मंगलवार, 24 जनवरी 2017

रामगोपाल परदेसी
(कँवल भारती)

1974 में मेरे मित्र वाचस्पति मिश्र ‘अशेष’ ने मुझे प्रगति प्रकाशन, आगरा में नौकरी दिलवा दी थी. उसके संचालक रामगोपाल परदेसी से उनके अच्छे संबंध थे. एक बार जब वह मार्च के किसी दिन रामपुर उनसे मिलने आये, तो उसी समय उन्होंने उनसे मेरा जिक्र किया और बात बन गयी. उस समय उनके प्रकाशन की किताबों के बिल बहुत से कालेजों और पुस्तकालयों में सालों से लम्वित पड़े थे, जिसकी वसूली के लिए उन्हें एक प्रतिनिधि की जरूरत थी. इसलिए उन्होंने अशेष जी के कहने से मुझे प्रतिनिधि की नौकरी देने का वायदा कर लिया था. एक हफ्ते बाद अशेष जी ने परदेसी जी के नाम एक पत्र लिखकर दिया और कहा, तुरंत आगरा इस पते पर चले जाओ, यहाँ प्रकाशन में काम करना है और इन्हीं के यहाँ रहना है. मैंने एक अटैची में कुछ जरूरी कपडे और लिखने-पढ़ने का सामान रखा, जिसमें चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु की किताबें, मुझे लिखे गए उनके खत और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित अपनी कविताओं की कतरनें, जो एक मोटी कापी में मैंने चिपकाकर रखीं थीं, शामिल था. और मुरादाबाद स्टेशन से, क्योंकि रामपुर से आज भी आगरा के लिए कोई ट्रेन नहीं जाती है, मैं आगरा पैसेंजर में बैठ गया. टिकट और रास्ते के खर्च के पैसे भी अशेष जी ने दिए थे. सुबह छह-सात बजे के करीब ट्रेन आगरा सिटी पहुंची, और मैं वहीँ उतर गया. लोगों से पूछते हुए दिए गए पते पर मैं परदेसी जी के घर पहुंचा. उस मुहल्ले का नाम मैं भूल चुका हूँ, पर इतना याद है कि घर दो मंजिला था. मुझे जो कमरा सोने के लिए दिया गया था, वह ऊपर था, खाना भी मैं ऊपर ही बैठकर खाता था. शुरू में तो मुझसे नौकरों वाले काम कराये गए, जिसे मैं यहाँ उल्लेख करना उचित नहीं समझता. शाम को बीयर और शराब की बोतल भी परदेसी जी मुझसे ही मंगवाते थे, जिसके लिए मुझे लगभग आधा किलोमीटर पैदल जाना पड़ता था. उन दिनों मुझे शराब की गंध भी बुरी लगती थी. पर वहाँ शराब की दूकान से लेकर आना पड़ता था. मजबूरी जो न करा ले! मुझे अभी आगरा आये हुए एक हफ्ता ही बीता था कि यूनिवर्सिटी के किसी काम से अशेष जी का आगरा आना हुआ. उन दिनों रामपुर-मुरादाबाद के सभी कालेज आगरा यूनिवर्सिटी से ही जुड़े हुए थे. रूहेलखंड यूनिवर्सिटी उस समय तक अस्तित्व में नहीं आई थी. अशेष जी परदेसी जी के घर पर ही ठहरे. रात को फिर बोतल मंगाई गयी. मैं अशेष जी को पहली बार बीयर पीते हुए देख रहा था. मैं खड़ा हुआ उनकी सेवा कर रहा था, कभी पानी लाता, कभी सोडा तो कभी अंदर से पकोडे लेकर आता. नशे की पिनक में मैं अब परदेसी जी का बेटा हो गया था. नशे में अशेष जी से बोले जा रहे थे, ‘यह तो मेरा बेटा है...बहुत मेहनती है....अब तो सब यही संभालेगा...मैंने इसे मालिक बना दिया..’ यह कहते हुए उन्होंने जो हाथ उठाया, तो वह मेज पर रखे उनके गिलास पर लगा, और गिलास मय शराब के फर्श पर गिरकर चूर-चूर. पर फर्श पर बिखरे कांच और शराब को भी इस बंदे को ही उठाकर साफ़ करना पड़ा था.
‘प्रगति प्रकाशन’ बैतुल बिल्डिंग में था. जगह काफी बड़ी थी. एक दिन परदेसी जी मुझे बिल्डिंग के ऊपर ले गए. ऊपर मीटिंग हाल था, जिसकी दीवालों पर चारो ओर हिन्दी के प्रख्यात साहित्यकारों के चित्र लगे हुए थे. पर बिल्डिंग खस्ता थी. पूरे फर्श पर दरियां बिछी थीं, और सब तरफ धूल ही धूल थी. उन्होंने मुझे झाडू लेकर पूरे हाल को साफ़ करने का हुक्म दे दिया. मरता क्या नहीं करता. पूरे हाल को साफ़ करते हुए, मैं धूल से लथपथ हो गया था और कई दिन तक मेरी साँस फूलती रही थी.
रामगोपाल परदेसी के यहाँ रहते हुए भी मुझे कभी उनसे व्यक्तिगत रूप से बोलने-बतियाने का अवसर नहीं मिला था. हालाँकि वह एक अच्छे गीतकार थे. उसी महीने उनका एक गीत ‘सरिता’ में प्रकाशित हुआ था, जिसका अंक उन्होंने मेरे साथ ही आगरा कैंट रेलवे स्टेशन से, जब वह मुझे जलगाँव के लिए विदा करने गए थे, खरीदा था. एक कविता संग्रह भी उनका प्रकाशित हो चुका था. उनके द्वारा सम्पादित और प्रकाशित ‘भारतीय लेखक कोश’ भी उन दिनों बहुत चर्चित था. लेकिन जो साहित्यिक चर्चाएँ और विमर्श दो लेखकों के बीच होते हैं, वह हम दोनों के बीच कभी नहीं हुआ.
 जिस काम के लिए परदेसी जी ने मुझे रखा था, वह दिन भी आया. अप्रेल 1974 की किसी तारीख को उन्होंने मुझे भिंड, ललितपुर, टीकमगढ़, झाँसी, कानपुर, फ़ैजाबाद, गाजीपुर, इलाहाबाद, बलिया, गोरखपुर, देवरिया और बस्ती आदि जिलों के कालेजों और पुस्तकालयों से उनके लम्वित बिलों का भुगतान लाने के लिए लगभग दो महीने का एक टूर बनाकर भेज दिया. कुछ कालेजों में किताबें भी देनी थीं. सो किताबों का एक बड़ा गट्ठर भी उन्होंने थमा दिया था. रास्ते के खर्च के लिए दो सौ रूपये दिए, और कहा कि, जहाँ भी ठहरो, वहाँ का फोन नम्बर देना, मैं बात करता रहूँगा, और पैसे खत्म हो जाएँ, तो बता देना. पर उन्होंने सिर्फ एक बार मुझे कानपुर शहर में ‘केयर आफ पोस्टमास्टर’ मनीआर्डर भेजा था. मुझे कुछ जिलों में कई-कई दिन तक रहना पड़ा था. इन सभी जिलों में मैं अक्सर धर्मशालाओं में ही ठहरता था, और खाना बाहर खाता था. उन दिनों लगभग हर जिले में मारवाड़ी भोजनालय होते थे, जहां रुपए-दो रूपये  में पेट भर जाता था.
इस टूर में मुझे बहुत सारे अच्छे अनुभव भी हुए और खराब भी. सबसे ज्यादा खराब अनुभव मुझे बलिया में हुआ था. वहाँ मुझे गाँव के एक ऐसे स्कूल में जाना था, जहाँ जाने का कोई साधन मुझे नहीं मिला था, और मुझे लगभग पन्द्रह किलोमीटर पैदल चलना पड़ा था. मैं गर्मी से बेहाल था, प्यास से हलक सूख रहा था, पर रास्ते भर कोई नल नहीं मिला था. स्कूल से वापस भी पैदल ही आना हुआ था. उस दिन मुझे इतनी थकावट हो गयी थी कि सीधे धर्मशाला में जाकर सो ही गया था.
देवरिया में मेरी मुलाकात बन्धुप्रसाद मौर्या से हुई थी, जो वहां के चर्चित बहुजन नेता थे. मैं वहाँ जिस धर्मशाला में ठहरा था, उसके आसपास ही एक सिनेमाहॉल था. मुझे पिक्चर देखने का शौक था. मैं जब वहाँ गया, तो गेट में घुसते ही सीधे हाथ को मुझे एक किताबों का खोखा नजर आया. खोखे में डा. आंबेडकर का चित्र लगा था, जिसने मुझे प्रभावित किया. पर मैंने पिक्चर देखने के बाद खोखे पर जाने का मन बनाया. उस दिन शायद रविवार था. उसमें ‘सात हिन्दुस्तानी’ फिल्म लगी हुई थी. तीन बजे पिक्चर छूटने के बाद जब मैं खोखे पर गया, तो वहाँ धोती-कुरता पहिने और टोपी लगाये एक सज्जन बैठे हुए थे. मैंने उनको नमस्कार किया और अपना परिचय दिया. बातचीत शुरू की, तो पता चला कि वह बन्धुप्रसाद मौर्य थे, और आंबेडकर आन्दोलन से जुड़े थे. उस समय तक मेरी एक किताब ‘बुद्ध की दृष्टि में ईश्वर, ब्रह्म और आत्मा’ छप चुकी थी. उसकी कुछ प्रतियाँ रामपुर से साथ लाया था, जो इस टूर में भी मेरे साथ थीं. दूसरे दिन मैंने उसकी एक प्रति उन्हें भेंट की. उस दिन संयोग से वह मुझे अपने घर ले गए, जो सदर क्षेत्र में ही एक गाँव में था. घर पक्का बना हुआ था और मुझे यह देखकर खुशी हुई थी कि उस दौर में गाँव में भी बहुजन समाज का कोई व्यक्ति इतनी शान से रह रहा था. रात का खाना मैंने उनके घर पर ही खाया था. मैं देवरिया किस तारीख को पहुंचा था और कब तक रहा था, इसका विवरण जिस डायरी में दर्ज था, वह फिलहाल मिल नहीं रही है. जब भी मिलेगी, मैं उसका विवरण जरूर दूँगा.
