आत्मकथ्य-1
घर
(कॅंवल भारती)
बुकर टी.
वाशिंगटन की आत्मकथा ‘अप फ्राम स्लेवरी’
को पढ़ते वक्त एक कथा मेरे अन्दर भी साथ-साथ
चलने लगी। पहले ही अध्याय ‘ए स्लेव अमंग
स्लेवस्’ से यह अन्तर्कथा शुरु हो
गयी थी। उन्होंने लिखा है, ‘मैं वर्जीनिया के
एक बागान में गुलाम पैदा हुआ था।’ वे कब और कहाॅं पैदा
हुए थे, इसका भी उन्हें ठीक-ठीक
पता नहीं था। वे अपने जन्म का न महीना जानते थे और न दिन। उन्हें बस यह याद था कि
बागान में गुलामों के रहने के लिये बनाये गये क्वार्टरों में से ही किसी एक
क्वार्टर में उनका जन्म हुआ था, जो गुलामों के
केबिन थे, जिनमें वे रहते थे।
उन्होंने लिखा है- ‘I was born in a typical log cabin, about
fourteen by sixteen feet square. In this cabin I lived with my mother and a
brother and sister till after the Civil War, when we were all declared free.’ बुकर टी. वाशिंगटन के इस पैरे को पढ़कर मेरे
अचेतन में कुछ उबलने लगा। मैं अछूत पैदा हुआ था, उत्तर प्रदेश के रामपुर शहर में अछूत चर्मकारों की मलिन
बस्ती में। लेकिन अपनी पैदाइश का दिन, महीना और वर्ष मुझे भी याद नहीं है। मेरे पिता का नाम भगवान दास था, जिन्हें मैं बाप कहता था। उन्होंने जब सरकारी
मदरसे में, जो बस्ती के पास ही था,
मेरा दाखिला कराया, तो उन्होंने अन्दाजे से मेरी जन्म-तिथि 4 फरवरी 1953 लिखवा दी थी। अब यही मेरी रिकार्डेड जन्म-तिथि है, जबकि मैं अच्छी तरह जानता हूॅं कि वह गलत है।
मेरी माॅं का नाम गंगादेई था, जिन्हें मैं
अम्मा कहता था। वह कहती थी कि मेरे जन्म वाले दिन खूब आॅंधी-तूफान आया था और मेह
पड़ा था। इस लिहाज से मेरे जन्म का महीना जून-जुलाई का होना चाहिए। यह एक और आधार
से भी सही प्रतीत होता है। स्कूल में कक्षा 2 में मेरा दाखिला कराया गया था। स्कूल जुलाई में खुलते हैं
और जुलाई में ही मेरी उम्र पाॅंच साल की हुई थी। इसलिए मुझे लगता है कि मेरे जन्म
का अनुमानित सही महीना जुलाई का होना चाहिए और अनुमानित सही सन् भी 1955 होनी चाहिए, क्योंकि कक्षा 2 मैंने 1960 में पास किया था,
जिसका ‘पास का पर्चा’ (परीक्षा फल) मेरे
पास अभी भी सुरक्षित है।
मेरे दादा का नाम
छोटे लाल था, जिनकी मुझे
धुंधली सी सूरत याद है। मैंने उन्हें अपने घर के सामने वाली एक कच्ची कोठरी में
लेटे देखा था। वह क्या थे और क्या करते थे, इस बारे में बाप ने कभी कुछ नहीं बताया था। पर बस्ती के कुछ
वृद्ध बताते थे कि उन्हें संगीत का शौक था। पर वह भी गठाई का काम करते थे, जो कोतवाली के आगे घुड़साल के पास बैठा करते
थे। सम्भवतः मेरे स्कूल जाने से पहले ही वह चल बसे थे।
हमारे घर कहने भर को घर थे, पर असल में वे घरोंदे थे, जिनमें कोई बुनियादी सुविधा नहीं थी। वे केबिन
तो नहीं थे, पर केबिन जैसे ही
थे। छत के नाम पर खपरैल थी, तीन तरफ सेे
मिट्टी की दीवारें थीं, सामने घर में
प्रवेश के लिये भीतर की ओर खुलने वाला छोटा सा दरवाजा था, जिसमें सिर झुका कर ही घुसा जा सकता था। घर में घुसने से
पहले उसारा पड़ता था। उसी में एक तरफ मिट्टी का चूल्हा रखा रहता था, चूल्हे पर लोहे का तवा खड़ा रहता था, एक कोने में खाना बनाने और खाने के कुछ बरतन एक
परात में भरे रखे रहते थे। उसारे में ही पानी का घड़ा और बाल्टी रहती थी, और कोई दरवाजा उसारे में नहीं था। हम उसारे में
ही खाते-पीते थे और उसी में मेरे बाप अपना चमड़े का काम भी करते थे। उसी में खटिया
डालकर वे सोे भी जाते थे।
ये घरोंदे एक बाखर का हिस्सा थे, जैसे बहुत से केबिनों में से एक केबिन में बुकर
टी. वाशिंगटन पैदा हुए थे, वैसे ही बाखर के
एक घरोंदे में मैं पैदा हुआ था। अब आप सोच रहे होंगे कि बाखर से मतलब क्या है?
