बुधवार, 17 जुलाई 2013

निराला अन्तर्जातीय विवाह और दलित शिक्षा के विरोधी थे
कॅंवल भारती
कहा जा रहा है कि मैंने ‘निराला का वर्णाश्रम प्रेम’ में निराला को आधा उद्धरित किया है, आधा छोड़ दिया है, जिसमें निराला ने शूद्र शक्ति के उत्थान और जागरण में देश के पुनरुद्धार की बात कही है। मैंने जो छोड़ा है, उसे मैं यहाॅं प्रस्तुत कर रहा हूॅं। असल में सवाल छोड़ने का नही है, वरन् विश्लेषण का है। निराला के कथन में व्यंग्य है, जिसे वे लोग नहीं देख पा रहे हैं। अव्वल तो निराला द्विजों को शूद्रों के पतन का जिम्मेदार नहीं मानते। उसी लेख में वे आगे(मतलब शूद्र इसी के अधिकारी थे)  लिखते हैं-‘शंकर (आचार्य) ने जो अनुशासन (प्रतिबन्ध) दिये हैं, वे अधिकारियों के विचार से ही दिये गये हैं। न शूद्रों ने अपने इतर कर्मों को छोड़ा, न वे उठ सके। इनके गिरने में हिन्दू समाज के द्विजत्व का क्या कसूर?’ (चाबुक, पृष्ठ 54)
यानी, निराला के अनुसार शूद्र इसी के अधिकारी थे। पर, ये इतर कर्म कौन से थे, जिनके छोड़ने से शूद्रों का पतन हुआ? इसका खुलासा निराला ने क्यों नहीं किया है?
ब्रिटिश सरकार ने चाहे कुछ और किया हो या न किया हो, पर सबसे बड़ा उसने काम यह किया था कि कानून के सामने सबको बराबर कर दिया था। समानता की इस क्रान्ति से निराला बहुत दुखी थे। अपने इस दुख को उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त किया था-‘हिन्दुस्तान पर अॅंगे्रजों का शासन सुदृढ़ हो गया, उस समय ब्राह्मण शक्ति तो पराभूत हो चुकी थी, क्षत्रिय और वैश्य शक्ति भी पूर्णतः विजित हो गयी। शिक्षा जो थी अॅंगे्रजों के हाथ में गयी, अस्त्र विद्या अॅंगे्रजों के अधिकार में रही, व्यवसाय, कौशल भी अॅंगे्रजों के हाथ में है। भारतवासियों के भाग्य में पड़ा शूद्रत्व। अदालत में ब्राह्मण और चाण्डाल की एक ही हैसियत, एक ही स्थान, एक ही निर्णय। बाहरी प्रतिघातों ने भारतवर्ष के उस समाज-शरीर को, उसके उस व्यक्तित्व को समूल नष्ट कर दिया। ब्रह्म-दृष्टि से उसका अस्तित्व ही न रह गया।’ (वही, पृष्ठ 55)
निराला यह मानने के लिये विवश थे कि ‘भारतवर्ष का यह युग शूद्र-शक्ति के उत्थान का युग है और देश का पुनरुद्धार उन्हीं के जागरण की प्रतीक्षा कर रहा है।’ (वही, पृष्ठ 56) यह उनका व्यंग्यात्मक कथन है, जिसमें स्वर पुनरुत्थान का ही है, क्योंकि अगले ही क्षण वे उसी लेख में अन्तर्जातीय विवाह और खान-पान का विरोध करते दिखायी देते हैं। उनके ये शब्द देखिए-‘अछूतों के साथ रोटी-बेटी का सम्बन्ध स्थापित कर उन्हें समाज में मिला लिया जाय या इसके न होने के कारण ही एक विशाल संख्या हिन्दू राष्ट्रीयता से अलग है, यह एक कल्पना के सिवा कुछ नहीं। दो मनों की जो साम्य स्थिति विवाह की बुनियाद है और प्रेम का कारण, इस तरह के विवाह में उसका सर्वथा अभाव ही रहेगा और जिस योरप की वैवाहिक प्रथा की अनुकूलता सन्तराम जी (जातपात तोड़क मण्डल के मन्त्री) ने की है, वहाॅं भी यहीं की तरह वैषम्य का साम्राज्य है।’ (वही, पृष्ठ 60)
निराला तुलसी के भक्त हैं और उन्हीं का अनुसरण करते हुए कहते हैं कि दलित कितना ही योग्य हो, वह ब्राह्मण के बराबर नहीं हो सकता, भले ही ब्राह्मण कितना ही दुर्गुणों से भरा हो। ये शब्द देखिए-‘ब्राह्मणों में भी भंगी, चरसी, शराबी और कबाबी हैं। पर, इसीलिये अन्त्यजों (दलितों) से उनकी तुलना नहीं हो सकती। दूसरे, तुलना यह इस तरह की है, जैसे करोड़पति ऐयाश-दिल लड़के से किसी मजदूर के ऐयाश-दिल लड़के की।’ (वही, पृष्ठ 61)
निराला शूद्रों की अॅंगे्रजी शिक्षा के भी विरोधी थे। उन्होंने सन्तराम जी द्वारा शूद्र-शिक्षा का समर्थन करने के विरुद्ध यह तर्क दिया कि इससे बी. ए. पास शूद्र ब्राह्मणों को शिक्षा देने लग जायेंगे। उनका यह हास्यास्पद कथन इस प्रकार है-‘अॅंगे्रजी स्कूल और कालेजों में जो शिक्षा मिलती है, उससे दैन्य ही बढ़ता है और अपना अस्तित्व भी खो जाता है। बी. ए. पास करके झींगुर लोध अगर ब्राह्मण को शिक्षा देने के लिये अग्रसर होंगे, तो सन्तराम जी ही की तरह उन्हें हास्यास्पद होना पड़ेगा।’ (वही, पृष्ठ 61)
