बुधवार, 26 जून 2013

पसमान्दा मुसलमानों की कीमत पर मुस्लिम-राजनीति
(दलित-मुस्लिम और अल्पसंख्यक विमर्श)
कॅंवल भारती
मुस्लिम राजनीति और दलित-पिछड़े मुसलमानों की समस्याओं पर खालिद अनीस अन्सारी का लेख ‘मुस्लिम दैट मायनारिटी पालिटिक्स लेफ्ट बिहाइंड’ (दि हिन्दू, 17 जून 2013) सचमुच बहस-तलब है। यह लेख बताता है कि इस्लाम एक समतावादी धर्म होते हुए भी भारत में उसकी स्थिति वंशानुगत है। अन्सारी बात सही कहते हैं। भारत का मुस्लिम समाज एक धर्मान्तरित समाज है। यानी, भारत में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जातियों से बड़ी संख्या में लोगों ने स्वार्थवश या दवाब में आकर इस्लाम अपनाया था। लेकिन इस्लाम में जाकर भी इन लोगों ने अपनी जातीय पहचान खत्म नहीं की थी। जब सम्मान के लिये स्वैच्छा से या बलपूर्वक दवाब में आकर दलित-पिछड़ी जातियों के लोग भी इस्लाम में गये, तो उच्च हिन्दुओं से धर्मान्तरित मुसलमानों ने उनके साथ ऊॅंच-नीच का वही भेदभाव जारी रखा, जो वह पहले हिन्दू फोल्ड में उनके साथ करते थे। इस प्रकार जातिभेद से मुक्त समतावादी इस्लाम भी जातीय भेदभाव को अपनाकर विषमतावादी इस्लाम में बदल गया। अतः, अन्सारी ठीक कहते हैं कि भारत में मौजूदा इस्लाम वंशानुगत है। इसका दुष्प्रभाव निम्न जातियों से आये मुसलमानों पर पड़ा, जो आज भी मुस्लिम समाज में जातीय भेदभाव के शिकार हैं। इस आधार पर भारत का मुस्लिम समाज ‘अशराफ’ यानी अगड़ा और ‘अजलाफ’ यानी पिछड़ा इन समुदायों में विभाजित है। एक तीसरा वर्ग ‘अरजाल’ मुसलमानों का भी है, जिसे हम दलित-अछूतों का वर्ग कह सकते हैं। इस प्रकार, आरक्षण के लिये पसमान्दा मुसलमानों का जो आन्दोलन चल रहा है, उसका नेतृत्व ‘अजलाफ’ मुसलमानों के हाथों में है, उसमें ‘अरजाल’ अर्थात दलित मुसलमानों की भागीदारी नहीं नजर आती। यही स्थिति मुस्लिम राजनीति की भी है। मुख्य धारा की मुस्लिम राजनीति में पसमान्दा की भागीदारी नगण्य है, तो पसमान्दा की मुस्लिम राजनीति में ‘अरजाल’ एकदम अनुपस्थित है। ठीक, जिस तरह हिन्दू राजनीति में सवर्ण-वर्चस्व है, मुस्लिम राजनीति में अशराफ-वर्चस्व है। इसलिये, अधिकार और न्याय से वंचित दलित-पसमान्दा मुसलमानों को उनका हक तभी मिल सकता है, जब सम्पूर्ण मुस्लिम समाज को पिछड़ा और गरीब घोषित करने की नीति और राजनीति का खण्डन किया जाय और उसके खिलाफ व्यापक विरोध का आन्दोलन चलाया जाय। यदि ऐसा नहीं किया गया, तो दलित-पसमान्दा की कीमत पर अशराफ मुस्लिम वर्ग ही फलता-फूलता रहेगा, क्योंकि वह गरीब नहीं है और अशिक्षित भी नहीं है, इसलिये सारी सरकारी सुविधाओं का उपभोग वही करेगा।
निम्न या दलित-पिछड़ा कहा जाने वाला समाज, चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाला हो, मेहनतकश कमेरे लोगों का समाज है। उच्च वर्गों की सारी सफलता, सम्पन्नता, विलासिता और हुकूमत इसी कमेरे वर्ग की सेवा और मेहनत पर निर्भर करती है। इसलिये उच्च वर्गों की हमेशा यह कोशिश रहती है कि दलित-पिछड़ा वर्ग उस हद तक पढ़-लिख कर जागरूक न हो जाये कि उनकी सत्ता को खतरा पैदा हो जाय। इसीलिये उनका न शैक्षिक विकास हो पाता है और न आर्थिक। इसके विपरीत उच्च मुसलमान धनी भी है और शिक्षा में भी आगे है। इस विषमता को जायज ठहराने का कार्य करते हैं, धर्मगुरु, जो दलित-पिछड़े वर्ग को रात-दिन यही शिक्षा देते हैं कि असली दुनिया तो परलोक की है, जहाॅं तुम्हें सब-कुछ मिलने वाला है। इसलिये इस दुनिया में तुम धन-दौलत और भौतिक तरक्की के पीछे मत भागो, क्योंकि यह दुनिया तो नष्ट हो जाने वाली है। उन्होंने ‘सन्तोष’ को परम सुख और परम धन बताया और शिक्षा दी कि ईश्वर को खुश करो कि वह तुम्हारी रोजी में बरकत करे। लेकिन यहाॅं रोजी ही पर्याप्त नहीं है, वहाॅं बरकत कैसे हो सकती है? हिन्दूधर्म के गुरुओं ने अपने फलसफे में पूर्वजन्म का सिद्धान्त भी जोड़ा, जिसके अनुसार आदमी की गरीबी-अमीरी का कारण वह कर्म है, जो उसने पूर्वजन्म में किया था। इस आधार पर हिन्दूधर्म-गुरुओं के अनुसार, आज के सारे गरीब पूर्वजन्म के पापी हैं और सारे अमीर पूर्व जन्म के पुण्यात्मा हैं। मुस्लिम उलेमाओं के मुताबिक अल्लाह जिसे चाहता है, रोजी-रोटी देता है, जिसे नहीं चाहता है, नहीं देता है। इसलिये डा. आंबेडकर ने एक जगह बिल्कुल सही लिखा है कि केवल हिन्दूधर्म ही नहीं, इस्लाम धर्म भी वर्ग-संघर्ष को रोकता है। कभी पसमान्दा मुसलमानों ने सोचा कि मजहबी जलसे और खुतबात (उलेमाओं के भाषण) उनके इलाकों में ही सबसे ज्यादा क्यों होते हैं? क्यों पसमान्दा मुस्लिम बच्चे ही इस्लामिक मदरसों में सबसे ज्यादा पढ़ते हैं? क्यों मजारों और पीरों के पास जाने वाले सबसे ज्यादा मुसलमान दलित-पिछड़ी जातियों से ही होते हैं? और क्यों दंगों में भी मरने वाले सबसे ज्यादा यही दलित-पिछड़े मुसलमान होते हैं? कमोबेश यही स्थिति उन दलित-पिछड़ी जातियों की भी है, जो हिन्दू हैं। हिन्दु-मुस्लिम दोनों समुदायों के पूॅंजीपतियों से करोड़ों रुपये इन हिन्दू-मुस्लिम धर्मगुरुओं को दान में मिलते हैं, ताकि वे दलित-पिछड़ी जातियों को धर्म-जाल में इस कदर उलझाकर रखें कि अपने शोषण और अन्याय से बेखबर रहें।
