मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

नए वर्ष के आगमन पर..
(कँवल भारती)

नया वर्ष तू क्या लेकर आया है?
आशाएं विश्वास हमें तो करना ही है
क्यों न करेंगे? करते ही आये हैं.
वांच रहे हैं लोग राशियाँ राशिफल में
कुछ के चेहरे मुरझाये हैं,
कुछ के फिर भी खिले हुए हैं.
आँखों देखा नहीं समझते, कागद लेखे सीस नवाते.
पता नहीं क्यों विसराते हम इस यथार्थ को
वृक्ष बबूल का बोएँगे तो आम कहाँ पाएंगे?
बोएँगे नफरत जग में तो प्यार कहाँ पाएंगे?
बिरलाओं के लिए उजड़ते रहे झोंपड़े ज्यों ही,
क्या रोक पाएंगे कदम बगावत के हम?
शायद सत्ता का चरित्र ही यह है
धरती खाली हो गरीब से जल्दी,
कुछ का करें सफाया बागी, कुछ का सेना.
नए वर्ष में लगता है अब ये ही होना.
सीमित दंगे राष्ट्रवाद के फल देवेंगे कारपोरेट को,
हम आपस में सिर फोड़ेंगे, वे ‘सुधार’ को तेज करेंगे.
हम खेलेंगे जाति-धर्म के अंगारों से,
वे लूटेंगे सकल पदारथ जो भू-माहीं.
नए वर्ष में क्या है उनके लिए नया कुछ,
जिन्हें रोज ही कुआँ खोद पानी पीना है,
जिनके श्रम से खड़ी हुई अट्टालिकाएं हैं,
जिनके श्रम शोषण से रहते स्वस्थ भद्र जन,
लेकिन जिनके पास अभाव है हर सुविधा का.
नया वर्ष मंगलमय उनका, जिनका कल भी मंगलमय था,
नया वर्ष सुखमय भी उनका, जिनके सुख का पार नहीं है.
अरे अमीरो ! अरे शोषको !! अरे शासको !!!
खूब मनाओ जश्न रात-भर, नाचो-गाओ,
वक्त तुम्हारा, वक्त तुम्हारा, वक्त तुम्हारा !
सोए हैं रहनुमा हमारे,
वे भी कल जागेंगे, देंगे साथ तुम्हारा ! साथ तुम्हारा !!
(३०-१२-२०१४)






सोमवार, 8 दिसंबर 2014

क्या जनता जागरूक हो रही है?
(कॅंवल भारती)
एक तन्त्र के रूप में पिछले पचास सालों में धर्म का दायरा जितना अधिक बढ़ा है, उतना ही अधिक उस तन्त्र से लोगों का मोह भंग भी हुआ है। सबसे पहले बात उन तन्त्रों पर, जो दलित वर्गों के बीच तेजी से विकसित हुए। अतीत में जितने भी सन्त दलितों में हुए, उन सभी के नाम से नए-नए सन्त पैदा हो गए और रातों-रात उनके विशाल काय आश्रम भी खड़े हो गए। मेहनत कश गरीब लोग अपनी गरीबी और अशिक्षा वश मुक्ति के लिए उनके आश्रमों में जाते हैं और शोषण के जाल में फॅंस जाते हैं। वे तथाकथित स्वयंभू सन्त उनकी अशिक्षा और गरीबी का फायदा उठाते हैं, जिससे उन्हें श्रद्धा और चढ़ावा के साथ-साथ भोग के लिए सुन्दर औरतें भी मिलती हैं। वे इस ब्रह्मजाल से इतना अकूत धन इकट्ठा करते हैं कि उनकी कई पीढि़याॅं तर जाती हैं। फिर वे अपनी जान, अपने माल और अपने ब्रह्मजाल की सुरक्षा के लिए हथियार खरीदते हैं और अपनी सेना खड़ी करते हैं। वे लक्जरी गाडि़यों में चलते हैं और विलासिता का जीवन जीते हैं। सुरक्षा ऐसी कड़ी बनाते हैं कि परिन्दा भी सीधे उन तक नहीं पहुॅंच सकता। उनके अपार अंधभक्त श्रद्धालुओं की भीड़ को देखकर राजनीतिक दलों के नेता भी चुनावों में उनका ‘आशीर्वाद’ लेने पहुॅंचते हैं, और यहीं