रविवार, 22 जनवरी 2017

आर. डी. सागर
(कँवल भारती)
एक थे आर. डी. सागर. हमारे दोस्त भी थे और सरपरस्त भी. हमसे दुगनी उमर के थे. पर दिलफेंक इंसान थे. शौकीन मिजाज थे. खूबसूरत भी थे और बातों में भी उनकी, बला का सम्मोहन था. इस वजह से वह हमेशा औरतों से घिरे रहते थे, आज उसके साथ, तो कल किसी और औरत के साथ उनका शगल बन चुका था. हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी तीनों जुबानें बखूबी लिख पढ़ लेते थे. हर किस्म की शेरोशायरी कर लेते थे, इसलिए कुछ मुस्लिम औरतों से भी उनकी दोस्ती हो गयी थी. उन्हीं में एक औरत उन्हें ऐसी मिल गयी कि उसने अल्टीमेटम दे दिया, कि बस अब अगर और किसी औरत से मिले या उसके साथ मैंने देख लिया, तो वहीँ तुम्हारा खोरिया कर दूंगी. वह बिजली विभाग में मुलाजिम थे. इसी बीच उनका प्रोमोशन हुआ और लखनऊ पोस्टिंग मिली. संयोग से मैं भी उन दिनों लखनऊ में ही रहता था. यह 1984 की बात है. शुरू में एक हफ्ता वह हमारे साथ ही रहे, जब तक उन्होंने अपना अलग कमरा नहीं ले लिया. महानगर में उनका दफ्तर था, जहाँ से पांच बजे छूट कर वह छह बजे तक इंदिरा नगर में हमारे घर आ जाते थे. पर एक दिन रात के आठ बज गए, वह नहीं आये. हमने सोचा, हो सकता है, दफ्तर से ही रामपुर निकल गए हों. सो हम खाना खाकर सो गए. उस समय तक शराब पीने की लत न मुझे लगी थी और न उनको. बाद में ऐसी लत लगी कि वह शराब में ही मरे और मैं भी मरने ही वाला हूँ. खैर, उस दिन वह रात को दस बजे आये. परेशान हाल. पूछा, कहाँ रहे अब तक? 
बोले, उसने आज खोरिया कर दिया.
मैंने पूछा. किसने? 
हुजूर जहाँ ने.
यह कौन है?
है, एक, रामपुर में मुलाकात हुई थी, अब पीछे पड़ गयी है. 
क्यों पीछे पड़ गयी है? मामला क्या है?
बोले, आज उसने खोरिया कर दिया.
कहाँ?
निशातगंज के चौराहे पर मंदिर के पास (जब फ्लाईओवर नहीं बना था) 
कैसा खोरिया, मैंने पूछा.
बोले, उसके दिमाग में यह फितूर भर गया कि मैं लखनऊ में किसी औरत के पास रह रहा हूँ. बस वह यहाँ आना चाहती थी. यहाँ मैं उसे ला नहीं सकता था. इसलिए इधर-उधर घुमाकर उसे कैसरबाग बस अड्डे पर रामपुर के लिए बस में बिठाकर आ रहा हूँ. आज ही दफ्तर से कुछ पैसा मिला था, वह भी ले गयी. 
मेरा हँसते-हँसते बुरा हाल. और वह बोले, यार अब कमरा लेना ही पड़ेगा. और कुछ ही दिनों में उन्होंने इंदिरानगर में ही बी ब्लाक में कमरा किराये पर ले लिया और हुजूर जहाँ का भी आना-जाना शुरू हो गया.
रामपुर में एक जमात सूफियों की है. सागर साहब का उठाना-बैठना उसी जमात में था. उन्होंने मुझे भी कई सूफी परिवारों से मिलवाया था. वे एक दूसरे का हाथ चूम कर अभिवादन करते थे. उनकी संगत में रहकर सूफीवाद का रंग मुझ पर भी चढ़ गया था. और इतना गहरा चढ़ा कि अब तक नहीं उतरा है. इसी प्रभाव में मैंने रामपुर में सूफीवाद पर काम किया और कुछ जीवित सूफियों के बारे में लिखा भी. उन्हीं में एक आबिद अली हैं, जिनके सूफी कलाम की एक किताब सागर साहब ने मुझे पढ़ने को दी थी. मैंने उसे उर्दू से हिंदी में किया और आज का कबीरनाम से उन पर सह्कारीयुगमें, जहाँ मैं कम करता था, एक लेख भी लिखा. 
