एकलव्य का दलित पाठ
कँवल भारती
अभी अपने मित्र इंजीनियर राजेन्द्र प्रसाद से बात हो रही थी। उनका कहना था कि एकलव्य के नाम पर साहित्य या कला में कोई पुरस्कार क्यों नहीं है? द्रोणाचार्य के नाम पर पुरस्कार है, पर एकलव्य के नाम पर नहीं है। शायद कोई पुरस्कार एकलव्य के नाम पर हो भी, पर मुझे सही जानकारी नहीं है। इसलिए में यकीन से कुछ नहीं कह सकता। लेकिन एकलव्य को लेकर मैंने कुछ और बातें उनसे शेयर कीं, जो यहाँ आपके साथ भी शेयर कर रहा हूँ।
दलित साहित्य में एकलव्य पर अभी उल्लेखनीय काम कोई नहीं हुआ है। कुछेक दलित लेखकों ने कुछ लिखा भी है, तो वह उसी कहानी पर आधारित है, जो महाभारत में मिलती है और झूठी है।उसमें एकलव्य का सम्मान इसलिए नहीं है कि वह धनुर्विद्या में महान था, बल्कि इसलिए है कि उसने गुरु दक्षिणा में अपना अंगूठा काटकर उस गुरु को दे दिया था, जिससे उसने धनुर्विद्या सीखी ही नहीं थी।
दरअसल एकलव्य और द्रोणाचार्य की कहानी उतनी ही झूठी है, जितनी झूठी कबीर और रामानंद की कहानी है। जिस प्रकार कबीर ने रामानंद से कोई शिक्षा प्राप्त नहीं की थी, उसी प्रकार एकलव्य ने भी द्रोणाचार्य से कोई शिक्षा प्राप्त नहीं की थी। जिस प्रकार रामानंद कबीर के गुरु नहीं थे, उसी प्रकार द्रोणाचार्य भी एकलव्य के गुरु नहीं थे।
एकलव्य की कहानी हमें महाभारत (1.123.10-39) में मिलती है, जो इस प्रकार है-- "द्रोण पांडवों के धनुर्विद्या के गुरु थे और अर्जुन उनका सर्वोत्तम शिष्य था। एक दिन निषाद जनजाति नरेश का पुत्र एकलव्य उनके पास शिष्य बनने के लिए आया। पर, द्रोण ने, जो धर्म को जानते थे, निषाद पुत्र को शिष्य बनाने से इंकार कर दिया। एकलव्य ने द्रोण के चरणों में अपना सर रखा और जंगल में जाकर द्रोण की मूर्ति बनाकर उसी को गुरु मानकर साधना करने लगा। वह महान धनुर्धर बन गया। एक दिन पांडव कुत्ते को लेकर शिकार के लिए जंगल में गये। कुत्ता वहां एकलव्य को देख कर भौंकने लगा। और तब तक भौंकता रहा, जब तक कि एकलव्य ने उसके मुंह में सात तीर न छोड़ दिए। कुत्ते के मुंह में तीरों को देखकर पांडव बहुत हैरान हुए। वे वहां गये, जहाँ से तीर आये थे। वहां उन्होंने एकलव्य को देखा और पूछा कि वह कौन है? एकलव्य ने अपना परिचय दिया और यह भी बताया कि द्रोण उसके गुरु हैं। पांडव घर चले गये। पर एक दिन अर्जुन ने द्रोण से पूछा कि उन्होंने निषाद पुत्र को शिष्य क्यों बनाया, जो धनुर्विद्या में मुझ से भी महान है? द्रोण अर्जुन को साथ लेकर एकलव्य के पास गये और उससे कहा कि अगर तुम मेरे शिष्य हो, तो अभी मेरी दक्षिणा मुझे दो। एकलव्य ने कहा कि गुरुदेव आज्ञा दें, अभी तो मेरे पास कुछ है नहीं। द्रोण ने उत्तर दिया कि अपना दाहिना अंगूठा काटकर मुझे दे दो। जब एकलव्य ने ये दारुण शब्द सुने, तो उसने खुश होकर अपना दाहिना अंगूठा काटकर द्रोण को दे दिया। उसके बाद जब एकलव्य ने तीर चलाया, तो उँगलियों ने पहले जैसा काम नहीं किया।