शनिवार, 17 अगस्त 2019


हिन्दी समाज में बहुजन

(कॅंवल भारती)

   

     हिन्दी समाज में ही नहीं, किसी भी भारतीय भाषा के समाज में बहुजन को परिभाषित करने के दो आधार हैं। एक वर्गीय और दूसरा जातीय। भारतीय सन्दर्भ में दोनों आधार सही हैं। संसार में दुख ज्यादा है और सुख कम है। इस आधार पर बहुजन दुख में हैं और अल्पजन सुख में हैं। बुद्ध ने इसी आधार पर दुखी प्राणियों बहुजन कहा और उनके सुख और हित के लिए धर्मप्रवŸान किया। लेकिन ब्राह्मणों की वर्णव्यवस्था ने इन बहुजनों को कभी संगठित नहीं होने दिया, और वे हमेशा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों पर आधारित जातियों में बॅंटे रहे। उच्च वर्णों ने निचले वर्ण के लोगों को अपना अंग नहीं माना। इसलिए वे कभी उनके सुख-ंउचयदुख में भी शामिल नहीं रहे।

        इसलिए हिन्दी समाज में शूद्र वर्ण और उससे भी नीचे अछूत जातियाॅं ही बहुजन समाज का निर्माण करती हैं। आज की विधिक भाषा में इन्हीं को पिछड़ी जातियाॅं और अनुसूचित जातियाॅं कहा जाता है। इनमें पहली सछूत और दूसरी अछूत जातियाॅं मानी जाती हैं। यदि इनमें आदिम जन जातियों को भी शामिल कर लिया जाए, तो यह और भी बड़ा विशाल वर्ग बन जाता है। किन्तु मैं इस लेख में केवल हिन्दी समाज की पिछड़ी और अछूत जातियों तक ही सीमित रहूॅंगा।

        इस बहुजन समाज में नवजागरण क्या, जागरण भी कैसे आया, यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसका उŸार नवजागरण की किताबों में भी नहीं मिलता। इसे ठीक तरह से सम-हजयने और इसका सही उŸार तलाशने के लिए हम डा. रामविलास शर्मा के इस कथन को आधार अपना बनाते हैं-ंउचय

‘भारतेन्दु युग उŸार भारत में जनजागरण का पहला या प्रारम्भिक दौर नहीं है; वह जनजागरण की पुरानी परम्परा का एक खास दौर है। जनजागरण की शुरुआत तब होती है, जब यहाॅं बोलचाल की भाषाओं में साहित्य रचा जाने लगता है, जब यहाॅं के विभिन्न प्रदेशों में आधुनिक जातियों का गठन होता है। यह सामन्तविरोधी जनजागरण है। भारत में अंग्रेजी राज कायम करने के सिलसिले में पलासी की लड़ाई से 1857 के स्वाधीनता संग्राम तक जो युद्ध हुए, वे जनजागरण के दूसरे दौर के अन्तर्गत हैं। यह पहले दौर से भिन्न है, मुख्य लड़ाई विदेशी शत्रु से है। यह साम्राज्यविरोधी जनजागरण है।’ख्1,

        यहाॅं दो जनजागरणों का सन्दर्भ आया है, एक, सामन्त विरोधी जनजागरण का, और दूसरा, साम्राज्य विरोधी जनजागरण का। दूसरे जनजागरण का समय तो बताया गया है, जो 1857 के स्वाधीनता संग्राम तक है। किन्तु पहले दौर के जनजागरण का समय क्या है, यह नहीं बताया गया है। अगर पलासी की लड़ाई से 1857 के स्वाधीनता संग्राम तक जो युद्ध अंग्रेजों के विरुद्ध हुए, वह समय साम्राज्य विरोधी जागरण का है, तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि सामन्त विरोधी जनजागरण का समय देशी राजाओं के विरुद्ध युद्धों का समय है। किन्तु क्या राजाओं और नवाबों के विरुद्ध जनता के युद्धों का कोई साक्ष्य इतिहास में मिलता है? राजाओं के परस्पर संघर्षों के साक्ष्य तो मिलते हैं, पर जनता के सामन्तविरोधी संघर्षों का कोई प्रमाण नहीं मिलता है। जनता का जो विरोध और विद्रोह अंग्रेजी राज में मिलता है, क्या वैसा कोई विरोध या विद्रोह अंग्रेजी राज से पहले की राजशाही में मिलता है? डा. रामविलास शर्मा जिसे सामन्तवाद के खिलाफ जनजागरण कहते हैं, उसे वे तुलसीदास जैसे कुछ मध्यकलीन सन्त कवियों की रचनाओं में देखते हैं। उसी को वे बोलचाल की भाषा में लिखा गया साहित्य कहते हैं। लेकिन राजशाही में ज्ञान और शिक्षा पर ब्राह्मणों का एकाधिकार था। उस पर प्रहार किए बिना कौन-ंउचयसा जनजागरण हो सकता है? तुलसीदास ब्राह्मण थे, उनके लिए शिक्षा निषिद्ध नहीं थी। मीराबाई राजघराने से थी, इसलिए शिक्षा से वे भी वंचित नहीं थीं। जायसी मुस्लिम थे, और मुस्लिम राज में शिक्षित थे। कबीर मुस्लिम थे, इसलिए वे भी मुस्लिम राज में प-सजय़-ंउचयलिख गए थे। चूॅंकि, मुस्लिम शासकों ने शिक्षा को सार्वजनीन बनाया था, इसलिए शूद्र समुदाय में भी शिक्षा का प्रकाश पहुॅंच गया था। निश्चित रूप से वंचित वर्गों में यह जागरण हुआ था, और इसी जागरण ने बहुजनों में नवजागरण की अलख जगाई थी। लेकिन इसका पूरा श्रेय मुस्लिम राज को जाता है। जिन मध्यकालीन सन्त कवियों में डा. रामविलास शर्मा सामन्तवाद-ंउचयविरोधी जागरण देखते हैं, उनमें सर्वाधिक विरोध का स्वर कबीर और रैदास आदि निचली जातियों के कवियों में ही दिखाई देता है, तुलसीदास आदि ब्राह्मण कवियों में नहीं। मुस्लिम राज में शूद्रों के प-सजय़लिख जाने और जन्मना श्रेष्ठता के विरुद्ध ब्राह्मणों से तर्क करने से सबसे ज्यादा दुखी तुलसीदास ही थे। सन्तों में दो वर्ग थे-ंउचय ब्राह्मण और अब्राह्मण। किन्तु, डा. शर्मा ने गड्डमड्ड करके सबको एक कर दिया है। ब्राह्मण सन्त वर्णव्यवस्था में विश्वास करने वाले थे, और अब्राह्मण सन्त, जिनमें अधिकांश शूद्र जातियों से थे, वर्णव्यवस्था के विरुद्ध समतामूलक समाज के निर्माण पर जोर देते थे। इसके विपरीत तुलसीदास, सूरदास आदि ब्राह्मण सन्त वर्ण-ंउचयआधारित समाज के पक्षधर थे। इस सम्बन्ध में शान्ति भिक्षु शास्त्री का यह कथन महत्वपूर्ण है-ंउचय

