सोमवार, 29 अक्तूबर 2012


वाल्मीकि जयंती  और दलित मुक्ति का प्रश्न 

कँवल भारती

      आज वाल्मीकि जयंती है. सरकार ने आज की छुट्टी घोषित की है. अगर यह छुट्टी रामायण के रचयिता आदि कवि वाल्मीकि के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए होती, तो यह एक अलग प्रश्न होता. तब वेदों, गीता, महाभारत के रचयिताओं के नाम की छुट्टियों का प्रश्न भी पैदा होता. लेकिन ऐसा नहीं है. यह छुट्टी सरकार ने सफाई कर्मचारियों को ध्यान में रख कर घोषित की है. अब सवाल यह विचारणीय है कि वाल्मीकि का सफाई कर्मचारियों से क्या सम्बन्ध बनता है? वाल्मीकि मंचों से भी इस दिन छुआछूत और दलित मुक्ति पर चर्चा होती है. पर क्यों? यह प्रश्न मुझे बहुत परेशान करता है. मैंने इस विषय में बहुत मंथन किया, बहुत अध्ययन किया और बहुत सोचा, पर मेरा समाधान नहीं हुआ. आज भी यह सवाल अनसुलझा ही है कि दलित मुक्ति से वाल्मीकि का क्या संबंध है? वाल्मीकि ब्राहमण थे,यह बात रामायण ही हमें बताती है. वाल्मीकि ने कठोर तपस्या की, यह भी पता चलता है. दलित परम्परा में तपस्या की अवधारणा ही नहीं है. यह वैदिक परम्परा की अवधारणा  है. इसी वैदिक परम्परा से वाल्मीकि आते हैं. वाल्मीकि का आश्रम भी वैदिक परम्परा का गुरुकुल है, जिसमें ब्राह्मण और  राजपरिवारों के बच्चे विद्या अर्जन करते हैं. ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि वाल्मीकि ने शूद्रों को शिक्षा दी हो. अछूत जातियों की या सफाई कार्य से जुड़े लोगों की मुक्ति के संबंध में भी उनके किसी आन्दोलन का पता नहीं चलता. फिर वाल्मीकि सफाई कर्मचारयों के  भगवान  कैसे हो गए?
       जब हम इतिहास का अवलोकन करते हें, तो १९२५ से पहले हमें वाल्मीकि शब्द नहीं मिलता.  सफाई कर्मचारियों  और चूह्डों को हिंदू फोल्ड में बनाये रखने केउद्देश्य से उन्हें वाल्मीकि से जोड़ने और वाल्मीकि नाम देने की योजना बीस के दशक में आर्य समाज ने  बनाई थी. इस काम को जिस आर्य समाजी पंडित ने अंजाम दिया था, उसका नाम अमीचंद शर्मा था। यह वही समय है, जब पूरे देश में दलित मुक्ति के आन्दोलन चल रहे थे. महाराष्ट्र में डा. आंबेडकर का हिंदू व्यवस्था के खिलाफ सत्याग्रह,  उत्तर भारत में स्वामी अछूतानन्द का आदि हिंदू आन्दोलन और पंजाब में मंगूराम मूंगोवालिया का आदधर्म आन्दोलन उस समय अपने चरम पर थे. पंजाब में दलित जातियां बहुत तेजी से आदधर्म स्वीकार कर रही थीं. आर्य समाज ने इसी क्रांति को रोकने के लिए अमीचंद शर्मा को काम पर लगाया. योजना के तहत अमीचंद शर्मा ने सफाई कर्मचारियों के महल्लों में आना-जाना शुरू किया. उनकी कुछ समस्याओं को लेकर काम करना शुरू किया. शीघ्र ही वह उनके बीच घुल-मिल गया और उनका नेता बन गया. उसने उन्हें डा. आंबेडकर, अछूतानन्द और मंगूराम के आंदोलनों के खिलाफ भडकाना शुरू किया. वे अनपढ़ और गरीब लोग उसके जाल में फंस गए. १९२५ में अमीचंद शर्मा ने 'श्री वाल्मीकि प्रकाश' नाम की किताब लिखी, जिसमें उसने वाल्मीकि को उनका गुरु बताया और उन्हें वाल्मीकि का धर्म अपनाने को कहा. उसने उनके सामने वाल्मीकि धर्म की रूपरेखा भी रखी. आंबेडकर, अछूतानन्द और मंगूराम के आन्दोलन दलित जातियों को गंदे पेशे छोड़ कर स्वाभिमान के साथ साफ-सुथरे पेशे अपनाने को कहते थे. इन आंदोलनों के प्रभाव में आकार तमाम दलित जातियां गंदे पेशे छोड़ रही थीं. इस परिवर्तन से हिंदू बहुत परेशान थे. उनकी चिंता यह थी कि अगर सफाई करने वाले दलितों ने मैला उठाने का काम छोड़ दिया, तो हिंदुओं के घर नर्क बन जायेंगे. इसलिए अमीचंद शर्मा ने वाल्मीकि धर्म खड़ा करके सफाई कर्मी समुदाय को 'वाल्मीकि समुदाय' बना दिया. उसने उन्हें दो बातें समझायीं। पहली यह कि हमेशा हिन्दू धर्म की जय मनाओ, और दूसरी यह कि यदि वे हिंदुओं की सेवा करना छोड़ देंगे, तो न् उनके पास धन आएगा और न् ज्ञान आ पा पायेगा.
      अमीचंद शर्मा का षड्यंत्र कितना सफल हुआ, यह आज हम सबके सामने है.आदिकवि वाल्मीकि के नाम से सफाई कर्मी समाज वाल्मीकि समुदाय के रूप में पूरी तरह स्थापित हो चुका है. 'वाल्मीकि धर्म 'के संगठन पंजाब से निकल कर पूरे उत्तर भारत में खड़े हो गए हैं. वाल्मीकि धर्म के अनुयायी वाल्मीकि की माला और लोकेट पहनते हैं. इनके अपने धर्माचार्य हैं, जो बाकायदा प्रवचन देते हैं और कर्मकांड कराते हैं. ये वाल्मीकि जयंती को प्रगटदिवस कहते हैं. इनकी मान्यता है कि वाल्मीकि भगवान हैं, उनका जन्म नहीं हुआ था, वे कमल के फूल पर प्रगट हुए थे, वे सृष्टि के रचयिता भी हैं और उन्होने रामायण की रचना राम के जन्म से भी चार हजार साल पहले ही अपनी कल्पना से लिख दी थी.

