शनिवार, 30 अप्रैल 2016

आईआईटी में संस्कृत
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कॅंवल भारती

भारत सरकार की मानव संसाधन विकास मन्त्री श्रीमती स्मृति ईरानी ने भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थानों (आईआईटी) में संस्कृत पढ़ाने पर जोर दिया है। जाहिर है कि यह फैसला स्मृति ईरानी का नहीं है, क्योंकि संस्कृत भाषा से उनका कोई सम्बन्ध कभी नहीं रहा;  वे न खुद संस्कृत पढ़ी हैं और न उनके बच्चे पढ़े हैं।  उनकी शिक्षा का माध्यम भी उसी तरह अंग्रेजी रहा है, जिस तरह तमाम भारतीय नेताओं का रहा है। निश्चित ही इस निर्णय के पीछे आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) का एजेण्डा है, जिसे वह अपनी सरकार में लागू कराना चाहता है। आइए, इस बहाने संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी पर कुछ चर्चा करते हैं।
अतीत में ब्राह्मणों ने संस्कृत को सार्वजनिक भाषा नहीं बनने दिया, उसे उन्होंने अपने वर्ग तक ही सीमित रखा, और आम जनता को हमेशा उससे दूर रखा। इसका कारण कुछ भी रहा हो-आम जनता को अनपढ़ बनाए रखना या वर्णव्यवस्था के अनुसार शूद्र वर्ण को शिक्षा से वंचित कर ब्राह्मणी वर्चस्व कायम करना-उस पर बहस करना इस लेख का विषय नहीं है, बल्कि इस लेख में मैं दो सवाल रखना चाहता हूॅं-पहला, जब जनता संस्कृत पढ़ना चाहती थी, तब उसे पढ़ने क्यों नहीं दिया गया, और, दूसरा, आज जनता जब संस्कृत पढ़ना नही चाहती, तो उसे पढ़ने पर जोर क्यों दिया जा रहा है? माना कि भारतीय लोकतन्त्र ने वर्णव्यवस्था को कानूनी रूप से समाप्त कर दिया है, और शिक्षा के दरवाजे सब के लिए खोल दिए हैं, परन्तु यह संस्कृत को सार्वजनीन बनाने का कारण नहीं हो सकता। अगर इसे एक कारण मान भी लिया जाय, तो सवाल यह पैदा होता है कि केन्द्र में, या जिन-जिन राज्यों में आरएसएस और भाजपा (भारतीय जनता पार्टी) सत्ता में आते हैं, तो उन्हीं को संस्कृत की चिन्ता क्यों होती है? हालांकि भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल संस्कृत के विकास के लिए आज भी केन्द्र में राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान और लगभग सभी राज्यों में संस्कृत अकादमियां  तथा शिक्षण संस्थान काम कर रहे हैं, जो प्रतिवर्ष करोड़ों रुपए खर्च करते हैं। देशभर में चल रहे आरएसएस के स्कूलों में भी संस्कृत अनिवार्य रूप से पढ़ाई जा रही है। परन्तु, इसके बावजूद संस्कृत भारत की जनता के दिलों पर राज नहीं कर सकी। क्यों? इतने संसाधनों और संस्थानों के बाद भी अगर संस्कृत की स्थिति दयनीय है, तो क्या आईआईटी में उसे लागू करने से वह जनभाषा बन जाएगी?
