बुधवार, 29 जनवरी 2014

ओमप्रकाश वाल्मीकि का इतिहास-बोध
(कॅंवल भारती)
हिन्दी में सर्वाधिक ख्याति-प्राप्त दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि ने कविता, कहानी और आत्मकथा के माध्यम से दलित साहित्य को जितना समृद्ध किया, उतना ही आलोचना के माध्यम से उसको नुकसान भी पहुॅंचाया। उनके सृजनात्मक साहित्य की सारी अनुभूतियाॅं हिन्दी क्षेत्र की हैं, पर, उसी तरह आलोचना में उनका चिन्तन हिन्दी क्षेत्र का नहीं है। आलोचना में वे अपने इतिहास-बोध में पूरी तरह मराठी की जमीन पर खड़े हैं, जो हिन्दी क्षेत्र से ज्यादा परिचित नहीं है। इसलिये यह अत्यन्त दुखद है कि वे आलोचना में हिन्दी की पूरी चिन्तन-परम्परा से कटे हुए हैं और कबीर, रैदास, हीरा डोम, अछूतानन्द, केवलानन्द और अयोध्यानाथ दण्डी आदि किसी के भी अवदान को उन्होंने समझने की कोशिश ही नहीं की। इस सन्दर्भ में मैं यहाॅं उनकी आलोचना-पुस्तक ‘दलित साहित्य: अनुभव, संघर्ष एवं यथार्थ’ में संकलित उनके लेख ‘हिन्दी दलित कविता और सन्त साहित्य’ पर कुछ विचार करना आवश्यक समझता हूॅं।
वे लेख के आरम्भ में ही दलित कविता की संघर्ष-यात्रा को रेखांकित करते हुए लिखते हैं- ‘वह यदि तथाकथित सृष्टि निर्माता या ईश्वर से भी अपनी शिकायत दर्ज करता तो उसें अन्तस में बसी हीनता उसे गिड़गिड़ाने को ही बाध्य करती थी। सन्तों की वाणी में यह गिड़गिड़ाहट साफ तौर पर देखी जा सकती है।’ (पृष्ठ 57) यहाॅं उन्होंने अपनी अज्ञानता का परिचय दिया है। उन्हें यदि कबीर-रैदास की परम्परा का ज्ञान होता तो वे देख सकते थे कि जिस हीनता और गिड़गिड़ाहट की बात वे कर रहे हैं, उसका लेश मात्र भी कबीर-रैदास में नहीं है। उन्होंने ब्राह्मण की आॅंखों में आॅंखें डालकर न सिर्फ खुद को मनुष्य घोषित किया है, बल्कि उसके उच्चता के दम्भ को भी चकनाचूर किया है। यह कबीर ही थे, जिन्होंने दोनों हाथ उठाकर घोषणा की थी कि ब्राह्मण कहता रहे अपने को जगतगुरु, पर वह निर्गुण साधुओं का कदापि गुरु नहीं हो सकता। यह कबीर ही थे, जिन्होंने ब्राह्मण के लिये कहा था कि यदि वह जन्मजात उच्च पैदा हुआ है, तो वह किसी अन्य द्वार से क्यों नहीं पैदा हुआ? यथा-
ब्राह्मण गुरु जगत का, साधु का गुरु नाहीं।
उरझि-पुरझि कर मरि रहा, चारिउ वेदा माहीं।।
जौ तू बांभन बंभनी जाया, तौ आन वाट काहे नहीं आया।
वर्णव्यवस्था, ब्राह्मणी सत्ता और ब्राह्मण-शास्त्रों को नकारने वाले दलित सन्तों के बारे में वाल्मीकि की जानकारी कितनी सतही है, यह उनके इस विचार से पता चलता है- ‘बिखरती हिन्दू सत्ता व वर्णव्यवस्था को कमजोर करने के बजाय उसे और ज्यादा मजबूत बनाने और उसका व्यापक प्रचार-प्रसार करने में सन्त साहित्य की भूमिका रही है। इससे वर्णव्यवस्था की वैचारिकता को बल मिला।’ (पृष्ठ 57-58) ओमप्रकाश वाल्मीकि ब्राह्मण सन्तों और दलित सन्तों में अन्तर नहीं कर पाये, यह उनके अध्ययन की कमजोरी है। इसी कमजोरी की वजह से वे दलित साहित्य को सन्त साहित्य से जोड़कर देखने का भी विरोध करते हैं। वे खण्डन के इरादे से डा0 चमनलाल का मत उद्धृत करते हैं-
‘आधुनिक दलित साहित्य ने भी अपनी पहचान समाज के विकृत जातिगत ढाॅंचे के प्रति अपना आक्रोश जताकर की है। इस सन्दर्भ में आधुनिक दलित साहित्य की जड़ें कबीर और रविदास की वाणी में देखी जा सकती हंै। इसलिये इस तथ्य को यहाॅं रेखांकित किया जा सकता है कि सही मायनों में कबीर और रविदास हिन्दी दलित साहित्य के अग्रदूत हैं। उत्तरी भारत के दलित साहित्य का आरम्भ कबीर और रविदास से माना जाना चाहिए और वहीं से दलित साहित्य का ऐतिहासिक अध्ययन किया जाना चाहिए।’ (पृष्ठ 58)
