बुधवार, 16 जुलाई 2014

मेरे नाम डा. तेज सिंह के कुछ पत्र
(कँवल भारती)
      दलित चिन्तक, आलोचक और संपादक डा. तेज सिंह अब हमारे बीच नहीं रहे. मैं उनके इस आकस्मिक निधन को अपनी निजी क्षति भी महसूस कर रहा हूँ. उनसे मेरी अंतिम भेंट देहरादून के एक कार्यक्रम में हुई थी. जहाँ से कार्यक्रम के बाद हम साथ-साथ मसूरी गये थे. अनीता भारती और वेद भी हमारे साथ थे. रास्ते भर मेरे और उनके बीच उनकी पत्रिका ‘अपेक्षा’ और उनके अम्बेडकरवादी आन्दोलन को लेकर तीखी बहस होती रही. मैंने यहाँ तक कहा कि आपकी ‘अपेक्षा’ पत्रिका के उद्देश्य को पूरा नहीं कर रही है. आप हर अंक किसी विषय पर केन्द्रित करते हैं, जिससे सामयिक मुद्दों के लिए उसमें स्पेस ही नहीं रहता है. यदि कोई बड़ी घटना घट जाये, तो उसकी रिपोर्टिंग आप कैसे करेंगे? मैंने उन पर यह आरोप भी लगाया कि आप विषय-केन्द्रित अंक इसलिए निकालते हैं, क्योंकि बाद में आप उसकी किताब बना देते हैं. उनके साथ वह बहस हमारी इतनी तीखी हो गयी थी कि वे झुंझला गये थे. पर जब हमारी गाड़ी एक पहाड़ी पर जाकर रुकी, तो वहां उतरे, तो  उनकी सारी झुंझलाहट खत्म. हम सब ने प्रकृति का आनंद लिया, चाय पी, और खूब हंसी-मजाक किया. ऐसे थे तेज सिंह. आज उस घटना को याद करके मैं अंदर से अपने को कितना दुखद महसूस कर रहा हूँ, यह मैं ही जानता हूँ. मेरी उनसे पहली मुलाकात रजनी तिलक के घर पर हुई थी, जिसकी तारीख-सन याद नही है. 19 मार्च 2001 को उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में समकालीन दलित कविता पर एक गोष्ठी करायी थी, जिसमें उनसे संभवतः तीसरी बार मिलना हुआ था. मेरी और उनकी मेल-मुलाकातें ज्यादा नहीं हुई थीं, पर मेरे और उनके बीच सन 2004 तक कुछ पत्राचार हुआ था. उनमें कुछ पत्र मेरे पास सुरक्षित हैं, जो संख्या में 12 हैं. वे पोस्टकार्ड लिखते थे. मैं ये सभी 12 पोस्टकार्ड  दलित साहित्य के विद्यार्थियों को उपलब्ध करा रहा हूँ. अवलोकन करें—

पत्र-1
दिल्ली- 4-3-002
प्रिय भाई भारती जी,
जय भीम ,
आज ही आपका पोस्टकार्ड मिला. अधिवेशन की रूपरेखा बनाने के तुरंत बाद मैं आपको पत्र देकर सूचित कर दूंगा कि आपने किस विषय पर आलेख प्रस्तुत करना है. आपने अपने साहित्यिक निबंधों के प्रकाशन के लिए लिखा था. मुझसे ज्यादा आपकी प्रतिष्ठा है और आपके लिए प्रकाशकों की कोई कमी नहीं होनी चाहिए. फिर भी एक प्रकाशक—साहित्य संस्थान, लोनी रोड स्थित से बात कर सकता हूँ, जिसने डा. बेचैन की तीन पुस्तकें एक साथ प्रकाशित की थीं. शायद आप उससे परिचित होंगे. अप एक बार वाणी प्रकाशन या राधाकृष्ण प्रकाशन दरियागंज से भी पत्र द्वारा सम्पर्क करके बातचीत चला सकते हैं, क्योंकि वे दोनों प्रकाशक दलित साहित्य को भुना रहे हैं. आप पाण्डुलिपि (तैयार) करके किसी दिन दिल्ली आ जाएँ तो प्रकाशकों से सम्पर्क कर सकते हैं. साहित्य संस्थान से भी बात बन सकती है.
उम्मीद है परिवार सहित स्वस्थ और सानंद होंगे.
आपका,
ह. (तेज सिंह)

पत्र-2
दिल्ली--26-2-002
प्रिय भाई भारती जी,
आपका स्वीकृति पत्र मिला. प्रसन्नता हुई कि आपका सहयोग हमें मिल रहा है. इससे पहले आपकी महत्वपूर्ण पुस्तक संत रैदास : एक विश्लेषण मिल गयी थी. कृपया आप ही मुझे सुझाव दीजिये कि इस पुस्तक पर किस पत्रिका व पत्र में समीक्षा लिखकर भेजूं. पुस्तक पढ़ ली है और अच्छी भी लगी. मैं स्पष्ट कर दूँ कि दलित लेखक संघ का पहला अधिवेशन साहित्यिक एजेंडे के तहत ही हो रहा है. उद्घाटन सत्र में राजनीतिक-सामाजिक एजेंडा रहेगा. अन्य चारों सत्रों में कविता, कहानी, आत्मकथाएं और पत्रकारिता पर आलेख पढ़े जायेंगे. चौथा सत्र दलित साहित्य आन्दोलन पर केन्द्रित किया गया है. शीघ्र ही कार्यक्रम की रूपरेखा बनाकर भेजी जायेगी. आपके सुझाव से हमें मार्गदर्शन मिला. आपसे मेरा अनुरोध है कि साहित्यिक विधा पर कहानी-कविता या आत्मकथा पर आलेख तैयार करके भेज दीजिये. आपका सहयोग जरूरी है. अगर दिल्ली आना सम्भव हो तो सूचित करें, ताकि कार्यक्रम पर विशेष चर्चा की जा सके.
पत्र की प्रतीक्षा में,
आपका
ह. (तेज सिंह)