२९ अक्टूबर २०१२

रविवार, 28 अक्तूबर 2012

सवाल प्रतिनिधित्व का है, आरक्षण का नहीं 

कँवल भारती

      नामवर सिंह ने गत दिनों दस किताबों का विमोचन किया। उनमें एक किताब दलित लेखक अजय नावरिया की थी। दसों किताबें सवर्णों की होनी चाहिए थीं। उनमें एक दलित कैसे घुस गया? प्रकाशक की यह मजाल कि वह  सवर्णों  की जमात में दलित को खड़ा कर दे! बस नामवर सिंह का पारा चढ़ गया। वह जितना गरिया सकते थे, उन्होंने दलित को गरियाया। फिर उन्होंने  फतवा दिया कि अगर साहित्य में लेखकों को आरक्षण मिलने लगे तो वह राजनीति की तरह गंदा हो जाएगा। कोई दलित के नाम पर पागल हो चुके इस छद्म वामपंथी से यह पूछे कि अगर सवर्ण इतने ही साफ़ सुथरे थे, तो भारत दो हजार वर्षों तक गुलाम क्यों बना? आज जब दलित लेखक तुम्हारे साहित्य, धर्म और संस्कृति की बखिया उधेड़ रहे हैं, तो तुम्हे यह गन्दा लग रहा है। आज दलित के मुहं में जुबान आ गयी है, अपनी बात कहने के लिए, तो नामवर सिंह को यह गंदगी दिखाई दे रही है। सामन्तवाद की जुगाली करने वाला यह छद्म प्रगतिशील कह रहा है कि साहित्य में आरक्षण देने से राजनीति की तरह साहित्य भी गन्दा हो जायेगा। यह घोर दलित विरोधी बयान ही नहीं है, लोकतंत्र विरोधी बयान भी है। यह राजशाही का समर्थन करने वाला बयान है, जिसमें शूद्रों और दलितों के लिए गुलामी के सिवा कोई अधिकार नहीं थे। ऐसा लगता है कि नामवर सिंह ने इतिहास नहीं पढ़ा है। अगर पढ़ा होता तो उन्हें मालूम होता कि भारत की राजनैतिक सत्ता ब्रिटिश ने कांग्रेस को सौपी थी, न कि दलितों को। चार दशकों तक भारत पर कांग्रेस ने राज किया, जो ब्राह्मणों, सामन्तों और पूंजीपतियों की पार्टी थी। फिर नामवर सिंह बताएं कि राजनीति को किसने गन्दा किया? क्या कांग्रेस में दलितों की चलती थी? दलित तो कांग्रेस में यसमैन थे। वे न नीति निर्माता थे और न फैसला लेने वाले। तब जाहिर है कि राजनीति को गन्दा करने वाले लोग ब्राह्मण, ठाकुर और बनिया हैं। पिछले दस सालों में भ्रष्टाचार के जितने भी घोटाले हुए हैं, उनके करने वाले सब के सब सवर्ण हैं। हाँ, कुछ दलित भी जरूर भ्रष्ट हुए हैं, पर उन्होंने सिर्फ भ्रष्ट व्यवस्था का लाभ उठाया है। दलित नेता चाहे मायावती हों, चाहे मुलायम सिंह, वे व्यवस्था के निर्माता नहीं हैं, सिर्फ लाभार्थी हैं।
      नामवर सिंह किस आरक्षण की बात कर रहे हैं? ऐसा लगता है कि उन्हें आरक्षण फोबिया हो गया है। क्या वह कोई उदाहरण दे सकते हैं कि कब दलित लेखकों ने साहित्य में आरक्षण की मांग की है? दलितों ने नौकरियों में आरक्षण की मांग की है, जो उनका संवैधानिक अधिकार है। इस अधिकार के तहत कुछ दलित विश्वविद्यालयों में नौकरी पा गये हैं। संयोग से वे लेखक भी हैं। अजय नावरिया भी जामिया मिलिया में प्रोफेसर हैं। नामवर सिंह को यही आरक्षण हजम नहीं हो रहा है। साहित्य तो सिर्फ बहाना है। जिन विश्वविद्यालयों में द्विजों का राज था, उनमें दलित उन्हें बर्दाश्त नहीं हो रहा है। कल्पना कीजिये, जब विश्वविद्यालयों में मुट्ठी भर दलितों का यह प्रताप है कि देश के सारे विश्वविद्यालयों में दलित साहित्य पढ़ाया जाने लगा है, तो पचास-साठ साल बाद क्या हाल होगा, जब विश्वविद्यालयों में दलितों का भरपूर प्रतिनिधित्व होगा? दरअसल नामवर सिंह इसीको गंदगी कह रहे हैं। इन सामंतों को कैसे समझाया जाए कि जिसे वो आरक्षण कह रहे हैं, वो प्रतिनिधित्व है। दलित आरक्षण नहीं, अपना प्रतिनिधित्व चाहते हैं। साहित्य में भी दलित लेखक प्रतिनिधित्व की बात करते हैं। अगर नामवर सिंह चाहते हैं कि साहित्य में द्विजों का ही प्रतिनिधित्व बना रहे, तो ऐसा साहित्य अलोकतांत्रिक और वर्णवादी ही होगा। और ऐसा साहित्य आज नहीं तो कल, कूड़ा घर में ही पड़ा होगा।    


28 अक्टूबर 2012 
       









मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012


मलाला तुम मर नहीं सकतीं 
कँवल भारती 


तालिबान तुम से  डर गया मलाला 
तुम्हारी तहरीक ने तालिबान को परास्त कर दिया
तुमने इस्लाम को बचा लिया। 
तुम इस्लाम की अप्रितम योद्धा हो 
तुम नहीं मर सकतीं मलाला 
तुम पाक के मुस्लिम इतिहास में हमेशा जीवित रहोगी 
जैसे भारत के हिन्दू इतिहास में शम्बूक जीवित है। 
तुमने तालिबान की वर्ण व्यवस्था को ललकारा है, 
जो ख्वातीन की शिक्षा पर पाबन्दी लगाती है, ठीक उसी तरह 
जैसे शम्बूक ने ललकारा था रामराज्य की वर्ण व्यवस्था को,
जिसमें शूद्रों की शिक्षा पर पाबन्दी थी। 
तालिबान भयभीत था कि अगर लड़कियां पढ़ गयीं, 
तो मुस्लिम समाज बेदार हो जायेगा 
जिसे वह चाहता था अँधेरे में रखना। 
ठीक ऐसे ही रामराज्य  का ब्राह्मण भयभीत था कि अगर शूद्र पढ़ गये, 
तो उसमें ज्ञानोदय हो जायेगा और वह गुलामी छोड़ देगा। 
तुम जानती हो मलाला,
जो तुमने किया वही शम्बूक ने किया था।
तुमने नहीं माना तालिबान के फरमान को, 
और स्कूल जा कर उलट दी  उसकी व्यवस्था
ऐसे ही  शम्बूक ने उलट दी थी
स्थापित कर देह की भौतिक व्यवस्था।
तिलमिलाया था ब्राह्मण, 
जैसे तालिबान तिलमिलाया तुम से।
शम्बूक ने की थी रामराज्य में बगावत 
जैसे तुमने की तालिबान के राज से बगावत। 
तुम खतरा बन गयीं थीं तालिबान की सत्ता  के लिए, 
ऐसे ही शम्बूक बन गया था ब्राह्मण की सत्ता के लिए खतरा।
ब्राह्मण की सत्ता बचाने के लिए
राम को मारना पड़ा था शम्बूक को,
जैसे तालिबान को तुम्हे मारना पड़ा
अपनी सत्ता बचाने के लिए। 
लेकिन तुम मरोगी नहीं मलाला,
मरेगा तालिबान।
तुमने झकझोर दिया है कोमा में पड़े पाकिस्तान को 
जगा दिया औरतों को, 
जागृत हो तुम अब हर मुसलमान लड़की में।
जैसे शम्बूक अब हर शूद्र में जागृत है
अस्मिता और स्वाभिमान के रूप में। 
तुम भी मलाला हमेशा जीवित रहोगी 
मुस्लिम लड़कियों में अस्मिता और स्वाभिमान की 
मशाल बन कर।
                  
