शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

12 दिसम्बर 2015 को नागपुर में सन्त चोखामेला समाज व्याख्यानमाला में दिया गया व्याख्यान
आंबेडकरी आन्दोलन और उत्तर प्रदेश का वास्तव
कॅंवल भारती
                सभाध्यक्ष महोदय! और साथियों! माननीय रंजीत मेश्राम जी के हुक्म से ंआज आप सब लोगों का दर्शन करने और इस एतिहासिक स्कूल को देखने का अवसर मिला। सन्त चोखामेला के नाम से किसी भी संस्था को देखने का यह मेरा पहला अवसर है। यह जानकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है कि इस स्कूल को 1922 में कुछ मिल मजदूरों ने लड़कियों को पढ़ाने के लिए खोला था। 1964 में इसके भवन का निर्माण आरम्भ हुआ और सात साल बाद यह स्कूल अपनी स्थापना की सौ साला जयन्ती मनाएगा।
                साथियों! पिछली बार रिपब्लिकन विचार मंच के सेमीनार में मैंने माननीय रंजीत मेश्राम जी को सुना था। उनका अध्ययन विशाल है और वे बहुत धाराप्रवाह जोशीला भाषण देते हैं। किन्तु मेरा अध्ययन उनके जैसा विशाल नहीं है। मुझे उनके समक्ष बोलने में बहुत संकोच हो रहा है। फिर भी मैं अपने कुछ विचार आपके साथ साझा करने का साहस कर रहा हूॅं।
                साथियों! डा. बाबासाहेब ंआंबेडकर के आन्दोलन को लेकर दलित विद्वानों में भी अनेक मत प्रचलित हैं। और अगर हम इसमें राजनीतिक क्षेत्र के लोगों के मत को भी जोड़ लें, तो यह मतान्तर और भी ज्यादा हो जाएंगे। लेकिन अब समय आ गया है कि इन पर खुली बहस होनी चाहिए। और यह देखा जाना चाहिए कि ये मतान्तर हैं या प्रतिक्रान्ति की धाराएॅं हैं, जो आंबेडकरी आन्दोलन को नष्ट करने के लिए चल रही हैं।
                साथियों! वह 1970 का दशक था, जब उत्तर प्रदेश में आरपीआई का जोर था। वह मेरे छात्र-जीवन का समय था। चारों ओर नीले झण्डे और हाथी के पोस्टर दिखाई देते थे। उस समय आरपीआई के दो बड़े नेता हुआ करते थे, बी. पी. मौर्य और संघप्रिय गौतम। ये बड़े क्रान्तिकारी और प्रसिद्ध नेता थे। लोग उनको हाथी पर बैठाकर स्वागत करते थे। उनको सुनने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे। मैदान खचाखच भर जाता था। जब वे बोलते थे, तो दहाड़ते थे, लोगों में जोश भर देते थे। ब्राह्मणवाद के खिलाफ और सत्ता में भागीदारी के लिए आरपीआई की वह बड़ी जंग थी। 1967 के चुनावों में प्रदेश में 11 विधायक आरपीआई के चुनकर विधानसभा में पहुॅंचे थे। लेकिन क्रान्ति से ज्यादा प्रतिक्रान्ति की धारा तेज होती है, और हमारे नेता बहुत जल्दी उस धारा में बह जाते हैं। बी. पी. मौर्य को कांग्रेस ने मन्त्री बनाने का लालच दिया, और वह वहाॅं चले गए। कांग्रेस ने उनका उपयोग किया और फेंक दिया। वह कांग्रेस में रहकर अपनी कोई पहिचान नहीं बना पाए। संघप्रिय गौतम भाजपा में चले गए। उन्होंने उसी हिन्दुत्व के आगे समर्पण कर दिया, जिसके खिलाफ वह लोगों को जागृत करते थे। इनको भी भाजपा ने किसी काम का नहीं छोड़ा। अब उनके नाम से यूपी में दस लोग भी इकटठे नहीं होते। जिन्हें हजारों की संख्या में लोग सुनने आते थे, उसी जनता ने उन्हें अपने दिलों से निकाल कर फेंक दिया है।
                उसके बाद उत्तर प्रदेश में कांशीराम जी आजे हैं। उन्होंने उसी फसल को काटा, जिसे आरपीआई ने बोया था। उन्होंने दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों को बहुजन समाज से जोड़ा और एक जबरदस्त सामाजिक परिवर्तन की राजनीति को उभारा। उन्होंने आरएसएस और भाजपा के खिलाफ गाॅंव-गाॅंव में जागरण किए। 1993 के विधान सभा चुनावों में उन्होंने मुलायमसिंह यादव की समाजवादी पार्टी से गठबन्धन किया और यह गठबन्धन विशाल बहुमत से जीता। इस गठबन्धन के साथ दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यक समुदायों का जबरदस्त ध्रुवीकरण हुआ था। दलितो-पिछड़ों ने उस चुनाव को दूसरी आजादी की लड़ाई के रूप में लड़ा था। इस महान विजय के बाद ऐसा लगने लगा था कि उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणवाद अपनी आखिरी साॅंसें ले रहा है। उस चुनाव में ऐसे तमाम गरीब लोग जीत कर आए थे, जिनके पास पहनने को ढंग के कपड़े नहीं थे, पैरों में हवाई चप्पलें थीं और साइकिलों से चुनाव लड़े थे। लेकिन यह गठबन्धन शीघ्र ही बिखर गया। जिन कांशीराम को उत्तर प्रदेश में क्रान्ति का श्रेय दिया जाता है, उन्हीं कांशीराम को प्रतिक्रान्ति का भी श्रेय दिया जाता है। अठारह महीनों के बाद कांशीराम ने मुलायमसिंह यादव से गठबन्धन तोड़कर, भाजपा से हाथ मिला लिया और भाजपा के सहयोग से मायावती की सरकार बनावा दी। इधर मायावती सत्ता में आईं और उधर मरणासन्न ब्राह्मणवाद को नया जीवन मिला।