इस टूर में मुझे हिन्दी के कुछ साहित्यकारों से भी मिलने का अवसर मिला था, जो मेरे लिए उस समय एक बड़ी उपलब्धि थी. इससे सम्बंधित मेरा एक लेख रामपुर के साप्ताहिक ‘सहकारी युग’ के 5 फरवरी 1977 के अंक में छपा था. उसके अनुसार, मैं 4 अप्रेल 1974 को फ़ैजाबाद में साकेत महाविद्यालय के विभागाध्यक्ष एवं रीडर डा. राजनारायण मिश्र से मिला था. दामोदर धर्मशाला में मैंने अपने ठहरने का प्रबंध कर लिया था और एक अलमारी में अपना सामान रखकर ताला भी मार आया था. किन्तु डाक्टर साहब के स्नेह ने मुझे धर्मशाला नहीं जाने दिया. उस रात उन्होंने मुझे अपने घर पर ही रोक लिया. किसी ब्राह्मण के घर ठहरने का मेरे जीवन का यह पहला अवसर था. प्रेम से उन्होंने मुझे भोजन कराया, आंवले का मुरब्बा खिलाया, जिसे मैं गुलाबजामुन समझने की भूल कर रहा था. मुझे उनके और उनके घर के किसी भी सदस्य से जातीय व्यवहार की अनुभूति नहीं हो रही थी, जबकि उन्हें मेरी जाति के बारे में मालूम था. रात्रि के भोजन के बाद उन्होंने मुझे अपने ही कमरे में सुलाया. अचानक वह मुझसे बोले, ‘तुम टूर पर हो और लिखते भी हो, कभी सोचा है, यह टूर तुम्हारे लेखन में सोने में सुगंध ला सकता है.’ मैंने मौन रहकर अपनी अनभिज्ञता का संकेत दिया, तो उन्होंने कहा, ‘आजकल नया साहित्य चर्चा का विषय बना हुआ है. किन्तु आज का विद्यार्थी वर्ग इसके सैद्धांतिक पक्ष से कितना परिचित है? यह ऐसा विषय है, जो नए साहित्य के यथार्थ को प्रकाश में ला सकता है. इस विषय पर तुम एक परिचर्चा आयोजित करो और जहां-जहां जाओ, वहाँ के कुछ विद्वानों से मिलकर उनके विचारों को लिपिबद्ध कर लो.’
डा. मिश्र का एक अच्छे विषय पर यह बहुत ही अच्छा सुझाव था. उनके सहयोग से एक प्रश्नावली भी तैयार हो गयी, जिसमें छह प्रश्न थे, जो इस तरह थे—
1.      आधुनिक नयी कविता में सम्प्रेषण की क्या स्थिति है?
2.      रूपवादी आलोचना साहित्यिक मूल्यांकन की कहाँ तक उचित कसौटी है?
3.      आज के साहित्य में नग्नता का अधिक चित्रण क्यों है?
4.      आज का विद्यार्थी वर्ग नए युगबोध और सौन्दर्यबोध से परिचित क्यों नहीं हो पाता?
5.      आज का विद्यार्थी सृजनात्मक साहित्य में अधिक रूचि क्यों नहीं ले पाता? और,
6.      विद्यार्थी और साहित्यकार के मध्य आज असम्पृक्ति की स्थिति क्यों है?
इन प्रश्नों पर मैंने बस्ती, गोरखपुर, कुशीनगर और गाजीपुर के साहित्यकारों से भेंट की थी और उनके विचारों को मैंने लिपिबध्द किया था. इनमें डा. राजकुमार पाण्डेय, डा. गोपीनाथ तिवारी, डा. जयप्रकाश नारायण त्रिपाठी, डा. विवेकी राय और डा. मोती सिंह शामिल थे. डा. राजनारायण मिश्र ने भी अपने जवाब लिखवाये थे. पर मैं इनमें से सिर्फ डा. राजकुमार पाण्डेय और डा. मोती सिंह के विचारों को ही सुरक्षित रख सका, शेष सब सारे जवाब आगरा-कांड में स्वाहा हो गए. उसमें परिचर्चा के सूत्रधार और प्रेरक डा. राजनारायण मिश्र के विचार भी थे.
28 मई 1974 को मेरा टूर समाप्त हो गया था. और जैसा कि मैंने डा. मिश्र को आश्वासन दिया था, एक-दो महीने में परिचर्चा को कहीं छप जाना चाहिए था. पर ऐसा नहीं हो सका. इसके दो कारण थे, एक तो मैं उस परिचर्चा को लेखबद्ध नहीं कर सका था, और दूसरे, मैं अपना सारा सामान आगरा में ही छोड़कर रामगोपाल परदेसी की जेल से भाग आया था. बहुत थोड़ा सामान अपने साथ लाया था, जिसमें संयोग से डा. राजकुमार पाण्डेय और डा. मोती सिंह के जवाब भी मेरे साथ चले आये थे. इसलिए मैं केवल उन दोनों के ही विचारों को छपवा पाया.

      असल में इस टूर में मैं रामगोपाल परदेसी के व्यवहार से बहुत दुखी हो गया था. मैं किस तरह अपना खर्चा चलाता था, यह मैं ही जानता था. बहुत बार तो मैं रात को बिना खाना खाए ही सो जाता था. उनको फोन करता था, तो उसमें भी पैसे खर्च होते थे. उन दिनों PCO तो थे नहीं, मुझे डाकखाने से ही फोन करना होता था. फिर सफर में तमाम तरह के खर्च होते थे, कपड़े धोने के लिए साबुन का खर्च, प्रेस कराने का खर्च, रिक्शे का खर्च, चाय-नाश्ते और दोनों समय के खाने का खर्च और धर्मशाला का किराया, मरी सी बात को इस सब के लिए उन दिनों बीस रूपये रोज तो चाहिए थे. वह चाहते थे कि उनका कोई पैसा खर्च न हो और मै हवा सूंघकर उनका सारा काम कर के आ जाऊं. जब मैं टूर से वापिस आया, तो उसके दूसरे दिन ही उन्होंने मुझे एक नक्शा देकर महाराष्ट्र के दौरे पर भेज दिया. मैं तुरंत ही टूर के लिए तैयार नहीं था, क्योंकि एक तो मेरी तबियत खराब हो गयी थी, और दूसरे तीन महीने हो गए थे, मुझे अपनी माँ की बहुत याद आ रही थी. मैंने उनसे कहा कि मैं दो-चार दिन के लिए घर जाना चाहता हूँ. पर वह नहीं माने. और उन्होंने मुझे वेतन बढ़ाने का प्रलोभन देकर, जो मुझे कभी मिला ही नहीं था, जबरन टूर पर भेज दिया. आगरा केंट रेलवे स्टेशन पर वह मुझे खुद छोड़ने आये थे. उन्होंने मुझे जनरल क्लास का टिकट खरीद कर दे दिया था. ट्रेन कौन सी थी, यह याद नहीं है. पर मेरे अंदर तो कुछ और ही उबल रहा था. जैसे ही वह मुझे सब कुछ सौंपकर विदा हुए, मैंने तुरंत अपना विचार बदला और जलगांव की ट्रेन छोड़कर, मुरादाबाद जाने वाली ट्रेन में बैठ गया. अपना सारा सामान परदेसी जी के घर पर ही छोड़ दिया, जिसमें जिज्ञासु जी की किताबों, और उनके खतों के साथ-साथ मेरे लिखने-पढ़ने का भी सामान था, मैं रामपुर आ गया, बहुत सारा पाने के लिए बहुत सारा खोकर.

