गुरुवार, 16 मार्च 2017

डा. धर्मवीर : कुछ स्मृतियाँ
(कँवल भारती)
      डा. धर्मवीर कैंसर से हार गए और 9 मार्च को दुनिया छोड़ गए, वह दुनिया, जिसमें उन्हें अभी और रहना था. पर जैसा कि कबीर ने कहा है, ‘जो अग्य सौ आंचवै, फूल्या सो कुम्हलाई, जो चिणियां सो ढहि पड़े, जो आया सो जाई’, हर व्यक्ति को एक दिन जाना ही है. यही नियतिवाद है, जिसे मक्खलि गोशाल ने स्थापित किया था और जिसे डा. धर्मवीर मानते थे. पर यह शायद उनको भी नहीं मालूम था कि नियति उन्हें इतनी जल्दी दुनिया से अलग कर देगी.
      धर्मवीर जी से मेरी सिर्फ दो मुलाकातें हुईं थीं. और दोनों मुलाकातें शानदार और महत्वपूर्ण थीं. विशेषता यह है कि ये मुलाकातें मैंने अकेले नहीं की थीं, बल्कि अपने मित्रों के साथ की थीं. पहली भेंट दिल्ली के शकरपुर में हुई थी. मेन बाज़ार में. यह शायद 1995 या 96 की बात होगी. मैं और रमेश प्रभाकर (संपादक : मूक भारत) एक निजी काम से दिल्ली गए हुए थे. धर्मवीर जी का पता हमारे पास था. अपना काम निबटाकर हमने शकरपुर के लिए बस पकड़ी. और उस दूकान पर पहुँच गए, जिसका नाम हमारे पास नोट था. वह एक जूतों की दूकान थी, जहां जूते बनते भी थे और बिकते भी थे. वहाँ जाकर हमने दूकान पर बैठ हुए एक अधेड़ व्यक्ति से कहा, ‘हमें डा. धर्मवीर से मिलना है.’ उस व्यक्ति ने हमें बैठने को कहा, और वहीँ से उसने ऊपर मुंह करके धर्मवीर जी को आवाज दी. कुछ ही देर में लकड़ी की सीढ़ी से जो व्यक्ति नीचे उतर कर हमारे पास आये, वह धर्मवीर थे. उस समय ‘डा. आंबेडकर की कविताएँ’ शीर्षक से मेरा एक लेख ‘हंस’ में छप चुका था. उसे धर्मवीर जी पढ़ चुके थे. कुछ इधरउधर की बातचीत के बाद उन्होंने उस लेख का जिक्र किया, बोले, ‘यह सचमुच बड़ी मौलिक चीज है. मैंने खुद डा. आंबेडकर को पढ़ते हुए उनकी काव्यात्मकता को महसूस किया है.
      उसके बाद उनसे मेरी दूसरी मुलाकात अपने मित्र प्रोफ़ेसर ओम राज के साथ गाज़ियाबाद में उनके बसुंधरा स्थित आवास पर हुई. इस मुलाकात का समय पहले से तय था. सो प्रोग्राम के मुताबिक़, हम पहले श्योराज सिंह बेचैन के घर गए. वहाँ जलपान करने के बाद वह ही हमें अपनी कार से धर्मवीर जी के आवास पर ले गए. वह भी बसुंधरा में ही था. जब हम वहाँ पहुंचे, तो दिनेश राम वहाँ पहले से मौजूद थे. वहाँ भी उनका स्टडी और बेड रूम ऊपर ही था. हमारे पहुँचने के बाद वह ऊपर से ही हमसे मिलने के लिए आये थे. उस मुलाकत में मैं ज्यादातर खामोश ही रहा था, ओम राज जी और धर्मवीर जी के बीच ही बातचीत चलती रही