लेकिन हिन्दू (फोल्ड के) दलितों ने इस ब्राह्मणवाद के खिलाफ जबरदस्त आवाज उठायी। यह आवाज किसी एक कोने नहीं उठी, वरन् देश के कोने-कोने से उठी। समान मानव-अधिकारों के लिये यह दलितों का विशाल और व्यापक आन्दोलन था। कबीर-रैदास से लेकर जोतिबा फुले और चाॅंदगुरु से लेकर डा. आंबेडकर तक नेे ब्राह्मणवाद के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई लड़ी। परिणामतः, हजारों वर्षों से मानवाधिकारों से वंचित दलित जातियों को अधिकार मिले। आज वे शिक्षित होकर न केवल हर क्षेत्र में अपनी भूमिका निभा रहे हैं, बल्कि मुख्य धारा का साहित्य भी रच रहे हैं।
सवाल यह है कि ऐसा साहस मुस्लिम (फोल्ड के) दलितों ने क्यों नहीं किया? उनमें अशराफवाद के खिलाफ आवाज उठाने वाला कोई आंबेडकर क्यों नहीं पैदा हुआ? आज से ठीक छह साल पहले 25 मार्च 2007 को फैजाबाद (उत्तर प्रदेश) में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को लेकर वहाॅं की ‘मुस्लिम घोषी एसोसियेशन’ ने एक मुस्लिम सम्मेलन किया था, जिसमें मुझे भी बुलाया गया था। उस सम्मेलन में, जो नरेन्द्रालय में हुआ था, बिहार के पसमांदा नेता और सांसद अली अनवर, मुस्लिम पसमांदा महाज के प्रवक्ता नदीम देहलवी और मुस्लिम सुधारवादी महिला नेत्री शाइस्ता अम्बर भी मौजूद थीं, जो उस वक्त तक मुस्लिम औरतों के लिये अलग मस्जिद और पर्सनल लाॅ बनाकर चर्चा में आ चुकी थीं। पर शायद वह भी पसमान्दा समाज से नहीं आती हैं, और कुरआन की रोशनी में केवल औरतों के अधिकारों पर ही बात करती हैं। सम्मेलन में अली अनवर समेत सभी मुस्लिम नेताओं ने सरकार से सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को लागू करने, पिछड़ी जातियों की 27 प्रतिशत आरक्षण की सुविधा में से आबादी के अनुसार मुसलमानों को आरक्षण देने और हिन्दू दलित जातियों की तरह दलित मुस्लिम जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की माॅंग की थी। मुझे अच्छी तरह याद है कि दलित मुसलमानों के प्रति उच्च तबके के मुसलमानों के सामाजिक भेदभाव के खिलाफ उस सम्मेलन में कोई आवाज नहीं उठी थी। हालांकि इस सच की तरफ भी अली अनवर के सिवा किसी ने इशारा नहीं किया था कि समस्त मुसलमानों के लिये आरक्षण की माॅंग स्वयं मुसलमानों के हित में नहीं है, क्योंकि इससे उनकी भागीदारी में और भी कमी आ जायगी। उस सम्मेलन में मैंने दलित आन्दोलन को रेखांकित करते हुए कहा था कि जिस तरह दलितों ने ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणों की राजनीति से टक्कर लेने का साहस किया, उसी तरह दलित मुसलमानों को भी ‘अशराफवाद’ और अशराफ मुस्लिम राजनीति से टक्कर लेने का साहस करना होगा। अगर वे यह साहस नहीं करेंगे, तो उनकी स्थिति में कोई परिवर्तन होने वाला नहीं है। मुस्लिम पसमान्दा नेता इस बात को तो स्वीकार करते हैं कि मुस्लिम राजनीति और मुस्लिम संस्थाओं में दलित-पिछड़े तबके के मुसलमानों के साथ भेदभाव बरता जाता है और उनकी उपेक्षा की जाती है, लेकिन वे उन जातिवादी और कुलीनवादी (जिसे हम मनुवादी कहते हैं) मुस्लिम तत्वों की आलोचना नहीं करना चाहते, जो उसके असली दोषी हैं। ये तत्व वही हैं, जो उलेमा कहे जाते हैं। खालिद अनीस अन्सारी स्वयं अली अनवर के इस बयान को दर्ज करते हैं कि वह अशराफ मुसलमानों के विरुद्ध दलित-पिछड़ी जातियों के मुसलमानों को खड़ा नहीं कर रहे हैं, बल्कि न्याय और अधिकार हासिल करने के लिये अपने लोगों को संगठित कर रहे हैं। लेकिन वह किस बुनियाद पर दलित-पिछड़ी मुस्लिम जातियों को संगठित करेंगे, जबकि उन्हें यह नहीं बताया जायगा कि उनका शत्रु कौन है? निस्सन्देह, यह एक अच्छी बात है कि अली अनवर उन अशराफ मुसलमानों का स्वागत करते हैं, जो उनके साथ हैं। पर, क्या उन्होंने यह जानने की कोशिश की कि वे अशराफ उनके साथ क्यों हैं? अशराफ इसलिये उनके साथ हैं, क्योंकि उनका पसमान्दा-आन्दोलन अशराफ और उलेमाओं के खिलाफ नहीं है। पर, जब भी उन्हें लगेगा कि पसमांदा मुस्लिम नेता अशराफ और उलेमाओं के विरोध में खड़े हो रहे हैं, तो स्थिति फिलहाल की यह है कि वे उसी दिन उनका साथ छोड़ सकते हैं।
पसमांदा मुसलमानों को यह समझना होगा कि ब्राह्मणवाद और अशराफवाद में कोई अन्तर नहीं है। जिस तरह ब्राह्मणवाद हिन्दू दलितों का शत्रु है, उसी तरह अशराफवाद दलित-पसमान्दा मुसलमानों का शत्रु है। ब्राह्मणवाद और अशराफवाद दोनों अपनी सत्ता को कायम रखना चाहते हैं। इसलिये दोनों ही राजनीति में अपना वर्चस्व बनाये हुए हैं। यहाॅं यह सवाल भी बहुत मायने रखता है कि मुसलमानों की राष्ट्रीय स्तर की कोई राजनीतिक पार्टी क्यों नहीं है? इसका एक ही कारण है कि बिना दलित-पसमांदा जातियों को साथ लिये कोई राष्ट्रीय स्तर की मुस्लिम पार्टी नहीं बन सकती और मौजूदा मुस्लिम राजनीति का अशराफ-नेतृत्व यदि दलित-पसमांदा मुसलमानों को साथ लेकर चलेगा, तो वह उनकी जमीन पर ज्यादा देर तक खड़ा नहीं रह सकेगा। इसीलिये अशराफ मुस्लिम नेतृत्व अपना राजनीतिक हित मायावती, मुलायमसिंह यादव और अन्य ब्राह्मणवादी पार्टियों में तो सुरक्षित समझते हैं, पर अपनी बनायी गयी पार्टी में नहीं। अतः, यह कहना बिल्कुल सच है कि अशराफ मुस्लिम नेतृत्व पसमांदा मुसलमानों की कीमत पर ही अपनी सत्ता और अपने स्वार्थों को पूरा करता है।
25 जून 2013
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रविवार, 23 जून 2013

कौन है मूलनिवासी?