                                           कँवल भारती  

शुक्रवार, 31 अगस्त 2012


एकलव्य का दलित पाठ 
कँवल भारती 
   अभी अपने मित्र इंजीनियर राजेन्द्र प्रसाद से बात हो रही थी। उनका कहना था कि एकलव्य के नाम पर साहित्य या कला में कोई पुरस्कार क्यों नहीं है? द्रोणाचार्य के नाम पर पुरस्कार है, पर एकलव्य के नाम पर नहीं है। शायद कोई पुरस्कार एकलव्य के नाम पर हो भी, पर मुझे सही जानकारी नहीं है। इसलिए में यकीन से कुछ नहीं कह सकता। लेकिन एकलव्य को लेकर मैंने कुछ और बातें उनसे शेयर कीं, जो यहाँ आपके साथ भी शेयर कर रहा हूँ। 
   दलित साहित्य में एकलव्य पर अभी उल्लेखनीय काम कोई नहीं हुआ है।  कुछेक दलित लेखकों ने कुछ लिखा भी है, तो वह उसी कहानी पर आधारित है, जो महाभारत में मिलती है और झूठी है।उसमें एकलव्य का सम्मान इसलिए नहीं है कि वह धनुर्विद्या में महान था, बल्कि इसलिए है कि उसने गुरु दक्षिणा में अपना अंगूठा काटकर उस गुरु को दे दिया था, जिससे उसने धनुर्विद्या सीखी ही नहीं थी।
    दरअसल एकलव्य और द्रोणाचार्य की कहानी उतनी ही झूठी है, जितनी झूठी कबीर और रामानंद की कहानी है। जिस प्रकार कबीर ने रामानंद से कोई शिक्षा प्राप्त नहीं की थी, उसी प्रकार एकलव्य ने भी द्रोणाचार्य से कोई शिक्षा प्राप्त नहीं की थी। जिस प्रकार रामानंद कबीर के गुरु नहीं थे, उसी प्रकार द्रोणाचार्य भी एकलव्य के गुरु नहीं थे।
    एकलव्य की कहानी हमें महाभारत (1.123.10-39) में मिलती है, जो इस प्रकार है-- "द्रोण पांडवों के धनुर्विद्या के गुरु थे और अर्जुन उनका सर्वोत्तम शिष्य था। एक दिन निषाद जनजाति नरेश का पुत्र एकलव्य उनके पास शिष्य बनने  के लिए आया। पर, द्रोण ने, जो धर्म को जानते थे, निषाद पुत्र को शिष्य बनाने से इंकार कर दिया। एकलव्य ने द्रोण के चरणों में अपना सर रखा और जंगल में जाकर द्रोण की मूर्ति बनाकर उसी को गुरु मानकर साधना करने लगा। वह महान धनुर्धर बन गया। एक दिन पांडव कुत्ते को लेकर शिकार के लिए जंगल में गये। कुत्ता वहां एकलव्य को देख कर भौंकने लगा। और तब तक भौंकता रहा, जब तक कि एकलव्य ने उसके मुंह में सात तीर न छोड़ दिए। कुत्ते के मुंह में तीरों को देखकर पांडव बहुत हैरान हुए। वे वहां गये, जहाँ से तीर आये थे। वहां उन्होंने एकलव्य को देखा और पूछा कि वह कौन है? एकलव्य ने अपना परिचय दिया और यह भी बताया कि द्रोण उसके गुरु हैं। पांडव घर चले गये। पर एक दिन अर्जुन ने द्रोण से पूछा कि उन्होंने निषाद पुत्र को शिष्य क्यों बनाया, जो धनुर्विद्या में मुझ से भी महान है? द्रोण अर्जुन को साथ लेकर एकलव्य के पास गये और उससे कहा कि अगर तुम मेरे शिष्य हो, तो अभी मेरी दक्षिणा मुझे दो। एकलव्य ने कहा कि गुरुदेव आज्ञा दें, अभी तो मेरे पास कुछ है नहीं। द्रोण ने उत्तर दिया कि अपना दाहिना अंगूठा काटकर मुझे दे दो। जब एकलव्य ने ये दारुण शब्द सुने, तो उसने खुश होकर अपना दाहिना अंगूठा काटकर द्रोण  को दे दिया। उसके बाद जब एकलव्य ने तीर चलाया, तो उँगलियों ने पहले जैसा काम नहीं किया।             
   


      इस कहानी में शुरू में आया है, "द्रोण, जो धर्म को जानते थे". इसका क्या अर्थ है? यह कौन सा धर्म है, जो द्रोण जानते थे? जाहिर है कि यह वर्ण धर्म है। इसी धर्म का पालन करते हुए द्रोण ने एकलव्य को शिष्य नहीं बनाया। यह बात समझ में आती है। लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि जब शिष्य बनाया ही नहीं, तो एकलव्य से गुरु दक्षिणा क्यों मांगी गयी? यह बात और भी समझ में नहीं आती कि गुरु दक्षिणा में उसका अंगूठा ही क्यों माँगा गया? यह बात भी समझ में नहीं आती कि एकलव्य ने द्रोण को अपना अंगूठा क्यों काटकर दिया, जबकि वह उसके गुरु थे ही नहीं? यह प्रश्न भी समझ से परे है कि द्रोण ने उस कटे हुए अंगूठे का क्या किया? क्या उसे तलकर खा गये, आखिर मांसाहारी तो थे ही। इन सारे सवालों का जवाब इस कहानी से नहीं मिलता। लेकिन यदि यह मान लें कि यह पूरी कहानी झूठी है, तो हमें सारे सवालों के जवाब तुरंत मिल जायेंगे। 
      सबसे पहली बात जो हमें समझनी है, वह यह है कि एकलव्य खुद भी राजकुमार था, उसके पिता निषाद नरेश थे। वह धनुर्विद्या सीखने के लिए द्रोण को गुरु बना ही नहीं सकता था। इसके दो कारण हैं। पहला यह कि वर्ण धर्म में शूद्र  को विद्या देने का अधिकार ब्राहमण को नहीं है, यह बात एकलव्य को न मालूम हो, यह हो ही नहीं सकता। ब्राहमण शूद्र को अपना शिष्य बना ही नहीं सकता, यह जानते हुए एकलव्य द्रोण के पास शिष्य बनने के लिए नहीं जा सकता। दूसरा कारण यह है कि धनुर्विद्या जनजाति समुदाय की पारंपरिक विद्या है। यह विद्या एकलव्य में आनुवंशिक रूप में थी। वह अपने समय का महान धनुर्धर था। धनुर्विद्या में वह इतना निपुण और सिद्ध हस्त था कि द्रोण का सिखाया हुआ अर्जुन उसके सामने कुछ भी नहीं था। कुत्ते के मुंह में इस तरीके से एकलव्य ने सात तीर मारे थे कि कुत्ते का मुंह बंद हो गया था और खून की एक बूंद तक नहीं निकली थी। यह कमाल अर्जुन ने खुद अपनी आँखों से देखा था। यह कमाल ही अर्जुन के द्वेष , द्रोण के क्रोध और एकलव्य के विनाश का कारण बना। एकलव्य को अर्जुन से बड़ा धनुर्धर बनने से रोकने के लिए द्रोण ने जो साजिश रची, उसी के तहत एकलव्य का बलपूर्वक अंगूठा काटा गया, अंगूठा उसने दान नहीं किया था। 