अब मैं इस सवाल पर आता हूँ कि संस्कृत के प्रति आरएसएस की मुख्य चिन्ता क्या है? दरअसल ब्राह्मणों ने अतीत में, और उस अतीत में, जिसे वे अपना स्वर्णयुगकहते हैं, संस्कृत को राजभाषा बनाया था, और चूँकि तब उनके समक्ष अन्य किसी अभारतीय भाषा-अर्थात् समानान्तर विदेशी धर्म और उसकी भाषा-की कोई बड़ी चुनौती नहीं थी, इसलिए उन्होंने संस्कृत पर अपनी इजारेदारी कायम रखी थी, और यह उनके लिए इसलिए भी जरूरी था, क्योंकि राजभाषा हमेशा आर्थिक संसाधन अर्थात रोजी-रोटी की भाषा होती है। चूँकि वर्णव्यवस्था में अन्य वर्णों की जीविका सुनिश्चित थी, और बौद्धिक जीविका केवल ब्राह्मण के लिए तय की गई थी, इसलिए उसने संस्कृत पर अपना वर्चस्व बनाकर ठीक ही अपना भविष्य सुरक्षित करने का काम किया था।
हिन्दुओं के स्वर्णयुगके बाद, भारत में, मुस्लिम सल्तनत और मुगल राज कायम हुआ। भारतीय समाज में एक नए अभारतीय धर्म इस्लाम का प्रवेश हुआ, और फारसी भाषा राजभाषा बन गई। यह ब्राह्मण बौद्धिक वर्ग के लिए एक बड़ी चुनौती थी-न केवल उनके धर्म के लिए, बल्कि उनकी जीविका के लिए भी। वह अब मात्र संस्कृत आधारित धार्मिक अनुष्ठानों और पठन-पाठन के बल पर जिन्दा नहीं रह सकता था, बल्कि उसे सरकारी नौकरियां भी चाहिए थीं, जिसके लिए फारसी का ज्ञान अनिवार्य था। इसलिए जीविका के भावी संकट को देखते हुए, ब्राह्मण बुद्धिजीवी वर्ग फारसी सीखने में सबसे आगे आया। लेकिन, इसके साथ ही इस्लाम भी एक बड़ी चुनौती के रूप में उसके सामने था, क्योंकि उसके सामाजिक समानता और भाईचारे के दर्शन ने वर्णव्यवस्था और जातिभेद से पीडि़त शूद्र-अछूत जातियों के लिए मुक्ति का दरवाजा खोल दिया था। उनमें हिन्दू वर्णव्यवस्था के खिलाफ विद्रोह पैदा हो गया। इससे निपटने के लिए दक्षिण से ब्राह्मण सन्तों ने भक्ति आन्दोलन चलाया, जिसके प्रतिरोध में उत्तर में निम्न जातियों के सन्तों ने हिन्दू वर्णव्यवस्था के विरुद्ध जनभाषा में निर्गुण आन्दोलन चलाया। पहली दफा जनता की अभिवयक्ति को जनता की भाषा में आने का अवसर मिला। ब्राह्मण सन्तों ने भी संस्कृत को छोड़कर, हिन्दी को अपनाया, और मजबूरी में ही सही, निम्न जातियों को भी अपने साथ लेने का प्रयास किया, हालांकि वहाँ  उन्हें सम्मान और समता का स्थान कभी नहीं मिला। ब्राह्मण बौद्धिक वर्ग फारसी का ज्ञान प्राप्त करके, मुस्लिमों के अधीन सरकारी नौकरियों में ही नहीं आ गया था, बल्कि वह मुस्लिम सत्ता को, काजियों और उलेमाओं (धर्मगुरुओं) के मार्फत, हिन्दुओं के धार्मिक मसलों-विशेषकर, वर्णव्यवस्था और परम्पराओं में दखल न देने के लिए राजी करने में भी सफल हो गया था। इस्लाम की बड़ी चुनौती को कमजोर करने में इस सन्धि ने सचमुच बड़ी भूमिका निभाई थी।