(कँवल भारती)
दलितों में एक नया संगठन बना है, जो मूलनिवासी की अवधारणा को लेकर चल रहा है. इस संगठन के लोग अभिवादन में भी ‘जय भीम’ की जगह ‘जय मूलनिवासी’ बोलने लगे हैं. ये लोग कहते हैं कि वे मूलनिवासी हैं और बाकी सारे लोग विदेशी हैं. क्या सचमुच ऐसा है? अगर इनसे यह पूछा जाये कि किस आधार पर आप अपने को मूलनिवासी कहते हैं, तो इनके पास कोई जवाब नहीं है. अधकचरे तर्क देते हुए ये ब्राह्मण-शूद्र की शब्दावली के आधार पर उन्हीं धर्मशास्त्रों का हवाला देना शुरू कर देते हैं, जिन्हें ऐतिहासिक दृष्टि से कभी मान्यता नहीं मिली. दरअसल इनके नेताओं ने जो सैद्धांतिकी बना ली है, उसी को इन्होने रट लिया है.
      अगर वर्ण का अर्थ रंग है, तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का अलग-अलग रंग होना चाहिए था. ब्राह्मण गोरे होते, क्षत्रिय नीले होते, वैश्य पीले होते और शूद्र काले होते. पर क्या ऐसा है? दो ही रंग हैं—गोरा और काला. सभी वर्णों में ये दोनों रंग मिल जायेंगे. अगर दलित-शूद्र भारत के मूलनिवासी होते, तो ये सभी वर्ण काले रंग के होते और बाकी सारे लोग विदेशी होने के कारण गोरे रंग के होते. पर क्या ऐसा है? ब्राह्मणों में कितने ही काले और भयंकर काले रंग  के मिल जायेंगे और दलितों में कितने ही गोरे और एक्स्ट्रा गोरे रंग के मिल जायेंगे. हजारों वर्षों के मानव-समाज के विकास के बाद आज अगर कोई यह दावा करता है कि वह मूलनिवासी है, तो वह बहुत बड़ी गलतफहमी का शिकार है. अगर कोई यह मानता है कि आर्य और अनार्यों में रक्त-मिश्रण नहीं हुआ है, तो वह सबसे बड़ा मूर्ख है. आज रक्त के आधार पर कोई भी अपनी नस्ल की शुद्धता का दावा नहीं कर सकता.
      मूलनिवासी संगठन के लोग अगर डा. आंबेडकर को मानते हैं, तो उन्हें यह भी समझना चाहिए कि डा. आंबेडकर ने आर्यों को विदेशी नहीं माना है. उन्होंने इस सिद्धांत का खंडन किया है कि आर्य बाहर से आये थे. डा. आंबेडकर इस सिद्धांत को भी नहीं मानते कि आर्यों ने भारत पर आक्रमण करके यहाँ के मूलनिवासियों को गुलाम बनाया था. वे कहते हैं कि “इस मत का आधार यह विश्वास है कि आर्य यूरोपीय जाति के थे और यूरोपीय होने के नाते वे एशियाई जातियों से श्रेष्ठ हैं, इस श्रेष्ठता को यथार्थ सिद्ध करने के लिए उन्होंने इस सिद्धांत को गढ़ने का काम किया. आर्यों को यूरोपीय मान लेने से उनकी रंग-भेद की नीति में विश्वास आवश्यक हो जाता है और उसका साक्ष्य वे चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था में खोज लेते हैं.” ब्राह्मणों ने इस सिद्धांत का समर्थन क्यों किया? इसका कारण डा. आंबेडकर बताते हैं कि ब्राह्मण दो राष्ट्र के सिद्धांत में विश्वास रखता है. इस सिद्धांत को मानने से वह स्वयं आर्य जाति का प्रतिनिधि बन जाता है और शेष हिंदुओं को अनार्य कह कर वह उन सबका भी श्रेष्ठ बन जाता है. यही कारण है कि तिलक जैसे घोर सनातनी ब्राह्मण विद्वानों ने इस सिद्धांत का समर्थन किया.
      दलित इस सिद्धांत को क्यों मानते हैं, यह समझ से परे है. पर, उनका मूलनिवासी दर्शन पूरी तरह डा. आंबेडकर की वैचारिकी के विरोध में है. मेरी दृष्टि में यह दलित-पिछड़े वर्गों में एक बड़े रेडिकल उभार को रोकने का षड्यंत्र है. इस षड्यंत्र का सूत्रधार पूंजीवाद है, जो फंडिंग एजेंसी के रूप में भारतीय और विदेशी दोनों हो सकता है. हमारे सीधे-साधे दलित-जन अपने नेतृत्व पर आंख मूँद कर विश्वास करते है. अपने आरक्षण को बनाये रखने के लिए वे उन्हें अपना तन-मन-धन तीनों का अर्पण करते हैं. वे बेचारे नहीं जान पाते कि उनके मुखिया उन्हें काल्पनिक शत्रु से लड़ा कर दलित आन्दोलन को भटकाने का काम कर रहे हैं.
      मूलनिवासी संगठन हो या भारत-मुक्ति-मोर्चा, वामसेफ हो या कोई और ‘सेफ’, ये सारे के सारे संगठन इसलिए फलफूल रहे हैं, क्योंकि कहाबत है कि जब तक बेवकूफ जिंदा है, अक्लमंद भूखा नहीं मर सकता. जो लड़ाई डा. आंबेडकर ने अपने समय में लड़ी थी, ये संगठन उसी कीली के चक्कर काट रहे हैं. आंबेडकर की जिस लड़ाई को आगे बढ़ना था, उसे पूंजीवाद के दलालों ने आज वहीँ रोक दिया है.
