गुरुवार, 19 जनवरी 2017

छेदीलाल साथी
(कँवल भारती)
     अगर एक पंक्ति में परिचय देना हो, तो छेदीलाल साथी उत्तरप्रदेश के पहले पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष थे. किन्तु दूसरी पंक्ति में वह बोधानंद और शिवदयाल चौरसिया के बाद के दौर के सबसे जुझारू बहुजन योद्धा थे.
            सबसे पहले मैंने उनके बारे में अपने शहर रामपुर में ही सुना और वह भी एक शाइर के मुंह से. सिर्फ सुना ही नहीं, बल्कि उन्होंने अपनी किताब ‘अतीत से बातें’ में बाकायदा उनका जिक्र भी किया है. यह शाइर थे रघुवीरशरण दिवाकर राही, जो शाइरी में दिवाकर राही के नाम से मशहूर थे. उनका ‘शराबी’ पिक्चर में ये शे’र बहुत मकबूल हुआ था---‘आज तो उतनी भी मयस्सर नहीं मयखाने में, जितनी कि छोड़ दिया करते थे पैमाने में.’ उनके साथ मेरा काफी उठाना-बैठना था. मैं उन दिनों (1994-98) सिविल लाइंस में उनकी कोठी के पीछे रोशन बाग में सरकारी छात्रावास के मकान में रहता था. रविवार को कभी-कभी वह भी मेरे घर पर आ जाते थे और मैं तो उनके पास जाता ही रहता था. एक दिन जब मैं उनके निवास पर गया, तो मैंने देखा कि उनके पास एक सांवले रंग के दुबले-पतले व्यक्ति बैठे हैं, जिनकी आँखों पर काले फ्रेम का मोटे लेंस का चश्मा था. दिवाकर जी शहर के नामीगिरामी वकील भी थे. इसलिए उनके होने से मुझे आश्चर्य नहीं हुआ. उनके घर में मुझे सभी जानते थे, इसलिए मैं बिना समय लिए कभी भी शाम को अचानक ही उनके बैठके में चला जाता था. उस दिन भी अचानक ही चला गया था. वे चाय पी रहे थे. मुझे देखकर बैठने को कहा और आवाज देकर एक चाय मेरे लिए भी मंगाई. यह तो मैं जान गया था कि ये सज्जन कोई मेहमान हैं, क्योंकि वह रामपुर के कतई नहीं लग रहे थे. एक लड़का चाय दे गया, तो दिवाकर जी मुझसे बोले, ‘आप इन्हें जानते हैं?’ मैंने कहा, ‘नहीं. चहेरे से तो नहीं जानता, आप नाम बताएं, शायद जानता होऊं.’ बोले, ‘आप छेदीलाल साथी हैं, लखनऊ से तशरीफ़ लाये हैं.’ जब नाम सुना, तो मैंने आश्चर्य से दिवाकर जी से कहा कि ‘मैंने तो इनकी किताब भी पढ़ी है, जो आपने ही मुझे पढ़ने को दी थी.’ मैंने आगे कहा, ‘वह किताब ‘पिछड़े वर्गों का आरक्षण’ आज भी मेरे पास मौजूद है, जिसे साथी जी ने अपने हस्ताक्षर से 20 मार्च 1982 को आपको सप्रेम भेंट की थी.’ अब मैं साथी जी से मुखातिब हुआ, ‘सर मैं कुछ-कुछ आपको पहचानने की कोशिश तो कर रहा था, पर बार-बार दिमाग में गयाप्रसाद प्रशांत जी का चेहरा घूमे जा रहा था. उनकी शक्ल बिल्कुल आपसे मिलती है. पर अगर प्रशांत जी होते, तो मुझे तुरंत पहिचान लेते, मगर आप तक दिमाग नहीं पहुँच पा रहा था, इसलिए मौन था.’ अब दिवाकर जी ने मेरा परिचय दिया, ‘ये कँवल भारती हैं.’ मेरा नाम सुनते ही साथी जी बोले, ‘कांशीराम के दो चेहरे वाले. तो आप रामपुर से हो.’ इस तरह छेदीलाल साथी से मेरा पहला परिचय रामपुर में ही हुआ था.   