डा0 चमनलाल ने कुछ भी गलत नहीं कहा है। वे बिल्कुल ठीक कहते हैं कि आधुनिक दलित साहित्य की जड़ें कबीर और रविदास की वाणी में देखी जा सकती हैं। यह इतिहास की सही जानकारी है। किन्तु वाल्मीकि जी डा0 चमनलाल को ही इतिहास से अनभिज्ञ बताते हुए लिखते हैं-‘यहाॅं डा0 चमनलाल सभी ऐतिहासिक सन्दर्भों को अनदेखा करते हुए सिर्फ जाति-विरोध को ही दलित साहित्य समझने का तर्क देते दिखायी देते हैं। दलित साहित्य की अन्तःचेतना, जिसे दलित चेतना कहा जाता है, जो साहित्य को दलित साहित्य में परिवर्तित करती है, को न देखने की प्रवृत्ति यहाॅं दिखायी देती है।’ (वही)
निश्चित रूप से यह वाल्मीकि जी की कमजोरी थी कि उन्होंने कबीर और रैदास (रविदास) का विधिवत् अध्ययन नहीं किया था, अन्यथा वे कबीर और रैदास की वाणी में दलित चेतना के संघर्ष को जरूर देखते। लेकिन हमारे लिये यह जानना जरूरी है कि उन्होंने किस आधार पर कबीर-रैदास की दलित चेतना को खारिज किया था? इसके लिये यह जानना जरूरी है कि दलित चेतना से उनका अभिप्राय क्या था? वे अपनी दलित चेतना को स्पष्ट करते हुण् लिखते हैं-
‘वैचारिक रूप से दलित चेतना बन्धुता और स्वतन्त्रता की पक्षधर है। अनीश्वरवाद, अनात्मवाद, पुनर्जन्म, ब्राह्मणवादी समाज-व्यवस्था का विरोध, आर्थिक क्षेत्र में पूॅंजीवाद का विरोध, स्त्री के प्रति समानता का भाव आदि विशिष्ट बिन्दु हैं, जो दलित चेतना के सरोकारों में शामिल हैं। दलित चेतना का सरोकार इन प्रश्नों से बहुत गहरे तक जुड़ा है कि ‘मैं कौन हूॅं’, मेरी पहचान क्या है?’ (पृष्ठ 59-60)
दलित चेतना के ये सारे सरोकार, जो आधुनिक दलित साहित्य के सरोकार हैं, पन्द्रहवीं सदी के कबीर और रैदास के काव्य में भी पूरी जीवन्तता के साथ मौजूद हैं। समस्या वाल्मीकि जी के अध्ययन की है। यद्यपि निर्गुणवाद उस अर्थ में ईश्वरवाद नहीं है, जिस अर्थ में ब्राह्मणवाद उसे सृष्टिकर्ता और भाग्यविधाता के रूप में मानता है। कबीर-रैदास का ईश्वर गुण-विहीन है, जो न किसी को पैदा करता है और न किसी को मृत्यु देता है। इसके लिये भी तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों को समझना जरूरी है। वह लोकशाही का नहीं, बल्कि मुस्लिम सुलतान की राजशाही का युग था, जिसकी नजर में ईश-निन्दा अपराध था और उसकी सजा मौत से कम नहीं थी। क्या कबीर-रैदास अनीश्वरवादी बनकर जिन्दा रह सकते थे? शायद इसीलिये उन्हें अपनी वैचारिक लड़ाई को जारी रखने के लिये ईश्वर के रूप में उस निर्गुण को स्थापित करना पड़ा, जो अद्वैतवादी ब्राह्मणों और एकेश्वरवादी मुस्लिम धर्मगुरुओं की आॅंखों में धूल झोंकने के लिये एक क्रान्तिकारी आड़ थी। इसीलिये उन्होंने बुद्ध की तरह चार तत्वों से नहीं, पाॅंच तत्वों से जीव की उत्पत्ति मानी, पर बुद्ध के इस मत का समर्थन किया कि जीव के मरने पर कुछ भी शेष नहीं रहता, सभी तत्व बिछड़ जाते हैं। इसी बिना पर कबीर ने परलोक को नहीं माना तथा आवागमन, पुनर्जन्म और बैकुण्ठ का भी खण्डन किया। यथा-
पाणीं पवन अवनि नभ पावक, तिहि संग सदा बसेरा।
कहै कबीर मन मन करि बेध्या, बहुरि न कीया फेरा।।
अपनै  परचै लागी  तारी,  अपन  पै आप  समाॅंनाॅं।
कहै कबीर जे आप बिचारे, मिटि गया आवन जाॅंनाॅं।ं।
चलन चलन सबको कहत है, नाॅं जानौं बैकुण्ठ कहाॅं है।
जोजन एक प्रमिति नहिं जानैं, बातनि ही बैकुण्ठ बखानै।।
ब्राह्मणवादी समाज-व्यवस्था का विरोध कबीर और रैदास ने सबसे ज्यादा किया है। रैदास की दृष्टि में ब्राह्मणी व्यवस्था श्रमिक-विरोधी है। वे ब्राह्मण को नहीं, श्रमिक को महत्व देते हैं। यथा-
धरम करम जानै नहीं, मन मह जाति अभिमान।
ऐसो ब्राह्मण सो भलो, रविदास श्रमिकहु जान।।
कबीर और रैदास दोनों ही वर्णव्यवस्था का खण्डन करते हैं। कबीर का यह पद देखिए-
जैं तै करता बरण बिचारै।
तौ जनमत तीनि डाॅंडि किन सारै।।
नही को ऊॅंचा नहीं को नीचा, जाका प्यंड ताही का सींचा।
जहाॅं तक आर्थिक क्षेत्र में पूॅंजीवाद के विरोध और वर्ण-वर्ग-विहीन समाज की पक्षधरता का सवाल है, तो इतिहास में एक व्यवस्थित और वैज्ञानिक ढ़ग से पूॅंजीवाद और वर्ग की व्याख्या हम कार्लमाक्र्स से पहले नहीं देखते। लेकिन कल्पनावादी समाजवाद की अवधारणा हमें पूर्ववर्ती दर्शन में जरूर मिलती है। यह कल्पनावादी समाजवाद कबीर और रैदास के दर्शन में भी मौजूद है। अगर हम उनके दर्शन पर निर्गुणवाद की लौकिक दृष्टि डालकर देखें, तो वे भारतीय चिन्तन में सबसे प्रखर भौतिकवादी दर्शन है। रैदास ने यह कह कर-