थी. यह वह समय था, जब धर्मवीर जी केरल से अपनी नौकरी छोड़कर कुछ ठोस काम करने के लिए आए थे. केरल से आयीं उनकी किताबों के बंडल भी अभी ऐसे ही पैक्ड पड़े थे. उस समय ‘वाक्’ में उनका कोई लेख छपकर आने वाला था, जिसका वह जिक्र कर रहे थे. ओमराज जी से उनकी बातचीत कबीर को लेकर हो रही थी, और ओमराज जी कुछ पर्सियन स्रोत से कबीर पर अपनी जानकारी दे रहे थे, जो उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण थी. धर्मवीर जी ने कोकाकोला की बोतल निकाली, उसे गिलासों में डाला, और अपने हाथों से सेब छीलकर चाकू से उसकी खांपें काटकर हमारे सामने रखीं. उनके उस मेजबानी वाले रूप ने सचमुच मोह लिया था. बातचीत में समय का पता ही चला. दोपहर के दो बज चुके थे. हमने लंच नहीं किया था. धर्मवीर जी ने श्योराज सिंह बेचैन को हिदायत दी थी कि वह हमें अपने घर पर से ही खाना खिलाकर लेकर आयें, क्योंकि उनके घर पर खाने की व्यवस्था नहीं थी. किन्तु, बेचैन जी ने कुछ और ही सोचकर रखा था. धर्मवीर जी के घर से वह हमें एक रेस्तरां में ले गए, साथ में डा. धर्मवीर और दिनेश राम भी थे. वहाँ हम सब लोगों ने खाना खाया. बिल का भुगतान धर्मवीर जी ने ही किया. वह हमारी सचमुच यादगार मुलाकात रही. वह मेरी दूसरी और ओम राज जी की पहली मुलाकात थी, पर दोनों की ही अंतिम भी थी. उसके बाद फिर उनसे कभी मिलना नहीं हो सका था. चूँकि मैं दिल्ली के कार्यक्रमों में न के बराबर भाग लेता हूँ, इसलिए भी उनसे मिलने के मुझे और मौके नहीं मिले.
      उस मुलाकात के बाद मुझे डा. धर्मवीर के फोन आने लगे थे. वह अक्सर कबीर और आजीवक को लेकर फोन करते, और सदैव लम्बी बातें करते थे. कबीर पर उनके काम का मैं प्रशंसक हूँ, उनके आजीवक विचार से भी मुझे कोई विरोध नहीं है. पर इस कड़ी में वह बुद्ध का खंडन करते थे, जिसका मैं समर्थन नहीं कर सकता था, क्योंकि यह उनका जातिवादी विरोध था. उनके विचार को अपनाते हुए डा. श्योराज सिंह बेचैन भी कहते हैं कि बौद्ध धर्म क्षत्रिय का धर्म है, जिसे डा. आंबेडकर ने दलितों का धर्म बनाकर गलती की है. इस विचार के खंडन में मैंने “दलित धर्म की अवधारणा और बौद्ध धर्म” किताब (2002) लिखी, जिसे पढ़ने के बाद डा. धर्मवीर की प्रतिक्रिया फोन पर मिली कि मैं उनके लक्ष्य से दूर नहीं हूँ. और मैं उस काम को करने की क्षमता रखता हूँ, जो उनका मिशन है. इसके बाद उनका फोन संवाद और पत्राचार बढ़ गया था. यह पत्राचार बहुत काम का है, और दलित साहित्य में एक लेखक के मानसिक द्वंद को दर्शाता है.