     मैं 1980 से 1986 तक नौकरी के लिए संघर्ष और नौकरी के दौरान लखनऊ में ही रहा था. 104, रायल होटल (जहां अब बापू भवन है) से लेकर रिसालदार पार्क के बुद्ध विहार तक और इंदिरा नगर से अलीगंज तक मैं अनेक ठिकानों पर रहा. इन सात सालों में ताड़ीखाना, कुकरेल, भूतनाथ, चिनहट, एचएएल गेट, हाईकोर्ट, अमीनाबाद, रानीगंज, नाकाहिंडोला, गुइन रोड, नजीराबाद, लाटूश रोड, जो गौतम बुद्ध मार्ग है, लालबाग, कैसर बाग, चारबाग, चौक, रकाब गंज, मौलवी गंज, और हजरत गंज के इलाके में जितना मैं पैदल चला और घूमा हूँ, उस दरद को सिर्फ मैं ही जानता हूँ. इस दौरान मैं दलित-पिछड़े वर्ग के अनेक नेताओं, लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के संपर्क में आया, जिन्होंने काफी हद तक मुझे प्रभावित भी किया. इन सात सालों में, मैं पूरी ईमानदारी के साथ कहता हूँ कि मैंने किसी के भी मुंह से छेदीलाल साथी का नाम नहीं सुना. उस 104, रायल होटल में भी मैंने उन्हें कभी नहीं देखा, जहां पूरे प्रदेश से बहुजन समाज के अधिकारी और नेता आकर बैठते थे. हाँ इस दौरान जब भी कभी मैं लालबाग के इलाके में कन्धारी बाज़ार से होकर गुजरता था, तो रास्ते में एक घनी बस्ती की एक दीवाल पर ‘बहुजन प्रिंटिंग प्रेस’ का साइन बोर्ड लगा हुआ देखता था. मैं अनगिनत बार उधर से गुजरा होऊंगा, और हर बार उस साइन बोर्ड को देखकर मुझे बस एक ही ख्याल आता था कि क्या जिज्ञासु जी का प्रेस यहाँ आ गया है, क्योंकि बहुजन नाम से मुझे हमेशा उनके ही प्रकाशन का बोध होता था. हालाँकि वह एक छोटी सी प्रेस थी, जो बहुत बार बंद मिलती थी. काफी सालों के बाद, संभवत: 1990 में, जब दिवाकर जी के सौजन्य से मुझे उनकी किताब ‘पिछड़े वर्गों का आरक्षण : इस युग की चुनौती’ मिली, और उसमें 48, कन्धारी बाजार का पता छपा देखा, तो मालूम हुआ कि वह प्रेस छेदीलाल साथी जी की थी, और वहीँ उनका रिहायशी मकान भी था. किन्तु वह रहते इंदिरा नगर के ए ब्लाक में थे. एक बार, शायद जब वो बीमार थे, तो दारापुरी जी के साथ मैं उनके मकान पर गया था. वहाँ भी उन्होंने मुझसे दिवाकर राही जी के स्वास्थ्य के बारे में पूछा था.