लेकिन, ब्राह्मण बौद्धिक वर्ग का खेल तब बिगड़ गया, जब भारत में अंगे्रज आ गए। वे भी एक धर्म (ईसाईयत) और एक भाषा (अंगे्रजी) लेकर आए, जो उसके लिए इस्लाम से भी बड़ी चुनौती साबित हुई। अंगे्रजों ने शिक्षा को सार्वजनिक बनाया और उसका माध्यम बनाया अंगे्रजी को। उन्होंने फारसी के स्थान पर अंगे्रजी को अदालतों और राजकाज की भाषा बनाया। अब वकालत और दूसरे पेशों में जाने के लिए अंगे्रजी की पढ़ाई जरूरी थी। अब फारसी के ज्ञान से ब्राह्मण बौद्धिक वर्ग की जीविका चलने वाली नहीं थी। लिहाजा, फारसी छोड़कर अंग्रेजी पढ़ने के लिए भी यही वर्ग सबसे आगे आया। हालांकि, मुस्लिम बौद्धिक वर्ग ने अपने धार्मिक कारणों से अंगे्रजी का विरोध जारी रखा था, क्योंकि फारसी उनकी संस्कृति से जुड़ी भाषा थी, जिसे वे छोड़ना नहीं चाहते थे, पर बाद में उनका भी एक तबका अंगे्रजी के समर्थन में खुलकर सामने आ गया था। किन्तु, ब्राह्मण बौद्धिक वर्ग ने अंग्रेजी पढ़कर न केवल ब्रिटिश के अधीन शासन-प्रशासन और न्यायपालिका में महत्वपूर्ण पद हासिल किए; न केवल अपनी भावी पीढ़ी की जीविका की सुरक्षा के लिए अपने बच्चों को विलायती शिक्षा और तौर-तरीके सीखने के लिए इंग्लैण्ड पढ़ने भेजा, बल्कि अपनी धार्मिक अंधी परम्पराओं के समर्थन में अंगे्रजों का विरोध करते हुए वे रूढि़वादी भी बने रहे। अंगे्रजी को उन्होंने सिर्फ अपनी रोजी-रोटी के लिए अपनाया, ज्ञान की एक नई रोशनी के रूप में वे उसे कभी नहीं अपना सके। कुछ ने अंग्रेजी को हिन्दूधर्म की आधुनिक व्याख्या का हथियार बनाया, और विदेशों में जाकर, अंगे्रजी में हिन्दूधर्म समझाया। पर, भारत में वे अपने धार्मिक अंधविश्वासों से कभी मुक्त नहीं हुए। उन्होंने बालविवाह, आजीवन वैधव्य, सतीप्रथा, वर्णव्यवस्था और अस्पृश्यता का हमेशा समर्थन किया, यहाॅं तक कि शास्त्रों के आधार पर उनका औचित्य भी साबित किया। यह शिक्षा उसे वस्तुतः संस्कृत से मिली थी, जबकि अंगे्रजी शिक्षा इस रूढि़वाद के एकदम खिलाफ थी।
अतः, इसी ब्राह्मण बौद्धिक वर्ग में से, एक कट्टर हिन्दूवादी वर्ग निकलकर सामने आया, जिसके अब दो-दो दुश्मन थे- इस्लाम और ईसाईयत। उनका दूसरा दुश्मन ईसाई धर्म, दुर्भाग्य से कट्टरवादी मुसलमानों का भी था। हिन्दू जिन्हें अछूत कहकर गुलाम बनाए हुए थे, इस्लाम उनमें से काफी लोगों को अपने फोल्ड में समा चुका था, और अब ईसाई मिशनरी भी दलित इलाकों में स्कूल, अस्पताल और चर्च कायम करके उन्हें ईसाई बना रहे थे। इससे हिन्दूवादी ब्राह्मण बौद्धिक वर्ग ज्यादा चिन्तित था। दलितों को केवल संख्या में हिन्दू गिनने वाले इस ब्राह्मण बौद्धिक वर्ग की चिन्ता यह थी कि अगर दलितों का इस्लाम और ईसाईयत में धर्मान्तरण होता रहा, तो हिन्दू अल्पसंख्यक हो जायेंगे, और संख्या के आधार पर राजसत्ता पर कभी काबिज नहीं हो पायेंगे।
इसी सोच ने हिन्दूराष्ट्र के विचार को जन्म दिया, और भारत को हिन्दूराष्ट्र बनाने वाला एक आक्रामक हिन्दू संगठन हिन्दू महा सभाअस्तित्व में आया। इसी की उग्र राजनीति की प्रतिक्रिया में मुस्लिम राष्ट्र का मुद्दा भी सक्रिय हुआ। इन दो राष्ट्रों के परस्पर संघर्ष का भयंकर परिणाम भारत के इतिहास में दर्ज है, जिसने भारत की धरती को ही लाल नहीं कर दिया था, वरन् दोनों समुदायों के दिलों में कभी न मिटने वाली नफरत भी भर दी थी, जो आज तक कायम है। इसी के कारण, भारत का विभाजन हुआ, और अंग्रेज दोनों टुकड़ों को आजाद करके चले गए।