पत्र-3
दिल्ली--30-5-002
प्रिय भाई भारती जी,
लम्बे अरसे बाद पत्र लिख रहा हूँ. आपके लेखन पर निरंतर नजर है. व्यक्तिगत स्तर पर अनुरोध करने के बाद भी आप दलित लेखक संघ के पहले अधिवेशन में नहीं आये. यह शिकायत तो रहेगी ही. रजनी से मालूम हुआ, आप नहीं आ रहे हैं. फिर मालूम हुआ कि आ रहे हैं. इस आने और न आने के बीच क्या घटा मुझे नहीं मालूम. मुझे नहीं मालूम कि मैं आपके प्रति इतना क्यों सम्मान-भाव रखता हूँ? आपसे सिर्फ मैं एक बार रजनी (के) घर तो दूसरी बार हिंगणघाट पर कुछ समय के लिए मिला था. उसके बाद आपसे कोई मुलाकात नहीं हुई, फिर भी वह सम्मान-भाव बना रहा है, जिसकी अपेक्षा दो साहित्यकारों के बीच होती है. इस बीच आपका कोई पत्र भी नहीं मिला.
‘राष्ट्रीय सहारा’ में आपकी पुस्तक ‘संत रैदास : एक विश्लेषण’ की समीक्षा भेजी थी, जो वापस आ गयी है कि आप और चैयरमैन (सुब्रतराय) के बीच कुछ मामला है. मुझे नहीं मालूम कि क्या कारन है? अब मैं वह समीक्षा ‘हंस’ में भेज रहा हूँ. शायद वह छप जायगी. ‘राष्ट्रीय सहारा’ में आपका और आपकी रचनाओं की समीक्षा पर प्रतिबंध लगा रखा है, ऐसा मुझे लगता है. खैर ! लेखक के लिए पत्रों-पत्रिकाओं की कमी नहीं होती है. वैसे भी आप ‘राष्ट्रीय सहारा’ के मुहताज नहीं हैं. ‘आज का समय’ पुस्तक कविता-संकलन आ गया है. शीघ्र ही भेजूंगा. ‘हंस’ के जुलाई अंक में एक लेख आ रहा है. पढ़ कर लिखिए.
आपका साथी,
ह. (तेज सिंह)

पत्र-4
दिल्ली--17-7-002
प्रिय भाई कँवल भारती जी,
‘आज का समय’ कविता-संकलन मिल गया होगा. ‘अपेक्षा’ नाम से एक त्रैमासिक पत्रिका (आलोचना) सितम्बर 002 में प्रकाशित करने जा रहा हूँ. मूलतः आलोचना की ही पत्रिका रहेगी. साहित्यिक-सांस्कृतिक लेखों के अलावा पुस्तक समीक्षाएं (लम्बी) तथा चार पेज कविता के रहेंगे. दलित साहित्य पर केन्द्रित एक आलेख आपसे जरूर चाहिए. कुछ नयी कविताएँ लिखी हों तो वह भी भेज दें. जुलाई के अंत तक सामग्री आ जाये, तो अच्छा रहेगा. सहयोग की अपेक्षा के साथ पात्र की प्रतीक्षा में उम्मीद है कि आप स्वस्थ और सानन्द होंगे.
आपका साथी,
ह. (तेज सिंह)

पत्र-5
दिल्ली- 6-12-02
प्रिय भाई भारती जी,
कल दोपहर बाद आपका लेख मिला. धन्यवाद. मैं आपके ही लेख की प्रतीक्षा कर रहा था. लेख पढ़ लिया है. उसमें कांटने-छांटने की जरूरत नहीं है. वह पहले ही आप कर चुके हैं. जहाँ तक पत्रिका के संपादक के अधिकार का सवाल है, वह पत्रिका को विवाद से बचाने के लिए ही ऐसे विवादास्पद अंशों को काट देता है. तो ऐसे में लेखक (को) अनावश्यक रूप से शिकायत नहीं करनी चाहिए. लेख में ऐसा कुछ नहीं है कि मुझे उसमें कुछ काटना पड़े. इसलिए लेख जैसा है, उसी रूप में आ रहा है. अगले अंक के लिए रैदास पर लेख चाहिए. अभी ही सूचित कर रहा हूँ. रैदास वाली पुस्तक की समीक्षा ‘हंस’ में छपने के लिए दे दी है. देखें कब आती है?
 आपका साथी,
ह. (तेज सिंह)

