शनिवार, 17 मई 2014

सपा, बसपा और हमारी भूमिका
(कॅंवल भारती)
                उत्तर प्रदेश में लोकसभा-2014 के चुनाव-परिणाम इसलिये नहीं चैंकाते हैं कि भाजपा की इतनी बड़ी जीत अप्रत्याशित थी, बल्कि इसलिये चैंकाते हैं कि इसने बसपा का सूपड़ा साफ कर दिया है और सपा को पाॅंच सीटों पर समेट दिया है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में सपा-बसपा की इस शर्मनाक पराजय के दूरगामी अर्थ हैं। कुछ चिन्तकों का कहना है कि मोदी की लहर ने जाति और धर्म की राजनीति को खत्म का दिया है। किन्तु यदि ऐसा सचमुच होता, तो भाजपा को इतनी बड़ी जीत कभी हासिल नहीं हो सकती थी। जाति-धर्म से मुक्त राजनीति की जीत तब तो मानी जा सकती थी, जब यदि आम आदमी पार्टी को यह सफलता हासिल हुई होती। पर भाजपा की इस जीत का अर्थ ही यह है कि जनता ने जाति और धर्म के नाम पर भाजपा के पक्ष में मतदान किया है। क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि संघ परिवार और मोदी की टीम ने मिलकर उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मणवाद का पुनरुद्धार किया है? किन्तु इस पुनरुद्धार के लिये अगर कोई जिम्मेदार है, तो वह है सपा-बसपा का नेतृत्व, जिसके पास भाजपा से लड़ने के लिये कोई कारगर राजनीतिक हथियार नहीं था। मुलायमसिंह यादव ने मोदी को मुस्लिम-विरोधी बताकर राजनीति की, तो मायावती ने उन्हें दलित-विरोधी बताकर, और इसी राजनीति ने हिन्दू मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकृत करने का काम किया। सवाल यह नहीं है कि भाजपा और मोदी मुस्लिम-दलित-विरोधी नहीं हैं, सचमुच वे हैं। पर बात सिर्फ इतनी भर नहीं है। यह बहुत ही छोटा नजरिया है, उन्हें देखने का। भाजपा, मोदी और संघपरिवार को इससे बड़े नजरिये से देखा जाना चाहिए था। यह नजरिया सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का होना चाहिए था, जो एक फासीवादी अवधारणा है। दलित और मुस्लिम-विरोध तो इस राष्ट्रवाद का छोटा-सा हिस्सा भर है। यदि इस नजरिये से मायावती और मुलायम सिंह ने भाजपा, मोदी और संघपरिवार के विरुद्ध जनता में एक वैचारिकी विकसित की होती, तो शायद भाजपा के लिये दिल्ली अभी आसान नहीं होती। लेकिन यह काम वे इसलिये नहीं कर सके, क्योंकि इसके लिये जिस पढ़ाई-लिखाई की जरूरत है, वह न सपा-मुखिया मुलायमसिंह यादव के पास है और न बसपा-सुप्रीमों मायावती के पास है। दोंनों पार्टियों के नेता जब रैलियों और अन्य मंचों पर बोलते हैं, तो वे कहीं से भी पढ़े-लिखे नजर नहीं आते। वैचारिकी तो एकदम सपा नेताओं के पास नहीं है। वे सिर्फ नाम के समाजवादी हैं, उसकी ए, बी, सी तो दूर, ‘भी ठीक से नहीं जानते हैैं। उन्हें सुनकर लगता ही नहीं कि वे समाज और राजनीति में कोई बदलाव चाहते हैं। जिस निर्भया के बहाने बलात्कार के विरुद्ध कड़े कानून बनाने के लिये देश-व्यापी जनान्दोलन हुआ, वहाॅं मुलायमसिंह यादव अपनी चुनावी रैलियों में यह कह रहे थे कि बच्चे हैं, गलती हो जाती है, तो क्या उन्हें फाॅंसी दे दी जाय?’ पूरे देश की महिलाओं ने मुलायमसिंह के इस बेहूदे और शर्मनाक बयान को स्त्री-विरोधी बयान के रूप में लिया और उन्हें एक सम्वेदनहीन अयोग्य शासक के रूप में देखा। इसी तरह जब सपा नेता आजम खाॅं ने कारगिल की जीत को मुस्लिम सैनिकों की जीत कहकर इस इरादे से अपनी पीठ ठोकी कि मुसलमान  खुश होकर उन्हें अपने कन्धों पर बैठा लेंगे, तो वहाॅं उनकी तालीमी जहालतही ज्यादा नजर आ रही थी, जो यह नहीं समझ सकती थी कि उन्होंने अपनी समाजवादी राजनीति की ही कब्र नहीं खोद दी है, बल्कि मुसलमानों को भी मुख्यधारा से दूर कर दिया है। यह इसी का परिणाम हुआ कि न सिर्फ मुसलमानों में इसकी अच्छी प्रतिक्रिया नहीं हुई, बल्कि सपा-समर्थक हिन्दू मतदाता भी सपा के खिलाफ ध्रुवीकृत हो गये। इतना ही नहीं, प्रदेश की जनता यह भी देख रही थी कि सपा-बसपा के नेता संसद में काॅंग्रेस की जन-विरोधी नीतियों में काॅंगे्रस का खुलकर समर्थन कर रहे थे और संसद के बाहर काॅंगे्रस का विरोध करके जनता की आॅंखों में धूल झोंक रहे थे। वे उस काॅंगे्रस सरकार के संकट-मोचक बने हुए थे, जिसने आम आदमी को जीने-लायक हालात में भी नहीं छोड़ा था। इन सपा-बसपा नेताओं की आॅंखों पर अज्ञानता की इतनी मोटी पट्टी चढ़ी हुई है कि उन्हें यह तक दिखाई नहीं दे रहा है कि कम्प्यूटर युग की जनता न सिर्फ सब जानती है, बल्कि उनके खेल को समझती भी है। इस जनता ने यह जान लिया था कि सपा-बसपा के ये मुखिया केन्द्र में अपनी राजनीतिक शक्ति का इस्तेमाल सिर्फ अपने निजी हित में सौदेबाजी करने के लिये करते हैं। 
                वे लोकतन्त्र की दुहाई जरूर देते हैं, पर खुद फासीवादी चरित्र से मुक्त नहीं हैं। यही कारण है कि वे भाजपा और संघपरिवार के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को समझने का वैचारिक स्तर नहीं रखते। याद कीजिए, नोएडा में एक मस्जिद का अवैध निर्माण गिराने के आरोप में सपा-सरकार ने एक आईएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल को निलम्बित कर दिया था, पर जब वही गलत काम आजम खाॅं ने रमजान के महीने में मदरसा गिराकर रामपुर में किया, तो फेसबुक पर उसका विरोध करने पर उसी सरकार ने मुझे गिरफ्तार करा लिया। इस घटना के विरोध में देश-व्यापी प्रदर्शनों के बावजूद सरकार ने मेरे विरुद्ध दायर मुकदमा वापिस नहीं लिया। क्या यह सपा का फासीवादी चरित्र नहीं है? यही नहीं, जब मायावती ने भी इस सम्बन्ध में मौन रहकर सपा सरकार का समर्थन किया और लोकतन्त्र का गला घोंटने वाली सपा सरकार की तानाशाही के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठायी, तो उत्तर प्रदेश की जागरूक जनता ने यह समझने में जरा जरा भी देर नहीं लगायी कि मायावती भी सांस्कृतिक फासीवाद को ही पसन्द करती हंै और लोकतन्त्र में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का सवाल उनके लिये बिल्कुल भी महत्वपूर्ण नहीं है।
