बुधवार, 3 फ़रवरी 2016

गरीबी और भुखमरी का अर्थशास्त्र
(कॅंवल भारती)

यह सच्चाई है कि भारत में सामाजिक और आर्थिक समस्याओं के कारणों को समझने का कोई विज्ञान विकसित नहीं हुआ। भारत में अंग्रेजों के आने से पहले तक सारी व्यवस्थाएँ धर्म-आधारित थीं। उस समय भी भरपूर उत्पादन होता था और लोग भूखे मरते थे। पर राज्य के नियामकों और विद्वानों ने भुखमरी के कारणों को जानने के लिये कभी माथा-पच्ची नहीं की। उनके लिये यह सब पूर्व जन्म के कर्म-फल और तकदीर पर आधारित था। निजीकरण की जिस अर्थव्यवस्था को भारत सरकार स्थापित कर रही है, वह वर्णव्यवस्था में पहले से मौजूद है। हिन्दू-अर्थव्यवस्था इसी वर्णव्यवस्था पर आधारित है। इस व्यवस्था ने जो सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ देश में पैदा कीं, उसे लोगों की नियति मान लिया गया।
लेकिन, जब अंग्रेजों के साथ-साथ ज्ञान-विज्ञान भी भारत में आया, तो समाज को वैज्ञानिक दृष्टि से देखने के लिये सामाजिक विज्ञान भी अस्तित्व में आया, जिसे हम समाजशस्त्र अर्थात् सोशियोलोजी कहते हैं। इस समाजशास्त्र ने कर्म फल और नियतिवाद के सारे धर्मशास्त्र को खंडित कर दिया। अब भूख से होने वाली मौतों को पूर्वजन्म का कर्म फल और तकदीर का खेल नहीं कहा जाता, बल्कि उन मौतों का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है, मरने वालों की सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों का विश्लेषण किया जाता है कि इसके लिये मरने वाला दोषी है या व्यवस्था?
समाजशास्त्र के अध्ययन ने भारतीय अर्थ व्यवस्था को समझने की जो दृष्टि दी है, उसने गरीबी और गरीबों के बारे में न सिर्फ पूर्वाग्रहों और मिथकीय धारणाओं को तोड़ा है, बल्कि इस अर्थशास्त्र को भी खोज निकाला है, जो गरीबी का सबसे बड़ा कारण है। इस अर्थशास्त्र पर चर्चा किये बगैर हम अपने विषय को नहीं समझ सकते। दूसरे शब्दों में, हम इस अर्थशास्त्र के द्वारा ही विषय में प्रवेश कर सकते हैं।
गरीबी का अर्थषास्त्र
इसे हम सामन्ती व्यवस्था का धर्मशास्त्र और पँूजीवाद का राजनीति शास्त्र भी कह सकते है। यद्यपि सिद्धान्तः दोनों एक हैं, पर नीतिगत रूप से दोनों अलग- अलग हैं। दोनों व्यवस्थाएँ शोषण पर आधारित हैं और दोनों सामाजिक न्याय की अवधारणाओं के विरूद्ध हैं। पहले, सामन्ती व्यवस्था के धर्मशास्त्र पर विचार करते हैं। वर्णव्यवस्था और कर्मवाद इसी धर्मशास्त्र को व्यवस्थाएँ हैं। मनु का यह कथन विचारणीय हैं- ‘‘ब्राह्मण की सेवा करते हुए यदि शूद्र का जीवन-निर्वाह न हो, तो क्षत्रिय की सेवा करे। यदि उससे भी पेट न भरे, तो धनवान वैश्य की सेवा करके जीवन निर्वाह करे। इस सेवा-कार्य से भिन्न वह जो कुछ कार्य करता है, वह उसके लिये निष्फल होता है।’’ (मनुस्मृति 10/121, 221, 23) अर्थात् वर्णव्यवस्था में शूद्र वह वर्ग है, जिसे दूसरों की सेवा करने के सिवा कोई अधिकार नहीं है। वह सर्वहारा है। अगर वह सेवा न करे, तो उसके लिये कोई चिन्तित नहीं होगा। वह कहाँ से रोटी खायेगा, कैसे जीवन-यापन करेगा, इसकी जिम्मेदारी कोई नहीं लेगा। इसलिये शूद्र हजारों साल तक सेवक (गुलाम) बन कर रहा, यह उसकी मजबूरी थी। सेवा-कर्म की मजदूरी के विषय में मनु का आदेश है- ‘‘शूद्र को खाने के लिये जूठा अन्न, पहिनने के लिये पुराने कपड़े और बिछाने के लिये धान का पुआल देना चाहिए।’’ (वही 10/125) सामन्ती व्यवस्था का धर्मशास्त्र शूद्र को गुलामी की कितनी निकृष्टतम श्रेणी में रखने का आदेश देता है, इससे दो बाते साफ जाहिर होती हैं। पहली यह कि श्रम करने वाले इस वर्ग का उत्पादन पर कोई अधिकार नहीं है, उत्पादन का मालिक राजा, सामन्त, भूस्वामी और शासक वर्ग है। दूसरी बात यह कि यह मालिक वर्ग पर निर्भर करता है कि वह अपनी सेवक श्रेणी को किस स्थिति में रखता है?