इसी ब्राह्मणवाद से गठबन्धन करके मायावती जी प्रदेश में तीन बार मुख्यमन्त्री बनीं। दलित अस्मिता की दृष्टि से यह भारतीय राजनीति की एक महत्वपूर्ण घटना तो थी, पर, ब्राह्मणवादी शक्तियों से गठजोड़ करके हासिल किया गया यह एक छोटा उद्देश्य था। यह उस जातिवादी राजनीति की भी पराकाष्ठा थी, जिसके बारे में बाबासाहेब ने चेतावनी दी थी कि जाति के आधार पर कोई भी निर्माण अखण्ड नहीं रह सकेगा और वह सचमुच अखण्ड नहीं रहा। वास्तविकता यह है कि इस जातीय ध्रुवीकरण से न दलितों को कोई लाभ हुआ और न गरीबों को। इस जातिवाद का सबसे ज्यादा लाभ भाजपा ने उठाया। उसने न सिर्फ अपने हिन्दू एजेण्डे को, बल्कि अपने निजीकरण के एजेण्डे को भी प्रदेश में लागू किया। मायावती ने तीनों बार शिक्षा और संस्कृति के विभाग भाजपा को दिए और पूरे प्रदेश में निजी शिक्षण संस्थाओं का जाल फैल गया। 26 सहकारी चीनी मिलें, जो लाभ में चल रही थीं, मायावती ने शराब माफियाओं को बेच दीं। उनके राज में निजी विश्वविद्यालय अस्तित्व में आने लगे, जिनमें लाखों रुपए लेकर प्रोफेशनल डिग्रियाॅं दी जाती हैं। सबसे ज्यादा नुकसान उन्होंने प्राथमिक शिक्षा का किया, जो गरीबों का एक मात्र सरकारी माध्यम है। पूरे प्रदेश में शिक्षा को निजी हाथों में देने का काम जोर-शोर हुआ। सिर्फ यही नहीं, सवर्णों को खुश करने के लिए मायावती जी ने एससीएसटी अत्याचार निवारण एक्ट है, उसे भी अपने विशेष आदेश से निष्प्रभावी करने का काम किया। उन्होंने इसके लिए बाकायदा जिले भर के पुलिस अधिकारियों की बैठक बुलाकर कहा कि इस एक्ट का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। बहुत से दूसरे कानून हैं, जिनके तहत आप कार्यवाही कर सकते हैं।उन्होंने यह कह कर पुलिस को स्पष्ट संकेत दे दिया था कि एससीएसटी एक्ट के तहत मामले दर्ज न करे। और पुलिस ने इस आदेश का पूरा पालन किया।
बाबासाहेब ने महाद सत्याग्रह के अवसर पर कहा था कि असफल होना अपराध नहीं है, बल्कि छोटे उद्देश्य के लिए काम करना अपराध है।दलित राजनीति तो अभी तक छोटे उद्देश्यों तक ही सीमित दिखाई दे है। कांशीराम की राजनीति छोटे उद्देश्य के लिए थी। मायावती जी भी छोटे उद्देश्य के लिए काम का रही हैं। उन्होंनें तमाम जातीय सभाएॅं बनाई हुई हैं। यह बाबासाहेब का मिशन नहीं है। उत्तर प्रदेश में जातीय सम्मेलन हो रहे हैं, चमार सभा है, वाल्मीकि सभा है, पासी सभा है, खटीक सभा है, ये सभी अपने सम्मेलनों में जो बैनर लगाते हैं, उस पर बाबासाहेब डा. आंबेडकर के चित्र लगाते हैं। वे अपने-अपने सम्मेलनों में अपनी-अपनी जाति के लिए आरक्षण की माॅंग करते हैं। बाबासाहेब जातियों के उनमूलन की बात करते थे। दलित राजनीति जातिवों की राजनीति कर रही है।
बाबासाहेब ने हिन्दू महासभा और आरएसएस के हिन्दूराष्ट्रवाद को भारतीय लोकतन्त्र के लिए घातक बताया था। उन्होंने कहा था कि हिन्दूराष्ट्र हमारे ऊपर राज है। उन्होंने हिन्दूराष्ट्र की विचारधारा को फासिस्ट विचारधारा कहा था। लेकिन, उत्तर प्रदेश में मायावती जी इसी फासिस्ट विचारधारा के राजनीतिक दल भाजपा से हाथ मिलाकर तीन बार सत्ता में आईं। तीनों बार उन्होंने आरएसएस के सांस्कृतिक और आर्थिक एजेण्डे को लागू किया। उत्तर प्रदेश में माया राज में भाजपा के तीन सूत्रीय कार्यक्रम थे- पहला, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, दूसरा, निजीकरण और तीसरा, दलित-ब्राह्मण गठजोड़, यानी, ब्राह्मणवाद के खिलाफ दलितों की लड़ाई को ठण्डा करना। बाबरी मस्जिद मामले में मायावती ने लालकृष्ण आडवाणी के विरुद्ध मुकदमा चलाने के लिए अधिसूचना जारी नहीं की। पूरे प्रदेश में जयश्रीराम के बाद राधे राधेका आन्दोलन विश्वहिन्दू परिषद ने शुरु कर दिया, जिसकी मंशा अयोध्या के बाद मथुरा की तैयारी थी। योगी आदित्यनाथ की हिन्दू सभाएॅं गाॅंव-गाॅंव हो रही थीं। प्रवीण तोगडि़या मुरादाबाद में सरेआम हिन्दू नौजवानों को मुसलमानों के विरुद्ध खंजर और त्रिशूल बाॅंट रहे थे। इनमें अधिकांश नौजवान दलित और पिछड़ी जातियों से थे। लेकिन मायावती