सागर साहब तो अब नहीं रहे, पर उनकी दी हुई वह किताब आज भी मेरे पास सुरक्षित है. जिसे पढकर मैं उनकी यादों में अपनी ऑंखें नम कर लेता हूँ.
2
उनके सूफीवाद का जिक्र करने से पहले मैं यह बता दूँ कि वह रामपुर के जाटव समाज में सबसे शिक्षित और प्रतिष्ठित परिवार से आते थे. आज से पचास साल पहले जब उनके एक भतीजे ने स्नातक किया था, तो उसकी मिठाई हमारे घर तक आई थी, जबकि उनका मुहल्ला हमारे घर से तीन किलोमीटर दूर था. इसका कारण यह था कि वह रामपुर के जाटव समाज में पहला लड़का था, जिसने ग्रेजुएशन किया था. सागर साहब भी उस समय तक ग्रेजुएट नहीं हुए थे, हालाँकि बाद में उन्होंने नौकरी के दौरान वकालत भी पास कर ली थी. वह बताते थे कि वह मेरे पिता के शिष्य थे. मेरे पिता किसी स्कूल में टीचर नहीं थे. पर सुना था कि वह घर पर बिरादरी के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते थे, जिनमें वह (सागर साहब) भी, जब प्राइमरी में थे, तो पढ़ने आते थे. यह मेरे जन्म से पहले की बात है. मैंने अपने होश में कभी अपने पिता को ट्यूशन पढ़ाते नहीं देखा. पर मेरी  माँ बताती थी कि मेरे पिता बच्चों को पढ़ाते थे. शायद इसीलिए मेरे पिता बिरादरी में मास्टर साहब के नाम से मशहूर थे.
लेकिन मेरा परिचय सागर साहब से तब हुआ, जब मैं हाईस्कूल का छात्र था. यह 1968 की बात है, उनके घर पर रविदास जयंती का कार्यक्रम था. उस समय तक कविता में तुकबंदी करने की बीमारी मुझे लग चुकी थी. मैंने रविदास जी पर एक कविता लिखी, और कार्यक्रम में सुना दी. बस फिर क्या था, सागर साहब आग बबूला हो गए. कार्यक्रम के बाद तो जो उन्होंने मुझे धोया, वह दिल पर लिख गया. उनका एक-एक शब्द आज भी मुझे याद है—‘इसे तुम कविता कहते हो? कविता क्या होती है, जानते भी हो? यह कविता है, न सिर न पैर? जाओ पहले किसी अच्छे गुरु के पास जाकर कविता सीखो.’ इतना सुनने के बाद तो मेरे काटो खून नहीं. पहली बार किसी ने मेरा इतना अपमान किया था. मुझ पर क्या बीत रही थी, यह मैं ही जानता था. इसका वर्णन नहीं किया जा सकता. ऐसा लग रहा था कि धरती फट जाए और मैं उसमें समा जाऊं. पर वह फटकार ही मेरे जीवन का निर्णायक क्षण बना. मैं रुआंसा तो हो ही गया था. पर जिसने दर्द दिया, उसी ने दवा भी दी. बोले, ‘रामपुर में एक बहुत अच्छे कवि हैं कल्याणकुमार जैन ‘शशि’, उनको जाकर गुरु बनाओ और कविता का पिंगल सीखो. बिना पिंगल के कविता लिखना अपनी भद पिटवाना है’.