                बहुत से दलित विचारक और राजनीतिक विश्लेषक 2007 में बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार के लिये मायावती की सोशल इंजीनियरिंग को श्रेय देते हैं। पर मैंने उस समय भी इसका खण्डन करते हुए लिखा था कि यह सोशल इंजीनियरिंग नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक लम्बे समय से हाशिए पर बैठे ब्राह्मणों ने सत्ता में आने के लिये मायावती का साथ पकड़ा था, क्योंकि यह वह समय था, जब उनकी प्रिय पार्टियों--काॅंगे्रस और भाजपा--का पतन हो चुका था और सपा को वे पसन्द नहीं करते थे। इस तरह मायावती उनके डूबते जहाज के लिये तिनके का सहारा भर थीं। अतः, कहना न होगा कि ब्राह्मण स्वार्थवश बसपा से जुड़ा थे, न कि दलितों के प्रति उनका हृदय-परिवर्तन हुआ था। इसलिये जैसे ही मोदी ने भाजपा का रास्ता साफ किया, ब्राह्मणों ने अपनी घर-वापसी करने में तनिक भी देर नहीं लगायी। अगर सच में कोई सोशल इंजीनियरिंग होती, तो क्या बसपा का सूपड़ा साफ होता?
                मैं लगभग 1996 से ही डा. आंबेडकर की जातिविहीन और वर्गविहीन वैचारिकी के सन्दर्भ में कांशीराम और मायावती की राजनीति को कटघरे में खड़ा करता आ रहा हॅंू, जिसके लिये मैं दलित चिन्तकों और बुद्धिजीवियों की निन्दा का पात्र भी हूॅं। पर, मैं जातिवादी तरीके से नहीं सोच सकता। मेरे लिये दलित-विमर्श सामाजिक परिवर्तन का विमर्श है। इस नजरिये से मैं जब भी मायावती की राजनीति को देखता हूॅं, तो वह मुझे उनकी जाति को भुनाने वाली राजनीति ही दिखायी देती है। वह मुझे कहीं से भी परिवर्तन की राजनीति नजर नहीं आती है। इसलिये वर्तमान लोकसभा में बसपा की शर्मनाक अनुपस्थितिपर हमारे दलित चिन्तक मायावती के पक्ष में चाहे कितने ही किन्तु-परन्तुकरके बात करें, पर मेरा आज भी यही मानना है कि उन्होंने डा. आंबेडकर के आन्दोलन को गर्त में ढकेल दिया है। उनकी राजनीति का सबसे बड़ा विद्रूप यह है कि उसका कोई सांस्कृतिक आन्दोलन नहीं है। अगर होता, जिस दलित वोट पर मायावती सबसे ज्यादा आत्ममुग्ध होती हैं और जिसकी पूरी कीमत वसूल कर वे सवर्णों को टिकट देती हैं, वह वोट आज उनसे खिसका नहीं होता। यह जानकर तो उनको जरूर तगड़ा झटका लगा होगा कि उनके चमार और जाटव वोटर ने इस बार मोदी के पक्ष में भाजपा को वोट दिया है। शायद मायावती इस अनहोनी को नहीं समझ सकंेगी, क्योंकि एक तो जनता के साथ उनका संवाद न के बराबर है और दूसरे वे दलित बुद्धिजीवियों को नापसन्द करती हैं। शायद बसपाभारत की एकमात्र पार्टी है, जिसकी अपनी कोई बौद्धिक सम्पदा नहीं है। दलित बुद्धिजीवी केवल जाति के आधार पर ही इस पार्टी से सहानुभूति रखते हैं। इसलिये इस तथ्य को समझना जरूरी है कि बसपा-सुप्रीमो, जो किंगमेकर ही नहीं, सौदेबाजी करके प्रधानमन्त्री बनने का भी सपना देख रही थीं, धड़ाम से नीचे कैसे गिर गयीं? इसका एक बड़ा कारण है नयी पीढ़ी के मध्यवर्गीय दलित युवकों का हिन्दू चेतना से जुड़ाव। इस पीढ़ी के साथ लगातार सम्पर्क और संवाद करने के बाद यह तथ्य सामने आया कि वे अपने दिन-भर का अधिकांश समय अपने हिन्दू दोस्तों के साथ व्यतीत करते हैं, जो उनके सहपाठी और सहकर्मी दोनों हैं। उनके साथ उनका उठना-बैठना, घूमना-फिरना और खाना-पीना सब होता है। वे एक-दूसरे के घरों में आते-जाते हैं, सुख-दुख में शरीक होते हैं। इस बीच जाति के सामाजिक तनाव उनके बीच नहीं होते। ये सम्बन्ध यहाॅं तक विकसित हुए हैं कि दलित युवक अपने हिन्दू दोस्तों के साथ मन्दिर भी जाते हैं और उनके देवी-जागरण जैसे धार्मिक कार्यों में भी भाग लेते हैं। इस दोस्ती ने दलित युवकों को सिर्फ हिन्दू चेतना से ही नहीं जोड़ा, बल्कि उन्हें हिन्दू राजनीति से भी जोड़ दिया। लेकिन इसी हिन्दू राजनीति ने उन्हें मुस्लिम-विरोधी भी बना दिया, जिसमें उनके कुछ कटु सामाजिक अनुभवों ने भी अपनी भूमिका निभायी है। चूॅंकि इन दलित युवकों के घरों में भी कोई सांस्कृतिक परिवर्तन नहीं हुआ है, इसलिये उनका मोदी के पक्ष में भाजपा के साथ जाना बिल्कुल भी आश्चर्यजनक नहीं है। मायावती चाहें तो अपने दलित वोट बैंक का सर्वे करा सकती हैं और देख सकती हैं कि जिस जमीन पर वे खड़ी हैं वह किस कदर दरक गयी है।
                सवाल यह है कि ऐसा क्यों हुआ? हमेशा हाथी पर बटन दबाने वाले कुछ दलितों का तर्क है कि जब मायावती हाथी से गणेश तक जा सकती हैं, तो वे सीधे गणेश को वोट क्यों नहीं दे सकते? जब मायावती परशुराम का गुणगान कर सकती हंै, तो वे मोदी का समर्थन क्यों नहीं कर सकते? जब मायावती को भाजपा मुख्यमन्त्री बना सकती हैं, तो वे मोदी को प्रधानमन्त्री क्यों नहीं बना सकते? ये वे तर्क हैं, जिनका कोई जवाब मायावती के पास नहीं है। कुछ दलितों का तो यहाॅं तक कहना है कि अगर बसपा की पिछली सीटें बरकरार रहतीं और भाजपा की सीटें बहुमत से कुछ कम आतीं, तो मायावती को भाजपा को ही समर्थन देकर अपना उल्लू सीधा करना था।
                दरअसल, जाति और वर्गविहीन समाज की दिशा में डा. आंबेडकर की जो रेडिकल वैचारिकी थी, मायावती न केवल उससे दूर हैं, बल्कि उसे जानना भी नही चाहती हैं। यही कारण है कि उन्होंने सत्ता में आने के लिये जातियों को मजबूत करने का शार्टकटरास्ता अपनाया। इसके सिवाय उन्होंने दलितों में कोई रेडिकल सांस्कृतिक आन्दोलन पैदा करने की कोशिश कभी नहीं की। सत्ता के शार्टकटरास्तों की परिणति हमेशा लाभकारी नहीं होती है, वह धूल भी चटा देती है।
                बहरहाल, देश की जनता ने यह जानते हुए भी कि मोदी घोर साम्प्रदायिक और मुस्लिम-विरोधी हैं, यह जानते हुए भी कि उनका राजनीतिक एजेण्डा लोकतन्त्र का नहीं, हिन्दू राष्ट्रवाद का है और यह जानते हुए भी कि वे बड़े पूॅंजीपतियों के हित में सामाजिक न्याय, सुरक्षा और परिवर्तन की संवैधानिक व्यवस्थाओं को बदल सकते हैं, उन्हें भारी बहुमत से जिताया है। मैं तो कहुॅंगा कि देश की निकम्मी वाम-सेकुलर शक्तियों ने थाल में सजाकर मोदी को सत्ता सौंप दी है। इसलिये अब प्रगतिशील चिन्तकों, लेखकों, पत्रकारों और कलाकारों की भूमिका और भी बढ़ गयी है, जिसे हमें अब पूरी निर्भीकता और जिम्मेदारी से निभाना होगा।