उसी हिन्दूराष्ट्रवाद की संकीर्ण विचारधारा पर आज आरएसएस काम कर रहा है। यह संस्कृत का मुद्दा इसी इतिहास के गर्भ से निकला है। 1 दिसम्बर 1939 को, हिन्दू महासभा के कलकत्ता अधिवेशन में उसके अध्यक्ष वी. डी. सावरकर ने संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने के पक्ष में कहा था-
संस्कृत हमारी देवभाषा और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा होगी। संस्कृत हम हिन्दुओं के लिए सभी भाषाओं में सबसे ज्यादा पवित्र है, क्योंकि हमारे प्राचीन धर्मग्रन्थ, इतिहास, दर्शन, सभी की जड़ें संस्कृत-साहित्य में इतनी गहरी जमी हुई हैं कि वह हमारी जाति का मस्तिष्क और बुद्धि बन गया है। इसलिए संस्कृत भाषा हमेशा ही हिन्दू युवकों के लिए शास्त्रीय पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग होनी चाहिए।
                उल्लेखनीय है कि आरएसएस भी शिक्षण संस्थानों में संस्कृत को लगाए जाने की बात इसीलिए कर रहा है, ताकि (हिन्दू) युवक शास्त्रीय पाठ्यक्रम का अध्ययन कर, उसके ज्ञान को अपना मस्तिष्क और बुद्धि बनाएँ। अपना मस्तिष्क और बुद्धि बनाने का मतलब है, हिन्दू युवक हिन्दूधर्म की उन सभी व्यवस्थाओं पर गर्व करें, जो आज असंवैधानिक और अमानवीय घोषित की जा चुकी हैं। लेकिन आरएसएस को इसकी जरूरत क्यों पड़ रही है? अब मैं इस सवाल पर आता हूँ।
                भारत के विभाजन के बाद, हिन्दू संगठनों की समस्या और उलझ गई। अंग्रेज चले गए थे, पर उनके लिए चुनौती के रूप में कुछ मिशनरी रह गए थे, जो दलित आदिवासियों के बीच शिक्षा-प्रसार का काम कर रहे हैं। मुसलमानों का पाकिस्तान बन गया था, पर एक बड़ी मुस्लिम आबादी के भारत में ही रह जाने के कारण मुसलमान भी उनके हिन्दूराष्ट्र के लिए एक बड़ी चुनौती बने हुए हैं। ईसाई और इस्लाम भारत में हिन्दुत्व के लिए चुनौती इसलिए नहीं है कि लोकतन्त्र में हिन्दू संगठनों अर्थात् आरएसएस का विश्वास नहीं है, लोकतन्त्र में उनका विश्वास है, पर उनका विश्वास अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक स्वतन्त्रता में नहीं है, जिसका अधिकार भारत का संविधान देता है। इसलिए आरएसएस की चिन्ता यह है कि मुसलमान अपने मदरसों में अपनी धार्मिक  अरबी पढ़ा रहे हैं, कुरान पढ़ा रहे हैं और पूरा इस्लामी इतिहास पढ़ा रहे हैं, जिसे पढ़कर मुस्लिम लड़के उग्रवादी-यानी, उनकी दृष्टि में, हिन्दूविरोधी बन रहे हैं, जबकि हिन्दू युवा संस्कृत न पढ़कर हिन्दू इतिहास से अपरिचित हैं। बस,  इसी एक चिन्ता के कारण आरएसएस संस्कृत को सरकारी संस्थानों में पढ़ाने पर जोर दे रहा है।
                लेकिन,  यहाँ  यह सवाल उठना लाजमी है कि आरएसएस हिन्दू युवाओं को संस्कृत का शास्त्रीय साहित्य पढ़ाकर क्या मुसलमानों के विरुद्ध एक बिना सिर-पैर का हिन्दू राष्ट्र खड़ा करना चाहता है? क्या संस्कृत के शास्त्रीय साहित्य का अध्ययन इस्लामी साहित्य का मुकाबला कर सकता है, जिनका ज्ञान, दर्शन और इतिहास कुछ भी एक-दूसरे से मेल नहीं खाता है? क्या अरबी के मुकाबले संस्कृत रोजगारोन्मुख भाषा बन गई है? जिस तरह कोई अरबी सीखकर सऊदी अरब में रोजगार पा सकता है, क्या उसी तरह कोई संस्कृत सीखकर भारत या विदेशों में भी, कोई रोजगार नहीं पा सकता है। संस्कृत भाषी व्यक्ति तो गाईड के रूप में भी कहीं नौकरी नहीं पा सकता, क्योंकि वह कहीं बोली ही नहीं जाती है। शि़क्षक के रूप में संस्कृत जरूर कुछ लोगों को रोजगार दे रही है, पर संस्कृत को विज्ञान और चिकित्सा की भाषा बनाए बिना, जो असम्भव है, संस्कृत के शिक्षण पर भी धन खर्च करना अपव्यय ही है।
