बुधवार, 31 अगस्त 2016

आजादी के 70 साल और दलित जातियां
कॅंवल भारती
               
                दो सवाल जहन में उभरते हैं। पहला, इन 70 सालों में भारत की दलित जातियों को कितनी आजादी मिली? और दूसरा, इन 70 सालों में दलित जातियों ने कितनी तरक्की की? ये दोनों सवाल इतने अहम हैं कि इनमें से एक को भी नहीं छोड़ा जा सकता। हालांकि इन दोनों सवालों पर दो बड़े ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं। पर मैं यहाँ  बहुत ही संक्षेप में बात करूँगा।
                पहले सवाल को लेते हैं। आजादी के बाद से ही दलित जातियों के लिए बहुत सी योजनाएं  बनाई गईं और आज भी बनाई जाती हैं। इन योजनाओं के पीछे यह भाव रहता है कि हमें दलितों के लिए कुछ करना है।मुझे इस सम्बन्ध में डा. आंबेडकर का एक कथन आज भी प्रासंगिक लगता है। उन्होंने एक बार कहा था कि अक्सर हिन्दू नेताओं को यह कहते सुना जाता है कि हमें दलितों के लिए कुछ करना है।पर किसी भी नेता को, जो दलित समस्या में रुचि रखता है, यह कहते हुए नहीं सुना जाता कि हमें सवर्ण हिन्दुओं को बदलने के लिए कुछ करना है।वे कभी नहीं कहते कि हिन्दुओं को कैसे सुधारें? या उनके रूढ़िवादी विचारों में कैसे परिवर्तन लायें?’ डा. आंबेडकर बिल्कुल ठीक कहते थे कि दलित समस्या अस्पृश्यता की समस्या है। हिन्दू इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि दलित उनके अपने समाज के नहीं हैं। वे हिन्दुओं के लिए पराए हैं और यह परायापन उन दोनों के बीच हमेशा बना रहता है। इसी कारण से दलितों और सवर्णों के बीच आज भी स्वाभाविक मित्रता नहीं होती। वे दलितों के साथ राजनीतिक मित्रता तो कर सकते हैं, क्योंकि इस मि़त्रता से उन्हें सत्ता में आने का अवसर मिल सकता है, पर वे उनसे सामाजिक मित्रता नहीं करना चाहते, क्योंकि ऐसी मित्रता उनके धर्म के विरुद्ध जाती है। दिलचस्प है कि हिन्दू इसे गलत भी नहीं मानते, क्योंकि यह उनके धर्म का मामला है, और शायद इसीलिए वे दलितों की दयनीय स्थिति के लिए स्वयं को जिम्मेदार भी नहीं मानते हैं। इसी सन्दर्भ में एक बहुत महत्वपूर्ण सवाल यहाँ  जहन में आता है, जिसे डा. आंबेडकर ने भी अपने समय में उठाया था कि भारत में दलित सन्तों और नायकों के सामाजिक समानता के आन्दोलन क्यों सफल नहीं हो सके? क्या उनके मित्र या समर्थक नहीं थे? यदि वे थे, तो उन्होंने दलितों का समर्थन और सहयोग क्यों नहीं किया? उन्होंने इस आन्दोलन का इसलिए समर्थन नहीं किया, क्योंकि वह आन्दोलन उनकी नजर में हिन्दूधर्म के विरुद्ध विद्रोह था। यह तो आरक्षण का कानून है, जो दलितो को पढ़ने-लिखने और नौकरियों के अवसर देता है, वरना, हिन्दू बहुमत आज भी उन्हें अनपढ रखकर उनसे गुलामी के काम ही कराता रहता। इसलिए आज यही हिन्दू बहुमत उनके आरक्षण के विरुद्ध आवाज उठाता है। यही हिन्दू बहुमत संसद में दलित-मुद्दे पर चर्चा से गायब रहता है और यही हिन्दू बहुमत आज भी अस्पृश्यता का पूरी दृढ़ता से पालन करता है। यही हिन्दू बहुमत और उनके शंकराचार्य और धर्मगुरु मन्दिरों में दलितों के प्रतिबन्ध को जायज ठहराते हैं। कौन इन्कार करेगा कि यह छह दशकों की आजादी की कहानी नहीं है? हालांकि राजनीतिक आजादी सभी को मिली है, पर सामाजिक और आर्थिक आजादी अभी भी सबके हिस्से में नहीं आई है, और दलित जातियां  इसमें सबसे ज्यादा हाशिए पर हैं।