        ‘सन्तों का एक दल दीर्घ काल से यहाॅं ब्राह्मणों की जन्मजात श्रेष्ठता का विरोध करता रहा है। इन श्रमणों (सन्तों) के अनुसार ब्राह्मणत्व की सिद्धि जन्म से नहीं होती, प्रत्युत ब्राह्मणता निष्पाप होने का नाम है। (वाहितपापोति ब्राह्मणो)। जो शान्त, दान्त, संयत, ब्रह्मचारी और अहिंसक है, वही श्रमण है, वही ब्राह्मण है और वही भिक्षु है। ब्राह्मणता के इस स्वरूप का मान बुद्धप्रमुख श्रमणों में पूर्वकाल में किया और परवर्ती सन्त इसको दुहराते रहे। पर ‘मानस’ के कवि (तुलसीदास) को यह सहन नहीं है कि गुणों के कारण कोई ऐसा ऊॅंचा बन जाए कि जन्मजात ब्राह्मणों पर अपनी गुणजात श्रमणता या ब्राह्मणता का सिक्का जमाए। मानस का कवि ऐसा कहने को पाप-ंउचययुग का प्रभाव बतलाता है, जिसके फलस्वरूप शूद्र लोग ब्रह्मज्ञानी को असली ब्राह्मण मानते हैं और स्वयं श्रम एवं तप द्वारा उस ब्राह्मणता तक पहुॅंचकर जन्मजात ब्राह्मणों से कह बैठते हैं कि हम तुमसे हीन नहीं हैं-ंउचय

                बादहि सूद्र द्विजन्ह सन, हम तुम्ह तें कछु घाटि।

                जनइ ब्रह्म सो विप्रवर, आॅंखि देखावहिं डाटि।।

        नीची जातियों की ब-सजय़ाब-सजय़ी मानस के कवि को पसन्द नहीं है, क्योंकि वे श्रुति-ंउचयस्मृति-ंउचयपुराण प्रतिपादित हिन्दूधर्म के समर्थक हैं, जिनमें इन लोगों का दबकर रहना ही धर्म माना गया है।ख्2,

        ब्राह्मण सन्तों के विषय में डा. आंबेडकर ने भी अपनी अभिभाषण पुस्तक ‘जाति का उन्मूलन’ (एनिहिलेशन आॅफ कास्ट) में इस सत्य को रेखांकित किया है कि किसी भी ब्राह्मण सन्त ने जाति पर प्रहार नहीं किया। इसके विपरीत वे जातिप्रथा के कट्टर समर्थक ही बने रहे थे।ख्3, उन्होंने एकनाथ का उदाहरण दिया है, जो अछूतों को स्पर्श करने के पश्चात गंगा में नहाकर फिर से शुद्ध हो जाते थे।ख्4, अतः सामन्तवाद-ंउचयविरोध का अगर कोई स्वर था, तो वह शूद्र सन्तों की वाणी में था। यह ब्राह्मणवाद के विरुद्ध जागरण था, क्योंकि उसमें वर्णव्यवस्था का खण्डन था। कबीर ने ब्राह्मण के जगदगुरु होने का खण्डन किया था,ख्5, उसकी उच्चता को नकारा था और अस्पृश्यता का विरोध किया था।ख्6, रैदास ने चारों वेदों का खण्डन करके व्यक्ति के गुण और ज्ञान पर महत्व दिया था।ख्7, इस प्रकार कहना न होगा कि सामन्तविरोधी जागरण ब्राह्मणवाद-ंउचयविरोधी जागरण भी था, जिसके नायक शूद्र जातियाॅं थीं। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि ‘जिसके पैर न फटे बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई’। सामन्तवाद में ब्राह्मण को यह पीर हुई ही नहीं थी। फिर वह क्यों विद्रोह करता? डा. रामविलास शर्मा ने तुलसी को सामन्तविरोधी बताकर हवा में लट्ठ चलाया है।

        अब आते हैं, साम्राज्यविरोधी जागरण पर। डा. शर्मा अंग्रेजी राज के विरुद्ध लड़ाई को साम्राज्यवाद-ंउचयविरोधी जागरण मानते हंै। लेकिन वास्तव में यह जागरण भी ब्राह्मणवाद के पक्ष का जागरण था। अंग्रेजी राज से सबसे ज्यादा परेशानी ब्राह्मणों को ही थी, क्योंकि उसके समाजसुधारों-ंउचय अस्पृश्यता के विरुद्ध कानूनों, शिक्षा को सार्वजनीन बनाने और सती जैसी  क्रूर प्रथा को बन्द करवाने के क्रान्तिकारी कदमों ने ब्राह्मणवाद के किले को ध्वस्त कर दिया था। भारत के इतिहास में पहली बार अंग्रेजी राज ने ही कानून की नजर में सबको समान किया था। 1817 तक ब्राह्मण मृत्युदण्ड से मुक्त था। इस विशेषाधिकार को भी अंग्रेजी राज ने ही समाप्त किया था। इसलिए अपने विशेषाधिकारों और अपनी स्वाधीनता को फिर से प्राप्त करने के लिए ही ब्राह्मण ने अंग्रेजी राज के विरुद्ध लड़ाई शुरु की थी और उसे स्वतन्त्रता संग्राम का नाम दिया था, जबकि वही ब्राह्मण भारत की दलित, पिछड़ी और आदिम जनजातियों को अपने अधीन गुलाम बनाकर रखे हुए था।