31 अगस्त 2012 

शनिवार, 11 अगस्त 2012

चोरी की वकालत करने वाला मंत्री 
कँवल भारती

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार के कद्दावर पी.डब्लू.डी.  मंत्री शिवपाल यादव ने एटा में जिला योजना समिति की बैठक में अधिकारियों को कहा -- "अगर आप मेहनत करेंगे  तो थोड़ी बहुत चोरी कर सकते  हैं. बुद्धि लगाओगे. अगर इन्हें मीठा पानी दोगे, तो चोरी कर  सकते हो."  मतलब यह कि चोरी बुरी नहीं है, अगर वह बुद्धि लगाकर की जाये. यह उस सरकार  के मंत्री का बयान है, जिसने प्रदेश में स्वच्छ प्रशासन देने का वादा किया है. जब यह बयान मीडिया में आया तो मंत्री को होश आया कि उन्होंने यह क्या कह दिया. अब वे कह रहे हैं कि उन्होंने तो मजाक में कहा था, उसे गंभीरता से  क्यों लिया गया? सवाल यह है कि उन्होंने  मजाक में भी चोरी की वकालत क्यों की? मनोविज्ञान का सीधा सा नियम है कि जो मन में होता है, वही जुबान पर आता है. जो चोर नहीं है, वह जुबान से भी चोरी की बात नहीं कह सकता. शिवपाल यादव की निजी सम्पत्ति यही कहानी कहती है कि वह सम्यक कमाई से नहीं जुडी है.
            अगर हम अपराध शास्त्र के आधार पर बात करें,  तो छोटी मोटी चोरी से ही बड़े अपराध की शुरुआत होती है. जिस छोटी या थोड़ी सी चोरी की बात मंत्री कर  रहे हैं, उसे नजरअंदाज करने का मतलब है चोर को डकैती डालने के लिए प्रोत्साहित करना. मंत्री कह रहे हैं कि चोरी करो, पर डकैती मत डालो. पर यह कैसे हो सकता है कि अधिकारी चोरी करने के बाद डकैती न डाले. डकैती रोकने के लिए पहले चोरी को ही रोकना होगा.
            यदि अधिकारियों को चोरी करने की  बात शिवपाल यादव के बजाय किसी नौकरशाह  प्रमुख  ने कही होती,तो  मुख्यमंत्री अखिलेश यादव उसे  बर्खास्त जरूर कर दिए होते. पर, यहाँ मामला चाचा का है, वे मुलायम सिंह यादव के भाई हैं. इसलिए उनमें इतना नैतिक साहस कहाँ कि वे उन्हें बर्खास्त नहीं तो निलम्बित ही कर दें.

११ जुलाई २०१२


मंगलवार, 24 जुलाई 2012

waah ree janta waah re neta


वाह री जनता, वाह रे नेता 
कँवल भारती 

मुलायम सिंह यादव और मायावती में केवल एक बिंदु पर अंतर है, बाकी भ्रष्टाचार, निजीकरण और अवसरवाद में दोनों में कोई 
अंतर नहीं है. अंतर वाला बिंदु है सामाजिक चेतना का. जहाँ मुलायम सिंह में कोई सामाजिक चेतना नहीं है, वहाँ मायावती में
 सामाजिक परिवर्तन के अग्रदूतों के प्रति सम्मान की चेतना है. मुलायम सिंह किसी सामाजिक आन्दोलन का हिस्सा नहीं रहे. 
किन्तु मायावती का उभार सामाजिक आन्दोलन के बीच से ही हुआ है. इसीलिए उत्तर प्रदेश में जब वो शासक बनीं, तो उन्होंने 
जो नये जिले बनाये, उनके नामकरण  उन्होंने  दलित और पिछड़े वर्गों के नायकों के नाम पर किये. इस नामकरण का मुलायम
सिंह यादव ने तब भी विरोध किया था  और कहा था कि जब वो सत्ता में आएंगे तो ये नाम हटा देंगे.  मुलायम की पार्टी सत्ता 
में आ गयी और उसने नाम हटा दिए. यह अप्रत्याशित बिलकुल नहीं था. 
           अब रह गयी बात अखिलेश यादव की, तो वो हैं तो सामाजिक चेतना विहीन मुलायम सिंह यादव के ही पुत्र. वो तो अपने
 पिता की तरह  संघर्ष करके भी राजनीति में नहीं आये. वो मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए. राजसी वैभव और ठाठ बाट
उन्हें बचपन से ही मिला है. गरीबी उन्होंने देखी नहीं, इसलिए सामाजिक सरोकार भी उनके कुछ नहीं हैं. उनकी समझ की बानगी 
इसी बात से मिल जाती है कि लखनऊ के  जिस किंग जार्ज मेडिकल विश्व विद्यालय  का नाम मायावती ने छत्रपति शाहूजी 
विश्व विद्यालय कर दिया था, उसे अखिलेश यादव ने पुन: किंग जार्ज कर दिया है. उन्हें अंग्रेज किंग पसंद है, भारत का राजा
पसंद नहीं है. इस समझ को क्या कहा जाय? यदि उन्हें मायावती का दिया गया नाम बुरा लग रहा था, तो कोई और भारतीय 
नाम उसका रख देते. जिस मुस्लिम भक्ति के लिए वो और उनके पिता जाने जाते हैं, वहीं से कोई नाम ले लेते. आम्बेडकर और 
कांशीराम के प्रति उनकी नफरत तो जग जाहिर है ही, इसलिए भीम नगर, कांशीराम नगर और रमाबाई नगर के नामों का बदला
 जाना समझ में आता है. लेकिन ज्योतिबा फुले से उनको क्या चिढ है? वो तो दलित नहीं थे, पिछड़ों के नायक थे. प्रबुद्ध नगर,
पंचशील नगर और महामाया नगर बौद्ध धर्म की ओर संकेत करते हैं और  यह भी डा. आम्बेडकर से जुड़ गया है, इसलिए 
उनका नाम भी बदलना लाजमी था. 
        संकेत मिल रहे हैं कि अभी कुछ और नाम भी बदले जाने हैं. ये नाम नगरों के नहीं, बल्कि संस्थानों के हैं. कुछ विश्व 
विद्यालयों और सस्थानों के नाम भी मायावती दलित और पिछड़े वर्गों के महापुरुषों के नाम पर रख कर गयीं हैं. पिछले दिनों 
प्रदेश के नगर विकास मंत्री आजम खां ने बयाँ दिया था कि रामपुर में जो डा. आम्बेडकर नक्षत्र शाला है, उसका नाम बदला 
जाएगा. हो सकता है कुछ विश्व विद्यालय भी इस राजनीति के शिकार हो जाएँ. 
        दरअसल यह वह राजनीति है, जिसका जनता के दुःख-दर्द, उनकी रोजी-रोटी और उनके विकास से कोई लेना-देना नहीं 
है. जब मायावती ये नामकरण कर रहीं थीं, तब वो भी यही राजनीति खेल रहीं थीं. विडंबना यह है कि ये सब जनता के नाम 
पर किया जाता है. मायावती ने भी जनता की मांग पर नामकरण किया था और अखिलेश भी कह रहे हैं कि उन्होंने जनता की 
मांग  पर नाम बदले हैं. अंग्रेजों के क़ानून भी जनता के नाम पर ही बनते थे. भारत की सरकार भी  निजीकरण की नीतियां
 जनता के ही हित में बना रही है. और बेचारी जनता को ही नहीं मालूम कि उसके नेता क्या कर रहे हैं?  जनता के नाम पर 
एक सामाजिक तनाव मायावती ने पैदा किया और जनता के नाम पर ही एक और तनाव अखिलेश पैदा कर रहे हैं. वाह री जनता, 
वाह रे नेता.

