत्नी विमल थोरात उन्हें भड़का रही थीं. एक मामला अनिल चमड़िया का भी उनके लिए सिरदर्द बना हुआ था. अब मेरी समझ में पूरा माजरा आ गया था और यह भी कि वह मुझे उनके पक्ष में छात्रों को समझाने के लिए ले जा रहे थे.
      नागपुर एयरपोर्ट से उतर कर हम यूनिवर्सिटी की गाड़ी से वर्धा के लिए रवाना हुए, और वह रास्ते भर मेरा ब्रेन वाश करते रहे. यूनिवर्सिटी पहुँच कर जैसे ही मेरे आने की सूचना छात्रों को हुई, वे गेस्टहाउस में ही मुझसे मिलने आ गए. उन्होंने विभूति जी का एक नया परिचय मेरे सामने रखा, और सुबूतों के साथ एक बीस पृष्ठीय ज्ञापन की कॉपी भी मुझे दी. सभी दलित-पिछड़ी जातियों के छात्रों को सुनने के बाद मैंने फैसला किया कि अब मैं कभी इस यूनिवर्सिटी में नहीं आऊँगा. और सचमुच उसके बाद मैं फिर कभी नहीं गया.

2

            आज यह कहना मेरे लिए बहुत मुश्किल है कि छात्रों का प्रदर्शन कितना सही था और कितना गलत? बहुत सारे तथ्य तार्किक रूप से छात्रों के सही थे, और प्रशासनिक नियमों के अंतर्गत कुछ बिंदुओं पर कुलपति के तर्क भी गलत नहीं थे. मैंने छात्रों के ज्ञापन के विषय में विभूति जी से बात की थी, पर उसमें कोई कामयाबी मुझे नहीं मिली थी. मुझे उस लड़ाई में किधर होना चाहिए था, यह मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता था, क्योंकि मैं बाहर का व्यक्ति था और छात्रों के साथ सहानुभूति मुझे व्यक्तिगत रूप से विभूति जी से दूरी बनाए रखने के लिए बाध्य कर रही थी. इसलिए मैंने दूसरे विकल्प को ही चुना.
      किन्तु इसको लेकर विभूति जी की जो छवि बनाई गई, उससे मैं जरूर चितित था. ‘छिनाल’ प्रकरण अवश्य ही दुखदाई था, क्योंकि उसमे पुरुषवादी मानसिकता स्पष्ट दिखाई दे रही थी. इसलिए उसका समर्थन नहीं किया जा सकता. पर विश्वविद्यालय में उनके द्वारा की गईं नियुक्तियों, निलम्बनों और कुछ शिक्षकों के विरुद्ध लिए गए निर्णयों के आधार पर, भले ही मेरे कुछ मित्र मुझसे असहमत हों, विभूति जी को जातिवादी और दलित विरोधी साबित नहीं किया जा सकता. मैंने भी अपने सेवा-काल में बहुत से दलित छात्रों के विरुद्ध प्रशासनिक कार्यवाहियाँ की है, जिसको लेकर मेरे विरुद्ध भी छात्रों ने धरना-प्रदर्शन किया है, पर उस आधार पर मैं दलित विरोधी तो नहीं हो जाता? 1983 में समाजकल्याण मंत्री की सिफारिश पर निदेशक समाजकल्याण ने मेरी सेवाएं समाप्त कर दी थीं, और 1987 में मैं हाईकोर्ट से पूरे वेतन के साथ बहाल होकर फिर से नौकरी में आया था. किन्तु मैं आज भी मंत्री और निदेशक दोनों को दलित-विरोधी नहीं मानता, जबकि वे दोनों ही दलित जाति से थे. अक्सर हम दलित-पिछड़ी जातियों के लोग अपने विरुद्ध प्रशासनिक कार्यवाहियों को बड़ी आसानी से जातिवाद का नाम दे देते हैं, जबकि वे कार्यवाहियाँ नियमों के आधार पर वैधानिक-अवैधानिक होती हैं. हम उनके विरुद्ध कोर्ट में जाते हैं. वहाँ नियमों के आधार पर गुण-दोष का विवेचन होता है और अक्सर इस तरह के मामलों में प्रशासन कोर्ट में हार जाता है. इसलिए, मैंने इन घटनाओं के आधार पर विभूति जी का कभी मूल्यांकन नहीं किया.