        यहाॅं मैं एक अत्यन्त महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि सवाल अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई का नहीं है, बल्कि उसके परिणाम का है। अंग्रेजों ने सारी लड़ाईयाॅं जीतीं-ंउचय पलासी की लड़ाई जीती, पेशवा राज को जीता और 1857 के गदर को भी कुचला। सवाल है कि यह जीत किन परिस्थितियों में हुई? क्या भारतीय नवजागरण के साहित्य में इसका उल्लेख मिलता है? उŸार है, नहीं मिलता है। लेकिन इसका जिक्र दलित साहित्य में मिलता है। डा. आंबेडकर ने अपने निबन्ध ‘दि अनटचेबिल्स एण्ड दि पेक्स ब्रिटेनिका’ में जो तथ्य उजागर किए हैं, वे बहुजन-ंउचयजागरण के सन्दर्भ में विचारणीय हैं। उन्होंने लिखा है-ंउचय

‘़वर्ष 1757 में ईस्ट इंडिया कम्पनी और बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला की सेना के बीच लड़ाई हुई थी। इस लड़ाई में ब्रिटिश सेना की जीत हुई थी। इतिहास में इसे प्लासी की लड़ाई के रूप में जाना जाता है और इसी जीत के परिणामस्वरूप भारत में पहली बार एक राज्य में अंग्रेजी राज कायम हुआ था। अन्तिम क्षेत्रीय लड़ाई अंग्रेजों ने 1818 में जीती थी, जिसे कोरेगाॅंव की लड़ाई के नाम से जाना जाता है। इस लड़ाई ने मराठा साम्राज्य को ध्वस्त करके भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को स्थापित किया था। इस प्रकार भारत पर अंग्रेजों की विजय 1757 और 1818 के बीच हुई।’ख्8,

‘भारत पर अंग्रेजों को यह विजय भारतीयों की सहायता से हासिल हुई थी। लेकिन वे कौन भारतीय थे, जो विदेशियों की सेना में शामिल हुए थे? इस़़का उŸार यह है कि वे भारतीय, जो ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना में भर्ती हुए थे, भारत के अछूत थे। जो भारतीय प्लासी की लड़ाई में क्लाइव के विरुद्ध लड़े थे, वे दुसाध थे और दुसाध एक अछूत जाति है। जो लोग कोरेगाॅंव की लड़ाई में लड़े थे, वे महार थे और महार एक अछूत जाति है। इस प्रकार पहली लड़ाई और आखिरी लड़ाई में अंग्रेजों की ओर से लड़ने वाले लोग अछूत थे, जिनकी सहायता से उन्होंने भारत पर जीत हासिल की थी। यह सत्य 1859 में भारतीय सेना के पुनर्गठन पर नियुक्त ‘पील कमीशन’ की रिपोर्ट में दर्ज है।’ख्9,

        डा. आंबेडकर के अनुसार न केवल अछूतों ने भारत को जीतने में अंग्रेजों की मदद की थी, बल्कि 1857 के गदर को कुचलने में भी उनकी सहायता की थी-ंउचय

        ‘अछूतों ने न केवल अंग्रेजों को भारत को जीतने के लिए सक्षम बनाया था, अपितु उनको सŸाा में बनाए रखने में भी सक्षम बनाया था। 1857 का गदर भारत में अंगे्रजी सŸाा को ध्वस्त करने और भारत को फिर से जीतने का प्रयास था। यह गदर बंगाल की सेना ने किया था, जबकि बम्बई और मद्रास की सेनाएॅं वफादार बनी रहीं थीं। अंग्रेजों ने उनकी सहायता से ही उस गदर को कुचला था। बम्बई राज्य की सेना में महार और मद्रास की सेना में परिया थे।’ख्10,

        भारत के विरुद्ध अंग्रेजों की लड़ाई में दलितों की सहायता को राष्ट्रवाद की दृष्टि से देखे जाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि पीड़ितों और दासों का कोई राष्ट्र नहीं होता है। यह आकस्मिक नहीं है कि डा. आंबेडकर से पहले जोतिबा फुले ने भी बहुजनों के लिए अंग्रेजी राज की हिमायत की थी। उन्होंने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘गुलामगिरी’ की भूमिका में लिखा है-ंउचय

‘शूद्रों में से कई लोगों (जातियों) को रास्ते पर थूकने की मनाही थी। इसलिए उन शूद्रों को ब्राह्मणों की बस्तियों से गुजरना पड़ा, तो अपने साथ थूकने के लिए मिट्टी के किसी एक बर्तन को रखना पड़ता था। सम-हजय लो उसकी थूक जमीन पर पड़ गई और उसको ब्राह्मण-ंउचयपण्डे ने देख लिया, तो उस शूद्र के दिन भर गए। अब उसकी खैर नहीं। इस तरह के लोग (शूद्रादि-ंउचयअतिशूद्र जातियाॅं) अनगिनत मुसीबतों को सहते-ंउचयसहते मटियामेट हो गए।......ऐसे समय बड़ी खुशकिस्मत कहिए कि ईश्वर को उन पर दया आई, इस देश में अंग्रेजों की सŸाा कायम हुई, जिसने इन लोगों को ब्राह्मणशाही की गुलामी की फौलादी जंजीरों को तोड़ करके मुक्ति की राह दिखाई है। उन्होंने इनके बीवी-ंउचयबच्चों को सुख के दिन दिखाए हैं। यदि वे यहाॅं न आते तो ब्राह्मणों ने, ब्राह्मणशाही ने इन्हें कभी सम्मान और स्वतन्त्रता की जिन्दगी न गुजारने दी होती।’ख्11,

        अगर ब्राह्मणशाही से पीड़ित शूद्रों ने भारत को जीतने में अंग्रेजों की मदद की, तो यह स्वाभाविक ही था। वे ब्राह्मणों के अत्याचारों से मुक्ति चाहते थे और वे इस मुक्ति को अंग्रेजी राज में देख रहे थे।