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

शनिवार, 14 जुलाई 2012

nastik ke viruddh ghrina


नास्तिक के खिलाफ घृणा  
कँवल भारती 

          फेसबुक पर सिराज फैसल खान ने अपनी वाल पर लिखा है कि नास्तिक जब मरें, तो उनकी लाश सडक  के किनारे या नाले में फेंक  देनी चाहिए, ताकि जानवर उन्हें खा सकें. यह उनकी नास्तिकों के प्रति घृणा है, जो उनकी एक कट्टर तालिबानी छवि बनाती है. सिराज अभी युवा हैं, और इतिहास और दर्शन की कोई समझ भी उन्हें नहीं है. उन्हें यह भी नहीं मालूम कि सूफीवाद के मूल में नास्तिकता थी. ये सूफी रोज़ा, नमाज और हज से कोसों दूर थे. उनका दर्शन 'मै अल्लाह हूँ' पर जोर देता था. बादशाह ने इसी बिना पर सरमद सूफी को मरवा डाला था. इसलिए बहुत से सूफी सत्ता के खौफ से अल्लाह- अल्लाह बोलने लगे थे. कई सूफियों का कलाम मेरे पास है, जिसमें रोज़ा और नमाज का खंडन किया गया है. इस्लाम के पैगम्बर मुहम्मद के समय में मक्का- मदीना में आस्तिकों से ज्यादा नास्तिक लोग थे, जो आस्तिकों से पूछते थे कि बताओ, अगर इन्सान को अल्लाह ने बनाया है, तो अल्लाह को किसने बनाया है? आस्तिकों के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं होता था और आज भी नहीं है. सिराज के पास भी नहीं है. इस्लाम ने इन नास्तिकों को 'शैतान' का नाम दिया और कहा-- शैतान से दूर रहो.  मुहम्मद ने कहा कि अगर कोई यह पूछे कि अल्लाह को किसने पैदा किया, तो बाई ओर तीन बार थूको और दूर हट जाओ. यह तर्क और विज्ञानं से भागना है, और इस्लाम ने यही शिक्षा मुसलमानों को दी है. हिन्दू दर्शन भी आस्तिक है, पर नास्तिकता के सवालों को वह ख़ारिज नहीं करता है. हिन्दुओं के छह  दर्शनों में एक दर्शन पूरा नास्तिक है. दर्शन की यह उदारता अन्य किसी धर्म में नहीं है. ग्यारहवीं सदी में मुहम्मद गजाली तेहरान में एक महान इस्लामिक दार्शनिक हुआ था, जो मुल्लाओं को शैतान कहता था. वो नास्तिक था. पर सुल्तान के खौफ से वह सूफी बन गया था. 
        सिराज को यह नहीं मालूम कि आस्तिक होना हिम्मत की बात नहीं है, हिम्मत की बात है नास्तिक होना. नास्तिक होने के लिए तर्क और विज्ञानं से जुड़ना पड़ता है, जबकि आस्तिक होने का मतलब ही है धर्म की किताब को सर पर लादना. आस्तिक होने के लिए न पढाई- लिखाई  की जरूरत होती है और न दिमाग की. एक जाहिल भी आस्तिक होता है, पर नास्तिक जाहिल नहीं हो सकता. आस्तिक पुस्तकवादी होता है, पर नास्तिक पुस्तकवादी नहीं होता, मनुष्यवादी होता है. 
        और सिराज यह तुमसे किसने कह दिया कि जलाना और दफनाना धर्म की क्रियाएँ हैं? जब कोई भी धर्म नहीं था, तब भी मरने वालों को जलाया या दफनाया ही जाता था. धर्म तो बाद में आया. कुरान में इस क्रिया का जिक्र कहाँ है?  आपके पैगम्बरेइस्लाम ने तो यहाँ कहा है कि मरने वाला अगर विधर्मी भी है, तो उसकी मैयत का एहतराम करो. और तुम विधर्मी या नास्तिक की लाश को नाले में फेंकने की बात कह कर इस्लाम की तौहीन कर रहे हो.  तुम फतवा तो ऐसे दे रहे हो, जैसे दारुल उलूम के मुफ्ती हो. तुम्हें मालूम नहीं कि मानव गरिमा का हनन करने वाली इस  हरकत के लिए  तुम्हारे खिलाफ  फिर दर्ज कराई जा सकती है. तुम अगर मुसलमान हो, तो कुरान की यह सीख गाँठ बाँध लो कि दूसरे लोगों की आस्थाओं पर चोट मत करो, वरना वे तुम्हारी आस्थाओं पर चोट करना शुरू कर देंगे.
Kanwal Bharti
C - 260\6, Aavas Vikas Colony,