छह या आठ घरों को मिलाकर या जोड़कर एक बाखर या
बखरी बनती थी। ऐसी दो बाखरें हमारी बस्ती में थीं, हांलाकि जाटवों के कुछ घर और भी थे। पर बाखरें दो ही थीं।
ऐसी ही बाखरें बरवालों (ये अब अपने आप को वर्णवाल कहते हैं) की भी थीं, जो दक्षिण दिशा में हमारी दोनों बाखरों से सटी
हुई थीें। अब मैं यह बताता हूॅं कि बाखर किस तरह की होती थी? ठीक घुड़साल की तरह बाखर में आमने-सामने घर
होते हैं, बीच में नाली होती है,
जो उसे दो भागों में विभाजित करती है। हमारी
बाखर पूरब और पश्चिम दिशा में आमने-सामने थीं। बाखर के जिस घर में मेरा जन्म हुआ
था, उसका मुॅंह पूरब की ओर
था। यह भी कह सकते हैं कि बखरी में हमारा घर पश्चिम दिशा में था। हमारे घर की बगल
में डोरीलाल का घर था, जो बस्ती के
रिश्ते में दादा लगते थे। उनके दो बेटे चन्द्रपाल और राम औतार थे, जिनमें मेरा चन्द्रपाल हम-उम्र था, और इसी बजह से हम-ख्याल भी। 1972 के बाद हमारी बस्ती से बहुत से परिवार पलायन
कर गए थे, जिनमें मेरे पिता भी
शामिल थे। वह तो कुछ साल बाद वापिस आ गए थे, पर डोरीलाल सहित अनेक लोगों ने हमेशा के लिए रामपुर छोड़
दिया था। इस पलायन की दुखद कहानी मैं बाद में लिखूॅंगा। अभी मेरा ध्यान अपने ‘घर’ पर ही है।
हमारी बाखर में घर के ठीक सामने एक कुॅंआ था,
जिसका पानी बहुत मीठा था। उसी पानी से घर के
सारे काम होते थे। गर्मियों में कुएॅं से पानी खींचकर माॅं घड़े में भरकर रख लेती
थी। कुएॅं के पास ही चबूतरा बना था, जिस पर औरतें कपड़े धोती थी और मर्द लोग बैठकर नहाते थे। किसी के भी घर में तब
गुसलखाना नहीं होता था, सब खुले में ही
नहाते थे। औरतें और लड़कियाॅं दो खटियों को खड़ी करके उन पर दरी या चादर डालकर आड़
करने के बाद नहाती थीं। बाद में जब 1970 के आसपास नगरपालिका ने बस्ती में ‘चपाल द्वारे’ (बस्ती की पंचायत
का स्थान) सरकारी नल लगवाया, तो कुएॅं का पानी
मुॅंह लगना बन्द हो गया था।
प्रकृति ने जो
चार ऋतुएॅं बनाई हैं, उनके बिना पृथ्वी
पर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। इन जीवन-दायिनी ऋतुओं में वर्षा ऋतु का अपना
अलग ही महत्व है। कवियों ने भी इसके चित्रण में अपनी सुन्दरतम कल्पनाएॅं उकेरी
हैं। आकाश में घुमड़ते हुए काले-भूरे बादलों को देखकर किसान कितना खुश होते हैं।
जब वे बरसते हैं, तो
नदी-नाले-ताल-तलैया सब भर जाते हैं, सूखे वृक्षों में जीवन आ जाता है; जिधर देखो, हरियाली ही नजर
आती है। शायद यह कहाबत इसी से बनी है कि ‘सावन के अंधे को हरा ही हरा सूझता है।’ मैंने अपनी कक्षा दो या तीन की किताब में एक कविता पढ़ी थी,
जिसमें लिखा था- ‘बरस रहा है घर आॅंगन, बाहर निकलूॅं मैं भी भीगूॅं, चाह रहा है मेरा मन।’ लेकिन मेरा मन बारिश के दिनों में बाहर निकल कर भीगने को
नहीं करता था, क्योंकि हमारे
लिए बारिश के दिन मुसीबत के दिन थे, जिसमें हमारा घर नरक बन जाता था। हमारे दर्द की अगर किसी कवि ने सही तस्वीर
खींची है, तो वे कबीर साहेब हैं,
जिन्होंने लिखा था-
इब न रहूॅं माटी
के घर मैं, इब मैं जाइ रहूॅं मिलि
हरि मैं।
छिनहर घर अरु
झिरहर टाटी, घन गरजत कंपै
मेरी छाती।।
बरसात के दिनों में एक गरीब अपने माटी के घर को
देखकर बादलों के गरजने की आवाज सुनकर सिहर जाता है, क्योंकि छप्पर में छेद ही छेद हैं और दरवाजे की टाटी भी
जर्जर है। बादल बरसते हैं, तो घर में भी
बरसात ही होती है। ऐसे में उसका मन जीने का नहीं, मरने का करता है।
हमारा घर भी माटी का था, जो खपरैल और छप्पर से छाया हुआ था। उसमें बरसात के दिन
हमारे लिए बहुत डरावने होते थे। बाहर बादल गरजते थे और भीतर हम कई प्राणी काॅंपते
थे। माॅं आसमान की तरफ अपने दोनों हाथ जोडकर कहती थी, ‘राम जी रहम करो।’ पर रामजी कहाॅं रहम करते। बादल रात भर बरसता और घर भी रात भर बरसता। हम एक जगह
सहमे-सिकुड़े बैठकर रात गुजारते। घर में जितने भी बरतन होते- पतीली, परात, कढ़ाई, बेला, लोटा, कटोरदान- माॅं उन सबको टपकने वाली जगहों पर रखती जाती थी। जो बरतन पानी से भर
