हिन्दी साहित्य की शव-परीक्षा
-कँवल भारती-
वास्तविक हिन्दी साहित्य
का आरम्भ दलित सन्त कवियों के निर्गुण काव्य से होता है। इस काव्य में जीवन था और
अपने समय के समाज से संवाद था। इसमें समाज और कवि चेतना अलग-अलग दिशाओं में नहीं
थी। इन कवियों ने ‘आंखिन देखी’ सच्चाई को अभिव्यक्ति दी थी, जिसमें मनुष्य और समाज-विरोधी विचार का जबरदस्त खण्डन था।
सम्भवतः कबीर ही वे पहले कवि थे, जिन्हें साहित्य में यथार्थवाद को स्थापित करने का श्रेय
जाता है। कबीर आदि दलित सन्त कवियों ने जो सौन्दर्यबोध विकसित किया, वह समाज के निर्माण में
साहित्य की भूमिका को अनिवार्य बनाता है।
क्या परवर्ती हिन्दी
साहित्य में यह सौन्दर्यबोध विकसित हुआ? ऐसा हमें देखने को नहीं मिलता। निर्गुण काव्य के बाद
सगुण काव्य अस्तित्व में आया। इस काव्य के प्रणेताओं ने उस ऊर्जा को और उस आग को
बिल्कुल ठण्डा कर दिया, जो निर्गुण काव्य ने प्रज्जवलित की थी। दलित सन्तों का
भक्ति आन्दोलन निस्सन्देह ब्राह्मणवाद के खिलापफ एक विद्रोह था। इस विद्रोह ने उस
व्यवस्था को तोड़ा था, जो ब्राह्मणवाद ने शूद्र जातियों के लिये बनायी थी। मसलन,
ब्राह्मणवाद ने
शूद्र को संन्यास के अधिकार से वंचित रखा था। इसके पीछे कारण यह था कि यदि शूद्र
को संन्यास का अधिकार मिल गया, तो ईश्वर के दरबार में वह समानता का उपभोग करेगा, जबकि वर्णव्यवस्था ने
उसे सामाजिक स्तर पर समानता का अधिकार नहीं दिया। है। संन्यास या भक्ति का अधिकार
पाने के बाद वह सामाजिक समानता के लिये आवाज उठा सकता है। ब्राह्मणवाद ने इसी
सम्भावित खतरे की वजह से शूद्र को संन्यास और भक्ति से अलग रखा था। दलित सन्तों ने
इसी व्यवस्था को तोड़ा और निर्गुण ईश्वर की परिकल्पना कर शूद्र जातियों को संन्यास
और भक्ति का अधिकार दिया। दूसरी बड़ी क्रान्ति दलित सन्तों ने यह की थी कि वे
धर्मोपदेश दे रहे थे, जो ब्राह्मणवाद में उनके लिये प्रतिबन्धित था। मनु के अनुसार शूद्र धर्मोपदेशक
नहीं बन सकता था। उसकी व्यवस्था थी कि यदि शूद्र धर्म का उपदेश दे, खासतौर से ब्राह्मण को
धर्म समझाये, तो उसके मुँह और कान में खौलता हुआ तेल डाल देना चाहिए। ;मनु. 8/272द्ध दलित सन्तों ने न
सिपर्फ इस व्यवस्था को तोड़ा, बल्कि उन्होंने ब्राह्मण को ही धर्म समझाने का साहस किया।
यह बहुत बड़ी साहित्यिक क्रान्ति थी, जो निर्गुण भक्ति आन्दोलन ने की थी और यह साहित्य की
वह धारा थी, जिसे आम-जनता ने सबसे ज्यादा समर्थन दिया था और उसे स्वीकार किया था।
सगुण भक्ति का काव्य
निर्गुण भक्ति आन्दोलन की प्रतिक्रान्ति में आया। इसके प्रणेताओं में तुलसीदास
प्रमुख थे। तुलसी ने रामचरित मानस की रचना करके ब्राह्मणवादी को उस ज्ञान की आँधी
से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, जिसे कबीर ने चलाया था और जो जनता में व्यापक हो गयी
थी। कबीर ने कहा था कि जो ब्रह्म को जाने, वह ब्राह्मण। इसके विरु( तुलसी ने आक्रोश भरे शब्दों
में ‘मानस’
में लिखा कि अब तो
नीच लोग भी यह कहकर आँखें दिखाने लगे हैं कि जो ब्रह्म को जाने, वह ब्राह्मण। यथाµ
कबीरµ
कह कबीर जो ब्रह्म विचारै।
सो ब्राह्मण कहियत है हमारे।।
तुलसीµ
बादहिं सूद्र विप्र सम हम तुमसे कछु घाट।
जाने ब्रह्म सो विप्रवर आँख देखावहि डाटि।।
तुलसी की सौन्दर्य चेतना
में ब्राह्मण श्रेष्ठ और पूजनीय हैं तथा स्त्राी और शूद्र नीच हैं। तुलसी मानस के
आरम्भ में सन्त वन्दना करते हैं। पर, उनका उपास्य सन्त कबीर की श्रेणी का नहीं है। उसके
सिर पर वेद और ब्राह्मणों की पराधीनता का अपार भार है। इसलिये तुलसी जिसकी
सर्वप्रथम वन्दना करते हैं, वह ब्राह्मण ही हैंµ ‘‘बन्दौ प्रथम महिसुर चरना। मोह
जनित संसय, सब हरना।’’ सन्त के लिये भी तुलसी की सीमा रेखा यह है कि उसका ब्राह्मण में प्रेम होना
आवश्यक हैµ ‘जप तप व्रत दम संजम नेमा। गुरु गोबिन्द विप्र पद प्रेमा।।’ तुलसी ने स्वयं राम के
मुख से यह सन्त महिमा करायी है। एक अन्य प्रसंग में वे राम से कहलाते हैं कि सन्त
में तमाम गुणों के साथ यदि ‘द्विज पर प्रीति’ नहीं है तो वह सन्त नहीं हो सकता। यथाµ
सन्तन के लच्छन सुनु भ्राता।
अगनित श्रुति पुरान विख्याता।।?