दलितों की राजनीतिक स्वतन्त्रता और प्रगति पर चर्चा जरूरी है। यह इसलिए भी कि 1932 के पूना पैक्ट से शुरु हुआ दलित राजनीति का सफर-इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी और शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन से भारतीय रिपब्लिकन पार्टी और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) तक, भारत की सत्तर साला आजादी में मायने रखता है। निश्चित रूप से इसे लोकतन्त्र की एक बड़ी विजय के रूप में रेखांकित किया जा सकता है। लेकिन इस पर धैर्य के साथ विचार करना होगा, क्योंकि मेरी दृष्टि में यह राजनीतिक स्वतन्त्रता का उपभोग तो है, पर यह एक बड़ा सवाल भी खड़ा करता है, जो यह है कि स्वतन्त्र भारत में दलित जातियों को अपनी पृथक राजनीति स्थापित करने की परिस्थितियां  क्यों पैदा हुईं? दूसरे शब्दों में पृथक दलित राजनीति की जरूरत क्यों पड़ी? क्या यह उन शासकों की असफलता नहीं है, जिनके हाथों में स्वतन्त्र भारत की बागडोर आई? जिस कांग्रेस ने भारत पर चार दशकों तक निष्कण्टक राज किया, उसने पूना पैक्ट के अनुपालन में राजनैतिक आरक्षण की खानापूरी के लिए दो तरह के दलितों को सांसद और विधायक बनवाया-(एक) जो अशिक्षित थे और जिनमें कांग्रेस आलाकमान की ली हजूरीकरने के सिवा कोई योग्यता नहीं थी, और (दो) जिनकी योग्यता डा. आंबेडकर के परिवर्तनवादी मिशन से दलितों को दूर रखने की थी। परिणामतः, कांग्रेस के अशिक्षित दलित प्रतिनिधि सवर्णों के चमचा बने रहे और काॅंग्रेस के आंबेडकरविरोधी दलित प्रतिनिधियों ने अस्सी के दशक तक हिन्दी पट्टी के शहर-कस्बों में डा. आंबेडकर को दलितों के बीच पहुंचने ही नहीं दिया, हालांकि यह स्थिति महाराष्ट्र में नहीं थी, पर वहाँ  उसने आंबेडकर के आन्दोलन को तोड़ने में दूसरे तरीके अपनाए। कांग्रेस सरकारों की नीतियां  सभी राज्यों में दलितों को कुछ योजनाओं तक सीमित रखकर लाभार्थी बनाकर रखने की ही थीं, जिसका मकसद समाज में यथास्थिति बनाए रखने का था। कारण, अंग्रेजों के जाने के बाद भारतीय ब्राह्मण शासकों ने पूरे देश में लोकशाही की आड़ में ब्राह्मणशाही कायम करने का काम बहुत तेजी से किया। भारत गणराज्य का पहला राष्ट्रपति ही 101 ब्राह्मणों के, न केवल पैर धोकर अपनी कुर्सी पर बैठा था, बल्कि उसने विशाल ब्रह्मभोज का अनुष्ठान भी किया था। और यह कहना गलत न होगा कि इसी ब्राह्मणभक्ति से कांग्रेस ब्राह्मणों की संरक्षक बन गई थी।
            एक बार डा मुल्कराज आनन्द ने सम्पत्ति के मौलिक अधिकार के प्रश्न पर डा. आंबेडकर से पूछा था, तो उसके जवाब में उन्होंने कहा था, ‘नेहरू की सरकार में केवल गैर ब्राह्मणों ने मौलिक अधिकार के रूप में निजी सम्पत्ति के खिलाफ लड़ाई लड़ी है। किन्तु बाबू राजेन्द्रप्रसाद को इसी से लग गया कि नेहरू भारत को रूस बनाना चाहते हैं, और सवर्ण हिन्दुओं ने व्यक्ति के अन्य अधिकारों को केवल निर्देशक सिद्धान्तों के रूप में संसद में लड़ने के लिए माना।इसी से समझा जा सकता है कि सवर्ण हिन्दू अपने विशेषाधिकारों को छोड़ने को तैयार नहीं हैं। अगर भारत के सारे दलित आज गन्दा काम करना बन्द कर दें, तो देश का कोई गाँव-शहर ऐसा नहीं होगा, जहाँ  उन पर हिंसा न शुरु हो जाए। गुजरात इसका ताजा उदाहरण है।