रविदास ब्राहमन मत पूजिए, जो होवै गुन हीन।
पूजिए चरन चण्डाल के, जउ हो ग्यान परबीन।।
एक नये सौन्दर्यशास्त्र की रचना की थी। यह सामन्तवाद का अब तक का सबसे बड़ा विरोध था। कल्पनावादी समाजवाद उनके इस पद में विद्यमान है-
ऐसा चाहौं राज मैं, मिलै सबन को अन्न।
छोट बड़ो सभ सम बसैं, रैदास रहे प्रसन्न।।
यदि बकौल ओमप्रकाश वाल्मीकि ‘दलित चेतना का सरोकार इन प्रश्नों से बहुत गहरे जुड़ा है कि मैं कौन हूॅं और मेरी पहचान क्या है’, तो यह बिल्कुल भी गूढ़ प्रश्न नहीं हैं। हिन्दू संस्कृति में इनका अर्थ यही है कि मैं ब्राह्मण हूॅं या ठाकुर हूॅं या भंगी-चमार हूॅं। क्या यही होना मेरी पहचान है? दलित चेतना इस पहचान की पक्षधर तो नहीं है, क्योंकि उसका मूल तत्व-‘मैं मनुष्य हूं’ और मनुष्यता ही मेरी पहचान है’ यह है। फिर भी यदि वाल्मीकि जी की परेशानी का कारण यह था कि कबीर और रैदास ने अपने आप को जुलाहा और चमार कहा है, तो यह जातीय पहचान वे स्वयं भी अपने नाम के साथ जोड़ते थे। फिर सन्तों की जातीय पहचान से उन्हें क्या परेशानी थी? सच तो यह है कि जिस तरह ओमप्रकाश वाल्मीकि में अपनी जाति को लेकर कोई हीनता-भाव नहीं था, उसी तरह दलित सन्त भी अपनी जातियों को लेकर हीनता की ग्रन्थी से मुक्त थे। कबीर जब काशी के भूदेवों को ललकारते थे-‘तू ब्राह्मण मैं कासी का जुलाहा, चीन्हि न मोर गियाना’ और रैदास यह कहकर लोगों को पुकारते थे-‘कह रैदास खलास चमारा, जो हमसहरी सो मीत हमारा’, तो वे ब्राह्मणवादी समाज को यही बता रहे थे कि ज्ञान का कोई भी सम्बन्ध वर्ण और जाति से नहीं है और न ज्ञान ब्राह्मण की बपौती है।
निस्सन्देह ओमप्रकाश वाल्मीकि इतिहास के विद्यार्थी नहीं थे, और साहित्य के अध्येता के रूप में भी उन्होंने इतिहास का अध्ययन करना आवश्यक नहीं समझा था, इसलिये उनका इतिहास-बोध तथ्यों से परे और कोरी बयानबाजी वाला ही है। वे लिखते हैं- ‘ईश्वरभक्ति के लिये इन्हें (सन्तों को) मन्दिर के बाहर ही बैठना पड़ा। ईश्वर भी इनके लिये मन्दिर-प्रवेश कराने में असमर्थ रहा। इनकी कोई मदद ईश्वर नहीं कर पाया। इसलिये भक्तिकालीन सभी सन्त निर्गुण उपासक हैं और सभी भक्त सगुण।’ (पृष्ठ 60)
सन्त साहित्य के सम्पूर्ण इतिहास में निर्गुणवाद पर ऐसी लचर और बचकानी दलील नहीं मिलेगी, जैसी ओमप्रकाश वाल्मीकि ने यहाॅं दी है। इसका एक ही कारण था कि वे सन्त-साहित्य से अनभिज्ञ थे। अगर वे सन्त साहित्य पढ़ लेते, तो यह कभी नहीं लिखते कि जिन्हें मन्दिर में प्रवेश नहीं मिला, वे सभी सन्त निर्गुण हो गये। नानक तो अछूत जाति से नहीं थे और उनका समय भी कबीर-रैदास के बाद का है, उन्हें मन्दिर में प्रवेश भी मिल सकता था, फिर वे क्यों निर्गुण के उपासक हुए? यह सवाल वाल्मीकि जी के दिमाग में आया ही नहीं होगा। ऐसे सवाल तभी दिमाग में आते हैं, जब उस विषय का गम्भीर अध्ययन किया जाता है। दरअसल सवाल मन्दिर के भीतर और मन्दिर के बाहर का नहीं है। सवाल भीतर और बाहर के दर्शन (विचार) का है। मन्दिर के भीतर प्रतिमा है और बाहर प्रतिमा नहीं है। प्रतिमा देवता की है, ईश्वर की नहीं है, ईश्वर जो सर्वोच्च और परम-ईश्वर समझा जाता है, उसकी कोई प्रतिमा आज तक नहीं बनी, वह प्रतिमा न ब्राह्मणों ने बनायी, न ईसाईयों ने और मुसलमानों ने। निर्गुणवादी सन्त उसी परम-ईश्वर के उपासक थे, जिसके लिये कोई मन्दिर नहीं बना और जो मन्दिर की परिधि से ही मुक्त है। मन्दिर के भीतर दर्शन का जाल है-देवता के नाम, रूप, लीला, कीर्तन, आवागमन, अवतार, बैकुण्ठ, स्वर्ग-नर्क, मोक्ष सबका जाल है। पर, मन्दिर के बाहर इन सबसे मुक्ति है। बाहर सिर्फ लोक है, परलोक नहीं है; मनुष्य का जन्म है, पुनर्जन्म नहीं है।
लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि आगे लिखते हैं कि दलित सन्तों को मन्दिर-प्रवेश के लिये लड़ाई लड़नी चाहिए थी। उनके ये शब्द देखिए-
‘मुस्लिम शासन के प्रभाव से उस काल में अनेक सन्त राष्ट्रीय फलक पर एक साथ उभरे, लेकिन मन्दिर के दरवाजे उनके लिये बन्द थे, जिन्हें खुलवाने के लिये संघर्ष करने के बजाय इन्होंने स्वयं को इस रास्ते से हटाकर निर्गुण की ओर मोड़ दिया, जिसका असर यह हुआ कि समाज में जो एक अधिकार पाने की लड़ाई शुरु होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई।’ (वही)
यहाॅं वाल्मीकि जी दलित चेतना को कितना गलत मोड़ दे रहे हैं। वे पूरी दलित चेतना को ब्राह्मणवादी चेतना में बदल देने की यह राय दे रहे हैं कि कबीर और रैदास को यह घोषणा करते हुए कि हम हिन्दू हैं, मन्दिर में प्रवेश करने का अधिकार पाने की लड़ाई लड़नी चाहिए थी। क्या हिन्दू-मन्दिरों में प्रवेश करके वर्णव्यवस्था से लड़ा जा सकता था? डा0 आंबेडकर ने भी मन्दिर-प्रवेश को अपने आन्दोलन का कार्यक्रम नहीं बनाया था। उनका नासिक में कालाराम मन्दिर का सत्याग्रह भी मन्दिर-प्रवेश का आन्दोलन नहीं था, बल्कि उसका ध्येय पूरे विश्व को अछूतों की धार्मिक स्थिति से परिचित कराना था। उन्होंने लन्दन से 3 मार्च 1934 को अपने सहयोगी भाऊराव गायकवाड़ को पत्र में लिखा था-
‘आपने अगली रामनवमी को कालाराम मन्दिर में सत्याग्रह शुरु करने के विषय में मेरा मत जानना चाहा है। मेरी राय यह है कि सत्याग्रह को आगे न चलाया जाय और पूरी तरह बन्द कर दिया जाय। मैंने मन्दिर-प्रवेश आन्दोलन इसलिये आरम्भ नहीं किया था कि दलित लोग उन देवताओं के पूजक बन जायें, जिन्होंने उन्हें पूजा करने से रोक दिया था। यह आन्दोलन मैंने इसलिये आरम्भ किया था कि मुझे लगता था कि मन्दिर-प्रवेश उन्हें हिन्दू समाज का अनिवार्य अंग बना देगा। इस पहलू से अब तक देखने के बाद दलित वर्गों को हिन्दू समाज की पूर्ण मरम्मत करने पर जोर देने की सलाह दूॅंगा। मैंने सत्याग्रह इसलिये भी आरम्भ किया था, क्योंकि मुझे यह लगा था कि दलितों को क्रियाशील बनाने का यह बेहतर रास्ता था, जिसने उन्हें अपनी स्थिति का भी बोध कराया। पर, चूॅंकि मैं मानता हूॅं कि मैंने इस उद्देश्य को प्राप्त कर लिया है, इसलिये अब मुझे मन्दिर-प्रवेश के लिये और कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। मैं चाहता हूॅं कि दलित वर्गों के लोग अब अपनी ऊर्जा और अपने संसाधन राजनीति और शिक्षा पर केन्द्रित करें और मुझे आशा है कि वे इन दोनों चीजों के महत्व को समझेंगे।’ (क्तण् ठंइं ैंीमइ ।उइमकांत ॅतपजपदहे ।दक ैचममबीमेए टवसण् 17ए च्ंतज वदमए चंहमे 202)
यदि कबीर और रैदास ने हिन्दूधर्म के साथ ऐसा प्रयोग नहीं किया था, तो इसका कारण यही था कि वे उस चिन्तन-परम्परा से आये थे, जो हिन्दूधर्म की नहीं थी। लेकिन अफसोस कि ओमप्रकाश वाल्मीकि ने कबीर और रैदास को उनकी अवैदिक परम्परा में समझने की बिल्कुल भी कोशिश नहीं की। इन सन्तों के बारे में उन्होंने अपनी समझ लालजी पेंडसे, डा0 आर0 जी0 सिंह, हजारीप्रसाद द्विवेदी और बाबूराव बागुल इन चार लेखकों की पुस्तकों को पढ़कर विकसित की थी। इसीलिये वे अपने लेख में कबीर और रैदास के किसी भी पद का मूल स्रोत नहीं दे सके हैं। वे अपने लेख में शुरु से अन्त तक इन्हीं पुस्तकों के सहारे चले हैं और जहाॅं वे स्वतन्त्र हुए हैं, वहाॅं उन्होंने किंवदन्तियों का सहारा लिया है। मसलन, वे कहते हैं-
‘यहाॅं यह तथ्य भी ध्यान आकर्षित करता है कि कबीर और रैदास का गुरु रामानन्द माना जाता है, जो सगुण धारा के भक्त हैं। लेकिन उनके शिष्य कबीर और रैदास निर्गुण धारा के सन्त हैं।’ (पृष्ठ 60)
