प्रज्ञा रत्न और मेरा अनुभव
(कँवल भारती)
1980
में पेरियार ललई सिंह यादव के आग्रह और सुझाव पर जो ‘धम्म विजय’ पुस्तक मैंने लिखी
थी, उसके प्रकाशकीय में मैंने लिखा था—“फरवरी 1981 के अंत तक यह समीक्षा पुस्तक
लिख कर तैयार हो गई थी. प्रेस के लिए इसकी पांडुलिपि को जांचा-परखा जा रहा था कि
मार्च में जिला प्रशासन ने पुलिस बल के साथ मेरी प्रेस को लाक और सील्ड कर दिया.
ऐसी स्थिति में ‘बोधिसत्त्व प्रकाशन’ की बहुत सी पुस्तकें नहीं छप सकीं. अत:
धम्मविजय के प्रकाशन की समस्या को हल करने के लिए जितना संघर्ष मुझे करना पड़ा, वह
अकथनीय और पीड़ादायक है.”
प्रेस सील्ड हो जाने के
बाद मेरे सामने सबसे बड़ा संकट रोजगार का पैदा हो गया था. विवाह हो चुका था, पत्नी गृहस्थ, और पूरी तरह मुझ पर
निर्भर. इसलिए संकट गम्भीर था. उन परिस्थितियों में मैं जो कर सकता था, मैंने वही
किया. विमला को उनके पिता के घर संभल छोड़ा, और मैंने समस्या के हल के लिए रामपुर
छोड़ दिया. दिल्ली, हापुड, गाज़ियाबाद, बुलंदशहर आदि शहरों में घूमता और भटकता हुए, न
जाने, मैं कैसे और कब भिक्षु प्रज्ञा रत्न के संपर्क में आया. और मुसीबतों में फंस
गया. पर इससे पहले कि मैं उसका जिक्र करूं, भिक्षु प्रज्ञा रत्न का एक संक्षिप्त
परिचय देना जरूरी समझता हूँ.
नवम्बर 1977 के अंतिम
दिनों में नवभारत टाइम्स में दीनानाथ मिश्र की लेखमाला ‘बोहरा समाज और तारकुंडे
समिति’ छप रही थी. भिक्षु प्रज्ञा रत्न ने उसकी प्रतिक्रिया में ‘नजर अपनी-अपनी’ स्तम्भ
में प्रकाशन के लिए दो पत्र भेजे थे, जिनमें एक छपा ही नहीं, और दूसरे पत्र का
बहुत थोड़ा हिस्सा ही प्रकाशित हुआ था. उस वक्त वह बिहारी कालोनी, भोलानाथ नगर,
शाहदरा, दिल्ली के कात्यायन बौद्ध विहार में अपना ठिकाना बनाए हुए थे. उन्होंने
जनवरी 1981 में अपने उन दोनों पत्रों को, दीनानाथ मिश्र के लेख के एक उद्धरण के
साथ “मुस्लिम शूद्र” नाम से बारह पृष्ठों में पुस्तकाकार में छपवा दिया. इस
पुस्तिका के कवर पृष्ठ पर ऊपर बुद्ध का और नीचे डा. आंबेडकर का चित्र छापा गया था.
उन्होंने अपने पत्रों में यह स्पष्ट किया था कि मुसलमानों में भी शूद्र और अछूत
मुस्लिम होते हैं. उन्होंने अपने दूसरे पत्र में तीन तरह के मुसलमानों का जिक्र
किया था, जिनमें अज़रल अर्थात कमीना मुसलमानों में मनर, हलालखोर, हिजड़ा, कास्बी,
लालबेगी, मोगता और लालडिग्गी जातियां आती हैं. लेकिन मेरा ध्यान उनकी इन पंक्तियों
ने खीचा, जो पहले पत्र में थीं— “स्वयं मेरा जन्म मुस्लिम कहे जाने वाले परिवार
में हुआ था. किन्तु, वास्तविकताओं को पहचान और समझ कर अपनी संस्कृति, सभ्यता का
मानवतावादी बौद्धधर्म ग्रहण किया और उचित समझ कर भिक्षु संघ में भी प्रवेश किया.”
इससे पता चला कि वह मुस्लिम से बौद्ध हुए थे.