जिस समय निराला ने यह लेख लिखा, पूना-पैक्ट हो चुका था और पूरे देश में दलित-उभार का जबरदस्त राजनीतिक और सामाजिक दबाव बना हुआ था। निराला इस दबाव से कब तक बचे रह सकते थे? अन्ततः, उन्होंने भारी मन से इसे स्वीकार किया और ‘चतुरी चमार’ तथा ‘जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाओ’ जैसी कुछ रचनाएॅं लिखीं, जिनको आधार बनाकर ही उनके ब्राह्मण आलोचक उन्हें प्रगतिशील बनाने पर तुले हुए हैं। किन्तु दलित आलोचना इन रचनाओं को भी दलित-पक्ष की नहीं मानती।
17-7-2013

मंगलवार, 16 जुलाई 2013

निराला का वर्णाश्रम-प्रेम
(कॅंवल भारती)
उन्नीस सौ बीस के दशक में पंजाब के आर्य समाजी नेताओं ने ‘जातपात तोड़क मण्डल’ बनाया था। यह वही ‘जातपात तोड़क मण्डल’ था, जिसने 1935 में डा. आंबेडकर को लाहौर में व्याख्यान देने के लिये आमन्त्रित किया था। इस मण्डल के सचिव सन्तराम बी.ए. थे, जिनकी सक्रियता से ‘जातपात तोड़क मण्डल’ पूरे देश में चर्चित हो गया था। डा. आंबेडकर के प्रसिद्ध व्याख्यान ‘जाति का उन्मूलन’ का श्रेय भी इसी मण्डल को जाता है, जिसे मधु लिमये ने दलित आन्दोलन का पहला घोषणा-पत्र कहा है। ‘जातपात तोड़क मण्डल’ अपने समय में जाति के खिलाफ एक व्यापक आन्दोलन था, जिसने  सामाजिक परिवर्तन में एक बड़ी भूमिका निभायी थी। ब्राह्मण वर्ग में उसके विरोधी भी कम न थे। इन्हीं में सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ भी थे, जो मण्डल के घोर  विरोधी थे। उन्होंने न केवल जाति तोड़ने के अभियान का विरोध किया, बल्कि शूद्रों के प्रति शास्त्रों के कठोर प्रतिबन्धों और वर्णव्यवस्था का समर्थन भी किया। उनके ये वर्णवादी विचार उनके लेख ‘वर्णाश्रम धर्म की वर्तमान स्थिति’ में देखे जा सकते हैं, जो उनके निबन्ध संग्रह ‘चाबुक’ में संकलित है।  वे इस लेख में द्विजों को परम पावन जाति मानते हुए लिखते हैं-‘जातपात तोड़क मण्डल के मन्त्री सन्तराम जी के करार देने से संसार का सर्वश्रेष्ठ विद्वान महामेधावी त्यागीश्वर शंकर शूद्रों के शत्रु नहीं हो जाते हैं। शूद्रों के प्रति उनके अनुशासन कठोर से कठोर होने पर भी उनका अपने समय की मर्यादा से दृढ़ सम्बन्ध है।’ इसी क्रम में निराला आगे लिखते हैं-‘एक बालक को राह पर लाने के लिये कभी तिरस्कार की भी जरूरत होती है, पर समझदार के लिये इशारा काफी कहा गया है। तत्कालीन एक ब्राह्मण का उत्कर्ष और एक शूद्र का, बराबर नहीं हो सकता। अतः दोनों के दण्ड भी बराबर नहीं हो सकते। लघु दण्ड से शूद्रों की बुद्धि भी ठिकाने न आती।’ निराला आगे लिखते हैं कि शूद्रों के लिये कठोर दण्ड की व्यवस्था इसलिये थी, क्योंकि वे अपने दूषित बीजाणु से ब्राह्मणों को नुकसान पहुॅंचाते थे। देखिए उनके ये शब्द- ‘शूद्रों के जरा से उपकार पर सहस्र-सहस्र उपकार होते थे। उनके दूषित बीजाणु तत्कालीन समाज के मंगलमय शरीर को अस्वस्थ करते थे, उनकी इतर वृत्तियों का प्रतिघात प्रतिदिन और प्रतिमुहूर्त समाज को सहना पड़ता था। निष्कलुष होकर मुक्ति-पथ की ओर अग्रसर होने वाले परमाणुकाय (ब्राह्मण) समाज को शूद्रों से कितना बड़ा नुकसान पहुॅंचता था, यह ‘मण्डल’ के सदस्य समझते, यदि वे भागवादी, अधिकारवादी, मानवादी-इस तरह जड़वादी न होकर, त्यागवादी या अध्यात्मवादी होते। इतने पीड़नों को सहते हुए अपने जरा से बचाव के लिये- आदर्श की रक्षा के लिये- समाज को पतन से बचाने के लिये अगर द्विज समाज ने शूद्रों के प्रति कुछ कठोर अनुशासन कर भी दिये, तो हिसाब में शूद्रों द्वारा किये गये अत्याचार द्विज समाज को अधिक सहने पड़े थे, या द्विज समाज द्वारा किये गये शूद्रों को?’