सीतलता सरलता मइत्राी
द्विज पर प्रीति धरम जनयित्राी।।
तुलसी का यह सारा प्रहार
दलित सन्तों पर और उनकी सन्त मत की अवधारणा पर था, जिसमें ब्राह्मणों की जन्मजात
श्रेष्ठता का समर्थन नहीं है, जो आदमी की उच्चता को उसके शील
और गुणों से स्वीकार करते थे, उन दलित सन्तों की सम्पूर्ण सौन्दर्य चेतना को ब्राह्मणों
की जन्मजात श्रेष्ठता का प्रतिपादन करके तुलसीदास ने उस क्रान्ति को ध्वस्त कर
दिया, जो
साहित्य का मूलाधार बन रही थी।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
ने तुलसी की इस स्थापना अर्थात् प्रतिक्रान्ति की इस आधार पर प्रशंसा की है कि वह
लोकधर्म रक्षक और लोकरंजक स्वरूप है। उन्होंने तुलसी के समर्थन में दलित सन्तों की
निर्गुण भक्ति को विदेशी परम्परा, लोकधर्म से उदासीन तथा समाज व्यवस्था और ज्ञान-विज्ञान का
विरोधी ठहराया है। उन्होंने लिखा हैµ ‘‘यह द्वितीय वर्ग ;दलित सन्तद्ध जिस घोर नैराश्य की
विषम स्थिति में उत्पन्न हुआ, उसी के सामंजस्य साधन में सन्तुष्ट रहा। उसे भक्ति का उतना
ही अंश ग्रहण करने का साहस हुआ, जितने की मुसलमानों के यहाँ भी जगह थी। मुसलमानों के बीच
रहकर इस वर्ग के महात्माओं का भगवान के उस रूप पर जनता की भक्ति को ले जाने का
उत्साह न हुआ, तो अत्याचारियों का दमन करने वाला और दुष्टों का विनाश कर धर्म को स्थापित
करने वाला है। इससे उन्हें भारतीय भक्ति मार्ग के विरु(, ईश्वर के सगुण रूप से स्थान पर निर्गुण
रूप ग्रहण करना पड़ा। जिसे भक्ति का विषय बनाने में उन्हें बड़ी कठिनाई हुई।’’
;गोस्वामी
तुलसीदास, रामचन्द्र शुक्ल, पृष्ठ 1द्ध
दलित सन्तों की निर्गुण
भक्ति के प्रति रामचन्द्र शुक्ल की यह टिप्पणी गौरतलब है। उन्हें यह भक्ति इसलिये
स्वीकार नहीं है, क्योंकि वे इस पर इस्लाम की छाया मानते हैं और हिन्दुत्व की रक्षा के लिये
अवतार लेने वाले ईश्वर को उसमें कोई जगह नहीं है। वे दलित सन्त काव्य पर सीधे आरोप
लगाते हैं कि वह लोकधर्म और लोक मर्यादा पर आघात करने वाला है। वे लिखते हैं,
;संदर्भ वहीद्ध ‘‘लोक मर्यादा का उल्लंघन,
समाज की व्यवस्था
का तिरस्कार, अनधिकार चर्चा, भक्ति और साधुता का मिथ्या दम्भ, मूर्खता छिपाने के लिये वेद-शास्त्रा की निन्दा,
ये सब ऐसी बातें
थीं जिनसे गोस्वामी जी की अन्तरात्मा बहुत व्यथित हुई।’’ वे आगे लिखते हैं, ‘‘अशिष्ट संप्रदायों का
औ(त्य गोस्वामी जी नहीं देख सकते थे।... धर्म व्यवस्था के बीच ऐसी विषमता उत्पन्न
करने वाले नये-नये पंथों के प्रति इसी से उन्होंने अपनी चिढ़ कई जगह प्रकट की है,
जैसेµ
ड्डुति सम्मत हरि भक्ति पथ, संजुत विरति विवेक।
तेहि परिहरहिं बिमोह बस कल्पहिं पंथ अनेक।।
साखी, सबदी, दोहरा, कहि किहनी उपखान।
भगत निरुपहिं भगति कलि, निन्दहि वेद पुरान।।’’
;सन्दर्भ वही, पृष्ठ 15-16द्ध
आप समझ सकते हैं कि
रामचन्द्र शुक्ल उस काव्य को किस कदर अशिष्ट और अनधिकार चेष्टा बताते हैं, जो सामाजिक परिवर्तन
लाना चाहता था, जो जन्मजात ऊँच-नीच का विरोधी था और जो वेद-शास्त्रों की व्यवस्था का समर्थक
नहीं था। शुक्ल जह जिसे लोकधर्म और लोकमर्यार्दा कहते हैं, वह वर्णव्यवस्था ही है। गोस्वामी
तुलसीदास ने इस वर्णव्यवस्था का जमकर समर्थन किया है, जिसके बारे में शुक्ल जी कहते
हैं, ‘‘धम्म
है गार्हस्थ जीवन में धर्मालोकस्वरूप रामचरित और धम्म है उस आलोक को घर-घर
पहुँचाने वाले तुलसीदास।’’ ;पृष्ठ 21द्ध ने वर्णाश्रम का समर्थन करते हुए आगे लिखते हैं,
