शनिवार, 21 सितंबर 2013

मंगलवार, 10 सितंबर 2013


दंगे रोके जा सकते हैं
कॅंवल भारती
साम्प्रदायिक और जातीय दंगों की जड़ें हमारे समाज में ही मौजूद हैं, राजनीतिक लोग तो बस उसका लाभ उठाते हैं। ये जड़ें हैं-धर्म और जातिकी। बहुसंख्यक लोगों के सामाजिक-आर्थिक शोषण की बुनियाद में भी यही दोनों चीजें हैं और अल्पसंख्यक लोगों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान में भी यही दोनों चीजें हैं। इस सच्चाई को अल्पसंख्यक (शोषक) वर्ग तो अच्छी तरह समझता है, पर बहुसंख्यक (शोषित) वर्ग समझने की कोशिश नहीं करता। उन पर धार्मिक शासन करते हैं उनके धर्मगुरु और राजनीतिक शासन करते हैं उनके जातीय नेता। ये जातिवादी नेता हजारों साल पुराने अर्द्धबर्बर सामन्तवादी वर्णवादी समाज को जिन्दा रखना चाहते हैं, जिसके लिये वे देश के लोकतन्त्र और संविधान को भी मानने को तैयार नहीं हैं। उनकी गुलामी के दमन-चक्र से जब दलित जातियाॅं मुक्त होकर अपने लोकतान्त्रिक और संवैधानिक अधिकारों का उपभोग करने लगती हैं, तो उसे दबाने के लिये उनकी हिन्सा इतनी उग्र हो जाती है कि गाॅंव के गाॅंव उसकी आग में जल जाते हैं। फिर शुरु होती है, वोट की राजनीति, जिसका बहुत ही मार्मिक चित्रण दलित कवि मलखान सिंह ने इन पंक्तियों में किया है-
मदान्ध हाथी लदमद भाग रहा है/हमारे बदन गाॅंव की कंकरीली गलियों में घिसटते हुए लहूलुहान हो रहे हैं।/हम रो रहे हैं/गिड़गिड़ा रहे हैं, जिन्दा रहने की भीख माॅंग रहे हैं गाॅंव तमाशा देख रहा है और हाथी अपने खम्भे जैसे पैरों से हमारी पसलियाॅं कुचल रहा है/ण्ण्ण्ण्ण्ण्
इससे पूर्व कि यह उत्सव कोई नया मोड़ ले, शाम थक चुकी है/हाथी देवालय के अहाते में आ पहुॅंचा है।ण्ण्ण्ण्ण्ण्देवगण प्रसन्न हो रहे हैं/कलियर भैंसे की पीठ पर चढ़ यमराज लाशों का निरीक्षण कर रहे हैं/देवताओं का प्रिय राजा मौत से बचे हम स्त्री-पुरुष और बच्चों को रियायतें बाॅंट रहा है/मरे हुओं को मुआवजा दे रहा है।/लोकराज अमर रहे का निनाद दिशाओं में गूॅंज रहा है।
आजादी के 66 साल बाद भी बहुत से राज्यों में यह मदान्ध हाथी अभी भी अपने वर्चस्व का खूनी खेल खेल रहा है, क्योंकि वोट की राजनीति में यही खेल शासक वर्ग को संजीवनी प्रदान करता है।
यही कहानी साम्प्रदायिक दंगों की है। दंगे यूॅं ही नहीं होते, न वे अकस्मात होते हैं। उनकी पृष्ठभूमि महीनों पहले से तैयार की जाती है। कभी-कभी मामूली अपराध की घटना को भी साम्प्रदायिक रंग देकर दंगा करा दिया जाता है। मुजफ्फरनगर में यही हुआ। वहाॅं कवाल गाॅंव में एक लड़की को लेकर विवाद हुआ था, जिसमें दो पक्षों के बीच हुई हिन्सा में एक मुस्लिम और दो हिन्दू (जाट) युवक मारे गये थे। यह हत्या का आपराधिक मामला था, जिसमें कानून अपना काम कर रहा था। पर, सपा और भाजपा दोनों ने इस घटना