रविवार, 22 जनवरी 2017

आर. डी. सागर
(कँवल भारती)
एक थे आर. डी. सागर. हमारे दोस्त भी थे और सरपरस्त भी. हमसे दुगनी उमर के थे. पर दिलफेंक इंसान थे. शौकीन मिजाज थे. खूबसूरत भी थे और बातों में भी उनकी, बला का सम्मोहन था. इस वजह से वह हमेशा औरतों से घिरे रहते थे, आज उसके साथ, तो कल किसी और औरत के साथ उनका शगल बन चुका था. हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी तीनों जुबानें बखूबी लिख पढ़ लेते थे. हर किस्म की शेरोशायरी कर लेते थे, इसलिए कुछ मुस्लिम औरतों से भी उनकी दोस्ती हो गयी थी. उन्हीं में एक औरत उन्हें ऐसी मिल गयी कि उसने अल्टीमेटम दे दिया, कि बस अब अगर और किसी औरत से मिले या उसके साथ मैंने देख लिया, तो वहीँ तुम्हारा खोरिया कर दूंगी. वह बिजली विभाग में मुलाजिम थे. इसी बीच उनका प्रोमोशन हुआ और लखनऊ पोस्टिंग मिली. संयोग से मैं भी उन दिनों लखनऊ में ही रहता था. यह 1984 की बात है. शुरू में एक हफ्ता वह हमारे साथ ही रहे, जब तक उन्होंने अपना अलग कमरा नहीं ले लिया. महानगर में उनका दफ्तर था, जहाँ से पांच बजे छूट कर वह छह बजे तक इंदिरा नगर में हमारे घर आ जाते थे. पर एक दिन रात के आठ बज गए, वह नहीं आये. हमने सोचा, हो सकता है, दफ्तर से ही रामपुर निकल गए हों. सो हम खाना खाकर सो गए. उस समय तक शराब पीने की लत न मुझे लगी थी और न उनको. बाद में ऐसी लत लगी कि वह शराब में ही मरे और मैं भी मरने ही वाला हूँ. खैर, उस दिन वह रात को दस बजे आये. परेशान हाल. पूछा, कहाँ रहे अब तक? 
बोले, उसने आज खोरिया कर दिया.
मैंने पूछा. किसने? 
हुजूर जहाँ ने.
यह कौन है?
है, एक, रामपुर में मुलाकात हुई थी, अब पीछे पड़ गयी है. 
क्यों पीछे पड़ गयी है? मामला क्या है?
बोले, आज उसने खोरिया कर दिया.
कहाँ?
निशातगंज के चौराहे पर मंदिर के पास (जब फ्लाईओवर नहीं बना था) 
कैसा खोरिया, मैंने पूछा.
बोले, उसके दिमाग में यह फितूर भर गया कि मैं लखनऊ में किसी औरत के पास रह रहा हूँ. बस वह यहाँ आना चाहती थी. यहाँ मैं उसे ला नहीं सकता था. इसलिए इधर-उधर घुमाकर उसे कैसरबाग बस अड्डे पर रामपुर के लिए बस में बिठाकर आ रहा हूँ. आज ही दफ्तर से कुछ पैसा मिला था, वह भी ले गयी. 
मेरा हँसते-हँसते बुरा हाल. और वह बोले, यार अब कमरा लेना ही पड़ेगा. और कुछ ही दिनों में उन्होंने इंदिरानगर में ही बी ब्लाक में कमरा किराये पर ले लिया और हुजूर जहाँ का भी आना-जाना शुरू हो गया.
रामपुर में एक जमात सूफियों की है. सागर साहब का उठाना-बैठना उसी जमात में था. उन्होंने मुझे भी कई सूफी परिवारों से मिलवाया था. वे एक दूसरे का हाथ चूम कर अभिवादन करते थे. उनकी संगत में रहकर सूफीवाद का रंग मुझ पर भी चढ़ गया था. और इतना गहरा चढ़ा कि अब तक नहीं उतरा है. इसी प्रभाव में मैंने रामपुर में सूफीवाद पर काम किया और कुछ जीवित सूफियों के बारे में लिखा भी. उन्हीं में एक आबिद अली हैं, जिनके सूफी कलाम की एक किताब सागर साहब ने मुझे पढ़ने को दी थी. मैंने उसे उर्दू से हिंदी में किया और आज का कबीरनाम से उन पर सह्कारीयुगमें, जहाँ मैं कम करता था, एक लेख भी लिखा. 
सागर साहब तो अब नहीं रहे, पर उनकी दी हुई वह किताब आज भी मेरे पास सुरक्षित है. जिसे पढकर मैं उनकी यादों में अपनी ऑंखें नम कर लेता हूँ.
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उनके सूफीवाद का जिक्र करने से पहले मैं यह बता दूँ कि वह रामपुर के जाटव समाज में सबसे शिक्षित और प्रतिष्ठित परिवार से आते थे. आज से पचास साल पहले जब उनके एक भतीजे ने स्नातक किया था, तो उसकी मिठाई हमारे घर तक आई थी, जबकि उनका मुहल्ला हमारे घर से तीन किलोमीटर दूर था. इसका कारण यह था कि वह रामपुर के जाटव समाज में पहला लड़का था, जिसने ग्रेजुएशन किया था. सागर साहब भी उस समय तक ग्रेजुएट नहीं हुए थे, हालाँकि बाद में उन्होंने नौकरी के दौरान वकालत भी पास कर ली थी. वह बताते थे कि वह मेरे पिता के शिष्य थे. मेरे पिता किसी स्कूल में टीचर नहीं थे. पर सुना था कि वह घर पर बिरादरी के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते थे, जिनमें वह (सागर साहब) भी, जब प्राइमरी में थे, तो पढ़ने आते थे. यह मेरे जन्म से पहले की बात है. मैंने अपने होश में कभी अपने पिता को ट्यूशन पढ़ाते नहीं देखा. पर मेरी  माँ बताती थी कि मेरे पिता बच्चों को पढ़ाते थे. शायद इसीलिए मेरे पिता बिरादरी में मास्टर साहब के नाम से मशहूर थे.
लेकिन मेरा परिचय सागर साहब से तब हुआ, जब मैं हाईस्कूल का छात्र था. यह 1968 की बात है, उनके घर पर रविदास जयंती का कार्यक्रम था. उस समय तक कविता में तुकबंदी करने की बीमारी मुझे लग चुकी थी. मैंने रविदास जी पर एक कविता लिखी, और कार्यक्रम में सुना दी. बस फिर क्या था, सागर साहब आग बबूला हो गए. कार्यक्रम के बाद तो जो उन्होंने मुझे धोया, वह दिल पर लिख गया. उनका एक-एक शब्द आज भी मुझे याद है—‘इसे तुम कविता कहते हो? कविता क्या होती है, जानते भी हो? यह कविता है, न सिर न पैर? जाओ पहले किसी अच्छे गुरु के पास जाकर कविता सीखो.’ इतना सुनने के बाद तो मेरे काटो खून नहीं. पहली बार किसी ने मेरा इतना अपमान किया था. मुझ पर क्या बीत रही थी, यह मैं ही जानता था. इसका वर्णन नहीं किया जा सकता. ऐसा लग रहा था कि धरती फट जाए और मैं उसमें समा जाऊं. पर वह फटकार ही मेरे जीवन का निर्णायक क्षण बना. मैं रुआंसा तो हो ही गया था. पर जिसने दर्द दिया, उसी ने दवा भी दी. बोले, ‘रामपुर में एक बहुत अच्छे कवि हैं कल्याणकुमार जैन ‘शशि’, उनको जाकर गुरु बनाओ और कविता का पिंगल सीखो. बिना पिंगल के कविता लिखना अपनी भद पिटवाना है’.
उस रात मुझे नींद नहीं आई थी. सागर साहब की फटकार आँखों के सामने से हटती ही नहीं थी. कविता तो ठीक है, पर रात भर इसी उधेड़बुन में रहा कि यह पिंगल क्या है? सुबह होते ही कल्याणकुमार जैन ‘शशि’ को खोजने की धुन सवार हो गयी. दिन भर की तलाश के बाद पता चला कि नसरुल्लाह खां बाजार में मैं जिन कल्लूमल हकीम से मुआ की पुड़िया लाता था, वही कल्याणकुमार जैन ‘शशि’ हैं. खैर, उन तक पहुँचने और उनसे कविता सीखने की एक अलग दास्तान है, जिस पर मैं कल्याणकुमार जैन ‘शशि’ पर अपने संस्मरण में विस्तार से लिख चुका हूँ. पर यहाँ मैं यह जरूर खुलासा करूँगा कि उनसे मैंने कविता में गति और मात्रा सीखी, और यही कविता का पिंगल शास्त्र है. पर आज कविता ने जिस तरह अपना स्वरूप बदला है, उसमें पिंगल का कोई महत्व नहीं है.