पत्र-6
दिल्ली- 21-2-03
प्रिय भाई भारती जी,
‘अपेक्षा’ का कबीर अंक भेज दिया है. आगामी अंक के लिए रैदास पर लम्बा लेख शीघ्र ही भेजें. अंक पर अपनी प्रतिक्रिया भी. आई.एस.आई. में मिलना न के बराबर रहा. आपने मुझसे वादा किया था कि दिल्ली आकर फोन करूँगा. और विचार-विमर्श भी. पर आप दूसरे कारणों से भूल गये. मुझे कोई शिकायत नहीं है. वर्तमान परिस्थितियों में शिकायत बेमानी हो जायगी. संकेत आप समझ रहे होंगे.
रैदास पर लेख शीघ्र ही भेजिए. पत्रिका मार्च के अंत में आ जायगी.
आपका,
ह. (तेज सिंह)
पत्र-7
दिल्ली- 6-5-03
प्रिय भाई,
रैदास-अंक भेजा जा रहा है. आगामी अंक दलित आत्मकथा विशेषांक के लिए लम्बा लेख चाहिए, जो दलित आत्मकथाओं पर केन्द्रित हो. 25 मई तक अवश्य भेज दीजिए.यह अंक एक उपलब्धि के तौर पर निकालने के लिए कटिबद्ध हूँ, जिसमें आपका सहयोग जरूरी है. रैदास अंक पर प्रतिक्रिया भी भेजें. दलित धर्म की अवधारणा पर ईशकुमार का लम्बा लेख क्रिया-प्रतिक्रिया स्तम्भ में है. उम्मीद है कि परिवार सहित स्वस्थ एवं सानन्द होंगे. पत्नी भी स्वास्थ्य लाभ कर रही होंगी. मेरी तरफ से मेरी शुभकामनाएं दे दें कि वे जल्दी ठीक हो जायें.
आपका साथी,
ह. (तेज सिंह)

पत्र-8
दिल्ली- 7-6-03
प्रिय भाई भारती जी,
पहले भी एक पत्र लिख चुका हूँ. उससे पहले दिल्ली में ही एक मुलाकात में याद दिलाया था कि दलित आत्मकथाओं पर आपका लम्बा लेख जाना है. तैयारी चल रही है. काफी लेख-समीक्षाएं आ गयी हैं. अब हम आपके लेख की प्रतीक्षा कर रहे हैं. व्यस्तताओं के बीच से समय निकाल कर लेख लिख लिया होगा, ऐसी उम्मीद है.
उम्मीद है कि पत्नी का स्वास्थ्य अब ठीक होगा. आपने बताया था कि वे अस्वस्थ चल रही हैं.
पत्र की प्रतीक्षा में नहीं, लेख की प्रतीक्षा में हूँ. तीसरा अंक कैसा लगा? पत्र लिखें.
आपका साथी,
ह. (तेज सिंह)

पत्र-9
दिल्ली- 6-3-04
प्रिय भाई कँवल भारती जी,
आपका पत्र मिला. अंक-5 में गलती से मनुष्य के स्थान पर व्यक्ति चला गया है. आपका कहना ठीक है. लेकिन ऐसा जानबूझ कर नहीं किया गया है. दरअसल, डा. अम्बेडकर के धर्म सम्बन्धी विचार बाली की पुस्तक से अवधेश (कम्प्यूटर) ने उतार लिए थे. गलती यह हुई कि मुझे वे देखने चाहिए थे. अगले अंक-6 में पुनः सुधार कर वे विचार दिए जा रहे हैं, ताकि पाठकों को सही विचार मिल जाय. इसके लिए आपके आभारी हैं.
अंक-6 के लिए कोई लेख भेज दीजिए. यह अंक 14 अप्रेल से पहले आयगा. आपका रचनात्मक सहयोग पत्रिका को गरिमा प्रदान करेगा. पत्र की प्रतीक्षा में. उम्मीद है कि आप स्वस्थ एवं प्रसन्न होंगे.
आपका साथी,
ह. (तेज सिंह)
  
पत्र-10
दिल्ली- 15-5-04
प्रिय भाई भारती जी,
आपकी पुस्तक ‘दलित चिंतन में इस्लाम’ मिली और उसी दिन पढ़ भी डाली. इसके दो लेख पहले पढ़ चुका था. अंत में मो. कैसर के पत्र देकर अच्छा किया, ताकि किसी को कोई भ्रम न रहे. पुस्तक पढ़कर पहली प्रतिक्रिया यही बनी कि आपको ऐसे काम के लिए धन्यवाद दूँ. इन दिनों आप निश्चित यह गंभीर काम कर रहे हैं, जिसकी दलित समाज को जरूरत थी और है. इस पुस्तक पर डा. धर्मवीर से समीक्षा करा दीजिये. पुस्तक उन्हें भेज दें, तो मैं उनसे ‘अपेक्षा’ में समीक्षा के लिए पत्र लिख दूंगा. जैसा आप उचित समझें. अंक-6 भेजा जा रहा है. आगामी अंक के लिए लेख वगैरा भेजें.
उम्मीद है, आप स्वस्थ एवं सानन्द होंगे.
आपका साथी,
ह. (तेज सिंह)


पत्र-11
दिल्ली- 2-6-04
प्रिय भाई,
‘अपेक्षा’ के अंक-6 पर आपकी प्रतिक्रिया मिली. उसके लिए धन्यवाद. शायद आपको मेरा पत्र नहीं मिला जो आपकी पुस्तक ‘इस्लाम और दलित’ (सही नाम ‘दलित चिंतन में इस्लाम’) पर लिखा गया था. ‘अपेक्षा’ में समीक्षा के लिए एक प्रति और भेजें. ईशकुमार समीक्षा करेंगे. अंक-8 के लिए ‘दलित साहित्य आन्दोलन’ पर केन्द्रित, आपसे लम्बा लेख माँगा गया है. उम्मीद है कि आप हमें निराश नहीं करेंगे. यथावत अपना सर्जनात्मक सहयोग देते रहेंगे. आपका लेख अपरिहार्य है.
रामपुर या मुरादाबाद में पत्रिका की बिक्री के लिए कोई स्थान बतायें. उम्मीद है कि आप स्वस्थ एवं सानन्द होंगे.
आपका साथी,
ह. (तेज सिंह)

