शनिवार, 19 अप्रैल 2014

        दलित चिंतक कंवल भारती से सुरेश कुमार की बातचीत
सुरेश कुमार -दलित विमर्श क्या है? यह अन्य विमर्शों से किस प्रकार भिन्न है? वरिष्ठ विचारक  के रूप में आपकी राय क्या है ?
कंवल भारती- दलित विमर्श अन्य विमर्शों से बहुत अलग है। दलित विमर्श लोकतंत्र का विमर्श है। लोकतंत्र में जिन उपेक्षित वर्गों की पीड़ा को अभिव्यक्ति नहीं मिली, दलित साहित्य और विमर्श उस कमी को पूरा करता है। दलित समाज के साथ हजारों साल से चली रही उत्पीड़न और दमन की परम्परा और दलितों को उपेक्षित करने वाली व्यवस्था के प्रति लोकतंत्र का स्वर है, दलित विमर्श। दलित विमर्श को दलितों का विमर्श कहना या दलित जातियों के आधार पर इसको जातिवादी विमर्श नहीं कहा जा सकता, जो कहता है, वह नासमझ है।
सुरेश कुमार - आप की दृष्टि में दलित चिंतन की आंतरिक चुनौतियाँ क्या हैं ?
कंवल भारती- देखिए, दलितों की आंतरिक चुनौतियाॅं जाति व्यवस्था की कमजोरियाँ हैं। इसी की वजह से दलित विमर्श में भी जाति के आधार पर धारणाएं चल रही हैं। कुछ साहित्यकार चमार-जाटव के विमर्श में भी उलझ गये हंै। इस विमर्श को ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी हवा दी है। ये कमजोरिया जाति व्यवस्था की वजह से हैं। फिर भी दलित जातियों के बीच में भेदभाव की जो दीवारें हैं, वह अगर दलित विमर्श में आती हैं, तो अच्छी बात है। ब्राह्मणवादी व्यवस्था के मूल में जाति ही तो है। ब्राह्मणवादी लोग कभी नहीं चाहेंगे कि जाति खत्म हो। इसलिये ब्राह्मणवादी साजिशों से दलित साहित्कारों को बचना है। दलित जातियाॅं बहुत जल्दी ब्राह्मणवादी साजिशों का शिकार हो जाती हंै। कुछ दलित जातियों का वर्चस्ववाद भी इसको खाद-पानी देता है। इसके लिये दलित विमर्श का लोकतांत्रिक होना बहुत जरूरी है, वरना जातिवाद हमारे आन्दोलन को खत्म कर देगा।
सुरेश कुमार - दलित चिंतन की धारा में रैदास, कबीर स्वामी अछूतानंद, अम्बेडकर को तो स्वीकार किया जा रहा ह,ै बुद्ध को नही?। एक वरिष्ठ लेखक के नाते आपकी क्या राय है?
कंवल भारती- असल में, जो जातिवादी हैं, वे ही बुद्ध को नकार रहे हैं। मैंने पहले कहा है कि दलित विमर्श लोकतांत्रिक विमर्श है और भारत में बुद्ध लोकतन्त्र के सबसे बड़े व्याख्याता हैं, तो इस संदर्भ में बुद्ध को नकारा ही नहीं जा सकता। बुद्ध पहले व्यक्ति थे जिन्होनेें गणतंत्र के पक्ष में आवाज उठायी थी, वर्ण व्यवस्था का खण्डन किया था। अब उसे नकारते हुए कुछ चिंतकों का कहना है कि वे क्षत्रिय थे इसलिए वे दलित दलित विमर्श का हिस्सा नहीं बन सकते। यह जातिवादी दलील है, कोई वैज्ञानिक तर्क नहीं है। इस तरह से तो हम अश्वघोष, राहुल सांकृत्यायन, सबको नकारेंगे। यह पागलपन है। बुद्ध को नकारने का मतलब है कि हम इतिहास के पूरे कालखंड को नकार रहे हैं। क्षत्रिय होना एक अलग बात है। पर यह देखिए कि उनकी वैचारिकी क्या है? क्या वह जातिवाद के पक्ष में है? आप वाल्टेयर को देखिए, वे जिस वर्ग में पैदा हुए उसी वर्ग के विरुद्ध उन्होंने विद्रोह किया, उसी प्रकार बुद्ध भी हैं जो अपने ही वर्ण के खिलाफ खड़े होते हैं। वे राजा के पुत्र थे। वे राजपुत्रों के लड़कों को भिक्षु बनाते हैं और इसलिए बनाते हैं क्योंकि वे भोगेश्वर-परायण युवकों को जमीनी हकीकत दिखाना चाहते थे, कि वे भूखा रहकर देखें कि भूख क्या होती है? वे पैदल चलकर देखें कि पाॅंवों में किस तरह छाले पड़ते हैं? तो उन्होंने इस प्रकार उनको हकीकत दिखाई। यह उन्होंने बहुत बड़ा काम किया है। इसलिए बुद्ध को नहीं नकारा जा सकता। 
सुरेश कुमार -बुद्ध को  कौन विद्वान नकार रहे हैं उनके नाम बताइये?