उनका पूर्व नाम दिलशाद
मुहम्मद था, और वह पसमांदा मुस्लिम तबके से आते थे, जिसे वह मुस्लिम शूद्र कहते
थे. वह बौद्धधर्म का बाकायदा अध्ययन करने के बाद, 1974 में, इस्लाम छोड़कर बौद्धधर्म
में आये थे, 1976 में वह श्रामरेण बने थे. श्रामरेण भिक्षु से पहले की श्रेणी है. हो
सकता है, वह श्रामरेण ही रहे हों, भिक्षु नहीं हुए हों. पर वह अपने को भिक्षु
प्रज्ञा रत्न ही लिखते थे. अब वह भिक्षु रहे हों, या श्रामरेण, पर थे पूरे
सांसारिक और छल-प्रपंच में उस्ताद. रंग में गोरे-चिट्टे थे, और घुटे हुए सिर में
भी खूबसूरत लगते थे. वह बुद्ध के धर्म और दर्शन पर प्रभावशाली प्रवचन देते थे, और किसी
को भी प्रभावित करने की अद्भुत क्षमता रखते थे. शायद इसीलिए उनके उपासक भी बहुत
थे, स्त्रियां खासकर. कुछ बंगाली बरुआ परिवारों में भी उनके उपासक थे.
मैं उनके संपर्क में 1981 में आया था. तब वह दिल्ली के मदनगीर कालोनी के
आदर्श बुद्ध विहार में रहते थे. शायद उस समय तक मदनगीर का नाम डा. आंबेडकर नगर
नहीं हुआ था. जहां तक मुझे याद आता है, उनसे मेरा संपर्क एक कार्यक्रम में हुआ था,
उस समय मैं ‘धम्मविजय’ को छपाने के तनाव से गुजर रहा था और उसी विषय पर उनसे चर्चा
हुई थी. उन दिनों बुद्धधर्म की विरोधी पुस्तक ‘कालविजय’ के खिलाफ देशभर के बौद्धों
में रोष था, उसके विरुद्ध तमाम आन्दोलन हो चुके थे, उसे पाठ्यक्रम से हटाने के लिए
प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को ज्ञापन दिए जा चुके थे. ऐसे में यदि ‘धम्मविजय’ का
प्रकाशन हो जाता, तो वह हाथोंहाथ बिक सकती थी. भिक्षु प्रज्ञा रत्न को इसमें लाभ दिखाई
दिया और उन्होंने मेरे सामने प्रस्ताव रखा कि मैं उनके साथ दिल्ली चलूँ. उनके रहने
और खाने-पीने की सारी व्यवस्था वह करे देंगे, और ‘धम्मविजय’ को भी प्रकाशित
करेंगे. जब मैंने कहा कि मेरा परिवार है और मैं बिना रोजगार के केवल आपके सहारे
नहीं रह सकता, तो उन्होंने तुरंत जवाब दिया कि ‘फिलहाल आप दिल्ली चलें, बाद में
बच्चों को भी बुला लेंगे.’ मुझे प्रस्ताव ठीक लगा, क्योंकि अंधा क्या चाहे, दो
आँखें. सो मैं उनके साथ दिल्ली चला गया.
दिल्ली की यह मेरी पहली यात्रा तो नहीं थी, क्योंकि इससे पहले मैं
रमेश प्रभाकर के साथ कई बार दिल्ली जा चुका था. बाबू जगजीवन राम जी से अखबार के
सिलसिले में मिलने का भी मैं जिक्र कर चुका हूँ. पर वह सिर्फ जाना और आना होता था.
लेकिन रहने के मकसद से दिल्ली मैं पहली बार ही जा रहा था. हालात किस तरह पलटा खाते
हैं और आदमी किस तरह अर्श से फर्श पर, और फर्श से अर्श पर पहुँचता है, मैंने इसे
अपने ही जीवन में घटित होते हुए देखा है.
खैर, आगे का हाल यह है कि मैं भंते प्रज्ञा रत्न के साथ दिल्ली चला गया.
और उनके साथ बुद्ध विहार में ही रहने लगा. मैं उस समय 22 साल का था.
बात सीधे बुद्ध विहार से ही शुरू करता हूँ. विहार ज्यादा बड़ा नहीं था,
पर जितना था पर्याप्त था. विहार में तब तक शायद गेट नहीं लगा था, पर बुद्ध का
मंदिर और उसके दायीं तरफ एक कमरा बन चुका था, जिसमें भिक्षु प्रज्ञा रत्न रहते थे.