अगर हम यह मान कर चलें कि भूस्वामियों के यहाँ सेवा कर्म करने वाले सर्वहारा वर्ग को खाने को अन्न मिलता था, तो यह भी मान कर चलना होगा कि उसकी एक सीमा भी होगी। सेवक श्रेणी के सभी लोगों को भूस्वामियों के यहाँ काम मिलता हो, यह जरूरी नहीं है। तब बहुत से लोगों को काम नहीं भी मिलता होगा। ऐसे बेकार लोगों को जीने के भूस्वामियों से तो अन्न नहीं मिलता होगा। तब वे या तो भूख से मरते होंगे, या फिर जीने के दूसरे तरीके अपनाते होंगे। दोनों स्थितियों में साबित यह होता है कि भूख का कारण अनाज की कमी नहीं है, वरन् सामन्ती व्यवस्था है।
सामन्ती व्यवस्था के धर्मशास्त्र को इस बात की जानकारी थी कि सेवक (शूद्र) श्रेणी के जो लोग दूसरे तरीेके से जीवन यापन करते हैं, वे धन का संग्रह भी करते हैं। अनाज खरीदने की धन-शक्ति उनके पास थी। ऐसे लोगों को धनहीन बनाने का भी मनु आदेश देता है। वह कहता है, ‘‘धन इकट्ठा करने में समर्थ होकर भी शूद्र को धन का संग्रह नहीं करने देना चाहिए, क्योंकि धन का पाकर शूद्र ब्राह्मण को कष्ट पहुँचाता है।’’ (वही 10/129) यहाँ यह बात भी साफ हो जाती है कि सेवक श्रेणी के लोगांे की क्रय-शक्ति को कम या समाप्त करने की कोशिश भी सामन्ती व्यवस्था का अनिवार्य अंग रहा हैं। सामन्ती व्यवस्था के इस धर्मशास्त्र ने दलितों के लिये बहुत ही क्रूर और अमानवीय समाज-व्यवस्था का निर्माण किया।
यह कैसी समाज व्यवस्था थी, इसका वर्णन डा. आम्बेडकर ने अपनी रचनाओं में विस्तार से किया है। यह वर्णन जुगुप्सापूर्ण है, जिसको पढ़ने के बाद कोई भी  व्यवस्था पर गर्व नहीं कर सकता। सारी व्यवस्थाएँ दलितों को आर्थिक रूप से गरीब और असहाय बनाने में मकसद से बनायी गयीं। डा. आम्बेडकर के अनुसार, देश के सभी भागों में दलितों को भूमिहीन मजदूर बने रहने के लिये विवश किया गया। अनेक प्रान्तों में तो ऐसे कानून थे कि दलित जमीन नहीं खरीद सकते थे। वे सिर्फ मजदूरी ही कर सकते थे और वह भी उस मजदूरी पर जो मालिक उन्हें देना चाहें। उनके सामने दो ही रास्ते थे, या तो वे उसी दर पर काम करें या फिर भूखों मरें उन्होंने लिखा है कि उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में मजदूरी के रूप में उन्हें गोबरहादिया जाता था। यह वह अनाज था, जो जानवर के गोबर में निकलता था। गाँवों में दलित सेवकों को किसान, जमींदार केवल साल में एक बार फसल के समय अनाज का कुछ हिस्सा देते थे, यही उनकी सेवा का मूल्य था। फसल का समय गुजर जाने के बाद दलितों के पास रोजी-रोटी का कोई साधन नहीं होता था। वे घास काटते थे और जंगलों से लकडि़याँ इकट्ठा कर आस-पास के शहरों में बेचते थे। आय के ये सभी साधन अनिश्चित और अस्थायी थे। इनकी कोई गारन्टी नहीं होती थी। दलितों के लिये रोटी कमाने का सिर्फ एक ही स्थायी साधन था और वह था हिन्दू किसानों से खाना माँगना। डा. आम्बेडकर ने लिखा है कि भारत में छह करोड़ दलितों की जीविका का मुख्य आधार भीख माँग कर खाना था। गाँव में जब लोग शाम का खाना खा चुके हैं, तब दलितों के झुंड के झुंड रटे-रटाये ढ़ंग से गुहार करते हुए खाना माँगने निकलते थे। डा. आम्बेडकर के शब्दों में, ‘‘गाँवों के सवर्णों के परिवार के साथ दलित के परिवारों का वैसा ही सम्बन्ध होता है, जैसा यूरोप में लाडर््स आफ मैनर्स और उनके अधीन सफर््स और मिलेन्स के बीच होता था। सवर्ण परिवारों के साथ जुड़े दलितों के परिवार उनके यहाँ काम करते थे। ये सम्बन्ध इतने गहरे हो गये थे कि जब कोई सवर्ण हिन्दू किसी दलित की बात करता, तो वह उसे मेरा आदमीकहता था, जैसे कि वह उसका गुलाम था। यह सम्बन्ध-सूत्र ही सवर्ण परिवारों के यहाँ दलित लोगों द्वारा भीख माँग कर खाना खाने की प्रथा को स्थायी बनाने में सहायक हुआ।’’ (डा आम्बेडकर सम्पूर्ण वाङमय, खण्ड-9, पृष्ठ 45-48)