उस रात मुझे नींद नहीं आई थी. सागर साहब की फटकार आँखों के सामने से हटती ही नहीं थी. कविता तो ठीक है, पर रात भर इसी उधेड़बुन में रहा कि यह पिंगल क्या है? सुबह होते ही कल्याणकुमार जैन ‘शशि’ को खोजने की धुन सवार हो गयी. दिन भर की तलाश के बाद पता चला कि नसरुल्लाह खां बाजार में मैं जिन कल्लूमल हकीम से मुआ की पुड़िया लाता था, वही कल्याणकुमार जैन ‘शशि’ हैं. खैर, उन तक पहुँचने और उनसे कविता सीखने की एक अलग दास्तान है, जिस पर मैं कल्याणकुमार जैन ‘शशि’ पर अपने संस्मरण में विस्तार से लिख चुका हूँ. पर यहाँ मैं यह जरूर खुलासा करूँगा कि उनसे मैंने कविता में गति और मात्रा सीखी, और यही कविता का पिंगल शास्त्र है. पर आज कविता ने जिस तरह अपना स्वरूप बदला है, उसमें पिंगल का कोई महत्व नहीं है.
सत्तर के दशक में जब रामपुर में अम्बेडकरवाद ने प्रवेश किया था, तो  इसके सूत्रधार राजपालसिंह बौद्ध थे, जो अलीगढ़ से अपनी पहली नियुक्ति पर आईटीआई रामपुर में बाबू के पद पर आये थे. उनके साथ बिजली विभाग के एक अधिकारी नत्थू सिंह और टेलीफोन विभाग के बुद्धि सिंह भी थे. इन्हीं तीन लोगों ने डा. अम्बेडकर की विचारधारा का बीज रामपुर के दलित समाज में बोया था. इनमें रामपुर से मैं और सागर साहब जुड गए थे. इससे पहले हम लोग जगजीवनराम को तो जानते थे, पर डा. अम्बेडकर को नहीं जानते थे. अभिवादन में हम लोग रामराम या नमस्कार करते थे. पर अब डा. आंबेडकर के मिशन के प्रचार से ‘जय भीम’ भी अभिवादन में शामिल हो गया था. लेकिन लोग इसके लिए तैयार नहीं थे. ‘जय भीम’ का नाम सुनते ही लोग अजीब सा मुंह बनाते और ‘जय भिन्डी’ कहकर हमारा  मजाक उड़ाते थे. पर निरंतर प्रचार से धीरे-धीरे उनकी समझ मे आने लगा था कि डा. आंबेडकर कौन थे और ‘जय भीम’ का क्या मतलब है? सागर साहब के छिपियान वाले घर पर इस मिशन की साप्ताहिक बैठकें होती थी और आगे की दिशा तय होती थी. मैं तो उस समय विद्यार्थी था, इसलिए आर्थिक योगदान तो मैं कर नहीं सकता था. पर पूरे शहर में जहाँ भी उनका कार्यक्रम होता, मैं उसमें सक्रिय हो जाता था. सागर साहब के घर पर ही एक चलता-फिरता पुस्तकालय कायम करने की योजना बनी. बहुजन कल्याण प्रकाशन लखनऊ से ढेर सारी किताबें मंगाई गयीं. उनको एक रजिस्टर पर चढ़ाने का काम मुझे सौंपा गया. मैंने देखा कि आठ आना, एक रुपया, दो रूपये, और तीन  रूपये से ज्यादा की कोई भी किताब नहीं थी. उन सबका मूल्य सौ रूपये के लगभग था. उन किताबों को रजिस्टर पर लिखते समय किताबों की एक नयी दुनिया मेरे सामने खुल रही थी. इन किताबों के नाम विचारोत्तेजक थे, जैसे बाबासाहेब का जीवन संघर्ष, रावण और उसकी लंका, ईश्वर और उसके गुड्डे, जातिभेद का उच्छेद, संत प्रवर रैदास, बाबासाहेब के व्याख्यान, तुलसी के तीन पात, हिंदू नारी का उत्थान और पतन, महामानव बुद्ध, तुम्हारी क्षय, भागो नहीं बदलो, इत्यादि. मैं पहली बार उन किताबों पर चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु, राहुल सांकृत्यायन और भदंत आनंद कौशल्यायन आदि लेखकों के नाम देख रहा था. मन में उन किताबों को पढ़ने की ललक पैदा हुई, और एक-एक करके मैंने सभी किताबों को घर पर लाकर पढ़ लिया. मेरे लिए ज्ञान का यह नया अनुभव था. उस चलते-फिरते पुस्तकालय ने ही मेरे अंदर एक नए मनुष्य को जन्म दिया. उस समय तक हिंदी में नयी कविता ने तो जन्म नहीं लिया था, मगर दलित समाज में नया मनुष्य जरूर पैदा हो गया था. ये किताबें सागर साहब के घर में ही एक अलमारी में रखी गयीं थीं. इसलिये ये किताबें ही मुझे उनके नजदीक लायीं. मैं उनसे किताब लेकर आता, पढ़ने के बाद वापिस देने जाता. और इस तरह उनके साथ एक गहरा दोस्ताना सम्बन्ध बन गया, ऐसा दोस्ताना कि वह उनकी मौत के बाद ही खत्म हुआ.