‘‘लोक मर्यादा की
दृष्टि से निम्नवर्ग के लोगों का धर्म यही है कि उस पर श्र(ा का भाव रखें, न रख सकें तो कम-से-कम
प्रकट करते रहें। इसे गोस्वामी जी का ‘सोशल डिसिप्लिन’ ;सामाजिक अनुशासनद्ध समझिये। इसी
भाव से उन्होंने प्रसि( नीतिज्ञ और लोक व्यवस्थापक चाणक्य का यह वचन अनुवाद करके
रख दियाµ ‘पूजिय विप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।’’ ;वही, पृष्ठ 29द्ध
इससे ज्यादा ब्राह्मणवाद
का समर्थन क्या हो सकता है, जो तुलसीदास के प्रति शुक्ल जी ने व्यक्ति किया है।
निस्सन्देह यह शुक्ल जी के मत से भी स्पष्ट हो गया है कि गोस्वामी तुलसीदास उस
ज्ञान की आँधी को ही रोकने के लिये मैदान में आये थे, जिसे दलित सन्त कवियों ने पैदा
की थी, क्योंकि
उस आँधी ने जन्मना ऊँच-नीच पर खड़ी वर्णव्यवस्था को उखाड़ दिया था। ‘पूजिय विप्र सील गुन
हीना’ दरअसल
दलित सन्तों की सौन्दर्य चेतना के विरु( तुलसीदास ने स्थापित किया था। सन्त रैदास
ने कहा थाµ
बांभन को मत पूजिए जो हो गुन से हीन।
पूजिए चरन चंडाल के, जो हो ज्ञानप्रबीन।।
ब्राह्मण लेखकों ने
तुलसीदास को हिन्दी साहित्य में अभूतपूर्व प्रतिष्ठा दी है। वे एक मानक मान लिये
गये, साहित्य
में और उसके आधार पर पक्ष और विपक्ष की दो धाराएँ बना दी गयीं। तुलसी का पक्ष
साहित्य में एक ऐसा पक्ष बना दिया गया, जो लोक मंगल और लोक महत्व का है। इसके विपरीत तुलसी
का विरोध लोक के लिये अमंगलकारी हो गया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की तरह ही
रामविलास शर्मा ने भी, जो माक्र्सवादी आलोचक और विचारक माने जाते हैं, तुलसीदास को जनता का कवि
माना है। उन्होंने ‘लोक’ का
माक्र्सवादी अर्थ लेते हुए उसे ‘जन’ बना दिया। उन्होंने शुक्ल जी से बढ़कर तुलसी का पक्ष लिया।
उन्होंने अपनी व्याख्याओं में उस अन्त£वरोध को भी मिटा दिया, जो तुलसी को पढ़ते समय उभरता है
और जिसे शुक्ल जी दूर नहीं कर सके थे। शुक्ल जी ने सन्तों की दो श्रेणियाँ मानी
थींµ एक
निर्गुण सन्तों की और दूसरी सगुण सन्तों की। उन्होंने सगुण सन्तों को भारतीय
भक्तिधारा का और निर्गुण सन्तों को विदेशी धारा का माना था। पर, शर्मा जी ने इस भेद को
भी मिटा दिया। उन्होंने अपने ग्रंथ ‘परम्परा का मूल्यांकन’ में लिखा है, ‘‘सन्तों में स्त्राी और
पुरुष, संन्यासी
और गृ हस्थ, हिन्दू और मुसलमान, सगुणवादी और निर्गुणवादी
दोनों हैं।’’ ;पृष्ठ 45द्ध सम्भवतः उन्होंने शुक्ल जी की स्थापनाओं में यह संकट देख लिया था, इसलिये उन्होंने
तुलसीदास को भी सन्त बनाने पर पूरा जोर दिया। इसके लिये उन्होंने बाकायदा ‘‘सन्त साहित्य के अध्ययन
की समस्याएँ’’ नाम से एक लेख लिखा, जो पूरी तरह तुलसी को सन्त बनाने पर केन्द्रित है। उन्होंने
इस बात को ज्यादा महत्व दिया कि सन्त साहित्य भारतीय जीवन की अपनी परिस्थितियों से
पैदा हुआ था। इसमें उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों सन्तों को समेट लिया, जो तुलसी को सन्त
स्थापित करने के लिये जरूरी था।
डा. शर्मा ने दलित सन्त
साहित्य की जितनी विशेषताएँ हैं, वे सब-की-सब तुलसीदास में स्थापित कर दी हैं और तुलसी की विशेषताओं को
ध्यान में रखते हुए शब्दों का ऐसा घाल-मेल उन्होंने किया है, जिसमें तुलसीदास ही अपनी
दृष्टि के साथ उभरते हैं, दलित सन्त उसमें कहीं नहीं हैं। उदाहरण के लिये ज्ञान की