इसी बुद्ध विहार से कुछ ही फर्लांग की दूरी पर जेतवन नाम से एक और बौद्ध विहार था,
जिसमें भिक्षु शीलानंद रहते थे. वह काफी ठीकठाक और साफसुथरा था. उसमें कमरे भी कई
थे, और मुख्य गेट भी था. उसके निर्माण में शीलानन्द जी का योगदान था. उस समय दोनों
विहारों के दायकों के बीच कुछ संघर्ष चल रहा था.
मैं विहार में ही रहता, रात में नीचे चटाई बिछाकर सोता और सुबह उठकर
बाहर एक फर्लांग पर बने सरकारी बमपुलस (सार्वजनिक शौचालय) में शौच करता, जो निहायत
ही गन्दा और बदबूदार होता था. विहार के हैण्डपम्प पर नहाता. भंते अपने कमरे में
दूध, ब्रेड और चाय की पत्ती रखते थे. सो वहीँ नाश्ता भी हो जाता. दोपहर में भोजन
के लिए वह मुझे अपने साथ किसी उपासक के परिवार में ले जाते थे. रात का भोजन वह
करते नहीं थे, यह कहना तो गलत होगा, क्योंकि उपासकों द्वारा भेंट की गयी बहुत सी
खाद्यसामग्री उनके पास रहती थी, जिसका वह उपयोग करते थे. रात में वह होर्लिक्स
डालकर दूध पीते थे. मेरा रात का खाना शायद कभी नहीं हो पाता था और कभी किसी उपासक
के यहाँ से मंगवा दिया जाता था. मेरी जिंदगी मस्जिद के इमाम की तरह हो गई थी,
जिसका खाना मुहल्ले के घरों से आता है.
२
उसी समय की बात है, एक बार वह मुझे अपने साथ एक बंगाली बरुआ परिवार
में ले गए. वहाँ पहली बार देखा कि बंगाली लोग रोटी नहीं खाते. कई तरह की सब्जियां
थीं, मछली थी, भात था, पर रोटी नहीं थी. मेरे लिए यह अचरज की बात थी, क्योंकि हम
पश्चिम के लोग रोटी ज्यादा और चावल कम खाते हैं. यह सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी
है. खैर, किसी तरह खाना खाया और मेजवान का शुक्रिया अदा किया.
अब धम्मविजय की पाण्डुलिपि भंते प्रज्ञा रत्न के पास थी, और मैं अब
उनके शिकंजे में था. एक महीना होने वाला था. मैंने कहा, भंते जी, मैं इस तरह की
जिंदगी नहीं जी सकता. मुझे परिवार को लाना होगा. आप कोई व्यवस्था कीजिए या फिर आप
पाण्डुलिपि वापिस कर दें, खैर उन्होंने पाण्डुलिपि तो वापिस नहीं की, पर मदनगीर
कालोनी में एक कमरा मुझे किराये पर दिलवा दिया. मैं कमरे की चाबी लेकर घर चला गया
और दो दिन बाद विमला और दो बच्चों (पांच
साल का कात्यायन और तीन महीने का मोग्गल्लान) तथा कुछ कपड़े-लत्तों और जरूरी सामान
के साथ ट्रेन से सुबह ही पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरा. वहीँ कौडिया पुल के
पास से मदनगीर के लिए बस मिलती थी. पर इतने सामान के साथ बस से जाना मुश्किल था.
उस वक्त दिल्ली में तांगे भी चला करते थे. मैंने एक तांगे वाले से बात की और उसने
हमें बीस या तीस रुपये में मदनगीर पहुंचा दिया. कालोनी में पहुंचकर विमला ने कमरे
में सामान लगाया और मैं खाने-पीने का सामान लेने चला गया. मैंने एक दूकान से कुछ
सामग्री, जैसे आटा, चावल, कुछ दालें, तेल, चीनी, चाय, कुछ मसाले और नमक आदि ख़रीदा.
दोपहर विमला ने स्टोब पर खिचड़ी बनाई. रात को दाल रोटी बनी, और खा-पीकर जमीन पर
बिस्तर बिछा कर सो गए. वह दिल्ली में हमारी पहली रात थी, जो परिवार के साथ कटी थी.