23 जून 2013



बुधवार, 12 जून 2013


निर्मला जैन के बहाने एक सवाल 
(कँवल भारती)


'पाखी' जून २०१३ के अंक में  निर्मला जैन का एक आत्मकथ्य या संस्मरण (जो भी है ) 'जमाने में हम' शीर्षक से छपा है. उसके हवाले से मैं यहाँ  एक (दलित) विमर्श रखना चाहता हूँ. उन्होंने एक जगह लिखा है-- "मुझे याद था बचपन का यह मच्छर मुक्त सदाबहार मौसम बावजूद इसके कि गली में बीचों-बीच खुली नाली बहती थी. गली के चार घरों के पाखानों से मैला इकठ्ठा कर सिर पर ढोने के लिए दिन में एक बार 'मेहतरानी' आती थी. अपनी नाक पर दुपट्टे का आच्छादन कसे जब 'बचके चलो, हटके चलो' की गुहार लगाते हुए उसकी सवारी गली के बीच से निकलती तो वातावरण अस्थाई रूप से कुवासित हो उठता. पर यह स्थिति बहुत दिन तक नहीं चली. 
         मेहतरानी की सवारी का जितना कुवासित चित्र निर्मला जैन ने प्रस्तुत किया है, वह कुवासित ही है, इसमें बिलकुल भी संदेह नहीं है. पर मेरा कहना यह है कि उस कुवासित वातावरण में जीने वाली उस मेहतरानी पर क्या गुजरती थी, वह उसके लिए किस कदर पीड़ादायक और सेहत के लिए किस कदर खतरनाक था,  कभी निर्मला जी ने उसे जानने की कोशिश की? कभी उसके साथ बैठ कर उसके दुःख को बाँटा? नहीं न?  यह यथार्थ सिर्फ निर्मला जी का ही नहीं है, सभी सवर्ण लेखकों का है. फ्लश की लेट्रिन तो अभी 25-30 साल पहले ही बनी होंगी, इससे पहले उन सभी ने अपने घरों में गंदगी उठा कर फेंकने वाली मेहतरानी या उठाने वाले मेहतर को ही देखा होगा. पर वह कभी भी उनके लेखन का हिस्सा नहीं बना. क्यों नहीं बना? इसका एक ही कारण है कि वे दलितों के प्रति संवेदनशील थे ही नहीं. लेकिन आज वही लोग सवाल करते हैं कि दलित साहित्य दलित ही क्यों लिख सकता है? सवर्ण क्यों नहीं लिख सकते? अगर सवर्ण लिख सकते होते तो अब तक लिखा होता. दर असल वे दलितों के प्रति न कल संवेदनशील थे और न आज हैं. और यह हमें आरक्षण के मुद्दे पर अच्छी तरह दिखाई देता है. 
१२ जून २०१३ 
   















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Kanwal Bharti
C - 260\6, Aavas Vikas Colony,
Gangapur Road, Civil Lines, Rampur 244901 
(U.P.)
Ph. No. 09412871013.

शुक्रवार, 7 जून 2013

आज़ादी पर उठते सवाल
(कँवल भारती)
      कुछ लोग बिना शोर-शराबे के ख़ामोशी से काफी अच्छा और महत्वपूर्ण काम कर लेते हैं, लेकिन वे चर्चा में नहीं आ पाते. ऐसी ही एक शख्शियत डा. मंजू देवी हैं. वह बनारस में रहती हैं, और पिछड़े वर्ग में अति निर्धन, भूमिहीन एवं स्वतंत्रता-सेनानी परिवार की पृष्ठभूमि से आती हैं. उनकी छोटी बहिन लिली सिंह फेसबुक पर भी सक्रिय हैं, वह बाल विकास निदेशालय उत्तर प्रदेश, लखनऊ में उच्च अधिकारी हैं. मेरा मंजू देवी से परिचय लिली सिंह के जरिये ही हुआ. वह 1993-94 में मेरे शहर में तैनात थीं, तो अक्सर उनसे मिलना होता था. वह कवितायें बहुत अच्छी लिखती हैं. पर कविता कहीं छपे भी, इस पर उन्होंने कभी ध्यान नहीं दिया. एक बार उनकी कविताओं पर एक छोटी-सी टिप्पणी मैंने भी की थी,  पर बार-बार कहने और उनके हामी भरने के बाद भी उनका कविता-संकलन अभी तक मेरे देखने में नहीं आया. मेरे शहर से उन का ट्रांसफर हो जाने के कुछ समय बाद उनकी बहिन मंजू देवी का भी ट्रांसफर मेरे ही शहर में हो गया, उन्होंने गवर्नमेंट डिग्री कालेज में मनोविज्ञान की प्रवक्ता के पद पर ज्वाइन किया. उनके ट्रांसफर की खबर भी लिली सिंह से ही मिली थी. मुझे बहुत खुशी हुई. जो कुछ मुझसे बन पड़ा, मैंने उनके लिए किया. पर वह भी बहुत कम समय ही शहर में रहीं, पर जब तक रहीं, उनसे मिलना होता रहा. उनका साहित्य और समाज-विमर्श गजब का था.
      लिली सिंह से तो मेरा संपर्क टूट गया, पर मंजू देवी से आवश्यकता के अनुसार फोन पर संपर्क बना रहा. कुछ कार्यक्रमों में भी उनसे मिलना-जुलना हुआ. एक बार उन्होंने मुझे बताया कि वह बनारस के मोचियों के जीवन पर सर्वे कर रही हैं. मैंने कहा, यह तो बहुत अच्छा काम है. संभवत: 2006 में उन्होंने इस काम को पूरा कर लिया था. पर उसका प्रकाशन कई साल बाद राधाकृष्ण प्रकाशन से 2009 में हुआ. मुझे यह किताब उसके भी साल भर बाद मिली. किताब मिलने पर मैंने उन्हें बधाई दी, पर उस पर तुरंत कुछ लिखने का वक्त मैं नहीं निकाल सका. फिर किताबों के ढेर में वह ऐसी खोई कि अभी कुछ दिन पहले ही हाथ में आयी.