        शूद्रों में जागरण कब और कैसे आया, इसका कोई निश्चित काल-ंउचयनिर्धारण नहीं किया जा सकता। धार्मिक रूप से जाति के खिलाफ आवाजें मध्यकालीन सन्तों के समय से ही उठती रही थीं, परन्तु शूद्रों में स्वाभिमान की चेतना अभी नहीं आई थी। निर्विवाद रूप से उनमें सामाजिक स्वाभिमान की चेतना 19वीं सदी में ही आई थी, जब भारत में ईसाई मिशनरियों ने कदम रखा था। अतः यह कहना गलत न होगा कि ईसाई मिशनरी ही उनमें नवजागरण के पहले सर्जक थे। पश्चिम से आने वाले मिशनरियों ने विभिन्न भारत में अनेक स्थानों पर अपने केन्द्र स्थापित किए थे। उनमें से बहुतों ने निम्न जातियों में काम करना आरम्भ किया और उनका धर्मपरिवर्तन कराने में सफलता पाई। इस प्रकार मद्रास प्रेसीडेंसी में 1803 तक 5000 से ज्यादा नादर (ताड़ी निकालने वाले) लोग ईसाई बन गए थे। ये अनेक सम्प्रदायों के मिशन थे, जैसे डेनिश मिशन, लन्दन मिशन और चर्च मिशन। इन सबको ईस्ट इंडिया कम्पनी का समर्थन प्राप्त था। ब्रिटिश राज के समर्थन से ईसाई मिशनरियों ने न केवल निम्न जातियों में अपनी धार्मिक, शैक्षिक, मेडिकल और समाज-ंउचयकल्याण के कार्य किए, बल्कि उनके मूल नागरिक अधिकारों और सरकारी सेवा में नौकरियों को भी सुनिश्चित करने का काम किया। उदाहरण के लिए, त्रावणकोर में स्थानीय प्रथा के अनुसार निम्न जातियों की महिलाओं को अपनी छातियाॅं ख्12,


धर्मान्तरण के बाद निम्न जातियों का कायाकल्प हो गया। वे अंग्रेजी प-सजय़नेलिखने लगे, परम्पराएॅं और प्रथाएॅं तोड़कर स्वाभिमान और सम्मान से रहने लगे, और सरकारी नौकरियों में आने के बाद उनका सामाजिक स्तर भी बेहतर होने लगा। इसने अन्य निम्न जातियों को भी सोचने के लिए विवश कर दिया कि क्यों न वे भी ईसाई बनकर गुलामी की जिन्दगी से मुक्त हो जाएॅं और अपना सम्मानजनक विकास करें।

जिस प्रकार इस्लाम की परिस्थितियों ने हिन्दूधर्म में वैष्णवमत पैदा किया, उसी प्रकार ईसाईयत के प्रभाव ने हिन्दू समाज में आर्य समाज, ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज और शुद्धि के आन्दोलनों को जन्म दिया। किन्तु इन सबका उद्देश्य शूद्रों को इस्लाम और ईसाई धर्मों में जाने से रोकना था, न कि उनको समान नागरिक अधिकार देना। फिर भी आर्य समाज ने इस सम्बन्ध में अन्य आन्दोलनों से बेहतर काम किया था, हालाॅंकि शुद्धि आन्दोलन भी आर्य समाज का ही अभियान था, जो आज के संघ परिवार की तरह ही मुसलमान या ईसाई बनने वाले दलितों की हिन्दूधर्म में ‘घर वापिसी’ कराता था।

फिर भी शूद्रों के जागरण में इन आन्दोलनों की भूमिका उतनी नहीं थी, जितनी कि अंग्रेजी राज के सुधार आन्दोलनों की थी। पश्चिम बंगाल में जुलाहों की एक जाति ‘जोगी’ थी, जिसने अपनी ब्राह्मण पहिचान के लिए संघर्ष किया और 19 वीं सदी के अन्त तक वे जनेऊ धारण करने लगे थे। 1901 में उन्होंने ‘जोगी हितैषिणी सभा’ स्थापित की और ‘जोगीसाका’ नामक एक पत्रिका का प्रकाशन भी आरम्भ कर दिया था।ख्13, बंगाल में ही चाॅंद गुरु (1850-ंउचय1930) हुए, जिन्होंने ‘चाण्डाल’ की पहिचान के विरुद्ध ‘नमोशूद्र’ आन्दोलन चलाया। जोया चटर्जी के अनुसार, ‘1870 के दशक में बाकरगंज और फरीदपुर के चाण्डालों ने उच्च जातीय हिन्दुओं का बहिष्कार कर दिया था, क्योंकि उन्होंने चाण्डाल मुखिया के यहाॅं खाना खाने से इन्कार कर दिया था। इसके बाद उन्होंने अपनी पारम्परिक स्थिति में सुधार के लिए सम्मानजनक ‘नामसूद्र’ का नाम और ब्राह्मण का दर्जा पाने के लिए अपनी लड़ाई जारी रखी।ख्14, 1930 में अंग्रेज सरकार में उनकी माॅंग को मान्यता दी।

19वीं सदी में ही महाराष्ट्र, मद्रास और मैसूर में ब्राह्मण-ंउचयविरोधी (छवद.ठतंीउंद) आन्दोलनों के उभार ने भी इन क्षेत्रों में ब्राह्मणों के दमन-ंउचयचक्र के खिलाफ शूद्रों को सामाजिक और राजनीतिक रूप से संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इस आन्दोलन ने उनमें न केवल आत्मसम्मान की भावना जाग्रत की, बल्कि उनको समान नागरिक अधिकारों के प्रति भी जागरूक किया। महाराष्ट्र में जोतिबा फुले के ब्राह्मण-ंउचयविरोधी आन्दोलन ने शूद्रों को शिक्षित करने का काम शुरु किया। वे पहले भारतीय थे, जिन्होंने महाराष्ट्र में अछूतों और लड़कियों के लिए स्कूल खोला था।ख्15, वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने निम्न वर्गों के किसानों और लोगों को उनकी गुलामी का बोध कराया था। उन्होंने ‘ब्रह्म समाज’ और ‘प्रार्थना समाज’ के मुकाबले 1873 में ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की थी, जो वर्ण और जाति के विरुद्ध पहला शूद्र संगठन था। ‘सत्यशोधक समाज’ का प्रभाव भले ही महाराष्ट्र तक सीमित था, परन्तु वर्ण और जाति के विरुद्ध पूरे देश में एक जैसा वातावरण तैयार हो रहा था।