      विभूति नारायण राय का कद मेरी दृष्टि में दलित-विरोधी के रूप में बिल्कुल नहीं है, भले ही वह कुछ के लिए हों. मैं उन्हें एक लेखक के रूप में ही नहीं, बल्कि पुलिस अधिकारी के रूप में भी उनकी भूमिका को क्रांतिकारी मानता हूँ. उनकी ‘शहर में कर्फ्यू’ और हाशिमपुरा कांड पर पुस्तकें पढ़ लीजिए, और बताइये कि किस पुलिस अधिकारी ने यह भूमिका निभाई है? हालाँकि उनसे मेरा परिचय उनकी किसी किताब को पढ़कर नहीं हुआ था. बस यूँ ही किसी कार्यक्रम में हो अचानक गया था. वह अवसर क्या था, यह भी मुझे अब याद नहीं है. पर उनके साथ बिताए हुए कुछ अवसर जरूर मेरी स्मृतियों में कैद हैं और चलचित्र की तरह आज भी चलते रहते हैं.
      यहाँ मैं एक ऐसी ही स्मृति को साझा करना चाहता हूँ, जो उनकी अद्भुत क्रान्ति-चेतना को दर्शाता है. यह उस समय की बात है, जब वह उत्तरप्रदेश पुलिस में आईजी थे. एक दिन अचानक उनका फोन आया कि वामपंथ के बारे में आपकी क्या राय है? मैने कहा, यह आप क्यों पूछ रहे हैं? बोले, आप अपने दलित विमर्श में इस पर जोर देते रहते हैं. मैंने कहा, मैं तो दलित-वाम को साथ लाना ही चाहता हूँ, पर वाम का रवैया मुझे निराश करता है. उन्होंने कहा, अगर इस संबंध में कोई प्रयास किया जाय, तो क्या आप सहयोग करेंगे? मैंने कहा, हंड्रेड परसेंट. यही तो वह काम है, जो हमे करना चाहिए. इस बातचीत के कोई महीने भर बाद, उनका फोन आया, ‘कँवल जी, 2 नवम्बर 2002 की तारीख तय हो गयी है. आपको इलाहाबाद आना है और इस बात को लीक नहीं करना है.’ मैंने कहा, ठीक है. ‘लीक नहीं करूँगा. पर बात क्या है?’ उन्होंने कहा, ‘दलित और वामपंथी बुद्धिजीवियों की आमने-सामने टेबिल टॉक करानी है. प्रकाश करात और डी. राजा और कुछ अन्य लोगों को मैंने बुलाया है. किन दलित बुद्धिजीवियों को बुलाना है, यह आपको तय करना है.’ मैंने कहा, ‘ठीक है, हो जायेगा.’ मैंने अपनी ओर से एस. आर. दारापुरी, (आई.जी. पुलिस), ब्रिजेन्द्र सिंह, (डी. आई. जी. पुलिस) को संपर्क किया, ये दोनों ही अधिकारी बाबासाहेब के राज्य समाजवाद के समर्थक थे. उनकी स्वीकृति मिलने के पश्चात मैंने नेकडोर के अशोक भारती और रजनी तिलक, और दिल्ली विश्विद्यालय के प्रोफ़ेसर डी. प्रेमपति को आमंत्रित लिया. हालाँकि वह दीपावली का अवसर था, पर उसकी कोई प्रवाह न करते हुए, हम सभी उस महान “दलित-वाम-संवाद” के लिए इलाहाबाद पहुंचे. ब्रिजेन्द्र सिंह उस समय पी.ए.सी. में डीआईजी थे. मैं एक नवम्बर को लखनऊ से उनके साथ ही इलाहाबाद गया. ठहरना पुलिस के गेस्टहाउस में ही हुआ. उसी में दारापुरी जी भी ठहरे थे.