पत्र-12
दिल्ली- 1-9-04
प्रिय भाई भारती जी,
तीसरा पत्र लिख कर दुबारा याद दिला रहा हूँ कि ‘अपेक्षा’ का अगला अंक अम्बेडकरवादी साहित्य आन्दोलन के रूप में (विशेषांक) आ रहा है. आपने वादा किया था कि आप लेख जरूर भेजेंगे. एक लम्बा सा लेख लिखकर (लिख किया होगा) 20 सितम्बर तक जरूर भेज दीजिए. आपके लेख की प्रतीक्षा में. उम्मीद है आप स्वस्थ एवं सानन्द होंगे.
आपका साथी,
ह. (तेज सिंह)






सोमवार, 14 जुलाई 2014

उपचुनावों के लिए गरमाया जा रहा है प्रदेश
(कँवल भारती)
उधर मानसून रूठा हुआ है और आग बरस रही है. आम जनता धूप और गर्मी से बिलबिला रही है. और इधर उत्तर प्रदेश में जनता के नुमाइन्दे अपने जहरीले और भड़काऊ बयानों से प्रदेश का माहौल गरमा रहे हैं. अभी आरएसएस के किन्हीं गगन शर्मा ने सोशल मीडिया पर मुसलमानों को भड़काने वाली यह पोस्ट डाली है--
“मुगलों ने कराया धर्मपरिवर्तन और नेता उसे आगे बढ़ा रहे हैं.
क्या किया तुर्को, मुगलो और बर्बर आकमणकरियो ने, गाँव के गाँव जलाये, माँ बहिनों की इज्जत लूटी, हिंदू लडको का गुप्ताग काटकर उनको हिजड़ा बनाकर अपने हरम का चौकीदार बनाया, ताकि वो अपनी ही बहिनो और माताओं की चीखें सुन सकें.  बर्बरतापूर्ण बलात्कार और उस समय उनकी दिल को चीर देने वाली करुण और कुछ समय बाद दम तोड़ती चीखों ने उन चौकीदार बने हिन्दुओं को अन्दर से डरा दिया. अपनी माँ, बहिनों की ऐसी हालत देख वो चौकीदार हिन्दू खौफ से दहल जाते थे.  छोटे बच्चे और क्या कर सकते थे, उस समय भी कुछ कायर हिंदू इन बर्बर लोगो के साथ थे, क्योंकि इस देश मे जयचंदों की एक लम्बी परम्परा रही है. इन तुर्को, पठानों, मुगलों के पास लूट, खसोट, आगजनी, बलात्कार के अलावा कोई काम था ही नहीं.  मूर्ख इतिहासकार कहते है कि इन बर्बर आतताइयों और बलात्कारियों ने विश्व प्रसिद्ध इमारते बनवाई, अधिकांश तो इसमें से सफेद झूठ है. अरे इन्होने तो हिन्दुओं की पहले से बनी इमारते तोड़ी है और अपनी चीजें बनायीं हैं अपने नाम से. पर मूल रूप से तो वो हिन्दुओं की ही बनायीं हुईं हैं. जिन इमारतों को टूटने से बचना था उनका काफिरो के हाथों ही इन जयचंदों ने इस्लामीकरण कराया.”
इन संघी गगन शर्मा महाशय की यह काफी लम्बी पोस्ट है, जो गूगल (G+) पर मौजूद है. इसमें उन्होंने मुस्लिमों के खिलाफ और भी बहुत सी अनर्गल जहरीली बातें लिखी हैं. पता नहीं अभी तक इन महाशय के खिलाफ सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने के आरोप में आई.टी. एक्ट के तहत मुकदमा दर्ज क्यों नहीं हुआ? इस तरह की अनर्गल और भड़काऊ बातें इसी वक्त क्यों कही जा रही हैं, जब केंद्र में हिन्दू राष्ट्रवादियों की सरकार बन गयी है और यूपी में कुछ सीटों पर उपचुनाव होने वाले हैं? मतलब साफ है कि ऐसे तत्व मुस्लिमों के विरुद्ध हिन्दू मतों को अपने पक्ष में ध्रुवीकृत करने की मुहीम चला रहे हैं.
यूपी में समाजवादी पार्टी (सपा) की सरकार है, जो मुस्लिम हित की सरकार मानी जाती है और वह है भी. इसका मतलब है कि भाजपा और संघ परिवार की हर साम्प्रदायिक गतिविधि का राजनीतिक लाभ सपा को ही मिलना है, क्योंकि कांग्रेस यूपी में कमजोर है और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) पर मुसलमानों को भरोसा नहीं रह गया है. तब समझ में यही आता है कि हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता का मुद्दा यूपी में सपा और भाजपा दोनों ही पार्टियों के लिए फायदे का सौदा है. शायद यही वजह है कि कांठ मामले में दोनों पार्टियों की रणनीति सुविचारित है.
हिंदी पट्टी में कहाबत है कि जब तक बेवकूफ जिन्दा है, अक्लमंद भूखा नहीं मर सकता. धर्म की राजनीति में हम इस बात को इस रूप में कह सकते हैं कि जब तक लोगों में धर्मभीरुता है, तब तक साम्प्रदायिकता की राजनीति परवान चढ़ती रहेगी. यूपी की जनता बेवकूफ नहीं है, पर भोली-भाली धर्म-भीरु है, इसलिए साम्प्रदायिकतावादी नेता उन्हें बेवकूफ समझ कर उनकी धर्मभीरुता का लाभ उठाते हैं, उनकी बर्बादी और लाशों पर अपनी रोटियां सेकते हैं. यह खेल तब-तब खेला जाता है, जब-जब चुनाव होने वाले होते हैं. यूपी में चूँकि उपचुनाव होने वाले हैं, इसलिए यहाँ का सांप्रदायिक माहौल भी गरम होना शुरू हो गया है. इसी का नतीजा है लाउडस्पीकर के नाम पर मुरादाबाद का सांप्रदायिक बवाल. उस बवाल के लिए कांठ के अकबरपुर चैदरी गाँव में दलित बस्ती के वाल्मीकि मन्दिर को चुना गया. 