पर राजनीति करने की कोशिश शुरु कर दी। भाजपा के स्थानीय नेताओं की शह पर नंगला मंदौड़ में 7 सितम्बर को जाटों की महापंचायत हुई, जिसे ‘बहु-बेटी सम्मान बनाम हिन्दू बचाओ’ नाम दिया गया। इस महापंचायत का दिन, समय और तारीख पहले से ऐलान की गयी थी। सवाल यह है कि प्रशासन ने इस पंचायत को क्यों होने दिया? ऐसा नहीं कहा जा सकता कि सरकार को इसकी खबर नहीं थी। फिर सरकार ने इसे रोकने की कोशिश क्यों नहीं की? कहना न होगा कि आजम खाॅं मुजफ्फरनगर के प्रभारी हैं, जिन्हें सारे हालात की जानकारी थी। फिर क्या कारण है कि उन्होंने शासन के द्वारा इस महापंचायत पर प्रतिबन्ध नहीं लगवाया? जब सन्तों की चैरासी कोसी परिक्रमा पर प्रतिबन्ध लग सकता है, तो महापंचायत पर क्यों नहीं? इसका अर्थ तो यही हुआ कि महापंचायत का ऐलान भी सुनियोजित था और उसे बिना रोक-टोक के होने देना भी। अब सपा नेता मुसलमानों के जख्मों पर मरहम लगा कर उनका वोट अपने पक्ष में पक्का कर रहे हंै, तो भाजपा नेता सपा पर हिन्दूविरोधी होने का आरोप लगा कर हिन्दुओं को अपने पक्ष में ध्रुवीकृत करने की राजनीति कर रहे हंै। पर, यह तो आने वाला वक्त बतायेगा कि ऐसा कोई ध्रुवीकरण होगा भी या जनता इनको  सबक सिखायेगी और ये दोनों ही मुॅंह की खायेंगे!
10 सितम्बर के ‘दि हिन्दू’ में दंगे की शिकार एक महिला और उसकी 5-6 साल की मासूम बच्ची की तस्वीर छपी है। बच्ची की पूरी बाॅंह पर पट्टियाॅं बॅंधी हैं और एक ओर के गाल पर भी बेन्डेड है। वह इस कदर तकलीफ में है कि अपने दूसरे हाथ से अपना सिर पकड़े हुए है। मुझे इसमें अपनी पोती नजर आयी और इसे देख कर मैं फफक पड़ा। मैं नहीं जानता कि यह बच्ची किस धर्म और किस जाति की है? पर, इस मासूम पर हमला बोलने वाले न हिन्दू हैं और न मुसलमान, वे केवल दरिन्दे हैं और ऐसे दरिन्दे, जिन्हें इन्सानियत की अदालत में कभी माफ नहीं किया जा सकता। लेकिन, ये ही दरिन्दे कल या तो भगवा ओढ़े हुए होंगे या साइकिल की सवारी कर रहे होंगे। हे पीडि़त लोगों! तुम्हें कसम है इन्सानियत की, इन संविधान और लोकतन्त्र के दुश्मनों को कभी वोट मत देना।
साम्प्रदायिक दंगों में कौन मरता है? न उच्च हिन्दू मरते हैं और न उच्च मुसलमान। इन दंगों में केवल दलित, गरीब और मजलूम इन्सान मरते हैं, चाहे वे हिन्दू हों, मुसलमान हों, सिख हों और चाहे ईसाई हों। दंगा कराने वाले लोगों का यही मकसद होता है कि दलित, गरीब और मजलूम लोग कभी भी आर्थिक रूप से मजबूत नहीं हो सकें। इसलिये वे जब देखते हैं कि इनका आर्थिक स्तर उठ रहा है, तो वे उन्हें धर्म और जाति के नाम पर गुमराह करके दंगों के जरिये इस तरह तबाह कर देते हैं कि वे अपने जीवन-संघर्ष में फिर से पिछड़ जाते हैं। इस राजनीति को समझना होगा, न सिर्फ इन्सानियत को, बल्कि लोकतन्त्र को भी बचाने के लिये।
10 सितम्बर 2013