(17 मई 2014)

रविवार, 11 मई 2014


क्या बसपा का पतन होगा?

(कँवल भारती)

ख़बरें यह आ रही हैं कि उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) 9 या 10 सीटों पर सिमट रही है. साफ है कि उसे बहुत भारी नुकसान होने जा रहा है. मेरा गृह जनपद रामपुर है और मंडल मुरादाबाद है, जिसमें दलितों की जाटव और वाल्मीकि दोनों उपजातियों ने मोदी के पक्ष में भाजपा को वोट दिया है. मुझे इसकी बिलकुल अपेक्षा नहीं थी. यह तो लगता था कि इस बार कुछ दलित वोट कांग्रेस को जा सकता है, पर वो भाजपा को जायेगा, यह अप्रत्याशित था. मैंने इसका कारण पता लगाया तो मालूम हुआ कि दलित लोग बसपा के स्थानीय नेताओं से परेशान थे, जो नेता कम और दलाल ज्यादा थे. लेकिन मेरी नजर में यह मोदी-लहर का परिणाम है. गहन छानबीन से यही हकीकत सामने भी आई. इससे साफ़ पता चलता है कि बसपा की राजनीति दम तोड़ रही  है. डाक्टर आंबेडकर ने दलित आन्दोलन की शुरुआत ब्राह्मणवाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के खिलाफ की थी, जिसे कांशीराम ने दलितों की सरकार बनाने के लिए उसे सत्ता-प्रतिष्ठान की राजनीति में बदल दिया था, और जिसके लिए उन्होंने भाजपा के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद (यानी फासीवाद) से हाथ मिलाने में भी कोई परहेज नहीं किया था. इसी के तहत उन्होंने भाजपा के साथ दो बार गठबंधन करके उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार बनायी. भाजपा और सवर्णों को खुश करने के लिए मुख्यमंत्री मायावती ने शिक्षा और संस्कृति के विभाग भाजपा को दिए, जहाँ तेजी से उन्होंने निजीकरण को हरी झंडी दिखाई और दलित एक्ट को निष्प्रभावी करने के लिए बाकायदा शासनादेश जारी किया. उन्होंने अपने जिलाध्यक्षों को दर्जा राज्यमंत्री बनाया और उन्हें दलाली की खुली छूट दी. यही नहीं, उनकी पार्टी ने दलित उत्पीड़न और हत्याकांड के खिलाफ भी कहीं कोई आन्दोलन नहीं चलाया. दिल्ली में जन्तर-मन्तर पर भगाणा (हरियाणा) गाँव की बलात्कार की शिकार चार दलित लड़कियां लगभग एक महीने से धरने पर बैठी है, पर मायावती ने उनके लिए आन्दोलन करना तो दूर, उनका दुःख बाँटने के लिए धरना-स्थल पर झाँक कर भी नहीं देखा. ऐसी दलित या बहुजन राजनीति किस काम की?

आंबेडकर की राजनीति सांस्कृतिक रूपांतरण की राजनीति थी. इसके लिए उन्होंने दलितों को शिक्षित और संगठित होकर संघर्ष करने का नारा दिया था. मायावती और उनकी पार्टी ने आंबेडकर के इसी कैडर को तबाह कर दिया. उन्हें जिस हिन्दू राष्ट्रवाद के फोल्ड से दलित-बहुजनों को निकालना था, उन्होंने उसी हिंदुत्व को दलितों में मजबूत करने का काम किया. मतलब यह कि सामाजिक परिवर्तन का जो कैडर कांशीराम ने बामसेफ में शुरू किया था, उसे उन्होंने बसपा पार्टी बनाकर ख़त्म कर दिया था. इस तरह 1990 के बाद दलितों में जो नयी पीढ़ी पैदा हुई, वह हिंदुत्व के फोल्ड में ही पैदा हुई और हिन्दूराष्ट्रवाद से आकर्षित होकर आगे बढ़ी. इसलिए यदि वह इन चुनावों में मोदी से प्रभावित हुई है, तो आश्चर्य कैसा?

(11 मई 2014)