जाता, उसका पानी बाहर फेंककर,
उसे फिर से वहीं रख दिया जाता था। यह सिलसिला
बारिश रुकने तक चलता था। लेकिन दीवालों के पास बरतन रखना नामुमकिन था, क्योंकि दीवालों के ऊपर, जहाॅं छप्पर रोका जाता था, वहाॅं से भल-भल करके तेज बहाव में पानी आता था और कुछ ही
समय में खटियों और पलंग के नीचे इतना पानी भर जाता था कि पैरों की एडि़याॅं डूब
जाती थीं। जब बरसात खत्म होती- जिसका कोई टाइम निश्चित नहीं था- तो सिलसिला शुरु
होता, पानी उलीचने का। यह काम
माॅं ही करती थी। बाप भी कुछ हाथ बॅंटाते थे। लेकिन ज्यादातर माॅं ही निर्विकार मन
से पानी उलीचती रहती थी। मैं उस समय छह या सात साल का था। माॅं का हाथ बॅंटाने की
कोशिश करता, तो वह मना कर
देती थी, ‘तू रैन दे बेटा, मैं तो अपने नसीब में लिखवा के लाई हूॅं ये।’
नसीब ऊपर से ही लिख कर आता है, इस पर हमारी पूरी बस्ती का अटूट विश्वास था।
यह सिर्फ मेरे घर की ही कहानी नहीं थी, बल्कि हमारी बस्ती के अधिकांश घरों की यही
नियति थी। घरों के पीछे पाखाने थे। पाखाने क्या थे, चार-चार ईंटों की कुछ खुड्डियाॅं थीं। मल-त्याग के बाद उस
पर राख डाल दी जाती थी। बाद में मेहतर उसे झाडूं-पंजे से उठाकर डलिया में रखकर,
जहाॅं गिल्लाघर होता था, वहाॅं फेंक आता था। फ्लश की आधुनिक लैटरीनों का दौर अभी
पूरे शहर में ही नहीं आया था। इसलिए हाथ से मैला उठाने की प्रथा थी। बस्ती के
पाखाने साफ करने के लिए कैलासो नाम की एक मेहतरानी आती थी, कभी-कभी उसका लड़का भी आ जाता था, जिसका नाम रामभरोसे था। लेकिन कभी-कभी वे कई-कई दिन तक नहीं
आते थे और मल से खुड्डियाॅं भर जाती थीं। गरमी के दिनों में उसमें सफेद सूडि़याॅं
पड़ जाती थीं और वो सूडि़याॅं खुड्डियों में से निकल कर पूरी गली में फैल जाती
थीं। बरसात के दिनो में तो और भी बुरा हाल होता था, जिसका वर्णन करना ही जुगुप्सापूर्ण होगा। लेकिन हम इस
जुगुप्सा के अभ्यस्त हो चुके थे। मुझे याद है, एक बरसात में सड़क की तरफ की हमारे घर की दीवाल गिर गई थी,
जिसके फिर से बनने का नम्बर महीनों बाद आया था।
आॅंधी-तूफान के दिन भी बरसात जैसे ही डरावने थे। एक बार इतनी जोर की आॅंधी आई थी
कि आधा छप्पर ही उड़ गया था। तब बाप ने कहीं से कर्जा लेकर दूसरे छप्पर का इन्तजाम
किया था।
सावन
के महीने की एक कटु स्मृति भी है। सलूनो (रक्षा बन्धन) के लिए सिवईयाॅं तोड़ी जाती
थीं। सिवईयाॅं दो तरह से तोड़ी जाती थीं- एक, मिट्टी के घड़े को उल्टा करके उस पर मंैदे की बड़ी सी लोई
रखकर उसे दोनों हाथों से रूई की बत्ती की तरह बटा जाता था। ऐसा करने से घड़े के
दोनों तरफ सिवईयाॅं गिरती थीं, जिसे तोड़कर
सुखाने के लिए खाट पर चादर बिछाकर झउआ रखकर उस पर डाल दी जाती थीं। मेरी माॅं इसी
तरीके से सिवईयाॅं तोड़ती थी। दूसरा तरीका मशीन से सिवईयाॅं तोड़ने का था। यह एक
बड़ी सी लकड़ी की मशीन थी, जिसका आकार आज की
नीबू निचोड़ने वाली मशीन जैसा था। यह मशीन या तो किराए पर लाई जाती थी, या मुहल्ले में ही किसी की थी, इसकी मुझे कोई स्मृति नहीं है, क्योंकि एक हादसे के बाद वह मशीन फिर कभी नहीं
देखी गई। उस मशीन को खाट के पंयाते पाए से कसकर बाॅंध दिया जाता था, ताकि हिले नहीं। फिर ऊपर के पट्टे को उठाकर एक
बड़े से होल में, जिसके अन्दर एक
जाली लगी होती थी, एक किलो वजनी
मैंदे की लोई रखकर ऊपर के पट्टे पर एक-दो भारी बच्चों को बैठा दिया जाता था।
बच्चों के भार से पट्टा नीचे आता था और नीचे जाली में से सिवईयाॅं निकलती थीं,
जिन्हें तोड़कर खाट पर बिछे झउओं पर डाल दिया
जाता था। इसी मशीन में एक दिन पता नहीं कैसे दोनों पाटों के बीच मेरा बायाॅं हाथ आ
गया था और जबरदस्त दबाव के कारण मेरी एक उंगली कुचल गई थी। उसका नाखून आज तक खराब
है।
हमारी बखरी के
बीचोबीच में नीम का एक बहुत पुराना पेड़ था, जिसके मोटी-मोटी डालियाॅं इतनी ऊॅंची थीं कि घरों की