इस विवरण से जो तस्वीर हमारे सामने उभरती है, वह यह स्पष्ट करती है कि भरपूर उत्पादन के बावजूद करोड़ों लोग भूख से मरने के लिये अभिषप्त थे।
इसी सामन्ती व्यवस्था ने आगे चलकर पूँजीवादी राज व्यवस्था का निर्माण किया। यदि पूँजीवादी व्यवस्था सामन्तवाद के खिलाफ जनता के विद्रोह का परिणाम होती, तो निश्चित रूप से इसका आधार समाजवाद होता। पर, चूँकि यह समान्ती व्यवस्था का ही विकास था, इसलिये इसने उसी व्यवस्था को कानूनी जामा पहिना कर मजबूत करने का काम किया। इस व्यवस्था ने न सिर्फ दलितों को दलित बनाये रखने के लिये योजनाएँ बनायीं, बल्कि ऐसे राजनैतिक अर्थशास्त्र को भी विकसित किया, जिसने करोड़ों नये गरीब पैदा कर दिये।

पूँजीवादी राजनीति षास्त्र
यद्यपि भारत ने राजतन्त्रों के विनाश के बाद लोकतन्त्र को स्वीकार किया, परन्तु, यह लोकतन्त्र भी पूँजीपतियों की तानाशाही के रूप में हमारे सामने आया। इसलिये शासक वर्ग ही स्वतन्त्र भारत का शासक वर्ग बना। उसने लोकतन्त्र के नाम पर न केवल सामन्ती व्यवस्था को मजबूत किया, बल्कि उसका उपयोग भी निजी पूँजीवाद को विकसित करने मे किया। धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त को इन नये शासकों ने सवधर्म समभाव के अर्थ में लेते हुए धर्म को राज्य का संरक्षण प्रदान किया। देश के अनेक भागों में मन्दिरों और मठों का संचालन राज्य के हाथों में है, कुम्भ और महाकुम्भ जैसे विशाल धार्मिक मेलों का संचालन राज्य करता है और लोकतन्त्र की सम्पूर्ण राजव्यवस्था उसी सामन्ती ठाठ-बाट और वैभव पर आधारित है, जो राजे-महाराजाओं के यहाँ था। अगर यह कहा जाय कि लोकतन्त्र के शासकों के ठाठ-बाट के आगे सामन्तों के ठाठ-बाट कुछ भी नहीं थे, तो गलत न होगा। पहले छोटे-छोटे राज्य होते थे और राजे-नवाबों का हुक्म उनके अपने ही राज्य में चलता था, परन्तु लोकतन्त्र के राजाओं का शासन पूरे देश चलता है। उनकी शानो-शौकत और विलसिता को देखकर वाजिद अली शाह भी छोटे मालूम पड़ते हैं। जनता की  खून-पसीने का धन देश के विकास में कम और शासक वर्ग के निजी विकास और ठाठ-बाट में ज्यादा खर्च हो रहा है। धर्मनिरपेक्ष राज्य के नाम पर राज्य ने                  सर्वधर्म समभाव के सिद्धान्त की आड़ में हिन्दुत्व को पाला-पोसा। होली, दीवाली, दशहरा, कुम्भ, महाकुम्भ और अन्य धार्मिक मेले हिन्दू अर्थव्यवस्था के मजबूत स्तम्भ हैं। गरीब आदमी अपनी धर्मभीरूता के कारण कर्ज लेकर भी ये त्यौहार मनाता है और मेलों में जाता है। इस धार्मिक शोषण में सिर्फ सामन्तवाद ही मजबूत नहीं होता, बल्कि प्रति वर्ष लगभग दस हजार करोड़ रूपया भी हिन्दू बनियों की जेबों में जाता है। आज भी हिन्दू मन्दिरों के मठाधीशों के पास इस शोषण की अकूत सम्पदा है, जिसका देश के विकास में कोई योगदान नहीं है। यही धर्म हिन्दू अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। दूसरों शब्दों में धार्मिक शोषण पर आधारित हिन्दू अर्थव्यवस्था देश में बड़े पैमाने पर गरीबी और भुखमरी की परिस्थितियाँ पैदा करती है।