यह बात मैं पूरी तरह स्वीकार करता हूँ कि आजीवक धर्म की ओर ध्यान आकर्षित करने का श्रेय निश्चित रूप से डा. धर्मवीर को ही जाता है. अनेक दलित लेखकों पर इसका प्रभाव भी पड़ा. ईशकुमार गंगानिया ने ‘आजीवक’ पत्रिका निकाली, और कई ने लेख लिखे. मैंने भी इस बिषय पर फिर से कुछ अध्ययन किया, जिसके आधार पर ‘आजीवक परम्परा और कबीर’ (2010) किताब लिखी. पर इसी किताब ने मेरे और धर्मवीर जी के बीच दीवार खड़ी कर दी. उन्होंने फोन करके कहा कि ‘आपने मेरी मेहनत पर पानी फेर दिया है. मेरे कई विचार आपने चुरा लिए हैं, और मेरा नाम भी नहीं दिया है.’ जिनके पास मेरी यह किताब है, वे उसके ‘निवेदन’ में शुरू में ही यह पढ़ सकते हैं—‘यदि डा. धर्मवीर ने कबीर में आजीवक की पहिचान न की होती, तो मैं शायद ही कबीर पर यह पुस्तक लिख पाता. लोकायत और आजीवक परम्परा के अध्ययन से कबीर का न हिन्दू न मुसलमान मत पूरी तरह स्पष्ट हो गया.’ किताब में हर अध्याय के अंत में जहां से जो विचार लिया गया है, उसका पूरा सन्दर्भ दिया गया है. इसके बाद भी अगर उन्हें यह लगता था तो कि मैंने उनके विचारों को बिना सन्दर्भ के ले लिया है, तो मैंने उन्हें कहा कि यह पाठकों पर छोड़ दिया जाए, तो बेहतर  होगा.
यहाँ तक तो फिर भी ठीक था. पर इसके बाद स्त्रियों पर उनके हमले होने लगे, चमार स्त्रियों को वह व्यभिचार से जोड़ने लगे, यहाँ तक कि उनकी नजर में हर दलित बालक जार कर्म से पैदा अवैध संतान हो गया था. बिना कुछ कमाए, पति की कमाई खाने वाली घरेलू स्त्री को वह डायनासोर कहने लगे थे. तलाकशुदा औरत को गुजराभत्ता देने की वह निंदा करते थे. उन्होंने अपने आपको एक ऐसे विचार के दायरे में कैद कर लिया था, जिसे स्वस्थ दृष्टिकोण नहीं कहा जा सकता था.
             डा. धर्मवीर की यह विशेषता थी कि वह अपने कुछ पत्रों को सार्वजनिक कर देते थे. यदि कोई पत्र वह मुझे भेजते थे, तो उसकी एक प्रति दूसरे लेखकों को भी भेज देते थे. इस क्रम में सूरजपाल चौहान और डा. हेमलता महिश्वर को लिखे पत्र भी उन्होंने मुझे भेज दिए थे. यहाँ तक कि अपनी बेटी करुणा को लिखे पत्र भी उन्होंने सार्वजनिक कर दिए थे. इसके पीछे उनका क्या मकसद हो सकता था, सिवाए इसके कि वह जिसका पोस्टमार्टम करते थे, उसकी रिपोर्ट दूसरे भी देखें. उनके वे पोस्टमार्टम क्या थे, उसकी कुछ संक्षिप्त झलकियाँ मैं यहाँ दिखाना चाहता हूँ.
त्रिवेन्द्रम से 20-04-2006 की स्पीडपोस्ट— ‘प्रिय श्री कँवल भारती जी, मैंने एक पत्र श्री सूरजपाल चौहान जी को भेजा है, इसलिए इसकी एक प्रति आपके पास भेज रहा हूँ.—आपका, धर्मवीर.’ संलग्न पत्र 12-04-2006 का है. उसमें लिखा है— ‘प्रिय श्री सूरजपाल जी, आपकी पहली भेजी हुई किताब ‘संतप्त’ आपके पत्र सहित समय पर मिल गयी थी. अब आप द्वारा संकलित ‘दलित आत्मकथा : विशेष सन्दर्भ सूरजपाल चौहान कृत तिरस्कृत’ भी आपके पत्र के सहित थोड़ी देरी से मिल गयी है. ऐसा नहीं है कि मैंने ‘संतप्त’ न पढ़ी हो. सब काम छोड़ कर मैंने तत्काल पढ़ ली थी. लेकिन पिछले दिनों मैंने एक सिद्धांत निकाला है कि मुझे भंगी या खटीक जाति के किसी भी लेखक से व्यक्तिगत संबंध नहीं रखना चाहिए. उसी के पालन में मैंने आपको खत नहीं भेजा.’