खपरैलों के ऊपर से गुजरती थीं। सावन के महीने में उन डालियों में मोटा रस्सा डालकर
औरतें झूला झूलती थीं और लड़के लम्बी-लम्बी पेंगे भरते थे। मुझे झूले से डर लगता
था, इसलिए मैं नहीं झूलता था।
यह डर आज भी है और आज भी मैं झूला नहीं झूलता हूॅं। तीजों के दिन कई झूले डाले
जाते थे, जिन पर औरतें और
लड़कियाॅं झूलते हुए लोकगीत गाया करती थीं।
बरसात के दिन फाके के दिन होते थे। फाके का
मतलब उपवास नहीं है, जो भगवान को खुश
करने के लिए रखा जाता है, बल्कि फाका पैसे
और भोजन के अभाव में भूखा रहने का नाम है। मेरे बाप जिस कारखाने में जूता बनाने का
काम करते थे, वह बरसात में
बन्द हो जाता था। बाप को कारखाने से दो रुपए रोज मिलते थे और हफ्ते में हिसाब होता
था, जिसमें कभी चार-पाॅंच
रुपए मिल जाते थे, तो कभी धेला भी
नहीं निकलता था। यह कारखाना-मालिक का अजब क्रूर खेल था, (जिस पर मैं बाद में लिखूॅंगा) जिसने न जाने कितने जाटवों को
बरबाद किया था। मेरे बाप अकेले कमाने वाले थे, इसलिए बरसात से निपटने का इंतजाम नहीं कर पाते थे, जबकि बिरादरी के वे लोग, जिनके घर में कई जने कमाने वाले होते थे, बरसात के लिए कुछ इंतजाम करके रख लेते थे।
लेकिन मेरे बाप को बरसात के दिनों में मोची बनकर पुराने जूतों की मरम्मत का काम
करने के लिए बाध्य होना पड़ता था। उन दिनों जूतों पर पालिश और मरम्मत के लिए
दस-पाॅंच पैसे से ज्यादा कोई नहीं देता था। इस तरह दिन भर की उनकी कुल कमाई आठ-दस
आने से ज्यादा नहीं होती थी, जिस दिन एक रुपया
कमाते, उस दिन दाल या सब्जी के
साथ रोटी मिल जाती थी। लेकिन जिस दिन दिनभर बारिश होती, उस दिन बाप काम पर नहीं जाते थे और उस दिन हमें दोनों वक्त
कुछ खाए बिना ही भूखा रहना पड़ता था। इसी को हम फाका कहते थे। जब फाकाकशी को दो
दिन हो जाते थे, तो हमारे सामने
के घर के सामने रहने वाली एक दादी, जिसे बखरी के
रिश्ते में मेरी माॅं ‘अम्मा’ कहती थी, तरस खाकर मेरी माॅं को पाॅंच रुपए उधार देती थी, तो कभी माॅं भी उधार ले लेती थी। उन पाॅंच
रुपयों में ढाई रुपए का ढाई सेर आटा आ जाता था और ढाई रुपए दाल, मसाला, तेल और ईंधन में खर्च हो जाता था। घर की यह स्थिति 1968 से शुरु हुई थी, जब महंगाई दुगुनी हो गई थी, यानी आटा आठ आना
किलो से एक रुपए किलो हो गया था और परिवार बढ़ गया था।
तब घर-घर में मिट्टी के ही चूल्हे थे। ‘घर-घर मिट्टी के चूल्हे’ वाली कहाबत भी तब अच्छी लगती थी, पर आज तो घर-घर में गैस के चूल्हे हैं। आज उन मिट्टी के
चूल्हों को याद करके लोग कहते हैं कि गैस की रोटी में वह मजा कहाॅं, जो मजा मिट्टी के चूल्हे पर ‘घए’ में सिकी पानी की रोटी का होता था, और वे फुलके जो मिट्टी के चूल्हे पर बनते थे, वो आज कहाॅं नसीब होते हैं। लेकिन ऐसा सोचने वाले मिट्टी के
चूल्हे पर अपने फेफड़ों में अधगीली लकडि़यों का धुआॅं भरती हाॅंफती-खाॅंसती स्त्री
की वेदना का अनुभव बिल्कुल नहीं करते। गैस के चूल्हे ने स्त्रियों के लिए कितनी
बड़ी क्रान्ति की है, इसका एहसास
उन्हें नहीं है। लेकिन मैं जानता हूॅं कि मेरी माॅं दमा और तपेदिक की जिस बीमारी
से मरी थी, वह उसे चूल्हे में जलने
वाली लकडि़यों के धुएॅं से ही हुई थी।
घर में जाड़े का मौसम चैन से कट जाता था। पर,
जाड़े के बाद जैसे ही गर्मियाॅं आतीं, हमारी मुसीबतें शुरु हो जाती थीं। गर्मियों के
बाद चार महीने की बरसात आती थी, इस तरह हमारी
मुसीबतें पूरे आठ महीने की होती थीं। गर्मियों की रातें मच्छरों के प्रकोप से दहशत
भरी होती थीं। मच्छर भी छोटे-मोटे नहीं, बड़े-बड़े, दस-बीस की संख्या
में नहीं, करोड़ों की संख्या में।
शाम होते ही झुण्ड के झुण्ड मच्छर सिर के ऊपर भिन-भिन करते मंडराया करते थे। आज
जालीदार दरवाजे हैं, खिड़कियों में भी
जालियाॅं लगी हैं, हर कमरे में
बिजली के पंखें चलते हैं, इसके सिवा भी
मच्छरों से बचाव के लिए आलआउट जलता है। लेकिन तब इनमें से कुछ भी नहीं था। रात को