                एक भाषा के रूप में संस्कृत से हमारा कोई विरोध नहीं है। दलित-पिछड़ी जातियों को, अलबत्ता, यह जानते हुए भी कि संस्कृत साहित्य उनके विरोध का साहित्य है, संस्कृत से कोई गिला नहीं है। डा. आंबेडकर ने भी एक समय, संस्कृत को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव रखा था, ताकि शूद्र वर्ग संस्कृत पढ़कर यह जान जाय कि ब्राह्मणों ने उन्हें किस तरह कुचला है? इस अर्थ में संस्कृत का स्वागत है, पर अगर उसके माध्यम से हिन्दू युवकों को, भारत के अल्पसंख्यकों के विरुद्ध, हिन्दूराष्ट्र से जोड़ने का निहितार्थ है, तो आरएसएस को समझना चाहिए कि उसे अपने 91 वर्ष के लम्बे समय में यह कामयाबी आज तक नहीं मिली, और तो आगे भी मिलने वाली नहीं है, क्योंकि लोकतन्त्र और हिन्दू राष्ट्रवाद साथ-साथ नहीं चल सकते।
(30 अप्रैल 2016)














शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

डा. आंबेडकर और राष्ट्रवाद-4
कॅंवल भारती

यह आकस्मिक नहीं है कि डा. आंबेडकर के जन्मस्थल महू में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के कार्यक्रम की शुरुआत भारत माता की जयके नारों के साथ होती है। आकस्मिक यह भी नहीं है कि अब डा. आंबेडकर राष्ट्रवादी आंबेडकर हो गए हैं, और यह भी बिल्कुल आकस्मिक नहीं है कि डा. आंबेडकर और डा. हेडगेवार को समान सामाजिक मंच पर खड़ा कर दिया गया है। इस सबके पीछे निश्चित रूप से उत्तर प्रदेश में आने वाले विधान सभा के चुनावों में दलितों को भाजपा से जोड़ने का उद्देश्य दिखाई देता है। इस पर कोई आपत्ति भी हमें नहीं है, क्योंकि जब सभी राजनीतिक दलों ने आंबेडकर का राजनीतिकरण किया है, तो भाजपा क्यों नहीं कर सकती?
लेकिन, हमारी आपत्ति डा. आंबेडकर को हिन्दूवादी बनाने पर है। हमारी आपत्ति उन्हें राष्ट्रवाद से जोड़ने और डा. हेडगेवार के बराबर दर्जा देने पर है। आरएसएस की यह सोच कि डा. आंबेडकर ने डा. हेडगेवार के ही सामाजिक समरसता कार्यक्रम को आगे बढ़ाया है, न केवल डा. आंबेडकर के दर्शन का कुपाठ है, बल्कि उन्हें, उनकी जड़ों से उखाड़कर, हिन्दुत्ववादी बनाकर, उनकी विचारधारा को दफन करने का उपक्रम भी है। राष्ट्रवाद और हिन्दूवाद एक साथ नहीं चल सकते। कोई भी व्यक्ति या तो राष्ट्रवादी होगा, या फिर हिन्दूवादी होगा; वह दोनों एक साथ नहीं हो सकता। सैद्धान्तिक रूप से समरसतावाद भी हिन्दू-मुसलमान और हिन्दू-ईसाई में भेद नहीं करता, जबकि आरएसएस का हिन्दुत्व यह भेद करता है।  इसका मतलब है कि आरएसएस की समरसतावाद की व्याख्या कुछ दूसरी है। आइए, देखते हैं कि उसकी यह व्याख्या क्या है? यह जानने के लिए हमें पहले यह देखना होगा कि उसने यह नारा कब दिया था?