से शुरु होता है उन्हें ‘मानवेत्तर प्राणी का ‘विशेष’ दर्जा मिलने का सिलसिला। फिर उनके गन्दे पाॅव जमीन पर नहीं पड़ते। जब प्रधानमन्त्री, मुख्यमन्त्री और मन्त्रियों से लेकर बड़े-बड़े उच्च अधिकारियों तक उनके आश्रम में शीश नवा रहे हैं, तो स्वम्भू सन्त का भी फायदा और नेताओं का भी फायदा; और अंधभक्त श्रद्धालु तब और भी उनके मुरीद हो जाते हैं। वे समझते हैं, जब इतने बड़े-बड़े लोग बाबाजी के आगे नतमस्तक हैं, तो बाबा सचमुच बड़े पहुॅंचे हुए सन्त हैं। पर, इस हकीकत को सिर्फ नेता ही जानता है कि वे कोई सन्त-वन्त नहीं हैं, सब धर्मभीरुता का खेल है। लेकिन कानून पता नहीं, कहाॅं से बीच में आ गया, जो उन्हें दो कौड़ी का भी नहीं समझता। वह उन्हें और आम आदमी दोनों को एक ही नजर से देखता है। बेचारे जेल में बन्द आसाराम और अब सन्त रामपाल, मुझे पक्का यकीन है, कानून को ही कोस रहे होंगे।
स्वम्भू रामपाल की गिरफ्तारी पर हरियाणा में उनके भक्तों ने कोई उपद्रव नहीं किया, जैसाकि प्रायः स्वम्भुओं के भक्तों द्वारा होता रहा है। आसाराम की गिरफ्तारी के विरोध में भी देश के किसी कोने में कोई धरना-प्रदर्शन नहीं हुआ था। हालांकि, उनके खड़े किए हुए तन्त्र ने जरूर कुछ शक्ति-प्रदर्शन किया थां। इसका क्या मतलब है? क्या लोग जागरूक हो रहे हैं? हाॅं, यह कहा जा सकता है कि लोग जागरूक हो रहे हैं। पर यह जागरूकता लोकतन्त्र के दो स्तम्भों से आई है। वे हैं एक न्यायपालिका और दूसरी मीडिया। न्यायपालिका के डंडे ने इन तथाकथित सन्तों की सारी सन्तई निकाल दी और मीडिया ने असलियत दिखाकर उनको ऐसा नंगा किया कि जो जनता उन पर श्रद्धा करती थी, वह उन पर थूकने लगी। रामपाल की गिरफ्तारी के बाद, उनके सतलोक आश्रम के भीतर की, जो सूचनाएॅं मीडिया ने उपलब्ध कराईं, वे बेहद चैंका देने वाली हैं। बिहार, राजस्थान और मध्यप्रदेश तक से लोग अपने दुखों के निवारण के लिए वहाॅं आए हुए थे। कई औरतों के साथ दुराचार तक वहाॅं हुआ था।
सवाल यह है कि इतनी दूर-दराज से लोग सतलोक आश्रम में कैसे पहुॅंचे? ऐसा भी नहीं है कि रेडियो, टेलीविजन और अखबारों में उन्हें बुलाने का कोई विज्ञापन निकला हो। फिर इतनी बड़ी संख्या में लोग वहाॅं कैसे पहुॅंच गए? इसी तन्त्र को जनता को समझना है, क्योंकि इसी तन्त्र से इतनी बड़ी संख्या में लोग इन सन्तों के आश्रमों में पहुॅंचते हैं या पहुॅंचाए जाते हैं। इस काम के लिए ये सन्त अपने एजेण्ट नियुक्त करते हैं, जो गरीब और पिछड़े इलाकों में परेशान लोगों को बाबा के चमत्कारी किस्से सुनाकर उन्हें ऐसा बाॅंधते हैं कि वे गरीब उनके जाल में फॅंस जाते हैं। ऐसे ही फॅंसे हुए लोग तथाकथित सन्त रामपाल के सतलोक आश्रम में बन्द थे, जो पुलिस के आपरेशन से मुक्त होकर अपने घर पहुॅंचे थे। अब वे समझ गए कि ये कैसा भगवान कि पुलिस पकड़ कर ले गई? अगर उनमें कुछ भी भगवान का सत् होता, तो पुलिस भस्म नहीं हो जाती?