नीम की सूखी पत्तियाॅं जलाकर मच्छरों से बचाव करते थे, पर यह बचाव तभी तक था, जब तक पत्तियाॅं जलती थीं, उसके बाद मच्छरों का भनभनाना फिर शुरु हो जाता था। बखरी में
सभी घरों के आगे आॅंगन थे। हमारी रौ में इन आॅंगनों की एक लम्बी पट्टी बनती थी,
जिसमें शाम से ही खटियाॅं बिछ जाती थीं। आॅंगन
में थोड़ी राहत गर्मी से जरूर मिलती थी, पर मच्छरों से कोई राहत नहीं मिलती थी। मच्छरों से बचने के लिए मैं सिर से पैर
तक चादर ओढ़कर सोता था, पर यह चादर तभी
तक थी, जब तक नींद नहीं आती थी।
जब नींद आ जाती, तो कहाॅं-कहाॅं
से बदन उघड़ा, इसका पता सुबह ही
चलता था, जब हाथ-पैर और मुॅंह पर
मच्छरों के काटे के बड़े-बड़े ददोरे पड़े होते थे। खुजाने से ये ददोरे, जो नींद में भी खुजाए गए होते थे, पक जाते थे और मेरे हाथ-पैरों में फुडि़याॅं (फुंसियाॅं)
निकलनी शुरु हो जाती थीं, जिनमें पीली पीप
भरी होती थी और बहुत तर्राती थीं। फुडि़यों को नोचकर पीप निकालने से कुछ देर को
चैन मिलता था। बाद में वो फिर फूल जाती थीं। इलाज के नाम पर सिवाजोल की गोली खाता
था और फुडि़यों पर मल्लम लगाता था। कुछ फुडि़याॅं ठीक होतीं, तो नई निकल आती थीं। ये फुडि़याॅं चेहरे को
छोड़कर हाथों की उंगलियों में, हथेलियों में,
बाहों में, घुटनों में, एडि़यों म,ें यहाॅं तक कि पैरों की उंगलियों तक में
निकलती थीं। मेरे जिस्म के ये सारे हिस्से मल्लम से लिथड़े रहते थे। फुडि़यों की
इस भयानक पीड़ा में मैं किस तरह चलता-फिरता था, किस तरह खाता-पीता था और किस तरह रात को सोता था, यह मेरे सिवा कौन जान सकता है। उस हालत में जो
भी मुझे देखता, पता नहीं मेरी
माॅं से क्या-क्या कहता और मुॅंह बिचका लेता था। एक बार मैंने सुना, कोई कह रहा था- ‘कमल की माॅं, तुम्हारे लौण्डे को कोढ़ हो गया लगता है।’ माॅं घबरा गई। उसका सबसे बड़ा बेटा, और उसे भी कोढ़! गरीबी और अज्ञानता की वजह से हमारी बस्ती
में मुल्ला-भगतों ने डेरा जमा रखा था। ज्यादातर हारी-बीमारी में उन्हीं को पूछा
जाता था। मेरा इलाज भी उन्हीं से चला, जिसने कभी फायदा नहीं किया। खैर, यह विषय किसी अगले अध्याय में आयेगा।
एक तरफ घर में घोर गरीबी थी और दूसरी तरफ बाप
परिवार बढ़ाए जा रहे थे। गरीबी और बढ़ते परिवार ने घर को साक्षात नरक में बदल दिया
था। भुखमरी से खून की कमी होने लगी थी, जिससे माॅं अक्सर बीमार रहने लगी थी। दूध और पौष्टिक आहार न मिलने से परिवार
के दो सदस्य कुपोषण से ग्रस्त होकर तीन साल की उम्र में ही मौत के मुॅंह में चले
गए थे। उनकी दशा देखी नहीं जाती थी- बड़ा सा सिर, अन्दर को धॅंसी हुई आॅंखें, ढोल की तरह फूला हुआ पेट, हड्डियों से चिपकी हुई खाल, सीने और कमर की एक-एक हड्डी, अकाल-ग्रस्त अफ्रीका के कंकाल बन चुके बच्चों की तरह दिखाई
देती थी। अभी कुछ दिन पहले किसी ने फेसबुक पर अफ्रीका के ऐसे ही एक बच्चे की
तस्वीर लगाई थी, जिसके पास ही
उसके शिकार के लिए एक गिद्ध बैठा था। उस तस्वीर को देखकर मेरी स्मृति में अपने
दोनों भाई- राजू और रूप- घूम गए थे।
अशिक्षा और गरीबी
आदमी को भाग्यवादी बना देती है। लेकिन गरीबों का भाग्यवाद भी स्थिर नहीं होता है।
वे भाग्य बदलने की आस के साथ जीते हैं। अगर उनमें यह आस न रहे, तो जीवन का संघर्ष ही खत्म हो जाएगा। पर,
इसी का फायदा उठाकर कुछ ठेकेदार ज्योतिषी,
साधु-सन्त और मुल्ला गरीबों के भाग्य को बदलने
का पेशा अख्तियार कर लेते हैं। ऐसे ही कुछ पेशेवर ज्योतिषी, साधु-सन्त और मुल्ला हमारी बस्ती में भी आकर भाग्य बदलने के
नाम पर कुछ लोगों को बरबाद कर जाते थे। ऐसी दो घटनाएॅं मुझे याद आती हैं। हमारी
बाखर के पीछे वाली बाखर में पूरनलाल रहते थे, जिसकी ऋषिकेश से नई-नई शादी हुई थी। पत्नी की खूबसूरती
बेमिसाल थी। एक दिन एक साधु बस्ती में आया और उसने पूरन पर न जाने क्या ‘मनतर’ पढ़ा, कौन सा ब्रह्मजाल फेंका