भारत में, 1990 का दशक और उसके बाद का समय मण्डल और कमण्डल की राजनीति का कालखण्ड है। यही समय पिछड़ी जातियों के उभार का है, और यही दौर आक्रामक हिन्दू आन्दोलन का भी है। इसी काल में बाबरी मस्जिद ध्वस्त की गई और इसी काल में तत्कालीन प्रधानमन्त्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मण्डल कमीशन की सिफारिशें लागू की थीं, जिसके विरोध में पूरा देश जल उठा था। संयोग से 1990 में ही डा. आंबेडकर की सौवीं जयन्ती मनाई गई थी, जिसमें सभी राजनीतिक दलों ने अपने-अपने आंबेडकर गढ़े थे। इसी राजनीतिक अभियान में, कांशीराम ने सामाजिक परिवर्तन, विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सामाजिक न्याय और आरएसएस ने सामाजिक समरसता के शब्द डा. आंबेडकर के साथ जोड़े थे। कांशीराम के सामाजिक परिवर्तन के नारे के प्रतिरोध में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सामाजिक न्याय का नारा दिया था, जिसका अर्थ था मौजूदा समाज-व्यवस्था में ही न्याय की बात करना। किन्तु, आरएसएस को सामाजिक परिवर्तन और  सामाजिक न्याय के ये दोनों नारे रास नहीं आए, क्योंकि उसकी दृष्टि में ये दोनों नारे समाज में विघटन पैदा करने वाले थे। इसलिए, उसने उनके समानान्तर सामाजिक समरसता का नया नारा गढ़ा, जिसे उसने दीनदयाल उपाध्याय का मानव एकात्मवाद कहा। इसकी व्याख्या में उसने कहा कि जिस तरह हाथ की पाँचों  उंगलियां  समान नहीं होतीं, पर उनके बीच समरसता होती है, उसी तरह समाज में भी सब समान नहीं हो सकते, पर उनके बीच समरसता होनी चाहिए। यही सामाजिक समरसता है, जिसका अर्थ है, जो जैसा है, वह वैसा ही बना रहे, चमार चमार बना रहे, भंगी भंगी बना रहे, नाई नाई बना रहे, धोबी धोबी बना रहे, ब्राह्मण ब्राह्मण बना रहे, ठाकुर ठाकुर बना रहे और बनिया बनिया बना रहे, बस उनके बीच समरसता रहनी चाहिए। वस्तुतः यह सामाजिक समरसता निम्न जातियों को यथास्थिति में रखने का दर्शन है। इसलिए, आरएसएस इस बात की गारण्टी नहीं देता कि यदि निम्न जातियां  अपना पुश्तैनी धंधा छोड़कर, विकास की मुख्य धारा में आना चाहेंगी, तो उच्च जातियां  उनसे संघर्ष नहीं करेंगी? किन्तु अभी तक का अनुभव यही बताता है कि ऐसे मामलों में जातीय संघर्ष को उसने रोका नहीं है, बल्कि तेज ही किया है। ऐसी स्थिति में सामाजिक समरसता कैसे बनी रह सकती है? क्या निम्न जातियों के लिए हिन्दू धर्मगुरु और धर्मशास्त्र समरसता की बात करते हैं? या उनके विरुद्ध विषवमन करते हैं और उनकी गरिमा तथा प्रतिष्ठा को नकारते हैं? क्या इन सवालों पर विचार किए बिना, आरएसएस संगठनों के द्वारा डा. आंबेडकर की 125वीं जयन्ती को सामाजिक समरसता वर्ष के रूप में मनाने का क्या औचित्य है?