कॅंवल भारती-उनको तो आप भी जानते हैं। डा. धर्मवीर हैं, श्यौराज सिंह बेचैन हैं, डा.दिनेश राम हैं। ये सब बुद्ध को नकार रहे हैं, मेरी समझ में नहीं आता कि इस नकार को लेकर वे जाना कहाॅं चाहते हैं ? डा. धर्मवीर का मानना है कि बाबा साहब ने बौद्ध धर्म अपनाकर बहुत बड़ी गलती की है। यह तो अपने को समझ वाला और आंबेडकर को नासमझ बताने की नादानी है। ये लोग इतिहास की धारा को मोड़ने का काम कर रहे हैं। बुद्ध को या अम्बेडकर को नकारने से चीजें थोड़े ही बदल जायेंगी। बुद्धिज्म को आये अब तक 50 साल हुए होंगे। 50 साल में पूरा भारत तो बौद्ध नहीं हुआ। 10 या 15  प्रतिशत दलित ही बौद्ध हुए होंगे। डा. धर्मवीर नया आजीवक धर्म चला रहे हैं। पता नहीं वे कितने वर्षों में दलितों को आजीवक बना देंगे? धर्मवीर तो कबीर को भी सिर्फ जारकर्म तक सीमित करने का गन्दा खेल खेल रहे हैं।
सुरेश कुमार -दलित साहित्य में दलित महिला लेखिकाओं की भागीदारी अपेक्षाकृत कुछ कम दिखाई दे रही है। वरिष्ठ आलोचक हाने के नाते आप से जानना चहूंगा। इसका कारण क्या हो सकता है?
 कंवल भारती- आज से 30-40 वर्ष पहले हिन्दी में एक पत्रिका निकलती थी चाँद’। इस पत्रिका ने सम्भवतः 1935 में ‘विदुषी अंक निकाला था। उस समय ‘हिन्दू लड़की यदि मिडिल पास कर लेती थी, तो उसका चाँद पत्रिका में फोटो छपता था। जो लड़की बी0ए0 पास कर लेती थी, उस पर टिप्पणियाँ और लेख निकालते थे। यह वह जमाना था जब स्त्री को पढ़ने का अधिकार बिल्कुल नहीं था। जब हिंदू स्त्रियों को पढ़ने का अधिकार नहीं था तो दलित स्त्रियों का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में जो जन-जागरण हुआ है, वो खास तौर से 80 और 90 के दशक में हुआ है। दलितों ने जब से पढ़ना-लिखना शुरू किया है, तो उनमें भी वही भावना थी कि वे अपनी लड़कियों को पढ़ायें, लेकिन पैसे के अभाव में थोड़ा बहुत ही पढ़ा पाते थे। लड़कियाँ घर में काम करने लगती थी।
 अब लड़कियाँ पढ़ रही हैं तो लिख भी रही हैं। इसलिए दलित लड़कियों में साहित्य की चेतना थोड़ी देर से आयी है। उनकी शिक्षा जैसे-जैसे बढ़ती जायेगी, वैसे-वैसे उनका दिमाग भी खुलता जायेगा। बहुत सी जातियों में तो आज भी लड़कियाॅं शिक्षा प्राप्त नहीं कर रही हैं। यही वजह है कि दलित महिला लेखन में कमी है। इसका मतलब यह नहीं है कि दलित स्त्री लेखन बिल्कुल हाशिए पर है। मेरी पुस्तक ‘दलित कविता का संघर्ष’ में मैंने अनेक दलित कवियत्रियों जैसे- अनुसूया, आशा गौतम, कुसुमलता आदि का जिक्र किया है, जो 70-80 के दशक में बहुत अच्छा गीत लिखती थी। पर पता नहीं अब वे कहाँ हैं? सम्भवतः शादी करने के बाद उनका लेखन कार्य खत्म हो गया। मैं चाॅंद के  ‘विदुषी’ अंक की बात कर रहा था। उसमें तब काफी संख्या में लेखिकाओं की सूची है। इस अंक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें किसी पुरुष लेखक का लेख नहीं है। लेकिन आज वे लेखिकाएॅं दिखाई नहीं देती। महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चैहान और दो-तीन महिलाओं का नाम है जिन्हें सब जानते हैं बाकी कहाँ गई, कुछ नहीं पता। स्त्रियों के साथ बड़ी विडम्बना जुड़ी हुई है। उन्हें घर-गृहस्थी के भार भी उठाने पड़ते हैं, बच्चे भी पालने होते हैं। स्त्रियों के लिये इन समस्याओं से जूझते हुए लेखन करना आसान काम नहीं है।
सुरेश कुमार -दलित विमर्श मातृसत्ता और पितृसत्ता से तो लड़ रहा है लेकिन उसमें कहीं न कहीं दलित समाज की समस्याएं छूटी जा रही हैं, इस विषय में आपकी राय क्या है?