वाल्मीकि जी को इसी मूल अन्तर से समझ लेना चाहिए था कि रामानन्द कबीर-रैदास के गुरु कैसे हो सकते हैं? दलित-चिन्तन ने कभी भी रामानन्द को कबीर-रैदास का गुरु नहीं माना। इतिहास से भी रामानन्द कबीर के गुरु साबित नहीं होते, क्योंकि रामानन्द कबीर से पहले हुए हैं। कबीर और रैदास को रामानन्द का शिष्य बनाने का सारा खेल केवल ब्राह्मणों ने किंवदन्तियाॅं गढ़कर खेला है। अफसोस कि वाल्मीकि जी ने भी उन्हीं किंवदन्तियों को प्रमाण मान लिया था। वे आगे और भी कबीर-रैदास को नकारते हुए लिखते हैं-
‘सामाजिक और आध्यात्मिक बदलाव लाने की स्थिति में ये सन्त कभी भी नहीं रहे। यहाॅं तक कि कबीर की जो क्रान्तिकारी छवि दिखायी देती है, वह भी आध्यात्मिक सवालों पर संघर्ष करने के बजाय अपना रास्ता ही बदल लेते हैं, जिससे समाज में जिस बदलाव की सम्भावना बन सकती थी, वह सैकड़ों साल आगे खिसक जाती है।’ (वही)
वाल्मीकि जी की इस सोच के लिये सिर्फ अफसोस ही किया जा सकता है कि वे कबीर-रैदास के अध्यात्म को नहीं समझ पाये। अगर कबीर और रैदास के अध्यात्म का वही अर्थ है, जो परलोक को जाने वाले हिन्दू अध्यात्म का है, तो वे हिन्दू सगुणवाद का ही वैदिक रास्ता अपनाते, निर्गुणवादी क्यों बनते? फिर क्या वे वर्णव्यवस्था, ब्राह्मणवाद, अवतारवाद, पुनर्जन्म और परलोक का खण्डन कर पाते? और तब भी क्या वे क्रान्तिकारी बने रह सकते थे? वाल्मीकि जी ने यह जानने की भी कोशिश नहीं की  थी कि डा0 आंबेडकर ने कबीर को अपना गुरु क्यों माना था? क्या वे परलोकवादी हिन्दू-अध्यात्म को मानने वाले कबीर को अपना गुरु मान सकते थे? यहाॅं तक अध्यात्मिक सवालों पर संघर्ष करने की बात है, कबीर का पूरा जीवन ही इसी संघर्ष में बीता है। यदि वाल्मीकि कबीर के इस कविता-संघर्ष को नहीं देख पाये, तो यह उनकी कमजोरी थी। सच तो यह है कि कबीर और रैदास का ब्राह्मण के साथ संघर्ष ही आध्यात्मिक सवालों पर हुआ था। सामन्तवादी और ब्राह्मणवादी आध्यात्मिक तन्त्र में शोषण के जितने भी प्रपंच हो सकते हैं, कबीर और रैदास ने उन सबके खिलाफ आवाज उठायी है। उन्होंने मूर्ति और तीर्थ तक का खण्डन किया है। कबीर कहते हैं- ‘तीरथ में तो सब पानी है, होवे नहिं कछु अन्हाय देखा/प्रतिमा सकल तो जड़ हैं भाई, बोले नहिं बोलाय देखा।’ लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि पता नहीं, अपने किस स्रोत से लिखते हैं कि रैदास ‘गंगा-स्नान के लिये नहीं जा सकते थे। इसी विवशता में रैदास को भी कहना पड़ा-‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’।’ (वह) यह वाल्मीकि का मन-गढ़न्त चिन्तन है, क्योंकि वे जिस पद को उद्धरित कर रहे हैं, वह पद रैदास का है ही नहीं। रैदास यह कह ही नहीं सकते थे कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’, क्योंकि उन्होंने गंगा को कभी तीर्थ नहीं माना। दरअसल जिस पद को वाल्मीकि रैदास का बता रहे हैं, वह गोरखनाथ का है, जो इस तरह है- ‘अवधू मन चंगा तो कठौती ही गंगा/बांध्या मेल्हा तौ जगत्र चेला।’ (गोरखबानी, पद 153)
वाल्मीकि पूछते हैं वर्णव्यवस्था और जातिभेद को लेकर कबीर ने जो सवाल खड़े किये, उसका प्रभाव समाज में किस रूप में पड़ा? फिर खुद ही जवाब देते हैं-
‘हिन्दी के प्रतिष्ठित रचनाकार प्रतापनारायण मिश्र उन्हें नीच लोगों का कवि कहते हैं। यानी साहित्य में मौजूद जातिवादी मानसिकता कबीर जैसे कवि को जातीय घेरे से बाहर नहीं आने देती है। यही स्थिति रैदास के साथ भी है।’ (वही, पृष्ठ 60-61)
वाल्मीकि यहाॅं क्या कहना चाहते हैं, यह स्पष्ट नहीं है। पर, उनके लिये यहाॅं कबीर से ज्यादा महत्वपूर्ण प्रतापनारायण मिश्र हो गये हैं, जो ब्राह्मणवाद के खिलाफ जागरण करने वाले कवि को नीच कहकर गाली दे रहे हैं। वे समझ ही नहीं रहे थे कि यही तो कबीर के कविता-संघर्ष की सफलता है। क्या डा0 आंबेडकर को हिन्दुओं की गालियाॅं नहीं मिली थीं? क्या गाॅंधी ने उन्हें साॅंप नहीं कहा था? यही तो उनके संघर्ष की सफलता थी। यदि वे ब्राह्मणवाद और हिन्दूधर्म की आलोचना नहीं करते, तो क्यों उन्हें गालियाॅं मिलतीं? क्यों गाॅंधी जी आंबेडकर को साॅंप कहते?