     बस कुल जमा यही दो मुलाकातें उनसे मेरी हुई थीं. यहाँ तक मैं जानता हूँ, उनके दो कार्य-क्षेत्र थे, एक, वह हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ में अधिवक्ता थे और दूसरे, वह दलीय राजनीति में सक्रिय रहे. साहित्य से उनका कोई बहुत ज्यादा गहरा सम्बन्ध नहीं रहा था, पर इसके बावजूद अनेक साहित्यकार उनके मित्र थे, जिनमें नन्दकिशोर देवराज, जोश मलीहाबादी, जिगर मुरादाबादी, एहसान दानिश, फ़िराक गोरखपुरी और दिवाकर राही रामपुरी के घनिष्ट संपर्क में रहे थे. सामाजिक आंदोलनों में उनके प्रेरणा स्रोत के रूप में उन्हें डा. आंबेडकर, राहुल सांकृत्यायन, आनन्द कौसल्यायन, बोधानन्द महास्थविर, रामचरन निषाद और शिवदयाल चौरसिया का सानिध्य मिला था. राजनीति के मैदान में उन्होंने अनेक बड़े राजनीतिकों के साथ काम किया था, जिनमें जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, डा. लोहिया, डा. जेड ए. अहमद, राहत मौलाई, डा. फरीदी, अली मियां साहेब, सैयद बदरुद्दीन और इब्राहीम सुलेमान सेठ उल्लेखनीय हैं. वह रामास्वामी नायकर से भी बहुत प्रभावित हुए थे और जब वह लखनऊ आये थे, तो उनकी राजनीति गतिविधियों में भी उनके साथ काम किया था. बाबासाहेब डा. आंबेडकर के परिनिर्वाण के बाद रिपब्लिकन पार्टी को स्थापित करने में उत्तर प्रदेश में उन्होंने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. 1959 से 1964 तक वह उत्तरप्रदेश में पार्टी के अध्यक्ष रहे थे. इसी पार्टी से वह 1964 में विधान परिषद के सदस्य निर्वाचित हुए, और 1970 तक इस पद पर रहे. उसके बाद महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी में हुई अंतर्कलह और फूट से तंग आकर वह कांग्रेस में चले गए, और कांग्रेस की ओर वह फिर से उत्तरप्रदेश में विधान परिषद के सदस्य निर्वाचित हो गए, और 1976 तक बने रहे. कहा जातक है कि रिपब्लिकन पार्टी छोड़ने के बाद कांग्रेस में उनकी उपस्थिति सिर्फ अपने तईं रह गई थी. वह दलित-पिछडों की आवाज तो उठाते थे, पर उसी वक्त, जब कांग्रेस में अपनी उपेक्षा महसूस करते थे. ठीक जगजीवन राम की तरह, जो सत्ता में न रहने पर दलित की बात करते थे, और सत्ता में रहकर दलित को भूल जाते थे. शायद इसीलिए 1973 में कांग्रेस की केन्द्र सरकार ने साथी जी को रूस, जर्मनी, टर्की, ग्रीक, हालैंड, इटली, ज़ेकोस्लोवाकिया, ईरान, आदि देशों के दौरे पर भेज दिया, जिस तरह एक समय कांग्रेस के नेता रामधन को, दलितों पर सर्वाधिक मुखर होने के कारण अनेक देशों की यात्रा पर भेज कर शांत कर दिया था. संभवत: साथी जी को भी इसी मकसद से विदेश यात्रा पर भेजा गया था. किन्तु साथी जी इस प्रकृति के बिल्कुल नहीं थे. विदेश यात्रा से जैसे ही साथी जी लौटकर आये, वह पिछड़े वर्गों की समस्याओं पर फिर मुखर हो गए, और इतने जोरदार ढंग से मुखर हुए कि उसने उत्तरप्रदेश की हेमवतीनंदन बहुगुणा सरकार को सर्वाधिक पिछड़ा वर्ग आयोग बनाने के लिए बाध्य कर दिया. परिणामत: 31 अक्टूबर 1975 को वह उस आयोग के अध्यक्ष नियुक्त कर दिए गए. संभवत: साथी आयोग उत्तरप्रदेश का पहला आयोग था, जिसने पूरे प्रदेश की अति पिछड़ी जातियों का अध्ययन करके 17 मई 1977 को अपनी रिपोर्ट पेश की. उन्होंने पिछड़े वर्गों की तीन श्रेणियाँ बनाकर 29.5 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की. उनकी पहली श्रेणी में भूमिहीन और अकुशल मजदूरों को 17 प्रतिशत, दूसरी श्रेणी में दस्तकार और किसानों को 10 प्रतिशत और तीसरी श्रेणी में मुस्लिम पिछड़ी जातियों को 2.5 आरक्षण देने की संस्तुति की गई थी. किन्तु सरकार ने साथी आयोग की सिफारिशों को नहीं माना. उल्लेखनीय है कि साथी जी जनवरी 1980 से दिसंबर 1980 तक मंडल आयोग के भी उत्तरप्रदेश से कोआपटेड सदस्य रहे थे.
