शुक्रवार, 31 अगस्त 2012


एकलव्य का दलित पाठ 
कँवल भारती 
   अभी अपने मित्र इंजीनियर राजेन्द्र प्रसाद से बात हो रही थी। उनका कहना था कि एकलव्य के नाम पर साहित्य या कला में कोई पुरस्कार क्यों नहीं है? द्रोणाचार्य के नाम पर पुरस्कार है, पर एकलव्य के नाम पर नहीं है। शायद कोई पुरस्कार एकलव्य के नाम पर हो भी, पर मुझे सही जानकारी नहीं है। इसलिए में यकीन से कुछ नहीं कह सकता। लेकिन एकलव्य को लेकर मैंने कुछ और बातें उनसे शेयर कीं, जो यहाँ आपके साथ भी शेयर कर रहा हूँ। 
   दलित साहित्य में एकलव्य पर अभी उल्लेखनीय काम कोई नहीं हुआ है।  कुछेक दलित लेखकों ने कुछ लिखा भी है, तो वह उसी कहानी पर आधारित है, जो महाभारत में मिलती है और झूठी है।उसमें एकलव्य का सम्मान इसलिए नहीं है कि वह धनुर्विद्या में महान था, बल्कि इसलिए है कि उसने गुरु दक्षिणा में अपना अंगूठा काटकर उस गुरु को दे दिया था, जिससे उसने धनुर्विद्या सीखी ही नहीं थी।
    दरअसल एकलव्य और द्रोणाचार्य की कहानी उतनी ही झूठी है, जितनी झूठी कबीर और रामानंद की कहानी है। जिस प्रकार कबीर ने रामानंद से कोई शिक्षा प्राप्त नहीं की थी, उसी प्रकार एकलव्य ने भी द्रोणाचार्य से कोई शिक्षा प्राप्त नहीं की थी। जिस प्रकार रामानंद कबीर के गुरु नहीं थे, उसी प्रकार द्रोणाचार्य भी एकलव्य के गुरु नहीं थे।
    एकलव्य की कहानी हमें महाभारत (1.123.10-39) में मिलती है, जो इस प्रकार है-- "द्रोण पांडवों के धनुर्विद्या के गुरु थे और अर्जुन उनका सर्वोत्तम शिष्य था। एक दिन निषाद जनजाति नरेश का पुत्र एकलव्य उनके पास शिष्य बनने  के लिए आया। पर, द्रोण ने, जो धर्म को जानते थे, निषाद पुत्र को शिष्य बनाने से इंकार कर दिया। एकलव्य ने द्रोण के चरणों में अपना सर रखा और जंगल में जाकर द्रोण की मूर्ति बनाकर उसी को गुरु मानकर साधना करने लगा। वह महान धनुर्धर बन गया। एक दिन पांडव कुत्ते को लेकर शिकार के लिए जंगल में गये। कुत्ता वहां एकलव्य को देख कर भौंकने लगा। और तब तक भौंकता रहा, जब तक कि एकलव्य ने उसके मुंह में सात तीर न छोड़ दिए। कुत्ते के मुंह में तीरों को देखकर पांडव बहुत हैरान हुए। वे वहां गये, जहाँ से तीर आये थे। वहां उन्होंने एकलव्य को देखा और पूछा कि वह कौन है? एकलव्य ने अपना परिचय दिया और यह भी बताया कि द्रोण उसके गुरु हैं। पांडव घर चले गये। पर एक दिन अर्जुन ने द्रोण से पूछा कि उन्होंने निषाद पुत्र को शिष्य क्यों बनाया, जो धनुर्विद्या में मुझ से भी महान है? द्रोण अर्जुन को साथ लेकर एकलव्य के पास गये और उससे कहा कि अगर तुम मेरे शिष्य हो, तो अभी मेरी दक्षिणा मुझे दो। एकलव्य ने कहा कि गुरुदेव आज्ञा दें, अभी तो मेरे पास कुछ है नहीं। द्रोण ने उत्तर दिया कि अपना दाहिना अंगूठा काटकर मुझे दे दो। जब एकलव्य ने ये दारुण शब्द सुने, तो उसने खुश होकर अपना दाहिना अंगूठा काटकर द्रोण  को दे दिया। उसके बाद जब एकलव्य ने तीर चलाया, तो उँगलियों ने पहले जैसा काम नहीं किया।             
   