क्या जनता का शोषण करने वाले इन तथाकथित सन्तों से छुटकारा सम्भव है? शायद नहीं। जब तक धर्मभीरुता रहेगी, नए-नए भगवान पैदा होते ही रहेंगे। अगर देश में गरीबी और अशिक्षा बनी रहेगी, तो धर्मभीरुता भी बनी रहेगी। और पॅंूजीवाद से संचालित धर्मतन्त्र यही चाहता है कि भारत में गरीबी और अशिक्षा हमेशा बनी रहे।
(24 नवम्बर 2014)



गीता पर खतरनाक राजनीति
(कॅंवल भारती)
तवलीन सिंह वह पत्रकार हैं, जिन्होंने लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी के पक्ष में लगभग अन्धविश्वासी पत्रकारिता की थी। लेकिन अब वे भी मानती हैं कि मोदी सरकार ने जब से सत्ता सॅंभाली है, एक भूमिगत कट्टरपंथी हिन्दुत्व की लहर चल पड़ी है।उनकी यह टिप्पणी साध्वी निरंजन ज्योति के रामजादे-हरामजादेबयान पर आई है। लेकिन इससे कोई सबक लेने के बजाए यह भूमिगत हिन्दू एजेण्डा अब गीताके बहाने और भी खतरनाक साम्प्रदायिक लहर पैदा करने जा रहा है। मोदी सरकार की विदेश मन्त्री सुषमा स्वराज ने हिन्दू धर्म ग्रन्थ गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने की मांग की है। उन्होंने गीता की वकालत में यह भी कहा है कि मनोचिकित्सकों अपने मरीजों का तनाव दूर करने के लिए उन्हें दवाई की जगह गीता पढ़ने का परामर्श देना चाहिए। इससे भी खतरनाक बयान हरियाणा के मुख्यमन्त्री मनोहरलाल खटटर का है, जिन्होंने यह मांग की है कि गीता को संविधान से ऊपर माना जाना चाहिए। इसका साफ मतलब है कि खटटर भारतीय संविधान की जगह गीता को भारत का संविधान बनाना चाहते हैं।
दरअसल, मोदी के प्रधानमन्त्री बनते ही संघपरिवार का हिन्दुत्व ऐसी कुलांचे मार रहा है, जैसे उसके लिए भारत हिन्दू देश बन गया है और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत में पेशवा राज लौट आया है। शायद इसीलिए गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने की मांग करके संघपरिवार और भाजपा के नेता भारत को पाकिस्तान बनाना चाहते हैं। जिस तरह पाकिस्तान में कटटर पंथियों के दबाव में ईश-निन्दा कानून बनाया गया है, और उसके तहत अल्लाह और कुरान की निन्दा करने वालों के विरुद्ध फांसी तक की सजा का प्राविधान है, जिसके तहत न जाने कितने बेगुनाहों को वहां अब तक मारा जा चुका है। ठीक वही स्थिति भारत में भी पैदा हो सकती है, यदि कटटर हिन्दुत्व के दबाव में गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित कर दिया जाता है। शायद कटटरपंथी हिन्दू पाकस्तिान जैसे ही खतरनाक हालात भारत में भी पैदा करना चाहते हैं, क्योंकि गीता के राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित होने का मतलब है, जो भी गीता की निन्दा करेगा, वह राष्ट्र द्रोह करेगा और जेल जाएगा। इस साजिश के आसान शिकार सबसे ज्यादा दलित और आदिवासी होंगे, क्योंकि ये दोनों समुदाय गीता के समर्थक नहीं हैं। इसके तहत अन्य अल्पसंख्यक, जैसे मुस्लिम, ईसाई और सिख समुदाय भी हिन्दू कटटरपंथियों के निशाने पर रहेंगे। वैसे इस खतरनाक मुहिम की शुरुआत नरेन्द्र मोदी ने ही जापान के प्रधानमन्त्री को गीता की प्रति भेंट करके की थी।