उल्लेखनीय है कि इस धार्मिक शोषण का सबसे बड़ा शिकार दलित वर्ग होता है। यदि राज्य चाहता तो दलित वर्ग इस शोषण से मुक्त हो सकता था। इसके लिये राज्य दलितों में शिक्षा का विकास कर सकता था और एक नये समाज के निर्माण की परिकल्पना पर काम कर सकता था, पर राज्य ने इसे इसलिये नहीं चाहा, क्योंकि इससे हिन्दू अर्थव्यवस्था की मौत हो सकती थी। राज्य ने इसके विपरीत दलितों को असहाय स्थिति में रखने वाले राजनीतिशास्त्र का निर्माण किया। डा. आम्बेडकर ने अपने शोधपूर्ण लेख ‘‘अछूतों का विद्रोह’’ में लिखा है कि अछूतों को  घृणित काम करने के लिये कानूनी तौर पर विवश किया जाता था। यदि वे इनकार करते तो उन पर जुर्माना किया जाता था। उनके अनुसार, संयुक्त प्रान्त जैसे प्रान्तों जमादर यदि सफाई करने से इन्कार कर दे, तो उसे अपराध माना जाता था। 1916 के संयुक्त प्रान्त नगर पालिका अधिनियम-प्प् की, धारा 201 के अनुसार ऐसे जमींदार पर दस रूपये तक का जुर्माना किया जा सकता था। ठीक ऐसा ही कानून 1911 के पंजाब नगरपालिका अधिनियम की धारा 165 में था। इस धारा में तो जुर्माने के साथ-साथ जब्ती का आदेश भी था और उसके विरूद्ध अगली बड़ी अदालत में अपील तक नहीं की जा सकती थी। डा. आम्बेडकर लिखते हैं कि यह ऐसा कानून था, जो बेगारी को मान्यता देता है। इससे स्पष्ट होता है कि सफाई का काम अछूतों पर थोपा गया था, जिससे वे बच नहीं सकते थे। 1911 और 1916 में दस रूपये की कितनी कीमत थी, इसका अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सफाई कर्मचारी की एक महीने की कुल आमदनी भी दस रूपये से कम थी। कल्पना करिए कि सफाई कार्य न करने के कारण जिसे दस रूपये का जुर्माना देना पड़ता होगा, वह पूरे महीने किस तरह गुजारा करता होगा। यह दलितों को भूखा रखकर गरीब बनाये रखने की कानूनी साजिश थी।
जिस वर्णव्यवस्था ने दलितों को सम्पत्ति विहीन बनाने का काम किया था, उसे लोकतन्त्र के शासकों ने कई अन्य तरीकों से जारी रखा। जमींदारी प्रथा उन्मूलन के बाद होना यह चाहिए था कि सारी जमीन राज्य के स्वामित्व में चली जाती और भूमिहीन किसानों को पट्टे पर दे दी जाती। लेकिन यह नहीं किया गया। यहाँ तक कि राज्य इस मामले में कोई समान कानून भी नहीं बना सका, जिसका परिणाम यह हुआ कि सारी जमीन कुछ ही लोगों के हाथों में सिमट कर रह गयीं। जिसके पास धन था, उसने आवश्यकता से अधिक बेहिसाब जमीनें खरीदीं जिनके पास                धन नहीं था, वे भूमिहीन ही बने रहे। चूँकि भूमि प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गयी, इसलिये वह एक ऐसी सम्पत्ति भी बन गयी, जिसके लिये लोग हत्याएँ और छीना-झपटी तक करने लगे। यही अराजकता आवासीय जमीनों के क्षेत्र में पैदा हुई। कम से कम मकान बनाने के लिये भूखण्ड की सीमा तय की जानी चाहिए थी और यह भी तय किया जाना चाहिए था कि कोई व्यक्ति एक से अधिक मकान न बनवा सके। लेकिन, यदि नियम भी शासक वर्ग ने नहीं बनाया। आज लोगों के दो-तीन हजार वर्ग फुट के मकान हैं। और ऐसे लोग भी भारी संख्या में हैं, जिनके पास कई-कई मकान हैं। फार्म हाउसों की संस्कृति ने तो इस क्षेत्र में एक नये अभिजात वर्ग को ही पैदा कर दिया है।
143 वर्षों के इतिहास में मुंबई विद्यापीठ के कुलपति के सर्वोच्च पद पर पहुँचने वाले पहले दलित अर्थशास्त्री डा. भालचन्द्र मुणगेकर ने भारत-चीन की अर्थव्यवस्था पर अपने एक तुलनात्मक अध्ययन में कहा है, ‘‘चीन में भूमि का विनियोजन बहुत अच्छा है। वहाँ 12 सौ से 14 सौ वर्ग फुट से अधिक बड़े मकान नहीं बनाये जा सकते। हमारे देश में तीन हजार वर्ग फुट तक के घर बनाये जाते हैं। दर असल मुंबई, दिल्ली, मद्रास और कलकत्ता जैसे महानगरों में 50 साल पहले ही 15 सौ वर्ग फुट से बड़े मकान बनाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए थी।’’ उन्होंने आगे कहा है कि चीन में भ्रष्टाचार के लिये फाँसी की सजा दी जाती है। पर, हमारे यहाँ भ्रष्ट आदमी के गले में हार डाल कर उसका स्वागत किया जाता है। अनके अनुसार, चीन में कुल जनसंख्या का 10 प्रतिशत लोग ही गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। पर, हमारे यहाँ कुल जनसंख्या का 40 प्रतिशत से भी ज्यादा है। वे कहते हैं कि हम अपने देश की गरीबी की तुलना चीन से कर ही नहीं सकते। चीन में प्रत्येक व्यक्ति के लिये 28 सौ कैलरी आवश्यक है, मगर हमारे यहाँ 22 सौ कैलरी ही निर्धारित है। उनका कहना है कि चीन के विरोधियों को भी यह बात माननी होगी कि वहाँ आज भी एक भी नागरिक भूखा नहीं सोता।