ने हिन्दू संगठनों की किसी भी गतिविधि को नहीं रोका। उन्हें पूरी छूट दी। भाजपा ने मायावती से प्रदेश में 314 सरकारी कृषि फारमों का निजीकरण कराया, जिन्हें भाजपा के पूॅंजीपतियों ने  खरीदा। भाजपा के इशारे पर मायावती की सरकार ने 329.52 लाख वर्ग मीटर नजूल की भूमि को भूमाफियाओं को बेचने की कार्यवाही की, जिसमें से एक इंच जमीन भी दलितों को आबंटित नहीं की गई। यही नहीं, मायावती ने पंचगव्य यानी दूध, दही, घी, गो-मूत्र और गोबर से बनी दवाइयों को व्यापार-कर से मुक्त करके भगवा पलटन को खुश किया। ब्राह्मणवाद के खिलाफ दलितों की लड़ाई को ठण्डा करने के लिए, मायावती जी ने हर वह काम किया, जो भाजपा चाहती थी। मायावती जी गुजरात में मोदी जी के लिए दलित जातियों से वोट माॅंगने गईं और इसके लिए उन्होंने अल्पसंख्यकों के विरोध की चिन्ता भी नहीं की। इससे पहले कांशीराम भाजपा को गैर-साम्प्रदायिक पार्टी घोषित कर चुके थे।
डा. बाबासाहेब आंबेडकर ने दलित वर्गों के दो शत्रुओं की पहिचाना की थी। 1938 में उन्होंने कहा था कि दलित मजदूर वर्गों के दो शत्रु हैं- ब्राह्मणवाद और पूॅंजीवाद। हमें यह बात समझनी होगी कि हमारा शत्रु जातिवाद नहीं है। क्योंकि जातियों के बीच असमानता और ऊॅंच-नीच का भेदभाव ब्राह्मणवाद के कारण है। यह ब्राह्मणवाद ही है, जिसने असमानता को पैदा किया है। निजीकरण के बीज भी ब्राह्मणों की वर्णव्यवस्था में मौजूद हैं। इसीलिए ब्राह्मणवाद स्टेट-पूॅंजीवाद यानी सार्वजनिक क्षेत्र को पसन्द नहीं करता है, क्योंकि वह समाजवाद का रास्ता है। बाबासाहेब ने एक जगह लिखा भी है कि समाजवाद का दर्शन गरीबों को रास आता है और पूॅंजीवाद का दर्शन अमीरों को। लेकिन विडम्बना यह है कि आर्थिक शोषण के शिकार गरीब ब्राह्मण भी इस बात को नहीं समझते। वे भी गरीब दलितों के साथ समान स्तर पर रहना नहीं चाहते। यही ब्राह्मणवाद है, जो उन्हें संस्कारों में मिला है, जिसे हम लोक भाषा में कहते हैं, घुट्टी में मिलना कहते हैं।
आज लोग मुझसे सवाल करते हैं कि उत्तर प्रदेश में क्या 2017 में मायावती जी सत्ता में आएंगी? मैं उत्तर देता हूॅं कि नहीं आएंगी। राजनीतिक हालात नहीं हैं उनके सत्ता में आने के। वह पिछली बार पूर्ण बहुमत से जीती थीं। उस जीत को उन्होंने सोशल इंजीनियरिंग का नाम दिया था। और इस सोशल इंजीनियरिंग की मीडिया में और बुद्धिजीवियों के बीच में खूब चर्चा हुई थी। लेकिन मैंने उस समय भी उसे सोशल इंजीनियरिंग मानने से इनकार किया था और आज भी मैं कह रहा हूॅं कि यदि वह सोशल इंजीनियरिंग थीतो वह 1912 के चुनावों में सफल क्यों नहीं हुई? पूर्ण बहुमत से मुलायमसिंह क्यों जीते? हकीकत यह थी कि प्रदेश में काॅंग्रेस कमजोर थी और भाजपा हाशिए पर थी। इन्हीं दोनों पार्टियों के सहारे ब्राह्मण सत्ता में आता है। जब ये दोनों ब्राह्मणवादी पार्टियाॅं कमजोर थीं, और काॅग्रेस इसलिए कमजोर हो गई थी, क्योंकि उसका दलित-पिछड़ा-मुस्लिम वोट बैंक सपा और बसपा के साथ जुड़ गया था, और भाजपा का व्यापक जनाधार कभी था ही नहीं। वह वामन-बनियों की पार्टी कहलाती थी। इसलिए प्रदेश के ब्राह्मणों के लिए बसपा ही ऐसी पार्टी थी, जिसके सहारे सवर्ण वर्ग सत्ता में आ सकते थे। चूॅंकि मायावती जी दो बार भाजपा से गठबन्धन कर चुकी थीं, इसलिए वह ब्राह्मण-समर्थक भी थीं। आरएसएस ने बसपा को जिताने के लिए सारी ताकत लगाई थी। इसीलिए वह पूर्ण बहुमत से जीती थी। जीतने के बाद मायावती जी ने ब्राह्मणों को ही सबसे ज्यादा राजनीतिक और आर्थिक लाभ पहुॅंचाया था। पूर्ण बहुमत के उसी राज में उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण को राजनीतिक ताकत मिली, जिसने भाजपा के लिए जमीन तैयार की।