शूद्र जातियों में अपनी सम्मानजनक अस्मिता को लेकर हिन्दी क्षेत्र में भी उसी तरह की गतिविधियाॅं चल रही थीं, जिस प्रकार की गतिविधियों का उल्लेख पश्चिम बंगाल में जोगी और नामशूद्र समुदायों के बारे में किया जा चुका है। 19वीं सदी के आरम्भ में उŸार प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, बिहार, मध्यप्रदेश और राजस्थान आदि प्रान्तों में अनेक शूद्र जातियाॅं खुद को क्षत्रिय होने का दावा कर रही थीं। इनमें अहीर या गोपालक जातियाॅं अपना सम्बन्ध कृष्ण के यदु वंश से जोड़ते हुए अपनी यादव पहिचान बना रही थीं। चूॅंकि वे निम्न श्रेणी में थे, इसलिए उच्च श्रेणी में जाने के लिए अपनी यादव अस्मिता स्थापित कर रहे थे। राव के अनुसार, ‘उनके देवता भी निम्न स्तरीय थे, इसलिए आध्यात्मिक उन्नति और आत्मसम्मान पाने के लिए बहुत से यादवों ने आर्य समाज के प्रभाव में आकर वैदिक हिन्दूधर्म अपना लिया था, किन्तु उन्हें ठाकुरों, भूमिहार ब्राह्मणों (बिहार) और ब्राह्मणों के साथ हिंसक संघर्ष का भी सामना करना पड़ा था। जब अहीरों ने सार्वजनिक रूप से जनेऊ पहिनना आरम्भ किया, तो ठाकुरों और भूमिहार ब्राह्मणों ने हिंसा का सहारा लिया और उनको अपने विशेषाधिकारों में अतिक्रमण करने से रोका। लेकिन अहीरों ने, इस हिंसा के आगे -हजयुकने के बजाए, जनता में इसका व्यापक प्रचार किया और 1901 के आसपास एक नियमित जनेऊ आन्दोलन चलाया। शीघ्र ही यह आन्दोलन उŸार प्रदेश और पंजाब में भी फैल गया। यह द्विज जातियों के साथ समान धार्मिक अधिकार प्राप्त करने के लिए यादवों का पहला सामाजिक जागरण था। भारत के विभिन्न भागों-ंउचय उŸार प्रदेश, बिहार, पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बंगाल, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में क्षेत्रीय यादव संगठन अस्तित्व में आए।’ख्16,

राव लिखते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर यादव-ंउचयअस्मिता का उभार 1923 हुआ, जब अखिल भारतीय यादव महासभा का गठन हुआ। इसका नेतृत्व बम्बई के पेशेवर बौद्धिक और पश्चिमी पद्धति से शिक्षित डा. खेड़ेकर के हाथों में आया, जिन्होंने इस संगठन में सक्रिय रुचि ली। उन्हीं के नेतृत्व में पिछड़ी जातियों का एक शिष्ट मण्डल संसद की संयुक्त चयन समिति के समक्ष अपने राजनीतिक अधिकारों का प्रतिनिधित्व करने के लिए लन्दन गया था।ख्17, राव के अनुसार अखिल भारतीय यादव महासभा ने दो महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए थे, पहला, भारतीय सेना में यादव रेजिमेंट का, और दूसरा ़शिक्षा और रोजगार में पिछड़ी जातियों को बेहतर अवसर देने का।ख्18,

विलियम रोवे (1968) के हवाले से राव ने वर्णन किया है कि उŸार प्रदेश, मध्यप्रदेश और बिहार के कुम्हारों की एक जाति नोनिया ने भी चैहान राजपूत (क्षत्रिय) होने का दावा किया था। बहुत से नोनियाओं ने ईंट बनाने और मिट्टी के बर्तन बनाने के ठेकों से धन कमाया, जिसके बल पर उन्होंने समाज में उच्च स्थान प्राप्त किया और अपनी अलग विचारधारा स्थापित की। उन्होंने भी यादवों की तरह आर्य समाज के वैदिक धर्म को अपनाकर जनेऊ धारण किया, और वैदिक यज्ञों में भाग लिया, जिससे वे सदियों से वंचित थे। इस प्रकार क्षत्रिय अस्मिता के साथ आर्य समाज बनकर नोनियाओं ने आत्मसम्मान और गौरव दोनों को प्राप्त किया। उन्होंने 1935 में कटनी (मध्यप्रदेश) में अखिल भारतीय नोनिया सभा का गठन किया और उसके माध्यम से शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक अधिकार हासिल करने के लिए लड़ाई लड़ी।ख्19,

चूॅंकि पिछड़ी जातियाॅं अस्पृश्य नहीं थीं, और हिन्दू समाज को उनके उत्पादों की आवश्यकता थी, इसलिए उनके साथ द्विज जातियों का संघर्ष हिंसक नहीं रहा। किन्तु दलित जातियाॅं, जो अछूत थीं और जिनकी छाया भी द्विजों को दूषित कर देती थी, उनके साथ सवर्णों की हिंसा आज तक जारी है। यद्यपि उच्च अस्मिता का आन्दोलन दलित जातियों ने भी चलाया, परन्तु उन्हें वह सफलता नहीं मिली, जैसी यादव सरीखी कुछ पिछड़ी जातियों को मिली।

भारत में अछूत जातियों के संघर्ष का इतिहास सर्वप्रथम अछूत जातियों के बुद्धिजीवियों ने ही लिखा, क्योंकि हिन्दू इतिहासकारों ने दलित जातियों को हिन्दू समाज का अंग ही नहीं माना। यही कारण है कि उनके इतिहास-ंउचयलेखन में दलित जातियों का संघर्ष प्रायः नहीं मिलता है। दलित बुद्धिजीवियों ने अपने इतिहास-ंउचयलेखन की शुरुआत बीसवीं सदी के आरम्भ में ही कर दी थी। रामनारायण एस. रावत ने ष्त्मबवदेपकमतपदह न्दजवनबींइसपजलष् मेें इस इतिहास पर विस्तार से प्रकाश डाला है।ख्20, यहाॅं उन्हीं के हवाले से इस इतिहास पर चर्चा की गई है। 1920-ंउचय30 के दशकों में शुरु हुए चमारों के संघर्ष आर्थिक समानता, भूमि-ंउचयवितरण, रोजगार के सवाल पर या अंग्रेजी राज के विरुद्ध नहीं हुए थे, बल्कि उन्होंने अपना आन्दोलन ब्राह्मणवाद के खिलाफ अपनी सामाजिक गरिमा पाने के लिए आरम्भ किया था। उन्होंने ‘चमार’ शब्द के विरुद्ध ‘जाटव’ उपनाम के लिए आन्दोलन चलाया और उसके लिए सरकार को पत्र लिखे। चमारों ने ‘जाटव महासभा’ बनाई, जिसके प्रमुख सदस्य रामनारायण यादवेन्दु थे। उन्होंने बाद में अखिल भारतीय जाटव नवयुवक संघ का गठन किया और उसके तत्वावधान में इस लड़ाई को जारी रखा। इस लड़ाई में उनकी जीत हुई, जिसकी 1937 में गाजियाबाद में अखिल भारतीय जाटव नवयुवक संघ के सातवें अधिवेशन में घोषणा करते हुए कहा गया था कि उŸार प्रदेश सरकार ने ‘जाटव’ उपनाम को स्वीकार कर लिया है। इस काल में चमारों से सम्बन्धित चार इतिहास लिखे गए थे-ंउचय यू. बी. एस. रघुवंशी का ‘श्री चॅंवर पुराण’ (1910 और 1916 के बीच), जैसवार महासभा का ‘सूर्यवंश क्षत्रिय’ (1926), सुन्दरलाल सगर का ‘यादव जीवन’ और रामनारायण यादवेन्दु का ‘यदुवंश का इतिहास’ (1942)। सगर और यादवेन्दु ने, जो जटिया थे, अपनी जाति का सम्बन्ध भगवान कृष्ण से जोड़कर ‘जाटव-ंउचयक्षत्रिय’ होने का दावा किया था। ‘जटिया’ चमार मुख्य रूप से पश्चिमी उŸार प्रदेश के मेरठ, आगरा, मुरादाबाद, रामपुर और बदायूॅं जनपदों में बसे हुए थे। पूर्वी उŸार प्रदेश में ‘जैसवार’ चमार थे। उन्होंने भी अपना सम्बन्ध चॅंवर राजवंश से जोड़कर क्षत्रिय होने का दावा किया था। जटिया और जैसवार दो प्रमुख चमार जातियाॅं हैं, जो उŸार प्रदेश की चमार आबादी का दो-ंउचयपाॅंचवाॅं हिस्सा हंै।