     निस्संदेह हम कांग्रेस पर यथास्थिति बनाये रखने या प्रतिरोध को शांत करने का आरोप लगा सकते हैं, और यह है भी, पर इस सत्य की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती कि, इसके बावजूद, कांग्रेस ने दलित प्रतिभा को न सिर्फ उभरने का मौका दिया है, बल्कि जन हित में उस प्रतिभा का लाभ भी उठाया है. दलित-पिछड़े वर्ग को राजनीति में यह स्पेस अभी तक किसी अन्य पार्टी ने नहीं दिया है.
     छेदीलाल साथी साहित्य में पीएचडी थे, इसलिए कहना चाहिए डा. छेदीलाल साथी ने कांग्रेस में रहकर सिर्फ कांग्रेस के लिए ही नहीं, बल्कि बहुजन समाज के लिए भी काम किया.
2
प्रसिद्ध बहुजन आलोचक मुद्रा राक्षस ने अपने एक लेख में लिखा है कि लखनऊ की ‘आंबेडकर महासभा लंबे अरसे से ऐतरेय जैसे वफादारों की शरणस्थली बन चुकी है, वरना ऐसा क्यों होता कि कुछ बरस पहले जब मुंबई में हिन्दू तालिबानों ने आंबेडकर की मूर्ति को अपमानित किया था, तो सारे देश में इसका जबरदस्त प्रतिरोध  हुआ था. कुछ नहीं हुआ था तो वहाँ, जहाँ यह महासभा है.’
इस टिप्पणी के बाद मुद्रा जी ने डा. छेदीलाल साथी के सम्बन्ध में एक घटना का उल्लेख करते हैं. ‘अभी कोई तीन-चार बरस पहले कम्युनिस्ट पार्टी और दलित चिंतकों के बीच एक संवाद की कोशिश हुई थी. ए. बी. वर्धन भी उसमे आये थे और डा. छेदीलाल साथी भी थे. डा. छेदीलाल साथी आंबेडकर के साथ थे. दलित और पिछड़ों के आयोगों में उनकी बड़ी भूमिका रही है. मंत्री भी रह चुके हैं. उन्होंने खुलकर दलित पक्ष से बोलते हुए बताया कि दलित नेताओं का कम्युनिस्टों से क्या विरोध है. ए. बी. वर्धन अत्यंत कुशल और प्रभावशाली वक्ता हैं. लिहाज उन्होंने भी नहीं किया. उन्होंने बताया कि उन्हें दलित नेतृत्त्व से क्या शिकायतें हैं.’
इस घटना को स्मरण करंते हुए मुद्रा जी अपने विषय पर आते हैं—‘मैं दोनों की ही इज्जत करता रहा हूँ. अध्यक्ष के तौर पर मैं दोनों ही पक्षों पर अफ़सोस जाहिर कर सकता था कि संवाद जैसी चीज का प्रयत्न वहाँ नहीं हुआ, जहां होना था. आज जब आंबेडकर महासभा में शिलान्यास शिलान्यास एक भारतीय जनता पार्टी के नेता के हाथों बड़े गर्व से करा डाला गया, मुझे डा. छेदीलाल साथी का वह तेवर याद आ रहा है, जो उन्होंने ए. बी. वर्धन के सामने बोलते हुए दिखाया था.’
आगे मुद्रा जी बहुत महत्वपूर्ण बात कहते हैं- ‘डा. साथी उक्त आंबेडकर महासभा का संचालन करते हैं. डा. साथी और पारसनाथ मौर्य जैसे उनके साथी जब बोधिवृक्ष नष्ट करने वाली विचारधारा का इतना स्वागत करते हैं, तो कम्युनिस्ट का विरोध करें, यह गुत्थी थोड़ी खुलती दिखती है. सच का खुलासा ज्यादा मुश्किल नहीं है. ब्राह्मणों का दलाल बन जाने के बाद ऐतरेय दलित विरोधी ही नहीं हुआ था, सवर्णों का सबसे अग्रणी सहायक भी बन गया था. आंबेडकर महासभा के ऐतरेयों को जब सवर्ण सत्ताधारी पसंद आता है, तो कम्युनिस्ट भी बुरा लगेगा, मुलायम सिंह भी और मायावती भी. बहस में वह इन्हें अपना दुश्मन घोषित करेगा.’