इतने अवैज्ञानिक और संकीर्ण विचारों वाले निराला, जो शूद्रों को द्विजों के मंगलमय शरीरों को अस्वस्थ करने वाले दूषित बीजाणु मानते थे, क्या प्रगतिशील कहे जा सकते हैं? इस भाषा को देख कर लगता है कि निराला से तो अच्छी हिन्दी भी लिखनी नहीं आती थी।
16-7-2013


                   हिन्दी दलित साहित्य 
                            कॅंवल भारती

मोहनदास नैमिशराय की ‘हिन्दी दलित साहित्य’ पुस्तक को पढ़ते हूए यह साफ दिखाई देता है कि लेखक ने इसमें  मेहनत बहुत की है, लोगों के बीच जा कर बहुत सारे ब्यौरे इकट्ठे किये हैं और उन्हें एक तरतीब दी है। यह अपने आप में एक बड़ा काम है। लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि इस पुस्तक का लेखन इतिहास की शक्ल में होना चाहिए था, क्योंकि यह इतिहास का विषय है और ‘मेरी अपनी बात’ में लेखक कहता भी है कि उनका ‘लम्बे समय से हिन्दी दलित साहित्य के इतिहास पर लिखने का मन था।’ इसका कारण भी उन्होंने बताया है कि मेरठ उनकी जन्मभूमि रही है, जिसका ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्व है। मेरठ दलित आन्दोलन का भी गढ़ रहा है, डा0 आंबेडकर से लेकर बडे़-बड़े दलित नेताओं तक ने वहाॅं दलितों के बीच जाकर जनजागरण किया है पर उनके अनुसार कोई लिखित इतिहास नहीं मिलता। इसलिये यदि उन्होंने मेरठ को भी दलित साहित्य की दृष्टि से ऐतिहासिक बनाने की सोची, तो उनकी सोच बिल्कुल दुरस्त थी। पर उन्होंने इस किताब को इतिहास की तरह नहीं लिखा, यह सवाल मेरे जैसे बहुत से पाठकों का उनसे बना रहेगा। इस किताब का पहला अध्याय, जो पृष्ठभूमि या इन्ट्रोडक्शन की तरह है, ‘आजादी से पूर्व का दलित साहित्य’ है। यह एक अच्छा और महत्वपूर्ण विषय हैं। इसमें लेखक को इतिहास लिखने की पूरी गुंजाइश थी, पर यह अध्याय कुछ लेखकों और नेताओं के विचारों का संग्रह बनकर रह गया है। इससे आजादी से पूर्व के दलित साहित्य को समझने में शोध छात्रों को कुछ भी मदद नहीं मिलेगी। मसलन, आजादी से पहले ‘दलित साहित्य’ का टर्म ही नहीं था। पहले ‘अछूत’ शब्द था। हीरा डोम की जो कविता ‘सरस्वती’ में मिलती है, उसका शीर्षक ‘एक अछूत की शिकायत’ है, एक दलित की नहीं। दलित शब्द तब प्रचलन में ही नहीं था। ‘अछूत’ के बाद ‘हरिजन’ शब्द आया। उसका विरोध हुआ, अछूतानन्द जी ने इसके विरोध में एक बहुत ही विचारोत्तेजक कविता लिखी थी। जब आदि हिन्दू आन्दोलन चला तो हमारा साहित्य भी आदि हिन्दू साहित्य हो गया। यह भी एक टर्म था। ‘दलित’ शब्द सत्तर के दशक में आया, जो आज भी चल रहा है। आजादी से पूर्व के दलित साहित्य का यह इतिहास इस अध्याय में नहीं है। इस अध्याय में जो अनेक लेखकों के विचार दिये गये हैं, उन्हें सभी जानते हैं, पर इतिहास कहाॅं है? 
जब हम आजादी से पूर्व की बात करते हैं तो उसका एक काल खण्ड निश्चित करना होगा। हम अधिक-अधिक सौ साल का समय चुन सकते हैं। लेकिन हम उसे कबीर और रैदास तक खींच कर नहीं ले जा सकते। कबीर-रैदास दिखाई देते हैं, इसलिए वहाॅं आसानी से पहुॅंच जाते हैं। यह बहुत आसान टारगेट है।, इतिहास-लेखन का टारगेट वे लोग होने चाहिए, जो दिखाई नहीं देते। इस अध्याय में प्रेमचन्द और निराला पर भी बात की गयी है, जबकि इसकी जरूरत ही नहीं थी, क्योंकि यह तुलनात्मक साहित्य की किताब नहीं है, दलित साहित्य के इतिहास की किताब है। आजादी से पूर्व के दलित साहित्य के बाद आजादी के बाद के दलित साहित्य पर चर्चा होनी चाहिए थी।  पर, किताब का दूसरा अध्याय लोक साहित्य पर है। अध्याय का नाम है-‘लोकगीत और दलित अस्मिता’। यह दस पृष्ठों का सबसे छोटा अध्याय है और इसमें भी विभिन्न लेखकों और चिन्तकों के मतों का संग्रह मात्र है। यदि इसमें आजादी के बाद के उन दलित लोक कवियों को शामिल कर लिया जाता, जिन्होंने अपनी रागनियों, भजनों और गानों से दलितों में आंबेडकर आन्दोलन खड़ा किया था, तो यह बहुत महत्वपूर्ण अध्याय बन जाता। इनमें रूपचन्द महाशय, अनेगसिंह ‘दास’, प्रकाश लखनवी, लालचन्द्र ‘राही’, बुद्ध संघ प्रेमी, मौजी लाल मौर्य और अमर सिंह तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही मशहूर लोक कवि हुए हैं, पूर्वी उत्तर प्रदेश से तो यह संख्या और भी ज्यादा हो सकती है। दलितों में दलित-चेतना इन्हीं लोगों ने पैदा की थी, ओमप्रकाश वाल्मीकि, नैमिशराय या मेरे जैसे लोगों ने नहीं। तीसरे अध्याय को लेते हैं, जिसका नाम ‘आजादी के बाद का दलित साहित्य’ है। नैमिशराय जी ने बिल्कुल सही लिखा है कि ‘देश को जब आजादी मिली तो दलितों के लिए वैसी स्वतन्त्रता न थी जैसी दलित-मुक्ति के बारे में आंबेडकर ने कल्पना की थी।’ इस दर्द को उस समय के कई दलित कवियों ने रेखांकित भी किया है। पंजाबी के दलित कवि गुरदास आलम ने इस आजादी को ‘जनता के पिछाड़ी’ और ‘बिरला के अगाड़ी’ मुॅंह करके खड़ी कहा था, तो  हिन्दी के प्रकाश लखनवी ने भी अपनी कविता में पन्द्रह अगस्त को पूॅंजीपतियों की आजादी का दिन कहा था। इस अध्याय में इसका जिक्र तक नहीं है। आजादी की अभिव्यक्ति दलित कविता में किस रूप में हुई कम-से-कम यह तो आना चाहिए था। इस अध्याय में भी जैनेन्द्र, अज्ञेय, यशपाल राहुल साॅंकृत्यायन और प्रेमचन्द पर चर्चा बेमतलब की है। पृष्ठ 81 पर लिखा है कि ‘आदि वंश की कथा’ पुस्तक के लेखक चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु थे। यह भ्रामक सूचना है। शोध छात्र इसी का अनुसरण करेंगे। तब गलत सूचना पर आधारित शोध दलित साहित्य को कहाॅं ले जायेगा? अगर लेखक ने थोड़ी जाॅंच-पड़ताल कर ली होती, तो वह अपनी गलती सुधार सकते थे। ‘आदि वंश की कथा’ शीर्षक से दो पुस्तकें लिखी गयीं थीं, जिनमें एक के लेखक डा0 अॅंगने लाल और दूसरी के डा0 गयाप्रसाद प्रशान्त हैं। चद्रिकाप्रसाद जिज्ञासु के हवाले से जिस ‘आदि वंश कथा’ का जिक्र नैमिशराय जी ने किया है, वह डा0 अॅंगने लाल ने लिखी थी। चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने उसे अपने ‘बहुजन कल्याण प्रकाशन’ से प्रकाशित किया था। दिलचस्प यह है कि इसी पुस्तक के विषय में संदर्भ टिप्पणियों में क्रमाॅंक 19 में नैमिशराय जी  लिखते हैं कि ‘20 दिसम्बर 2004 को डा0 अॅंगने लाल से उनके निचास पर बातचीत के आधार पर।’ जब उनकी डा0 अॅंगने लाल से बात हो गयी थी, तो  उन्होंने ‘आदि वंश की कथा’ का लेखक चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु को क्यों बताया ? इसी तरह पृष्ठ 82 पर लेखक ने बताया है कि ‘लखनऊ में स्थापित प्रबुद्ध अम्बेडकर सांस्कृतिक संस्थान ने ‘लोकायन’ वार्षिक पत्रिका का कई वर्षों तक प्रकाशन किया। ’बात सही है, पर क्या ही अच्छा होता, इस संस्थान के संस्थापक और लोकायन के सम्पादक के रूप में डा0 अॅंगने लाल को भी याद कर लिया जाता। यह जानकारी भी उन्हें उस बातचीत में जरूर मिली होगी। फिर इतिहास के छा़त्र को पूरी जानकारी क्यों नहीं दी गयी ? जब हम इसी अध्याय में दलित कविताओं पर चर्चा देखते हैं, तो एक विद्यार्थी के नाते बहुत निराशा होती है। अधिकाॅंश कवियों के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। भागीरथ मेघवाल, कुसुम मेघवाल, शिवचरन ंिसह गौतम, नाथूराम, हरीश चन्द्र सुदर्शन, नीरा परमार, ठाकुर दास सिख, शरद कोकाश, एन॰आर॰ सागर, महेन्द्र बेनीवाल, हिमांशु राय, मंसाराम विद्रोही आदि बहुत से कवि हैं, जिनका कोई परिचय उनकी कविता के साथ नहीं मिलता है। यह उस किताब की सबसे बड़ी कमजोरी है, जिसे इतिहास बताया जा रहा है। यदि उनके गृह जनपद का नाम भी रहता, तो भी इतिहास की कुछ लाज रह जाती। इस अध्याय में आजादी के बाद की दलित कविता का कोई परिदृश्य उभर कर नहीं आता। 
चैथा अध्याय ‘दलित उत्पीड़न का कविताएॅं’ है, जो एक स्वतन्त्र लेख लगता है। यद्यपि, दलित साहित्य के इतिहास से इसका सम्बन्ध नहीं बनता है, परन्तु जिस तरह इसमें कुछ कुख्यात दलित हत्याकाण्डों पर दलित कविता के विद्रोह को रेखाॅंकित किया गया है, वह पठनीय है। कविता के बाद कहानी, उपन्यास, आत्मकथा और नाटक पर एक-एक अध्याय है। पाॅंचवा अध्याय दलित कहानी पर है और यही सबसे ज्यादा निराश करता है। लेखक का यह कहना कि ‘हिन्दी दलित साहित्य की पहली कहानी कौन सी है, ‐‐‐‐‐‐‐ इस दिशा में शोध की जरूरत है’, (पृ॰134) इतिहास की भाषा नहीं है। इस अध्याय में दलित कहानी का जो इतिहास आना चाहिए था, वह तो सिरे से गायब है, बस कुछ कहानीकारों की कहानियों पर चर्च की गयी है। इसमें भी नैमिशराय जी ने अपनी कहानियों को ज्यादा ही प्राथमिकता दी है। दलित कहानी क्यों अस्तित्व में आयी, उसका विकास कैसे हुआ, दरअसल यही इस अध्याय का केन्द्र बिन्दु होना चाहिए था। इस दृष्टिकोण से पाठक को निराश ही होना पड़ेगा। छठा अध्याय दलित उपन्यास पर है और उसकी भी यही कमजोरी है। यहाॅं भी इतिहास अनुपस्थित है, सिर्फ उपन्यासों की ही चर्चा है। नैमिशराय जी ने यहाॅं भी अपने उपन्यासों की ज्यादा प्रशंसा की है। इसमें वे आत्ममुग्धता के भी शिकार हो गये है। उपन्यास की दृष्टि से हिन्दी का दलित साहित्य