आँधी मचा देने वाले जनता के कवि कबीर नहीं, तुलसीदास हैं। ‘‘जनता में सबसे पीडि़त
वर्ग स्त्रिायों और अछूतों का था। इसलिये इनकी ओर तुलसी जैसे कवि की सहानुभूति
होना स्वाभाविक था।’’ यह स्थापना देते समय डा. रामविलास शर्मा ने एक झटके में तुलसी को स्त्राी और
शूद्र वर्ग का हितैषी बना दिया, जबकि तुलसी दोनों के निन्दक थे। दलित सन्तों की निर्गुण
भक्ति सभी के लिये थे, इसे डा. शर्मा ने तुलसी पर स्थापित करते हुए लिखा हैµ
‘‘तुलसी के राम,
भक्तों को मुक्ति
देते समय, जाति-पाँति का विचार नहीं करते। जाति-पाँति पर निर्भर धर्मशास्त्रा एक और हैं,
तुलसी की भक्ति,
जो सभी के लिये
मुक्ति का द्वार खोलती है, दूसरी ओर है।’’ ;वही, पृष्ठ 53द्ध सही मायने में दलित सन्त कबीर आदि श्रमिक जनता के लिये
धरोहर हैं। पर डा. शर्मा उल्टी गंगा बहाते हुए लिखते हैं, ‘‘तुलसीदास का स्वप्न श्रमिक जनता
के लिये धरोहर है, जिससे प्रेरित होकर वह समाजवाद के लिये मंजिल दर मंजिल बढ़ती जायेगी।’’
;वही, पृष्ठ 87, लेख- तुलसी साहित्य के
सामन्त विरोधी मूल्यद्ध मूर्ख ब्राह्मण को पूजने तथा विद्वान शूद्र का तिरस्कार
करने की शिक्षा देने वाले तुलसी किस तरह समाजवादी हो सकते हैं?
तुलसी ने अपने काव्य में
किस लोकधर्म और मर्यादा की रक्षा की है, आइए देखते हैं। संक्षेप में, उनकी स्थापनाओं पर ही एक नजर
डालते हैं। सबसे पहले राम को ही लेते हैं, जो उनके काव्य के नायक हैं। उनके ये राम मनुष्य की
मुक्ति के लिये कर्म नहीं करते हैं। उनका अवतार केवल ब्राह्मण, गऊ, देवता और सन्तों के
कल्याण के लिये हुआ हैµ ‘विप्र धेनु सुर संत हित, लीन्ह मनुज अवतार।’
लोक जीवन अवैज्ञानिक
विचारों को स्थापित करने में तुलसी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। वे
अंधविश्वासों को सर्वाधिक प्रश्रय देते हैं। शिव-विवाह के अवसर का वर्णन देखेंµ
ससि ललाट सुन्दर सिर गंगा।
नयन तीन उपबीत भुजंगा।।
गरल कंठ उर नर सिर माला।
मस्तक पर चन्द्रमा, सिर पर गंगा, तीन नेत्रा, साँपों का जनेऊ और गले
में नर मुंडों की माला, क्या यह स्वाभाविक है? शकुन अशकुन में भी लोक विश्वास
को वे मजबूत करते हैंµ ‘पफरकहिं सुअर अंग सुनु भ्राता।’ उनके लिये नेवले का दर्शन,
खेत में कौवा,
सुहागिन
स्त्रिायों का भरे हुए घड़े और गोद में बालक लिये आना, गायों का बछड़ों को दूध पिलाते
हुए देखना, सपफेद सिर वाली चील का देखना, दही, मछली और दो ब्राह्मणों का हाथ में पुस्तक लिये आना शुभ
पफलदायक होता है। यथाµ
दाहिन काग सुखेत सुहावा, नकुल दरसु सब काहू पावा।
सानुकूल बह त्रिविध बयारी, सघट सवाल आव बर नारी।।
सनमुख आयउ दधि अरु मीना, कर पुस्तक दुइ विप्र प्रबीना।
अंधविश्वास की एक कड़ी
है शाप। तुलसी ने मानस में अनेक घटनाओं का चित्राण इस आधार पर किया है कि वे
ब्राह्मण के शाप का परिणाम है। जैसे, दशरथ को पुत्रा-वियोग श्रवणकुमार के अंधे माता-पिता
के शाप के कारण होता है और रावण की मृत्यु भी शाप के कारण होती है। शाप का दूसरा
पहलू है वरदान। ब्राह्मण या तो शाप देता है या वरदान देता है। ब्राह्मण नाराज होता
है तो शाप देता है और प्रसन्न होता है तो वरदान देता है। ये सारी घटनाएँ मानस में
राम का जन्म, अहिल्या, जटायु और काक भुशुंडि के प्रसंग में देखी जा सकती हैं।
सवाल यह है कि क्या यही
लोकधर्म और समाज व्यवस्था है, जिसे स्थापित करने के लिये तुलसी पर रामचन्द्र शुक्ल और डा.