26 जून को सुबह 9 बजे वाल्मीकि मंदिर पर लगे लाउडस्पीकर को मुरादाबाद पुलिस ने जबरदस्ती उतार लिया, विरोध करने पर वहां की औरतों पर लाठी-चार्ज किया. पुलिस ने लाउडस्पीकर इसलिए उतारा, क्योंकि सपा नेता की शिकायत थी कि गाँव के मुसलमान नाराज थे. यह एक गहरी साम्प्रदायिक साजिश थी, जिसका तानाबाना काफी पहले से बुना जा रहा था. पहली ही नजर में इस साजिश के पीछे सपा की भूमिका नजर आती है, जिसे अंजाम दिया मुरादाबाद की पुलिस ने. पुलिस ने बिना किसी छानबीन के, बिना किसी तफतीश के आनन-फानन में नेताजी का हुक्म बजा दिया. यह समझने की कोशिश ही नहीं की कि मन्दिर के लाउडस्पीकर से गाँव के मुसलमान नाराज थे या सपा के नेता? थोड़ी देर के लिए मान भी लें कि मन्दिर के लाउडस्पीकर से बजने वाली आरती से मुसलमानों की भावनाएं आहत हो रही थीं, तो उन्हें समझाना चाहिए था कि हमारे संविधान ने सभी समुदाय के लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता दी है. अपने-अपने धर्म के हिसाब से सभी को अपनी पूजा-उपासना करने का अधिकार है. यहाँ तक लाउडस्पीकर का सवाल है, तो उपासना-स्थलों पर अब उसका लगना आम चलन हो गया है. मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा सभी जगह तो लगे हैं लाउडस्पीकर. कहाँ-कहाँ से हटाओगे? कल को कोई आवाज उठायेगा कि रामलीलाएं बंद करो, मुहर्रम और धार्मिक जुलूसों पर पाबन्दी लगाओ, इससे हमारी भावनाएं आहत होती हैं, तो क्या संभव है इन सबको रोकना? ये कैसी भावनाएं हैं जो मन्दिर-मस्जिद के लाउडस्पीकरों से आहत हो जाती हैं?
हकीकत में न मन्दिर के लाउडस्पीकर से इस्लाम खतरे में पड़ता है और न मस्जिद के लाउडस्पीकर से हिन्दूधर्म खतरे में पड़ता है, क्योंकि हमारे धर्म इतने कमजोर नहीं हैं कि खतरे में पड़ जायें. भावनाएं या आस्थाएं भी आहत नहीं होती हैं, बस उनका राजनीतिक फायदा उठाने के लिए हमारे साम्प्रदायिकतावादी नेता भावनाएं आहत करने वाले शब्द जनता के मुंह में डालते हैं. इसलिए जनता को जागरूक होने की जरूरत है कि वह साम्प्रदायिक ताकतों का खिलौना बनने की कोशिश हरगिज न करे. इन साजिशों को समझने की जरूरत है. कांठ में भाजपा की महापंचायत को सपा सरकार ने रोका, ठीक किया. उसके विरोध में कांठ में बवाल हुआ, जिसमें मुरादाबाद के डीएम चंद्रकांत गंभीर रूप से घायल हुए. यह दोनों तरफ से साम्प्रदायिकता की राजनीति थी. सपा चूँकि सरकार में थी, इसलिए उसकी राजनीति महापंचायत को रोकने की ही हो सकती थी, जबकि विरोधी भाजपा ने बवाल कराकर राजनीति की. दोनों के काम आसान हो गये—हिन्दू भी ध्रुवीकृत हो गये और मुस्लिम भी. क्या यही धर्मनिरपेक्षता है कि हिन्दुओं को मुस्लिमों से लड़ायें और मुस्लिमों को हिन्दुओं से? क्या इसीलिए सपा और भाजपा के नेता रोज एक दूसरे के जहरीले बयान दे रहे हैं? अगर यही धर्मनिरपेक्षता है, तो रोजी-रोटी और विकास के सवाल तो ख़त्म, न हिन्दू सुरक्षित रहेंगे और न मुसलमान.
भाजपा की राजनीति के केंद्र में चूँकि आरएसएस का हिंदुत्व है, अत: आरएसएस के अनुषांगिक संगठन भी उससे जुड़े रहते हैं. इसलिए बवाल के बाद अब साधुपरिषद ने हिन्दू उन्माद को  भड़काने के लिए अकबरपुर चैदरी गाँव के वाल्मीकि मन्दिर में शिवरात्रि के दिन महाभिषेक करने का ऐलान किया है. इस महाभिषेक का धर्म से कुछ भी लेना-देना नहीं है. वह सिर्फ इसके जरिये भाजपा के पक्ष में माहौल गर्माना चाहती है. जाहिर है कि प्रशासन महाभिषेक को रोकेगा, जिसके खिलाफ भाजपाई सड़कों पर उतरेंगे. एक तरफ भाजपाई होंगे और दूसरी तरफ प्रशासन होगा और बीच में पिसेंगे मुसलमान, जो उसी तरह सपा के राजनीतिक मोहरे हैं, जैसे हिन्दू भाजपा के राजनीतिक मोहरे हैं. दोनों तरफ से घमासान होना तय है. इस घमासान को अगर कोई रोक सकता है, तो वह सिर्फ जनता ही है. मुझे लगता है कि चैदरी गाँव के दलितों को साधुपरिषद के महाभिषेक को रोकने का निर्णय लेना चाहिए. यह महाभिषेक उनके हित में नहीं है, बल्कि सामाजिक सद्भाव के हित में भी नहीं है. अगर साधुपरिषद उनकी हितैषी होती, तो क्या इससे पूर्व उनके मन्दिर में उसने कभी पूजा-अर्चना की?
14-07-2014