आज उत्तर प्रदेश का बाह्मण-ठाकुर भाजपा के साथ है। और भाजपा इतनी मजबूत हो गई है कि अति पिछड़ी जातियाॅं और अति दलित जातियाॅं भी आज भाजपा के साथ खड़ी हुई हैं। यादव और मुसलमान समाजवादी पार्टी के साथ हैं, जबकि दलितों में केवल जाटव और चमार जातियाॅं ही मायावती जी से भावात्मक रूप से जुड़ी हैं। ऐसी स्थिति में मायावती जी की वापसी सम्भव नहीं लगती। उत्तर प्रदेश में मायावती का कोई सांस्कृतिक आन्दोलन नहीं चल रहा है। वह जन-आन्दोलन भी नहीं करती हैं। दलितों और अन्य कमजोर वर्गों के लोगों पर प्रदेश में जुल्म-ज्यादती की आए दिन घटनाएॅं घटती रहती हैं, पर मायावती उन घटनाओं पर कोई आन्दोलन नहीं करतीं, वह केवल जरूरी हुआ, तो प्रेस कान्फ्रेन्स करके बयान जारी कर देती हैं, और कुछ नहीं करतीं। सुरक्षित राजनीति करती हैं। कांशीराम भी जेल जाने से डरते थे और मायावती भी जेल जाने से डरती हैं। लेकिन, दूसरी तरफ आरएसएस ने दलितों और पिछड़ी जातियों में सांस्कृतिक पुनर्जागरण का काम तेजी से शुरु कर दिया है। वह हर हिन्दू त्यौहार का हिन्दूकरण करके उसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से जोड़ रही है, जिससे हमारे नौजवान हिन्दुत्व के नाम पर उनके चुगुल में सबसे ज्यादा फॅंस रहे हैं। वे इस तरह उनके प्रभाव में हैं कि आरएसएस की शाखाओं में जा रहे हैं। हमारे मुरादाबाद जनपद से 200 दलित नौजवानों की खबर है, जो उसकी शाखाओं में जा रहे हैं।
इधर आरएसएस ने प्रमुख दलित जातियों को हिन्दुत्व से जोड़ने के लिए उन्हें गलत इतिहास भी पढ़ा रहा है। अभी उसने चमार, खटीक और वाल्मीकि इन तीन जातियों पर तीन किताबें प्रकाशित की हैं, जिनमें उसने बतया है कि चमार ब्राह्मण थे, खटीक क्षत्रीय थे और वाल्मीकि राजपूत थे। इन किताबों के लेखक डा. विजय सोनकर शास्त्री हैं, जो अटलबिहारी वाजपेई के शासन में अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष बनाए गए थे। वह आरएसएस की हिन्दुत्ववादी सोच के नेता हैं, दलितों को आरएसएस की ़विचारधारा से जोड़ने के लिए वह एक दलित आन्दोलन पत्रिकाभी निकालते हैं और हिन्दू विचारधारा पर आधारित उनका लिखा एक धारावाहिक रणभेरीभी दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल पर प्रसारित हो रहा है। वह लिखते हैं कि धर्माभिमानी और स्वाभिमानी ब्राह्मणों को बलपूर्वक चमार बनाया गया, क्षत्रियों और राजपूतों को बलपूर्वक खटीक और भंगी बनाया गया। किसने उन्हें चमार, खटीक और भंगी बनाया, तो वह कहते हैं, यह काम भारत में मुसलमानों ने किया। इस तरह आरएसएस दलितों को हिन्दूधर्म का रक्षक बताकर हिन्दुत्ववादी बनाने का काम का रही है। और इसके विरोध में दलितों का कोई संगठन काम नहीं कर रहा है। इन जातियों के जो नेता अपने राजनीतिक लाभ के लिए भाजपा में चले गए हैं, वे भी मौन धारण किए हुए हैं। वे अपने छोटे उद्देश्य को पाने के लिए उस हिन्दुत्व को मजबूत कर रहे हैं, जिसके बारे में बाबासाहेब ने चेतावनी दी थी कि वह दलितों पर ब्राह्मणों का राज है।
वर्तमान में उत्तर प्रदेश में दलित हाशिए पर जा रहे हैं। वहाॅं हिन्दू-मुस्लिम की राजनीति चल रही है। इसे समाजवादी पार्टी और भाजपा दोनों ही खेल रहे हैं। एक तरफ मुसलमानों को लामबन्द किया जा रहा है कि इस्लाम खतरे में है। और दूसरी तरफ हिन्दुओं को भड़काया जा रहा है कि मुसलमान उनके लिए खतरा हैं। धर्म के नाम पर दोनों को लड़ाया जा रहा है। दोनों तरफ की जनता धर्म के नाम पर जल्दी मूर्ख बन जाती है। जो हिन्दूधर्म हजारों साल से जिन्दा है, वह अब खतरे में पड़ेगा? जो इस्लाम 1400 साल से जीवित है, वह अब खतरे में पड़ेगा? दरअसल धर्म नहीं, पंडित-मुल्ला खतरे में पड़ते हैं। और उनको पालने-पोसने वाली राजनीति खतरे में पड़ती है। इसलिए दोनों तरफ के राजनेता और पंडित-मुल्ला अपनी सत्ता बचाने के लिए धर्म के नाम पर दंगे कराते हैं। और इन दंगों में कौन मरते हैं? इन दंगों में पंडित-मुल्ला नहीं मरते हैं, उन्हें पालने-पोसने वाले राजनेता नहीं मरते हैं, बल्कि गरीब लोग मरते हैं, दलित लोग मरते हैं। मैं इस मंच से कहना चाहता हूॅं कि दलितों, मजदूरों और गरीबों को इस लड़ाई से दूर रहना चाहिए। उन्हें समझना चाहिए कि हिन्दुओं को मुसलमानों से और मुसलमानों को हिन्दुओं से इसलिए लड़ाया जाता है, ताकि वे अपनी गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी और शिक्षा का हिसाब न माॅंगने लगें। धर्मगुरु और नेता जनता को गरीब और पिछड़ा बनाए रखने के लिए ही धर्म के नाम पर लड़ाते हैं। इस बात को दलित वर्गों को समझना होगा, वरना वे उनकी तबाही निश्चित है।