उनकी सख्शियत की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वह कभी संजीदा नहीं रहते थे. और इसका कारण यह था कि वह आध्यात्मिक थे, पर धार्मिक नहीं थे. यह सचमुच अजीब बात थी कि कोई आध्यात्मिक तो हो, पर धार्मिक बिलकुल न हो. असल में उनका अध्यात्म सूफीयाना था, जिसका जिक्र मैं ऊपर कर चुका हूँ. ठीक कबीर साहब की तरह वह मंदिर, मस्जिद, मठ, पूजा, नमाज आदि से ईश्वर का कोई संबंध नहीं मानते थे, बल्कि वह अपने ईश्वर को अपने भीतर ही देखते थे. मैं जब भी उनसे कोई गंभीर बात करता, वह उसे इश्क मजाजी और इश्क हकीकी की शायरी में ले जाकर ऐसा उलझा देते थे कि रोमांच पैदा कर देते थे. फिर गाने लगते—‘मन लागो यार फकीरी में. क्या रक्खा यार अमीरी में.’ और वह सचमुच थे भी फक्कड़ों की तरह ही जीवन गुजारने वाले. प्यार उनमें इस कदर गहरा था कि उन्होंने अपने बेटे का नाम भी ‘उल्फत’ रखा था. वह कहते थे कि ‘मैं तो आर. डी. भी हटाना चाहता हूँ, पर मजबूर हूँ कि उससे नौकरी चल रही है. मैं तो सिर्फ सागर रहना चाहता हूँ, मुहब्बत का सागर.’ और वह सागर ही बनकर रहे.
उन्होंने डा. आंबेडकर को भी पढ़ा था और बुद्ध को भी, पर उनसे उनका सूफीयाना अध्यात्म कभी नहीं छूटा. उनके लिए तो समता और स्वतंत्रता का दर्शन भी सूफियाना ही था. कहते थे कि ‘अगर दिलों में प्यार नहीं होगा, तो न समता आएगी और न स्वतंत्रता. हिन्दूधर्म में प्यार नहीं है, इसीलिए वहाँ समता और स्वतंत्रता नहीं है. वह कहते थे कि समता और स्वतंत्रता सूफीवाद में है, क्योंकि उसमें प्यार है.’
एक दिन वह मुझे अपनी मोपेड पर बिठाकर न जाने कौन से मुहल्ले में ले गए. वहाँ एक साधारण से चौखट-किबाड़ वाले घर की कुण्डी बजाई, तो एक सफ़ेद दाढ़ी वाले बुजुर्ग ने दरवाजा खोला. सलाम के बाद सागर साहब ने उनके दोनों हाथों को लेकर बोसा लिया. फिर वह बुजुर्ग उन्हें अंदर ले गए. उन्होंने उनसे मेरा परिचय कराया, इतने में कुछ और लोग आ गए, जिनमें कुछ लड़के भी थे. उन सभी ने सलाम के बाद वही किया, जो सागर साहब ने किया था. मुझे ऐसा लग रहा था कि वे सब एक ही पीर-ओ-मुरशिद के आम बैअत में थे. वे अक्सर कहीं-न कहीं बैठकर समा (सूफी संगीत गोष्ठी) करते थे और ‘इल्मे सीमिया’ (तंत्रमंत्र) भी.