यह मुद्रा जी का अतिवादी विश्लेषण हो सकता है, पर यह सच है कि आंबेडकर महासभा के पदाधिकारी कम्युनिस्टों से दूरी और भाजपा के नेताओं के साथ अपनी निकटता दिखाते रहे हैं, और डा. छेदीलाल साथी भी उनसे अलग नहीं थे.
अस्सी के दशक में एक दलित आईएएस अधिकारी डी. पी. वरुण ने इन्दिरानगर, लखनऊ में प्रेस लगाया था, जब उन्होंने एक पत्रिका निकालने की योजना बनाई, तो डा. साथी से उनका सलाह-मशवरा हुआ. शायद साथी जी भी कोई अखबार या पत्रिका निकाल रहे थे. जिसका नाम ‘गरिमा भारती’ था. गरिमा साथी जी की बेटी का नाम है. साथी जी ने वरुण जी को इसी नाम पर राजी कर लिया. अत: साथी जी के संपादन में वरुण जी की संस्था से ‘गरिमा भारती’ पत्रिका का प्रकाशन शुरू हो गया, जो डिमाई आकार में थी और कुछ-कुछ दिल्ली प्रेस की पत्रिका ‘सरिता’ का अहसास कराती थी. संभवतः उसी समय या बाद में डा. अंगने लाल भी उससे जुड गए थे. पर यह पत्रिका लम्बी नहीं चली, और चल भी नहीं सकती थी, क्योंकि साथी जी और वरुण जी के विचार समान नहीं थे. उनके विचार समान हो भी नहीं सकते थे. कारण, एक तरफ राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं थी, और दूसरी तरफ सामाजिक और बौद्धधर्म की विचारधारा थी, जिनमें टकराव होना ही था. वह पत्रिका काफी लंबे अरसे तक बंद रही. पर, आजकल वरुण जी चार पन्नों के अखबार के रूप में उसके प्रकाशन की रस्म को बराबर निभा रहे हैं.
1982 में प्रकाशित डा. साथी की किताब ‘पिछड़े वर्गों का आरक्षण : इस युग की चुनौती : संवैधानिक व ऐतिहासिक पृष्टभूमि में’ उनकी पहली पुस्तक थी, जो उन्होंने ऐसे समय में लिखी थी, जब वह उत्तरप्रदेश कानूनी सहायता बोर्ड के सदस्य थे. इस पुस्तक पर अनेक विद्वानों और नेताओं ने अपनी सम्मतियाँ लिखी हैं. जिनमें कर्पूरी ठाकुर, सीताराम निषाद, शिवदयाल सिंह चौरसिया और डा. नंदकिशोर देवराज मुख्य हैं. डा, देवराज हिन्दी के प्रखर कवि और आलोचक थे और वाराणसी हिन्दू विश्विद्यालय में दर्शन विभाग के अध्यक्ष रह चुके थे. वह लखनऊ में निशात गंज में रहते थे, जहां मैं उनसे पहली बार मिला था. मेरे लिए यह गौरव की बात थी कि उनका गृहजनपद रामपुर ही था. साथी जी की किताब पर उन्होंने सबसे विचारोत्तेजक टिप्पणी लिखी थी, जो यह थी—‘मेरा अनुमान है कि इस देश में दूसरी क्रान्ति होने वाली है, जो आर्थिक क्रान्ति से भी भीषण होगी, अर्थात ब्राह्मणवाद के विरुद्ध मानववाद की क्रान्ति, तथाकथित ऊँची जातियों के विरुद्ध दलित व पिछड़ी जातियों का खुला विद्रोह. यदि सवर्ण हिन्दुओं ने सहज भाव से उक्त जातियों को अधिकार न दिए तो रक्त भरी क्रान्ति अनिवार्य है.’