बुधवार, 9 जुलाई 2014


(पुन्य तिथि के अवसर पर विशेष)
दलित साहित्य का सौन्दर्य-बोध और भिखारी ठाकुर
कॅंवल भारती
हीरा डोम और भिखारी ठाकुर दोनों ही बिहार से थे और दलित वर्ग से आते थे। दोनों ही भोजपुरी के कवि थे और समकालीन भी। 1914 में जब हीरा डोम की कविता अछूत की शिकायत’ ‘सरस्वतीमें छपी थी, तो भिखारी ठाकुर उस समय 27 साल के थे। सरस्वतीमें हीरा डोम की कविता के छपने का अर्थ था कि वह चर्चित कवि थे, क्योंकि सरस्वतीमें वह कविता हीरा डोम के किसी प्रशंसक द्वारा भेजी गयी थी और महावीरप्रसाद द्विवेदी पर उसे छापने का सामाजिक दबाव भी जरूर रहा होगा। इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि भिखारी ठाकुर हीरा डोम को न जानते हों। लेकिन मेरे सामने विचारणीय सवाल यह है कि हीरा डोम की जिस क्रान्तिकारी चेतना ने दलित साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, वैसी कोई भूमिका भिखारी ठाकुर का विपुल लोक साहित्य भी नहीं निभा सका। निस्सन्देह भिखारी ठाकुर कला-साहित्य की एक पूरी संस्था थे। वह कवि, गायक, रंगकर्मी और कलाकार के साथ-साथ नाटककार भी थे। उन्होंने लगभग 29 लोककाव्य-नाटकों की रचना की, जो लोक में प्रतिरोध की महत्वपूर्ण दस्तक हैं। किन्तु जिस परिवर्तनवादी सौन्दर्य-चेतना उनसे अपेक्षा थी, वह उनके लोकनाटकों में अनुपस्थित है। भिखारी ठाकुर ने अपने नाटकों में वर्ण और जाति के सामन्ती ढाॅंचे पर कोई प्रहार नहीं किया है, वरन् वे उन समस्याओं को उठाते हैं, जो पिछड़े समाज में अपनी बेटियों को बेचने, विधवा स्त्रियों की उपेक्षा, नशाखोरी, जुआ, व्यभिचार, जिसे वे कलियुग-प्रेम कहते हैं, वृद्धों की बेकद्री और रोजगार के लिये गरीबों का गाँव से पलायन की समस्यायें थीं। वे कहीं भी वर्णव्यवस्था और जाति की समस्या पर प्रहार नहीं करते, ब्राह्यणवाद पर भी चोट नहीं करते और न सामन्तवादी दमन के खिलाफ आवाज उठाते हैं। यद्यपि, उनके नाटक इस आधार पर अवष्य ही लोक साहित्य में प्रतिरोध की भूमिका निभाते हैं कि पौराणिक नाटकों के उस युग में उन्होंने यथार्थवादी नाटकों का सृजन और मंचन किया, पर वे अपने नाटकों में उन समस्याओं के लिये उत्तरदायी धर्म-व्यवस्था पर कोई सवाल खड़ा नहीं करते हैं, जबकि दलित कवि हीरा डोम की एक मात्र उपलब्ध कविता अछूत की शिकायतन केवल वर्णव्यवस्था, बल्कि ईष्वर की भी पूरी सत्ता को कटघरे में खड़ा कर देती है। क्या कारण है कि शोषित वर्ग से आने वाले इन दोनों कवियों की सौन्दर्य चेतना अलग-अलग है? क्यों भिखारी ठाकुर अपने समय के सामाजिक परिवर्तनवादी आन्दोलन से भी परिचित दिखाई नहीं देते हैं? क्या इसका कारण यह माना जाय कि सामाजिक स्तर पर अस्पृष्यता के जिस अलगाववादी वातावरण में अछूत जातियाॅं रह रही थीं, पिछड़ी जातियाॅं उससे मुक्त थीं? अस्पृष्यता से मुक्ति की आकांक्षा ने ही हीरा डोम समेत उस दौर के सभी अस्पृष्य कवियों को वर्णव्यवस्था का विद्रोही बनाया, और इसीलिये उनका साहित्य समतावादी समाज के निर्माण का घोषणा-पत्र है। लेकिन यह आष्चर्यजनक ही है कि भिखारी ठाकुर अपने समय के दलित नवजागरण के उस आन्दोलन से, जो वर्णव्यवस्था के विरोध में था, कैसे बेखबर रहे, जबकि उसमें पिछड़ा वर्ग भी उतना ही सक्रिय था, जितना कि अस्पृष्य वर्ग था?
बताया जाता है कि भिखारी ठाकुर पर बंगाल के नवजागरण का प्रभाव पड़ा था। भिखारी ठाकुर रचनावलीके सम्पादक नागेन्द्र प्रसाद सिंह अपने सम्पादकीय में लिखते हैं-भिखारी ठाकुर बंगाल के पुनर्जागरण आन्दोलन से प्रभावित होकर जब अपने गाँव कुतुबपुर (सारण) लौटे, तो उन्होंने अपने समाज और उसकी विविध सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक समस्याओं को बड़ी सूक्ष्मता तथा सम्वेदनशीलता से देखा। पहले से चल रहे किसी आन्दोलन की धारा में सम्मिलित हो विलीन हो जाने के बदले उन्होंने अपनी शैक्षिक क्षमता, जातीय स्थिति और अन्तर्निहित वैयक्तिक विषेषताओं पर चिन्तन किया तथा सकारात्मक ढंग से पुनर्जागरण को लोकनाटक, लोकभजन, गीत, कविता और तमासाके माध्यम से भोजपुरिया समाज में पहुँचाने का निर्णय लिया।लेकिन जब वह आगे लिखते हैं कि उस काल-खण्ड में भोजपुरी क्षेत्र के सामन्तों और जमींदारों ने भी भिखारी ठाकुर को सम्मान, संरक्षण और सहयोग प्रदान किया, तो साफ हो जाता है कि भिखारी ठाकुर का नाट्य-लेखन और रंग-कर्म समाज के मूल ढांचे को नहीं तोड़ रहा था, इसलिये सामन्तवाद-विरोधी नहीं था।
बेहतर होगा यदि हम भिखारी ठाकुर के सौन्दर्य-बोध को उनके नाटकों से ही समझें। उनका एक नाटक है बिरहा-बहार’, जिसमें धोबी-नाचऔर धोबी-कर्म की महिमा गायी गयी है। इस नाटक में भिखारी ठाकुर ने धोबी और धोबिन के मुख से जिस तरह ब्राह्यणवाद और देवी-देवताओं में अन्धविष्वास का प्रचार कराया है, उससे साफ हो जाता है कि वह सामन्तों के लिये कितने जरूरी कवि थे। नाटक आरम्भ होने से पहले सूत्रधार की कुछ पंक्तियों में हलके प्रतिरोध की एक झलक भी हमें मिलती है, पर वे पंक्तियां  भिखारी ठाकुर की नहीं हैं, बिहारी कवि की हैं। वे पंक्तियां  इस प्रकार हैं-
                सिन्धु की कुमारी, देख दीनता हमारी, वर्षा वो धूप, जाड़ा, तीनों सहना पड़ा।