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

aarakchhan aur dharm


आरक्षण और धर्म 
 कँवल भारती 

         2004 में  प्रशांत भूषण द्वारा सुप्रीम कोर्ट में संविधान की धारा 32 के अन्तर्गत  दलित ईसाईयों के पक्ष में यह याचिका  डाली गयी कि  दलित ईसाईयों को अनुसूचित जाति में शामिल किया जाये और उन्हें वे सारे लाभ दिए  जाएँ,  जो अनुसूचित  जाति के लोगों को मिल रहे हैं. बाद में  दलित  मुसलमानों की ओर से भी इसी धारा में  यही मांग  की गयी. इस मामले में अनुसूचित जातिओं की ओर से उत्तर  प्रदेश के पूर्व IPS अधिकारी  श्री चमन लाल ने पक्षकार बनते हुए  याचिका दायर करके दलित ईसाईयों और दलित मुसलमानों की मांग का विरोध किया है। कोर्ट का जो फैसला होगा, वह बाद का विषय है. पर इस मुद्दे ने आरक्षण की नीति पर एक बहस जरूर छेड़ दी है.
        आइये पहले यह देखें कि दलित ईसाईयों का तर्क क्या है?  उनका कहना है कि वे हिन्दुओं से धर्मान्तरित ईसाई हैं. पर ईसाई बनने के बाद भी उनकी हालत पहले जैसी ही है. छुआछूत के शिकार वे अब भी पहले जैसे ही होते हैं. उनके चर्च तक अलग हैं. उनका सामाजिक अलगाव और भेदभाव सब पहले जैसा ही है. वे पहले भी दलित थे और अब भी दलित हैं. लगभग यही तर्क दलित मुसलमानों के हैं. उनके साथ भी अशराफ (उच्च) मुसलमान वही व्यवहार करते हैं, जैसा उच्च हिन्दू दलितों के साथ करते हैं.  मस्जिद में वे जरूर पांच मिनट के लिए बराबरी अनुभव करते हैं, पर मस्जिद से बाहर आते ही वे फिर दलित हो  जाते हें.  
        अगर हम कानून की बात करें, तो दलित ईसाईयों और दलित मुसलमानों की अनुसूचित जाति में शामिल होने की मांग गलत भी  नहीं है, क्योंकि  इसी आधार पर 1956 में दलित सिखों को और 1990 में नव बौद्धों को, जो  दलितों से धर्मान्तरित हुए हैं, अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जा चुका है.  धर्म की दृष्टि से न दलित सिख अपने को हिन्दू मानते हैं और न  नव बौद्ध.  फिर भी वे अनुसूचित वर्ग में आते हैं, जबकि नियम यह कहता है कि  हिन्दू धर्म में शामिल अछूत जातियां ही अनुसूचित जातियां हैं.  इसीलिए अनुसूचित जाति के प्रमाण पत्र में व्यक्ति के हिन्दू होने का भी उल्लेख रहता है.  नव बौद्ध के प्रमाण पत्र में भी पूर्व धर्म 'हिन्दू' लिखना आवश्यक होता है. चूँकि नव बौद्धों ने पूर्व धर्म हिन्दू लिखने की शर्त को स्वीकार किया, इसलिए उन्हें अनुसूचित जाति का दर्जा दिया गया. इस नियम के तहत क्या दलित ईसाई और दलित मुसलमान  अपना पूर्व धर्म 'हिन्दू' लिखना पसंद करेंगे?  मुझे नहीं लगता कि वे ऐसा करेंगे.  शायद दलित ईसाई ऐसा करने को  तैयार  हो  भी जाएँ, पर दलित मुसलमान कभी भी अपना पूर्व धर्म 'हिन्दू' लिखने को तैयार नहीं होंगे.  
         न्यायिक विवाद में मूल अधिकारों का हनन  मुख्य 'पेच' बना रहेगा.  इसलिए इसमें बहस भी दिलचस्प होगी और फैसला भी. लेकिन मै दलित ईसाईयों और दलित मुसलमानों से यह जरूर कहना चाहूँगा कि  उन्हें अपने-अपने धर्मों में भी जाति के आधार पर अपने शोषण तथा असमानता के खिलाफ लड़ाई लड़नी चाहिए. चूंकि ईसाइयत और इस्लाम दोनों धर्मों में जातिवाद नहीं है, इसलिए इस लड़ाई में उनका धर्म भी उनका साथ देगा. हिन्दू धर्म जातिवाद को मानता है, इसलिए जब दलित हिन्दुओं ने जातिवाद के खिलाफ विगुल बजाया, तो हिन्दू धर्म ने उनका साथ नहीं दिया. लेकिन दलितों ने हिन्दू धर्म और उसके ठेकेदार ब्राह्मणों के विरुद्ध अपनी लड़ाई जारी रखी. इधर लोकतंत्र ने उनका साथ दिया और उन्हें कामयाबी मिली. दलित ईसाईयों और दलित मुसलमानों को भी अपने धर्मों में अपने अधिकारों की लोकतान्त्रिक लड़ाई लड़नी होगी. यदि उनकी इस लड़ाई में उनके धर्मों के ठेकेदार और नेता बाधक बनते हैं, तो उन्हें उनके खिलाफ भी आवाज उठानी होगी.  क्योंकि यदि आरक्षण मिल भी गया, तो, इससे कुछ लोगों को नौकरी तो मिल जायगी, पर वे अपने समाजों में वह परिवर्तन नहीं ला पाएंगे, जिसकी उन्हें जरूरत है. 
        इसमें संदेह नहीं कि दलितों ने सम्मान के लिए धर्मान्तरण किया था. वे सम्मान के लिए मुसलमान बने, सम्मान के लिए ईसाई बने, सम्मान के लिए सिख बने और सम्मान के लिए बौद्ध बने. पर, हिन्दू धर्म छोड़ने के बाद भी उनकी सामाजिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया. जो काम वे हिन्दू रहकर कर रहे थे, वही पुस्तैनी काम उन्हें ईसाई, मुसलमान और सिख बनकर  भी करना पड़ा. नव बौद्ध अपवाद इसलिए हैं, क्योंकि उनका धर्मान्तरण बाबा साहेब डा. आंबेडकर के आन्दोलन का परिणाम है, जिसने उन्हें  गुलामी का एहसास और उससे मुक्ति का बोध कराया था. दलित ईसाईयों और दलित मुसलमानों में ऐसा कोई आन्दोलन और नेतृत्व  नहीं उभर सका, जो उन्हें उनकी गुलामी का एहसास और उससे मुक्ति का बोध कराता. 
        दलित ईसाईयों और दलित मुसलमानों को चाहिए कि वे अपने मूल धर्मों में वापस आ जाएँ और अनुसूचित जाति का स्वाभाविक लाभ पायें. और यदि पूर्ण मानवीय गरिमा के साथ स्वतंत्र मनुष्य की हैसियत से जीना चाहते हैं तो बौद्ध धर्म का विकल्प भी उनके लिए खुला है, जहाँ उन्हें आरक्षण का लाभ भी स्वत: मिल जायगा. 
 ( 13 जुलाई 2012 )