कुछ विचारक संविधान पर सवाल उठा रहे हैं। इस सम्बन्ध में मैं बताना चाहता हूॅं कि बाबासाहेब डा. आंबेडकर ने स्वतन्त्र भारत के भावी संविधान में शामिल करने के लिए, 15 मार्च 1947 को संविधान सभा को एक ज्ञापन दिया था, जिसे हम स्टेट एण्ड मायनारिटी के नाम से जानते हैं। इसमें एक अविभाज्य स्वतन्त्र भारत के निर्माण की परिकल्पना थी। उन्होंने भारत के नागरिकों के लिए समान रूप से 21 मौलिक अधिकारों के साथ राज्य समाजवाद की व्यवस्था को संविधान में शामिल करने की माॅंग की थी। उन्होंने शिक्षा, भूमि, कृषि, उद्योग पर राज्य के स्वामित्व की माॅंग की थी। उन्होंने उस ज्ञापन में दलित जातियों तथा अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के सामाजिक और आर्थिक विकास लिए विशेष वैधानिक संरक्षण की माॅंग थी। वे संसदीय लोकतन्त्र की अपेक्षा सहभागी पार्टीसिपेटरी लोकतन्त्र चाहते थे। लेकिन क्या हम इसे विडम्बना कहें कि जब बाबासाहेब डा. आंबेडकर को संचिधान की मसौदा समिति का अध्यक्ष चुना गया और उन्हें भारत के संविधान के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का सुअवसर प्राप्त हुआ, तो वे अपने स्टेट एण्ड मायनारिटी वाले ज्ञापन को भूल गए थे। लेकिन यह विडम्बना नहीं थी, बल्कि एक राजनीतिक विवशता थी। संविधान सभा में 296 सदस्यों में बाबासाहेब श्रमिक वर्गों के अकेले प्रतिनिधि थे। सभा में राजाओं, नवाबों, पूॅंजीपतियों, जमींदारों और रूढि़वादी हिन्दुओं का बहुमत था, जो समाजवाद को बिल्कुल पसन्द नहीं करते थे। अगर संविधान में समाजवाद की व्यवस्था स्थापित होती, तो उन्हें अपना बहुत कुछ छोड़ना पड़ता, जिसे वे छोड़ना नहीं चाहते थे। इसलिए, बहुमत से पास होने वाले संविधान में बाबासाहेब अपने राज्य समाजवाद की व्यवस्था को पास नहीं करा सकते थे। संविधान सभा में वही व्यवस्थाएॅं पास हुईं, जिनके पक्ष में सभा का बहुमत था। इसलिए संविधान में राजनीतिक समानता को तो निर्धारित किया गया है, परन्तु आर्थिक समानता का विषय विधायिका पर छोड़ दिया गया है। अगर संविधान सभा में दलितों और श्रमिक वर्गों का बहुमत होता, तो भारत का संविधान आज भिन्न होता, वह बाबासाहेब के राज्य-समाजवाद के अनुकूल होता। बाबासाहेब इससे दुखी थे, इसीलिए उन्होनें कहा था कि संविधान हमें राजनीतिक समानता देता है, आर्थिक समानता नहीं। और इस विरोधाभास को अगर शीघ्र ही समाप्त नहीं किया गया, तो इस आर्थिक असमानता से पीडि़त वर्ग इस लोकतन्त्र के मन्दिर को ध्वस्त कर देगा। लेकिन अभी तक वह स्थिति आई नहीं है, इसका क्या मतलब लगाया जाए?
ल्ेकिन बड़ा सवाल आज यह है कि इन 68 सालों में विधायिका में दलितों और श्रमिक वर्गों का प्रतिनिधित्व बढ़ा है। दलित वर्ग भी एक बड़ी राजनीतिक शक्ति बन गए हैं। उनके प्रतिनिधि भी संसद में भरपूर राजनीतिक शक्ति रखते हैं। पर यह राजनीतिक शक्ति सत्ता में रहकर राज्य-समाजवाद के लिए दबाव बनाने की कोशिश नहीं कर रही है, जो बाबासाहेब का आर्थिक आजादी का मिशन है।
बाबासाहेब ने कहा था कि राजनीति सब तालों की चाभी है। पर उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति ने वे सारे ताले बन्द रखे, जिनसे दलितों का मुक्ति-आन्दोलन आगे बढ़ सकता था। आज स्थिति और भी खराब है। दलित संगठन जातियों में बॅंट गए हैं। हर दलित जाति का अपना संगठन है, और वह अपनी अलग ढपली बजा रहा है। कुल मिलाकर एक आरक्षण का मुद्दा जरूर उनके एजेण्डे में रहता है। पर दलित जातियाॅं कैसे एक वर्ग के रूप में संगठित हों और कैसे बाबासाहेब के आर्थिक भारत के अनुरूप समाजवादी राज्य की परिकल्पना को साकार किया जाय, यह अभी किसी भी दलित संगठन का एजेण्डा नहीं है।
                धन्यवाद!
(12 दिसम्बर 2015)


                

बुधवार, 18 नवंबर 2015

महेश राही : एक परिचय
कंवल भारती
                बदायूँ से, पाँच लोगों ने रामपुर में आकर, हिन्दी साहित्य में दस्तक दी थी। ये लोग यहाँ अपनी पहली नौकरी पर आए थे। ये थे- (1) रमेश शेखर, जो पूर्ति विभाग में निरीक्षक बनकर आए थे, (2) छोटेलाल शर्मा नागेन्द्र’, (3) वाचस्पति मिश्र अशेष’, (4) नरेन्द्रस्वरूप सक्सेना विमल’, इन तीनों ने जैन इण्टर कालेज में क्रमशः अंग्रेजी और हिन्दी के प्रवक्ता पद पर योगदान दिया था, और (5) महेश राही ने कलेक्ट्रेट में लिपिक की नौकरी पाई थी। आज ये पाँचों लोग इस संसार में नहीं है। रमेश शेखर कुछ वर्ष रामपुर में रहकर बिजनौर स्थानान्तरित हो गए थे, और शायद कुछी साल बाद उनका निधन हो गया था। छोटेलाल शर्मा नागेन्द्रकी मृत्यु, उनकी सेवा-निवृत्ति के बाद, बरेली में, उनकी बेटी के घर पर हुई थी। वाचस्पति मिश्र अशेषका निधन, रामपुर में ही, राजद्वारा के उस घर में हुआ, जिसमें वह किराए पर रहते थे। नरेन्द्रस्वरूप सक्सेना विमलसेवा-निवृत्ति के बाद, नोएडा में, अपने बेटे के पास चले गए थे, और सम्भवतः वहीं पर उनका देहान्त हुआ। महेश राही ने रामपुर में ही एकता विहार में, अपना मकान बनवा लिया था और इसी मकान में उन्होंने 14 नवम्बर 2015 को अन्तिम सांस ली।