रामविलास शर्मा मुग्ध होते हैं? अंधविश्वासों और अवैज्ञानिक दृष्टियों में जकड़े हुए समाज
को इनसे मुक्त करने की दृष्टि देने की जरूरत थी। जो नया समाज दलित सन्त कवि नि£मत कर रहे थे, उसका विकास करने की
जरूरत थी। जिस ऊँच-नीच और पाखण्ड पर खड़ी संस्कृति में आमजनता पिस रही थी, उसके खिलापफ संघर्ष ही
साहित्य की भूमिका होनी चाहिए थी। पर, तुलसी ने अपना रचनाकर्म समाज को अवैज्ञानिक चिन्तन
देने के लिये किया, समाज की वैज्ञानिक प्रगति को रोकने के लिये किया। तुलसी मनुष्य की मुक्ति के
लिये सिपर्फ एक ही रास्ता बताते हैं कि ब्राह्मणों के चरणों में उसकी प्रीति हो ;और वह भी अत्यन्तद्ध तथा
श्रुति के अनुसार अपने-अपने वर्णाश्रम कर्म को करता रहेµ
भगति कि साधम कहउं बखानी, सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी।
प्रथमहिं विप्र चरन अति प्रीति, निज निज कर्म निरत
श्रुति रति।।
क्या साहित्य का समाज से
यही रिश्ता बनता है कि वह सामाजिक संघर्षों की अनदेखी करे? क्या हिन्दी साहित्य में तुलसी
की प्रतिष्ठा, जिसे शुक्ल जी भारत हृदय, भारतीकंठ और भक्त चूड़ामणि कहते हैं, इस बात का प्रमाण नहीं है कि
साहित्य में हिन्दूधर्म की प्रतिष्ठा की गयी है? निस्सन्देह ऐसा ही है।
तुलसी के साथ सूरदास और
केशवदास का भी नाम आता है। कहावत प्रचलित है ‘सूर सूर तुलसी ससी उहुगन केशव
दास। अब के कवि खद्यौत सम जहं जहं करत प्रकाश।।’ इसका अर्थ है कि हिन्दी साहित्य
में सूरदास, तुलसीदास और केशवदास ये दास त्राय महत्वपूर्ण कवि माने गये हैं। आइए, देखते हैं कि सूरदास के
साहित्य की अवधारणा क्या है?
तुलसी और सूरदास के
साहित्य पर हिन्दी साहित्य में जो भी काम हुआ है, वह दो तरह से हुआ है। संयोग से
यह दोनों तरह का काम ब्राह्मण लेखकों ने ही किया है। ये लेखक मार्क्सवादी और
हिन्दुत्ववादी दोनों हैं। इन दोनों तरह के लेखकों को दिशा दिखायी है आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल ने। शुक्ल जी ने अपनी आलोचनाओं में हिन्दुत्व की दृष्टि से ज्यादा
काम किया है, उनकी सोच, उनके विश्लेषण और उनकी स्थापनाएँ संश्लेषणात्मक हैं, जिसे हम आम भाषा में कह सकते हैं
कि उन्होंने दलित सन्तों की आँधी से ब्राह्मणवाद के पुनरो(ार के लिये तुलसी और सूर
की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। बाद के लेखकों ने शुक्ल जी के रास्ते पर चलते हुए
कुछ विश्लेषणात्मक चतुराई से काम लिया है। इनमें हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे लेखकों
ने आलोचना करते समय कबीर और अन्य दलित सन्तों को भी वहीं पहुँचा दिया है, जहाँ सूर और तूलसी
पहुँचे हैं। मार्क्सवादी लेखकों ने, जिनमें डा. रामविलास शर्मा के अतिरिक्त शिव कुमार
मिश्र भी हैं, सूर और तूलसी में दलित सन्तों को स्थापित करने का आपराधिक काम किया है। जैसे
दलित सन्तों को वैष्णव बनाना, निर्गुण-सगुण को एक करना इत्यादि।
इस घालमेल का एक उदाहरण
डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी से देखिए, ‘‘कबीर,
दास, दादूदयाल आदि निर्गुण
मतवादियों की नित्य लीला और सूरदास, नन्ददास आदि सगुण मतवादियों की नित्य-लीला एक ही
जाति की है। अन्तर यही है कि पहली श्रेणी के भक्तों के सामने भगवान के व्यक्तिगत
सम्बन्धात्मक रूप के साथ उसकी रूपातीत अनन्तता वर्तमान रहती है। और, दूसरी श्रेणी के भक्तों
के सामने भगवान सदा प्रतीक रूप में आते हैं और इसीलिये उनकी अनन्तता और असीमता
ओझल-सी हुई रहती है।’’ (दे.
हिन्दी साहित्य की भूमिका, पृष्ठ 87-88)
एक उदाहरण और देखिए, ‘‘इस युग के सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार के मत के
सन्तों ने नाम की महिमा गायी है। नाम-माहात्म्य भागवत आदि प्रायः सभी पुराणों में
पाया जाता है, पर मध्य युग के भक्तों में इसका चरम विकास हुआ है। तुलसीदास ने कहा है कि
ब्रह्म और राम अर्थात् नि£वशेष चिन्मय सत्ता और अखंडानंद प्रेमस्वरूप भगवान इन दोनों
में नाम बड़ा है।... कबीर ने भी कहा है कि ‘मैं भी कह रहा हूँ, ब्रह्म और महेश ने भी
कहा है कि रामनाम ही सार तत्व है।... इसी प्रकार नानक, दादू आदि सन्तों ने भी नाम का
माहात्म्य वर्णन किया है।’’ (सन्दर्भ-
वही, पृष्ठ
90)
दलित सन्त कवियों के
शब्दों की अर्थवत्ता को तोड़-मरोड़ कर उन्हें वैष्णवी अर्थ प्रदान करना एक साजिश
रचना है, जिसका
मकसद वैष्णवी सन्त-मत से दलित सन्तों को जोड़ना है। यह साहित्य में अपराध है,
जिसे करने के दोषी
हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे तमाम लेखक हैं। इन लेखकों ने कबीर के इस पद को
नजर-अन्दाज कर दिया, जिसमें वे कहते हैं.