कंवल भारती-हाॅं, यह बात तो सही है। समाज में बहुत सारे मुद्दे हैं जिनसे समाज का निर्माण होता है। वे सब भी साहित्य में आने चाहिए। राजनीतिक और आर्थिक सवाल दलित साहित्य में नजर ही नहीं आ रहे हैं। निजीकरण से कितना नुकसान हो रहा है, इस पर कोई चिंतन नहीं हो रहा है। लोकतंत्र में भागीदारी की बात तो की जा रही है, पर जो हमारे प्रतिनिधि ह,ैं वे हमारा कितना प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, यह भी तो साहित्य में आना चाहीए। पर यह नहीं हो रहा है। दलितों के नजरिए से राजनीतिक माॅडल किस तरह का होना चाहिए, इस पर कोई विचार नहीं हो रहा है। इसलिए वे सारी समस्याएॅं जो राजनीति से जुड़ी हुई है, पीछे छूट जाती हंै। दलित लेखन में या तो अंतर्जातीय विवाह पर कहानियाँ आ रही हैं या जातीय उत्पीड़न पर।  न जातिवाद पर लेखन और न हो रहा है सांप्रदायिकता पर। दलित साहित्य को अपना दायरा व्यापक बनाना होगा।
सुरेश कुमार - हिन्दी आलोचना में और दलित आलोचना में मूल अंतर क्या है? आप हिन्दी दलित साहित्य  के प्रमुख आलोचक  होने के नाते आपकी दृष्टि में मूल अंतर क्या है?
कंवल भारती- हिन्दी के पारंपरिक आलोचना में वे सवाल नहीं है जो दलित आलोचकों ने उठाये है। मिसाल के तौर पर निराला की ‘चतुरी चमार’ कहानी को लीजिए, उसमें जो चतुरी है, वह कबीरपंथी है और कबीर साहित्य का मर्मज्ञ है। पर वह नशा करता है, माॅंस खाता है। निराला ने यहाॅं कबीर पंथ का विकृतीकरण किया है। कबीरपंथी की यह विशेषता है कि वह न मांस खाता है और न नशा करता हैै। हिन्दी के आलोचक इस कहानी को दलित चेतना की कहानी मानते हैं। लेकिन दलित आलोचक उसे दलित चेतना की कहानी नहीं मान सकते। इसी तरह निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ कविता है, जिसका पूरा ढांचा सामंतवादी है। मैंने इसकी उदाहरण केसाथ आलोचना की है, जिसमें मैंने दो सवाल उठाये हैं-एक तो भाषा पर कि वह सामंती भाषा है। दूसरायह कि उसमें सामन्ती पुरुष का गुणगान किया गया है। प्रेमचंद की कहानियाँ तो फिर भी बहुत अच्छी हैं। लेकिन कुछ कहानियाँ जैसे कफन, सदगति, मंदिर को लेकर ही दलित आलोचकों ने सवाल उठाये। ये सवाल मुखधारा की आलोचना में नहीं मिलेंगे। प्रेमचंद कह रहे है कि सुखिया के पति ने सपने में आकर कहा कि बीमार बच्चे को मंदिर में ले जाओ, वहाॅं पूजा करने से वह ठीक हो जायेगा।  सवाल यह है कि जब दलित का मंदिर में जाना निषिद्ध था, तो उसका पति ऐसा सोच भी कैसे सकता था? व्यक्ति सपने में आकर तभी कुछ कहेगा जब इस तरह की घटनाएं वहाँ होती रहेंगी। इस तरह की कल्पनाओं से हिन्दू समाज की कठोरता को तो साबित किया जा सकता है, पर वह न यथार्थवादी है और न वैज्ञानिक समाधान है।
सुरेश कुमार -दलित साहित्य का विकास जिस तरह से हुआ है, उस प्रकार से दलित पत्रकारिता का नहीं। आप शुरूआती दौर में एक पत्रकार भी रहे हैं, तो इसके कारण क्या हैं?
कंवल भारती- आजकल लोग सवाल उठाते हैं कि मीडिया में दलित पत्रकार नहीं हैं, ढूढ़ते रह जाओगे। पहली बात यह कि मीडिया या पत्रकारिता में दलित जाना ही नहीं चाहते हंै। बहुत कम लोग जाना चाहते हैं क्योंकि वहाँ पैसा कम है, सुरक्षा भी नहीं है और वह एक कठिन पेशा भी है। मैंने अपने लेखन की शुरुआत पत्रकारिता से की थी। मैं अपनी तारीफ नहीं कर रहा हूँ किंतु मुझे गर्व होता है कि मैंने हिन्दी पत्रकारिता में दलित सवालों को उठाने की शुरुआत की। जब मैं ‘स्वतंत्र भारत’ में लिखा करता था सन् 70-80 की बात है प्रभात, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला में दलित सवालों पर बराबर मेरे लेख छपा करते थे। नैमिशराय जी भी उन्हीं दिनों पत्रकारिता में आये थे। उसके बाद तो बहुत सारे लोग दलित पत्रकारिता में आये और अब तो अपने अखबार और पत्रिकाएॅं भी दलित लेखक निकालने लगे हैं। इसलिये अब तो दलित पत्रकारिता का एक तरह से पृथक विकास भी हो रहा है।