                मैं 1970 के दशक की बात कर रहा हूँ। अभी नई कविता का दौर शुरु नहीं हुआ था। मैं उस समय हाई स्कूल का विद्यार्थी था, और तुकबन्दी की कविता लिखना सीख रहा था। रामपुर में, हिन्दी में कविवर कल्याणकुमार जैन शशिकी कविता की धूम थी। वे पेशे से वैद्य थे, पर कविता का पूरा स्कूल थे, जिसमें अनेक शिष्य उनसे कविता लिखना सीखते थे। उन्हीं दिनों रमेश शेखर ने दस्तक दी और रामपुर में कविता का वातावरण गरम हो गया। वह मुक्तक विधा में सिद्धहस्त थे। 1961 में उनका खण्डकाव्य रूपमतीछप चुका था, जिसमें  उसकी प्रशंसा में, मैथिलीशरण गुप्त, सोहनलाल द्विवेदी, डा. रामकुमार वर्मा, द्विजेन्द्रनाथ मिश्र निर्गुणजैसे अनेक बड़े लेखकों की टिप्पणियाँ थीं। 1977 में बिजनौर से उनका गीतसंग्रह लिखा तुम्हारे लिएप्रकाशित हुआ था। अभी तक कल्याणकुमार जैन शशिको छोड़कर इस स्तर का कोई कवि रामपुर में नहीं था, तथापि, रमेश शेखर की चुनौती शशिजी के लिए भारी थी। शायद यह चुनौती ही थी, जो शशिजी ने मुक्तक विधा में सृजन आरम्भ किया, और परिणामतः कई साल बाद खरादशीर्षक से उनका मुक्तक संग्रह हमें मिला। बकौल रमेश शेखर इस संग्रह के बहुत से मुक्तकों में उन्होंने संशोधन किया था।
                छोटेलाल शर्मा नागेन्द्रअनियतकालीन पत्रिका विश्वासनिकालते थे, पर वह मुलतः कवि थे। कविता में उनकी एक दर्जन से भी ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हुईं। प्रकाशक भी वह स्वयं ही थे। नरेन्द्रस्वरूप सक्सेना विमलभी कवि थे और अच्छे कवियों में शुमार थे। उन्होंने रावण पर खण्ड काव्य लंकेशऔर जयप्रकाश नारायण के जीवन पर महाकाव्य लोकनायकलिखा था। वाचस्पति मिश्र अशेषभी कवि थे, पर वह नए मिजाज और नई कविता के सर्जक थे। उनका एक मात्र कविता संकलन बहुत देर बादका विमोचन रामपुर में ही 2005 में नामवर सिंह ने किया था। महेश राही कवि होने के साथ-साथ कहानीकार और उपन्यासकार भी थे। उनका एक कविता-संग्रह, एक कहानी-संग्रह और एक उपन्यास प्रकाशित हो चुका है। वे परिवेश पत्रिका के सह-सम्पादक भी थे। 
                लेकिन इन पाँचों लेखकों का यह दुर्भाग्य रहा कि इनमें से किसी के भी लेखन ने रामपुर की सीमा नहीं तोड़ी। इनकी सारी ख्याति रामपुर की सीमा में ही रही। हिन्दी साहित्य की व्यापक धारा में इनमें से कोई हलचल नहीं कर सका। इनकी एक भी कृति की मुख्यधारा के साहित्य में चर्चा नहीं हुई।
                महेश राही ने आखों से कम दिखने के कारण कई सालों से लिखना और पढ़ना लगभग दोनों काम पूरी तरह बन्द कर दिए थे। हालांकि 1978 में वह तब चर्चा में आए थे, जब परिवेश-9’ में प्रकाशित उनकी कहानी आखिरी जवाबपर धारा 153 के तहत उन्हें रामपुर में गिरफ्तार किया गया था। उन दिनों परिवेशके सम्पादक काशीनाथ सिंह और कुमार सम्भव थे। आजकल मूलचन्द गौतम हैं। उस कहानी में वाल्मीकि समुदाय की सलौनी की माँ के मुंह से कहलवाया गया है कि हमारी औरतें इस शहर में जमाने से ही मुसलमानों की टांगों के नीचे रही हैं। यह पत्रिका किसी तरह रामपुर के दलित नेता रामजी लाल के हाथ में आई और उन्होंने उस कहानी को पढ़कर वाल्मीकि समुदाय के कुछ लोगों के साथ बैठक की। बैठक में कहानी के लेखक और पत्रिका के सम्पादकों के विरुद्ध पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज कराने का निर्णय लिया गया। लोगों ने यह जिम्मेदारी रामजी लाल और रमेश प्रभाकर को सौंपी। रामजी लाल जाटव जाति से थे, जो जुझारू नेता होने के साथ-साथ पत्रकार भी थे- साप्ताहिक अखबार दुर्बल की आवाजनिकालते थे। रमेश प्रभाकर और मैं गहरे दोस्त थे। रामजी लाल ने एफआईआर में गवाह के रूप में हम दोनों का ही नाम लिखा दिया। हमने दस्तखत भी कर दिए थे। शहर में वाल्मीकियों का एक लम्बा जुलूस निकला, जिसका नेतृत्व रामजी लाल, हरिसेवक विशारद और बांके लाल जी के हाथों में था। इस जुलूस में शहर के कुछ मुस्लिम नेता भी शामिल हो गए थे। इससे मामला और भी ज्यादा सम्वेदनशील हो गया था। उस वक्त शहर कोतवाल कोई त्यागी था। उसने रामजीलाल, रमेश प्रभाकर और मुझे कोतवाली बुलाकर सूचना दी कि महेश राही को गिरफ्तार कर लिया गया है। हमने देखा, महेश राही हवालात के कमरे में फर्श पर नीचे बैठे हुए थे। उन्हें वहाँ देखकर मुझे बहुत बेचैनी हुई, मेरा कलेजा मुंह को आ गया था। मुझे और प्रभाकर दोनों को ही इससे कोई खुशी नहीं हो रही थी, पर हम विवश थे, वाल्मीकि समाज में बहुत रोष था, मारपीट आदि का कोई मामला होता, तो देखा जाता, लेकिन यह उनकी अस्मिता पर आघात का मामला था। उसे शान्त करना कम-से-कम मेरे और प्रभाकर के लिए तो मुश्किल ही था।