डा. आंबेडकर दलितों को भी एक वर्ग मानते थे, जो भारत का सबसे कमजोर वर्ग है। उनका अपने समय के कम्युनिस्टों से असल विरोध इसी बात पर था कि वे भारत में वर्णव्यवस्था को नहीं देख रहे थे, जो सुस्पष्ट वर्गविभाजन है, और जिसने दलित को सबसे कमजोर वर्ग बनाकर रखा है। उनका कहना था कि इस सबसे कमजोर वर्ग को दबाकर समाजवाद नहीं लाया जा सकता। उन्होंने बहुत सही सवाल उठाया था कि जो समाजवादी यह सोचते हैं कि साम्राज्यवाद के खत्म होने के बाद भारत में पूंजीवाद के अवशेष भी खत्म हो जायेंगे, वे दिग्भ्रमित हैं। अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी भारत में जमींदार, मिल मालिक, साहूकार और ब्राह्मणवाद रहेगा, जो गरीब जनता का खून चूसता रहेगा। इसलिए उन्होंने राजनीति में वर्गचेतना पर जोर दिया था। आंबेडकर की बात गलत नहीं थी। आजादी के बाद राजे-रजवाड़े, नवाबी और जमींदारी तो खत्म हुई, पर वे ही कांग्रेस में शामिल होकर देश के शासक भी बने और उन सबने मिलकर पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद को इतना मजबूत किया कि उसके भार तले दलित जातियां  कुचली जाकर कराहने लगी थीं। तमाम कागजी सरकारी योजनाओं के बावजूद, उनका दमन और शोषण जारी रहा। शहरों में थोड़ी-बहुत तरक्की जरूर हुई, पर गांवों में वे गाजर-मूली की तरह काटे जाते रहे। दलितों की सामूहिक हत्याओं के इतने काण्ड देश के गांवों में हुए कि उनका लोमहर्षक वर्णन करने के लिए हजारों पृष्ठ चाहिए। गांवों में ही नहीं, कस्बों में भी, वे दलित, जिन्होंने सवर्ण हिन्दुओं के अत्याचारों से बचने के लिए अपनी पशु से भी बदतर जिन्दगी को अपना भाग्य मानकर स्वीकार कर लिया था, पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुलाम बने रहे और अपनी स्थिति से कभी ऊपर नहीं उठ सके। वे शिकायत करते भी, तो किससे करते? थानेदार से लेकर विधायक-सांसद तक उनके प्रति हमदर्दी नहीं रखते थे। आवाज उठाने वाले तमाम दलितों को या तो मार दिया जाता था, या झूठे मुकदमों में जेल भिजवा दिया जाता था। और, उनकी औरतों के साथ बदसलूकी करना तो जैसे दबंग सवर्णों का जन्मजात अधिकार ही था। यही वह दौर था, जब पूरे भारत में गांवों से पीड़ित दलित जातियों का शहरों में पलायन हो रहा था। इस पलायन ने ही उनको संघर्ष करना सिखाया, हालांकि वहाँ  भी वे आर्थिक रूप से कमजोर ही रहे, पर कुछ गांवों के रोज-रोज के जुल्म से बच गए थे।