इंडियन एक्सप्रेस (14 अप्रैल 2016) में आरएसएस चिन्तक और भाजपा के महासचिव श्री राम माधव का लेख व्हाट दलितस् वान्टप्रकाशित हुआ है, जिसमें वह लिखते हैं कि दलित चार चीजें चाहते हैं-सम्मान, सहभागिता, समृद्धि और सत्ता। पहली दो की जिम्मेदारी, वह समाज पर डाल देते हंै, और अन्तिम दो के बारे में कहते हैं कि उसे सरकार पूरा कर सकती है। वे जोर देकर कहते हैं कि दलितों की सम्मान और सहभागिता की भूख’ (वह अधिकार को भूख कहते हैं) के लिए सामाजिक और धार्मिक संगठनों को काम करना चाहिए, तभी सामाजिक समानता आएगी। किन्तु, अन्तिम दो के लिए उनकी सरकार क्या काम कर रही है, उस पर उन्होंने कोई प्रकाश नहीं डाला है।
सामाजिक संगठनों की बात तो समझ में आती है, परन्तु धार्मिक संगठनों से उनका क्या अभिप्राय है? भारत के अधिकांश हिन्दू धार्मिक संगठन जातिव्यवस्था में अटूट विश्वास करते हैं। ऐसे धार्मिक संगठनों से, जो आज भी दलितों के मन्दिर-प्रवेश के विरोधी हैं और स्त्रियों को भी समान अधिकार देने को तैयार नहीं हैं, क्या यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे दलितों को सम्मान और सहभागिता का अधिकार देंगे? क्या यह सच नहीं है कि किसी भी हिन्दू धार्मिक संगठन का मकसद जातिव्यवस्था को समाप्त करना नहीं है, बल्कि उसे और मजबूत करना है। शंकराचार्य जैसे अनेक धर्मगुरु तो खुलकर जातिव्यवस्था का पक्ष लेते हैं। क्या यह इसी शिक्षा का परिणाम नहीं है कि अनेक गांवों में दलित अध्यापक, दलित प्रधान और दलित रसोइया तक को अपमानित किया जाता है।
राम माधव ने अपने लेख में स्वयं स्वीकार किया है कि डा. आंबेडकर को स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व की प्रेरणा भगवान बुद्ध से मिली थी। सवाल यह गौरतलब है कि उन्हें  यह प्रेरणा हिन्दूधर्म से क्यों नहीं मिली थी? क्या कोई भी यह मानने से इन्कार करेगा कि समानता की शिक्षा हिन्दूधर्म देता ही नहीं है, और स्वतन्त्रता तथा भ्रातृत्व के शब्द उसके शब्दकोश में है ही नहीं? लेकिन आरएसएस के विचारक इसे पूरी तरह नकारते हैं। राम माधव लिखते हैं कि किसी भी हिन्दू धर्मशास्त्र में विघटनकारी और भेदभावपूर्ण शिक्षा नहीं मिलती है। उनका कहना है कि जन्मना जातिव्यवस्थाकी जड़ें भले ही प्राचीन समय की वर्णाश्रमव्यवस्था में हैं, परन्तु वर्णाश्रमव्यवस्था ने कभी भी जातिभेद को मान्यता नहीं दी थी। उनके अनुसार जातिव्यवस्था उसके बाद आरम्भ हुई। इसके समर्थन में वह ऋग्वेद के एक मन्त्र (मण्डल 5, सूक्त 60, मन्त्र 5) का सन्दर्भ देते हैं-कोई छोटा-बड़ा नहीं है; सभी भाई-भाई हैं; हमें सबकी भलाई के लिए मिलकर कार्य करना चाहिए।अगर शिक्षा यह थी, तो फिर विघटनकारी और भेदभावपूर्ण जातिव्यवस्था कैसे आरम्भ हो गई? लेकिन इसका वह कोई खुलासा अपने लेख में नहीं करते हैं। सभी आरएसएस विचारक इसी तरह ऋग्वेद के हवाले से जातिव्यवस्था को नकारते हैं, और उसे मुगलों की देन बताते हैं। इस तरह वे न केवल अपने हिन्दूधर्म का गलत पाठ करते हैं, बल्कि इतिहास का भी कुपाठ करते हैं। राम माधव जिस ऋग्वेद के मन्त्र का हवाला देते हैं, वह रुद्रपुत्र मरुतों के सन्दर्भ में कहा गया है। उस मन्त्र का सही अर्थ इस प्रकार है-समान शक्ति वाले मरुत गण आपस में छोटे या बड़े नहीं हैं, वे सौभाग्य के लिए भ्रातप्रेम के साथ बड़े हुए हैं। मरुतों के पिता रुद्र नित्य युवा एवं शोभन कर्मों वाले हैं। इनकी माता पृश्नि गाय के समान दुहने योग्य है। ये दोनों मरुतों को कल्याणकारी हों।हैरानी की बात है कि राम माधव को ऋग्वेद में असुरों और दासों के विवरण नहीं मिले, जिन्हें मारने का खुला आवाहन उसमें किया गया है।