मंजू देवी की इस किताब का नाम है--“आजादी पर उठते सवाल : नाली पर मोची.” यह सचमुच गजब का काम है, मोची के जीवन पर इतना बारीक़ और गहन विश्लेषण हिन्दी में मैंने पहली बार देखा. मोची के काम और जीवन से जुड़ा कोई सवाल उन्होंने छोड़ा नहीं है. शुरुआत में ही वह दिल को हिला देती हैं. अपनी ‘दो-चार बातें’ में वह लिखती हैं—‘इस पुस्तक का उद्देश्य मोचियों के जीवन की वास्तविक स्थितियों की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट करना है. हमारे आस-पास ऐसी बहुत-सी घटनाएँ घटित होती हैं, जिन्हें हम देखते हैं, समझते हैं, सुनते हैं, फिर भी हमारी संवेदनाओं में कोई बदलाव नहीं होता है. हमारे अन्दर कोई हलचल पैदा नहीं होती.’ वह आगे लिखती हैं, ‘पुस्तक तैयार करने के लिए बनारस के मोचियों से मिलकर व्यापक पूछताछ की गयी. गरीबी की मार सह रहे मोचियों के पास कोई पूंजी नहीं थी, उन्हें अपने जीवन में बदलाव की कोई सम्भावना नहीं दिख रही थी. घंटों साथ बैठकर उनका दुःख-दर्द बांटा गया. उनके मन में उठ रहे सवालों का जवाब दिया गया. उन्हें सलाह दी गयी कि रास्ता खुद ढूँढना होगा. अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी.’
अक्सर लोग ख्याति या डिग्री के लिए किताब लिखते हैं, पर मंजू देवी ने यह काम अपनी सम्वेदना के लिए किया. वह लिखती हैं—‘शहर में नालियों के ऊपर तीनटंगा, कटरनी, रांपी, धागा, ब्रुश, पालिश आदि की पेटी लेकर बैठे मोचियों को देखकर यह पुस्तक लिखने का ख्याल आया. पुस्तक न तो किसी विश्वविद्यालय से भारी-भरकम डिग्री प्राप्त करने के लिए लिखी गयी है, न शब्द-जाल गढ़ने का प्रयास किया गया है.’
मंजू देवी की यह किताब मोचियों के जीवन और हालात को समझने के लिए निस्संदेह एक महत्वपूर्ण और आवश्यक दस्तावेज है. यह किताब लोकतंत्र और आज़ादी दोनों को ही कटघरे में खड़ा करती है. यह दलितों के पुनर्वास और कल्याण के नाम पर करोड़ों रूपये खर्च करने वाली सरकारों को तो आईना दिखाती ही है, दलित लेखकों, चिंतकों और बुद्धिजीवियों के लिए भी एक जीवंत तसवीर पेश करती है. मंजू देवी ठीक ही कहती हैं—‘हाशिए पर खड़े व्यक्ति की जिंदगियों से जुड़ी निर्मम-कठोर सच्चाइयां उजागर करके (यह) नीति बनाने वालों को रास्ता दिखायेगी.’ वह लिखती हैं—‘भारतवर्ष में जो आज़ादी आयी, उसका इन मोचियों से कुछ लेना-देना नहीं है. वे गाँवों में जब ज़मीदारों के खेतों पर काम करने जाते थे तो उनका आतंक बर्दाश्त के बाहर था. उस आतंक को सहने के बाद भी दो जून की रोटी नहीं मिल पाती थी.’ वह एक मोची की आपबीती बताती हैं—‘रीवा से शहर में आकर जब एक व्यक्ति ने मोची का काम शुरू किया, तो उसकी खुशी कल्पना के बाहर थी, क्योंकि उसे अब दो जून की रोटी मिल रही थी. यह कैसी आज़ादी है?’
डा. मंजू देवी ने अपने अध्ययन की शुरुआत मोचियों के संसार से की है. बनारस में ‘मोचियों का संसार’ बहुत मार्मिक और दयनीय है. वह लिखती हैं—शहर के राजघाट, मच्छोदरी, मैदागिन, मुकीम गंज, चौक, गोदौलिया, लंका, कैंट स्टेशन से चलकर आप कहीं भी चले जाइये, मोचियों के बैठने का स्थान नालियों के ठीक ऊपर है. चौक से दालमंडी की ओर जाने वाले रास्ते पर जहां मोची बैठते हैं, उनके ठीक सर पर सरकार का बनवाया हुआ पेशाब घर है. वहाँ इतनी बदबू है कि एक मिनट खड़ा नहीं रहा जा सकता. वहाँ मोची कैसे सुबह से रात तक बैठे रहते हैं? वह पूछती हैं-- ‘क्या अपने सामानों के साथ बैठने के लिए थोड़ी-सी जगह नहीं होनी चाहिए? उन्हें पूरे शहर में एक भी मोची नहीं मिला, जिसके पास बैठने के लिए साफ-सुथरा स्थान हो. उन्हें आश्चर्य होता है कि इस मांग को लेकर कोई मोची न सरकार से मांग करता है और न नेताओं से शिकायत. ‘सभी का अपना साहस और आत्मविश्वास है. अभाव, अन्याय और उत्पीडन की अँधेरी गुफा से बाहर निकलने के लिए सभी मोची अपना दीपक स्वयं बने हुए हैं.’
मोचियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति के सर्वे में डा. मंजू देवी के तथ्य व्यथित करने वाले हैं. वह कहती हैं कि बनारस में मोचियों के रहने का अपना बसेरा तक नहीं है. उनके आंकड़े बताते हैं कि 27 प्रतिशत मोची अपनी रात सड़कों पर और 20 प्रतिशत स्टेशन पर गुजारते हैं, जबकि 9 प्रतिशत मोची अपने रिश्तेदारों के यहाँ तो 35 प्रतिशत किराये के घरों में रहते हैं और ऐसे मोची, जिनके अपने घर हैं, वे केवल 9 प्रतिशत ही हैं. उनकी दिन-भर की आमदनी के आंकड़े भी संतोषजनक नहीं हैं. वह लिखती हैं, 10 प्रतिशत मोची 20 से 30 रु. रोज, 25 प्रतिशत मोची 31 से 50 रु. रोज, 50 प्रतिशत मोची 51 से 70 रु. रोज, 10 प्रतिशत मोची 71 से 100 रु. रोज और 5 प्रतिशत मोची ही 100 रु. से ऊपर रोज कमा पाते हैं.