      इसके बाद 18-7-2006 का एक और स्पीडपोस्ट त्रिवेंद्रम से मिला— ‘श्री कँवल भारती जी, मैंने एक पत्र 08-7-2006 को श्री सूरजपाल चौहान जी को लिखा है. उसकी एक प्रति आपकी सेवा में भेज रहा हूँ.’ यह 30 पृष्ठों का लम्बा पत्र है, जिसमें दो पृष्ठों में सन्दर्भ दिए गए हैं. इस पूरे पत्र को यहाँ नहीं दिया जा सकता, पर, पत्र में व्यक्त धर्मवीर जी की वैचारिकी को रेखांकित करने वाली कुछ महत्वपूर्ण बातों को देना जरूरी लगता है. सूरजपाल चौहान को संबोधित इस पत्र में पृष्ठ आठ पर धर्मवीर जी लिखते हैं, ‘मुझे मालूम है, ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी रमणिका गुप्ता पर कसीदे काढ़ते हुए एक पुस्तक संपादित की है. वे भी भंगी कौम से हैं, आप भी भंगी कौम से हैं. आप द्वारा मिलवाये गए एक अन्य लेखक खटीक जाति से हैं, वे भी उन पर कोई पुस्तक लिख या सम्पादित करने वाले थे. मेरा कहना यह है कि यदि भंगी और खटीक जाति के लेखक यही सब कुछ करेंगे, तो अच्छा है कि मैं दलित जातियों की एकता की बात करनी छोड़ दूँ. फिर, मैं चमारों तक सीमित रहूँ, क्योंकि मैं उनमें जन्मा हूँ.’
      पृष्ठ 22 पर-- ‘आपने....क्या कह दिया? आपके शब्द हैं, ‘आंबेडकर दर्शन ही दलित साहित्य की मुख्य धारा है. बताइए, आप आंबेडकर-दर्शन को क्या जाने? आपने आंबेडकर के नाम को केवल गेंद बनाया है. डा. आंबेडकर ने दलितों का नेतृत्व किसी को नहीं दिया. गाँधी से उनकी लड़ाई इसी नेतृत्व को लेकर थी. आप कैसे अम्बेडकरवादी हो जो अपना नेतृत्व रमणिका गुप्ता और राजेन्द्र यादव को दे रहे हो?’
      सूरजपाल चौहान और धर्मवीर जी के बीच 2007 के पत्राचार में 01 जून 2007 को चौहान ने धर्मवीर जी को कुशलक्षेम का पत्र लिखा, जिसके उत्तर में धर्मवीर जी ने 12-6-2007 को लिखा, ‘मैंने हिसाब लगाया कि मुझे आपसे बात करे पूरे 21 महीने हो गए हैं. दिल ने थोड़ा उछाल लिया. पर तभी मेरे हाथ में ‘युद्धरत आम आदमी’ जिसे मैं ‘कामरत एक औरत’ कहता हूँ, का अभी छपा 2007 का विशेषांक पड़ गया. उसमें रमणिका गुप्ता का सम्पादकीय ‘नंगा हो मत नाच’ के शीर्षक से तीसरे पन्ने से ही शुरू हो जाता है. उन्होंने अपने सम्पादकीय को इस प्रकार शुरू किया है—
छली, प्रपंची तू बड़ा, है कपटी मक्कार.
महायुद्ध के नाम पर, अपनों से ही रार.
पावन ‘बुधिया’ चरित को, ठीक-ठीक तू जांच.
जारकर्म की आड़ में, नंगा हो मत नाच.
(सूरजपाल चौहान)
      ‘रमणिका गुप्ता ने अगली पंक्तियाँ इस प्रकार लिखी हैं— ‘ये दोहे कवि-कथाकार सूरजपाल चौहान ने कुछ सप्ताह पहले रमणिका फाउंडेशन में हुई एक गोष्ठी में डा. धर्मवीर के संदर्भ में पढ़े थे.’ कोई भी समझ सकता है कि मेरे उत्साह को तत्काल पाला मार गया.’