‘चॅंवर पुराण’ कानपुर से प्रकाशित हुआ था, जिसकी पृष्ठ संख्या 79 थी। उसके लेखक रघुवंशी अलीग-सजय़ में वकील थे। ‘सूर्यवंश क्षत्रिय’ का प्रकाशन लाहौर से हुआ था। यह दस पृष्ठों की पुस्तिका थी, जिसमें चॅंवर पुराण की कथा को ही लिखा गया था। रघुवंशी के अनुसार, चॅंवर पुराण की खोज तिब्बत में हिमालय की एक गुफा में रहने वाले ऋषि ने की थी। उन्होंने ही उसका संस्कृत से हिन्दी में अनुवाद किया था। चॅंवर पुराण यह प्रमाणित करता है कि चमारों का मूल नाम चॅंवर है। इस पुराण के अनुसार द्विज कुल में आज के चमार शक्तिशाली शासक थे, जो सूर्यवंशी चॅंवर वंश से थे। रघुवंशी चॅंवर पुराण को सत्य साबित करते हुए कहते हैं कि महाभारत का अनुशासन पर्व चॅंवर राजवंश को क्षत्रिय बताता है, जिसने अपना क्षत्रियत्व इसलिए खो दिया था, क्योंकि उसके सदस्यों ने ब्राह्मणों का आदर करना बन्द कर दिया था। इसलिए चॅंवर पुराण में यह भविष्य वाणी मिलती है कि इस क्षति को पूरा करने के लिए चमार जाति में सन्त रैदास का जन्म होगा।

चॅंवर पुराण के अनुसार चॅंवर राजा चामुण्डा राय इस राजवंश का अन्तिम राजा था, जो वर्णाश्रम धर्म का पालन करता था और विष्णु का भक्त था। कथा है कि एक बार विष्णु ने शूद्र के भेष में आकर चामुण्डा की भक्ति की परीक्षा लेने के लिए उसके सामने वेदों का पाठ करने लगे। इससे चामुण्डा राय की पूजा में विघ्न पैदा हो गया। वह एक शूद्र को वेदों का पाठ करते हुए देखकर नाराज हो गए और उसे चेतावनी दी कि शूद्र को वेद प-सजय़ने का अधिकार नहीं है। यह सुनकर विष्णु अपने असली रूप में प्रकट हो गए और बोले कि इस संसार में व्यक्ति अपने कर्मों से शूद्र होता है, जन्म से नहीं। तब चामुण्डा ने अपनी गलती के लिए क्षमा माॅंगी, पर विष्णु ने क्रोधित होकर उसे शाप दिया कि अब वह और उसके वंशज क्षत्रिय के दर्जे से बाहर हो जायेंगे और शूद्र से भी नीचे गिरकर चमार और अछूत हो जायेंगे। उसी समय से चॅंवर वंश और उसका इतिहास पृथ्वी से लुप्त हो गया।

दूसरा इतिहास जटिया चमारों का ‘जाटव जीवन’ नाम से 1924 में प्रकाशित हुआ। इसका 108 पृष्ठों का दूसरा संस्करण 1929 में नए शीर्षक ‘यादव जीवन’ नाम से छपा। इसके लेखक आगरा के सुन्दर लाल सगर थे, जिन्होंने चमारों को यदु वंश से जोड़ते हुए उनके यादव होने कर दावा किया था। 1946 में रामनारायण यादवेन्दु ने ‘यदुवंश का इतिहास’ लिखा, जिसमें अधिकांश बातें ‘यादव जीवन’ से ही ली गई थीं, पर इसमें विशेष रूप से अनेक जाटव संगठनों का भी इतिहास दिया गया था। सुन्दरलाल सगर ने लिखा था कि ‘हम अपने राष्ट्र, देश, वंश और जाति के बारे में अपने इतिहास से ही जानते है।’ख्21, यह किताब प्रश्नोŸार शैली में लिखी गई थी, जिसमें अज्ञानी जाटव को यह ज्ञान दिया गया था कि इतिहास के अभाव तथा अपने समुदाय और उसके अतीत का ज्ञान न होने के कारण ही यदुवंश पददलित और अपवित्र हुआ। दो हिन्दू वकीलों ने उनके इस प्रयास का विरोध किया कि उनका उपनाम मतदाता सूची में यादव के रूप में लिखा जाए। सगर ने उनके विरुद्ध आगरा के कमिशनर आर. एल. एच. क्लार्क की अदालत में प्रतिवाद दायर किया। उन्होंने गर्व के साथ क्लार्क की अदालत में कहा, ‘यह किताब (जाटव जीवन) सुन्दरलाल यादव ने लिखी है, जो स्पष्ट रूप से यह साबित करती है कि वास्तव में सारे जाटव यादव हैं।’ एक महत्वपूर्ण बात वह यह भी लिखते हैं कि जाटवों के पूर्वजों ने परशुराम के विरुद्ध युद्ध किया था। पर, इस युद्ध में क्षत्रिय पराजित हो गए थे। अतः जाटव अपने उत्पीड़न से बचने के लिए पृथ्वी से पलायन करके जंगलों में जाकर छिप गए और अपनी क्षत्रिय पहिचान छिपाकर शिल्पकार बनकर रहने लगे। इस प्रकार उन्होंने अपना शुद्ध सामाजिक स्तर खो दिया। उसी समय से जाटवों के विरुद्ध ब्राह्मणों का भेदभाव आरम्भ हो गया और वे चमार अछूत बन गए। सगर का जोर इस बात पर था कि ‘जाटव’ यादव का अपभ्रंश है। निश्चित रूप से इन इतिहासों की पौराणिक कहानियाॅं ब्राह्मणों के द्वारा ही चमारों का हिन्दूकरण करने के उद्देश्य से ग-सजय़ी गई थीं। 1920 के दशक के चमारों के इतिहास में उŸार प्रदेश के चमारों का व्यापक सामाजिक आधार मिलता है। पुलिस रिपोर्टों में 1920 और 1928 के दौरान चमारों के अनगिनत प्रतिरोध दर्ज हैं। लेकिन इन प्रतिरोधों की खबरें हिन्दी के राष्ट्रीय अखबारों में नहीं मिलतीं। ‘प्रताप’, ‘अभ्युदय’ और ‘आज’ जैसे कुछ हिन्दी पत्रों में भी उन पर तब खबरें छापीं, जब काॅंग्रेस और कुछ हिन्दू संगठनों ने उनके बीच अस्पृश्यता-ंउचयविरोधी अभियान शुरु किए। यद्यपि चमारों के संघर्ष देशभर में हुए थे, परन्तु पुलिस रिपोर्ट के अनुसार सबसे अधिक आन्दोलन उŸार प्रदेश में हुए थे। जाटव महासभा की सबसे ज्यादा शाखाएॅं पश्चिमी उŸार प्रदेश में थीं और इसी क्षेत्र में चमार अपनी अस्मिता के लिए सबसे अधिक संगठित थे।