 सुरेश कुमार -आपके और डाॅ0 धर्मवीर के बीच जो वैचारिक मतभेद चल रहा है उसका मूल कारण क्या है?
कंवल भारती- देखिए, डा. धर्मवीर से मेरी कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं है। उनसे विचारों की लड़ाई है। वे जिस तरह का प्रदूषण दलित साहित्य में फैला रहे हैं, वह समाज के हित में नहीं है। वे दलित स्त्रियों के प्रति जिस अपमानजनक साहित्य का निर्माण कर रहे हैं, उसे कोई भी सम्वेदनशील लेखक बरदाश्त नहीं कर सकता।  वे कह रहे हैं कि हर दलित बच्चा अवैध है और हर दलित पुरुष को बच्चे का डी0एन0ए0 टेस्ट कराना चाहिए कि वह उसी का है या किसी और का? इसका मतलब है कि उनकी नजर में हर दलित स्त्री जार-कर्म कर रही है। इस स्त्री-विरोधी चिन्तन को कैसे बरदाश्त किया जा सकता है? इसलिये मैंने उनका विरोध किया और ‘धर्मवीर का फासिस्ट चिन्तन’ किताब लिखी। असल में धर्मवीर मानसिक रोगी हैं। इसलिये उनकी सोच बहुत ही गलत है। मिसाल के तौर पर अगर किसी घर में पिता-पुत्र में झगड़ा है तो वह  सीधा आरोप लगा देंगे कि वह पुत्र अवैध सन्तान है। यह एक बीमार सोच है।
  इधर, हिन्दी के तमाम आलोचक मुझ पर ताने कसते थे कि धर्मवीर पर आप मौन क्योें हैं? वे दलित स्त्री के खिलाफ लिख रहे हैं, वे बुद्ध के खिलाफ लिख रहे हैं। राॅंची में एक सेमिनार में सुभाष गताडे़ और मोहनदास नैमिशराय ने श्यौराज सिहं बेचैन की मौजूदगी में मुझसे कहा कि आपकी खामोशी अच्छी नहीं है। अगर आप मौन रहकर धर्मवीर का समर्थन कर रहे हैं, तो यह खतरनाक है। मुझे भी लगा कि धर्मवीर के खिलाफ लिखना चाहिए। मैंने नमिता सिंह से बात की और उनकी पत्रिका ‘वर्तमान साहित्य’ मे मैंने लिखना शुरु कर दिया। उन्हीं लेखों का संकलन ‘धर्मवीर का फासिस्ट चिंतन’ नाम से किताब के रूप में छपकर आया। मैं बहुत संतुष्ट हूँ कि मैंने एक फांसीवादी विचारधारा को नकारा है। धर्मवीर के शिष्यों को छोड़कर पूरे हिन्दी बिरादरी ने ‘धर्मवीर का फासिस्ट चिंतन’ किताब का स्वागत किया है।
सुरेश कुमार -‘धर्मवीर का फासिस्ट चिंतन’ किताब का स्वागत किन लेखकों ने किया नाम लेकर बताए?
कॅंवल भारती-यह गलत सवाल है। सभी लेखकों ने उस किताब का किया है। कोई एक नाम हो तो बताऊॅं। 
सुरेश कुमार -आपकी कितनी कृतियाँ अब तक प्रकाशित हुई हैं और आपकी पहली रचना कौन है ?
कंवल भारती- मैंने अपने लेखन की  ‘शुरुआत’ कविता से की है। मेरी पहली रचना 1971 ‘नई चेतना नये राग’ से छपी थी। उसमें मेरी कविताओं के साथ-साथ अन्य कवियों की कविताएॅं भी शामिल थीं। यह किताब चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु ने अपने पब्लिकेशन से छापी थी। 1977 में मेरी दूसरी किताब ‘ईश्वर, ब्रह्म और आत्मा’ छपी। उस किताब का पंजाबी में भी अनुवाद हुआ, जो इंग्लैण्ड में छपा और उसकी पहले संस्करण की ही 10,000 प्रतियाँ छपी थीं। इसके बाद में ‘डाॅ0 अम्बेडकर बौद्ध क्यों बने’ और ‘धम्मविजय’ ये दो कितार्बें आइं। अब तक मेरी 40 किताबें छप चुकी हैं।
सुरेश कुमार -युवा पीढ़ी के जो  दलित लेखक हैं, उनके लेखन के संबंध मंे आपकी राय क्या है?
 कंवल भारती- काफी संख्या में युवा दलित लेखक लेखन के क्षेत्र में आये हैं। उनके लेखन में एक किस्म की विविधता भी है और सवालों की परिपक्वता भी उनमें मिलती है। लेकिन उनसे मेरा यह कहना है कि उन्हें भावुकता से बचना चाहिए। दलित साहित्य को अब तो उन्हीं से उम्मीदें हैं।
    (यह साक्षात्कार होटल ‘रेस्ट इन’ चारबाग, लखनऊ में दिनांक 27 दिसम्बर 2013 को लिया गया था।)