और कौन सा अलख जगाया कि वह मूरखचन्द पूरन उससे ‘एकान्त पूजा’ कराने को तैयार हो गया। यह कोई विशेष पूजा थी, जो साधु को पूरन लाल और उसकी पत्नी के साथ एक दिन और पूरी
एक रात बन्द कमरे में बैठकर करनी थी। साधु ने किसी अनिष्ट का भय दिखाकर आस-पड़ोस
के लोगों को दूर रहने के लिए बाध्य कर दिया था। जब पूजा समाप्त हुई, तो पूरन लाल और उसकी पत्नी दोनों की हालत ठीक
नहीं थी और साधु घर का माल-पत्ता समेटकर रफू चक्कर हो चुका था। इस घटना के कुछ
दिनों बाद पूरन लाल की पत्नी अपने मायके ऋषिकेश चली गई थी और फिर कभी वापिस नहीं
आई थी। मजबूरन कुछ साल के बाद पूरन ने भी दूसरी शादी कर ली थी।
अंधविश्वास की
दूसरी घटना मेरे घर की है। मेरे तीसरे छोटे भाई हरीश को टीबी हो गई थी। यह तब की
बात है, जब घर बहुत ज्यादा गरीबी
से गुजर रहा था। माॅं और बाप दोनों ने सरकारी अस्पताल में इलाज कराने के बजाए
सरायगेट के एक मुल्ला से, जो हमारी बस्ती
में आता रहता था, भाई की कलाई पर
गंडा बॅंधवा दिया और उससेे प्लेटें लिखवा कर, जो वह पीले रंग से उर्दू में लिखता था, घोलकर भाई को पिलाना शुरु कर दीं। कोई दस दिन
के बाद भाई की हालत बिगड़ गई। मैंने अम्मा को खूब सुनाईं और मुल्ला की प्लेट
तोड़कर फेंक दी। किसी तरह बन्दोबस्त करके मैं भाई को डा. पृथ्वीराज गुप्ता की
क्लीनिक (जो तब बैजनाथ हलवाई के सामन थीे) पर ले गया। डाक्टर ने भाई को चेक करके
कहा कि इसमें अब कुछ नहीं बचा है। घर ले जाओ। घर पर दो-चार दिन जीवित रहने के बाद
ही उसकी मृत्यु हो गई थी।
हमारी बस्ती में
एक तोतला पंडित आता था, जो लोगों का हाथ
देखकर भविष्य बताता था और पत्रा देखकर शुभ
मुहूर्त निकालता था। उसका नाम पंडित रामप्रसाद था, और पुराना गंज का रहने वाला था। चूॅंकि वह तुतलाकर बोलता था,
इसलिए सब उसे तोतला पंडित ही कहते थे। मेरी
माॅं उससे अक्सर हाथ दिखवाती थी, सिर्फ अपना ही
नहीं, मेरा भी। मेरा हाथ देखकर
वह मेरी माॅं को कहता था कि इसके हाथ में तो राजयोग है। उस वक्त न माॅं राजयोग का
अर्थ जानती थी और न मैं जानता था। आज वह पंडित इस दुनिया में नहीं है, वरना मैं उसे बताता कि उसकी बात कितनी गलत
निकली। लेकिन हमारी बस्ती के लिए वह बहुत काम का पंडित था। वह दस पैसे से लेकर सवा
रुपए तक में और मुट्ठी भर आटे में ही हाथ देख लेता था। बस्ती में शादी-ब्याह से
लेकर जितने भी मंगल कार्य होते थे, उन सबका मुहूर्त
रामप्रसाद पंडित ही निकालता था। उसी को नवजात बच्चे के नामकरण के लिए बुलाया जाता
था। बाप बताते थे कि मेरे नामकरण में उसने मेरे दो नाम सुझाए थे-छत्रपाल सिंह और
कमल किशोर। ‘कमल’ चूॅंकि आसान था, इसलिए घर में कमल किशोर नाम ही चल पड़ा। ‘कमल’ से ‘कॅंवल’ कैसे हुआ, इसकी कहानी यह है कि जब स्कूल में मेरा नाम लिखवाया गया,
तो कक्षा में एक कमल किशोर पहले से ही था,
तब अध्यापक ने मुझे ‘कॅंवल’ बनाकर समानता
खत्म कर दी थी।
धार्मिक रूप से हमारा घर परम आस्तिक तो था ही,
वह अनेक पंथों, देवताओं और सन्तों का अजायबघर भी था। पिता मस्जिद में अजान
की आवाज सुनकर दोनों हाथ माथे से लगाकर परमात्मा को याद कर लेते थे और जुम्मेरात
के दिन मजार पर किसी से फातिया पढ़वाकर इलायची दाने भी बॅंटवा देते थे। वे गुरु
नानक को भी पूजते थे और गुरु गोरखनाथ को भी। इनके अलावा ‘बूढ़े बाबा’ भी पूजे जाते थे,
जिसे पूजने के लिए किसी कुम्हार को बुलाया जाता
था। गुरु गोरखनाथ की ‘मानता’ हमारी पूरी बस्ती में थी। दीवाली की रात घरों
को मिट्टी के दियों से जगमग किया जाता था और गुरु गोरखनाथ का टिक्का पड़ता था।
टिक्के का मतलब एक मोटी रोटी होती थी, जिसे अंगारों पर सेका जाता था। दूसरे दिन तड़के ही घर का कोई एक सदस्य छाज बजा
कर यह कहता हुआ घूरे तक जाता है कि ‘निकर दरिद्दर गोरख आया।’ उस वक्त यह उक्ति
मेरी समझ से परे थी। लेकिन, इसका अर्थ दशकों
बाद जाकर खुला, जब लेखक बनने के
बाद मैंने गोरखनाथ के बारे में पढ़ा कि उनके गुरु सिंहलद्वीप की रानी पर आसक्त