मोचियों की शैक्षिक स्थिति के बारे में मंजू देवी बताती हैं कि शहर के जिन मोचियों से वह मिलीं, उनमे शिक्षा का स्तर काफी कम था. उनमे अधिकांश गरीबी के कारण नहीं पढ़ सके. कोई चौथी तक ही पढ़ सका तो किसी के बचपन पर घर की जिम्मेदारियों का बोझ था, इसलिए नहीं पढ़ सका. सर्वे के अनुसार जो चार्ट उन्होंने प्रस्तुत किया है, उनमे 40 प्रतिशत मोची निरक्षर हैं. साक्षर मोचियों की संख्या दस प्रतिशत है, जो दसवीं तक पढ़े हैं, उनकी संख्या पांच प्रतिशत और दसवीं से ऊपर पढ़ने वाले मोची केवल दो ही प्रतिशत हैं. शिक्षा की इस बदतर स्थिति पर मंजू देवी सही सवाल उठाती हैं- ‘ये नवोदय विद्यालय आखिर किसके लिए खोले गये हैं? क्या पूरे समाज में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जो इन्हें ऐसे विद्यालयों की जानकारी दे सके? क्या कोई ऐसा स्कूल नहीं खोला जा सकता, जहां समाज की मुख्य धारा से कटे लोगों को स्कूल भेजा जा सके? एक ऐसा स्कूल जहां भेदभाव न हो? घोटाला करने वाले सफ़ेद पोश न हों?’  
मंजू देवी ने मोचियों के परिवारों की स्थिति का भी जायजा लिया है. वह लिखती हैं कि गरीबी के कारण इन मोचियों के परिवार की बालिकाओं और स्त्रियों की शिक्षा पुरुषों से भी कम है. वे गरीबी से इस कदर ग्रस्त हैं कि अपनी लड़कियों की शिक्षा की बात करना भी उन्हें पसंद नहीं है.
मंजू देवी के अनुसार इन मोचियों की सबसे बड़ी समस्या उनके शौच और नहाने-धोने की है. वह लिखती हैं, बनारस जैसे भीड़-भाड़ वाले शहर में नाली पर बैठ कर दो वक्त की रोटी तो उन्हें मिल जाती है, पर पानी और शौच के लिए उन्हें बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं. वह गिरजाघर चौराहे पर कूड़े के ढेर के बगल में बैठे फूलचंद का बयान दर्ज करती हैं, जिसमे वह कहता है-‘हम तीस वर्षों से यहाँ बैठे हैं. शौचालय के लिए हम लोगों को बहुत परेशानी होती है. पांच लड़कियां और एक लड़का है. पाखाना करने के लिए हम लल्लापुर से पितरकुंडा या औरंगाबाद पानी की टंकी पर जाते हैं. सार्वजनिक शौचालय में दो रुपया प्रति व्यक्ति लगता है. बच्चों से एक रुपया ही लेते हैं. घर में न तो इतनी जगह है और न ही इतना पैसा है कि शौचालय बनवा सकें. हम लोग किसी तरह जीवन बिता रहे हैं.’ यही कहानी कैंट स्टेशन के राजाराम, चौकाघाट के दिनेश राम, कबीर चौरा के विकलांग जुगुल, मैदागिन के धूलबटोर और कोतवाली थाना के पीछे की टंकी के रामकिशुन की है. ‘सबसे दयनीय स्थिति’, मंजू देवी की दृष्टि में, ‘उन मोचियों की है, जो दालमंडी के नुक्कड़ पर पेशाबघर के साथ बैठते हैं. कोई व्यक्ति जहां एक मिनट खड़ा नहीं हो सकता, वहाँ वे पूरे दिन बैठ कर काम करते हैं. वह स्वतंत्रता का उपभोग कर रहे नागरिकों से सवाल करती हैं, ‘बनारस जैसे शहर के प्रतिदिन बदलते स्वरूप में आये दिन दो-चार नये मन्दिर बनते देखे जा सकते हैं. इस शहर में क्या कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है, जो इनकी मूलभूत समस्याओं की ओर ध्यान दे? देश स्वाधीन है, पर हम जिस समाज में रह रहे हैं, उसमें मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ है. आज मूल प्रश्न केवल विकास का नहीं है, बल्कि सामान्य लोगों की रोजी-रोटी का है.’ वह लिखती हैं, इन अभागे मोचियों के लिए शौच के स्थान खेत-मैदान (7.5%), रेलवे स्टेशन (10%), लाइन पार (10%), गंगा का किनारा (7.5%) और सार्वजनिक शौचालय (50%) हैं.
स्वच्छता, रहन-सहन और भोजन के अपने अध्ययन में डा. मंजू देवी का कहना है, जिन मोचियों से भी वह मिलीं, सबने बताया कि वे प्रतिदिन नहाते हैं, लेकिन उनका काम जिस तरह का है, उसमे गंदगी हो ही जाती है.’ वह लिखती हैं—‘मोचियों के लिए स्वच्छता एक स्वप्न की तरह है. गंदगी ही उसकी सबसे बड़ी मित्र है. जहां रहने के लिए जगह न हो, बैठने के लिए नालियों, पेशाबघर का सहारा हो, वहाँ स्वच्छता की बात करना ही बहुत बड़ा मजाक है. जिन मैले-कुचैले कपड़ों के साथ वह अपना जीवन बसर कर 50-60 रूपये रोज कमा लेता है, वहीँ उसके लिए शाम की रोटी का सवाल सफाई से बहुत ऊपर होता है.’ मंजू देवी उन मोचियों के घर के हालात भी बयान करती हैं, जो किराये पर घर लेकर रहते हैं. लिखती हैं—‘अधिकांश मोचियों के पास रहने के लिए छोटा अँधेरा कमरा है. कमरे गंदे हैं, उनमे न जाने कितने वर्षों से पुताई नहीं हुई है. एक ही कमरे में उन्हें सबकुछ करना पड़ता है. जहां पांच-छह लोग मिलकर एक कमरा लेकर रहते हैं, वहाँ तो स्थिति और भी बुरी है. रोजी-रोटी की चिंता में उनके पास समय नहीं होता कि सफाई पर ध्यान दें.’ वह बताती हैं, रीवा, नयी गढ़ी से रोजी-रोटी की तलाश में आकर ज्ञानपुर में रहने वाले बैजनाथ के कमरे में तो खिडकी भी नहीं है. पर उसे खुशी है कि दोनों वक्त खाना मिल जाता है. घरों में रहने वाले मोचियों की पानी की समस्या भी विकट है. वह बताती हैं, केवल तीन प्रतिशत मोचियों के घरों में ही नल है, बाकी को काफी दूर से पानी लेकर आना पड़ता है. दशाश्वमेध पर बैठने वाले उपेन्द्र राम बताते हैं कि जब तक वह घर पहुँचते हैं, सरकारी नल से पानी जा चुका होता है, तब वह काफी दूर से हैण्डपम्प से पानी लाकर खाना बनाते हैं.