इसलिए, सागर साहब भी अक्सर अपने कुछ चमत्कारों का जिक्र मुझसे करते रहते थे, जिन पर मुझे न तब विश्वास होता था, और न आज होता है. अक्सर वह मुझे खौद वाले सूफी संत की दरगाह के बारे में बताते थे कि वहाँ उन्हें उनके सभी सवालों के जवाब मिल जाते थे. वहाँ शायद उनके कोई पीर ‘इल्मे सीमिया’ करते थे. उन्होंने मुझे बताया कि एक बार उनकी चाची या भाभी ने, जिसकी गोद में साल-भर का बच्चा था, उनसे कहा कि ‘उसे दूध नहीं उतर रहा है. बच्चा भूखा रहता है. क्या तुम्हारे पीर दूध उतार सकते हैं?’ उन्होंने कहा, ‘पीर से पूछ कर बताऊंगा.’ उन्होंने दरगाह पर जाकर अपने पीर से यह बात कही, तो वह बोले, “सुसरी के दूध पर हाथ रख देना, उतरने लगेगा.” सागर साहब घबड़ा गए. पीर से बोले, ‘किसी औरत के सीने पर कोई पराया मर्द हाथ कैसे रख रख सकता है?’ पर पीर ने कहा, ‘यह तुम जानो.’ सागर साहब ने अपनी उस चाची (या भाभी) को यह बात बताई, तो वह भी घबड़ा गई. पर कुछ देर सोचने के बाद वह बोली, ठीक है, अगर तुम्हारी नीयत में खोट नहीं है, तो रख दो हाथ.’ उन्होंने डरते-डरते अपनी ऑंखें बंद करके उसकी एक छाती पर हाथ रख दिया. और चमत्कार कि तुरंत उसकी छाती में दूध उतर आया. पर उसकी एक ही छाती में दूध उतरा था, दूसरी में नहीं. उसने सागर साहब से कहा कि ‘मेरी दूसरी छाती में तो दूध नहीं आया.’ सागर साहब ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया, ‘तू अगर दूसरी छाती पर भी हाथ रखवा लेती, तो उसमें भी आ जाता.’ यह सुनकर मेरी हंसी निकल गयी. वह बोले, ‘क्यों हंस रहे हो?’ मैंने कहा, ‘मैं इसलिए हंस रहा हूँ कि औरतों को पटाने का गुर कोई तुमसे सीखे. मैं अब उनसे आप से तुम पर आ गया था. मैंने कहा, ‘फिर क्या हुआ? क्या उसने दूसरी छाती पर भी हाथ रखवाया कि नहीं?’ मुझे शुरू से ही ऐसे चमत्कारों पर विश्वास नहीं था. और उन्हें भी यह आभास हो गया था कि मैं उनके प्रपंच को समझ रहा हूँ. इसलिए उन्होंने मुझे अपने पीर के चमत्कार फिर कभी नहीं सुनाए.   