                इस घटना ने हिन्दी के साहित्कारों और पत्र-पत्रिकाओं के बीच महेश राही को चर्चित कर दिया था। चूँकि परिवेशके सम्पादक काशीनाथ सिंह और कुमार सम्भव भी मुकदमें में प्रतिपक्षी थे, जिन्हें रामपुर में जमानतें करानी पड़ी थीं, और काशीनाथ सिंह का नाम हिन्दी जगत में सुप्रसिद्ध था, इसलिए, इस घटना की व्यापक निन्दा होनी ही थी। सर्वप्रथम दिनमानने 1-7 अक्टूबर 1978 के अंक में चरचे और चरखेस्तम्भ के अन्तर्गत अश्लीलता कहाँ हैशीर्षक से सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की टिप्पणी प्रकाशित की, जिसके क्रम में कई और लेखकों की टिप्पणियाँ  और जिलों से लेखकों के संयुक्त हस्ताक्षर वाले पत्र प्रकाशित हुए। महेश राही ने भी अपनी आपबीती लिखकर अनेक लेखकों को भेजी थी, जिसें प्रयुत्तर में उपेन्द्रनाथ अश्क, विष्णु प्रभाकर, श्रीलाल शुक्ल, लक्ष्मीधर मालवीय, अमृतलाल नागर, बच्चन, भीष्म साहनी, आलम शाह खान, माधव मधुकर और सुरेन्द्र सुकुमार आदि लेखकों ने अपनी सम्वेदना के पत्र उन्हे भेजे थे। बहरहाल, यह मुकदमा लम्बा नहीं चला था, शासन द्वारा मुकदमा चलाए जाने की स्वीकृति नहीं मिलने और रमेश प्रभाकर और मेरी गवाहियाँ महेश राही और कुमार सम्भव के समर्थन में होने के कारण मुख्य जुडिशियल मजिस्ट्रेट, रामपुर ने 16 जनवरी 1979 को महेश राही को आरोपों से मुक्त कर दिया था।
                लेकिन इस एक घटना ने महेश राही और मेरे बीच तल्ख्यियाँ और दूरियाँ  दोनों पैदा कर दी थीं। बाद में दूरियाॅ ंतो काफी हद तक समाप्त हो गईं थीं, मिलना-जुलना, बातचीत और एक-दूसरे के घर आना-जाना आरम्भ हो गया था; वह मेरे बड़े बेटे की शादी में भी आए थे और रस-रंजन भी हम एक-दूसरे के घर जाकर कर लेते थे। रामपुर में कई साहित्यिक योजनाएं भी हमने साथ-साथ बनाई थीं। परिवेशके रामपुर में आयोजित कई कार्यक्रमों में भी उन्होंने मुझे बुलाया था। जब रामपुर के निराला कहे जाने वाले सुप्रसिद्ध कवि मुन्नूलाल शर्मा का 16 जून 2004 को निधन हुआ, तो उनकी स्मृति में एक पुस्तिका का प्रकाशन और सभा का आयोजन भी हम दोनों ने अपने संयुक्त प्रयास से ही किया था। जब रामपुर में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई, तो वह सर्वसम्मति से उसके अध्यक्ष चुने गए थे। बाद में महेश राही ने मुझे भी उसका सचिव नियुक्त कर दिया था।
                15 जुलाई 2010 को रामपुर में प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक सचिव, कवि, महेश राही के हमशहरी और मेरे अभिन्न मित्र और पारिवारिक सदस्य वाचस्पति मिश्र अशेषका जब लम्बी बीमारी के बाद निधन हुआ, तो उनकी स्मृति में भी श्रृद्धांजलि पुस्तिका के सम्पादन और मुद्रण की सारी जिम्मेदारी भी मैंने और महेश राही ने ही मिलकर निभाई थी।
                किन्तु, 6 अगस्त 2013 को जब मेरे फेसबुक कमेण्ट पर मेरी गिरफ्तारी हुई, तो यह मेरे साथ वैसा ही हादसा था, जैसाकि 1978 में महेश राही के साथ हुआ था। मेरी गिरफ्तारी भी उतनी ही अपमानजनक थी, जितनी 35 वर्ष पूर्व उनकी गिरफ्तारी थी। इस घटना से उन्हें अपनी गिरफ्तारी, और उसमें मेरी भूमिका याद आ गई थी, और वह पीड़ा, जो उनके भीतर दबी हुई थी, उभर आई थी। उसके बाद से ही उनका व्यवहार मेरे प्रति बदल-सा गया था। इस बीच जितने भी साहित्य के कार्यक्रम रामपुर में उनके द्वारा आयोजित किए गए, उनमें किसी में भी उन्होंने मुझे नहीं बुलाया था। शैलेन्द्र सागर की आख्यान-पुस्तक रहगुजरके विमोचन-कार्यक्रम में भी, जो रामपुर में उन्हीं के सहयोग से हुआ था, मुझे नहीं बुलाया गया। उस कार्यक्रम की खबर अखबार में पढ़कर, मैंने शैलेन्द्रजी को फोन किया। यह जानकर उन्हें बहुत हैरानी हुई कि मुझे उनकी किताब नहीं मिली। उन्होंने बताया कि किताब उन्होंने मुझे देने के लिए महेश राही को दे दी थी। उसी समय मैंने महेश राही को फोन किया और किताब के बारे में बात की। वह बिल्कुल भी नहीं घबराए, वरन् आराम से बोले, ‘किताब रखी हुई है, मेरा आना नहीं हो पा रहा है। तुम जब चाहो आकर ले जाना। कार्यक्रम में इसलिए नहीं बुलाया, क्योंकि कुछ लोग तुम्हें बुलाना नहीं चाहते थे।