यह कैसी आज़ादी है? मंजू देवी लिखती हैं, ‘देश की करोड़ों-करोड़ जनता बदहाली की हालत में है, उसके पास घर नहीं है, कपड़े नहीं हैं, ज़मीन नहीं है, शिक्षा नहीं है, खेती नहीं है, स्कूल का मुंह नहीं देखा है, पीने के लिए स्वच्छ जल नहीं है, शौचालय नहीं है, शहर में बैठ कर कमाने-खाने के लिए जगह नहीं है, पुलिस का आतंक है, गाँवों में ज़मीदारों का आतंक है. ऐसी स्थिति में इन मोचियों/दलितों के लिए आज़ादी का क्या अर्थ है?’ क्या कहा जाये? यही कहा जा सकता है कि कोई भी सरकार इनके प्रति कभी संवेदनशील नहीं रही. न कांग्रेस की सरकारें और न दलित के नाम पर बनी बहुजन की सरकार. और दलित-विरोधी अखिलेश-सरकार से तो अपेक्षा की ही नहीं जा सकती.
किताब का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय “अपनी कहानी : अपनी जुबानी” है, जिसमे डा. मंजू देवी ने उन मोचियों के बयान कलम-बंद किये हैं, जो दूसरे राज्यों और शहरों से पलायन करके बनारस आये हैं. इनमे कोई बिहार से आया है, कोई कोलकाता से, कोई उत्तराखंड से तो कोई मध्य प्रदेश से आकर यहाँ मोचीगीरी करके अपना पेट पाल रहा है. इनमे एक बारह साल का सदानंद भी है, जो ट्रेन में घूम-घूम कर जूते पालिस करता है. यह ठाकुर जाति का है. इससे लेखिका की मुलाकात भी देहरादून से बनारस आने वाली एक ट्रेन में होती है. इसके माता-पिता मर चुके हैं, चाचा-चाची ने घर में रहने नहीं दिया. कानपुर के नौबस्ता का रहने वाला यह लड़का दादी के सहारे अपनी छोटी बहिन को छोड़ कर काम पर आता है. वह खुद तो पढ़ना नहीं चाहता, पर बहिन को पढ़ाना चाहता है.
डा. मंजू देवी ने कर्ज में डूबे मोचियों का भी जिक्र किया है, जो मौसम, बीमारी या अशक्त होते शरीर की वजह से काम नहीं कर पाते हैं. ऐसी स्थिति में वे भारी ब्याज पर कर्ज लेकर घर का खर्चा चलाते हैं. कभी उन्हें इलाज या शादी आदि के कारज के लिए भी कर्ज लेना पड़ता है. कर्ज से ज्यादा ब्याज की मार उन्हें बर्बाद कर देती है. वे ब्याज भरते रहते हैं, मूल कर्ज ज्यों का त्यों रहता है. यह एक ऐसी दलदल है, जिसमें वे धंसते ही चले जाते हैं. लेकिन,   सर्वे बताता है कि कर्ज उन लोगों का बहुत बड़ा सहारा भी है. कर्ज के बिना उनका काम नहीं चल सकता. इसलिए बीस-पच्चीस हजार का कर्ज उन पर हमेशा बना ही रहता है.
अन्तिम अध्याय में डा. मंजू देवी ने मोचियों के जीवन का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है. यह विश्लेषण बहुत गहन और यथार्थपरक है, जो उनके जीवन को गहराई से देखे बिना नहीं हो सकता था. अशिक्षा, असुरक्षा, अभाव और दरिद्रता के बीच जी रहे मोचियों के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का जैसा मार्मिक और विचारोत्तेजक अध्ययन उन्होंने किया है, उससे उनकी यह पूरी किताब एक जीवंत दस्तावेज बन गयी है. इस दस्तावेज में प्रत्येक मोची की एक मार्मिक कहानी है. ऐसी कहानियां बहुत कम दलित साहित्य का हिस्सा बन पायी हैं. प्रत्येक दलित लेखक और बुद्धिजीवी को इस पुस्तक का अध्ययन करना चाहिए, न केवल उसे अपनी सर्जना का हिस्सा बनाने के लिए, वरन उनकी समस्याओं को सरकार के समक्ष रखने के लिए भी. कम से कम दलित नेताओं और अनुसूचित जाति आयोग को तो इसका संज्ञान लेना ही चाहिए.
07 जून 2013


मंगलवार, 4 जून 2013

Dr. Ambedkar On Hindu-Unity
(कँवल भारती)
फेसबुक पर कुछ दलित-बौद्ध मित्र डा. आंबेडकर को लेकर बहुत ही बचकानी हरकतें कर रहे हैं. डा. आंबेडकर को पढ़ने के नाम पर वे जीरो हैं, पर उनके बारे में दावा इस तरह करेंगे, जैसे वे सब कुछ जानते हैं और वे ही सबसे बड़े ‘आंबेडकर-ज्ञानी’ हैं. अब कल ही बात है कि एक सज्जन ने, जो अपने नाम के आगे ‘बौद्ध’ लगाते हैं, अंग्रेजी में एक कुटेशन (कुछ पंक्तियाँ) लिख कर यह पूछा कि ये पंक्तियाँ आंबेडकर की बताई जाती हैं, क्या कोई बताएगा कि ये पंक्तियाँ आंबेडकर की ही हैं? वह कुटेशन यह था—
      “If we achieve success in our movement to unite all the hindus in a single caste we shall have rendered the greatest service to the Indian nation in general and to the Hindu community in particular.”
      मैंने इन पंक्तियों को पढ़ने के बाद उनकी पोस्ट पर लिखा कि ये पंक्तियाँ डा. आंबेडकर की ही हैं. इस पर एक दूसरे “आंबेडकर-ज्ञानी” ने लिखा कि “मैं नहीं मानता.” मैंने कहा कि मैं उस किताब का नाम बता रहा हूँ, जिसमे ये पंक्तियाँ दर्ज हैं. यह किताब है—“Source Material On Dr. Babasaheb Ambedkar And The Movement Of Untouchables.” (Vol. 1, page 16) इस पर उसने पूछा—‘यह किसकी लिखी हुई है?’ मैंने जवाब दिया कि इसे किसी ने नहीं लिखा है. इसमें डा. आंबेडकर के वे बयान और भाषण संकलित हैं, जो उस समय के अख़बारों में छपे थे. इस किताब का प्रकाशन महाराष्ट्र सरकार ने किया है, और इसका संपादन-बोर्ड में वसंत मून जैसे आंबेडकर-विद्वान हैं. इस पर उन्हीं ‘पोस्ट लिखने वाले बौद्ध जी’ ने टिप्पणी की—“डा. आंबेडकर ने हिन्दू यूनिटी की कभी बात नहीं की.” इस पर गुस्सा आना स्वाभाविक था. मैंने कहा-- ‘क्या पैमाना है आपके पास आंबेडकर को मापने का?’