                जोहना पड़ा आनन्दहिं दिमागदार लोगन को, अधम अबुधन को बोल सहना पड़ा।
                कहे बिहारीकवि, लक्ष्मी तुम्हारी हेतु, भारी-भारी चूतियन को चतुर कहना पड़ा।
                                            (भिखारी ठाकुर रचनावली, पृष्ठ 180)
इसके बाद अनेक देवी-देवताओं की आरती करते हुए धोबी और धोबिन नाचते हैं और एक-दूसरे से सम्वाद करते हैं। कुछ सम्वाद यहाँ  द्रष्टव्य हैं-
धोबी-  चलती बहुत बा तोहार मइया डांकनी, कि विद्या से बानी कमजोर।
                कहे भिखारी’  लाजे   मरत  बानीनईया   भइल चहूँ ओर।।
धोबिन- आमी के अम्बिका-भवानी के मनावत बानी, जहाँ  बहे गंगा के धार।
                कहे  भिखारी  दया  करिके देवी, भव-जाल से करहू  हमें  पार।।
धोबी-  साधू   पंडित   के   चरनन   में,    सदा    रहऽ    लवलीन।
                कहे  भिखारी’  तूं सेखी  देखइबूहो  जइबू कउड़ी के तीन।।
धोबिन- चार   वेद   जिनका   मुख  में,   चरनन   में   चारों   धाम।
                कहे   भिखारी’   ब्राह्यण-पद   के,   सुमिरऽ   आठों   जाम।।
                                                (वही, पृष्ठ 180-81)

धोबी और धोबिन के बीच यह सम्वाद लम्बा चलता है। आगे इसी सम्वाद में धोबी- शिव की शरण जाने, धोबिन- उमा उमा और फिर आगे राम राम, सीताराम, राधे रमन और कृष्ण-कृष्ण कहने में ही दानों प्राणी सकल पापों से मुक्ति मानते हैं। यहाँ भिखारी ठाकुर ब्राह्यणवाद में अपनी पूरी आस्था व्यक्त करते हुए ब्राह्यण के चरणों की वन्दना करने में ही चारों वेदों को पढ़ने और चारों धामों की यात्रा करने का पुण्य मानते हैं। ब्राह्यणवाद के प्रति जिस लोककवि का यह सौन्दर्यबोध हो, उसका विरोध ब्राह्यण और सामन्त क्यों करेंगे?
आगे चलकर इसी सम्वाद में वर्णकर्म का समर्थन और धोबी के जातीय पेशे का आध्यात्मीकरण भी मिलता है। धोबिन कहती है-
                जातिक के काम सब केहु छोड़ देतु बाटे, छोड़ऽ दऽ  धोअलाका के नेम।
                सेत छोड़ी के खेती करऽ, बोअऽ, तरकारी, फर हाट में बेचबऽ साग-सेम।।
                                                            (वही, पृष्ठ 182)