डा. मुणगेकर कहते हैं कि हमारे देश में बेरोजगारी की समस्या के विकराल होने के बावजूद उस पर कम ही चर्चा होती है। हमारे यहाँ स्वाभाविक रूप से यह माना जाता है कि आर्थिक प्रगति के साथ ही गरीबी की समस्या भी दूर हो जायेगी। पर, वे कहते हैं कि चीन का शासक वर्ग काफी व्यावहारिक है। जब भी चीन में कोई उद्योग बन्द होने की स्थिति में होता है, तो उससे बेरोजगार होने वाले कामगारों की वैकल्पिक नौकरी की व्यवस्था पहले ही कर ली जाती है। यह व्यवस्था वहाँ मौजूद 220 लाख ग्राम एवं नगर उपक्रमों द्वारा की जाती है। लेकिन हमारे यहाँ क्या स्थिति है? वह कहते हैं कि भारत में रिजर्व बैंक की करेंसी एण्ड फाइनेंस रिपोर्ट के अनुसार ढाई से तीन लाख लघु उद्योग बन्द होने की राह पर हैं। यहाँ तो चल रहे उद्योगांे  में भी छँटनी की जा रही है। वी. आर. एस. देकर लाखों लागों को बेरोजगार कर के घर बैठाया जा रहा है। लाखों लोग ऐसे हैं, जो बिना वी. आर. एस. के ही उद्योग बन्द होने पर बेरोजगार हो गये हैं और रोटी के लिये दर-दर भटक रहे हैं।
भारत में पूँजीवादी अर्थशास्त्र ने जो राज्य विकसित किया है, वह जनतन्त्र के अधीन होने के बावजूद अपने उत्तरदायित्व से मुक्त है। सिर्फ राज्य ही नहीं, संस्थाएँ भी उत्तरदायित्व से मुक्त हैं। यहाँ सब कुछ व्यक्तिगत है। कोई भूखा है, तो उसकी चिंता किसी को नहीं होती। कोई घर-विहीन है, तो कोई भी उसके लिये चिन्तित नहीं होगा। किसी के तन पर कपड़े नहीं हैं, तो कोई भी शर्म महसूस नहीं करेगा? आप को जानकर आश्चर्य होगा कि भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में 55 करोड़ क्विंटल अनाज भरा पड़ा है। किसी भी संकट के लिये 15 करोड़ क्विंटल का अनाज का सुरक्षित भण्डार काफी होता है, पर हमारे यहाँ उससे 40 करोड़ क्विंटल ज्यादा भण्डार है। फिर भी लोग भूख से मर रहे हैं। क्यों? स्पष्ट है कि इससे लिये व्यवस्था दोषी है। व्यवस्था किस तरह दोषी है? इसे समझने की जरूरत है।

राजनैतिक अर्थषास्त्र
इसे समझने के लिये राजनैतिक अर्थशास्त्र को समझना होगा, जिसे हम पूँजीवादी अर्थशास्त्रभी कह सकते हैं। पूँजीवादी अर्थशास्त्र सिर्फ गरीबी को नहीं बढ़ाता है, बल्कि गरीबी की रेखा के ऊपर के लोगों की क्रय शक्ति को भी कम करता है। वह यह काम मँहगाई बढ़ाकर और श्रम का शोषण करके करता है। उदाहरण के लिये उन मजदूरों को ले, जो रोज अपने श्रम को बेच कर अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं। ऐसे कोई 40 करोड़ मजदूर हैं, जिनकी दैनिक मजदूरी, आपको जानकर आश्चर्य होगा, पाँच रूपये से भी कम है। एक महीने में औसतन अधिकतम सौ रूपये कमाने वाले इन मजदूरों की नियति क्या हो सकती है? इसे आसानी से समझा जा सकता है। कोई 20 करोड़ दिहाड़ी मजदूर हैं, जिनकी औसत मासिक आमदनी दो-ढाई हजार रूपये से ज्यादा नहीं होती। उनकी क्रय-शक्ति का अन्दाजा आसानी से लगाया जा सकता है। वे ठीक से न तो अपना तन ढक सकते हैं और न अपना पेट। उनकी आमदनी बढ़ाने की कोई कोशिश राज्य नहीं करता और न ऐसी कोई सोच देश के विधि-निर्माताओं और शासकों में दिखायी देती है।