आगे ओमप्रकाश वाल्मीकि रैदास के ये दो पद उद्धरित करते हैं-
रैदास  जनम  के  कारने  होइ न  कोई  नीच।
नर को नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच।।
ऊॅंचे  कुल के  कारणै, ब्राह्मण  कोय  न  होय।
जेउ जान्हि ब्रह्म आत्मा, रैदास कहि ब्राह्मण होय।।
इन पदों पर वाल्मीकि टिप्पणी करते हैं- ‘यानी रैदास भी ब्रह्म के जानकार को ही ब्राह्मण मान रहे हैं। यानी घूम-फिर कर उसी दर्शन को सही मान रहे हैं, जिसके आधार पर वर्णव्यवस्था जैसी अमानवीय सोच तैयार की गयी है। उनका विरोध भी उन्हें स्वयं को ‘जाति-मुक्त’ करने में असफल रहा।’ (वही, पृष्ठ 61)
जहाॅं तक जाति से मुक्त होने का प्रश्न है, भारत में कोई भी जाति से मुक्त नहीं है। आदमी जहाॅं भी जाता है, जाति उसके साथ जाती है। क्या वाल्मीकि जी जाति से मुक्त हो सके थे? रैदास के उपर्युक्त पद ब्राह्मण की जन्मजात श्रेष्ठता के खण्डन में कहे गये हैं, वर्णव्यवस्था के समर्थन में नहीं, जैसाकि वाल्मीकि आरोपित करते हैं। रैदास अपने पदों में यही कह रहे हैं कि शूद्रत्व और ब्राह्मणत्व जन्म से नहीं होता। वाल्मीकि जी को मालूम होना चाहिए था कि कबीर-रैदास की इसी वैचारिकी से समकालीन ब्राह्मण तिलमिला गये थे, जिसकी गूॅंज सोलहवीं सदी में तुलसीदास तक दिखायी देती है। यथा-
बादहि सूद्र द्विजन्ह सन, हम तुम्हते कछु घाटि।
जानइ ब्रहम सो विप्रवर, आॅंखि देखावहिं डांटि।।
                  (मानस, उत्तर काण्ड-157)
इस दोहे में ब्राह्मणवाद का खण्डन करने वाले निर्गुण सन्तों के विरुद्ध तुलसीदास का क्रोध साफ-साफ देखा जा सकता है। लेकिन वाल्मीकि जी किसी भी तरह निर्गुण सन्तों को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। वे पुनः उन्हें खारिज करते हुए लिखते हैं-
‘यहाॅं इस उपलब्धि को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि सिखों के गुरु ग्रन्थ साहिब में रैदास की कविताओं को समान स्थान मिला। इसके बावजूद भी वे जितने पूजनीय और मान्य अपनी जाति में हैं, उतने अन्य जातियों में नहीं हैं। जो विद्रोही रूप जाति-व्यवस्था के विरुद्ध सन्त साहित्य में उभरना चाहिए था, वह नहीं उभर सका।’ (वही, पृष्ठ 61)
अगर रैदास अपनी जाति में मान्य हैं, अन्य जातियों में नहीं हैं, तो क्या इसके लिये रैदास दोषी हैं या इस देश की जाति-व्यवस्था दोषी है? इतनी सीधी सी बात भी ओमप्रकाश वाल्मीकि नहीं समझ सके। जाति-व्यवस्था के विरुद्ध कौन-सा विद्रोही रूप सन्त-साहित्य में नहीं उभरा, यह भी उन्होंने स्पष्ट नहीं किया। पन्द्रहवीं सदी में सन्त-साहित्य में जाति-व्यवस्था के खिलाफ क्या इससे बड़ा कोई विद्रोही रूप हो सकता था, जो हमें कबीर और रैदास के यहाॅं मिलता है? आखिर वाल्मीकि के पास विद्रोह का क्या मानदण्ड था? वाल्मीकि ने इस सम्बन्ध में किन्हीं डा0 आर0 जी0 सिंह के इन शब्दों को उद्धरित किया है-
‘भक्ति डा0 आंबेडकर के अनुसार लोगों में समर्पण की भावना को बढ़ाती है। यह समाज के लिये अफीम का काम करती है। भक्ति ने दलितों की नसों को कमजोर किया है। उनमें अधीनता की भावना को विकसित किया है।’ (वही)
अच्छा होता, यदि वाल्मीकि डा0 आर0 जी0 सिंह के स्रोत को डा0 आंबेडकर की मूल रचनाओं में तलाश कर लेते, तो उन्हें उसका सही सन्दर्भ मिल जाता। डा0 आर0 जी0 सिंह की जिस पुस्तक का हवाला वाल्मीकि ने दिया है, उसकी पृष्ठ संख्या का उल्लेख भी उन्होंने नहीं किया है। सम्भवतः वह पुस्तक भी उनके पास न हो और अन्यत्र ही उसका सन्दर्भ उन्होंने पढ़ा हो। आर0 जी0 सिंह की सन्दर्भित पुस्तक का नाम ‘भारतीय दलितों का समस्याएॅं और उनका समाधान’ है, जिसका प्रकाशन 1986 में मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल से हुआ था। वाल्मीकि ने जिन पंक्तियों को उद्धरित किया है, वे आर0 जी0 सिंह की किताब में डा0 धनंजय कीर के हवाले से लिखी गयी हैं। डा0 आंबेडकर ने ब्राह्मण सन्तों के सन्दर्भ में अपने विचार व्यक्त किये थे, जो उनके ग्रन्थ ‘जाति का विनाश’ में मिलते हैं। इसे डा0 कीर ने भी स्पष्ट किया है। पर आर0 जी0 सिंह ने दलित सन्तों और ब्राह्मण सन्तों को अलग-अलग रेखांकित करने के बजाय दोनों को एक ही श्रेणी में रख दिया है और इसी अर्थ को वाल्मीकि ने भी मान लिया। सच्चाई यह है कि डा0 आंबेडकर ने ब्राह्मण सन्तों के सन्दर्भ में भक्ति का विरोध किया है। पर, वाल्मीकि डा0 आंबेडकर के हवाले से भी सन्तों का विरोध करने का अवसर नहीं छोड़ते हैं। वे डा0 आंबेडकर की ये पंक्तियाॅं उद्धरित करते हैं-