इस नाटक का रचना-काल 1924 का है। यह भारत में दलित आन्दोलन के चरम उत्कर्ष का दौर था। स्वतन्त्रता, समानता और स्वाभिमान की इस लड़ाई में अछूत जातियां सभी राज्यों में अपने पारम्परिक गन्दे पेशों का परित्याग कर रहीं थीं। भिखारी ठाकुर ने इसी के विरोध में इस नाटक की रचना की थी। धोबिन कहती है, सब लोग जाति के पेशे छोड़ रहे हैं। क्या हम भी अपने धोबन का काम छोड़ दें? परम्परा छोड़कर खेती करें और तरकारी बोकर हाट में जाकर बेचें? धोबी जवाब देता है- कोइरी (सब्जी उगाने वाली जाति)  साग को धोता है, तमोली पान को धोता है और पुरोहित कथा का ज्ञान बांच कर जजमान के मन को धोता है। यथा-
कोइरी   धोअत  साग  केधोवत  तमोली   पान।
                जजमानिका के पुरोहित धोवत, कर्मकाण्ड कथी ज्ञान।।
                                                    (वही)
धोबी के इन शब्दों से भिखारी ठाकुर सन्देश दे रहे थे कि धोबी का पेशा गन्दा नहीं है, क्योंकि सभी लोग धोने का काम करते हैं। अछूत जातियों को हिन्दू गांवों में सिर पर साफा, हाथ में घड़ी और नया कपड़ा पहनने की इजाजत नहीं थी। वे घुटनों से नीचे चुन्नट वाली धोती भी नहीं पहन सकते थे। इसका उल्लंघन अपराध माना जाता था। इस पर भिखारी ठाकुर एक हल्का सा विरोध धोबी से कराते हैं। वह कहता है-
                मथवा में बवडि़या जोडि़या, हथवा बान्हल घडि़या,
                अगवा लटकल बाटे धोतिया के चून।
                हमहू पहिरबऽ नया कपड़ा, देख लीह बिहान से।
                कहे भिखारीनेह लगाव, सीताराम भगवान से।।
                                              (वही)
धोबी धोबिन से कह रहा है कि देख लेना, वह कल से हाथ में घड़ी भी बांधेगा, नया कपड़ा भी पहनेगा और घुटनों के नीचे चुन्नट वाली धोती भी। अवष्य ही अछूत जातियां स्वाभिमान के साथ जीने का साहस कर रहीं थीं, पर भिखारी ठाकुर यहाँ धोबी को सीताराम भगवान से नेह लगाने की भी सीख दे रहे हैं, जिसका अर्थ है, ब्राह्यणों और सामन्तों के प्रति भक्ति-भाव बनाये रखना, अर्थात् उनकी व्यवस्था को बनाये रखना। भिखारी ठाकुर की यह सामन्तवादी सौन्दर्य-चेतना समकालीन दलित आन्दोलन के लिये कितनी घातक थी?

भिखारी ठाकुर का एक नाटक है गंगा-स्नान’, जिसमें वह उस हिन्दू स्त्री के आदर्श को प्रतिष्ठित करते हैं, जिसके लिये पति-सेवा ही स्त्री-धर्म है। इस नाटक का रचना-काल 1934 का है। इस नाटक में, नागेन्द्र प्रसाद सिंह के अनुसार, 1934 में आयी गंगा की बाढ़ का संकेत मिलता है। (वही, पृष्ठ 132)  नाटक के आरम्भ में ही एक सखी दूसरी सखी से कहती है-
                हम ना जाइब गंगा का तीर।  घर हीं बाड़न श्री रघुबीर।।
                पतिब्रत छाडि़ धर्म नहीं दूजा। करब न और देव के पूजा।।
                                            (वही, पृष्ठ 133)
जिस तरह तुलसीदास ने कलियुग को अधर्म का युग कहा है और जिस तरह सारे हिन्दू धर्मगुरु भ्रष्टयुग के रूप में कलियुग की निन्दा करते हैं, उसी तरह के विचार भिखारी ठाकुर के भी थे। वे भी कलियुग को अधर्म का युग मानते थे, जिसमें सारी नैतिक मर्यादायें टूट जाती हैं, लोग शराबी, व्यभिचारी, हर तरह का पाप करने वाले, नास्तिक और अधर्मी हो जाते हैं, इत्यादि। इसी कलियुग-प्रेम पर उन्होंने एक नाटक लिखा था, जिसका शीर्षक है-पियवा निसइल’, यानी शराबी पति। शराबी भी ऐसा-वैसा नहींबल्कि चैबीसो घण्टे नशे में रहने वाला। नशे के लिये वह अपना सब-कुछ बेच देता है, खेत-जमीन, घर का सामान, यहाँ तक कि घर की चैखट-किबाड़ भी उखाड़ कर बेच देता है। पत्नी और दोनों बच्चे इतने दुखी हैं कि उन्हें दो वक्त की रोटी तक मयस्सर नहीं हो रही है। इसी बीच बड़ा बेटा भाग कर कलकत्ता चला जाता है। लेकिन इसी दरम्यान शराबी पति दूसरी औरत को रखैल बनाकर घर में ले आता है। उसकी पत्नी और भी दुखी होती है। पर सब्र करती है और उस औरत को भी रहने देती है। वह उस दूसरी औरत से विनती करती है कि वह उसके पति को नशा छोड़ने के लिये मनाये, पर वह औरत उल्टे उसी को बुरा-भला कह कर धमकाने लगती है। यह नाटक दलित स्त्री को मनु के कानून के तहत पति के चरणों में ही रहने की शिक्षा देता है, भले ही उसका पति कितना ही पतित और अत्याचारी क्यों न हो।
(पूरा लेख मेरी पुस्तक लोक में प्रतिरोधमें मौजूद है, जो प्रकाशनाधीन है)