होकर उनके महल में जाकर रहने लगे थे और वे अपने गुरु मच्छेन्द्रनाथ को सिंहलद्वीप
से वापिस लाने के लिए सिंहलद्वीप गए थे, जहाॅं उन्होंने रानी के महल के सामने आवाज लगाई थी- ‘निकल मच्छन्दर, गोरख आया।’ हमारी बाखर में
मोहनिया नाम की एक स्त्री भी गोरखनाथ और मच्छेन्दर नाथ की यही कहानी सुनाया करती
थी, पर भिन्न अन्दाज में। उस
वक्त उसकी कहानियाॅं मुझे बकवास लगती थीं, पर मेरे अध्ययन ने उसे सही साबित किया। अन्तर यह था कि मोहनिया की कहानी में
गोरखनाथ के गुरु को सिंहलद्वीप की रानी ने जादू से मेढ़ा बनाकर अपने महल में कैद
कर लिया था। मोहनिया बस्ती के रिश्ते में मेरी माॅं की बहिन लगती थी और मैं उसे
मौसी कहता था। वह नितान्त अशिक्षित थी, जैसी कि बस्ती की सारी स्त्रियाॅं थीं, पर वह गुरु गोरखनाथ और मच्छेन्दर नाथ, और जाहर वीर के अलावा बहुत से अन्य देवताओं की
भी कहानियाॅं सुनाती रहती थी, जिसकी वजह से उसे
भक्तिन का खिताब मिला हुआ था। सुनते हैं, उसके मायके में कोई ज्ञानी पुरुष था, शायद उसका दादा, जिससे वह ज्ञान
उसे मिला था।
मेरे पिता सारे
हिन्दू भगवानों को प्रसन्न करने के लिए साल में एक बार होली वाली रात में कीर्तन
करवाते थे और उसी रात में गुरु नानक के नाम का कड़ा प्रसाद भी बनवाकर बॅंटवाते थे।
कीर्तन के लिए आॅंगन में दरी बिछाई जाती, दीवाल पर सारे हिन्दू देवताओं की तस्वीरें लगाई जातीं, लकड़ी की चैकी पर दिया बाती की जाती और भजन गाने-बजाने के
लिए बृजरतन की पूरी टीम आती, दूसरी ओर एक
भट्टी पर रवा (सूजी) भूनकर कड़ा प्रसाद के लिए हलुवा बनाने की तैयारी चल रही होती।
रात दस बजे आरती होती और उसके बाद न्यौते गए बिरादरी के लोगों को पत्ते के दोने
में रखकर कड़ा प्रसाद दिया जाता था। घर में एक कोने में मिट्टी की चैंतरी (चबूतरी)
बनी हुई थी, जिस पर गुरु नानक
का चित्र रखा रहता था और उसके बगल में कपड़े में लिपटी ‘जपुजी’ किताब रखी रहती
थी। बाप रोज नियम से नहाकर चैंतरी पर बैठकर दिया जलाते, जो देशी घी से जलता था, फिर जपुजी से पाठ पढ़ते थे। उसे वे अरदास करना कहते थे। जब
बाप कई महीनों के लिए पंजाब चले गए थे, तो पोथी घर पर ही रह गई थी। तब अरदास की रस्म रोज सुबह मुझे निभानी पड़ती थी।
उसी ‘जपुजी’ पोथी में कहीं मैंने ये पंक्तियाॅं पढ़ी थीं- ‘मन मन्दर तन भेस कलन्दर, घट ही तीरथ नावा, एक सबद मेरे प्राण बसत है, बाहुड जनम न
पावा।’ आगे चलकर तीर्थ और
पुनर्जन्म का यही खण्डन मैंने कबीर साहेब के पदों में भी देखा।
इसके अलावा,
घर में जाहर वीर या पीर की भी पूजा होती थी,
जिसके दो विशेषज्ञ भगत चपटा गाॅंव से आते थे।
जाहर पीर का ‘स्थान’ राजस्थान के ‘बागड़’ में बताया जाता
है। कबीर साहेब ने शायद इसी बागड़ के बारे में कहा है, ‘बागड़ देस लूअन का घर है’। वहाॅं हर साल किसी खास महीने में मेला लगता है, जिसमें दूर-दूर से लोग ‘जात’ देने के लिए आते
हैं। यह ‘जात’ देना क्या होता है, यह मैं आज तक नहीं समझ पाया। जाहर के अलावा किसी बूजपुर
वाली देवी की जात भी लगती थी। मेरी माॅं बताती थी कि मेरे बालों का मुण्डन बूजपुर
में ही हुआ था। इस देवी का मन्दिर मुरादाबाद के बूजपुर गाॅंव में है। इन दोनों में
समानता यह थी कि दोनों पशुबलि से प्रसन्न होते थे- जाहर पीर के नाम पर बकरे की और
बूजपुर वाली के नाम पर बकरे के बच्चे की बलि चढ़ाई जाती थी। चपटा से आने वाले जाहर
पीर के वे दोनों भगत शराब पीकर ढफली बजाकर गा-गाकर जाहर की गाथा सुनाते थे। इस अवसर
पर अक्सर कोई स्त्री खेलना शुरु कर देती थी, जिसके बारे में कहा जाता था कि उस पर जाहर पीर आ गए हैं।
जैसे ही वह स्त्री खेलना शुरु करती, कुछ औरतें उसके आगे हाथ जोड़कर बैठ जाती थीं और अपने घर की दुख-तकलीफों और घर
में कोई अगर बीमार होता, तो उसके बारे में
दरयाफ्त करने लगती थीं। खेलने वाली औरत, जो उन सब औरतों से जहनी तौर पर वाकिफ रहती थी, मरदानी आवाज में ऊलजलूल कुछ भी बोलती, जैसे तेरे आदमी ने चैराहे पर थूक दिया था,