सत्तर के दशक में जब रामपुर में अम्बेडकरवाद ने प्रवेश किया था, तो  इसके सूत्रधार राजपालसिंह बौद्ध थे, जो अलीगढ़ से अपनी पहली नियुक्ति पर आईटीआई रामपुर में बाबू के पद पर आये थे. उनके साथ बिजली विभाग के एक अधिकारी नत्थू सिंह और टेलीफोन विभाग के बुद्धि सिंह भी थे. इन्हीं तीन लोगों ने डा. अम्बेडकर की विचारधारा का बीज रामपुर के दलित समाज में बोया था. इनमें रामपुर से मैं और सागर साहब जुड गए थे. इससे पहले हम लोग जगजीवनराम को तो जानते थे, पर डा. अम्बेडकर को नहीं जानते थे. अभिवादन में हम लोग रामराम या नमस्कार करते थे. पर अब डा. आंबेडकर के मिशन के प्रचार से ‘जय भीम’ भी अभिवादन में शामिल हो गया था. लेकिन लोग इसके लिए तैयार नहीं थे. ‘जय भीम’ का नाम सुनते ही लोग अजीब सा मुंह बनाते और ‘जय भिन्डी’ कहकर हमारा  मजाक उड़ाते थे. पर निरंतर प्रचार से धीरे-धीरे उनकी समझ मे आने लगा था कि डा. आंबेडकर कौन थे और ‘जय भीम’ का क्या मतलब है? सागर साहब के छिपियान वाले घर पर इस मिशन की साप्ताहिक बैठकें होती थी और आगे की दिशा तय होती थी. मैं तो उस समय विद्यार्थी था, इसलिए आर्थिक योगदान तो मैं कर नहीं सकता था. पर पूरे शहर में जहाँ भी उनका कार्यक्रम होता, मैं उसमें सक्रिय हो जाता था. सागर साहब के घर पर ही एक चलता-फिरता पुस्तकालय कायम करने की योजना बनी. बहुजन कल्याण प्रकाशन लखनऊ से ढेर सारी किताबें मंगाई गयीं. उनको एक रजिस्टर पर चढ़ाने का काम मुझे सौंपा गया. मैंने देखा कि आठ आना, एक रुपया, दो रूपये, और तीन  रूपये से ज्यादा की कोई भी किताब नहीं थी. उन सबका मूल्य सौ रूपये के लगभग था. उन किताबों को रजिस्टर पर लिखते समय किताबों की एक नयी दुनिया मेरे सामने खुल रही थी. इन किताबों के नाम विचारोत्तेजक थे, जैसे बाबासाहेब का जीवन संघर्ष, रावण और उसकी लंका, ईश्वर और उसके गुड्डे, जातिभेद का उच्छेद, संत प्रवर रैदास, बाबासाहेब के व्याख्यान, तुलसी के तीन पात, हिंदू नारी का उत्थान और पतन, महामानव बुद्ध, तुम्हारी क्षय, भागो नहीं बदलो, इत्यादि. मैं पहली बार उन किताबों पर चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु, राहुल सांकृत्यायन और भदंत आनंद कौशल्यायन आदि लेखकों के नाम देख रहा था. मन में उन किताबों को पढ़ने की ललक पैदा हुई, और एक-एक करके मैंने सभी किताबों को घर पर लाकर पढ़ लिया. मेरे लिए ज्ञान का यह नया अनुभव था. उस चलते-फिरते पुस्तकालय ने ही मेरे अंदर एक नए मनुष्य को जन्म दिया. उस समय तक हिंदी में नयी कविता ने तो जन्म नहीं लिया था, मगर दलित समाज में नया मनुष्य जरूर पैदा हो गया था. ये किताबें सागर साहब के घर में ही एक अलमारी में रखी गयीं थीं. इसलिये ये किताबें ही मुझे उनके नजदीक लायीं. मैं उनसे किताब लेकर आता, पढ़ने के बाद वापिस देने जाता. और इस तरह उनके साथ एक गहरा दोस्ताना सम्बन्ध बन गया, ऐसा दोस्ताना कि वह उनकी मौत के बाद ही खत्म हुआ.
उनकी सख्शियत की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वह कभी संजीदा नहीं रहते थे. और इसका कारण यह था कि वह आध्यात्मिक थे, पर धार्मिक नहीं थे. यह सचमुच अजीब बात थी कि कोई आध्यात्मिक तो हो, पर धार्मिक बिलकुल न हो. असल में उनका अध्यात्म सूफीयाना था, जिसका जिक्र मैं ऊपर कर चुका हूँ. ठीक कबीर साहब की तरह वह मंदिर, मस्जिद, मठ, पूजा, नमाज आदि से ईश्वर का कोई संबंध नहीं मानते थे, बल्कि वह अपने ईश्वर को अपने भीतर ही देखते थे. मैं जब भी उनसे कोई गंभीर बात करता, वह उसे इश्क मजाजी और इश्क हकीकी की शायरी में ले जाकर ऐसा उलझा देते थे कि रोमांच पैदा कर देते थे. फिर गाने लगते—‘मन लागो यार फकीरी में. क्या रक्खा यार अमीरी में.’ और वह सचमुच थे भी फक्कड़ों की तरह ही जीवन गुजारने वाले. प्यार उनमें इस कदर गहरा था कि उन्होंने अपने बेटे का नाम भी ‘उल्फत’ रखा था. वह कहते थे कि ‘मैं तो आर. डी. भी हटाना चाहता हूँ, पर मजबूर हूँ कि उससे नौकरी चल रही है. मैं तो सिर्फ सागर रहना चाहता हूँ, मुहब्बत का सागर.’ और वह सागर ही बनकर रहे.
उन्होंने डा. आंबेडकर को भी पढ़ा था और बुद्ध को भी, पर उनसे उनका सूफीयाना अध्यात्म कभी नहीं छूटा. उनके लिए तो समता और स्वतंत्रता का दर्शन भी सूफियाना ही था. कहते थे कि ‘अगर दिलों में प्यार नहीं होगा, तो न समता आएगी और न स्वतंत्रता. हिन्दूधर्म में प्यार नहीं है, इसीलिए वहाँ समता और स्वतंत्रता नहीं है. वह कहते थे कि समता और स्वतंत्रता सूफीवाद में है, क्योंकि उसमें प्यार है.’
एक दिन वह मुझे अपनी मोपेड पर बिठाकर न जाने कौन से मुहल्ले में ले गए. वहाँ एक साधारण से चौखट-किबाड़ वाले घर की कुण्डी बजाई, तो एक सफ़ेद दाढ़ी वाले बुजुर्ग ने दरवाजा खोला. सलाम के बाद सागर साहब ने उनके दोनों हाथों को लेकर बोसा लिया. फिर वह बुजुर्ग उन्हें अंदर ले गए. उन्होंने उनसे मेरा परिचय कराया, इतने में कुछ और लोग आ गए, जिनमें कुछ लड़के भी थे. उन सभी ने सलाम के बाद वही किया, जो सागर साहब ने किया था. मुझे ऐसा लग रहा था कि वे सब एक ही पीर-ओ-मुरशिद के आम बैअत में थे. वे अक्सर कहीं-न कहीं बैठकर समा (सूफी संगीत गोष्ठी) करते थे और ‘इल्मे सीमिया’ (तंत्रमंत्र) भी.
इसलिए, सागर साहब भी अक्सर अपने कुछ चमत्कारों का जिक्र मुझसे करते रहते थे, जिन पर मुझे न तब विश्वास होता था, और न आज होता है. अक्सर वह मुझे खौद वाले सूफी संत की दरगाह के बारे में बताते थे कि वहाँ उन्हें उनके सभी सवालों के जवाब मिल जाते थे. वहाँ शायद उनके कोई पीर ‘इल्मे सीमिया’ करते थे. उन्होंने मुझे बताया कि एक बार उनकी चाची या भाभी ने, जिसकी गोद में साल-भर का बच्चा था, उनसे कहा कि ‘उसे दूध नहीं उतर रहा है. बच्चा भूखा रहता है. क्या तुम्हारे पीर दूध उतार सकते हैं?’ उन्होंने कहा, ‘पीर से पूछ कर बताऊंगा.’ उन्होंने दरगाह पर जाकर अपने पीर से यह बात कही, तो वह बोले, “सुसरी के दूध पर हाथ रख देना, उतरने लगेगा.” सागर साहब घबड़ा गए. पीर से बोले, ‘किसी औरत के सीने पर कोई पराया मर्द हाथ कैसे रख रख सकता है?’ पर पीर ने कहा, ‘यह तुम जानो.’ सागर साहब ने अपनी उस चाची (या भाभी) को यह बात बताई, तो वह भी घबड़ा गई. पर कुछ देर सोचने के बाद वह बोली, ठीक है, अगर तुम्हारी नीयत में खोट नहीं है, तो रख दो हाथ.’ उन्होंने डरते-डरते अपनी ऑंखें बंद करके उसकी एक छाती पर हाथ रख दिया. और चमत्कार कि तुरंत उसकी छाती में दूध उतर आया. पर उसकी एक ही छाती में दूध उतरा था, दूसरी में नहीं. उसने सागर साहब से कहा कि ‘मेरी दूसरी छाती में तो दूध नहीं आया.’ सागर साहब ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया, ‘तू अगर दूसरी छाती पर भी हाथ रखवा लेती, तो उसमें भी आ जाता.’ यह सुनकर मेरी हंसी निकल गयी. वह बोले, ‘क्यों हंस रहे हो?’ मैंने कहा, ‘मैं इसलिए हंस रहा हूँ कि औरतों को पटाने का गुर कोई तुमसे सीखे. मैं अब उनसे आप से तुम पर आ गया था. मैंने कहा, ‘फिर क्या हुआ? क्या उसने दूसरी छाती पर भी हाथ रखवाया कि नहीं?’ मुझे शुरू से ही ऐसे चमत्कारों पर विश्वास नहीं था. और उन्हें भी यह आभास हो गया था कि मैं उनके प्रपंच को समझ रहा हूँ. इसलिए उन्होंने मुझे अपने पीर के चमत्कार फिर कभी नहीं सुनाए.   