अंषडि़यां झाईं पड़ी पंथ निहारि निहारि।
जीभडि़यां छाला पड़या, राम पुकारि पुकारि।।
क्या नाम के माहात्म्य
का खण्डन यह पद नहीं करता है? वैष्णवी सन्तों के जिस ब्रह्मा-विष्णु-महेश को हजारी प्रसाद
द्विवेदी दलित सन्तों के राम में स्थापित करते हैं, उन्हें पहले कबीर के इन पदों को
देख लेना चाहिए था.
सुर नर मुनिजन औलिया यह सब उरली तीर।
अलह राम की गम नहीं, तहं घर किया कबीर।।
ब्रह्मा बिश्नू महेसर कहिए इन सिर लागी काई
इनहिं भरोसे मत कोई रहियो, इन्हूं मुक्ति न पाई।।
ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ
ता साहिब कै लागौ साथा, सुख दुख मेटि रह्यौ अनाथा।।
ना दसरथ घरि औतरि आवा, ना लंका का राव संतावा।।
देवै कूख न औतरि आवा, ना जसवै ले गोद खिलावा।।
ना वो ग्वालन कै संग पिफरिया, गोबरधन ले न कर धरिया।।
बांबन होय नहीं बलि छलिया, धरनी बेद लेन उधरिया।।
मंडक सालिकराम न कोला, मछ कछ ह्यै जलहि न डोला।।
बद्री वैस्य ध्यान नहीं लावा, परसराम ह्यै खत्राी न सतावा।।
द्वारा मती सरीर न छाड़ा, जगन्नाथ ले प्यंड न गाड़ा।।
कहै कबीर बिचारि करि,
झूठा लोही चाम।
जो या देही दहित है,
सो है रमिता राम।।
कबीर के ये पद डा. हजार
प्रसाद द्विवेदी और शिव कुमार मिश्र सरीखे आलोचकों को ही नहीं, समूची वैष्णव परम्परा को
ही खारिज करते हैं। इन लेखकों ने बड़ी चतुराई से वैष्णव सन्तों के राम-नाम को दलित
सन्तों में स्थापित करने की कोशिश की और इस सत्य पर परदा डाल दिया कि दलित सन्तों
का भगवान, राम या कृष्ण अवतार नहीं लेता है, वह देह रहित है, वह न दशरथ के घर जन्म लेता है,
न लंका के राजा को
मारता है, न यशौदा की गोद में खेलता है, न ग्वालों के साथ घूमता है, न गोबरधन पर्वत को उठाता है,
न ब्राह्मण बनकर
बलि को छलता है, न वह सालिकराम है, न मत्स्य और कच्छप रूप में पानी में डोलता है, न वह विष्णु का ध्यान
लगाता है और न परशुराम बनकर क्षत्रियों को मारता है। कबीर तो सापफ-सापफ यह भी कहते
हैं कि इनके सहारे कोई मुक्ति नहीं मिल सकती, क्योंकि ये तो स्वयं ही कलुष से
भरे हैं। वे कहते हैं, हम तो वहाँ है, जहाँ न अल्लाह का गम है और न राम का गम है। इतनी
स्पष्ट घोषणा के बाद भी क्या दलित सन्तों पर नाम-रूप-लीला-धाम की वैष्णवी भक्ति को
स्थापित किया जा सकता है?
सूर भी तुलसी की तरह
दलित सन्तों की नयी धा£मक क्रान्ति की प्रतिक्रान्ति के कवि थे। निर्गुण के विरुद्ध
सगुण की स्थापना में सूर तुलसी से आगे हैं। सूर ने कृष्ण की लीलाओं, नाम-माहात्म्य, राधा-कृष्ण और गोपियों
के प्रणय प्रसंगों का वर्णन करके दरअसल निर्गुण की अवधारणा पर ही प्रहार किया है।
सम्पूर्ण भ्रमर-गीत निर्गुण और सगुण का संवाद ही है, जो उद्धव के द्वारा गोपियों और
कृष्ण के बीच चलता है। एक पद में कृष्ण उद्धव से कहते हैं, तुम तो ऐसे ब्रह्म के ज्ञाता हो, जिसके न माता है न पिता, न रूप है न रंग और न
जाति है न कुल। यथा--
पूरन ब्रह्म सकल अबिनासी ताके तुम हौ ज्ञाता।
रेख, न रूप, जाति, कुल नाहीं जाके नहिं पितु माता।।
भ्रमर गीत का यह प्रसंग
अत्यन्त गौरतलब है। भ्रमर उद्धव हैं, जो कृष्ण का निर्गुण सन्देश लेकर गोपियों के पास
जाते हैं। उद्धव से निर्गुण सुनकर गोपियाँ जवाब देती हैं, ‘यहाँ ठगपना नहीं चलेगा। भला कोई अंगूर को छोड़कर कड़वी
निबौरी (नीम का फल) खायेगा?