दूसरे दिन हम सब झूंसी के ‘जी बी पन्त समाज वैज्ञानिक संस्थान के सभागार में एकत्र हुए. और उस “दलित-वाम-संवाद” के साक्षी बने, जो भारत का पहला इवेंट था. फिर उस तरह का इवेंट कभी नहीं हुआ. उस ऐतिहासिक महासम्वाद में, जिसका श्रेय निश्चित रूप से विभूति जी को जाता है. दलितों की ओर से वे तमाम शिकायतें रखी गयीं, जो उन्हें वामपंथ के नेताओं से थीं. दलित पक्ष का सबसे सशक्त प्रतिनिधित्व प्रोफ़ेसर डी. प्रेमपति जी ने रखा था. दलित राजनीति के प्रति वामपंथी नेताओं की ब्राह्मणवाद सोच पर बहुत ही गंभीर सवाल अशोक भारती ने उठाये थे. दलित-वाम मोर्चा बनाने के सम्बन्ध में दारापुरी जी के सुझाव बेहद विचारणीय थे. वामपंथ की ओर से प्रकाश करात, जो सीपीएम के महासचिव थे, और डी. राजा, जो सीपीआई के महासचिव थे, और सीपीएम की ही सुभाषिनी अली ने दलितों के सवालों के जवाब दिए थे और उन्होंने इस बात को स्वीकार किया था, कि उनसे सलित प्रश्न को समझने में वास्तव में भूल हुई है. विभूति जी और लालबहादुर वर्मा जी ने उस महासंवाद के बाद एक साझा कार्यक्रम पर विचार किया और उसक  घोषणा दूसरे दिन, यानी तीन नवम्बर को इलाहाबाद विश्वविद्यालय के निराला सभागार में आयोजित सेमिनार में कि गयी, जिसमें मैंने, अशोक भारती, वर्मा जी, विभूति जी, अंशु मालवीय और मीना राधाकृष्णन ने विचार रखे थे. और यह तय हुआ था कि एक साझा कार्यक्रम बनेगा, और उस पर मिलजुलकर काम म्किया जायेगा. पर वह दिन कभी नहीं आया.
इस ऐतिहासिक सम्वाद पर उसके दूसरे दिन ही ‘दि हिन्दू’ में मीना राधाकृष्णन का लेख प्रकाशित हुआ था, जिसमें उन्होंने समय की एक बड़ी जरूरत बताया था. काश, वह साझा कार्यक्रम बनता और उस पर अमल होता, तो आज भाजपा सत्ता में नहीं होती. अफ़सोस ! वाम नेताओं ने विभूति जी के उस ऐतिहासिक प्रयास को क्रान्ति बनाने का काम नहीं किया.
3
           संभवतः वर्ष 2000 की बात है इलाहाबाद विश्वविद्यालय के निराला सभागार में शायद जसम की ओर से कोई कार्यक्रम था. जैसे ही कार्यक्रम समाप्त हुआ, विभूति जी आ गए. मैं बाहर गेट के पास रामजी राय जी से बात कर रहा था. वह मेरा हाथ पकड़कर रामजी राय से बोले, ‘मैं इन्हें अपने साथ ले जा रहा हूँ.’ मैं उनकी गाड़ी में बैठा, और उनका ड्राईवर न जाने किन-किन रास्तों से होता हुआ एक कॉलोनी में किन्हीं वकील साहेब के बंगले पर ले गया. बंगले में प्रवेश करने के बाद एक जीना चढ़कर ऊपर एक कमरे में पहुंचे, जहाँ वकील साहेब और रवीन्द्र कालिया जी उनका इंतज़ार कर रहे थे. मैं समझ गया था कि यहाँ क्यों आया गया है. खैर, बोतल खुली. रवीन्द्र कालिया जी ने बोतल हाथ में लेकर कहा, ‘अब तो मैं ब्रांडों के नाम भी भूल गया. एक जमाना था, जब हमसे कोई ब्रांड नहीं छूटी थी.’ लगता था, वह शराब छोड़ चुके थे, वरन, वह ऐसा नहीं कहते. लेकिन यह भी बड़ा दिलचस्प था कि पैग उन्होंने ही बनाए, पर खुद एक बूँद भी नहीं पी. हालाँकि वह हमें अपने शराबी दौर के कुछ किस्से जरूर सुनाते रहे थे. उसके बाद जब ‘हंस’ में रवीन्द्र जी की “ग़ालिब छुटी शराब” का आख्यान धारावाहिक छपना शुरू हुआ, तो उसे पढ़ते हुए, हर बार वह शाम जरूर मेरी आँखों में तैर जाती थी. हालाँकि मैं उन्हें 6 फरवरी 2012 को पीते हुए भी देख चुका था. खैर, उन वकील साहेब के यहाँ, जहां तक याद आता है, साहित्य पर कोई चर्चा नहीं हुई थी.