वैसे भी सबसे गरीब है। अभी तक उॅंगलियों पर गिनने लायक उपन्यास ही प्रकाश में आये हैं। दलित आन्दोलन के किसी भी मुद्दे पर एक भी उपन्यास दलित लेखक का नहीं है, यहाॅं तक कि डा0 आंबेडकर के जीवन-संघर्ष पर भी कोई उपन्यास दलित साहित्य में नहीं है। यह उन दलित लेखकों के लिये आत्ममंथन का सवाल होना चाहिए, जो अपनी एक-एक आत्मकथा को लेकर अकड़े बैठे हुए हैं। सातवें अध्याय में दलितों की आत्मकथाओं  के संसार पर प्रकाश डाला गया है। किन्तु, इस अध्याय का आरम्भ भी नैमिशराय जी ने अपनी ही आत्मकथा ‘अपने-अपने पिंजरे’ की प्रशंसा से किया हैै और उसका अन्त भी। अपनी किताब में अपनी ही कृतियों की प्रशंसा में पन्ने रॅंगना कोई अच्छा काम नहीं है। आठवाॅं अध्याय ‘हिन्दी दलित नाटक’ है। बस यही एक अध्याय कुल मिला कर ठीक-ठाक है, जिसमें इतिहास के दर्शन होते हैं। नैमिशराय जी के लेखन की यह एक प्रवृति है कि वे उद्धरणों का सहारा बहुत ज्यादा लेते हैं। एक भी अध्याय इसका अपवाद नहीं है। कुछ लोग भले ही इसे उनकी विशेषता कहें, पर मैं इसे उनकी बहुत बड़ी कमजोरी मानता हूॅं। यहाॅं मेरा अपना दृष्टिकोण यह है कि किसी भी विद्वान का उद्धरण उसी समय दिया जाय, जब उसके खण्डन की पूरी वैचारिकी आपके दिमाग में हो, केवल प्रशंसा या समर्थन के लिये उद्धरण देने से लेखक की अपनी मौलिकता खत्म हो जाती है। आगे के अध्यायों में ‘दलित साहित्य में सौन्दर्यशास्त्र’, ‘दलित साहित्य के आलोचकों के कुतर्क’, ‘नई शताब्दी में दलित साहित्य’, ‘दलित साहित्य का दायरा सीमित नहीं है’ और ‘दलित साहित्य का भविष्य’ लेखक के स्वतन्त्र लेख हैं, इस किताब में विषयान्तर लगते हैं। इस किताब को हिन्दी दलित साहित्य का इतिहास कहना गलत होगा, क्योंकि इसमें लेखन की इतिहास-दृष्टि ही नहीं है। ( 4 जुलाई 2012 )

सोमवार, 15 जुलाई 2013

राम की शक्तिपूजा में पूरा सामन्तवाद है
कॅंवल भारती 
बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को हिदायत दी थी कि वे कभी भी उनके वचनों को छांदस (उस समय की सामन्ती भाषा) में न लिखें। निराला ने ‘राम की शक्ति पूजा’ छांदस हिन्दी (सामन्ती भाषा) में क्यों लिखी? उन्होंने नागार्जुन की तरह जनभाषा में कविता की रचना क्यों नहीं की? क्या इससे यह साबित नहीं होता कि निराला के सारे संस्कार सामन्ती थे? भाषा से ही विचार भी निर्मित होते हैं। सामन्ती भाषा के स्तर पर यही अन्तर जयशंकर प्रसाद और प्रेमचन्द में था। दोनों समकालीन थे। पर प्रसाद जहाॅं पुनरुत्थानवादी ही बने रहे, वहाॅं प्रेमचन्द कई शताब्दियों तक प्रगतिशील धारा को ऊर्जा देते रहेंगे।
‘राम की शक्ति पूजा’ में राम कौन हैं? क्या वह साधारण पुरुष हैं? वे सामन्त नहीं हैं, तो कौन हैं? दूसरा सवाल-शक्ति कौन है? किस महाशक्ति की आराधना राम ने की? उत्तर है-दुर्गा की। (देखा राम ने सामने श्री दुर्गा, भास्वर) तीसरा सवाल-किस लिये आराधना की? क्या जनता के कल्याण के लिये? उत्तर है-युद्ध के लिये, रावण को मार कर ब्राह्मणवादी साम्राज्यवाद कायम करने के लिये। क्या यह सामन्तवादी मूल्य नहीं है?
‘पूरा करता हूॅं देकर मात, एक नयन’-निराला के राम दुर्गा को प्रसन्न करने के लिये अपनी एक आॅंख निकाल कर भेंट करने के लिये जैसे ही ब्रह्मशर हाथ में उठाते हैं, दुर्गा उनके हाथ को तत्काल पकड़ लेती है-साधु साधु, साधक वीर, धर्म धन धान्य राम/कह लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम/ दुर्गा ने कहा-‘राम तुम धन्य हो। क्या यह सारी प्रशस्ति एक सामन्त की नहीं है? एक सामन्त की आॅंख लेते हुए भी दुर्गा को डर लगता है। कितने ही लोग भक्ति के अन्धविश्वास में अपनी आॅंख, जीभ और सिर काट कर दुर्गा को चढ़ा देते हैं। दुर्गा उनका हाथ क्यों नहीं पकड़ती? क्या इसलिये कि वे आम जन हैं?
एक सामन्त की प्रशस्ति में जो-जो कहा जा सकता है, वह सब ‘राम की शक्ति पूजा’ में मौजूद है। एक सामन्त की भक्ति को देखकर ‘काॅंपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय।’ यह ब्रह्माण्ड तब क्यों नहीं काॅंपता, जब कोई गरीब भक्त अपना सिर काटकर चढ़ा देता हीै? ‘रघु नायक आगे अवनी पर नवनीत चरण’-इस प्रशस्ति में यदि रघु की जगह ‘शिवा’ कर दें, तो अर्थ होगा-‘भूषण कह रहे हैं कि धरती पर शिवाजी के मक्खन जैसे मुलायम चरण पड़ रहे हैं।’ यह सामन्तवाद का प्रलाप नहीं है, तो क्या है? आम आदमी के चरण कहाॅं होते हैं, पैर होते हैं और वे भी मक्खन जैसे मुलायम कहाॅं होते हैं, जिनकी कोई इस तरह प्रशंसा करे?