इस देश में श्रम सस्ता क्यों है? मजदूरों की आमदनी क्यों नहीं बढ़ती? क्यों निर्धारित मजदूरी से भी कम मजदूरी पर लोग काम करने पर तैयार हो जाते हैं? इसका कारण है, मजदूरों में बचत की सारी सम्भावनाओं को खत्म करना। बचत होगी, तो उस पैसे का उपयोग वह अपने बच्चों की शिक्षा पर खर्च करना चाहेगा। बचत होगी, तो भविष्य की सुरक्षा होगी। बचत होगी, तो भूखे रहने की स्थिति नहीं होगी। बचत होगी, तो इसका मतलब है उसकी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति हो रही है। बचत मजदूर वर्ग को उस स्थिति में पहुँचा देती है, जहाँ पूँजीवादी अर्थशास्त्र के लिये खतरा पैदा हो जाता है। पूँजीवादी इस खतरे को क्यों पैदा होने देगा? इसलिये, वह मजदूर को उतना ही देने का समर्थन करता है, जितने से वह रूखा-रूखा खाकर जिन्दा रह सके और दूसरे दिन फिर श्रम बेचने के लिये तैयार रह सके। चूँकि, उसे मिलने वाली मजदूरी इतनी कम होती है कि उससे एक आदमी की भी न्यूनतम आवश्यकताएँ पूरी नहीं होतीं, इसलिये वह श्रम-बाजार में अपने बीबी-बच्चों को भी बेचता है। और लानत इस व्यवस्था पर कि इसके बाद भी वह कोई बचत नहीं कर पाता।
भारत में कई हजार मिलें कारखाने बन्द हो गये हैं और उनमे काम करने वाले कई लाख मजदूर बेकार हो गये हैं। उनमें अब तक हजारों मजदूर भूख से, बीमार पड़ने पर दवा के अभाव से और स्वयं से आत्महत्या करके मर चुके हैं। मेरे ही जिले में दो चीनी मिलें और एक कपड़ा मिल बन्द हो जाने से कितने ही श्रमिक आत्महत्या कर चुके हैं। इसी दिसम्बर की दस तारीख को दो मजदूर आर्थिक तंगी के कारण मर गये। इनमे एक का नाम लियाकत था, जिसने इलाज के अभाव में दम तोड़ दिया और दूसरा कृति राम था, जो ठेला लगाकर परिवार का पेट पाल रहा था। इनकी मौत भी बीमारी की वजह से इलाज के अभाव में हुई। ये दोनों बन्द हो चुकी कपड़ा मिल के मजदूर थे।
देश में अस्पताल हैं, बड़े-बड़े नर्सिंग होम हैं। उनमे चिकित्सक भी हैं, चिकित्सा की सुविधाएँ भी हैं और दवाईयाँ भी हैं। पर अगर बीमार के पास इन्हें प्राप्त करने के लिये रूपया नहीं है, तो उसकी नियति क्या हो सकती है सिवाय मौत के? ठीक इसी तरह सरकारी गोदामों में, बाजार में, और सेठों के गोदामों में अनाज की बोरियाँ ही बोरियाँ भरी पड़ी हैं- इतनी कि हर साल सड़ जाता है और नष्ट किया जाता है। पर, अगर भूखे के पास रूपया नहीं है तो उसकी नियति क्या हो सकती है सिवाय मौत के? कहने का अभिप्राय यह है कि भूख से लोग इसलिये नहीं मर रहे हैं कि अनाज की कमी है, बल्कि लोग इसलिये भूख से मर रहे हैं, क्योंकि अनाज खरीदने की उनकी क्षमता नहीं है।
अतः पूँजीवादी अर्थशास्त्र को संक्षेप में समझना है, तो उसका अर्थ है गरीब को गरीब बनाने का व्यवस्था और शोषण के तन्त्र को कायम करने की व्यवस्था। पूँजीवादी अर्थशास्त्र श्रम को सस्ता खरीदता है। वह जनता की जमीन को कौडि़यों के भाव खरीदता है या उस पर कब्जा करता है और उसे मँहगे दामों पर बेचता है। वह शिल्पकारों, दस्तकारों और कुशल कारीगरों को बाजार भाव पर कच्चा माल बेचता है और उससे उत्पादित वस्तु को बाजार भाव से कम-औने-पौने दाम पर  उधार की शर्त पर खरीद कर बाजार मंे ऊँची कीमत पर बेचता है। कारीगर के श्रम पर वह फलता-फूलता है और कारीगर या तो भूखों मरता है या रोटी के लिये  पलायन करता है। यहाँ वह पलायन करता है, वहाँ भी वह इसी स्थिति से गुजरता है। इस पूँजीवादी अर्थशास्त्र ने शिल्पकार और शिल्प दोनों को तबाह कर दिया है। मैंने अपने पिता और अपनी बस्ती के तमाम कारीगरों को तबाह होते देखा है। बेहतरीन जूता बनाने वाले ये कारीगर गरीबी से जूझते हुए मर गये और उनकी औलादें आज मोची का काम करके गुजर-बसर कर रही हैं।