मंगलवार, 15 अप्रैल 2014


श्रीमती ओमप्रकाश वाल्मीकि का बडबोलापन

(कँवल भारती)

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति में 14-15 अप्रेल को दो दिन का सेमिनार हुआ, जिसमें संयोग से मैं भी एक सत्र का अध्यक्ष था. अंतिम सत्र में श्रीमती चंद्रकला वाल्मीकि ने अपने वक्तव्य में कहा कि कुछ लोग ओमप्रकाश वाल्मीकि का विरोध कर रहे हैं, उनके जीते जी किसी ने उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं की. उन्होंने यह भी कहा कि कुछ लोगों ने मेरे बारे में (यानि श्रीमती वाल्मीकि के बारे में) भी लिखा है. क्या लिखा है? यह तो उन्होंने नहीं बताया, पर बोलीं कि वाल्मीकि जी ने मुझे पूरी छूट दी थी. मैं भगवान् को मानती हूँ, पूजा करती हूँ और मन्दिर भी जाती हूँ. पर उन्होंने मुझे कभी नहीं रोका. उन्होंने यह भी कहा कि कुछ लोग मेरे घर शोक व्यक्त करने आये थे या मेरे घर की कहानी जानने. उन्होंने अंत में धमकाने के अंदाज़ में कहा कि मैं अभी मरी नहीं हूँ, मैं उनकी भी पोल खोल दूंगी. यह सारी भड़ास उनकी मेरे ऊपर थी. पर वह इतनी डरपोक निकलीं कि अपनी बात कहकर तुरंत भाग खड़ी हुईं, एक मिनट भी नहीं रुकी. अगर वह वहां रुकती, तो मैं उन्हें बताता कि बिना नाम बताये बात करना सबसे बड़ी कायरता है.

मैं उन्हें बताना चाहता हूँ कि ज्यादा बडबोलापन अच्छा नहीं होता है. वाल्मीकि कोई खुदा नहीं थे, लेखक थे और उनमें बहुत सारी कमजोरियां थीं. वह भूल गयीं, जब कुरुक्षेत्र में उनके सामने ही रतनकुमार सांभरिया ने कहा था कि वाल्मीकि जी से तो कहानी लिखना ही नहीं आती और उन्हें दलित लेखक कहने में भी शर्म आती है. वह भूल गयीं, संजीव खुदशाह ने वाल्मीकि जी पर साहित्यिक चोरी का आरोप लगाया था और उस विवाद को शांत करने में मैंने पहल की थी. उन्होंने अपनी आस्तिकता और पूजा पाठ को स्त्री स्वाधीनता की आड़ में ढकने की कोशिश की है. पर उन्हें शर्म आनी चाहिए कि जो स्त्री एक घर में रहकर और उनके साथ देश भर में घूम कर भी वाल्मीकि जी के विचारों को नहीं समझ सकी, उसे उनके काम को भी आगे बढ़ाने का हक नहीं है. जो स्त्री खुले आम कहती थी कि मैं वाल्मीकि जी के विचारों से सहमत नहीं हूँ, वह अब किस मुंह से उनके विचारों का समर्थन करेंगी? मैं उन्हें बताना चाहता हूँ कि वाल्मीकि जी में जाटव-विरोध कूट-कूट कर भरा था, और इसीलिए वे अपनी जाति-बिरादरी के लोगों तक सिमटकर कर रह गये थे.

अंत में मैं उन्हें चुनौती देता हूँ कि जैसा उन्होंने पोल खोलने की बात की है, खोलकर दिखाएँ. और जितने भी उनके पास मेरे या किसी अन्य के खिलाफ सुबूत हों, वह सब सामने रखें. और यह भी वह अच्छी तरह समझ लें कि मेरे जैसे व्यक्ति ने वाल्मीकि जी की आलोचना उनके जीवनकाल में ही की थी.

(15 अप्रेल 2014, शिमला)  

रविवार, 13 अप्रैल 2014


(14 अपे्रल 2014 को भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में आयोजित सेमीनार में पठित आलेख)

ओमप्रकाश वाल्मीकि और दलित साहित्य

कॅंवल भारती

यह कहा जाता है कि महाराष्ट्र में जब दलित पैंथर अस्तित्व में आया, उसी समय दलित साहित्य भी अस्तित्व में आया। लेकिन यह उसके नामकरण के विषय में सच हो सकता है, दलित साहित्य के बारे में नहीं। अछूत जातियों द्वारा लिखा जाने वाला साहित्य दलित पैंथर के जन्म से पहले से मौजूद रहा है। यह सिर्फ महाराष्ट्र में ही नहीं, बल्कि भारत की हर भाषा में मौजूद रहा है। हिन्दी क्षेत्र में इसका इतिहास सदियों पुराना है।