भगवान के सगुण रूप
को छोड़कर कौन निर्गुण की उपासना करेगा? यथा--
जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहै।
दाख छांडि़ कै कटुक निबौरी को अपने मुख खैहें?
सूरदास प्रभु गुनहि छांडि़ कै को निर्गुण निर बैहै?
आप देखें कि सूरदास ने
निर्गुण दर्शन को ठगपने का सौदा कहा है और उसे नीम का कड़वा फल बताया है। दरअसल उद्धव
कृष्ण और गोपियों की यह पूरी कथा काल्पनिक है। इसका उद्देश्य केवल निर्गुण आन्दोलन
को विफल करना था। आप देखें कि यह सारा वाद-विवाद उद्धव और गोपियों के बीच चलता है।
उद्धव निर्गुण का पक्ष लेता है और गोपियाँ निर्गुण का खण्डन करती हैं। यह सारा
तर्क-वितर्क उसी तरह का है, जो हमें कबीरवाणी में मिलता है। जिस प्रकार तुलसी ने
रामचरित मानस की रचना करके दलित वर्गों में राम को स्थापित करने का काम किया था,
उसी प्रकार सूर ने
दलित जातियों में कृष्ण को स्थापित करने का काम किया था। ध्यान रहे कि उद्धव गोपियों
को कथा सुनाते हैं, जो दलित जातियों की है और दलित वर्गों में ही कबीर की क्रान्ति का प्रभाव था।
सूर की यह बात इस बात का प्रमाण है, जिसमें गोपियाँ अपने को वर्णहीन लघु जाति का बताती
हैं--
हम तो दुहूं भाँति पफल पायो।
जो ब्रजनाथ मिलै तो नीको, नातरू जग जस गायो।।
कहं वै गोकुल की गोपी सब बरनहीन लघु जाती।
कहं वै कमला के स्वामी संग मिल बैठीं इक पाँति।।
निगम ध्यान मुनिज्ञान अगोचर ते भए घोष निवासी।
ता ऊपर अब सांच कहो धौं मुक्ति कौन की दासी।।
जोक कथा, पा लागों ऊधो, ना कहु बारम्बार।
सूर स्याम तजि और भजै जो ताकी जननी छार।।
इस पद में यही नहीं
स्थापित किया गया है कि जो कृष्ण को छोड़कर अन्य का भजन करता है, उसकी माता को धिक्कार है,
बल्कि ‘मुक्ति’ शब्द का भी उपहास उड़ाया
गया है, यह
कहकर कि वह किसकी दासी है? इसी पद में वेद भी कृष्ण का भजन करते हैं।
सूर के काव्य पर हम तीन
तरह से विचार किये जाने की जरूरत है। एक, इस दृष्टि से कि सूर का काव्य पूरी तरह कल्पना की
उड़ान है और उसमें कुछ भी ऐतिहासिकता नहीं है। वह केवल दलित वर्गों में निर्गुण
दर्शन की क्रान्ति को रोकने के मकसद से नाम, रूप, लीला, धाम की वैष्णवी भक्ति को स्थापित
करने के लिये रचा गया है। एक पद में सूर गोपियों के मुख से सीधे सवाल करते हैंµ
निर्गुण कौन देस को बासी?
मधुकर, हंसि समुझाय सौंह दै बूझति साँच, न हांसी।।
कौ है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि, को दासी?
कैसो बरन भेस है कैसो केहि रस कै अभिलाषी।।
यह एक कवि की नहीं,
ब्राह्मण की
समस्या है कि वह सगुण से बाहर नहीं रह सकता और सगुण भी वह जिसके माता-पिता हों,
जिसका श्रेष्ठ और
उच्च वर्ग हो, जो पत्नी और दासी रखता हो। ध्यान रहे कि भारतीय दर्शन में निर्गुण पूरी तरह
दलित सन्तों की नयी खोज थी, जो ब्राह्मणों के अवतारवाद और आवागमन के मायाजाल से आम-आदमी
की मुक्ति मा मार्ग था और, डा. धर्मवीर ने ठीक ही लिखा है कि ‘ब्राह्मण चिन्तन ने निर्गुण और
सगुण दोनों की खोज कर डाली। सगुण में अपना मत सुरक्षित रखा तथा निर्गुण में जाकर
कबीर के दर्शन को मिटाना चाहा।’ (कबीर
नई सदी में, भाग- 2, पृष्ठ 152) दलित सन्तों का निर्गुण देहरहित था, इसलिये वहाँ न जाति का प्रश्न था और न वर्ण का। पर,
ब्राह्मण की
समस्या यह है कि उसका काम बिना जाति और वर्ण के नहीं चलता। देह के साथ न सिपर्फ
वर्णव्यवस्था जीवित रहती है, बल्कि आवागमन का पूरा मायाजाल भी कायम रहता है और इसके साथ
शोषण की क्रूर व्यवस्था भी बनी रहती है।
दूसरी इस दृष्टि से
विचार करने की आवश्यकता है कि सूर-काव्य में अपने समय के समाज की घोर उपेक्षा है।
दलित समाज उस समय किस किस्म के दुखों और समस्याओं से गुजर रहा था, उसकी कोई अभिव्यक्ति सूर
में नहीं मिलती है। उसमें ‘आँखिन देखी’ का यथार्थ चित्राण बिल्कुल नहीं है, जिसे दलित कवियों ने अपने काव्य
का आधार बनाया था। यदि साहित्य की दृष्टि से ही देखा जाय तो हमें सोचना होगा कि
वर्णहीन लघु जाति की गोपिकाओं को क्या सगुण की जरूरत थी या उनकी सामाजिक संघर्षशीलता
को उभारने की जरूरत थी? सूर ने यह नहीं किया, तो इसलिये कि दलित वर्गों में
सामाजिक संघर्ष को दबाने के लिये ही उनका रचनाकर्म अस्तित्व में आया था। ब्राह्मण
चिन्तन यह सहन नहीं कर पा रहा था कि दलित वर्ग उस निर्गुण-धर्म से प्रभावित हों,
जो वर्णव्यवस्था
का खण्डन करता है। इसे रोकने के लिये ब्राह्मण चिन्तन किसी भी हद तक जा सकता था।
अतः तुलसी और सूर की काव्य-विशेषताएँ निर्गुण पर सगुण की स्थापना के सिवा कुछ नहीं
हैं।
सूर-काव्य के सम्बन्ध
में तीसरी इस दृष्टि से भी विचार करने की जरूरत है कि भ्रमर गीत नारी अस्मिता के
साथ क्रूर खिलवाड़ करते हैं। ये नारियाँ भी दलित हैं, जिन्हें कृष्ण के प्रणय में पागल
दिखाया गया है। कृष्ण के प्रेम में ब्राह्मण स्त्रियाँ पागल क्यों नहीं होती हैं?