      इस कहानी में शुरू में आया है, "द्रोण, जो धर्म को जानते थे". इसका क्या अर्थ है? यह कौन सा धर्म है, जो द्रोण जानते थे? जाहिर है कि यह वर्ण धर्म है। इसी धर्म का पालन करते हुए द्रोण ने एकलव्य को शिष्य नहीं बनाया। यह बात समझ में आती है। लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि जब शिष्य बनाया ही नहीं, तो एकलव्य से गुरु दक्षिणा क्यों मांगी गयी? यह बात और भी समझ में नहीं आती कि गुरु दक्षिणा में उसका अंगूठा ही क्यों माँगा गया? यह बात भी समझ में नहीं आती कि एकलव्य ने द्रोण को अपना अंगूठा क्यों काटकर दिया, जबकि वह उसके गुरु थे ही नहीं? यह प्रश्न भी समझ से परे है कि द्रोण ने उस कटे हुए अंगूठे का क्या किया? क्या उसे तलकर खा गये, आखिर मांसाहारी तो थे ही। इन सारे सवालों का जवाब इस कहानी से नहीं मिलता। लेकिन यदि यह मान लें कि यह पूरी कहानी झूठी है, तो हमें सारे सवालों के जवाब तुरंत मिल जायेंगे। 
      सबसे पहली बात जो हमें समझनी है, वह यह है कि एकलव्य खुद भी राजकुमार था, उसके पिता निषाद नरेश थे। वह धनुर्विद्या सीखने के लिए द्रोण को गुरु बना ही नहीं सकता था। इसके दो कारण हैं। पहला यह कि वर्ण धर्म में शूद्र  को विद्या देने का अधिकार ब्राहमण को नहीं है, यह बात एकलव्य को न मालूम हो, यह हो ही नहीं सकता। ब्राहमण शूद्र को अपना शिष्य बना ही नहीं सकता, यह जानते हुए एकलव्य द्रोण के पास शिष्य बनने के लिए नहीं जा सकता। दूसरा कारण यह है कि धनुर्विद्या जनजाति समुदाय की पारंपरिक विद्या है। यह विद्या एकलव्य में आनुवंशिक रूप में थी। वह अपने समय का महान धनुर्धर था। धनुर्विद्या में वह इतना निपुण और सिद्ध हस्त था कि द्रोण का सिखाया हुआ अर्जुन उसके सामने कुछ भी नहीं था। कुत्ते के मुंह में इस तरीके से एकलव्य ने सात तीर मारे थे कि कुत्ते का मुंह बंद हो गया था और खून की एक बूंद तक नहीं निकली थी। यह कमाल अर्जुन ने खुद अपनी आँखों से देखा था। यह कमाल ही अर्जुन के द्वेष , द्रोण के क्रोध और एकलव्य के विनाश का कारण बना। एकलव्य को अर्जुन से बड़ा धनुर्धर बनने से रोकने के लिए द्रोण ने जो साजिश रची, उसी के तहत एकलव्य का बलपूर्वक अंगूठा काटा गया, अंगूठा उसने दान नहीं किया था। 



31 अगस्त 2012 

शनिवार, 11 अगस्त 2012

चोरी की वकालत करने वाला मंत्री 
कँवल भारती

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार के कद्दावर पी.डब्लू.डी.  मंत्री शिवपाल यादव ने एटा में जिला योजना समिति की बैठक में अधिकारियों को कहा -- "अगर आप मेहनत करेंगे  तो थोड़ी बहुत चोरी कर सकते  हैं. बुद्धि लगाओगे. अगर इन्हें मीठा पानी दोगे, तो चोरी कर  सकते हो."  मतलब यह कि चोरी बुरी नहीं है, अगर वह बुद्धि लगाकर की जाये. यह उस सरकार  के मंत्री का बयान है, जिसने प्रदेश में स्वच्छ प्रशासन देने का वादा किया है. जब यह बयान मीडिया में आया तो मंत्री को होश आया कि उन्होंने यह क्या कह दिया. अब वे कह रहे हैं कि उन्होंने तो मजाक में कहा था, उसे गंभीरता से  क्यों लिया गया? सवाल यह है कि उन्होंने  मजाक में भी चोरी की वकालत क्यों की? मनोविज्ञान का सीधा सा नियम है कि जो मन में होता है, वही जुबान पर आता है. जो चोर नहीं है, वह जुबान से भी चोरी की बात नहीं कह सकता. शिवपाल यादव की निजी सम्पत्ति यही कहानी कहती है कि वह सम्यक कमाई से नहीं जुडी है.
            अगर हम अपराध शास्त्र के आधार पर बात करें,  तो छोटी मोटी चोरी से ही बड़े अपराध की शुरुआत होती है. जिस छोटी या थोड़ी सी चोरी की बात मंत्री कर  रहे हैं, उसे नजरअंदाज करने का मतलब है चोर को डकैती डालने के लिए प्रोत्साहित करना. मंत्री कह रहे हैं कि चोरी करो, पर डकैती मत डालो. पर यह कैसे हो सकता है कि अधिकारी चोरी करने के बाद डकैती न डाले. डकैती रोकने के लिए पहले चोरी को ही रोकना होगा.
            यदि अधिकारियों को चोरी करने की  बात शिवपाल यादव के बजाय किसी नौकरशाह  प्रमुख  ने कही होती,तो  मुख्यमंत्री अखिलेश यादव उसे  बर्खास्त जरूर कर दिए होते. पर, यहाँ मामला चाचा का है, वे मुलायम सिंह यादव के भाई हैं. इसलिए उनमें इतना नैतिक साहस कहाँ कि वे उन्हें बर्खास्त नहीं तो निलम्बित ही कर दें.

११ जुलाई २०१२