      सूरजपाल चौहान ने 15 जून 2007 को अपना लम्बा स्पष्टीकरण धर्मवीर जी को भेजा. और धर्मवीर ने 20 जून के पत्र में उनका ऐसा ब्रेनवाश किया कि उन्होंने 2 जुलाई 2007 को धर्मवीर जी को लिखा, ‘सर, मैं यहाँ जारसत्ता को लेकर अकेले ही मैदान में डटा हुआ हूँ. धीरे-धीरे लोग अब समझने लग गए हैं. सुदेश तनवर जैसे लोग भी अब आपकी बातें समझने लग गए हैं. अभी कल 1-07-07 (रविवार) की ही बात है. एच. एल. दुसाध को मैंने आड़े हाथों लिया है. मैंने उनसे कहा है कि वह पहले डा. धर्मवीर को पढ़ें, फिर उनके बारे में कुछ कहें या लिखें. ....आपकी यह पुस्तक (तीन द्विज हिन्दू स्त्री लिंगों का चिंतन) पढ़कर मेरी आँखों के सामने से अन्धकार की और परतें हटी हैं. बताओ, ऐसी महिलाएं दलितों की ठेकेदार बनने चली हैं, जो जीवन भर......! एक और बात, बेटी करुणा को भक्त प्रहलाद की तरह गुमराह किया है. यही तो ये शुरू से ऐसा करते आये हैं.’
      करुणा धर्मवीर जी की छोटी बेटी का नाम है. उनकी बड़ी बेटी का नाम अनिता है. धर्मवीर जी ने करुणा और अनिता को जो पत्र लिखे, उनको भी सार्वजनिक कर दिया था. अनिता को लिखा गया एक पत्र और करुणा को लिखे गए आठ पत्रों की छाया प्रतियाँ भी उन्होंने मुझे भेज दीं, जिनको पढ़कर लगता है कि पिता-पुत्रियों के बीच भी ठीक नहीं चल रहा था. 19 जुलाई 2007 को उन्होंने अनिता को लिखा कि करुणा की हत्या की जा सकती है. हत्या कौन कर सकता है? उसमें उन्होंने इन नामों का खुलासा किया—
1.      रमणिका गुप्ता
2.      रजनी तिलक
3.      अनिता भारती
4.      विमल थोरात
5.      महिपाल (धर्मवीर का छोटा भाई)
6.      रमेश रानी (धर्मवीर की पत्नी)
      वह आगे लिखते हैं, ‘हत्या न की जा सके, तो ये लोग उसे आत्महत्या के लिए उकसा सकते हैं. मेरे हिसाब से, इन लोगों के द्वारा करुणा की हत्या-आत्महत्या के षड्यंत्रों की तैयारियां हो चुकी हैं. यह घर से लेकर बाहर तक के लोगों का पूरा जाल बिछा है.’
करुणा को लिखे उनके आठ पत्रों के कुछ अंश इस प्रकार हैं--
·         ‘प्रिय करुणा, सच बात यह है कि एक बेटी के रूप में तुम में कोई कमी नहीं है, जो कमी है, वह हिन्दुओं के कानून में है. ऐसे ही, मुझ में भी एक पापा के रूप में कोई कमी नहीं है, जो कमी है, वह हिन्दुओं के कानून में है. तुम में नहीं, एक दार्शनिक होने की वजह से मैं जानता हूँ कि हिन्दुओं के कानून की वजह से तुम्हें अपने इतने अच्छे प्यारे मेहनती, ईमानदार और चरित्रवान पापा में दोष निकालने पड़ गए हैं.’ (23-7-2007 के पत्र से)
·         ‘प्रिय करुणा, मैंने वहाँ घर पर एक के बजाय तीन कुत्ते रखने को सहन कर रखा था. अब पता चला है, एक चौथा कुत्ता (धर्मवीर का भाई) और आ गया है. यूँ चार कुत्तों का खाना चार आदमियों का ही खाना है. बीमार होने पर उनके इलाज के खर्चे भी होते हैं. लेकिन मैंने महिपाल (भाई) को रोटी देने की अनुमति किसी को नहीं दी है. तुम्हारा कोई हक नहीं बनता कि तुम इसे मेरी कमाई की रोटी दो.’ (5-8-2007 के पत्र से)