गुरुवार, 8 मई 2014

जाति-धर्म के शिकन्जे में लोकतन्त्र
(कॅंवल भारती)
 निस्सन्देह इस बार के लोकसभा चुनावों में एक बड़ा सवाल भ्रष्टाचार का उभर कर आया है। अरविन्द केजरीवाल से शुरु हुई इस लड़ाई ने यदि भ्रष्टाचार के सवाल पर युवा मध्य वर्ग को गम्भीर न बनाया होता, तो शायद भाजपा भी इसे अपने एजेण्डे में रखने वाली नहीं थी। केजरीवाल की भ्रष्टाचार-उन्मूलन की लड़ाई कहीं जनक्रान्ति में सफल न हो जाये, इसलिये आरएसएस, भाजपा और बड़े कारपोरेट ने मिलकर केजरीवाल के ही मुद्दों को मोदी के मुॅंह में डाला और उन्हें एक जननायक के रूप में उभारा। दरअसल मोदीे केजरीवाल के विरुद्ध संघपरिपवार की प्रतिक्रान्ति के साधन बने हैं। चूॅंकि भ्रष्टाचार से त्रस्त दिल्ली की जनता ने आम आदमी पार्टी को विजय दिला कर अरविन्द केजरीवाल को अपना नायक मान लिया था, इसलिये इस से चिन्तित भाजपा और संघ-परिवार ने नये अवतार में मोदी को गढ़ा। बाकायदा इस नये अवतार के लिये मोदी को प्रशिक्षित किया गया और उसी के फलस्वरूप मोदी ने जनता की नब्ज को छूने वाले सवाल उठाये और दोनों हाथ उठाकर चिल्ला-चिल्ला कर कहा कि वे भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म कर देंगे। यह विद्रूप ही है कि जिन मोदी के चुनाव-प्रचार में पानी की तरह काला धन बहाया जा रहा है, वह मोदी भ्रष्टाचार खत्म करने की बात कर रहे हैं। कोई उनसे पूछने वाला नहीं है कि जिन धन-कुबेरों ने उनके लिये अपनी तिजोरी के मुॅंह खोले हुए हैं, क्या वे उसका ‘बदल’ नहीं चाहेंगे? और क्या यह ‘बदल’ भारत के संसाधनों की लूट और भ्रष्टाचार के तरीके अपनाये बगैर सम्भव हो सकता है? फिर वे किसे धोखा दे रहे हैं? जिन युवाओं को मोदी ने सपने दिखाये हैं और जिन हसीन सपनों में मस्त होकर वे नमो-नमो कर रहे हैं, अगर बदकिस्मती से मोदी की सरकार बनती है, तो वह दिन दूर नहीं, जब वे अपनी आॅंखों से अपने सपनों को चूर-चूर होते देखेंगे और यह जान जायेंगे कि वे ठगे गये हैं। 
 अरविन्द केजरीवाल ने सिर्फ भ्रष्टाचार के खिलाफ ही आवाज नहीं उठायी है, बल्कि आम आदमी के हित में  राजनीतिक सुधार का भी माहौल बनाया है। आज इसी माहौल की वजह से वे लोग भी चुनाव लड़ने का साहस कर सकते हैं, जो व्यवस्था से पीडि़त हैं और व्यवस्था को बदलना चाहते हैं। क्या मौजूदा व्यवस्था में गरीब और ईमानदार आदमी के लिये चुनाव लड़ना और जीतना सम्भव है? अगर असम्भव नहीं, तो कठिन तो है ही। क्या इसीलिये राजनीति में धनबलियों और बाहुबलियों के ही चुनाव लड़ने और जीतने की शर्मनाक परम्परा नहीं बनी हुई है? इसमें यदि हम धर्म-बल और जाति-बल को भी जोड़ लें, तो भारतीय राजनीति का जो सच उभर कर सामने आता है, क्या वह आम आदमी के हित में है? क्या सिर के बल खड़ी इस व्यवस्था को आम आदमी के हित में बदले जाने की जरूरत नहीं है? कौन बदलेगा इस व्यवस्था को? क्या मोदी बदलेंगे, जिनकी सारी राजनीति ही धन-बल और धर्म-बल पर चल रही है और जिन्होंने अपनी जाति के नाम पर भी ब्राह्मणवाद का नया खेल खेला है? भाजपा के लोग प्रचार कर रहे हैं कि हिन्दू समाज पिछड़ी जाति के नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में जातिविहीन हो गया है। अगर ऐसा ही है, तो वह मायावती के नेतृत्व में जातिविहीन क्यों नहीं हुआ? सच यह है कि नरेन्द्र मोदी पर हिन्दुत्ववादी इसलिये मुग्ध हैं, क्योंकि वे संघपरिवार के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में आस्था रखते हैं और उसी के आधार पर वे मुस्लिम-विरोधी हैं। अगर मायावती की तरह मोदी भी लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष होते, तो हिन्दुत्ववादियों का उन्हें नायक मानना तो दूर, वे संघ और भाजपा में ही नहीं होते। 