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

go mans par dalitchintan


xkSekal ij nfyr fpUru
nfyr nLrd* ds twu 2012 ds vad esa ^chQ QsfLVoy dk fojks/k D;ksa* ys[k dks i<+rs gq, ,slk yxk fd dqN nfyr ys[kd nfyr fpUru dk fodkl djus ds ctk, mls vrhr xkeh cukus dk dke dj jgs gSaA vrhr ds ftl vWa/ksjs ls ckcklkgsc vkacsMdj us nfyrksa dks fudky dj izdk”k dh fo”kky nqfu;k fn[kk;h Fkh] ;s ys[kd mUgsa vrhr dk gh jkx lquk jgs gSaA t;izdk”k dnZe ,sls gh ys[kd gSa] tks dfork] dgkuh vkSj miU;kl dh viuh ewy fo/kk esa foQy gksus ds ckn fVIi.khdkj cu x;s gSaA eqÌk ;g gS fd xr fnuksa vkacsMdj t;Urh ds volj ij gSnjkckn ds mLekfu;k fo”ofo|ky; esa nfyr Nk=ksa us xkSekWal Hkkst dk vk;kstu fd;kA ;gkWa loky ;g gS fd nfyr Nk=ksa us ,slh gjdr D;ksa dh \ fo”ofo|ky; ,d lkoZtfud LFky gS] ogkWa mUgksaus izfrcaf/kr xkSekWal Hkkst vk;ksftr djds dkuwu D;ksa rksM+k \ ;fn nfyr Nk= ;g fn[kkuk pkgrs Fks fd nfyr laLd`fr esa xkSekWal oÆtr ugha gS] blfy;s os mls [kkus ds fy;s LorU= gSa] rks nfyr laLd`fr esa rks lwvj dk ekWal Hkh oÆtr ugha gS] fQj ml vk;kstu esa lwvj dk ekWal D;ksa ugha ijkslk x;k \ lwvj ds ekWal ij izfrcU/k Hkh ugha gS] blfy;s ogkWa chQ fcj;kuh ds lkFk&lkFk iksdZ fcj;kuh Hkh cuk;h tk ldrh FkhA ij nfyr Nk=ksa us iksdZ ijkslus dh fgEer blfy;s ugha dh] D;ksafd rc mUgsa eqfLye Nk=ksa ds fojks/k dk Hkh lkeuk djuk iM+rkA eSa le>rk gwWa fd mLekfu;k ds nfyr Nk= dqN izfrfdz;koknh rRoksa ¼ ftuesa nfyr vkSj eqfLye nksuksa gh gks ldrs gSa ½ dh lkft”k dk f”kdkj gq, gSaA nfyr Nk= ;g Hkwy x;s fd lkiznkf;d ,drk dk;e djus dh ftEesnkjh Hkh mUgha dh gSA nfyr gksus ds ukrs vius gh ns”k ds lkekftd okrkoj.k dks fcxkM+us dk ykblsal dkuwu us mUgsa ugha ns fn;k gSA
D;k t;izdk”k dnZe dks ;g ugha ekywe fd Hkkjr esa dgha Hkh vkSj fdlh Hkh lkoZtfud Hkkst esa chQ vkSj iksdZ ugha ijkslk tkrk gS] ;gkWa rd fd “kknh&C;kg ds lkoZtfud Hkkstksa esa Hkh ughaA fQj os mLekfu;k  fo”ofo|ky; esa nfyrksa }kjk xkSekWal ijksls tkus dh ?kVuk dh fuUnk djus ds ctk, mldk leFkZu D;ksa dj jgs gS \ ;fn vkacsMdj ij cus dkVwZu ij nfyr HkM+d ldrs gSa] rks xkSekWal ij fgUnw D;ksa ugha HkM+d ldrs \ D;k gSnjkckn esa fgUnqvksa ds fojks/k&izn”kZu vkSj fgalk ds fy;s mLekfu;k fo0 fo0 ds nfyr Nk= ftEesnkj ugha gS \ ysfdu t;izdk”k dnZe mYVs ;g crk jgs gSa fd xkSekWal fgUnqvksa ds iwoZtksa dk Hkkstu jgk gSA ;fn dksbZ iyV dj  ;g iwN ys fd lM+k ekWal nfyrksa ds iwoZtksa dk Hkkstu jgk gS] rks dSlk yxsxk \ dnZe th us bl lR; dks le>s cxSj fd fgUnqvksa dk xkSekWal [kkuk vkSj nfyrksa dk lM+k ekWal [kkuk nksuksa vc bfrgkl cu x;s gSa] nksuksa dk orZeku esa dksbZ vfLrRo ugha gSA vc u fgUnw xkSekWal [kkrs gSa vkSj u nfyr lM+k ekWalA rc] iwoZtksa dh ;kn fnyk dj lkoZtfud Hkkst esa xkSekWal dk leFkZu djuk dgkWa dh cqf)ekuh gS \ ;fn mLekfu;k fo0 fo0 esa nfyr Nk=ksa ds lkFk dh x;h fgalk lafo/kku dk mYya?ku vkSj vieku gS] rks D;k izfrcfU/kr xkSekWal Hkkst dk vk;kstu lafo/kku dk mYya?ku vkSj vieku ugha gS \ ;fn xkSekWal [kkuk nfyrksa dk yksdrkaf=d vf/kdkj gS] rks ?kj ijcSB dj [kkvks u] dkSu jksd jgk gS \ ysfdu ;fn lkoZtfud :i ls yksxksa dks xkSekWal f[kykvksxs] rks ;g yksdrkaf=d vf/kdkj ugha gS] oju~ vlaoS/kkfud d`R; gSA
nfyr lkfgR; laadqfpr ugha gS] og izxfr”khy gksus ds lkFk&lkFk lafo/kku vkSj yksdra= esa vkLFkk j[kus okyk lkfgR; gSA csgrj gksxk] dnZe th dgkuh vkSj miU;kl ds {ks= esa gh cM+k dke djsa] ftldh nfyr lkfgR; esa lcls T;knk deh gSA
¼ 7 tqykbZ 2012 ½  

kabir aur bhakti


कबीर और भक्ति
कँवल भारती
हजारी प्रसाद दिवेदी   के बाद कबीर को विकृत  करने का आपराधिक  काम पुरुषोत्तम अग्रवाल 
ने किया है. दलित मूल्यांकन के विरोध में उन्होंने कबीर को सगुण रंग में इस क़दर रंग दिया  है
कि उनकी सारी  क्रांति चेतना  नष्ट कर दी है. क्या कबीर भक्त थेआइये यह जानने के लिए
उनके अध्यात्म को समझें.
कबीर  तीन कारणों से भक्त नहीं हो सकते. पहला कारण -- भक्ति के लिए ईश्वर की मूर्ति चाहिए.
कबीर के राम निर्गुण हैंजिनकी मूर्ति  नहीं बनाई जा सकती. दूसरा कारण -- भक्ति के पीछे 
भक्त की मोक्ष, अर्थात पापों से  मुक्ति की कामना होती है. उसकी परलोक सुधर जाने  और स्वर्ग
में जाने की भावना होती है.  कबीर का विश्वास न मोक्ष में है, न स्वर्ग में है,  न परलोक में है 
और न मुक्ति  में है. उनके यहाँ लोक ही सत्य है और कर्म (जीवन संघर्ष ) ही सहज समाधि है.
तीसरा मुख्य कारण यह है कि भक्ति के लिए 'भक्त' और 'ईश्वर' इन दो का अस्तित्व होना
जरुरी है. लेकिन कबीर के यहाँ दो यानि द्वैत  की अवधारणा ही नहीं है. वे साफ़ कहते हैं--
'राम कबीरा एक हैं दूजा कबहूँ न होए'. वर्ण व्यवस्था, जातिभेद और ऊँचनीच का सारा दर्शन
जाल इसी द्वैत से पैदा हुआ है.
वास्तव में कबीर के निर्गुण दर्शन से ब्राहमणवाद इसलिए  भयभीत है, क्योंकि उसकी विशेषताएं 
(स्थापनाएं ) ब्राहमणवाद  के लिए घातक हैं. ये विशेषताएं चार हैं-- (१) निर्वैर, (२) सबकी सामान
उत्पत्ति का सिद्धांत; (३) विवेकवाद, और (४) प्रेम.
¼26 twu 2012½