पांच अप्रेल को बाबू जगजीवनराम का जन्मदिन होता है. दिल्ली में हर वर्ष उनके 5 कृष्णना मेनन मार्ग आवास पर भव्य आयोजन होता था. देशभर से उनके प्रशंसक भक्त दिल्ली आकर इस कार्यक्रम में शामिल होते थे. शायद अप्रेल 1973 या 74 की पहली तारीख की बात होगी. जब मैं सागर साहब के घर गया, तो मुझसे बोले, ‘पांच तारीख को दिल्ली चलना है. एक बढ़िया सी कविता बाबू जगजीवनराम जी पर लिखकर लाओ. उन दिनों तो मुझ पर कविता का जूनून सवार था. एक दिन में मैं कई कविताएँ लिख लेता था. सो दूसरे दिन मैं शाम को कविता लेकर उनके घर पहुँच गया. कविता को अपने गुरु शशि जी से ठीक करा चुका था. सागर साहब ने भी एकाध जगह कुछ शब्दों को बदला, और कविता पास हो गयी. फिर उसकी एक हजार प्रतियाँ शंकर प्रेस से सुनहरी स्याही में छपवाई गईं. उसके बाद उसकी एक प्रति को बाजार नसरुल्लाह खां में ‘काका की दूकान’ से फ्रेम कराई गयी. फिर फ्रेम की हुई कविता और उसकी छपी हुई बाकी प्रतियों को लेकर चार अप्रेल की रात को हम दोनों लोग दिल्ली के लिए रवाना हो गए. दिल्ली की वह मेरी पहली यात्रा थी. बाबू जगजीवनराम जी के आवास पर भारी चहलपहल थी. प्रदेश भर से लोग आये हुए थे. हम दोनों ही पहली बार बाबू जी को अपने सामने साक्षात देख रहे थे. वह बाहर लान में एक सोफे पर बैठे हुए थे. उनके दर्शन करने वाले, उनके चरण स्पर्श करने वाले और उनको भेंट देने वाले लोगों की भीड़ लगी हुई थी. हमारा नम्बर भी आया और उस अवसर पर सागर साहब ने कहा, ‘हम रामपुर से आये हैं, आपके दर्शन के लिए.’ फिर हम दोनों ने उन्हें फ्रेम जड़ी कविता भेंट की. उन्होंने उसे एक क्षण देखा, मुस्कुराये और उसे पीछे खड़े व्यक्ति को दे दिया. इसके बाद हमने कविता की छपी हुई प्रतियों को वहाँ सभी उपस्थित लोगों को बाँट दिया. और इस प्रकार मेरी एक कविता प्रदेश भर के लोगों के हाथों में पहुँच गयी.
सागर साहब सिर्फ मेरे दोस्त, जाति-बन्धु और ह्मसहरी ही नहीं थे, बल्कि मेरे अभिभावक भी थे. एक बार की बात है, मैं सागर साहब के घर रात में गया, और बोला कि मैं अपने घर नहीं जाऊंगा, आपके यहाँ ही सोऊंगा. वह बोले, ‘वह तो ठीक है, पर बात क्या है?’ मैंने कहा, ‘बाप से अनबन हो गयी है, उन्होंने कहा है कि घर में मत घुसना.’ असल में मेरे पिता, जिन्हें मैं बाप कहता था, सागर साहब से मिलने को मना करते थे. कहते थे, वह मुझे बिगाड़ रहे हैं. उनके दिमाग में यह घुसा हुआ था कि ‘कवि और शाइर काम-धंधा नहीं करते हैं. वे मुफ़लिसी में मरते हैं, मिल गया तो खा लिया, वरना फाका करते हैं, अगर शादी हो गयी, तो बच्चे भी नंगे-भूखे रहते हैं, पता नहीं, यह सब कैसे उन्होंने अपने दिमाग में पाल रखा था. हो सकता है कि किसी कवि या शाइर का कोई मंजर उन्होंने देखा हो. बहरहाल, मेरी कविता को लेकर वह रोज ही मुझे इतना सुनाते थे कि मेरा घर में रहना हराम हो गया था. मेरे लिखे हुए कागजों को भी वह फाड़कर फेंक देते थे. स्थिति यहाँ तक आ गयी थी कि एक दिन उन्होंने मुझे साफ़-साफ़ कह दिया कि घर में रहना है तो सागर साहब से मिलना बंद करना होगा. यह सारी बात जब मैंने सागर साहब को बताई, तो उनका भी दिमाग घूम गया. पर बोले कुछ नहीं. मैं उस रात उनके घर पर ही सोया. सुबह होते ही वह मुझे लेकर मेरे घर पर गए. और उन्होंने मेरे पिता और मेरी माँ दोनों को समझाया. उन्होंने मेरे पिता से कहा, जिसे तुम सबसे नाकारा कह रहे हो, वही तुम्हारा सबसे लायक बेटा है. उन्होंने और भी बहुत कुछ मेरी तारीफ में कहा, जो अब याद नहीं है. पर आखीर में उन्होंने उनको उनके ही तर्क से समझाया. उन्होंने मेरे पिता से पूछा, ‘तुम्हारे घर की गरीबी की वजह क्या है?’ मेरे पिता बोले, ‘सब भाग्य का खेल है. जब भाग्य में ही गरीबी है, तो अमीर कैसे बन जायेंगे?’ सागर साहब बोले, ‘तब यही समझ लो. जब भाग्य का लेखा ही होना है, तो इसके नसीब में अगर लेखक बनना लिखा है, तो उसे कौन रोक सकता है?’ यह तर्क काम कर गया था. पर उसके बाद भी मेरे पिता के व्यवहार में कोई बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया था.
1982 में मैं समाजकल्याण निदेशालय, लखनऊ में, जो उस समय केंट रोड पर टिकरा हाउस में था, दैनिक वेतन पर लिपिक नियुक्त हो गया था. उसके साल भर बाद मुझे उसी विभाग में छात्रावास अधीक्षक की स्थाई नियुक्ति मिल गयी थी. यह मैं पहले ही बता चुका हूँ कि सागर साहब दो महीने तक हमारे साथ लखनऊ में रहे थे. 1983 में मैं लखनऊ से नयी नियुक्ति पर प्रतापगढ़ चला गया था, पर रहता लखनऊ में ही था. सागर साहब लखनऊ से ट्रांसफर कराके वापिस रामपुर चले गए थे. रामपुर में उन्होंने नूर महल वाली आवास विकास कालोनी में अपना दो कमरों वाला मकान ले लिया था. अब मैं रामपुर जब भी आता तो उनके इसी मकान में उनसे मिलता था. एक दिन मेरा बीवी-बच्चों के साथ नैनीताल घूमने का कार्यक्रम बना, तो हम लखनऊ से रामपुर पहुँच कर सीधे सागर साहब के नूर महल आवास विकास वाले घर पर पहुंच गए. शाम हो गयी थी. उन दिनों मोबाईल फोन नहीं थे, और न उनके और मेरे पास लेंडलाइन फोन था, जो उनको अपने आने की खबर दे देता. इस तरह अचानक किसी के घर पर जाना, आज तो कोई भी पसंद नहीं करेगा. पर वह दौर दूसरा था. लोगों में अभी एकांत सेवन का युग नहीं आया था. संयोग से सागर साहब घर पर ही थे, देखकर बहुत खुश हुए. बंटी और सोनू अभी छोटे ही थे, बंटी छह-सात साल का था और सोनू चार साल का था. जून का महीना था. सागर साहब ने तुरंत जलपान की व्यवस्था करवाई. इसके बाद मैंने उन्हें अपने नैनीताल जाने की बात बताई, तो उन्होंने हमें नैनीताल घूमने के अपने अनुभव सुनाये और यह भी बताया कि हमें ट्रेन की बजाय हल्द्वानी तक बस से जाना चाहिए, वहाँ से नैनीताल के लिए बहुत साधन मिलेंगे. हमें यह सुझाव पसंद आया, क्योंकि ट्रेन से भी हम सिर्फ काठगोदाम तक ही जा सकते थे, और वहाँ से हमें बस ही पकड़नी थी. दूसरे, ट्रेन का टाइम फिक्स है, जबकि बसें तमाम हैं, एक छूट गयी, तो दूसरी मिल जायेगी. हम रात को उनके घर पर ही सोये. मटन के साथ खाना खाया. उन दिनों हम लोगों में मटन ही खाया जाता था, चिकन कोई पसंद नहीं करता था. शायद चिकन उन दिनों इतना पापुलर भी नहीं था. खैर, सवेरे हम सात बजे तक सब कामों से निबटकर तैयार हो गए. सागर साहब हमें छोड़ने बस अड्डे तक हमारे साथ आये, और हमें हल्द्वानी वाली बस में बैठाकर ही घर गए.
(22 जनवरी 2017)




गुरुवार, 19 जनवरी 2017

जाबिर हुसैन : राजनेता लेखक 

यह उन दिनों की बात है, जब जाबिर हुसैन साहेब बिहार विधान परिषद के सभापति थे. मुझे मुंगेर में एक कर्यक्रम में भाग लेना था. कार्यक्रम माले यानी मार्क्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से था. मैं सुबह ही पटना पहुच गया था. वहाँ जाकर पता चला कि शहर में दंगा हो गया है और पार्टी ने जहाँ ठहराने की व्यवस्था की थी, गुंडों ने रात में ही तोड़फोड़ और मारपीट कर दी थी. स्वाभाविक था कि लोग दहशत में थे. अब सवाल मेरे सामने यह था कि मैं कहाँ जाऊँ? मुंगेर में कार्यक्रम शाम को था. सवेरे के आठ बज गए थे, अभी मैं फ्रेश भी नहीं हुआ था. मेरे दिमाग में विचार आया कि क्यों न जाबिर साहेब से मदद लूँ. मैंने माले के दफ्तर के बाहर खड़े होकर उनको फोन किया. उस समय तक न मैंने उन्हें देखा था, और न उन्होंने मुझे. बस उतना ही परिचय था, जितना एक लेखक दूसरे लेखक को पत्र-पत्रिकाओं में पढ़कर जानता है. उधर से जब हैलो हुई तो मैंने उन्हें अपनी समस्या बताई. बेहद आशा भरा जवाब मिला--'कँवल जी आप यहाँ खड़े हैं, वहीँ खड़े रहिये. दस मिनट में गाड़ी पहुँच रही है, वह आपको गेस्ट हाउस में ले जायेगी, वहाँ जाकर आप फ्रेश होइए, बाकी इसके बाद बात करेंगे.'