गर्मी के दिन थे, और हाथ का पंखा था. जिसे हम बीजना बोलते थे. दो बीजना हम साथ
लेकर आये थे, उसी के सहारे हमने कुछ दिन काटे, पर उनके सहारे रात में सोना बहुत
मुश्किल हो रहा था. अभी तक भंते जी से कोई मदद नहीं मिली थी, सिवाए कमरे के किराये
के, जो हमें नहीं देना था. मैं घर से कुछ पैसे अपना बैंक खाता बंद करके लाया था,
कुछ बचत विमला के पास भी थी. सो हमने एक दिन बाज़ार से साढ़े चार सौ रुपए में उषा
कम्पनी का एक टेबुल फेन ख़रीदा, और खिलोने की दूकान से दस रुपए का कात्यायन के लिए
एक स्कूटर.
महर्षि नाम के एक हिन्दी माध्यम के स्कूल में बड़े बेटे कात्यायन का
नरसरी में दाखिला भी करा दिया, फीस जमा हो गई और किताबें भी आ गयीं. बेटा स्कूल भी
जाने लगा, स्कूल की बस से आना-जाना था. एक बार वह बस से गलत स्टाप पर उतर गया, और
मुझे न पाकर रोने लगा. मैं अलग परेशान कि वह आया क्यों नहीं? मैं स्कूल गया, पता
चला कि वहाँ से तो सारे बच्चे चले गए. अब मैं और भी परेशान ! दिल्ली जैसी अनजान
जगह में उसे कहाँ तलाशूँ? खैर, भले लोग सब जगह होते हैं, किसी को वह रोता हुआ
मिला, और वह भला आदमी उसे बुद्ध विहार छोड़ गया, जहां से वह कमरे पर आ गया.
इस तरह हमने अपने पैसे से किसी तरह एक महीना काटा. पर अब दिक्कत होने
लगी थी. यह कोई जीवन नहीं था, जिसका कोई आधार ही नहीं था. इधर भंते प्रज्ञा रत्न अपनी
संस्था ‘बौद्ध धर्म प्रचार सोसाइटी’ की रसीद बुक पर धम्मविजय के लिए लोगों से चंदा
लेने लगे थे. बाकायदा उन्होंने एक लिस्ट बनाई, जिसमें उन संभावित लोगों के नाम
लिखे गए, जिनसे किताब के लिए धन मिल सकता था. ये नाम दिल्ली के कम और बाहर के
ज्यादा थे. इनमें एक-दो नाम चंडीगढ़ से भी थे. एक दिन उन्होंने मुझे एक पत्र लिखकर
दिया और चंडीगढ़ में पियेंद्र लाल बरुआ के पास भेज दिया. मैं बस से चंडीगढ़ गया, और
अनजाना शहर, लिफाफे पर पते के रूप में सिर्फ सेक्टर और मकान नम्बर लिखा था. वहाँ
जाकर पता चला कि चंडीगढ़ में सिर्फ सेक्टर ही होते हैं, दिल्ली या और शहरों की तरह
नगर, पुर, मुहल्लों के नाम नहीं होते. रिक्शे से सेक्टर पंहुचा. इस बात को छत्तीस
साल हो गए, इसलिए सेक्टर और मकान नम्बर जरा भीं याद नहीं है, मकान की भी एक धुंधली
सी सूरत दिमाग में है. वह दो मंजिला मकान था. घंटी बजने पर एक दुबले-पतले शरीर के
व्यक्ति ने दरवाजा खोला, जिसकी आयु पचास के करीब थी, आँखों पर नजर का चश्मा था और
सिर पर बाल बहुत कम थे. मैंने उन्हें अपने बारे में बताया और भंते प्रज्ञा रत्न का
पत्र दिया. वह बड़े प्रेम और आदर के साथ, मुझे अन्दर ले गए. अब मैं दूसरी बार
बंगाली परिवार में एक अतिथि के रूप में था. यहाँ भी मछली-भात ही खाने को मिला, पर
ढेर सारा स्नेह भी मिला, जो एक लेखक को लेखक से मिलता है. वह बंगाली में लिखते थे
और बहुद्ध दर्शन के विद्वान थे. एक अच्छी सी लायब्रेरी थी उनकी, जिसमें अधिकांश
सभी किताबें अंग्रेजी और बंगला भाषा में थीं. शायद वह कहीं प्रोफ़ेसर भी थे. उन्होंने
मुझे एक अंग्रेजी की पुस्तक भेंट की, ‘धम्मचक्क पवत्तन सुत्त’ जो भिक्खु धम्मवीराविचिता,
महाथातु विहार, बेंगकोक, थाईलैंड द्वारा रचित थी. इस किताब में बोधगया मन्दिर,
धम्मेक स्तूप, मृगवन सारनाथ और परिनिर्वाण स्थल के बहुत ही खूबसूरत रंगीन चित्र
थे. और ढाई हजार वर्ष पूर्व सारनाथ में दिए गए बुद्ध के प्रथम धर्मोपदेश के मूल
सुत्त के साथ उसकी एक सरल व्याख्या भी किताब में दी गई थी. उनके मकान में ऊपरी
मंजिल पर भगवान बुद्ध का छोटा सा भव्य मंदिर था और उसी के साथ वाले कमरे में मुझे रात
को सोना था. मैं उस पूरे सुत्त को मन्दिर में बैठ कर बांच गया था. और उसे पढ़ते हुए
ही मैंने उसे हिन्दी में लाने का भी मन बना लिया था. यह काम मैंने चार साल बाद
लखनऊ प्रवास में पूरा किया, जिसे 1985 में शिवमूर्ति सिंह ने अपने कल्चरल
पब्लिशर्स, गुइन रोड, अमीनाबाद, लखनऊ से छापा था, उसका दूसरा संस्करण 1997 में बोधिसत्त्व
प्रकाशन रामपुर से ही आया, जिसे मैंने सरकारी नौकरी में आने के बाद पुनर्जीवित
किया था.