‘जहाॅं तक सन्तों का प्रश्न है, किसी भी सन्त ने जाति-व्यवस्था पर कभी भी हमला नहीं किया। इसके विपरीत वे जात-पाॅंत की व्यवस्था के पक्के विश्वासी रहे हैं। उन्होंने यह शिक्षा नहीं दी कि सारे मानव बराबर हैं, परन्तु यह शिक्षा दी कि ईश्वर की दृष्टि में सारे मानव समान हैं।’ (पृष्ठ 62)
ये पंक्तियाॅं वाल्मीकि ने डा0 आंबेडकर की पुस्तक ‘जाति का विनाश’ (ऐनिहिलेशन आफ कास्ट) से उद्धरित की हैं, पर सन्दर्भ से अलग करके उद्धरित की गयी हैं। अगर वे उनके पूरे उद्धरण को लेते तो साफ हो जाता कि उनके ये विचार ब्राह्मण-वैष्णव सन्तों के बारे में हैं। आंबेडकर ने ये विचार गाॅंधी जी के एक सवाल के जवाब में व्यक्त किये थे। पाठकों की जानकारी के लिये यहाॅं वह पूरा उद्धरण दिया जा रहा है-
‘जहाॅं तक सन्तों का प्रश्न है तो मानना पड़ेगा कि विद्वान लोगों की तुलना में सन्तों के उपदेश कितने ही अलग और उच्च हों, वे शोचनीय रूप से निष्प्रभावी रहे हैं। वे निष्प्रभावी दो कारणों से रहे हैं। पहला, किसी भी सन्त ने जाति-व्यवस्था पर कभी भी हमला नहीं किया। इसके विपरीत वे जात-पाॅंत की व्यवस्था के पक्के विश्वासी रहे हैं। उनमें से अधिकतर उसी जाति के होकर जिये और मरे, जिस जाति के वे थे। ज्ञानदेव ब्राह्मण के रूप में अपनी प्रतिष्ठा से इतने उत्कट रूप से जुड़े थे कि जब ब्राह्मणों ने उन्हें समाज में बने रहने से इनकार कर दिया, तो उन्होंने ब्राह्मण पद की मान्यता पाने के लिये जमीन-आसमान एक कर दिया था। सन्त एकनाथ, जो अछूतों को छूने तथा उनके साथ भोजन करने का साहस दिखाने के लिये धर्मात्मा बने हुए हैं, उन्होंने ऐसा इसलिये नहीं किया, क्योंकि वे जाति-पाॅंति और छुआछूत के विरुद्ध थे, बल्कि उन्होंने ऐसा इसलिये किया, क्योंकि उनकी मान्यता थी कि अपवित्रता को पवित्र गंगा नदी (अंत्याजाचा विटाल ज्यासी, गंगा स्नाने शुद्धत्व त्यासी) में स्नान करके धोया जा सकता है। जहाॅं तक मेरा अध्ययन है, किसी भी सन्त ने जाति-पाॅंति और छुआछूत के विरुद्ध कोई अभियान नहीं चलाया। मनुष्यों के बीच चल रहे संघर्ष से वे चिन्तित नहीं थे। वे मनुष्य और ईश्वर के बीच सम्बन्ध के लिये ही चिन्तित थे। उन्होंने यह शिक्षा नहीं दी कि सारे मनुष्य बराबर हैं। यह एक बहुत अलग और बहुत अहानिकर प्रस्ताव है, जिसकी शिक्षा देने में किसी को कोई परेशानी नहीं होगी या जिसके मानने में कोई खतरा नहीं है। दूसरा कारण यह है कि सन्तों की शिक्षा प्रभावहीन रही है, क्योंकि लोगों को पढ़ाया गया है कि सन्त जाति का बन्धन तोड़ सकते हैं, लेकिन आम आदमी यह बन्धन नहीं तोड़ सकता। इसलिये सन्त अनुसरण करने का उदाहरण नहीं बने।’ (डा0 आंबेडकर सम्पूर्ण वाङमय, खण्ड 1, पृष्ठ 113)
इस उद्धरण में डा0 आंबेडकर ने कहीं भी कबीर, रैदास या किसी भी निर्गुण दलित सन्त का जिक्र नहीं किया है। उन्होंने ज्ञानदेव और एकनाथ जैसे ब्राह्मण सन्तों के विषय में अपना मत व्यक्त किया है। इससे साफ है कि वाल्मीकि ने दलित सन्तो के बारे में डा0 आंबेडकर को गलत ढंग से उद्धरित करने का काम किया है।
कबीर के सामाजिक विरोधाभासों का परिचय कराते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि ने यह बताने की भी कोशिश की है कि कबीर स्त्री-विरोधी थे। लेकिन उन्होंने यह जानने का प्रयास नहीं किया कि कबीर ने केवल उन स्त्रियों की निन्दा की है, जो विवाहेत्तर सम्बन्ध रखती थीं। इसी आधार पर उन्होंने कामी पुरुष की भी निन्दा की है। वाल्मीकि ने स्त्री-विरोधी होने का आरोप सिद्धों पर भी लगाया है। वे लिखते हैं- ‘ये सन्त और सिद्ध जहाॅं एक ओर जाति का विरोध कर रहे थे, वहाॅं स्त्री के प्रति असहिष्णुता भी दिखा रहे थे।’ (वही, पृष्ठ 63) लेकिन अपने मत की पुष्टि में वे सिद्धों का कोई भी दोहा पेश नहीं कर सके हैं। जो दोहा उन्होंने प्रस्तुत किया है, वह सरहपाद का यह दोहा है-
ब्राह्मणंेहि म जाणन्त भेउ। एव उ पढि़ अउ एच्च उ वेउ।।
मट्टी, पाणी, कुस, लई, पढ़न्त। धरहिं वह सी अग्नि हुणन्त।। (वही)
कोष्ठक में इन दोहों का अर्थ वाल्मीकि ने यह दिया है- ‘ब्राह्मण ही क्यों हाथ में कुश, जल लेकर हवन करते हैं? यदि आग में घी डाल देने से मोक्ष मिलता है, तो क्यों नहीं सब अन्त्यजों को आग में घी डालकर यज्ञ और हवन करने देते।’ (वही)