      उनके साथ संध्यावन्दन के और भी बहुत से वाक्यात स्मृति में हैं, पर यहाँ एक वाकया जरूर लिखना चाहूँगा, जिसने मुझे भी विचलित कर दिया था. हुआ यह कि मैं किसी काम से लखनऊ आया हुआ था. सोचा कि विभूति जी से भी मिल लिया जाए. उस समय वह कहाँ तैनात थे, यह तो नहीं पता, पर वह गोमतीनगर के विभूति खंड में रहते थे. कोई उनसे पूछता, कि गोमतीनगर में कहाँ? तो वह शान से बताते कि वहाँ हमारे नाम से ही खंड बना हुआ है. मुझे भी उन्होंने यही बताया था. अत: जब मैं उनके बताए अनुसार गोमतीनगर पंहुचा, तो एक मानव-रहित रेलवे लाइन पार करके विभूति खंड पहुंचा. शायद वाहन वालों के लिए घूमकर कोई लम्बा रास्ता था और यह पैदल वालों के छोटा रास्ता था. खैर, जब मैं क्रासिंग पार करके विभूति खंड में दाखिल हुआ, तो देखा कि हल्के नीले चेक के कुरते और सफ़ेद पाजामे में विभूति जी पहले से ही वहाँ खड़े हुए अपने नाम के खंड का अहसास करा रहे थे. हम उनके साथ टहलते हुए ही उनके आवास पर पहुंचे, जो फर्स्ट फ़्लोर पर था. वहाँ मुश्किल से दस मिनट बैठने के बाद विभूति जी मुझे ब्रजेन्द्र सिंह के आवास पर ले गए, बोले, ‘आपके ही समाज से हैं. और आपको जानते भी हैं.’ अब मैं ‘मेरे-उनके समाज’ शब्दों से विचलित नहीं होता, बल्कि भारतीय समाज का यह वह यथार्थ है, जिसे कोई विचारधारा नहीं मिटा सकी. खैर, हम पैदल ही टहलते हुए ब्रजेन्द्र सिंह जी के आवास पर पहुंचे. उनका आवास भी शायद पहले या किसी अन्य फ़्लोर पर था. वह विभूति जी से जूनियर थे, और कहीं डीआईजी थे. शायद उनको मेरे आने की सूचना पहले से थी. उनके ड्राइंग रूम में बैठकर बातचीत शुरू हुई. दलित वैचारिकी पर उनके अध्ययन को देखकर मैं दंग रह गया. उनको मेरे बारे में ही नहीं, बल्कि ओमप्रकाश वाल्मीकि और एक-दो अन्य दलित लेखकों के बारे में भी काफी कुछ जानकारी थी. वह बाबासाहेब डा. आंबेडकर के समाजवादी राज्य की अवधारणा से भी प्रभावित थे, और सबसे बड़ी बात यह कि उनके अंदर सूफीवाद भी भरा पड़ा था, जिससे मुझे भी बहुत लगाव है. कुछ देर के बाद विभूति जी मेज पर बोतल रखकर, जो वह साथ लाये थे, बोले, ‘अच्छा ब्रजेन्द्र सिंह ! अब तीन गिलास मंगवाओ  और कुछ खाने को.’ उन्होंने किसी को आवज दी और अगले ही पल दो गिलास, पानी और दो प्लेटों में काजू-नमकीन आ गया. मुझे उनके घर में किसी महिला के होने का बोध नहीं हुआ. वह शायद अकेले रहते थे, या उनकी पत्नी कहीं गई हुईं थीं. हो सकता है, विभूति जी के संध्यावन्दन के लिए यहाँ इसी वजह से आये थे.        
            दो गिलास देखकर विभूति जी बोले, ‘और तुम्हारा गिलास?’ ब्रजेन्द्र सिंह जी ने कहा, ‘मैं तो छोड़ चुका हूँ.’ मतलब, विभूति जी जानते थे कि वह पीते थे. पर वह सूफी कब हो गए थे, यह वह नहीं जानते थे. पता चला कि कुछ महीने पहले ही ब्रजेन्द्र सिंह जी की माँ का देहांत हुआ था. उन्होंने बताया, ‘मरने से पहले माँ ने मुझसे वचन लिया था, शराब छोड़ने का. तब  मैंने भी सोच लिया था कि और कुछ नहीं, तो शराब तो मैं माँ के लिए छोड़ ही सकता हूँ.’ और उसी क्षण से उन्होंने शराब को हाथ नहीं लगाया. यह मार्मिक था और मैं इससे विचलित हो गया था.