शिवकुमार मिश्र
सूर के भ्रमर गीत पर लगभग मुग्ध होते हुए लिखते हैं, ‘‘चाँदनी रात है, यमुना का किनारा है, हवा में झूमते लहराते अरण्य
कुुंज हैं। ऐसे ही मादक माहौल में कृष्ण की बंशी बज उठती है, और बंशी की ध्वनि को
सुनते ही अपने घर-परिवार, लोक-लाज, कानून-कायदों को एक ओर रख, उनका तिरस्कार करते हुए गोपियाँ
दौड़ पड़ती हैं कृष्ण के साथ यमुना के तट पर रास रचाने और यह रास सारी रात चलता है,
जिसमें सब बेसुध
हो जाते हैं।’’ ( भक्ति आन्दोलन और भक्ति काव्य, पृष्ठ 89)
क्या यह दलित स्त्रियों
की इज्जत के साथ खिलवाड़ नहीं है? एक कृष्ण का इतनी स्त्रियों के साथ रास रचाना ब्राह्मण
चिन्तन के लिये भले ही ठीक हो, पर दलित चिन्तन इसे कैसे सहन कर सकता है? ब्रज की सारी गोपियाँ,
जो दलित स्त्रियाँ
हैं, कृष्ण
के साथ रात-भर रास रचाती हैं, और एक भी ब्राह्मण स्त्री उसमें शामिल नहीं है, इसका क्या अर्थ है?
कोई बंशी बजाये और
उसे सुनकर सारी दलित स्त्रियाँ रास रचाने पहुँच जायें, क्या यह सम्पूर्ण दलित स्त्रियों
के लिये अपमानजनक नहीं है? और, ब्राह्मण चिन्तन इस अस्मिता-हनन पर मुग्ध है, तो शर्म की बात है। शिव
कुमार मिश्र का ब्राह्मण चिन्तन तो और भी निर्लज्जता पूर्ण है, जब वे लिखते हैं,
‘‘नारी-मुक्ति की
यह वह परिकल्पना है, जो सामन्ती समाज में नारी की विगर्हणीय स्थिति को लक्ष्य कर सूर ने अपने यहाँ
प्रस्तुत की है। नारी अस्मिता को पहचानने वाला और नारी मन के स्वप्नों, उसकी आशाओं, आकांक्षाओं को मानवीय
संवेदना की समूची गहराई तथा व्याप्ति के साथ उभारने और अंकित करने वाला इतना बड़ा
रचनाकार उस युग में दूसरा नहीं हुआ।’’ (सन्दर्भ,
वही)
यह ब्राह्मण चिन्तन का दिवालियापन
है कि वह दलित स्त्री के अपमान को नारी मुक्ति की परिकल्पना बता रहा है। स्त्री की यौन-उन्मुक्तता
को नारी-मुक्ति की संज्ञा कोई विक्षिप्त चिन्तन ही दे सकता है। लेकिन यह स्पष्ट
रूप से सामन्ती समाज में दलित नारी की अस्मिता का सबसे बड़ा हनन है, जिसे दलित चिंतन कैसे
बर्दाश्त कर सकता है।
हिन्दी साहित्य में
निर्गुण-सगुण की इस लड़ाई में ब्राह्मण चिन्तन ने दलित सन्त कवियों को कहीं का भी
नहीं छोड़ा है, उनका इतना विकृतीकरण किया है और उन्हें वैष्णवी बनाने में अपनी पूरी शक्ति लगा
दी है, उसके
साथ दलित चिन्तन की मुठभेड़ आज बहुत जरूरी है, अन्यथा सामन्तवाद में मुक्ति की
परिकल्पना और ब्राह्मणवाद में सामाजिक समरसता की ब्राह्मण-चिन्तन की स्थापनाएँ
साहित्य के विद्यार्थियों को सदैव भ्रमित करती रहेंगी।
31.12.2001