पांच अप्रेल को बाबू जगजीवनराम का जन्मदिन होता है. दिल्ली में हर वर्ष उनके 5 कृष्णना मेनन मार्ग आवास पर भव्य आयोजन होता था. देशभर से उनके प्रशंसक भक्त दिल्ली आकर इस कार्यक्रम में शामिल होते थे. शायद अप्रेल 1973 या 74 की पहली तारीख की बात होगी. जब मैं सागर साहब के घर गया, तो मुझसे बोले, ‘पांच तारीख को दिल्ली चलना है. एक बढ़िया सी कविता बाबू जगजीवनराम जी पर लिखकर लाओ. उन दिनों तो मुझ पर कविता का जूनून सवार था. एक दिन में मैं कई कविताएँ लिख लेता था. सो दूसरे दिन मैं शाम को कविता लेकर उनके घर पहुँच गया. कविता को अपने गुरु शशि जी से ठीक करा चुका था. सागर साहब ने भी एकाध जगह कुछ शब्दों को बदला, और कविता पास हो गयी. फिर उसकी एक हजार प्रतियाँ शंकर प्रेस से सुनहरी स्याही में छपवाई गईं. उसके बाद उसकी एक प्रति को बाजार नसरुल्लाह खां में ‘काका की दूकान’ से फ्रेम कराई गयी. फिर फ्रेम की हुई कविता और उसकी छपी हुई बाकी प्रतियों को लेकर चार अप्रेल की रात को हम दोनों लोग दिल्ली के लिए रवाना हो गए. दिल्ली की वह मेरी पहली यात्रा थी. बाबू जगजीवनराम जी के आवास पर भारी चहलपहल थी. प्रदेश भर से लोग आये हुए थे. हम दोनों ही पहली बार बाबू जी को अपने सामने साक्षात देख रहे थे. वह बाहर लान में एक सोफे पर बैठे हुए थे. उनके दर्शन करने वाले, उनके चरण स्पर्श करने वाले और उनको भेंट देने वाले लोगों की भीड़ लगी हुई थी. हमारा नम्बर भी आया और उस अवसर पर सागर साहब ने कहा, ‘हम रामपुर से आये हैं, आपके दर्शन के लिए.’ फिर हम दोनों ने उन्हें फ्रेम जड़ी कविता भेंट की. उन्होंने उसे एक क्षण देखा, मुस्कुराये और उसे पीछे खड़े व्यक्ति को दे दिया. इसके बाद हमने कविता की छपी हुई प्रतियों को वहाँ सभी उपस्थित लोगों को बाँट दिया. और इस प्रकार मेरी एक कविता प्रदेश भर के लोगों के हाथों में पहुँच गयी.
सागर साहब सिर्फ मेरे दोस्त, जाति-बन्धु और ह्मसहरी ही नहीं थे, बल्कि मेरे अभिभावक भी थे. एक बार की बात है, मैं सागर साहब के घर रात में गया, और बोला कि मैं अपने घर नहीं जाऊंगा, आपके यहाँ ही सोऊंगा. वह बोले, ‘वह तो ठीक है, पर बात क्या है?’ मैंने कहा, ‘बाप से अनबन हो गयी है, उन्होंने कहा है कि घर में मत घुसना.’ असल में मेरे पिता, जिन्हें मैं बाप कहता था, सागर साहब से मिलने को मना करते थे. कहते थे, वह मुझे बिगाड़ रहे हैं. उनके दिमाग में यह घुसा हुआ था कि ‘कवि और शाइर काम-धंधा नहीं करते हैं. वे मुफ़लिसी में मरते हैं, मिल गया तो खा लिया, वरना फाका करते हैं, अगर शादी हो गयी, तो बच्चे भी नंगे-भूखे रहते हैं, पता नहीं, यह सब कैसे उन्होंने अपने दिमाग में पाल रखा था. हो सकता है कि किसी कवि या शाइर का कोई मंजर उन्होंने देखा हो. बहरहाल, मेरी कविता को लेकर वह रोज ही मुझे इतना सुनाते थे कि मेरा घर में रहना हराम हो गया था. मेरे लिखे हुए कागजों को भी वह फाड़कर फेंक देते थे. स्थिति यहाँ तक आ गयी थी कि एक दिन उन्होंने मुझे साफ़-साफ़ कह दिया कि घर में रहना है तो सागर साहब से मिलना बंद करना होगा. यह सारी बात जब मैंने सागर साहब को बताई, तो उनका भी दिमाग घूम गया. पर बोले कुछ नहीं. मैं उस रात उनके घर पर ही सोया. सुबह होते ही वह मुझे लेकर मेरे घर पर गए. और उन्होंने मेरे पिता और मेरी माँ दोनों को समझाया. उन्होंने मेरे पिता से कहा, जिसे तुम सबसे नाकारा कह रहे हो, वही तुम्हारा सबसे लायक बेटा है. उन्होंने और भी बहुत कुछ मेरी तारीफ में कहा, जो अब याद नहीं है. पर आखीर में उन्होंने उनको उनके ही तर्क से समझाया. उन्होंने मेरे पिता से पूछा, ‘तुम्हारे घर की गरीबी की वजह क्या है?’ मेरे पिता बोले, ‘सब भाग्य का खेल है. जब भाग्य में ही गरीबी है, तो अमीर कैसे बन जायेंगे?’ सागर साहब बोले, ‘तब यही समझ लो. जब भाग्य का लेखा ही होना है, तो इसके नसीब में अगर लेखक बनना लिखा है, तो उसे कौन रोक सकता है?’ यह तर्क काम कर गया था. पर उसके बाद भी मेरे पिता के व्यवहार में कोई बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया था.