बुधवार, 11 जुलाई 2012

mayawati aur dalit


Ekk;korh  cuke nfyr
dWaoy Hkkjrh
blh 6 tqykbZ dks lqizhe dksVZ us ek;korh  dh csfglkc lEifÙk ds ekeys esa 9 lky ls py jgs eqdnes dks jn~n dj fn;kA lhchvkbZ us ;g eqdnek 2003 esa ntZ djk;k FkkA lqizhe dksVZ us bls xSj dkuwuh Hkh djkj ns fn;k gSA vo’; gh ek;korh ds fy;s ;g [kcj jkgr Hkjh gSA ij] D;k nfyrksa ds fy;s Hkh ;g [kcj jkgr Hkjh gksuh pkfg,\ esjh n`fþ esa rks ugha gksuh pkfg,] D;ksafd ;fn nfyr uk;d Hkzþ gksxk] rks og Hkzþ lekt dk gh fuekZ.k djsxkA ysfdu gekjs nfyr cqf)thfo;ksa dh vthc fLFkfr gSA Qslcqd ij muds desaV ek;korh ds Hkzþkpkj ds i{k esa gSaA tc ,l0 vkj0 nkjkiqjh us viuh oky ij ek;korh ds Hkzþkpkj ij loky mBk;k] rks mudk [kwc fojks/k gqvkA ek;korh ds ekeys esa vDlj nfyrksa dh izfrfdz;k ;g gksrh gS fd ^dkSu Hkzþ ugha gSA* bldk lh/kk vFkZ gS fd lc Hkzþ gSa] rks ek;korh dks Hkh gksuk pkfg,A  lc uaxs ukp jgs gSa] gekjs usrk dks Hkh uaxk ukpuk pkfg,A vkSj gn rks rc gksrh gS] tc ;gh yksx viuh oky ij okeiaFkh usrkvksa dh vkykspuk djrs gSaA ;s Hkzþ rjhds ls djksM+ksa #i;s dh vpy lEifÙk [kM+h djus okyh viuh usrk dk cpko djrs gSa vkSj okeiafFk;ksa dks o.kZ vkSj oxZ dk QdZ le>krs gSaA
esjh fpUrk ;g gS fd nfyrksa dks bl ckr ls dksbZ ijs’kkuh D;ksa ugha gksrh fd ,d lk/kkj.k v/;kfidk ls jktuhfr esa vkbZa ek;korh ds ikl 111 djksM+ #i;s dh lEifÙk dSls gks x;h\ D;k og vkleku ls muds Åij Vidh\ mUgksaus bruh lkjh vpy lEifÙk vius vkSj vius ifjokj ds yksxksa ds uke ls dSls [kjhn yh\ D;k blesa Hkzþkpkj dh tjk Hkh xU/k nfyr cqf)thfo;ksa dks ugha vkrh\ lhchvkbZ us xyr ,Q0vkbZ0vkj0 ntZ ugha djk;h FkhA ij] xyr vc gqvk] tc lqizhe dksVZ us mlds lkjs fd;s djk;s ij ikuh Qsj fn;kA lhchvkbZ ds ,d vf/kdkjh us dgk Hkh gS fd mudh tkWap iwjh gks pqdus ds ckn lqizhe dksVZ ds QSlys us mUgsa fujk’k dj fn;k gSA njvly] ftlls jktuhfrd ykHk ysuk gksrk gS] dsUnzh; lRrk mls blh rjg NwV nsrh gSA
;g ckr ,dne le> ls ijs gS fd ek;korh vius vki dks ikdµlkQ dSls dg ldrh gSa\ os dgrh gSa fd muds leFkZdksa us mUgsa migkj fn;s gSa] mlh ls mUgksaus tehusa vkSj tk;nknsa [kjhnh gSaA loky ;g gS fd ;s migkj yksxksa us eq>s D;ksa ugha fn;s\ ;g loky gWalus ds fy;s ugha gS] oju~ le>us ds fy;s gSA eSa tkurk gwWa fd migkj fdls vkSj D;ksa fn;s tkrs gSa\ ljdkjh lsok esa jg dj eSaus migkj dk vFkZ vPNh rjg le> fy;k gSA NksVs vf/kdkjh cM+s vf/kdkfj;ksa dks migkj nsrs gSa] rkfd mudh d`ik mu ij cuh jgsA ek;korh dks Hkh migkj nsus okys yksx ogh Fks] tks mudh ^d`ik* pkgrs FksA b/kj ^HksaV* vk;h] vkSj m/kj ^d`ik* gks x;hµ^tkvks] rqEgkjk dke gks tk;xk*A esjh gSfl;r ;g d`ik nsus okyh ugha gS] blfy;s eq>s migkj ugha fey ldrsA D;k ;g fj’or ugha gS\ D;k ;g Hkzþkpkj ugha gS\ bls ;fn tk;t Bgjk;k tk ldrk gS] rks ,0 jktk dks tsy D;ksa Hkstk x;k\ vkSj ;fn ;g tk;t ugha gS] rks ek;korh dks tsy D;ksa ugha Hkstk x;k\
Ekk;korh dh lEifÙk dk fooj.k Hkh ns[k fy;k tk;A jkT;lHkk esa ukekadu nkf[ky djrs le; mUgksaus viuh lEifÙk dk tks C;kSjk fn;k Fkk] mlds vk/kkj ij ^vej mtkyk* ¼ 7 tqykbZ 2012 ½ us mldk fooj.k bl rjg fn;k gSµ 13+-73 djksM+ ls vf/kd cSad [kkrs esa] 10-20 yk[k #i;s dh udnh] 1034-260 xzke lksus ds vkHkwÔ.k] 96-53 yk[k #i;s ds ghjs] 18-5 fdyks dh pkWnh dk fMuj lsV ¼ dher 9-32 yk[k #i;s ½] 15 yk[k dh dykd`fr;kWa] fnYyh ds dukV Iysl esa 936 djksM+ vkSj 9-45 djksM+ #i;s dh nks bekjrsa] u;h fnYyh esa 61-86 djksM+ dh fjgk;’kh bekjr vkSj y[kuÅ esa 15-68 djksM+ dh bekjrA ftl fnYyh esa nksµrhu dejksa dk ?kj gkfly djus ds fy;s yksxksa dh iwjh ftUnxh fudy tkrh gS] ogkWa ek;korh ds nks O;kolkf;d Hkouksa ds vykok ,d fo’kky fdykuqek egy Hkh gSA lqizhe dksVZ dk QSlyk Hkzþ ek;korh dks rks jkgr igqWapk ldrk gS] ij mu nfyrksa dks ugha] ftUgksaus viuh vkWa[ksa esa ifjorZu dk liuk ysdj dka’khjke vkSj ek;korh dks vkacsMdj ds ckn viuk usrk ekuk gSA
¼ 11 twu 2012 ½