धन और भ्रष्टाचार के सन्दर्भ में मुझे याद आता है, एक बार लखनऊ में मायावती के जन्मदिन की रैली में कांशीराम जी ने मायावती को धन की महिमा का पाठ पढ़ाया था। उस वक्त उनकी आलोचना हुई थी। पर आज लगता है कि वे अपनी जगह बिल्कुल सही थे। अगर दलित राजनीति को मुख्यधारा की राजनीति में अपना स्थान बनाना है या किसी भी राजनीति को, जो बदलाव चाहती है, और मुख्य धारा में अपना स्थान बनाना चाहती  है, तो धन के बगैर वह कुछ नहीं कर सकती, क्योंकि किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिये संगठन का ढाॅंचा खड़ा करने से लेकर प्रचार करने तक में धन चाहिए। धन कहाॅं पर है? वह गरीब या शोषित जनता के पास नहीं है, बल्कि व्यापारियों, पूॅंजीपतियों और उद्योगपतियों के पास है। पर वे उन दलों को क्यों धन देंगे, जो शोषण और संसाधनों की लूट के खिलाफ कानून बनाने वाले हैं? वे जानते हैं कि परिवर्तनवादी शक्तियों के हाथों में सत्ता आने का मतलब क्या होता है? भारत की सत्ता अगर उनके हाथों में आती है, तो लूट और भ्रष्टाचार से खड़ा किया गया उनका साम्राज्य कैसे बचा रह सकता है? ऐसी स्थिति में दलित राजनीति या परिवर्तनवादी राजनीति के पास दो ही विकल्प बचते हैं- या तो वह जनता से चन्दा लेकर धन की व्यवस्था करे या फिर धन-संग्रह के लिये भ्रष्टाचार का रास्ता अपनाये। चूॅंकि जनता के चन्दे से करोड़ों रुपये इकट्ठे नहीं किये जा सकते, इसलिये उनके लिये एकमात्र रास्ता भ्रष्टाचार का ही बचता है। मायावती ने भी इसी रास्ते पर चलना ठीक समझा और वे सफल हुईं, पर व्यवस्था बदलना उनके लिये सम्भव नहीं है। उन्हें लूट-खसोट करने वाले वर्ग का धन और समर्थन तभी मिला, जब वे उनके लिये घातक नहीं रह गयीं। यही सिद्धान्त उदित राज पर भी लागू होता है। जब वे ब्राह्मणवाद के लिये गरजते थे, तो हिन्दुत्ववाद के लिये खतरनाक थे। इसीलिये वे भी अपनी पार्टी खड़ी करने में सफल नहीं हो सके। अब जब वे भाजपा में शामिल हो कर संघ के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समर्थक हो गये हैं, तो वही हिन्दुत्व उनका गुणगान क्यों नहीं करेगा?
 अतः, समस्या यह है कि कोई भी पार्टी, चाहे उसने भ्रष्टाचार से धन इकट्ठा किया हो या उसे पूॅंजीपतियों ने धन दिया हो, गरीबोें के विकास की राजनीति नहीं कर सकती। कारण साफ है कि वह धन-दाताओं के विरुद्ध मोरचा खोलने का साहस नहीं कर सकती। इसलिये ये पार्टियाॅं जन-हित की प्रतीकात्मक राजनीति ही कर सकती हैं। भाजपा, काॅंग्रेस, सपा, बसपा आदि पार्टियाॅं यही कर रही हैं। वे जनता को सुलाने के लिये धर्म और जाति की अफीम का सहारा ले रही हैं। इसी अफीम से वे मुसलमानों को हिन्दुओं से और हिन्दुओं को सिखों से लड़वाती हैं और इसी से वे दलित-सवर्ण-संघर्ष कराती हैं। इसके लिये वे अपने तरीके से इतिहास का पुनर्पाठ कराती हैं, नफरत को जगाती हैं, और अस्पृश्यता तथा पुरानी सामन्ती-धार्मिक परम्पराओं को जिन्दा रखने वाली संस्थाओं को पालती-पोसती हैं।
 परिणामतः, जाति-धर्म और भ्रष्टाचार के विरुद्ध ‘आम आदमी पार्टी’ के उभार के बावजूद लोकसभा-2014 के इस महासमर में, जिसे मोदी-लहर कहा जा रहा है, यही धर्म और जाति की राजनीति चारो तरफ हावी है। सिर्फ हावी ही नहीं है, वरन् उसी के शिकन्जे में लोकतन्त्र जकड़ा हुआ भी है। विकास के तमाम दावों के बावजूद तीनो ‘एम’ (मोदी, मुलायम, माया) जाति-धर्म की ही राजनीति कर रहे हैं। भाजपा की हिन्दुत्व की राजनीति के विरुद्ध सपा की मुस्लिम राजनीति चल रही है, तो मायावती आरक्षण जारी रखने का वादा करके दलित जातियों को लुभा रही हैं। भाजपा का परम्परागत हिन्दू वोट जितना अन्धा है, उतना ही बसपा का दलित वोट बैंक अन्धा है। इन राजनेताओं के हित जातियों और समुदायों के बीच संघर्ष और तनाव कायम रखने में ही पूरे होते हैं। सब एक-दूसरे से लड़ते रहें, यही वे चाहते हैं और यही वे कर रहे हैं। इसके सिवा रोजी-रोटी, मकान, चिकित्सा और सुरक्षा के मुद्दे उनके लिये कोई मायने नहीं रखते हैं। ऐसे राजनीतिक हालात देश की गरीब जनता को हमेशा जहालत और दहशत के माहौल में रखते हैं। इसलिये लोकतन्त्र की मुक्ति के लिये इस स्थिति को खत्म करना जरूरी है। अब देखना यह है कि अरविन्द केजरीवाल की मेहनत और मुहिम रंग लाती है या जाति और धर्म की राजनीतिक प्रतिक्रान्ति ही लोकतन्त्र का माडल बनी रहती है।
(8 मई 2014)
 