दूसरे दिन जब मैंने श्री
पियेंद्र लाल बरुआ से विदा ली, तो उन्होंने मुझे कुछ रुपए दिए, जिसकी मैंने उन्हें
भिक्षु प्रज्ञा रत्न द्वारा दी गई रसीद बुक से रसीद काटकर दी. कितने रुपए थे, यह
तो अब याद नहीं है, पर अगर उन्होंने दो सौ भी दिए होंगे, तो छत्तीस साल पहले मायने
रखते थे.
चंडीगढ़ से लौटकर जब मैं
अपने कमरे पर गया, तो देखा कि तीन महीने के छोटे बेटे की तबियत बहुत खराब है. भंते
जी को खबर दी गई थी, पर उन्होंने कोई मदद नहीं की थी. पड़ोस के कमरे में एक
राजस्थान का परिवार रहता था. उसकी स्त्री बहुत स्नेही स्वभाव की थी. स्त्री स्त्री
के बीच बोलचाल के सम्बन्ध जल्दी बन जाते हैं. दिन में रोज ही वह और विमला बतियाती
थीं. वह हमारे उस बच्चे को खिलाती भी रहती थी. उसे जब बच्चे की बीमारी का पता चला,
तो विमला को कालोनी में ही स्थित एक क्लीनिक पर ले गई, जहाँ से विमला बच्चे को
दिखाकर दवाई ले आई थी. पर उससे उसे कुछ भी आराम नहीं हुआ था, बुखार बराबर बना हुआ
था. मैं उसे किसी दूसरे डाक्टर के पास ले गया. जिसने इंजक्शन लगाया और कुछ दवाई
दी. उससे बच्चे को काफी आराम मिला.
दूसरा महीना शुरू हो गया था, पर अभी तक न किताब के छपने का नम्बर आया
था और न कोई रोजगार मिला था, जिसके सहारे दिल्ली में रहा जाता. किसी भिक्षु के
सहारे मैं दिल्ली में रहने का कोई तुक नहीं था. अब
इतना पैसा रसीद बुक में जमा हो गया था कि किताब आसानी से छप सकती थी. उस समय आज
जैसी मंहगाई नहीं थी, चाइना न्यूजप्रिंट कागज का एक रिम पचास रुपए में मिल जाता था,
कम्पोजिंग का रेट पांच रुपए प्रति पेज था, तो छपाई दस रुपए प्रति फरमा और प्रति
हजार में हो जाती थी. इस तरह, 178 पृष्ठों और 23 फरमों की किताब की छपाई पर अधिकतम
डेढ़ हजार रुपए खर्च हो रहे थे. मैंने भंते जी से कहा कि अब किताब को प्रेस में दे
देना चाहिए. पर उन्होंने कोई रूचि नहीं दिखाई और उलटे मुझ पर आरोप लगाने लगे कि जो
पैसा आया था, वह सब तुम्हारे ऊपर ही खर्च हो गया. वह हिसाब देने लगे, इतना कमरे का
किराया दिया, इतनी स्कूल की फीस दी, इतना तुम्हें दिया, इतना उसे दिया, इतने का यह
आया और इतने का वह आया. यह सुनकर मैं उनका सारा खेल समझ गया. उनकी रूचि किताब में
नहीं थी, बल्कि किताब के नाम पर धन उगाहने में थी. मैंने कहा, ‘भंते जी, मुझे यहाँ
लाने का प्रस्ताव आपका था. आपने ही कहा कि परिवार को ले आइये, सब हो जायेगा. पर
क्या हो जायेगा? क्या किया आपने? अगर हमारे पास अपना कुछ पैसा नहीं होता, तो हम तो
मर जाते. आपने जो भी दिया है, वह मुझे पता है. पर आपने कितना धन उगाहाया है, यह
आपने मुझे नहीं बताया है. अब हिसाब कीजिए कि कितना रुपया आया है.’ इस पर वह बिफर