अगर हम आधुनिक हिन्दी दलित साहित्य की बात करें, तो यह उन्नीस सौ बीस और तीस के दशक में अस्तित्व में आया। इसकी शुरुआत स्वामी अछूतानन्द हरिहरने की थी, जो आदि हिन्दूआन्दोलन के प्रवत्र्तक, कवि, नाटककार और सम्पादक-पत्रकार थे। उन्होंने 1920 में कानपुर में आदि हिन्दू प्रेसस्थापित किया, और आदि हिन्दूअखबार निकाला, 1929 में आर्य-अनार्य-संघर्ष पर आदि खण्ड काव्यकी रचना की और 1926 में ब्राह्मणवाद के काले इतिहास पर रामराज्य-न्यायऔर मायानन्द बलिदाननाम से दो नाटक लिखे। यही नहीं, उन्होंने आदि हिन्दू रंगमंच भी बनाया था, जो उनकी सभाओं में उन नाटकों का मंचन करता था। स्वामी जी की मृत्यु के पश्चात् आजादी के बाद इस चेतना और धारा का विकास उनके परम मित्र और साथी चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने किया। उन्होंने देखा कि देश में लोकशाही कायम होने के बाद भी ब्राह्मणशाही हावी है और हिन्दी साहित्य में ब्राह्मणवाद की जय-जयकार करने वाले लेखक राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किये जा रहे हैं। हिन्दी साहित्य हिन्दू साहित्य बन गया था, जिसमें न दलितों की तकलीफें थीं और न उनकी आवाज थी। इसी समय चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने हिन्दी साहित्य में दलित-शोषित समाज के पक्ष में चिन्तन और विमर्श की नयी धारा चलायी। उन्होंने दलित-इतिहास की खोज की, कबीर-रैदास के सन्तमत को प्रतिष्ठित किया और हिन्दू संस्कृति को कठघरे में खड़ा किया। उन्होंने 1960 में दलितों के साहित्य को प्रकाशित करने के लिये बहुजन कल्याण प्रकाशनकी स्थापना की और समाज सेवा प्रेसलगायी। उन्होंने सौ से भी अधिक किताबें लिखीं और अन्य दलित लेखकों की भी बहुत सी किताबें प्रकाशित कीं। उन्होंने ही पहली बार हिन्दी क्षेत्र के दलितों को कबीर, रैदास, बुद्ध, आंबेडकर और रामास्वामी नायकर के जीवन-दर्शन से परिचित कराया। उन्हीं के साहित्य ने हिन्दी में दलित साहित्य की दूसरी आधुनिक पीढ़ी का निर्माण किया।

ओमप्रकाश वाल्मीकि इसी आन्दोलन की उपज हैं। उन्होंने अपनी आत्मकथा में चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु का जिक्र किया है, जिनकी डा़ आंबेडकर के जीवन पर लिखी किताब बाबासाहेब का जीवन-संघर्षको पढ़कर ही पहली दफा उन्होंने आंबेडकर के बारे में जाना था। वाल्मीकि जी ने इस किताब का नाम भूलवश गलत लिखा है-डा. अम्बेडकरः जीवन-परिचय। उस समय वाल्मीकि 12वीं में पढ़ते थे और गाॅंधी, नेहरू, पटेल, राजेन्द्रप्रसाद, राधाकृष्ण, विवेकानन्द, भगतसिंह, सुभाषचन्द्र बोस, यहाॅं तक कि सावरकर के नामों से भी परिचित थे, पर डा. अम्बेडकर का नाम उन्होंने विल्कुल नहीं सुना था। इसलिये जब उनके जाटव सहपाठी हेमलाल ने उन्हें जिज्ञासु जी की किताब दी, तो उन्होंने उससे बहुत हैरान होकर पूछा कि ये अम्बेडकर कौन हैं? अतः कहना न होगा कि अम्बेडकर की उस जीवनी को पढ़कर ही उन्हें दलित यथार्थ और आन्दोलन का ज्ञान हुआ। उन्होंने स्वयं लिखा है- जैसे-जैसे मैं इस पुस्तक के पृष्ठ पलटता गया, मुझे लगा, जैसे जीवन का एक अध्याय मेरे सामने उघड़ गया है। ऐसा अध्याय जिससे मैं अनजान था। डा. अंबेडकर के जीवन-संघर्ष ने मुझे झकझोर दिया था।इस किताब ने उनमें अंबेडकर के प्रति गहरी रुचि पैदा कर दी, परिणामतः पुस्तकालय में अंबेडकर की जो किताबें उन्हें मिल सकीं, उनको भी उन्होंने पढ़ लिया। उन दिनों हिन्दी में चार पुस्तकें ही उपलब्ध थीं। वाल्मीकि जी ने लिखा है- इन पुस्तकों के अध्ययन से मेरे भीतर एक प्रवाहमान चेतना जागृत हो उठी थी। इन पुस्तकों ने मेरे गूॅंगेपन को शब्द दे दिये थे। व्यवस्था के प्रति विरोध की भावना मेरे मन में इन्हीं दिनों पुख्ता हुई थी।’ (जूठन, पृष्ठ 89)

यही वह समय है, जब ओमप्रकाश वाल्मीकि के भीतर एक लेखक ने जन्म लिया। उन्होंने कविताएॅं लिखीं, जो उस समय की दलित पत्रिका निर्णायक भीममें छपती थीं। इन्हीं कविताओं का एक संग्रह उन्होंने सदियों का संतापनाम से 1989 में अपने पैसों से छपवाया था। दलित साहित्य में  इसी कविता-संग्रह ने हिन्दी की मुख्यधारा की आधुनिक कविता को आईना दिखाया था। यह 30 पृष्ठों की पुस्तिका थी, जिसमें उनकी 19 कविताएॅं संकलित हैं। यह वह समय था, जब न मुख्यधारा के अखबार दलितों की रचनाएॅं छापते थे और न आज की तरह प्रकाशक उनकी किताबें छापते थे। इसलिये इस संग्रह पर कहीं कोई हलचल नहीं मची थी। मुख्यधारा ने उन्हें तब अपनाया, जब 1996 में राजेन्द्र यादव ने अपने वार्षिक कार्यक्रम में उन्हें प्रस्तुत किया और उन्हीं के प्रयास से 1997 में उनकी आत्मकथा जूठनको राधाकृष्ण प्रकाशन ने प्रकाशित किया। इससे पहले उनकी ही नहीं, किसी भी दलित लेखक की कोई किताब किसी हिन्दी प्रकाशक ने नहीं छापी थी। जूठनको जबरदस्त प्रसिद्धि मिली और साथ ही दलित साहित्य को भी। लेकिन इसी समय दलित साहित्य को लेकर हिन्दी में एक तीखी बहस शुरू हुई, जिसमें वामपंथी लेखकों ने सकारात्मक रुख न अपनाया होता, तो ब्राह्मणवादी लेखकों ने उसे खारिज ही कर दिया था, हांलाकि आज भी वे इसके प्रति बिल्कुल भी संवेदनशील नजर नहीं आते हैं।