·         ‘प्रिय करुणा, मेरी पत्नी अपने देवर के साथ जारकर्म में रह रही है और मैं कुछ नहीं कर सकता. मेरी पत्नी अपने इस देवर को मेरी कमाई खिला रही है और मैं उसे रोक नहीं सकता. तुम 30 साल से ऊपर की उम्र की हो कर भी अपने लिए कुछ आमदनी नहीं करती और मैं तुम्हें कुछ कह नहीं सकता. तुमने मुझ पर आरोप लगा दिया कि मैंने एक बाप की जिम्मेदारी नहीं निभाई और तुम्हारी शादी नहीं की. यूँ, तुमने सबसे काबिल आदमी को सबसे ज्यादा निकम्मा करार दे दिया और ‘नालायक औलाद’ के बजाय ‘नालायक बाप’ का मुहाबरा खड़ा कर दिया और मैं कुछ नहीं कर सकता. तुम लोगों ने लम्बे हिसाब लगाये हैं और मेरी जान के पीछे पड़ गए हो. तुम्हारे हमलों से मेरी जान को मेरा पुनर्विवाह ही बचायेगा,’ (11-8-2007 के पत्र से)
·         ‘प्रिय करुणा, तुम्हें समझाने का कोई फायदा नहीं हुआ है. मनुष्यों में से जो व्यक्ति कमाने की नीयत और क्षमता पर नहीं आता, उसे समझाया नहीं जा सकता. लेकिन मैं यही प्रार्थना करता रहूँगा कि तुम कमा कर खाने के रास्ते पर आ जाओ. मुझे मालूम है कि तुमने कमाने के लिए कोशिश की थी. तुम सफल इसलिए नहीं हो सकीं, क्योंकि ब्राह्मणों के जार कानून ने इस घर को कोई रास्ता नहीं दिया. चमारियों में तुम रजनी तिलक के पास चली गयीं. वे चमारियों का फेमिनिज्म चलाने का दम भर रही हैं. पर उन्होंने तुम्हारी शादी क्यों नहीं करा दी? उन्होंने तुम्हें किसी काम धंधे में क्यों नहीं लगवा दिया? (19-8-2007 के पत्र से)
·         ‘प्रिय करुणा, मुझे पता है कि अब तक तुम्हारे नाम से दो लेख छपे हैं. उनके शीर्षक इस प्रकार हैं— 1. सामाजिक होना कितना कठिन, 2. विवाह, संतान और उत्तरदायित्व. पर यदि इस प्रकरण पर जवाब में मुझे लिखना हो तो मैं अपने लेखों के दो शीर्षक क्रमशः इस प्रकार रखूंगा—1. कमा कर खाना कितना कठिन, 2. विवाह, भेड़िया और अवैध संतान.’ (20-8-2007 के पत्र से)
·         ‘प्रिय करुणा, मुझे ‘युद्धरत आम आदमी’ के जुलाई-सितम्बर 2007 के अंक में छपे तुम्हारे हस्तलिखित पत्र के बारे में कुछ कहना है....इस पत्र में मेरी बुराई की गयी है. पर मेरी प्रशंसा करने वाले बहुत बच्चे हैं.’ इसके बाद उन्होंने एक विश्विद्यालय के छात्र का पत्र उद्धृत किया है, जिसमे वह कहता है, ‘इतिहास एक ही कबीर, एक ही आंबेडकर एवं एक ही धर्मवीर पैदा करता है. इस बच्चे ने यह बात इस सन्दर्भ में लिखी है, क्योंकि इनके प्रोफ़ेसर (?) अपने विद्यार्थियों से कहते हैं, ‘अपने पूरे अध्यापनकाल में अगर मैं एक भी धर्मवीर पैदा कर सका तो अपने जीवन को धन्य समझूंगा.’ (21-8-2007 के पत्र से) कहीं यह प्रोफ़ेसर श्योराज सिंह बेचैन तो नहीं?