इसलिए तेरा बालक बीमार है, आदि-आदि, तो वे बेवकूफ औरतें उसे सच मान लेती थीं और इस प्रकार उन
दोनों भगतों के लिए कुछ ‘खास पूजा’
का इंतजाम हो जाता था। यह खास पूजा ‘कन्दूरी’ कहलाती थी, जिसमें जाहर वीर
या पीर के नाम पर बकरे की बलि दी जाती थी और पूरी बिरादरी को दावत दी जाती थी।
पूजा वाले दिन बकरे को नहला-धुलाकर उसका कान पूज कर उसे कसाई के हवाले कर दिया
जाता था। ऐसी ही एक पूजा में मैंने परात में रखी बोटियों को फड़कते हुए देखकर मेरा
दिल उचट गया था। मेरे पिता से ज्यादा मेरी माॅं जाहर पर श्रद्धा रखती थी। घर पर वह
उन दोनों भगतों को बुलाकर पूजा करा चुकी थी। लेकिन मेरे घर में बकरे की बलि वाली
पूजा कभी नहीं हुई। पता नहीं इसका कारण घर की आर्थिक स्थिति थी या बलि में उनका
अविश्वास? होश संभालने के बाद जब तक
मैं घर में रहा, मैंने बकरे की
बलि वाली पूजा क्या, जाहर की सादी
पूजा भी कभी नहीं होने दी थी। हालांकि मेरे पिता मेरे तर्कों से कुछ विचलित जरूर
होते थे, पर माॅं की तरह असर उन पर
भी कोई नहीं पड़ता था।
शायद 1958 की बात है, मैं पाॅंच साल का रहा होऊॅंगा। मेरे सिर पर दो चुटियाॅं थीं,
जिसकी वजह से बस्ती के मेरे हमउम्र दोस्त मुझे
दो चुटियों वाला कहकर चिढ़ाते थे। वो चुटियाॅं नानक जी के नाम पर बोली हुई थीं,
जिन्हें देहरादून में झण्डेजी के दरबार में
अर्पित किया जाना था। चुटियों का नानक जी क्या करते? वह उम्र यह सोचने की नहीं थी। जिस दिन हमें देहरादून जाना
था, उस से पिछली रात को घर
में कीर्तन हुआ था, कड़ा प्रसाद
बनाकर बाॅटा गया था और पूरी बिरादरी को लड्डू-पूड़ी का पक्का खाना दिया गया था।
लड्डू इतने ज्यादा बन गए थे कि बचे हुए लड्डुओं को माॅं ने एक मलसिया में भरकर उसे
अच्छी तरह ढककर चैंतरी के पास रख दिया था, (जिनका सपना मुझे आज भी आता है) पर, देहरादून से लौटकर उसमें एक भी लड्डू नहीं था, पता नहीं कौन खा गया था? माॅं का शक चन्द्रपाल पर था, क्योंकि पड़ोस में उसी का घर था और माॅं ने उसी के बाप को
घर की देखभाल करने के लिए कहा था। खैर, जिस दिन हमें देहरादून जाना था, उस दिन मुझे सफेद कुरता-पायजामा पहिनाया गया था, कंधे पर दोनों तरफ लटकने वाला एक झोला (थैला) सिलवाकर मेरे
कंधे पर डाला गया था, जिसमें क्या-क्या
रखा गया था, उसकी कोई याद
मुझे अब नहीं है। मैं पहली बार रेल में बैठने जा रहा था, इसकी खुशी थी, लेकिन इससे बड़ी खुशी यह थी कि मुझे दो चुटियों से छुटकारा मिलने वाला था। शाम
को पूरी बस्ती ने हमें सड़क तक विदा किया, जहाॅं से हम रिक्शा में बैठकर स्टेशन पहुॅंचे। रात की किसी गाड़ी से हमें
देहरादून जाना था। उस समय रेल में तीसरा दर्जा होता था, जो आज के जनरल डिब्बे की तरह ही खचाखच भरा होता था। उसी में
ठेलठाल कर हम अन्दर घुसे और फर्श पर बैठकर किसी तरह देहरादून तक गए। देहरादून के
स्टेशन की कोई याद उस वक्त की नहीं है और न ही वापसी की कोई स्मृति है। मुझे लगता
है, घटना की प्रक्रिया का
मानस पर ज्यादा प्रभाव पड़ता है, उसके समापन का
नहीं। झण्डे जी की स्मृति में सिर्फ इतना ही याद है कि एक बड़े से हाल में पिता ने
फर्श पर बिस्तर बिछाकर बैठने-सोने का बन्दोबस्त किया था। हाल के बाहर एक बड़ा सा
तवा जल रहा था, जिसके चारों ओर
औरतें बैठी हुईं रोटियाॅं सेक रही थीं। मेरी माॅं ने भी उसी तवे पर जाकर रोटियाॅं
बनाई थी। इतनी सारी रोटियाॅं एक साथ बनाने का तरीका मेरे लिए एक कुतूहल से कम नहीं
था। मैंने झण्डे जी को भी देखा था। वह एक काफी ऊॅंची बल्ली थी, जो रंगीन कपड़ों से मंढ़ी हुई थी। उस दिन
पुराने कपड़े उतार कर झण्डे जी को नए कपड़े पहिनाए जाते हैं।
मैं अपने
लेखक-जीवन में कई बार देहरादून जा चुका हूॅं, पर अपने बचपन में देखे गए झण्डे जी को दुबारा देखने जाना
कभी नहीं हो सका। इच्छा अब भी है कि उस खास अवसर को फिर से जाकर उसी माहौल में
देखा जाए।
(22 मई 2015)