इस बहस में जो सबसे बड़ा सवाल उठाया गया था और जो आज भी उठाया जाता है, वह यह है कि क्या दलित साहित्य दलित ही लिख सकता है? इस सवाल पर थोड़ी चर्चा करना यहाॅं इसलिये जरूरी लगता है, क्योंकि इससे ओमप्रकाश वाल्मीकि के साहित्य को और दलित साहित्य की अवधारणा दोनों को ठीक से समझा जा सकता है। इस सन्दर्भ में पहला प्रतिप्रश्न यह है कि जूठनकी रचना ओमप्रकाश वाल्मीकि ने ही क्यों की? किसी गैर-दलित लेखक ने ऐसा लेखन क्यों नहीं किया? माना कि जूठनआत्मकथा है और शायद यह किसी सवर्ण की आत्मकथा नहीं हो सकती। पर यह नहीं माना जा सकता कि किसी गैर-दलित लेखक ने अपने जीवन में जूठन खाने वाली दलित जाति को बिल्कुल न देखा हो? तब किसी गैर-दलित लेखक ने उस देखे हुए यथार्थ को ही संवेदना के साथ चित्रित करने की आवश्यकता क्यों नहीं समझी? क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि दलित का जीवन उनकी सम्वेदना और चेतना में था ही नहीं। कहना न होगा कि दलित लेखकों ने जिस सामाजिक यथार्थ को अपने साहित्य में दिखाया है, उसे गैर-दलित लेखक कैसे दिखा सकते थे, जबकि दलितों के साथ उनका सामाजिक व्यवहार ही नहीं था।

ओमप्रकाश वाल्मीकि के कविता-कर्म पर आता हूॅं। उनके पहले कविता-संग्रह सदियों का संतापमें पहली कविता है- ठाकुर का कुंआ। इस कविता ने हिन्दी साहित्य के भद्रलोक को, जो हिन्दुत्व के तहत शीर्षासन कर रहा था, पैरों के बल खड़ा कर दिया था। इस कविता में ठाकुर का कुंआजातिव्यवस्था का प्रतीक नहीं है, बल्कि सामन्तवादी और पूंजीवादी व्यवस्था का प्रतीक है। कुंआ का अर्थ है पानी, जिसके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। जीवन के ये सारे संसाधन इसी सामन्ती और पूंजीवादी व्यवस्था के हाथों में हैं। उत्पादन करने वाली जातियां और मेहनतकश लोग सब-के सब इसी व्यवस्था के गुलाम हैं. इसी यथार्थ को ओमप्रकाश वाल्मीकि ने इस कविता में व्यक्त किया है-चूल्हा मिट्टी का/मिट्टी तालाब की/तालाब ठाकुर का/भूख रोटी की/रोटी बाजरे की/बाजरा खेत का/खेत ठाकुर का/बैल ठाकुर का/हल ठाकुर का/हल की मूठ पर हथेली अपनी/फसल ठाकुर की/कुंआ ठाकुर का/पानी ठाकुर का/खेत-खलिहान ठाकुर के/गली-मुहल्ले ठाकुर के/फिर अपना क्या? गाँव? शहर? देश?” इस कविता में सबसे विचारोत्तेजक पंक्ति यही है- फिर अपना क्या?’ यह सवाल उस जन का है, जो इस तंत्र में धर्मतंत्र और जातितंत्र के नाम पर सबसे ज्यादा शोषित है, और जिसकी पीड़ा का कोई अंत नहीं है। यह जन मुट्ठी तानकर सड़क पर उतरता है, व्यवस्था को ललकारता है-किन्तु इतना याद रखो/ जिस रोज इन्कार कर दिया/दीया बनने से मेरे जिस्म ने/अँधेरे में खो जायोगे/हमेशा-हमेशा के लिये,’’ तो यह तंत्र उसे कुचलने के लिए नृशंसता की हर हद से गुजर जाता है. लेकिन सदियों का संतापकविता में वाल्मीकि कहते हैं कि दुश्मन के खिलाफ इस चीख को जिन्दा रखना है, क्योंकि भयानक त्रासदी के युग का खात्मा होने के इन्तजार में हमने हजारों वर्ष बिता दिये, अब और नहीं-दोस्तों, इस चीख को जगाकर पूछो/कि अभी और कितने दिन/इसी तरह गुमसुम रहकर/सदियों का संताप सहना है?”