ठीक दस मिनट में मेरे निकट एक एमबेसडर कार आकर रुकी, एक युवक बाहर निकला, नमस्ते किया और मेरा सामान उठाकर गाड़ी में रखा और गाड़ी मुझे सीधे गेस्ट हाउस ले गयी. गेस्ट हाउस पहुँच कर उस युवक ने कहा, ‘मेरा नाम .....जैन है. (शुरू का नाम याद नहीं आ रहा है.) साहब ने बताया है कि सर आप बहुत बड़े लेखक हैं. आपको कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए. यहाँ चाय नाश्ता सब मिलेगा. फिर उसने गेस्ट हाउस के एक कर्मचारी को बुलाकर कहा कि सर सभापति जी के मेहमान हैं, पूरा ध्यान रखना है. फिर उसने मुझे कहा- सर मैं चलता हूँ. मैं ११ बजे आऊंगा. सभापति जी ने आपको बुलाया है.
कमरे में सारी शाही सुविधाएँ थीं, मैं तुरंत फ्रेश होकर, चाय-नाश्ता करके ११ बजे तक तैयार हो गया. ठीक ११ बजे जैन जी आये, और मैं उनके साथ विधान परिषद में जाबिर साहेब के चेंबर में पहुंचा. उस पहली मुलाकात में उन्होंने मुझे वीआईपी का सम्मान दिया, मुझे उन्होंने अपनी कुर्सी के बगल में कुर्सी पर बैठाया, और वहाँ मौजूद लोगों से, मेरा परिचय एक बड़े दलित लेखक के रूप में कराया. वहाँ मौजूद लोगों में प्रसिद्ध लेखक रामधारी सिंह दिवाकर भी थे, जिनसे मेरी पहली भेंट वहीँ पर हुई थी. जाबिर साहेब से मिलने के बाद मुझे लगा कि लेखक को सचमुच उनके जैसा ही सरल, विनम्र, संवेदनशील, मिलनसार और मददगार होना चाहिए. उनके जैसे बड़े पद पर बैठे राजनेता-लेखक के साथ उस दिन जो सम्बन्ध बना, वह आज तक कायम है. आज तो ऐसे-ऐसे लेखक हैं, जो किसी लायक न होकर भी सीधे मुंह बात नहीं करते.
उसी दिन शाम को हम मुंगेर गए, वहाँ रामजीराम और माले के तमाम साथियों का साथ मिला. दूसरे दिन शहर के हालात और भी खराब थे. केवल सरकारी और पुलिस की गाड़ियां ही सड़कों पर सुरक्षित थीं. रात गेस्ट हाउस में ही बिताई और सुबह जाबिर साहेब की गाड़ी ने ही मुझे स्टेशन पहुँचाया.
(६-१०-१६)



छेदीलाल साथी
(कँवल भारती)
     अगर एक पंक्ति में परिचय देना हो, तो छेदीलाल साथी उत्तरप्रदेश के पहले पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष थे. किन्तु दूसरी पंक्ति में वह बोधानंद और शिवदयाल चौरसिया के बाद के दौर के सबसे जुझारू बहुजन योद्धा थे.
            सबसे पहले मैंने उनके बारे में अपने शहर रामपुर में ही सुना और वह भी एक शाइर के मुंह से. सिर्फ सुना ही नहीं, बल्कि उन्होंने अपनी किताब ‘अतीत से बातें’ में बाकायदा उनका जिक्र भी किया है. यह शाइर थे रघुवीरशरण दिवाकर राही, जो शाइरी में दिवाकर राही के नाम से मशहूर थे. उनका ‘शराबी’ पिक्चर में ये शे’र बहुत मकबूल हुआ था---‘आज तो उतनी भी मयस्सर नहीं मयखाने में, जितनी कि छोड़ दिया करते थे पैमाने में.’ उनके साथ मेरा काफी उठाना-बैठना था. मैं उन दिनों (1994-98) सिविल लाइंस में उनकी कोठी के पीछे रोशन बाग में सरकारी छात्रावास के मकान में रहता था. रविवार को कभी-कभी वह भी मेरे घर पर आ जाते थे और मैं तो उनके पास जाता ही रहता था. एक दिन जब मैं उनके निवास पर गया, तो मैंने देखा कि उनके पास एक सांवले रंग के दुबले-पतले व्यक्ति बैठे हैं, जिनकी आँखों पर काले फ्रेम का मोटे लेंस का चश्मा था. दिवाकर जी शहर के नामीगिरामी वकील भी थे. इसलिए उनके होने से मुझे आश्चर्य नहीं हुआ. उनके घर में मुझे सभी जानते थे, इसलिए मैं बिना समय लिए कभी भी शाम को अचानक ही उनके बैठके में चला जाता था. उस दिन भी अचानक ही चला गया था. वे चाय पी रहे थे. मुझे देखकर बैठने को कहा और आवाज देकर एक चाय मेरे लिए भी मंगाई. यह तो मैं जान गया था कि ये सज्जन कोई मेहमान हैं, क्योंकि वह रामपुर के कतई नहीं लग रहे थे. एक लड़का चाय दे गया, तो दिवाकर जी मुझसे बोले, ‘आप इन्हें जानते हैं?’ मैंने कहा, ‘नहीं. चहेरे से तो नहीं जानता, आप नाम बताएं, शायद जानता होऊं.’ बोले, ‘आप छेदीलाल साथी हैं, लखनऊ से तशरीफ़ लाये हैं.’ जब नाम सुना, तो मैंने आश्चर्य से दिवाकर जी से कहा कि ‘मैंने तो इनकी किताब भी पढ़ी है, जो आपने ही मुझे पढ़ने को दी थी.’ मैंने आगे कहा, ‘वह किताब ‘पिछड़े वर्गों का आरक्षण’ आज भी मेरे पास मौजूद है, जिसे साथी जी ने अपने हस्ताक्षर से 20 मार्च 1982 को आपको सप्रेम भेंट की थी.’ अब मैं साथी जी से मुखातिब हुआ, ‘सर मैं कुछ-कुछ आपको पहचानने की कोशिश तो कर रहा था, पर बार-बार दिमाग में गयाप्रसाद प्रशांत जी का चेहरा घूमे जा रहा था. उनकी शक्ल बिल्कुल आपसे मिलती है. पर अगर प्रशांत जी होते, तो मुझे तुरंत पहिचान लेते, मगर आप तक दिमाग नहीं पहुँच पा रहा था, इसलिए मौन था.’ अब दिवाकर जी ने मेरा परिचय दिया, ‘ये कँवल भारती हैं.’ मेरा नाम सुनते ही साथी जी बोले, ‘कांशीराम के दो चेहरे वाले. तो आप रामपुर से हो.’ इस तरह छेदीलाल साथी से मेरा पहला परिचय रामपुर में ही हुआ था.   
     मैं 1980 से 1986 तक नौकरी के लिए संघर्ष और नौकरी के दौरान लखनऊ में ही रहा था. 104, रायल होटल (जहां अब बापू भवन है) से लेकर रिसालदार पार्क के बुद्ध विहार तक और इंदिरा नगर से अलीगंज तक मैं अनेक ठिकानों पर रहा. इन सात सालों में ताड़ीखाना, कुकरेल, भूतनाथ, चिनहट, एचएएल गेट, हाईकोर्ट, अमीनाबाद, रानीगंज, नाकाहिंडोला, गुइन रोड, नजीराबाद, लाटूश रोड, जो गौतम बुद्ध मार्ग है, लालबाग, कैसर बाग, चारबाग, चौक, रकाब गंज, मौलवी गंज, और हजरत गंज के इलाके में जितना मैं पैदल चला और घूमा हूँ, उस दरद को सिर्फ मैं ही जानता हूँ. इस दौरान मैं दलित-पिछड़े वर्ग के अनेक नेताओं, लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के संपर्क में आया, जिन्होंने काफी हद तक मुझे प्रभावित भी किया. इन सात सालों में, मैं पूरी ईमानदारी के साथ कहता हूँ कि मैंने किसी के भी मुंह से छेदीलाल साथी का नाम नहीं सुना. उस 104, रायल होटल में भी मैंने उन्हें कभी नहीं देखा, जहां पूरे प्रदेश से बहुजन समाज के अधिकारी और नेता आकर बैठते थे. हाँ इस दौरान जब भी कभी मैं लालबाग के इलाके में कन्धारी बाज़ार से होकर गुजरता था, तो रास्ते में एक घनी बस्ती की एक दीवाल पर ‘बहुजन प्रिंटिंग प्रेस’ का साइन बोर्ड लगा हुआ देखता था. मैं अनगिनत बार उधर से गुजरा होऊंगा, और हर बार उस साइन बोर्ड को देखकर मुझे बस एक ही ख्याल आता था कि क्या जिज्ञासु जी का प्रेस यहाँ आ गया है, क्योंकि बहुजन नाम से मुझे हमेशा उनके ही प्रकाशन का बोध होता था. हालाँकि वह एक छोटी सी प्रेस थी, जो बहुत बार बंद मिलती थी. काफी सालों के बाद, संभवत: 1990 में, जब दिवाकर जी के सौजन्य से मुझे उनकी किताब ‘पिछड़े वर्गों का आरक्षण : इस युग की चुनौती’ मिली, और उसमें 48, कन्धारी बाजार का पता छपा देखा, तो मालूम हुआ कि वह प्रेस छेदीलाल साथी जी की थी, और वहीँ उनका रिहायशी मकान भी था. किन्तु वह रहते इंदिरा नगर के ए ब्लाक में थे. एक बार, शायद जब वो बीमार थे, तो दारापुरी जी के साथ मैं उनके मकान पर गया था. वहाँ भी उन्होंने मुझसे दिवाकर राही जी के स्वास्थ्य के बारे में पूछा था.