‘बैठे रघुकुल मणि श्वेत शिला पर, निर्मल जल, ले आये कर पद क्षालनार्थ पटु हनूमान’/सेवक का यही आदर्श तो सामन्तवाद में सर्वोच्च है। स्वामी शिला पर बैठे हैं और सेवक निर्मल जल लाकर स्वामी के हाथ-पैर न धोये, तो वह सेवक कैसा? सेवक का धर्म तो स्वामी के चरण कमलों में ही है- ‘बैठे मारुति देखते राम चरणाविन्द’ यदि सेवक के मन में यह इच्छा जागे कि वह स्वामी से बेहतर कर सकता है, तो ऐसा करने से पहले उसकी माता को ही यह बता देना चाहिए-‘तुम सेवक हो, छोड़कर धर्म कर रहे कार्य’। सामन्तवादी वर्णव्यवस्था में सेवा-कर्म ही तो् शूद्र का धर्म है।
‘रावण अधर्म रत भी अपना, मैं हुआ अपर, यह रहा शक्ति का खेल समर, शंकर शंकर’! निराला के राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, वे ब्राह्मण, गौ और वर्णव्यवस्था के रक्षक हैं। इसी धर्म की रक्षा के लिये उनका अवतार हुआ हैं इसलिये वे चिन्तित हैं कि अधर्म-रत रावण महाशक्ति का अपना कैसे हो गया? वे पूछते हैं-‘हे शंकर, शक्ति का यह कैसा खेल है?’ धर्म-अधर्म का यह खेल नैतिक मूल्यों या मानव की पक्षधरता का नहीं है। वस्तुतः विप्र-भक्ति, गौ-सेवा और वर्णव्यवस्था की रक्षा का है, जो राम का पक्ष है। रावण इस धर्म का अनुयायी न था। इसलिये निराला की नजर में रावण अधर्म-रत था। यदि वे प्रगतिशील मूल्यों के पक्षधर होते, तो सामन्ती मर्यादाओं के खिलाफ लड़ते, जिन्हें ब्राह्मणों ने अपने ऐशो-आराम के लिये धर्म का रूप दे दिया था और जिसकी रक्षा के लिये राम मर्यादा पुरुषोत्तम बने थे।
असल में ‘राम की शक्ति पूजा’ की सारी व्याख्याएॅं, टीकाएॅं और आलोचनाएॅं ब्राह्मण प्राध्यापकों द्वारा गढ़ी गयी हैं, जिनमें निराला को प्रेमचन्द के समकक्ष क्रान्तिकारी और प्रगतिशील दिखाने का सुनियोजित प्रयास किया गया है। यह रेत की दीवार खड़ी करने की कोशिश है, जो कामयाब हो भी गयी थी; पर दलित-चिन्तन के एक ही प्रहार से ढह गयी। दलित-चिन्तन निराला के ब्राह्मण आलोचकों से पूछता है कि निराला किस दृष्टिकोण से प्रगतिशील और जनवादी थे? न तो भाषा के स्तर पर और न विचारधारा के स्तर पर वे प्रगतिशील नजर आते हैं। वे ब्राह्मणवादी तुलसी के भक्त हैं और ‘रामचरितमानस’ में विज्ञान देखते हैं। वे दुर्गा, काली और वेदान्त पर मुग्ध हैं। ये ब्राह्मण आलोचक सत्य से उसी तरह भयभीत हैं, जिस तरह निराला के राम रावण से भयभीत हैं। निराला का अपना भय भी इन पंक्तियों में दिखायी देता है- ‘स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर-फिर संशय, रह-रह उठता जग जीवन में रावण जय-भय’ /मतलब यह कि राघवेन्द्र (राम), जो स्थिर (अपरिवर्तनीय) धर्म-व्यवस्था चाहते हैं, उन्हें यह संशय हिला रहा है कि कहीं ऐसा न हो जाय कि रावण की जीत जाय और जग-जीवन की स्थिरता भंग हो जाय? निराला भी अपने समय के सामाजिक आन्दोलनों से भयभीत थे। ‘राम की शक्ति पूजा’ में राम का यह द्वन्द्व- ‘कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार-बार, असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार’ दरअसल निराला का ही अन्तद्र्वन्द्व है। वे परिवर्तन की स्वाभाविक गति के सामने असमर्थ थे। वे सामन्ती ढाॅंचे के चरमराने से दुखी थे। इसलिये वे अपनी कविता में असमर्थ राम में महाशक्ति का प्रवेश करा देते हैं और उसके हाथों रावण का बध कराकर ब्राह्मणवादी धर्मव्यवस्था को बचाने की कल्पना करके खुश हो जाते हैं।
15 जुलाई 2013
राम की शक्तिपूजा में पूरा सामन्तवाद है
कॅंवल भारती 
बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को हिदायत दी थी कि वे कभी भी उनके वचनों को छांदस (उस समय की सामन्ती भाषा) में न लिखें। निराला ने ‘राम की शक्ति पूजा’ छांदस हिन्दी (सामन्ती भाषा) में क्यों लिखी? उन्होंने नागार्जुन की तरह जनभाषा में कविता की रचना क्यों नहीं की? क्या इससे यह साबित नहीं होता कि निराला के सारे संस्कार सामन्ती थे? भाषा से ही विचार भी निर्मित होते हैं। सामन्ती भाषा के स्तर पर यही अन्तर जयशंकर प्रसाद और प्रेमचन्द में था। दोनों समकालीन थे। पर प्रसाद जहाॅं पुनरुत्थानवादी ही बने रहे, वहाॅं प्रेमचन्द कई शताब्दियों तक प्रगतिशील धारा को ऊर्जा देते रहेंगे।
‘राम की शक्ति पूजा’ में राम कौन हैं? क्या वह साधारण पुरुष हैं? वे सामन्त नहीं हैं, तो कौन हैं? दूसरा सवाल-शक्ति कौन है? किस महाशक्ति की आराधना राम ने की? उत्तर है-दुर्गा की। (देखा राम ने सामने श्री दुर्गा, भास्वर) तीसरा सवाल-किस लिये आराधना की? क्या जनता के कल्याण के लिये? उत्तर है-युद्ध के लिये, रावण को मार कर ब्राह्मणवादी साम्राज्यवाद कायम करने के लिये। क्या यह सामन्तवादी मूल्य नहीं है?
‘पूरा करता हूॅं देकर मात, एक नयन’-निराला के राम दुर्गा को प्रसन्न करने के लिये अपनी एक आॅंख निकाल कर भेंट करने के लिये जैसे ही ब्रह्मशर हाथ में उठाते हैं, दुर्गा उनके हाथ को तत्काल पकड़ लेती है-साधु साधु, साधक वीर, धर्म धन धान्य राम/कह लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम/ दुर्गा ने कहा-‘राम तुम धन्य हो। क्या यह सारी प्रशस्ति एक सामन्त की नहीं है? एक सामन्त की आॅंख लेते हुए भी दुर्गा को डर लगता है। कितने ही लोग भक्ति के अन्धविश्वास में अपनी आॅंख, जीभ और सिर काट कर दुर्गा को चढ़ा देते हैं। दुर्गा उनका हाथ क्यों नहीं पकड़ती? क्या इसलिये कि वे आम जन हैं?
एक सामन्त की प्रशस्ति में जो-जो कहा जा सकता है, वह सब ‘राम की शक्ति पूजा’ में मौजूद है। एक सामन्त की भक्ति को देखकर ‘काॅंपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय।’ यह ब्रह्माण्ड तब क्यों नहीं काॅंपता, जब कोई गरीब भक्त अपना सिर काटकर चढ़ा देता हीै? ‘रघु नायक आगे अवनी पर नवनीत चरण’-इस प्रशस्ति में यदि रघु की जगह ‘शिवा’ कर दें, तो अर्थ होगा-‘भूषण कह रहे हैं कि धरती पर शिवाजी के मक्खन जैसे मुलायम चरण पड़ रहे हैं।’ यह सामन्तवाद का प्रलाप नहीं है, तो क्या है? आम आदमी के चरण कहाॅं होते हैं, पैर होते हैं और वे भी मक्खन जैसे मुलायम कहाॅं होते हैं, जिनकी कोई इस तरह प्रशंसा करे?