1982 में मैं समाजकल्याण निदेशालय, लखनऊ में, जो उस समय केंट रोड पर टिकरा हाउस में था, दैनिक वेतन पर लिपिक नियुक्त हो गया था. उसके साल भर बाद मुझे उसी विभाग में छात्रावास अधीक्षक की स्थाई नियुक्ति मिल गयी थी. यह मैं पहले ही बता चुका हूँ कि सागर साहब दो महीने तक हमारे साथ लखनऊ में रहे थे. 1983 में मैं लखनऊ से नयी नियुक्ति पर प्रतापगढ़ चला गया था, पर रहता लखनऊ में ही था. सागर साहब लखनऊ से ट्रांसफर कराके वापिस रामपुर चले गए थे. रामपुर में उन्होंने नूर महल वाली आवास विकास कालोनी में अपना दो कमरों वाला मकान ले लिया था. अब मैं रामपुर जब भी आता तो उनके इसी मकान में उनसे मिलता था. एक दिन मेरा बीवी-बच्चों के साथ नैनीताल घूमने का कार्यक्रम बना, तो हम लखनऊ से रामपुर पहुँच कर सीधे सागर साहब के नूर महल आवास विकास वाले घर पर पहुंच गए. शाम हो गयी थी. उन दिनों मोबाईल फोन नहीं थे, और न उनके और मेरे पास लेंडलाइन फोन था, जो उनको अपने आने की खबर दे देता. इस तरह अचानक किसी के घर पर जाना, आज तो कोई भी पसंद नहीं करेगा. पर वह दौर दूसरा था. लोगों में अभी एकांत सेवन का युग नहीं आया था. संयोग से सागर साहब घर पर ही थे, देखकर बहुत खुश हुए. बंटी और सोनू अभी छोटे ही थे, बंटी छह-सात साल का था और सोनू चार साल का था. जून का महीना था. सागर साहब ने तुरंत जलपान की व्यवस्था करवाई. इसके बाद मैंने उन्हें अपने नैनीताल जाने की बात बताई, तो उन्होंने हमें नैनीताल घूमने के अपने अनुभव सुनाये और यह भी बताया कि हमें ट्रेन की बजाय हल्द्वानी तक बस से जाना चाहिए, वहाँ से नैनीताल के लिए बहुत साधन मिलेंगे. हमें यह सुझाव पसंद आया, क्योंकि ट्रेन से भी हम सिर्फ काठगोदाम तक ही जा सकते थे, और वहाँ से हमें बस ही पकड़नी थी. दूसरे, ट्रेन का टाइम फिक्स है, जबकि बसें तमाम हैं, एक छूट गयी, तो दूसरी मिल जायेगी. हम रात को उनके घर पर ही सोये. मटन के साथ खाना खाया. उन दिनों हम लोगों में मटन ही खाया जाता था, चिकन कोई पसंद नहीं करता था. शायद चिकन उन दिनों इतना पापुलर भी नहीं था. खैर, सवेरे हम सात बजे तक सब कामों से निबटकर तैयार हो गए. सागर साहब हमें छोड़ने बस अड्डे तक हमारे साथ आये, और हमें हल्द्वानी वाली बस में बैठाकर ही घर गए.
(22 जनवरी 2017)




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