एक पत्र डा. धर्मवीर ने मुझे अनिता भारती के बारे में लिखा था. मैंने उन्हें राष्ट्रीय सहारा में छपे मुद्रा राक्षस के एक लेख का जिक्र किया था, जो धर्मवीर जी पर था. मैंने उन्हें बताया था कि अनिता भारती ने उस लेख की तारीफ की है. इसी बात पर मुझे उनका 25-10-2007 का पत्र मिला, जिसमें उन्होंने लिखा, ‘प्रिय श्री कँवल भारती जी, चप्पल प्रकरण को (एक कार्यक्रम में अनिता भारती ने धर्मवीर जी पर चप्पल फेंकी थी) जैसे-तैसे समझ और सह रहा था. लेकिन इस नयी जानकारी के बाद मेरा विश्वास टूट गया है कि अनिता भारती में कोई अच्छी सम्भावना मौजूद है. यह हमारी कौम का दुर्भाग्य है कि मुद्रा राक्षस के चमारियों के बारे में ....शब्द पढ़ लेने के बावजूद अनिता भारती ने मुद्रा राक्षस की प्रशंसा की है. मुद्रा राक्षस के उक्त लेख को लेकर मैंने एक लेख लिखा है. इसका शीर्षक ‘मुद्रा राक्षस : एक विदेशी शूद्र’ है. इसे कम्पोज करा कर आपके पास भेजूंगा.’ पर वह लेख मुझे नहीं भेजा गया.
त्रिवेन्द्रम से 15-6-2007 की स्पीडपोस्ट— ‘प्रिय कँवल भारती जी, अब जरूरी हो गया है कि मैं अपने घरेलू जीवन की बातें भी बताऊँ. इसके लिए मैंने ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ शीर्षक से एक पुस्तक तैयार की है. इसका पहला अध्याय आपकी सेवा में भेज रहा हूँ.’ किताब साइज में 12 पृष्ठों के इस अध्याय को मैं पढ़ गया. इसके कुछ दिन बाद 5-7-2007 का स्पीडपोस्ट प्राप्त हुआ— ‘प्रिय कँवल भारती जी, अपनी पुस्तक ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ का एक और अध्याय आपके पास भेज रहा हूँ. इसका शीर्षक ‘तलाक मांगना जिंदगी की भीख मांगना है’ है.’ मैं ए-फोर साइज में 28 पृष्ठों के इस अध्याय को भी पढ़ गया. परन्तु मैंने उन्हें उनके किसी भी पत्र का कोई जवाब नहीं दिया. वह जवाब चाहते भी नहीं थे.
किन्तु, डा. हेमलता महिश्वर इस मामले में चुप नहीं रहीं. उन्होंने अपनी टिप्पणियाँ बाकयदा भेजीं. डा. धर्मवीर ने उनको त्रिवेन्द्रम से तीन पत्र लिखे, जिनकी छायाप्रतियाँ भी उन्होंने मुझे और सूरजपाल चौहान को भेजी थी. 5-10-2007 के पत्र में डा. धर्मवीर ने लिखा है, ‘प्रिय डा. हेमलता जी, आपकी मेरे भेजे हुए दस्तावेज पर टीप मिली. आपने अपनी इस टीप को प्रश्न ही माना है. पर मैंने इसे वही माना है, जो हमारे कबीर ने माना था, अर्थात— ‘भैंसें न्याब निबारी.’ (यानी अब भैसें न्याय करेंगीं)
13-10-2007 के ग्यारह पृष्ठीय लम्बे पत्र में धर्मवीर जी ने हेमलता जी की टिप्पणियों का जवाब दिया है, जवाब क्या स्पष्टीकरण दिया है. ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ के सन्दर्भ में हेमलता जी ने ठीक ही प्रश्न किया था कि ‘यदि रमेश (धर्मवीर की पत्नी) कुछ लिखती हैं, तो उनका पक्ष खुलेगा?’ इस बात पर धर्मवीर जी लगभग बिफर ही जाते हैं— ‘आप कैसी विचारक हैं? वह औरत क्या लिखेगी? आप क्या उम्मीद लगाये बैठी हैं? आप मान कर नहीं दे रही हैं कि इस मामले में वह औरत क्रूर, जार, निठल्ली, नंग और अपराधनी एक साथ है.’ अंत में लिखा है— ‘मेरा यह आत्मकथ्य ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ मेरे मसीही जीवन की ‘पहाड़ पर की देशना’ (Sermon on the Mount) है. यह हमारे कबीर के धर्म की पूंजी है. यह पवित्र है.’