‘बैठे रघुकुल मणि श्वेत शिला पर, निर्मल जल, ले आये कर पद क्षालनार्थ पटु हनूमान’/सेवक का यही आदर्श तो सामन्तवाद में सर्वोच्च है। स्वामी शिला पर बैठे हैं और सेवक निर्मल जल लाकर स्वामी के हाथ-पैर न धोये, तो वह सेवक कैसा? सेवक का धर्म तो स्वामी के चरण कमलों में ही है- ‘बैठे मारुति देखते राम चरणाविन्द’ यदि सेवक के मन में यह इच्छा जागे कि वह स्वामी से बेहतर कर सकता है, तो ऐसा करने से पहले उसकी माता को ही यह बता देना चाहिए-‘तुम सेवक हो, छोड़कर धर्म कर रहे कार्य’। सामन्तवादी वर्णव्यवस्था में सेवा-कर्म ही तो् शूद्र का धर्म है।
‘रावण अधर्म रत भी अपना, मैं हुआ अपर, यह रहा शक्ति का खेल समर, शंकर शंकर’! निराला के राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, वे ब्राह्मण, गौ और वर्णव्यवस्था के रक्षक हैं। इसी धर्म की रक्षा के लिये उनका अवतार हुआ हैं इसलिये वे चिन्तित हैं कि अधर्म-रत रावण महाशक्ति का अपना कैसे हो गया? वे पूछते हैं-‘हे शंकर, शक्ति का यह कैसा खेल है?’ धर्म-अधर्म का यह खेल नैतिक मूल्यों या मानव की पक्षधरता का नहीं है। वस्तुतः विप्र-भक्ति, गौ-सेवा और वर्णव्यवस्था की रक्षा का है, जो राम का पक्ष है। रावण इस धर्म का अनुयायी न था। इसलिये निराला की नजर में रावण अधर्म-रत था। यदि वे प्रगतिशील मूल्यों के पक्षधर होते, तो सामन्ती मर्यादाओं के खिलाफ लड़ते, जिन्हें ब्राह्मणों ने अपने ऐशो-आराम के लिये धर्म का रूप दे दिया था और जिसकी रक्षा के लिये राम मर्यादा पुरुषोत्तम बने थे।
असल में ‘राम की शक्ति पूजा’ की सारी व्याख्याएॅं, टीकाएॅं और आलोचनाएॅं ब्राह्मण प्राध्यापकों द्वारा गढ़ी गयी हैं, जिनमें निराला को प्रेमचन्द के समकक्ष क्रान्तिकारी और प्रगतिशील दिखाने का सुनियोजित प्रयास किया गया है। यह रेत की दीवार खड़ी करने की कोशिश है, जो कामयाब हो भी गयी थी; पर दलित-चिन्तन के एक ही प्रहार से ढह गयी। दलित-चिन्तन निराला के ब्राह्मण आलोचकों से पूछता है कि निराला किस दृष्टिकोण से प्रगतिशील और जनवादी थे? न तो भाषा के स्तर पर और न विचारधारा के स्तर पर वे प्रगतिशील नजर आते हैं। वे ब्राह्मणवादी तुलसी के भक्त हैं और ‘रामचरितमानस’ में विज्ञान देखते हैं। वे दुर्गा, काली और वेदान्त पर मुग्ध हैं। ये ब्राह्मण आलोचक सत्य से उसी तरह भयभीत हैं, जिस तरह निराला के राम रावण से भयभीत हैं। निराला का अपना भय भी इन पंक्तियों में दिखायी देता है- ‘स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर-फिर संशय, रह-रह उठता जग जीवन में रावण जय-भय’ /मतलब यह कि राघवेन्द्र (राम), जो स्थिर (अपरिवर्तनीय) धर्म-व्यवस्था चाहते हैं, उन्हें यह संशय हिला रहा है कि कहीं ऐसा न हो जाय कि रावण की जीत जाय और जग-जीवन की स्थिरता भंग हो जाय? निराला भी अपने समय के सामाजिक आन्दोलनों से भयभीत थे। ‘राम की शक्ति पूजा’ में राम का यह द्वन्द्व- ‘कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार-बार, असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार’ दरअसल निराला का ही अन्तद्र्वन्द्व है। वे परिवर्तन की स्वाभाविक गति के सामने असमर्थ थे। वे सामन्ती ढाॅंचे के चरमराने से दुखी थे। इसलिये वे अपनी कविता में असमर्थ राम में महाशक्ति का प्रवेश करा देते हैं और उसके हाथों रावण का बध कराकर ब्राह्मणवादी धर्मव्यवस्था को बचाने की कल्पना करके खुश हो जाते हैं।
15 जुलाई 2013

बुधवार, 3 जुलाई 2013

संघ परिवार का दलित आन्दोलन

संघ परिवार का दलित आन्दोलन
(कँवल भारती)
पिछले चार साल से संघ परिवार की ओर से हिन्दी में “दलित आन्दोलन पत्रिका” मासिक निकल रही है, जो अपनी भव्यता में किसी भी दलित पत्रिका का मुकाबला नहीं कर सकती. बढ़िया चिकने मैपलीथो कागज पर छपने वाली, बड़े आकार की इस बारह पृष्ठीय पत्रिका का हर पृष्ठ रंगीन होता है. इसके प्रकाशक-संपादक डा. विजय सोनकर शास्त्री हैं, जो एक समय केन्द्र की बाजपेयी सरकार में राष्ट्रीय अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग के अध्यक्ष हुआ करते थे.