     
     
एक दिन अचानक सुना कि विभूति जी महात्मागांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्विद्यालय, वर्धा के कुलपति हो गए हैं. मैंने उन्हें फोन पर बधाई दी. यह बधाई अवश्य ही देर से दी गई थी, इसका कारण भी यह था कि मुझे सूचना भी देर से ही मिली थी. उस समय फेसबुक शायद नहीं था, अगर होगा भी, तो मैं उससे जुड़ा हुआ नहीं था, वरना, उनके कुलपति बनने की सुगबुगाहट भी पता चल जाती.
      उनके कुलपति बनने के बाद जब मैं पहली बार उनके बुलावे पर विश्विद्यालय गया, तो नागपुर एयरपोर्ट पर वह खुद मौजूद थे, उसी फ्लाईट से एक दो लोग और आये थे, जिनमें एक सुधीर जी भी थे. हम सब एक ही गाड़ी से वर्धा के लिए रवाना हुए. वर्धा जाकर पता चला कि पूरा विश्विद्यालय पांच ऊँचे टीलों पर सिमटा हुआ है. और कुल पांच भवनों में ही विश्विद्यालय का अस्तित्व है. एक भवन कुलपति आवास है, उसके ठीक सामने के आवास में कुलसचिव रहते थे, जो लखनऊ विश्विद्यालय में प्रोफ़ेसर थे, और जिन्हें विभूति जी ही प्रतिनियुक्ति पर लाये थे. एक भवन में रजिस्ट्रार बैठते थे, जो मशहूर रंगकर्मी राकेश जी थे. उन्हें भी विभूति जी ही वहाँ लाए थे. ये तीनों भवन पास-पास थे. दो भवन आगे कुछ दूर चलकर थे, जिनमें कुलपति का आफिस, पुस्तकालय, प्रशासन, और कुछ क्लासरूम थे. कुलपति आवास में ही दो या तीन गेस्ट रूम भी थे, सुधीर जी और मैं वहीँ ठहरे थे. सुबह टहलने के लिहाज से वह जगह बहुत प्यारी थी, मैंने दो दिन लगातार वहाँ की सडक पर मोर्निंग वाक की.
      वहीँ पता चला, कि विभूति जी इस विश्विद्यालय के पहले कुलपति हैं, जिन्होंने यहीं केम्पस में रहना तय किया, वरना जितने भी कुलपति हुए, यहाँ तक कि उनके पूर्ववर्ती अशोक वाजपेयी भी, कभी यहाँ नहीं रहे. वे दिल्ली से ही विश्वविद्यालय का संचालन करते थे. इस वजह से विश्विद्यालय की ढाँचागत समस्याएं कभी हल नहीं हो सकीं. यहाँ छात्रावास नहीं थे, जिससे बाहर के छात्रों का आकर पढ़ना नहीं हो पाता था. अतिथियों के लिए गेस्टहाउस नहीं थे. फेक्लटीज नहीं थीं, सभागार नहीं थे, वह इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं था, जो विश्विद्यालय के लिए जरूरी होता है. ऊपर से बिजली की भी समस्या थी. और कोई भी इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि इन सारी समस्याओं का निराकरण विभूति के रहते ही हो पाया, जिनके कारण आज वहाँ  सब कुछ है. वहाँ आदिवासी अध्ययन केन्द्र है, बुद्ध शोध केन्द्र है, दलित साहित्य अध्ययन केन्द्र है, और इस सब का श्रेय भी विभूति जी को ही जाता है.