गए, कैसा हिसाब? आप कौन होते हैं, मुझसे हिसाब मांगने वाले? संस्था का पैसा है,
संस्था के और भी बहुत से काम हैं.’ तब मैंने कहा, ‘ठीक है, मैं भी अब यहाँ नहीं
रहना चाहता, आप कृपया मेरी पाण्डुलिपि वापिस कर दें.’ लेकिन उन्होंने पाण्डुलिपि
देने से साफ़ इनकार कर दिया. अब मेरे सामने एक नया संकट पैदा हो गया था. हाथ की
लिखी पाण्डुलिपि थी, जो एक ही थी. फोटोस्टेट की सुविधा उस समय तक आई नहीं थी. आज
तो खैर कम्पयूटर का दौर है, इस तरह की हरकत कोई कर ही नहीं सकता.
यह मेरे साथ विश्वाघात था,
जिसका आघात मेरे दिमाग पर इतना जबरदस्त था कि मैं गुस्से में कुछ भी कर सकता था,
पर मैंने संयम बनाए रक्खा. तेलीवाड़ा, नयी दिल्ली में मेरे एक सम्बन्धी थे, चरन
सिंह कैम, जिनसे मैं उन दिनों समय-समय पर मिलता रहता था, और परिवार लाने से पहले
मैं कई बार उनके यहाँ खाना खाने भी चला जाता था. वह बाबासाहेब के परम भक्त और दलित
समाज के तेजतर्रार नेता थे. उन्हें समाज के बहुत से लोग जानते थे. वैसे वह सरकारी
सेवा में थे, और आईटीओ के पास उनका दफ्तर था. मैं उनके पास गया, उन्हें सारी बात
बताई और भंते से पाण्डुलिपि वापिस दिलाने की मदद मांगी. उन्हें सुनकर बहुत गुस्सा
आया, और वह उसी वक्त मेरे साथ चल दिए. उन्होंने बुद्ध विहार पर जाकर भिक्षु
प्रज्ञा रत्न से अपने तरीके से बात की, और मुझे पाण्डुलिपि वापिस मिल गयी. यह मेरे
लिए खुशी की बात थी. मैंने अपने सम्बन्धी का धन्यवाद अदा किया. भंते से अब सम्बन्ध
बिगड़ गए थे. अब मुझे मदनगीर से कमरा खाली करके विमला और दोनों बच्चों को अपनी
ससुराल छोड़ना था, क्योंकि मैं अपने मजदूर पिता पर बोझ डालना नहीं चाहता था. पर
सवाल अब मेरे सामने यह था कि पास में धेला नहीं था, यहाँ से जायेंगे कैसे? कमरे का
एक महीने का ढाई सौ रुपये किराया भी देना था, और कम से कम इतने ही रुपए संभल तक
पहुँचने के लिए चाहिए थे. पांच सौ रुपए किस तरह जुटाए जाएँ. किसी से उधार मांगने
की मेरी आदत नहीं थी. उन दिनों अम्बेडकर भवन में चल रहे स्कूल के एक दलित टीचर
मास्टर वतन स्वरूप राहुल से परिचय हो गया था, जो अध्यापन के साथ-साथ आंबेडकर और
बुद्ध का साहित्य भी बेचने का काम करते थे. मैं महीने भर पहले ख़रीदा हुआ उषा का
टेबुल फेन लेकर उनके पास गया, जिसे उन्होंने मात्र दो सौ रुपए में गिरवीं रख कर
मेरे ऊपर उपकार किया. अब तीन सौ रुपए की और दरकार थी. और मैं आज पूरे होशोहवास में
यह स्पष्ट करता हूँ कि ये तीन सौ रुपए मदनगीर के दयावान बंधुओं ने भंते शीलानन्द
जी के आग्रह पर चंदा करके मुझे दिया था.
(5 -12-2016)
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