18-10-2007 के पत्र में डा. धर्मवीर ने हेमलता जी को लिखा है, ‘आपको याद हो, ब्राह्मणों के ब्राह्मविवाह के जार से जूझने में फेल होकर हमारे बाबासाहेब डा. आंबेडकर खुद मंत्रीमंडल से इस्तीफ़ा देकर हट गए थे.’ लेकिन वह यह याद नहीं करते कि जिस विवाह कानून का वह खंडन कर रहे थे, उसके निर्माता बाबासाहेब ही थे. इसी पत्र में वह आगे लिखते हैं, ‘आप कैसी अध्येता हैं, जो पढ़ बैठीं हैं कि हमारे बापू ने कमाऊ पूत को बेदखल किया है. क्या पढ़ने के ये तरीके हैं? क्या पढ़ाई ऐसे ही होती है? लगता है, आपके माँ-बाप का आपको पढ़ाना व्यर्थ चला गया है.’ धर्मवीर जी अपने आलोचकों से इसी भाषा में बात करते थे.
दरअसल डा. धर्मवीर ने ये तीन पत्र हेमलता जी को उनके 26 सितम्बर 2007 के उस पत्र के सन्दर्भ में लिखे थे, जिसमें उन्होंने कई प्रसंगों में डा. धर्मवीर की सोच पर सवाल खड़े किये थे. ये सवाल बहुत चुभते हुए थे, वरना वह लम्बे-लम्बे तीन पत्र उन्हें नहीं लिखते. दलित साहित्य में हेमलता पहली लेखिका हैं, जिन्होंने उनसे सवाल पूछने का साहस किया था. इस पर धर्मवीर जी की यह टिप्पणी ‘भैसें न्याब निबारी’ शालीन नहीं थी.
जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ, धर्मवीर जी से मेरे सम्बन्ध ‘आजीवक परम्परा और कबीर’ किताब लिखने के बाद खराब हुए थे. इसके बाद उन्होंने मुझे यातना देने वाले पत्रों की झड़ी लगा दी. फिर मैंने अपनी चुप्पी तोड़ी और ‘वर्तमान साहित्य’ में ‘धर्मवीर का फासिस्ट चिंतन’ शीर्षक से लेखमाला शुरू की. बाद में इसी शीर्षक से स्वराज प्रकाशन ने उसे पुस्तकाकार में प्रकाशित किया. इस किताब के आने के बाद उन्होंने मेरे मित्र प्रोफ़ेसर ओम राज जी को फोन करके कहा कि कँवल भारती ने मुझे विचलित कर दिया. फिर यह भी सुनने में आया कि उन्होंने मेरे विरुद्ध मानहानि का केस दायर करने के लिए कुछ वकीलों से बात की थी. पर वकीलों ने उसमें ऐसी कोई सामग्री नहीं पायी. इससे हताश होकर उन्होंने मेरी विरुद्ध एक बड़ी किताब लिखनी शुरू की, जिसका एक अध्याय उन्होंने अपनी वित्त-पोषित पत्रिका ‘बहुरि नहिं आवना’ के जुलाई-दिसम्बर 2015 के अंक में छपवाया. इसका शीर्षक था— ‘एक दार्शनिक की मार : डी.एन.ए. के टेस्ट का कँवल भारती पर प्रभाव’. यह किताब उन्होंने 18 अध्यायों में लिखी है. जो अभी उनके अप्रकाशित साहित्य में है. यह किताब ‘कँवल भारती : कौम की कमजोरी का सबूत’ शीर्षक से श्योराज सिंह बेचैन के सहयोग से उनके अप्रकाशित साहित्य के साथ छप कर आने वाली है.
(16-03-2017)






.