     बस कुल जमा यही दो मुलाकातें उनसे मेरी हुई थीं. यहाँ तक मैं जानता हूँ, उनके दो कार्य-क्षेत्र थे, एक, वह हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ में अधिवक्ता थे और दूसरे, वह दलीय राजनीति में सक्रिय रहे. साहित्य से उनका कोई बहुत ज्यादा गहरा सम्बन्ध नहीं रहा था, पर इसके बावजूद अनेक साहित्यकार उनके मित्र थे, जिनमें नन्दकिशोर देवराज, जोश मलीहाबादी, जिगर मुरादाबादी, एहसान दानिश, फ़िराक गोरखपुरी और दिवाकर राही रामपुरी के घनिष्ट संपर्क में रहे थे. सामाजिक आंदोलनों में उनके प्रेरणा स्रोत के रूप में उन्हें डा. आंबेडकर, राहुल सांकृत्यायन, आनन्द कौसल्यायन, बोधानन्द महास्थविर, रामचरन निषाद और शिवदयाल चौरसिया का सानिध्य मिला था. राजनीति के मैदान में उन्होंने अनेक बड़े राजनीतिकों के साथ काम किया था, जिनमें जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, डा. लोहिया, डा. जेड ए. अहमद, राहत मौलाई, डा. फरीदी, अली मियां साहेब, सैयद बदरुद्दीन और इब्राहीम सुलेमान सेठ उल्लेखनीय हैं. वह रामास्वामी नायकर से भी बहुत प्रभावित हुए थे और जब वह लखनऊ आये थे, तो उनकी राजनीति गतिविधियों में भी उनके साथ काम किया था. बाबासाहेब डा. आंबेडकर के परिनिर्वाण के बाद रिपब्लिकन पार्टी को स्थापित करने में उत्तर प्रदेश में उन्होंने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. 1959 से 1964 तक वह उत्तरप्रदेश में पार्टी के अध्यक्ष रहे थे. इसी पार्टी से वह 1964 में विधान परिषद के सदस्य निर्वाचित हुए, और 1970 तक इस पद पर रहे. उसके बाद महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी में हुई अंतर्कलह और फूट से तंग आकर वह कांग्रेस में चले गए, और कांग्रेस की ओर वह फिर से उत्तरप्रदेश में विधान परिषद के सदस्य निर्वाचित हो गए, और 1976 तक बने रहे. कहा जातक है कि रिपब्लिकन पार्टी छोड़ने के बाद कांग्रेस में उनकी उपस्थिति सिर्फ अपने तईं रह गई थी. वह दलित-पिछडों की आवाज तो उठाते थे, पर उसी वक्त, जब कांग्रेस में अपनी उपेक्षा महसूस करते थे. ठीक जगजीवन राम की तरह, जो सत्ता में न रहने पर दलित की बात करते थे, और सत्ता में रहकर दलित को भूल जाते थे. शायद इसीलिए 1973 में कांग्रेस की केन्द्र सरकार ने साथी जी को रूस, जर्मनी, टर्की, ग्रीक, हालैंड, इटली, ज़ेकोस्लोवाकिया, ईरान, आदि देशों के दौरे पर भेज दिया, जिस तरह एक समय कांग्रेस के नेता रामधन को, दलितों पर सर्वाधिक मुखर होने के कारण अनेक देशों की यात्रा पर भेज कर शांत कर दिया था. संभवत: साथी जी को भी इसी मकसद से विदेश यात्रा पर भेजा गया था. किन्तु साथी जी इस प्रकृति के बिल्कुल नहीं थे. विदेश यात्रा से जैसे ही साथी जी लौटकर आये, वह पिछड़े वर्गों की समस्याओं पर फिर मुखर हो गए, और इतने जोरदार ढंग से मुखर हुए कि उसने उत्तरप्रदेश की हेमवतीनंदन बहुगुणा सरकार को सर्वाधिक पिछड़ा वर्ग आयोग बनाने के लिए बाध्य कर दिया. परिणामत: 31 अक्टूबर 1975 को वह उस आयोग के अध्यक्ष नियुक्त कर दिए गए. संभवत: साथी आयोग उत्तरप्रदेश का पहला आयोग था, जिसने पूरे प्रदेश की अति पिछड़ी जातियों का अध्ययन करके 17 मई 1977 को अपनी रिपोर्ट पेश की. उन्होंने पिछड़े वर्गों की तीन श्रेणियाँ बनाकर 29.5 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की. उनकी पहली श्रेणी में भूमिहीन और अकुशल मजदूरों को 17 प्रतिशत, दूसरी श्रेणी में दस्तकार और किसानों को 10 प्रतिशत और तीसरी श्रेणी में मुस्लिम पिछड़ी जातियों को 2.5 आरक्षण देने की संस्तुति की गई थी. किन्तु सरकार ने साथी आयोग की सिफारिशों को नहीं माना. उल्लेखनीय है कि साथी जी जनवरी 1980 से दिसंबर 1980 तक मंडल आयोग के भी उत्तरप्रदेश से कोआपटेड सदस्य रहे थे.
     निस्संदेह हम कांग्रेस पर यथास्थिति बनाये रखने या प्रतिरोध को शांत करने का आरोप लगा सकते हैं, और यह है भी, पर इस सत्य की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती कि, इसके बावजूद, कांग्रेस ने दलित प्रतिभा को न सिर्फ उभरने का मौका दिया है, बल्कि जन हित में उस प्रतिभा का लाभ भी उठाया है. दलित-पिछड़े वर्ग को राजनीति में यह स्पेस अभी तक किसी अन्य पार्टी ने नहीं दिया है.
     छेदीलाल साथी साहित्य में पीएचडी थे, इसलिए कहना चाहिए डा. छेदीलाल साथी ने कांग्रेस में रहकर सिर्फ कांग्रेस के लिए ही नहीं, बल्कि बहुजन समाज के लिए भी काम किया.
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प्रसिद्ध बहुजन आलोचक मुद्रा राक्षस ने अपने एक लेख में लिखा है कि लखनऊ की ‘आंबेडकर महासभा लंबे अरसे से ऐतरेय जैसे वफादारों की शरणस्थली बन चुकी है, वरना ऐसा क्यों होता कि कुछ बरस पहले जब मुंबई में हिन्दू तालिबानों ने आंबेडकर की मूर्ति को अपमानित किया था, तो सारे देश में इसका जबरदस्त प्रतिरोध  हुआ था. कुछ नहीं हुआ था तो वहाँ, जहाँ यह महासभा है.’
इस टिप्पणी के बाद मुद्रा जी ने डा. छेदीलाल साथी के सम्बन्ध में एक घटना का उल्लेख करते हैं. ‘अभी कोई तीन-चार बरस पहले कम्युनिस्ट पार्टी और दलित चिंतकों के बीच एक संवाद की कोशिश हुई थी. ए. बी. वर्धन भी उसमे आये थे और डा. छेदीलाल साथी भी थे. डा. छेदीलाल साथी आंबेडकर के साथ थे. दलित और पिछड़ों के आयोगों में उनकी बड़ी भूमिका रही है. मंत्री भी रह चुके हैं. उन्होंने खुलकर दलित पक्ष से बोलते हुए बताया कि दलित नेताओं का कम्युनिस्टों से क्या विरोध है. ए. बी. वर्धन अत्यंत कुशल और प्रभावशाली वक्ता हैं. लिहाज उन्होंने भी नहीं किया. उन्होंने बताया कि उन्हें दलित नेतृत्त्व से क्या शिकायतें हैं.’
इस घटना को स्मरण करंते हुए मुद्रा जी अपने विषय पर आते हैं—‘मैं दोनों की ही इज्जत करता रहा हूँ. अध्यक्ष के तौर पर मैं दोनों ही पक्षों पर अफ़सोस जाहिर कर सकता था कि संवाद जैसी चीज का प्रयत्न वहाँ नहीं हुआ, जहां होना था. आज जब आंबेडकर महासभा में शिलान्यास शिलान्यास एक भारतीय जनता पार्टी के नेता के हाथों बड़े गर्व से करा डाला गया, मुझे डा. छेदीलाल साथी का वह तेवर याद आ रहा है, जो उन्होंने ए. बी. वर्धन के सामने बोलते हुए दिखाया था.’