शनिवार, 3 मई 2014


 

यदि मुलायमसिंह प्रधानमन्त्री बनते हैं

(कॅंवल भारती)

                माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता प्रकाश करात ने दूर की कौड़ी फेंकी है कि तीसरे मोरचे की सरकार बनेगी तो उसके नेता मुलायमसिंह यादव होंगे, अर्थात् वह मुलायमसिंह यादव को भारत का प्रधानमन्त्री बनाना चाहते हैं। माकपा का देश में जनाधार नहीं है, यह तो समझ में आता है, पर यह समझ में नहीं आता कि उसके नेता अपने डूबते जहाज को बचाने के लिये ऐसे कप्तान का सहारा लेंगे, जो अपने ही जहाज को डुबोने का काम कर रहा है। वह मुलायमसिंह यादव, जिनकी पार्टी की सरकार ने उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था का सत्यानाश कर रखा है और जिसने देश की बहू-बेटियों के साथ बलात्कार करने वालों का पक्ष लेते हुए सरेआम यह कहा हो कि बच्चे हैं, गलती हो जाती है तो क्या उन्हें फाॅंसी दे दी जाये’, क्या पूरे देश की कानून-व्यवस्था का सत्यानाश नहीं कर देंगे?

                इन्हीं मुलायमसिंह यादव ने गत दिनों अद्भुत तर्क दिया था कि उ0 प्र0 में कानून-व्यवस्था इसलिये खराब है, क्योंकि यहाॅं जनसंख्या सबसे ज्यादा है। उनका कहना है कि दिल्ली आदि अन्य राज्यों में कम अपराध इसलिये होते हैं, क्योंकि उनकी जनसंख्या कम है, पर चूॅंकि उ0 प्र0 की जनसंख्या ज्यादा है, इसलिये यहाॅं अपराध भी ज्यादा होते हैं। कबीर के शब्दों में यही कहा जा सकता है कि फूटी आॅंख विवेक की।क्योंकि इसी तर्क से वे अपने आप को एक अयोग्य प्रशासक होने का भी प्रमाणपत्र दे रहे हैं। इसी तर्क से उनका उ0 प्र0 के विभाजन का विरोध भी अर्थहीन हो जाता है, क्योंकि इस तर्क से तो अपराध कम करने और चुस्त कानून-व्यवस्था के लिये उ0 प्र0 को कम-से-कम दो-तीन लघु प्रदेशों में विभाजित करना जरूरी हो जाता है। प्रकाश करात के जेहन में यह सवाल क्यों नहीं आया कि जब बीस करोड़ की जनसंख्या वाला एक प्रदेश मुलायमसिंह यादव और उनकी पार्टी से नहीं सॅंभाला जा रहा है, तो वे सवा सौ करोड़ की आबादी वाला देश कैसे सॅंभाल सकते हैं? जब बीस करोड़ की आबादी वाले प्रदेश में उनकी पार्टी के दो साल के शासनकाल में जंगल-राज कायम हो गया है, तो यह कौन विश्वास कर लेगा कि उनके प्रधानमन्त्री बनने के बाद पूरे देश में जंगल-राज कायम नहीं हो जायेगा?