यहाॅं इस तथ्य को उजागर करना करना आवश्यक है कि चमारों के संघर्ष अंग्रेज सरकार के प्रति निष्ठावान थे। उनकी गतिविधियाॅं 1920-ंउचय22 में काॅंग्रेस के द्वारा शुरु किए गए असहयोग आन्दोलन के विपरीत थीं। पुलिस रिपोर्टस बताती हैं कि पश्चिमी उŸार प्रदेश के लगभग सभी जिलों में चमारों ने सभाएॅं करके अंग्रेजों के समर्थन और असहयोग आन्दोलन के विरोध में प्रस्ताव पास किया था। चमारों के संघर्ष का मुख्य एजेण्डा दो बातों पर जोर देता था-ंउचय एक, अपने बच्चों की शिक्षा के लिए नगरपालिकाओं से स्कूल खुलवाने पर और दो, ‘बेगारी’ की प्रथा को खत्म कराने पर, जो उन काल में दलितों का सबसे बड़ा उत्पीड़न था। बेगारी का प्रतिरोध 1920 के दशक का मुख्य दलित आन्दोलन था। अवध क्षेत्र में दलितों ने 1921-ंउचय22 के किसान सभा आन्दोलन में भाग लिया था, जो ‘बेदखली’ और ‘बेगारी’ के खिलाफ शुरु हुआ था। अप्रैल 1928 के हिन्दी साप्ताहिक ‘प्रताप’ ने बेगारी के खिलाफ कानपुर की रैदास सभा के दो दिवसीय सम्मेलन पर अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की थी।

इस काल में आर्य समाज के जागरण का उल्लेख करना भी जरूरी है। उन्नीसवीं सदी में हिन्दुओं को इस्लाम और ईसाईयत के प्रभाव से बचाने के लिए आर्य समाज का उद्भव हुआ। इसके संस्थापक स्वामी दयानन्द ने वर्णव्यवस्था का विरोध तो नहीं किया, परन्तु वेदों और मनु-ंउचयवचनों की नई व्याख्या करके अस्पृश्यता को अमान्य करार दिया, शूद्र-ंउचयशिक्षा का समर्थन किया और कुलीन शूद्रों को वेदाध्ययन का पात्र माना। बीसवीं सदी के पहले-ंउचयदूसरे दशकों में उसके नेताओं ने जातपात के खिलाफ मुहिम चलाई और दलितों के लिए आर्य समाजी स्कूल खोले। चॅूकि शोषितों को परिवर्तन और शोषकों को यथास्थिति पसन्द होती है, इसलिए शोषित जन हर उस विचारधारा के साथ आसानी से खड़े हो जाते हैं, जो उन्हें उनकी पतित स्थिति से उबारकर उनके उत्थान का मार्ग प्रशस्त करती है। इसलिए वे आर्य समाज की ओर भी तेजी से आकर्षित हुए और बड़ी संख्या में दलित वर्गों ने आर्य समाज अपनाकर अपनी ‘आर्य’ पहिचान बनाई। आर्य समाज ने एक बड़े पैमाने पर दलितोद्धार का मिशन चलाया, जिसने दलित वर्गों में अनेकों नामीगिरामी आर्य प्रचारक पैदा किए। पिछड़े वर्ग से सन्तराम बी.ए. जैसा क्रान्तिकारी आर्य समाजी पैदा हुआ, जिसने ‘जातपाॅंत तोड़क मण्डल’ बनाकर पूरे देश का ध्यान खींचा था। इसी मण्डल के वार्षिक अधिवेशन में डा. आंबेडकर को व्याख्यान देने के लिए आमन्त्रित किया गया था। हिन्दी ़क्षेत्र में चमार जाति से स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’ भी आर्य समाजी थे, जिन्होंने बाद में आर्य समाज छोड़कर 1923 में ‘आदि हिन्दू‘ आन्दोलन चलाकर दलितों की नई पहिचान ‘आदि हिन्दू’ की बनाई थी। उन्होंने 1927 ‘आदि हिन्दू महासभा’ का गठन किया था, जो मालवीय और सावरकर जैसे उच्च हिन्दुओं की ‘हिन्दू महासभा’ से दलितों को जोड़ने के विरुद्ध एक बड़ा राजनीतिक कदम था। इसी वर्ष उसके हजारों कार्यकर्ताओं ने लखनऊ में साइमन कमीशन का भव्य स्वागत किया और उसे अछूतों की समस्याओं से अवगत कराया। इस तरह उसने अछूतों को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अब चॅंवर पुराण की कथा और चमारों की क्षत्रिय पहचान का दावा पीछे छूट गया था। इसी समय दक्षिण में भी ‘आदिहिन्दू’ और ‘आदि द्रविड‘़ तथा पंजाब में ‘आदधर्मी’ आन्दोलन चल रहे थे। इन आन्दोलनों ने दलित वर्गों में यह स्थापित करने में सफलता प्राप्त की कि शूद्र और अछूत बनाई गईं जातियाॅं मूलनिवासी हैं और शेष सब बाहर से आए हुए आर्य हमलावर हैं। आदि हिन्दू महासभा केवल अछूतों का संगठन नहीं था, बल्कि पिछड़े वर्गों का भी था। इसलिए इस संगठन से बड़ी संख्या में बहुजन समाज के बुद्धिजीवी जुड़े हुए थे, जिनमें राम सहाय पासी, रामचरण मल्लाह, शिवदयाल चैरसिया, चैधरी बुद्धदेव रैदास, भगौती प्रसाद कुरील, चैधरी होरी लाल, महादेव प्रसाद धानुक, बदलूराम रसिक, रामचरण भुर्जी, एकवोकेट गौरीशंकर पाल, और चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु प्रमुख थे।ख्22,