मैंने पूछा, वे कुछ लोग कौन हैं? कहीं तुम खुद तो नहीं हो?’ बोले, ‘अरे नहीं। जब तुम घर आओगे, तो बताऊंगा।इसके एकाध महीने बाद, कवि, कथाकार और उपन्यासकार, वयोवृद्ध ईश्वर शरण सिंहल का निधन हो गया। उसकी सूचना भी उन्होंनें मुझे नहीं दी। मृत्यु के दूसरे दिन, अखबार में खबर पढ़कर, जब मै शोक व्यक्त करने उनके निवास पर गया, तो महेश राही मुझे वहीं मिल गए। शोक के बाद जब मैं उठा, तो वह भी खड़े हो गए, बोले, चलो, ‘मैं तुम्हें किताब दे दूॅं।उसी कालोनी में एक छोर पर उनका मकान था। एक सज्जन और थे, वह भी हमारे साथ चलने लगे। रास्ते में उन्होंने मुझे सफाई देनी शुरु की- प्रलेस की ओर से हम तुम्हारी गिरफ्तारी के विरोध में बयान देना चाहते थे, पर लोग तैयार नहीं हुए, कहने लगे कि 1978 में इसी ने तुम्हें गिरफ्तार करवाया था, अब उसका पक्ष क्यों ले रहे हो?‘ मैं जानता था कि यह लोग नहीं, बल्कि खुद महेश राही बोल रहे थे। फिर भी मैंने कहा, ठीक ही तो है। कुछ ही देर में उनका घर आ गया। घर पर उन्होंने नमकीन के साथ चाय पिलवाई, इसी बीच उन्होंने मुझे शैलेन्द्र सागर की किताब दी, और उसी समय नमस्कार करके मैं चला आया।
ईश्वर शरण सिंहल के डाक्टर पुत्र आलोक उनकी स्मृति में एक स्मारिका निकालना चाहते थे, जिसका काम, जाहिर है, महेश राही को ही करना था। स्मारिका के लिए लेख लिखने के लिए  डा. आलोक भी मुझसे कह चुके थे। पर महेश राही ने मुझसे बिल्कुल नहीं कहा, जबकि ईश्वर शरण सिंहल के साथ मेरे सम्बन्ध महेश राही से भी ज्यादा आत्मीय और पुराने थे। वे मेरे गुरु भी थे, और एक समय मैं और वे सुबह की सैर साथ-साथ करते थे, मेलों में साथ-साथ जाते थे और सिनेमा साथ-साथ देखते थे। उस दौर में हमारी तिकड़ी मशहूर थी, जिसमें तीसरे राधाकृष्ण सक्सेना सुमनहोते थे। खैर, एक दिन, महेश राही मुझे सड़क पर मिल गए। मैंने पूछा, ‘कहाँ’ से आ रहे हो?’ कहने लगे, ‘शंकर प्रेस से स्मारिका के प्रूफ लेकर आ रहा हूँ।मैंने कहा, ‘स्मारिका का काम शुरु हो गया? और मुझे तुमने बताया भी नहीं।अ बवह फॅंस गए थे। बोले, ‘मैंने तुम्हें कई फोन किए, तुम्हारा फोन ही नहीं उठा।’ ‘तब तुम घर आ जाते’, मैंने कहा। फिर बोले, ‘बिना तुम्हारे स्मारिका नहीं छपेगी। तुम दो-चार दिन में लिख कर दे दो, या प्रेस में पहुंचा दो।खैर, मैंने अपना लेख लिखकर उन्हें घर पर जाकर सुनाया। सुनकर बोले, ’यार, यह तो नई जानकारी वाला लेख है, बहुत अच्छा है। इस तरह,  स्मारिका में मेरा यह लेख अन्त में छपा।
                ईश्वर शरण सिंहल के निवास पर तीन लोग शाम को नित्य नियम से बैठकी करते थे- बी. एस. भटनागर, ऋषिकुमार चतुर्वेदी और महेश राही। कभी-कभार मैं भी शामिल हो जाता था, लेकिन बहुत कम। बाद में बी. एस. भटनागर के बाद ऋषिकुमार चतुर्वेदी का जाना भी अस्वस्थता के कारण कम हो गया था। परन्तु महेश राही का क्रम नहीं टूटा था। वह रोज ही शाम को वहाँ  जाते और एक घण्टा बैठकर आते थे। यह उनके रोज का नियम बन गया था और एक तरह से उनके लिए भी वह उनके अनिवार्य सदस्य थे। यही कारण था कि ईश्वर शरण सिंहल के सुपुत्र, जानेमाने हृदयरोग विशेषज्ञ डा. आलोक सिंहल उन्हें चाचाजी कहते थे, और वह ही उनका इलाज भी कर रहे थे। मार्च 2014 में उनके साहित्यकार पिता की मृत्यु के बाद से महेश राही अकेले पड़ गए थे, क्योंकि उनकी पत्नी सरला उनसे पहले ही जा चुकी थीं। उनका बड़ा पुत्र सम्भवतः अहमदाबाद में बैंक में अधिकारी है। वह उसके पास जाने को कह भी रहे थे, पर नियति को यह कहाँ  स्वीकार था? और डा. आलोक को भी यह कहाॅं पता था कि डेढ़ साल के भीतर ही वह अपने चाचा से भी वंचित हो जाएंगे।
                महेश राही का यूँ अचानक जाना मेरे लिए भी एक व्यक्तिगत क्षति है। उनके साथ वाद-विवाद-सम्वाद पर हमेशा के लिए विराम लग गया है। रामपुर में ले-देकर एक वही लेखक थे, जो प्रगतिशील लेखक संघ सूत्रधार बने हुए थे। अब यह सूत्रधार भी नहीं रहा। सचमुच रामपुर के हिन्दी जगत के लिए यह बहुत बड़ा आघात है।
(18 नवम्बर 2015)