सवाल यह भी गौरतलब है कि गीता में ऐसा क्या है, जिस पर आरएसएस और भाजपा के नेता इतने फिदा हैं कि उसे राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करना चाहते हैं? सुषमा जी कहती हैं कि उससे मानसिक तनाव दूर होता है। मानसिक तनाव तो हर धर्मग्रन्थ से दूर होता है। ईसाई और मुस्लिम धर्मगुरुओं की मानें, तो बाइबिल और कुरान से भी तनाव दूर होता है। सिखों के अनुसार गुरु ग्रन्थ साहेबके पाठ से भी तनाव दूर होता है। अगर तनाव दूर करने की विशेषता से ही गीता राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित होने योग्य है, तो बाइबिल, कुरान और गुरु ग्रन्थ साहेब को भी राष्ट्रीय ग्रन्थ क्यों नहीं घोषित किया जाना चाहिए। लेकिन, यहाँ यह तथ्य भी विचारणीय है कि बाइबिल, कुरान और गुरु ग्रन्थ साहेब में सामाजिक समानता का जो क्रान्तिकारी दर्शन है, क्या वैसा क्रन्तिकारी दर्शन गीता में है? क्या गीता के पैरोकार यह नहीं जानते हैं कि गीता में वर्णव्यवस्था और जातिभेद का समर्थन किया गया है और उसे ईश्वरीय व्यवस्था कहा गया है? यदि गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ बनाया जाता है, तो क्या वर्णव्यवस्था और जातिभेद भी भारत की स्वतः ही राष्ट्रीय व्यवस्था नहीं हो जाएगी? क्या आरएसएस और भाजपा के नेता इसी हिन्दू राष्ट्र को साकार करना चाहते हैं, तो उन्हें समझ लेना चाहिए कि भारत में लोकतन्त्र है और जनता ऐसा हरगिज नहीं होने देगी।
यह भी कहा जा रहा है कि भाजपा के नेताओं का गीता-शिगूफा यादव समाज को, जो अपने को कृष्ण का वंशज मानता है, भाजपा के पक्ष में धु्रवीकृत करने की सुनियोजित राजनीति है। उत्तर प्रदेश और बिहार में यादवों की काफी बड़ी संख्या है, जो वर्तमान राजनीति में मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव के वोट बैंक बने हुए हैं। लेकिन आरएसएस और भाजपा के नेता प्रतीकों की जिस राजनीति में अभी भी जी रहे हैं, उसका युग कब का विदा हो चुका है। आज की हिन्दू जनता 1990 के समय की नहीं है, जो थी भी, उसमें भी समय के साथ काफी परिवर्तन आया है। कुछ मुट्ठीभर कटटरपंथियों को छोड़ दें, तो आज के समाज की मुख्य समस्या शिक्षा, रोजगार और मूलभूत सुविधाओं की है, मन्दिर और गीता-रामायण की नहीं है। अतः यदि भाजपा गीता के सहारे यादव समाज को लक्ष्य बना रही है, तो उसे सफलता मिलने वाली नहीं है।
(8 दिसम्बर 2014)