आइए, अब इस सवाल पर आते हैं कि दलित क्या चाहते हैं? लेकिन, क्या पहले यह नहीे जान लेना चाहिए कि आरएसएस क्या चाहता है? और हिन्दू क्या चाहते हैं? आरएसएस और उससे जुड़े तमाम हिन्दू अस्पृश्यता को जरूर नकारते हैं, और यह दिखाने के लिए वे दलितों के बीच सहभोज के आयोजन भी करते हैं। लेकिन वे हिन्दूसमाज का विघटन करने वाली जातिव्यवस्था को नहीं नकारते। तब, क्या जातिव्यवस्था का समूल नाश किए बिना वे अस्पृश्यता को मिटा सकते हैं? क्या जातिव्यवस्था का समूल नाश किए बिना वे हिन्दू समाज में एकता ला सकते हैं? कोई भी इन प्रश्नों का उत्तर हाँ’ में नहीं दे सकता। फिर सामाजिक समरसता एक आडम्बर नहीं है, तो क्या है?
भारत के दलित निश्चित रूप से स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व चाहते हैं, सम्मान, सहभागिता, समृद्धि और सत्ता इसी के अंग हैं। किन्तु आरएसएस ने कभी उनके पक्ष में यह आवाज नहीं उठाई। इसके उलट, उसने हमेशा दलितों के स्वतन्त्र विकास को रोकने के लिए अपनी भाजपा सरकार पर राजनीतिक दबाव बनाया। उसी के दबाव में दलितों को उच्च शिक्षा से वंचित करने के लिए उन्हें मिलने वाली फैलोशिप (छात्रवृत्ति) रोकी गई। स्पष्ट है कि आरएसएस का मकसद दलितों का विकास करना नहीं है, बल्कि उनको अपने हिन्दूराष्ट्र से जोड़ना है, जो भारतीय लोकतन्त्र के लिए एक घातक विचारधारा है।
इसलिए यह आकस्मिक नहीं है कि आज राष्ट्रवाद और भारत माता दोनों को आरएसएस और भाजपा ने अपना मुख्य राजनीतिक एजेण्डा बनाया हुआ है। जो भारत माता की जय नहीं बोल रहा है, उसे वे देशद्रोही घोषित कर रहे हैं; और, सरे आम पीट रहे हैं। उनके नेता, सन्त, बाबा और योगी उनको सरेआम कत्ल करने की धमकियां दे रहे हैं। यह कैसा राष्ट्रवाद है, जो भारत माता की जय बोलने से बनता है? आज जिस तरह वे डा. आंबेडकर को राष्ट्रवादी घोषित करके, भारत माता के जयकारे के साथ उनकी जयन्ती मना रहे हैं, उससे समझा जा सकता है कि उन्होंने किस चालाकी से देश को राष्ट्र में बदल दिया है, और देशभक्ति को राष्ट्रवाद में बदल दिया है। वे इस छद्म राष्ट्रवाद के सहारे, जो हिन्दूराष्ट्रवाद का ही प्रछन्न रूप है, पूरे देश में दो काम करना चाहते हैं, एक-दलितों को भाजपा से जोड़ना, और दो-उनको डा. आंबेडकर की क्रान्तिकारी विचारधारा से काटना। लेकिन भारत के दलित वर्गों को डा. आंबेडकर की इस चेतावनी को सदैव स्मरण रखना है कि-यदि राष्ट्रवाद जीवन के पुनर्निमाण और पुनर्गठन के रास्ते में बाधक बनकर खड़ा होता है, तो उस राष्ट्रवाद को अस्वीकार करना होगा। राष्ट्रवाद तभी अच्छा है, जब लोकतन्त्र के तीनों पहिए-संसद, कार्यपालिका और संवैधानिक संस्थाएं राष्ट्रीय सम्वेदनाओं के साथ सभी समुदायों के हित में चलते हैं।
(15 अप्रैल 2016)