यह पूँजीवादी अर्थशास्त्र फाँसीवादी व्यवस्था है, जो साँस्कृतिक फाँसीवाद के लिये रास्ता बनाती है। इसलिये यह सबसे घातक फाँसीवादी है। करोड़ों गरीबों में यदि एक-दो लाख को भी पढ़ने-लिखने का अवसर मिल गया, तो उनमें भी सबसे प्रखर और रेडिकल अर्थशास्त्री और राजनीतिशास्त्रों पैदा हो सकते हैं। वे एक बड़ी राजनैतिक क्रान्ति को जन्म दे सकते हैं। पूँजीवादी शासक वर्ग इस सच्चाई को जानता है। इसलिये वह देश के गरीबों को आर्थिक बदहाली में रखता है, ताकि रोटी ही उनके लिये पहली और अन्तिम जरूरत बनी रहे। और शेष लोगों को वह धर्म और जाति के आधार पर लड़ाकर उनकी साम्प्रदायिक एकता को खण्डित करता है।
समाजवाद
इस समस्या का हल क्या है? इसका एक ही हल है समाजवाद। इसके लिये पहले भारत का एक आर्थिक ढाँचा निर्धारित होना जरूरी है। यह ढाँचा समाजवादी होना चाहिए और संविधान के द्वारा निर्धारित होना चाहिए।
भारत राष्ट्र का कोई भी आर्थिक ढाँचा संविधान द्वारा निर्धारित नहीं है। कहने को संविधान की प्रस्तावना मंे भारत को समाजवादी राज्य स्वीकार किया गया है। पर, यह समाजवाद अस्तित्व में आज तक नहीं आया। इसका कारण है कि हमारे शासकों ने समाजवाद को कभी नहीं अपनाया। देश की बागडोर पं. जवाहर लाल नेहरू के हाथों में आयी। वे रूसी क्रान्ति से प्रभावित थे। पर चूँकि वे धनाढ्य वर्ग से थे, गरीब, मजदूर और सर्वहारा समाज से नहीं थे तथा राजनीति में पूँजीपतियों, उद्योगपतियों और सामन्तों का वर्चस्व था, इसलिये वे समाजवाद नहीं ला सके। उन्होंने मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया, सहकारी, सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को विकास का आधार बनाया गया। इसका परिणाम, यह हुआ कि जमींदारी प्रथा का उन्मूलन होने के बावजूद उसका लाभ जनता को नहीं मिला। केवल दो करोड़ परिवारों को ही इसका लाभ मिल सका। इसके साथ ही, भूमि                   सुधार से भी कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं आया। 1930 मंे चीन में 90 प्रतिशत किसानों के पास 40 प्रतिशत जमीन थी और बाकी 60 प्रतिशत जमीन सिर्फ दस प्रतिशत लोगों के कब्जे में थी। किन्तु 1950-52 में, जब जमीन का पुनर्वितरण हुआ तो वहाँ 90 प्रतिशत लोगों को 90 प्रतिशत जमीन मिली। हमारे यहाँ स्थिति यह है कि 24 प्रतिशत किसानों के पास 70 प्रतिशत जमीन है, जबकि 76 प्रतिशत लोगों के पास सिर्फ 30 प्रतिशत जमीन है। चीन में आज भी भूमि -बाजार नहीं है। वहाँ एक इंच जमीन भी कोई नहीं खरीद सकता, यहाँ तक कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भी नहीं, जो वहाँ निवेश कर रही हैं। परन्तु भारत में कोई सीमा नहीं है, जितनी चाहे कोई जमीन खरीद सकता है।
जमीन के सवाल पर भारत की नीतियाँ धनाढ्य वर्ग के हित में हैं। आम जनता का कोई हित उन नीतियों से नहीं होता। भारत की कृषि समस्या भी इसी का एक हिस्सा है। हमारी कृषि छोटी और बिखरी हुई जोतों कि शिकार है, तो दूसरी ओर विशालकाय कृषि फार्म हैं, जो एक उद्योग बन गये हैं। जब कृषि फार्म उद्योग बन सकते हैं, तो समूची कृषि का औद्योगीकरण क्यों नहीं हो सकता? डा. आम्बेडकर ने 1918 में छोटी जोतों की समस्या पर विचार किया था। तब देश में जमींदारी प्रथा थी और लोगों के पास निजी कृषि जमीनें काफी कम थीं। वे भी उत्तराधिकारी के कानून के आधार पर बेटों में बंट कर और भी छोटी हो जाती थीं। छोटी जोतों की वजह से श्रमिकों का बहुत बड़ा वर्ग निठल्ला रहता है। निठल्ला आदमी कमाये या न कमाये, पर उसे जीवित रहने के