      इसका जवाब नहीं आया, और बाद में वो पोस्ट ही बंद हो गयी. दरअसल इन लोगों की समस्या यह है कि इनके दिमागों में यह बैठ गया है कि डा. आंबेडकर हिन्दू-विरोधी थे. यह समझ उनकी इसलिए बनी है, क्योंकि उन्होंने डा. आंबेडकर के दलित आन्दोलन के क्रमिक विकास को न जाना है और न समझा है. इसलिए वे शायद यह समझते हैं कि डा. आंबेडकर जन्म से ही हिन्दू-विरोधी थे और अन्त तक रहे. अगर उनसे यह कहा जाये कि अक्टूबर 1956 से पहले तो डा. आंबेडकर हिन्दू ही थे, तो फिर वे हिन्दू-एकता की बात क्यों नहीं कर सकते थे?  उपर्युक्त पंक्तियाँ डा. आंबेडकर के उस भाषण से ली गयीं हैं, जो उन्होंने महाद-सत्याग्रह के समय दिया था. यह भाषण डा. आंबेडकर ने 25 दिसम्बर 1927 को महाद-सम्मेलन में दिया था, जो ‘The Indian National Herald’ के 28 दिसम्बर 1928 के अंक में छपा था. इसी भाषण में उन्होंने महाद-सत्याग्रह की तुलना फ़्रांस की 1789 की राज्य-क्रान्ति से की थी. इसी भाषण में उन्होंने जाति-विहीन समाज के निर्माण के लिए दलितों के संघर्ष को राष्ट्र की सच्ची सेवा बताया था. उनके भाषण का वह पूरा पैरा, जिससे उपर्युक्त पंक्तियाँ ली गयी हैं, यह है---
      “Ours is a movement which aims at not only removing our own disabilities, but also at bringing about a social revolution, a revolution that will remove all man-made barriers of caste by providing equal opportunities to all to rise to the highest position and making no distinction between man and man so far as civic rights are concerned. If we achieve success in our movement to unite all the hindus in a single caste we shall have rendered the greatest service to the Indian nation in general and to the Hindu community in particular. The present caste-system with its invidious distinctions and unjust dispensations is one of the greatest sources of our communal and, National weakness. Our movement stands for strength and solidarity; for equality, liberty and fraternity. ...We refuse to be controlled and bound by the ‘Shastras’ and ‘Smrities’ composed in the Dark ages and base our claims on justice and humanity.” (Source Matrial On Dr. Babasaheb Ambedkar And The Movement Of Untouchables.” (Vol. 1, page 16)
       डा. आंबेडकर का यह भाषण महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रकाशित ‘Dr. Babasaheb Ambedkar Writings And Speeches, के Vol. 17 (part one) में भी पृष्ठ 24 पर देखा जा सकता है.
04 जून 2013    


शनिवार, 1 जून 2013

हिन्दी के फासिस्ट चिंतक और स्त्री-विरोधी दलित लेखक धर्मवीर के एक शिष्य रवीन्द्र प्रताप सिंह ने मुझे स्पीड पोस्ट से पत्र भेज कर आरोप लगाया है कि मैंने फेसबुक पर अपनी कबीर और डा. आंबेडकर संबंधी टिप्पणी में धर्मवीर की नकल की है. पत्र की ड्राफ्टिंग धर्मवीर की ही है, यह भी मैं जानता हूँ, क्योंकि जब मैंने उनके स्त्री-विरोध पर उन्हें मानसिक विक्षिप्त कहा था, तब उनके अनेक पत्र मेरे पास इसी शैली में आये थे. धर्मवीर को यह अहंकार हो गया है कि उनसे बड़ा कोई मौलिक चिंतक ही नहीं है. वह इस अवैज्ञानिक धारणा को दिमाग में भरे बैठे हैं कि दो लेखक एक जैसा नहीं सोच सकते. जबकि हिन्दी साहित्य से ही नहीं, पूरे विश्व साहित्य से इस तरह के एक-दो नहीं, सैकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं.
मैं सीधे धर्मवीर की मौलिकता पर आता हूँ, जिसका वे डंका पीटते हैं और जिसके कुछ कमजोर दिमाग वाले उनके चेले भी अनुयायी हैं. वह यह डंका पीटते और पिटवाते हैं कि सर्व प्रथम यह उनका ही मौलिक चिंतन है कि रामानंद कबीर के गुरु नहीं थे. वह चाहते हैं कि लोग इसे उन्हीं की खोज मानें. उनके चेले मान भी रहे हैं, कुछ और लोग भी मान रहे हैं; पर मैं नहीं मानता. मैंने इसका जिक्र अपनी किताब “कबीर का ज्ञानोदय” में किया भी है. कबीर पर धर्मवीर की पहली किताब का नाम है, “कबीर के आलोचक”, जिसका पहला संस्करण 1997 में आया था. इसी किताब में उन्होंने रामानंद को कबीर का गुरु माने जाने का खंडन किया है. इसका मतलब है कि धर्मवीर की यह तथाकथित मौलिक खोज कुल 16 साल पुरानी है. हो सकता है कि एक-दो साल पहले कुछ और जगह भी उन्होंने यह “खोज” कहीं लिखी हो. कुल मिला कर मैं उनकी इस “मौलिक खोज” को बीस साल पुरानी मान लेता हूँ.
अब मैं आपको बताता हूँ कि धर्मवीर की यह खोज हरगिज मौलिक नहीं है. दलित साहित्य में सर्व प्रथम 1960 में चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु ने रैदास को रामानंद का शिष्य माने जाने वाली किंवदंती का खंडन किया था. इसमें कबीर आसानी से शामिल किये ही जा सकते हैं. हिन्दी साहित्य में सर्व प्रथम 1940 में डा. राकेश गुप्त ने इस किंवदंती का खंडन किया था कि रामानंद कबीर के गुरु थे. उनका यह लेख “क्या कबीर रामानंद के शिष्य थे” शीर्षक से 1940 में ‘सम्मलेन पत्रिका’ में छपा था. तब कौन मौलिक हुआ? 1997 के धर्मवीर या 1940 के डा. राकेश गुप्त? अत: कहना ना होगा कि धर्मवीर ने अपनी अवधारणा को चंद्रिकाप्रसाद जिज्ञासु और डा. राकेश गुप्त के लेखन से चुराया है. यही नहीं, राकेश गुप्त की शैली का भी पूरा प्रभाव धर्मवीर के कबीर-लेखन पर है. मैं धर्मवीर की और स्थापनाओं पर भी खोज-खबर दे सकता हूँ. पर, फ़िलहाल इतना ही.

01 जून 2013