पिछड़े वर्गों पर चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु की 1957 में लिखी गई पुस्तक ‘पिछड़ा वर्ग कमीशन की रिपोर्ट और पिछड़े वर्ग के वैधानिक अधिकारों का सरकार द्वारा हनन’ के एक लम्बे अरसे के बाद संभवत: यह पहली पुस्तक थी, जो डा. साथी ने पिछड़े वर्गों की स्थिति पर लिखी थी. अस्सी के दशक के अंत में गुजरात और तमिलनाडु में आरक्षण के विरोध में सवर्णों के तीव्र आन्दोलन हुए थे. दूसरी तरफ फरवरी 1982 में कर्पूरी ठाकुर, रामनरेश यादव और चौधरी ब्रह्मप्रकाश के नेतृत्त्व में पिछड़े वर्गों ने अपने वैधानिक अधिकारों के लिए दिल्ली में विशाल प्रदर्शन किया था. डा. साथी ने इन्हीं परिस्थितियों को ध्यान में रखकर यह पुस्तक लिखी थी, और जिसका उद्देश्य आरक्षण-विरोधियों के सोये हुए विवेक और उनकी मानवीय नैतिकता को जगाना था.
इस किताब के लगभग दस साल बाद 1992 में डा. छेदीलाल साथी की दूसरी किताब “भारत की आम जनता-शोषण मुक्त व अधिकार-युक्त कैसे हो” प्रकाशित हुई. इसके पहले पृष्ठ पर मोटे अक्षरों में लिखा हुआ है- ‘फ़्रांस की जनक्रांति की पृष्ठभूमि में आज के भारतीय समाज का मूल्यांकन.’ लेकिन यह पुस्तक वास्तव में पहली पुस्तक का ही विस्तार है. इसमें पिछड़े वर्गों के अनेक नेताओं का संक्षिप्त परिचय भी दिया गया है, जिनके साथ उन्होंने काम किया था. किताब के अंत में डा. साथी लिखते हैं कि पिछड़े वर्गों के सामने दो ही रास्ते हैं- एक शांति का और दूसरा क्रान्ति का. उन्होंने दोनों ही रास्तों का स्वागत किया है. और अंत में लिखा है, ‘अति का अंधेर जागृति  पैदा करता है, जो जनक्रांति और खूनी क्रान्ति का रूप भी धारण कर सकता है. लेकिन देश समाज, राष्ट्र और स्वयं शोषक वर्ग के लिए अन्ततोगत्वा वह बहुत मंहगा पड़ेगा. फ़्रांस में दो सौ वर्ष पहले जो खूनी क्रान्ति हुई थी, वैसी भारत में वर्तमान व निकट भविष्य में कभी भी हो सकती है.’
लेकिन दलित-पिछड़े वर्गों की कोई ख़ूनी क्रान्ति भारत में नहीं हुई, जबकि सवर्णों को जब भी अवसर मिलता है, वे ख़ूनी प्रतिक्रांति को कभी भी अंजाम दे देते हैं. डा. साथी की इस पुस्तक पर अनिल सिन्हा ने “आम जनता के लिए जरूरी किताब” शीर्षक से एक लम्बी समीक्षा लिखी थी, जो 27 फरवरी 1993 को नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुई थी. मैं यहाँ उस समीक्षा की इन पंक्तियों को उद्धृत करना जरूरी समझता हूँ—
     ‘छेदीलाल जी का जीवन एक तरह से समाजवादी व गांधीवादी आंदोलनों के साथ बीता है. इसलिए अपने जीवन का लम्बा समय आंबेडकर के साथ गुजार कर भी वह अंत में कांग्रेस पार्टी की तरफ से विधान परिषद के सदस्य रहे. यही कारण है कि इस पुस्तक में दलितों व पिछड़ी जातियों को समाज-परिवर्तन के लिए कोई क्रान्तिकारी व समतामूलक वैचारिक चेतना नहीं मिलती. प्रच्छन रूप से यह बात इस पुस्तक में आई है कि समाज का सबसे दलित वर्ग गाँधी के रास्ते चलकर अपने अधिकार हासिल करे.’
     लेकिन यह निष्कर्ष ठीक नहीं है. डा. साथी ने लोकतान्त्रिक और संवैधानिक तरीके से अपने अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ने का समर्थन किया है, जो डा. आंबेडकर का भी रास्ता है.

(17 नवम्बर 2016)                                               

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