चुनाव होते, तो दलितों को वोट नहीं डालने दिया जाता था। उनके नामों के वोट सवर्ण खुद ही डाल देते थे। जो दलित वोट डालने का साहस करते थे, तो उन्हें लाठी-डण्डों के सहारे खदेड़ दिया जाता था। शहरों में स्थिति कुछ भिन्न थी। चुनावों से पहले कांग्रेस के नेता दलित बस्तियों में जाते, एकाध हैण्डपम्प लगवा देते, कुछ बच्चों का वजीफा बनवा देते, और उनकी पंचायत को वर्तन आदि खरीदने के लिए सौ-दो-सौ रुपए दे देते, बस बस्ती के सारे दलित वोट कांग्रेस को चले जाते थे। यही कांग्रेस का दलित उद्धार था। यह मैं कल्पना से नहीं कह रहा हूँ, बल्कि मैं इसका साक्षी हूँ। कांग्रेस ने अपने चालीस साला साम्राज्य में दलितों के वोट तो लिए, पर किसी भी राज्य में दलित को मुख्यमन्त्री नहीं बनाया। दलितों के लिए यदि कोई ढंग की लड़ाई सकता था, तो वह कम्युनिस्ट ही लड़ सकते थे। वे चाहते तो कांग्रेस का एक बड़ा विकल्प तैयार कर सकते थे, दलितों में आत्मसम्मान पैदा कर सकते थे, उन्हें अधिकारों का पाठ पढ़ा सकते थे और उन्हें अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष करना सिखा सकते थे। पर गांवों का तो पता नहीं, मैंने अपने शहर में भी किसी कम्युनिस्ट नेता को दलित बस्ती में कभी नहीं देखा। इसका कारण इसके सिवा और कुछ क्या हो सकता है कि वे भी सवर्ण ही थे, और दलितों के अछूत बने रहने से उनके भी सामाजिक हित पूरे होते थे। 
            ये ही वे सामाजिक परिस्थितियां  थीं, जो पृथक दलित राजनीति का कारण बनीं। हिन्दी पट्टी में भारतीय रिपब्लिकन पार्टी ने दस्तक दी, और उसके दो शेरों-बुद्धप्रिय मौर्य और संघप्रिय गौतम ने दलित वर्गों को डा. आंबेडकर के नाम और उनके आन्दोलन से जोड़ दिया। परिणामतः, विचारों की एक नई दुनिया उनके सामने खुल गई, जो इससे पहले किसी दलित कांग्रेस नेता ने उनके सामने नहीं खोली थी। पढेलिखे लोगों ने डा. आंबेडकर की जीवनियां  मॅंगाकर पढ़नी शुरु कीं। और देखते-देखते पूरा उत्तर प्रदेश नीले झण्डों और हाथी के निशान वाले बैनरों से रंग गया था। परिणामतः, 1967 में पहली बार 11 विधायक भारतीय रिपब्लिकन पार्टी से जीतकर उत्तर प्रदेश की विधान सभा में पहुंचे, जो आंबेडकर आन्दोलन के क्रान्तिकारी नेता थे। इसी दौर में भारतीय रिपब्लिकन पार्टी ने पूरे देश में भूमिहीनों को भूमि देने का जबरदस्त आन्दोलन चलाया, जिसने सरकारों को भूमि देने के लिए बाध्य कर दिया था। पर, इस आन्दोलन ने कांग्रेस की नींद हराम कर दी थी, कांग्रेस की मतलब सवर्णों की। और, फिर जो प्रतिक्रान्ति कांग्रेस ने शुरु की, तो शीघ्र ही भारतीय रिपब्लिकन पार्टी खण्ड-खण्ड होकर बिखरती गई और कांग्रेस के आगोश में समाती गई। परिणाम, कांग्रेस फिर से दलितों की मजबूरी बन गई।
इसी बीच कांशीराम का उदय हुआ और उनके कर्मचारी संगठन बामसेफ’, सामाजिक संगठन दलित शोषित समाज संघर्ष समितिऔर राजनीतिक संगठन बहुजन समाज पार्टीने दलित की जगह बहुजन राजनीति का सूत्रपात किया और भारतीय रिपब्लिकन पार्टी के अभाव को भर दिया। उन्होंने दलितों को स्वाभिमान दिया, संघर्ष की चेतना दी और उनकी मुक्ति का वह मार्ग दिया, जो सत्ता तक जाता था। उत्तर प्रदेश में यह पार्टी चार बार अपनी सरकार बना चुकी है।
निश्चित रूप से बहुजन समाज पार्टी की राजनीति में वर्ग चेतना नहीं है, जाति चेतना है। पर यह नहीं भूलना चाहिए कि इस जाति चेतना की जनक कांग्रेस है। वह तो सिर्फ उसका उपयोग कर रही है।

 18-8-2016

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