1932 में पूनापैक्ट के बाद, जो दलित वर्गों के राजनीतिक अधिकारों के सम्बन्ध में डा. आंबेडकर और महात्मा गाॅंधी के बीच हुआ था, अछूत जातियाॅं दलित वर्ग बनीं। राजनीतिक मुद्दे पर काॅंग्रेस और गाॅंधी के पूरे नाटक में ‘आदि हिन्दू महासभा’ डा. आंबेडकर के पक्ष में खड़ी थी। इसलिए स्वामी जी की मृत्यु (1937) के बाद उसका विलय 1940 में डा. आंबेडकर के राजनीतिक दल ‘शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन’ में हो गया था। 1956 में ‘शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन’ भंग हुआ और भारतीय रिपब्लिकन पार्टी अस्तित्व में आई।

        इस पूरे शूद्र आन्दोलन को ‘बहुजन आन्दोलन’ का नाम देने का श्रेय इस युग के महान बहुजन लेखक चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु को जाता है, जिन्होंने अपनी कलम से इस तथ्य को रेखाॅंकित किया कि देश की 80 प्रतिशत जनता श्रमजीवी किसानों, मजदूरों, शिल्पकारों, अछूतों, पिछड़ी जातियों और जनजातियों की है, जो हिन्दू समाज में शोषित वर्ग है। उन्होंने इसे बहुजन समाज का नाम दिया और अपनी कलम से हिन्दी क्षेत्र में व्यापक नवजागरण किया।





     

     









ख्1, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और हिन्दी नवजागरण की समस्याएॅं, रामविलास शर्मा, संस्करण 2004, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 13।



ख्2, ऊहापोह, शान्तिभिक्षुशास्त्री, पहला संस्करण 1955, बुद्ध विहार, रिसालदार पार्क, लखनऊ, पृष्ठ 31।

ख्3,क्तण् ठंइंेंीमइ ।उइमकांत रू ॅतपजपदहे ंदक ैचममबीमेए टवसण् 1ए 1989ए ज्ीम म्कनबंजपवद  क्मचंतजउमदजए ळवअमतदउमदज व िडंींतंेीजतंए ठवउइंलकृ400 032ए चण् 87

ख्4, वही।

ख्5, कबीर ग्रन्थावली, सं. श्यामसुन्दर दास, संवत 2034 वि. नागरीप्रचारिणी सभा, काशी, चाॅंणक कौ अंग-ंउचय10, पृष्ठ 28।

ख्6, वही, पद-ंउचय41, पृ. 79

ख्7, वामन को मत पूजिए, जो गुन से हो हीन।

  प्ूजिए चरन चण्डाल के, जो हो ज्ञान प्रबीन।

  -ंउचयआदि अमृत वाणी श्री गुरु रविदास जी, रिसर्च फोरम, आॅल इंडिया आदि धर्म मिशन, श्री गुरु रविदास धर्मस्थान, दिल्ली-ंउचय52, अष्टम अध्याय, 8-ंउचय4।

ख्8, क्तण् ठंइंेंीमइ ।उइमकांत रू ॅतपजपदह ंदक ैचममबीमेए टवसण् 12ए 1993ए चचण् 83.84ण्

ख्9, प्इपकण्

ख्10, प्इपकए चचण् 86.87

ख्11, महात्मा जोतिबा फुले रचनावली, खण्ड 1, संपादक: एल. जी. मेश्राम ‘विमल कीर्ति’, 1996, राधाकृष्णन प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 145।

ख्12, डै। त्ंव रू ठंबाूंतक ब्संेेमे डवअमउमदजेए प्द ष्प्दकपंद डवअमउमदजेए ैवउम ।ेचमबजे व िक्पेेमदज च्तवजमेज ंदक त्मवितउष्ए म्कपजमक इल ैण् ब्ण् डंसपाए 1978ए प्दकपंद प्देजपजनजम व ि।कअंदबमक ैजनकलए ैपउसंए चण् 235ण्

ख्13, प्इपकए चण् 246ण्

ख्14, ब्ींजजमतरपए श्रवलं ;2002द्धण् ठमदहंस क्पअपकमक रू भ्पदकन ब्वउउनदंसपेउ ंदक च्ंतजपजपवदए 1932.1947ण् ब्ंउइतपकहम न्दपअमतेपजल च्तमेेण् चचण् 191दृ194ण्

ख्15, क्ींदंदरंल ज्ञममतए डंींजउं श्रवजपतंव च्ीववसमलए 1974ए च्वचनसंत च्तंांेींदए ठवउइंलए चतमंिबमए चण् अपपण्

ख्16, डै। त्ंवए प्इपकए चचण् 243.43ण्

ख्17, प्इपकए चण् 243ण्

ख्18, प्इपकए चचण् 243.44ण्

ख्19, प्इपकए चचण् 244.45ण्

ख्20, त्ंउदंतंलंद ैण् त्ंूंजए त्मबवदेपकमतपदह न्दजवनबींइसपजल रू ब्ींउंते ंदक क्ंसपज भ्पेजवतल पद छवतजी प्दकपंए 2012ए च्च्ण् 120.149ण्

ख्21, त्ंूंजए ;प्इपकद्धए चण् 117ण्

ख्22, डा. अंगने लाल, ‘उŸार प्रदेश में दलित अरन्दोलन’, सम्पादन: राहुल राज, 2011, गौतम बुक सेन्टर, शाहदरा, दिल्ली, पृष्ठ 26।