                कानून-व्यवस्था को लेकर उ0 प्र0 की जनता में त्राहि-त्राहि मची हुई है। वह अपने को ठगा सा महसूस कर रही है। इसके कारण बहुत स्पष्ट हैं। अगर सपा-नेतृत्व मंथन करना चाहे, तो कर सकता है। उ0 प्र0 में सपा को पूर्ण बहुमत मिलने के पीछे बहुत-से कारणों में एक मुख्य कारण यह भी था कि सपा के प्रचार-अभियान की बागडोर युवा नेता अखिलेश के हाथों में थी। जनता ने यह सोच कर कि एक युवा मुख्यमन्त्री के नेतृत्व में उ0 प्र0 की तरक्की होगी और गुण्डई खत्म होगी, जनता ने सपा को पूर्ण बहुमत से जिताया था। यह जीत अखिलेश यादव की थी, न कि मुलायमसिंह यादव की। प्रदेश की युवा जनता की माॅंग थी कि अखिलेश यादव ही मुख्यमन्त्री हों। और मुलायमसिंह ने इसी युवा-मन की भावना का मान रखते हुए मुख्यमन्त्री-पद पर अखिलेश यादव की ताजपोशी करायी थी। जनता खुश थी कि प्रदेश की बागडोर एक उत्साही युवा नेता के हाथों में है, पर यह खुशी उस समय काफूर हो गयी, जब उनके पिता ने 50 प्रतिशत सत्ता अपने हाथों में रखी, और बाकी 50 प्रतिशत सत्ता के लिये उनके चाचा शिवपाल सिंह यादव और रामपुर के चचा मियाॅं आजम खाॅं को उनके दोनों कन्धों पर बैठा दिया। युवा मुख्यमन्त्री ने भी बयान दे दिया कि वे अपने बुजुर्गों से राय-मशवरा लेकर ही सरकार चलायेंगे। यहीं से पूरे शासन का बण्टाधार शुरु हो गया। अब ये बुजुर्ग क्यों अखिलेश को अपनी मर्जी से काम करने देंगे? और इन बुजुर्गों ने उसे आज तक अपनी मर्जी से काम नहीं करने दिया। अखिलेश ने वही किया, जो इन्होंने उससे करवाया, उसने वही देखा, जो इन्होंने उसे दिखाया और उसने वही कहा, जो इन्होंने उससे कहलवाया। मतलब यह कि प्रदेश में चार मुख्यमन्त्री हैं, जिनमें अखिलेश यादव सिर्फ नाम के मुख्यमन्त्री बने हुए हैं। विद्रूप यह नहीं है कि प्रदेश की युवा जनता के साथ छल हुआ है, बल्कि विद्रूप यह भी है कि एक युवा नेता का करियर बनने से पहले ही खत्म हो गया। अब अखिलेश यादव से राजनीति में किसी चमत्कार की आशा नहीं की जा सकती। और इसके जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ उनके पिता मुलायमसिंह यादव हैं।

                हमारे उत्तर प्रदेश में बिल्ली के भाग से छींका हाथ लगने की एक कहाबत प्रचलित है। हो सकता है कि यह कहाबत चरितार्थ हो जाय और मुलायमसिंह यादव के हाथ प्रधानमन्त्री की कुर्सी लग जाय! तब क्या होगा? उत्तर प्रदेश ही अपने को दुहरायेगा और एक नहीं, कई दर्जन अघोषित प्रधानमन्त्री मुलायमसिंह यादव के कन्धों पर बैठे होंगे। और स्थिति यह हो जायेगी कि साल-छह महीने में ही गुण्डों के राज से पूरे देश में त्राहि-त्राहि मच जायेगी। चलिये, यह तो अभी दूर की कौड़ी है, मुलायमसिंह यादव के लिये दिल्ली अभी बहुत दूर है। प्रधानमन्त्री बनने की कवायद से ज्यादा बेहतर उनके लिये यह होगा कि वे अपनी प्रदेश सरकार को दुरुस्त करने की कोशिश करें, जिस पर लोकसभा चुनावों के बाद संकट के बादल मॅंडरा सकते हैं।

मैं बताना चाहता हॅंू कि उ0 प्र0 में स्थिति बिगड़ने की शुरुआत कहाॅं से हुई? मेरी बात से कोई असहमत हो सकता है, पर सच्चाई यही है कि कानून-व्यवस्था शासन-प्रशासन और जिलों में अपने चहेते अधिकारियों की तैनाती करने से बिगड़ी है। मुलायमसिंह यादव, शिवपालसिंह यादव और आजम खाॅं की तिगड़ी ने जिलों में डीएम-एसपी से लेकर सीओ, एसओ, आरटीओ तक के सभी छोटे-बड़े पदों पर चुन-चुनकर यादव और मुस्लिम अधिकारियों की तैनाती कर दी। हालांकि इसमें कोई हर्ज नहीं है, क्योंकि सभी पार्टियाॅं ऐसा ही करती रही हैं। काॅंगे्रस और भाजपा के राज में तो ज्यादातर ब्राह्मण ही सभी मुख्य पदों पर बिराजमान रहते हैं। पर सपा सरकार ने भी प्रदेश में अपने अधिकारियों की तैनाती का मापदण्ड उनकी काम करने की दक्षता और प्रशासनिक उपलब्धियाॅं के बजाय उनकी जाति और उनके धर्म को बनाया। पर इन मुस्लिम और यादव अधिकारियों में भी सपा सरकार के मन्त्रियों को वही अधिकारी पसन्द आये, जो उनके घरेलू नौकर की हैसियत से काम करने की योग्यता रखते थे। फलतः, ये अधिकारी मन्त्री-विधायकों के टूल्स की तरह इस्तेमाल होते रहे। जिन अधिकारियों से यह गुलामी न हो सकी, उन्हें तुरन्त हटा दिया गया। अतः, प्रदेश में स्थिति बिगड़नी ही थी, क्योंकि जिलों में तैनात अधिकारियों को जब सपा के मन्त्रियों, दर्जा मन्त्रियों और विधायकों का ही फरमावरदार बनकर रहना है, तो जनता को सुरक्षा कहाॅं मिल सकती है? मुरादाबाद में एक सपा नेता के कहने से ही एक थाने के मुस्लिम एसओ ने एक व्यापारी का अपहरण कर उसकी हत्या करके पुलिस जीप से ही उसकी लाश को दूसरे जिले की सीमा में फिंकवा दिया। भला हो उन गाॅंव वालों का, जिन्होंने पुलिस को लाश फेंकते हुए देख लिया, और उनके बयान से मामला खुल गया। अब वह एसओ गिरफ्तारी से बचने के लिये सपा नेताओं के यहाॅं शरण लिये हुए है। रामपुर में एक मुस्लिम सीओ सिटी और एक यादव एआरटीओ दोनों ही आजम खाॅं के इशारे पर उनके विरोधियों को सबक सिखाने का काम करते हैं। आजम खाॅं अपने कई विरोधियों के खिलाफ इन्हीं यादव एआरटीओ से झूठी एफआईआर लिखवाकर उन्हें जेल भिजवा चुके हैं और इन्हीं मुस्लिम सीओ सिटी से पिटवा चुके हैं। फेसबुक पर आजम खाॅं के विरुद्ध टिप्पणी पर जब मेरी गिरफ्तारी हुई, तो इन्हीं सीओ सिटी के आदेश पर थाने के दरोगा मुझे पैजामा-बनियान में ही बेइज्जत करके घसीटते हुए थाने ले गये थे। दो डीएम और एक एसपी ने आजम खाॅं के मौखिक गैरकानूनी आदेशों को जब नहीं माना, तो उन्हें बेइज्जत होकर रामपुर से जाना पड़ा। यह मुरादाबाद और रामपुर का ही सच नहीं है, वरन् पूरे प्रदेश का सच है। इन मुस्लिम और यादव अधिकारियों ने सपा के दबंग मन्त्रियों और विधायकों के दबाव में जनता का जीना मुश्किल कर रखा है।