लिये भोजन की जरूरत होती है। आम्बेडकर ने कहा था कि निठल्ला मजदूर एक नासूर की तरह है, जो हमारी राष्ट्रीय बचत में वृद्धि करने की बजाय जो थोड़ी-बहुत बचत होती है, उसे भी खा जाता है। उन्होंने खराब सामाजिक व्यवस्था को दोषी मानते हुए कहा था कि खेती पर पूरी तरह निर्भर रहने के कारण ही जोतें छोटी और बिखरी हुई हैं, जो हमारी जनता के बड़े भाग को कृषि उत्पादक रोजगार नहीं दे सकतीं और इसलिये उसे निठल्ला रहना पड़ता है। उनका कहना था कि इस समस्या को हल करने के लिये चकबन्दी करके जोतों का आकर बढ़ाने का प्रयास असफल सिद्ध होंगे। उनका कहना था कि ऐसा करने  से भी निठल्ले श्रमिकों की संख्या कम होने की बजाय और बढ़ेगी ही और ऐसा इसलिये होगा, क्योंकि पूँजी-प्रधान कृषि में ज्यादा व्यक्तियों की जरूरत नहीं पड़ेगी।
आम्बेडकर की दृष्टि में इसका हल कृषि का औद्योगीकरण था। उनका मत था कि औद्योगीकरण से न सिर्फ जमीन पर दबाव कम होगा, बल्कि पूँजी तथा पूँजीगत सामान बढ़ने से जोतों का आकार बढ़ाने की भी आर्थिक आवश्यकता पैदा हो जायेगी।
डा. आम्बेडकर 1918 में कृषि के औद्योगीकरण को महसूस कर रहे थे। 1919 में रूस की क्रान्ति हुई, जिसका वैचारिक धरातल पहले से ही तैयार हो रहा था। उस समय आम्बेडकर न्यूयार्क में रह कर अध्ययन कर रहे थे। वे अर्थशास्त्र के                 विधार्थी थे। रूस मे चल रहे वैचारिक आन्दोलन ने उन्हें प्रभावित किया था। यह प्रभाव हमें उनकी राजकीय समाजवादकी अवधारणा में स्पष्ट दिखायी देता है। उनकी यह अवधारणा राज्य और अल्पसंख्यकनामक ज्ञापन में मौजूद है, जिसे उन्होंने स्वतन्त्र भारत के संविधान मंे सुनिश्चित करने हेतु संविधान सभा को प्रस्तुत किया था। इसमें आम्बेडकर माँग करते हैं कि भारत अपने संविधान की विधि के अंग के रूप में यह घोषणा करेगा कि वे उद्योग, जो प्रमुख उद्योग हैं और वे उद्योग जो प्रमुख उद्योग नहीं हैें, परन्तु बुनियादी उद्योग हैं, राज्य के स्वामित्व में रहेंगे और राज्य द्वारा चलाये जायेंगे, बीमा राज्य के एकाधिकार में रहेगा और राज्य हर व्यस्क नागरिक को उसकी आय के समानुपात में एक जीवनपालिसी लेने के बाध्य करेगा। और कृषि राज्य उद्योग होगा।
कृषि उद्योग का गठन किस आधार पर होगा, इस सम्बन्ध में उनकी माँग थी कि राज्य जमींदारों या अन्य निजी व्यक्तियों के स्वामित्व से भूमि को अधिग्रहण कर उसे मानक आकार (Standard Size) के खेतों में विभाजित करेगा और उन खेतों को गाँव के काश्तकारों को इस शर्त पर कृषि-कार्य के लिये किराये पर देगा कि खेती सामूहिक रूप से सरकार के नियमों के अनुसार होगी और खेत पर लगाये जाने वाले टैक्स (प्रभार) को अदा करने के बाद काश्तकार खेत के शेष उत्पाद को आपस में बाँट लेंगे। उन्होंने यह भी सुनिष्चित करने को कहा कि बीज, खाद, औजार, पशु तथा पानी की आपूर्ति एवं सामूहिक फार्मों की खेती को वित्तीय सहायता देने की जिम्मेदारी राज्य की होगी। राज्य को अधिकार होगा कि वह कृषि उत्पाद पर भू-राजस्व के लिए एक अंश तथा पूँजीगत माल (ब्ंचपजंस हववके) के उपयोग के लिये एक अंश की वसूली करेगा।
कृषि का औद्योगीकरण और उद्योग, भूमि और बीमा का राष्ट्रीयकरण यदि इस देश में हो जाता है, तो क्या पूँजी का असमान वितरण होगा? विशाल श्रमिक वर्ग निठल्ला बैठेगा? कोई भूखा मरेगा? तब, कितनी सारी प्रतिभाएँ विकसित होंगी और देश को समृद्ध करेंगी। इसे हम इस तरह से भी कह सकते हैं कि जब तक भूमि, कृषि उद्योग निजी पूँजीवाद से नियंत्रित-संचालित होते रहेंगे, तब तक न गरीबी का अन्त होगा और न भुखमरी का और देश मुट्ठी भर रईसजादों की अपनी मिल्किीयत बना रहेगा।