अभी तक हम हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता में दलित विमर्श का मूल्यांकन करते रहे हैं, पर अब हमे हिंदू पत्रकारिता में भी दलित विमर्श का अवलोकन करना होगा. यद्यपि हम दलित सवालों पर हिदू नजरिये से अनभिज्ञ नहीं हैं, संघ परिवार के हिंदू लेखकों द्वारा कबीर-रैदास को हिंदूधर्म का रक्षक और डा. आंबेडकर को हिंदुत्व-समर्थक और मुस्लिम-विरोधी बताया ही जाता रहता है. इसी मुहिम के तहत 1992 में बम्बई के ‘ब्लिट्ज’ में “डा. आंबेडकर और इस्लाम” लेखमाला छपी थी. उसी क्रम में 1993 में ‘राष्ट्रीय सहारा’ में रामकृष्ण बजाज ने आंबेडकर को मुस्लिम-विरोधी बताते हुए दो लेख लिखे थे. इसी वैचारिकी को लेकर 1994 में ‘पांचजन्य’ ने ‘सामाजिक न्याय अंक’ निकला था, और 1996 में की गयी अरुण शौरी की टिप्पणी तो सबको ही पता है. लेकिन इस हिन्दूवादी चिन्तन का प्रभाव दलितों पर इसलिए ज्यादा नहीं पड़ा था, क्योंकि उसके वे लेखक गैर दलित (द्विज) थे. संघ का निशाना यहाँ चूक रहा था. उसे दलित वर्गों में आंबेडकर के दलित आन्दोलन की प्रतिक्रांति में शंकराचार्य की सांस्कृतिक एकता, हेडगेवार का हिन्दू राष्ट्रवाद, गोलवलकर का समरसतावाद और दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद स्थापित करना था. इसके लिए उसे जरूरत थी एक दलित की. वह भी ऐसे दलित की, जो संघ की विचारधारा में पला-बढ़ा हो और हिंदुत्व ही जिसका ओढ़ना-बिछौना हो. संघ की यह खोज विजय सोनकर शास्त्री पर जाकर पूरी हुई. और भव्य ‘दलित आन्दोलन पत्रिका’ अस्तित्व में आयी. अब जो काम ‘पांचजन्य’ और ‘वर्तमान कमल ज्योति’ (भाजपा का मुख पत्र) के द्वारा नहीं हो पा रहा था, वह अब ‘दलित आन्दोलन पत्रिका’ के जरिये पटरी पर दौड़ने लगा है. अब उसका हर अंक डा. आंबेडकर के दलित आन्दोलन को हिन्दू फोल्ड में लाने वाली सामग्री पूरी सज-धज से दलितों को प्रस्तुत कर रहा है.
इसी मई माह के अंक में डा. विजय सोनकर शास्त्री अपने सम्पादकीय में लिखते हैं- “दलितोत्थान की दिशा में आदि शंकराचार्य द्वारा चलाये गए सांस्कृतिक एकता का प्रयास अतुल्य था. चार धामों की स्थापना एवं वर्तमान समय में उन धामों की सर्वस्पर्शिता देश के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के स्थूल उदाहरण हैं. इतना ही नहीं, पूर्व काल में चाणक्य की राजनीतिक एकता और अखण्ड भारत के एक लम्बे कालखण्ड का स्वरूप आज राजनीतिक परिदृश्य में चिंतकों एवं विशेषज्ञों को भारतीय राजनीति का पुनरावलोकन के लिए बाध्य कर रही है...(अत:) दलित राजनीति के राष्ट्रवादी स्वरूप की आज परीक्षा की घड़ी है. अद्वतीय राष्ट्रवाद के लिए जानी जाने वाली दलितवर्ग की 1208 जातियों की वर्तमान समय में अग्नि-परीक्षा होगी. सम्पूर्ण दलित समाज भारत की आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा जैसे मुद्दे पर भी राष्ट्रवादियों के साथ खड़ा दिखायी देगा.” इसमें संघ परिवार का मूल एजेण्डा मौजूद है. आंतरिक सुरक्षा का मतलब है हिन्दूधर्म और समाज को बचाना और बाह्य सुरक्षा का मतलब है सीमा के मुद्दे पर भाजपा का समर्थन करना. शंकराचार्य की सांस्कृतिक एकता में दलित कहाँ हैं? विजय सोनकर शास्त्री से यह सवाल तो पूछा ही जाना चाहिए.
इसी सम्पादकीय में आगे डा. आंबेडकर भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समर्थक बना दिए गए  हैं. वे लिखते हैं- “डा. आंबेडकर द्वारा संविधान-निर्माण के साथ एक सांस्कृतिक राष्ट्र भारत को एक नयी पहचान दिए जाने के उपरान्त देश में सामाजिक क्रान्ति के आधार पर आर्थिक विकास एवं राजनीतिक क्षेत्र के संचालन को देखा जा सकता है.” वे अन्त में लिखते हैं- “अब आवश्यकता है कि एक बार पुनः डाक्टर आंबेडकर के हिन्दू कोड बिल, महिला सशक्तिकरण, आर्थिक उत्थान के सिद्धांत, मजदूर सगठनों की भूमिका और सामाजिक क्षेत्र में सामाजिक समरसता की संस्तुति का स्वागत किया जाये.” इसमें नयी बात ‘सामाजिक समरसता’ है, जिसे डा. आंबेडकर के नाम से जोड़ा गया है और यही संघ परिवार का मूल सामाजिक कार्यक्रम है. ‘सामाजिक समरसता’ का मतलब है जातीय और वर्गीय संघर्ष को रोकना. संघ के नेता कहते हैं, सामाजिक असमानता का सवाल न उठायो, जिस तरह हाथ की सभी अंगुलियां समान नहीं हैं, पर उनके बीच समरसता है, उसी तरह समाज में जातीय समानता पर जोर मत दो, उनके बीच समरसता बनायो. और यही  वर्ण-व्यवस्था का दार्शनिक समर्थन है.
इसी अंक में दलितों को भाजपा से जोड़ने वाला दूसरा लेख है- ‘बाबासाहब डा. आंबेडकर नरेन्द्र मोदी की डायरी में.’ इसमें दो उपशीर्षक हैं—‘डा. आंबेडकर ने वंचित समाज को दी एक नयी पहचान’ और ‘दलित समाज के लिए समभाव और ममभाव आवश्यक.’ दलितों के लिए ‘वंचित’ शब्द संघ का दिया हुआ है. एक समय मायावती जी ने भी ‘वंचित’ शब्द का खूब प्रयोग किया था, जब उन्होंने भाजपा से गठबंधन किया था.
२३ मई २०१३