                मेरे ऊपर यह आरोप लगाया जा सकता है कि मैं मुस्लिम और यादव के खिलाफ वैमनस्यता पैदा कर रहा हूॅं। मै इस आरोप का खण्डन करते हुए यह बताना चाहता हूॅं कि यह सच नहीं है। मै मुस्लिम और यादव का नाम जानबूझ कर इसलिये ले रहा हूॅं कि मैं उन्हें बताना चाहता हूॅं कि प्रदेश की बदतर हालत के लिये सपा सरकार से 100 गुना ज्यादा ये मुस्लिम और यादव अधिकारी जिम्मेदार हैं। समाजवादी पार्टी ने इन मुस्लिम और यादव अधिकारियों को एक मौका दिया था अपनी काबलियत और प्रशासनिक कुशलता साबित करने के लिये। पर ये नहीं कर सके। ये भूल गये कि इन्हें मुख्यधारा में लाने का सुनहरा अवसर सामाजिक न्याय की राजनीति ने दिया था, जिसकी लड़ाई कांशीराम के साथ-साथ मुलायमसिंह यादव ने भी लड़ी थी। एक लम्बे संघर्ष के बाद उन्हें यह अधिकार मिला था। अतः इन मुस्लिम और यादव अधिकारियों का कत्र्तव्य बनता था कि वे अपने आप को योग्यता और कुशलता में द्विज अधिकारियों से 100 गुना ज्यादा श्रेष्ठ साबित करके दिखाते। पर इन्होंने ईमानदारी से जनता के प्रति अपना कत्र्तव्य निभाने के बजाय और सरकार की कल्याणकारी और न्यायसंगत नीतियों पर चलने के बजाय मन्त्रियों और विधायकों की सेवा में लगे रहना ज्यादा बेहतर समझा। क्या फर्क पड़ता, अगर ये मन्त्रियों के गलत आदेशों को मानने से इनकार कर देते? अधिक-से-अधिक इनका स्थानान्तरण ही तो हो जाता। पर, एक ईमानदार और कुशल प्रशासक के रूप में जनता पर अपनी छाप छोड़ जाते। लेकिन इन्होंने सोचा कि यही मौका है, जितना कमाया जा सकता है, कमा लो और मन्त्रियों की गुलामी करके जितनी तरक्की मिल सकती है, ले लो। इन्होंने यह नहीं सोचा कि ऐसा करके वे अपने आप को अपराधी बना रहे हैं और प्रशासन के क्षेत्र में अपने आप को अयोग्य साबित कर रहे हैं। ऐसा करके इन्होंने अपना भविष्य तो खराब किया ही है, समाजवादी पार्टी का भी बेड़ा गर्क कर दिया। अगर मुलायमसिंह यादव और अखिलेश यादव सुन रहे हैं, तो अभी कुछ नहीं बिगड़ा है, वे अपने मुस्लिम और यादव अधिकारियों को पाठ पढ़ायें कि वे मन्त्रियों, दर्जा मन्त्रियों और विधायकों की गुलामी से बाहर निकलें और जनता से दोस्ती करें। शायद आगामी विधान सभा चुनावों में उनकी कुछ लाज रह जाय। पर, अभी एक और कटु सत्य मुलायमसिंह यादव यह भी सुन लें कि उनके पसन्दीदा मन्त्री आजम खाॅं को यह चिन्ता बिल्कुल नहीं है कि लोकसभा चुनावों में सपा जीतती है या हारती है, वरन् उनकी चिन्ता यह है कि प्रदेश में सपा के बाकी बचे तीन सालों में वह अपनी यूनिवर्सिटी के लिये विकास के नाम पर कितना धन सरकार से ऐंठ सकते हैं। उनकी सारी कवायद अपनी यूनिवर्सिटी के लिये है, समाजवादी पार्टी को मजबूत करने के लिये नहीं। यदि आज  चुनाव आयोग ने उनके चुनाव-प्रचार पर पाबन्दी लगायी हुई है, तो यह भी आजम खाॅं की ही सोची-समझी चाल है, ताकि वह सपा की हार का ठीकरा चुनाव आयोग पर फोड़ सकें और खुद साफ बच जायें। आजम खाॅं जैसे सपा नेताओं ने अपने क्षेत्र की जनता पर कितना जुल्म ढाया है, उसका रत्ती-भर एहसास भी मुलायमसिंह यादव को नहीं है। क्या ऐसा नेता भारत का प्रधानमन्त्री बनने की योग्यता रखता है?

( 2 मई 2014 )