    तब तुम क्या करोगे?’ इस संग्रह की सबसे चर्चित कविता है, जिसमे कवि ने दर्द और आक्रोश को व्यक्त करने की अपनी अलग ही प्रश्नात्मक शैली ईजाद की है। यह शैली इतनी लोकप्रिय हुई कि इससे प्रभावित होकर कितनी ही दलित कविताएँ लिखी गयीं। मेरी कविता तब तुम्हारी निष्ठा क्या होती?’ की शैली भी इसी कविता से ली गयी है। वाल्मीकि ने इस कविता में उन लोगों की चेतना को झकझोरा है, जो दलितों के प्रति पूरी तरह संवेदना-विहीन हैं। ऐसे ही लोगों से वे सवाल करते हैं-यदि तुम्हें, मरे जानवर को खींचकर/ले जाने के लिए कहा जाये/और, कहा जाय ढोने को/पूरे परिवार का मैला/पहनने को दी जाय उतरन/तब तुम क्या करोगे?/यदि तुम्हें/रहने को दिया जाय/फूंस का कच्चा घर/वक्त-बे-वक्त फूंककर जिसे/स्वाह कर दिया जाय/बरसात की रातों में/ घुटने-घुटने पानी में/सोने को कहा जाय,/तब तुम क्या करोगे?” यह लम्बी कविता है, जिसमे दलित जीवन का वह यथार्थ भद्र वर्ग के सामने रखा गया है, जिसे वह देखना तक पसंद नहीं करता। इसलिए अंत में कवि कहता है-साफ-सुथरा रंग तुम्हारा/झुलसकर सांवला पड़ जायेगा/खो जायेगा आँखों का सलोनापन/तब तुम कागज पर/नहीं लिख पाओगे/सत्यम, शिवम, सुन्दरम।

हालांकि ओमप्रकाश वाल्मीकि को सबसे ज्यादा सफलता उनकी आत्मकथा जूठनसे मिली, पर सच यह है कि उनकी अनुभूतियों का सर्वाधिक विस्तार उनकी कहानियों में हुआ है. उन्होंने नयी कहानी के दौर में दलित कहानी की रचना करके नयी कहानी के अलमबरदारों को यह बताया कि नयी कहानी में व्यक्ति की अपेक्षा समाज तो अस्तित्व में है, पर दलित समाज उसमें भी मौजूद नहीं है. सलाम, पच्चीस चैका डेढ़ सौ, रिहाई, सपना, बैल की खाल, गो-हत्या, ग्रहण, जिनावर, अम्मा, खानाबदोश, कुचक्र, घुसपैठिये, प्रोमोशन, हत्यारे, मैं ब्राह्मण नहीं हूँ और कूड़ाघर जैसी कहानियों ने यह बताया कि यथार्थ में नयी कहानी वह नहीं है, जिसे राजेन्द्र यादव और कमलेश्वर लिख रहे थे, बल्कि वह है जिसमे हाशिये का समाज अपने सवालों के साथ मौजूद है.

                वाल्मीकि की जिस एक कहानी पर सबसे ज्यादा विवाद हुआ, वह शवयात्राहै. यह विवाद वाल्मीकि-जाटव-विवाद बन गया था. पर यह विवाद जिन्होंने भी खड़ा किया, उन्होंने वाल्मीकि को ही सही साबित किया। जातीय भेदभाव सिर्फ दलित और सवर्ण के बीच की व्यवस्था नहीं है, वरन् यह हर वर्ग और समाज में मौजूद है। शवयात्राके जरिए कुछ लेखकों ने उनपर यह आरोप लगाने की कोशिश की कि वाल्मीकि जाटव-विरोध की नयी इबारत लिख रहे हैं। पर ऐसा नहीं है। उनकी सलामकहानी देखिए, जिसमें वे गाॅंव में वाल्मीकि समाज में प्रचलित सलाम की रस्म को तोड़ते हैं। इस रस्म में शादी के बाद दुल्हा या दुल्हन को सवर्ण-घरों में सलाम करने के लिये जाना होता था। यह दलित के स्वाभिमान को कुचलने वाली रस्म थी। इस कहानी में नायक हरीश, जो दूल्हा भी है, इस रस्म के खिलाफ आवाज उठाता है और उसे तोड़ता है। पर अन्त में इसी कहानी में वह वाल्मीकि समाज का अन्तर्विरोध भी दिखाते है, जिसमें वाल्मीकि जाति का ही एक बालक उस शादी में मुसलमान के हाथ की बनी रोटी खाने से मना कर देता है। बालक का बाप उसे यह समझाता है कि रोटी बनाने वाला मुसलमान नहीं है, हिन्दू है। ओमप्रकाश वाल्मीकि चाहते तो उसके मुॅंह से यह कहलवा सकते थे कि रोटी हिन्दू-मुसलमान की नहीं होती, आटे की होती है। वे इस प्रसंग को निकाल भी सकते थे, क्योंकि इससे कहानी कमजोर हो गयी है, पर उन्होंने न यह प्रसंग निकाला और न बालक के बाप के मुॅंह में काल्पनिक शब्द डलवाये, आलोचना बरदाश्त कर ली।

                निस्सन्देह ओमप्रकाश वाल्मीकि ने दलित साहित्य को उस ऊॅंचाई पर पहुॅंचाया है, जहाॅं से वह मुख्यधारा के साहित्य का भी मार्ग-प्रशस्त करता है।

(शिमला, 13 अपे्रल 2014)