आगे मुद्रा जी बहुत महत्वपूर्ण बात कहते हैं- ‘डा. साथी उक्त आंबेडकर महासभा का संचालन करते हैं. डा. साथी और पारसनाथ मौर्य जैसे उनके साथी जब बोधिवृक्ष नष्ट करने वाली विचारधारा का इतना स्वागत करते हैं, तो कम्युनिस्ट का विरोध करें, यह गुत्थी थोड़ी खुलती दिखती है. सच का खुलासा ज्यादा मुश्किल नहीं है. ब्राह्मणों का दलाल बन जाने के बाद ऐतरेय दलित विरोधी ही नहीं हुआ था, सवर्णों का सबसे अग्रणी सहायक भी बन गया था. आंबेडकर महासभा के ऐतरेयों को जब सवर्ण सत्ताधारी पसंद आता है, तो कम्युनिस्ट भी बुरा लगेगा, मुलायम सिंह भी और मायावती भी. बहस में वह इन्हें अपना दुश्मन घोषित करेगा.’
यह मुद्रा जी का अतिवादी विश्लेषण हो सकता है, पर यह सच है कि आंबेडकर महासभा के पदाधिकारी कम्युनिस्टों से दूरी और भाजपा के नेताओं के साथ अपनी निकटता दिखाते रहे हैं, और डा. छेदीलाल साथी भी उनसे अलग नहीं थे.
अस्सी के दशक में एक दलित आईएएस अधिकारी डी. पी. वरुण ने इन्दिरानगर, लखनऊ में प्रेस लगाया था, जब उन्होंने एक पत्रिका निकालने की योजना बनाई, तो डा. साथी से उनका सलाह-मशवरा हुआ. शायद साथी जी भी कोई अखबार या पत्रिका निकाल रहे थे. जिसका नाम ‘गरिमा भारती’ था. गरिमा साथी जी की बेटी का नाम है. साथी जी ने वरुण जी को इसी नाम पर राजी कर लिया. अत: साथी जी के संपादन में वरुण जी की संस्था से ‘गरिमा भारती’ पत्रिका का प्रकाशन शुरू हो गया, जो डिमाई आकार में थी और कुछ-कुछ दिल्ली प्रेस की पत्रिका ‘सरिता’ का अहसास कराती थी. संभवतः उसी समय या बाद में डा. अंगने लाल भी उससे जुड गए थे. पर यह पत्रिका लम्बी नहीं चली, और चल भी नहीं सकती थी, क्योंकि साथी जी और वरुण जी के विचार समान नहीं थे. उनके विचार समान हो भी नहीं सकते थे. कारण, एक तरफ राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं थी, और दूसरी तरफ सामाजिक और बौद्धधर्म की विचारधारा थी, जिनमें टकराव होना ही था. वह पत्रिका काफी लंबे अरसे तक बंद रही. पर, आजकल वरुण जी चार पन्नों के अखबार के रूप में उसके प्रकाशन की रस्म को बराबर निभा रहे हैं.
1982 में प्रकाशित डा. साथी की किताब ‘पिछड़े वर्गों का आरक्षण : इस युग की चुनौती : संवैधानिक व ऐतिहासिक पृष्टभूमि में’ उनकी पहली पुस्तक थी, जो उन्होंने ऐसे समय में लिखी थी, जब वह उत्तरप्रदेश कानूनी सहायता बोर्ड के सदस्य थे. इस पुस्तक पर अनेक विद्वानों और नेताओं ने अपनी सम्मतियाँ लिखी हैं. जिनमें कर्पूरी ठाकुर, सीताराम निषाद, शिवदयाल सिंह चौरसिया और डा. नंदकिशोर देवराज मुख्य हैं. डा, देवराज हिन्दी के प्रखर कवि और आलोचक थे और वाराणसी हिन्दू विश्विद्यालय में दर्शन विभाग के अध्यक्ष रह चुके थे. वह लखनऊ में निशात गंज में रहते थे, जहां मैं उनसे पहली बार मिला था. मेरे लिए यह गौरव की बात थी कि उनका गृहजनपद रामपुर ही था. साथी जी की किताब पर उन्होंने सबसे विचारोत्तेजक टिप्पणी लिखी थी, जो यह थी—‘मेरा अनुमान है कि इस देश में दूसरी क्रान्ति होने वाली है, जो आर्थिक क्रान्ति से भी भीषण होगी, अर्थात ब्राह्मणवाद के विरुद्ध मानववाद की क्रान्ति, तथाकथित ऊँची जातियों के विरुद्ध दलित व पिछड़ी जातियों का खुला विद्रोह. यदि सवर्ण हिन्दुओं ने सहज भाव से उक्त जातियों को अधिकार न दिए तो रक्त भरी क्रान्ति अनिवार्य है.’
पिछड़े वर्गों पर चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु की 1957 में लिखी गई पुस्तक ‘पिछड़ा वर्ग कमीशन की रिपोर्ट और पिछड़े वर्ग के वैधानिक अधिकारों का सरकार द्वारा हनन’ के एक लम्बे अरसे के बाद संभवत: यह पहली पुस्तक थी, जो डा. साथी ने पिछड़े वर्गों की स्थिति पर लिखी थी. अस्सी के दशक के अंत में गुजरात और तमिलनाडु में आरक्षण के विरोध में सवर्णों के तीव्र आन्दोलन हुए थे. दूसरी तरफ फरवरी 1982 में कर्पूरी ठाकुर, रामनरेश यादव और चौधरी ब्रह्मप्रकाश के नेतृत्त्व में पिछड़े वर्गों ने अपने वैधानिक अधिकारों के लिए दिल्ली में विशाल प्रदर्शन किया था. डा. साथी ने इन्हीं परिस्थितियों को ध्यान में रखकर यह पुस्तक लिखी थी, और जिसका उद्देश्य आरक्षण-विरोधियों के सोये हुए विवेक और उनकी मानवीय नैतिकता को जगाना था.
इस किताब के लगभग दस साल बाद 1992 में डा. छेदीलाल साथी की दूसरी किताब “भारत की आम जनता-शोषण मुक्त व अधिकार-युक्त कैसे हो” प्रकाशित हुई. इसके पहले पृष्ठ पर मोटे अक्षरों में लिखा हुआ है- ‘फ़्रांस की जनक्रांति की पृष्ठभूमि में आज के भारतीय समाज का मूल्यांकन.’ लेकिन यह पुस्तक वास्तव में पहली पुस्तक का ही विस्तार है. इसमें पिछड़े वर्गों के अनेक नेताओं का संक्षिप्त परिचय भी दिया गया है, जिनके साथ उन्होंने काम किया था. किताब के अंत में डा. साथी लिखते हैं कि पिछड़े वर्गों के सामने दो ही रास्ते हैं- एक शांति का और दूसरा क्रान्ति का. उन्होंने दोनों ही रास्तों का स्वागत किया है. और अंत में लिखा है, ‘अति का अंधेर जागृति  पैदा करता है, जो जनक्रांति और खूनी क्रान्ति का रूप भी धारण कर सकता है. लेकिन देश समाज, राष्ट्र और स्वयं शोषक वर्ग के लिए अन्ततोगत्वा वह बहुत मंहगा पड़ेगा. फ़्रांस में दो सौ वर्ष पहले जो खूनी क्रान्ति हुई थी, वैसी भारत में वर्तमान व निकट भविष्य में कभी भी हो सकती है.’
लेकिन दलित-पिछड़े वर्गों की कोई ख़ूनी क्रान्ति भारत में नहीं हुई, जबकि सवर्णों को जब भी अवसर मिलता है, वे ख़ूनी प्रतिक्रांति को कभी भी अंजाम दे देते हैं. डा. साथी की इस पुस्तक पर अनिल सिन्हा ने “आम जनता के लिए जरूरी किताब” शीर्षक से एक लम्बी समीक्षा लिखी थी, जो 27 फरवरी 1993 को नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुई थी. मैं यहाँ उस समीक्षा की इन पंक्तियों को उद्धृत करना जरूरी समझता हूँ—
     ‘छेदीलाल जी का जीवन एक तरह से समाजवादी व गांधीवादी आंदोलनों के साथ बीता है. इसलिए अपने जीवन का लम्बा समय आंबेडकर के साथ गुजार कर भी वह अंत में कांग्रेस पार्टी की तरफ से विधान परिषद के सदस्य रहे. यही कारण है कि इस पुस्तक में दलितों व पिछड़ी जातियों को समाज-परिवर्तन के लिए कोई क्रान्तिकारी व समतामूलक वैचारिक चेतना नहीं मिलती. प्रच्छन रूप से यह बात इस पुस्तक में आई है कि समाज का सबसे दलित वर्ग गाँधी के रास्ते चलकर अपने अधिकार हासिल करे.’
     लेकिन यह निष्कर्ष ठीक नहीं है. डा. साथी ने लोकतान्त्रिक और संवैधानिक तरीके से अपने अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ने का समर्थन किया है, जो डा. आंबेडकर का भी रास्ता है.

(17 नवम्बर 2016)