      संभवतः सबसे पहले दलित साहित्य का पाठ्यक्रम बनाने की शुरुआत इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्विद्यालय (इग्नू) में हुई थी, जिसकी समिति में मैं भी एक सदस्य था. इस समिति ने 24-25 सितम्बर 2003 को विमल थोरात की अगुआई में पाठ लेखन का विचार किया था. इसके छह साल बाद अप्रेल 2009 में विभूति जी ने महात्मागांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में ‘दलित अध्ययन में स्नातकोत्तर डिप्लोमा पाठ्यक्रम’ के लिए विषय-विशेषज्ञों की समिति बनाई. उसकी पहली बैठक एक और दो अप्रेल को हुई, जिसमें विमल थोरात, नेमिशराय और मैं सदस्य के रूप में उपस्थित हुए थे. इसी बैठक में चार सेमिस्टर के लिए पाठ्यक्रम निर्धारित किया गया था. पहला— डा. आंबेडकर का जीवन और आन्दोलन, डा. आंबेडकर के विचार, दलित और आदिवासी अध्ययन, और दलित और आदिवासी इतिहास का प्राचीन और मध्यकाल; दूसरा— दलितों का आधुनिक और समकालीन इतिहास, आदिवासियों का आधुनिक और समकालीन इतिहास, और सामाजिक ढांचा : दलित और आदिवासी; तीसरा— दलित और आदिवासी चिन्तक, दलित राजनीति और अर्थशास्त्र, तथा दलित धर्म और संस्कृति; और चौथा—आदिवासी धर्म, संस्कृति तथा उससे सम्बन्धित अन्य शोध. तीसरे सेमिस्टर पर चर्चा के दौरान जब दलित चिंतकों पर बात चली, तो उनमें उनके पास जोतिबा फुले, नारायण गुरु, बिरसा मुंडा, जयपाल सिंह, शाहू महाराज, और रामास्वामी नायकर के नामों का प्रस्ताव था. मैंने उन्हें स्मरण दिलाया कि इनमें स्वामी अछूतानन्द का नाम छूट रहा है, वह बीसवीं सदी के उत्तर भारत के एकमात्र दलित चिन्तक थे, जो पहले दलित नाटककार और पत्रकार भी थे, और जिनके बिना हिन्दी क्षेत्र के दलित आन्दोलन के इतिहास की कल्पना नहीं की जा सकती. यह विभूति जी के लिए अपरिचित नाम तो नहीं था, पर उनका साहित्य उपलब्ध न होने के कारण वहाँ वह चर्चा में नहीं थे. मैंने बैठक में जोर देकर कहा कि इस सेमिस्टर में स्वामी जी का नाम जरूर शामिल होना चाहिए. और यहाँ तक उनके साहित्य की बात है, तो उस पर मिलकर काम किया जायेगा. जब मैंने स्वामी जी के कृतित्त्व के बारे में कुछ बातें रखीं, जिन्हें वहाँ कोई नहीं जानता था, तो विभूति जी ने स्वामी अछूतानन्द के नाम को शामिल कर लिया. अब उनका साहित्य उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी मेरी थी.
      मैंने काफी मेहनत करके स्वामी अछूतानन्द जी की रचनाओं को इकठठा करना शुरू किया. उनकी कुछ रचनाओं को मैं तीस साल से भी ज्यादा समय से अपने पास रखे हुए था, वे ऐसे ही पड़े-पड़े गल जातीं, अगर यह अवसर हाथ में नहीं आता. अत: मैंने उन्हें फाइलों में से निकाला, और कम्पोज कराया, कुछ साहित्य मुझे इलाहाबाद में गुरुप्रसाद मदन और कानपुर में के. नाथ के से सौजन्य से मिला. यह सब तैयार करके जब मैंने विभूति जी से फोन पर बात की, तो उन्होंने मुझे एक संचयिता तैयार करने का सुझाव दिया, जो एक बढ़िया सुझाव था. इस प्रकार मुझे “स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’ संचयिता” का संपादन करने का अवसर मिला. यदि विभूति जी ने इस कार्य में रूचि नहीं ली होती, तो यह काम शायद कभी नहीं हो पाता. विभूति जी ने इस रचना-संचयन को ‘महात्मागांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्विद्यालय’, वर्धा से प्रकाशन के लिए स्वीकार किया, और मुझे बीस हजार रुपए का मानदेय भी भिजवाया. वर्ष 2011 में इसे विश्विद्यालय ने प्रकाशित किया. अत: कहना न होगा, कि यह हिन्दी में किसी भी विश्विद्यालय से प्रकाशित होने वाला किसी भी दलित रचनाकार का पहला रचना-संचयन है. इससे पहले कोई रचना संचयन हिन्दी में किसी दलित लेखक का किसी भी संस्थान से नहीं आया था. इसके प्रकाशन ने स्वामी जी के बारे में सम्पूर्ण हिन्दी जगत को परिचित कराया, जिन्हें कोई नहीं जानता था. यदि इसका श्रेय विभूति जी को न दिया जाए, तो यह अकृतिज्ञता होगी.
(4 नवम्बर 2016)

                 
           







                 
           






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