यहाॅं मुझे वाल्मीकि जी की नकल करने की प्रवृत्ति पर तरस आता है। उन्होंने सरहपाद के दोहे और उनके अर्थ जहाॅं से भी नकल किये हैं, वे पूरी तरह अशुद्ध हैं। माना कि मूल दोहे अपभ्रंश में हैं, पर इस अशुद्ध अनुवाद में भी यह तो साफ दिखायी दे ही रहा है कि ‘मोक्ष’ और ‘अन्त्यज’ शब्द उनमें आये ही नहीं हैं। अर्थ को नकल करते समय इस बात को उन्हें समझना चाहिए था। सरहपाद के उपर्युक्त दोहों का शुद्ध अपभ्रंश पाठ इस तरह है-
ब्रम्हणेंहि म जानन्तहि भेउ। एवइ पढिअउ ए च्चउवेउ।।
मट्टि पाणि कुस लई पढ़न्त। घरहिं अग्गि हुणन्तं।।
इन दोहों का सही अनुवाद इस प्रकार है, जो राहुल सांकृत्यायन ने छायानुवाद के रूप में किया है-
ब्राह्मण न जानते भेद। यों ही पढ़े ये चारों वेद।।
मट्टी पानी कुश लेई पढ़न्त। घर ही बैठी अग्नि होमन्त।।
                              (दोहा कोश, पृष्ठ 2)
ओमप्रकाश वाल्मीकि सरहपाद द्वारा ब्राह्मणवादी व्यवस्था को दी गयी इस चुनौती को दलित चेतना की पूर्व पीठिका मानने के बजाय उसे यह कर नकार देते हैं कि ‘एक लम्बे कालखण्ड में यह चेतना दबकर रह गयी।’ (वही, पृष्ठ 63) किन्तु वे यह नहीं देख सके कि सामाजिक क्रान्ति की यही चेतना लोकायत और बुद्ध से होकर सिद्धों तक आयी थी, और सिद्धों से दलित सन्तों के निर्गुवाद में विकसित होती हुई आंबेडकर तक पहुॅंची थी और इसी चेतना का विकास आधुनिक दलित साहित्य में हुआ है।
(12 जनवरी 2014)

















शनिवार, 25 जनवरी 2014

जाति, सम्प्रदाय और लोकतन्त्र
सामाजिक न्याय की दृष्टि से लोकतन्त्र पर एक विचार
(अर्थात लोकतन्त्र का दलित पाठ)
(कॅंवल भारती)
        लोकतन्त्र को सामन्तवाद से आगे की व्यवस्था माना जाता है, यानी उसके विरोध की स्वराज-व्यवस्था। परन्तु वह वह कभी भी स्वराज-व्यवस्था नहीं बन सकी। हालाँकि लोकतन्त्र स्वयं एक विचारधारा है, पर विचारधारा के आधार पर भी लोकतन्त्र की अवधारणायें अलग-अलग हैं। इसलिये जहाँ  उसकी एक वर्गीय अवधारणा बनी, वहाँ जाति तथा सम्प्रदाय की राजनीति में भी उसका अर्थ कम महत्वपूर्ण नहीं है। जिस तरह अलग-अलग विचारधाराओं के अलग-अलग गाँधी-आंबेडकर हैं, उसी तरह उनके अलग-अलग लोकतन्त्र भी हैं। विशुद्ध वर्ग की राजनीति करने वाली वामपंथी सरकार ने भी एक सम्प्रदाय विशेष के हित में तसलीमा नसरीन को कोलकाता में नहीं रहने दिया था। यह वर्गीय राजनीति में भी लोकतन्त्र की साम्प्रदायिक अवधारणा को तसलीम करना था। अभी मैं फेसबुक पर एक पोस्ट में पढ़ रहा था कि फासीवाद जातिवाद और साम्प्रदायिकतावाद का चोला पहनकर आता है। यह उस कम्युनिस्ट विचारधारा की पोस्ट थी, जिसने खुद साम्प्रदायिकतावाद के आगे घुटने टेके हैं और जिसकी उससे निपटने की कोई कार्ययोजना अब तक अमल में नहीं आयी है। किन्तु क्या जातिवाद और सम्प्रदायवाद वास्तव में फासीवाद की व्यवस्थायें हैं? मुझे लगता है कि जाति और धर्म तभी फासीवाद का चोला पहनते हैं, जब वे नस्लवाद की भूमिका में आते हैं और इस नस्लवाद में भी श्रेष्ठतावाद की चेतना काम करती है।
                मैं पूरी दुनिया की बात तो नहीं करता, पर अगर भारत के सन्दर्भ में ही बात करूॅं, तो इतिहास में अनार्यों, बौद्धों, जैनों, शूद्रों, दलितों और आजाद भारत में ईसाईयों और मुसलमानों पर जो अत्याचार हुए हैं, उसका मूल कारण श्रेष्ठतावाद से ग्रस्त यही नस्लवाद है, जिसे दलित चिन्तन ब्राह्मणवाद कहता है। आजाद भारत में इस ब्राह्मणवाद को समूल नष्ट किया जा सकता था, अगर साम्राज्यवाद-पूंजीवाद-विरोधी समाजवादी शक्तियां  कांग्रेस के खिलाफ एकजुट हो जातीं। लेकिन वे नहीं हुईं, यहाँ  तक कि एम0 एन0 राय और स्वामी सहजानन्द जैसे प्रखर सोशलिस्ट तक कांग्रेस से अलग होने को तैयार नहीं थे। इसका एक ही कारण आंबेडकर की दृष्टि में था कि वे समाजवादी तो थे, पर ब्राह्मणवादी ग्रन्थि से मुक्त नहीं थे। यही कारण था कि जब डा0 आंबेडकर ने कांग्रेस से पृथक वर्गीय आधार पर इंडिपेंडेंट लेबर पार्टीका गठन किया, तो उसका सबसे ज्यादा विरोध इन्हीं सोशलिस्टों ने किया था, जिनमें एम0 एन0 राय प्रमुख थे। इस पर आंबेडकर ने टिप्पणी की थी कि एम0 एन0 राय के इस स्टैण्ड से कब्र में लेनिन की आत्मा भी बेचैन हो गयी होगी। इन्हीं तथाकथित समाजवादियों की वजह से साम्राज्यवाद और पूॅंजीवाद के विरुद्ध कोई संयुक्त मोर्चा नहीं बन सका और भारत में अंगे्रजों ने ब्राह्मणों, पूंजीपतियों और सामन्तों के हाथों में ही शासन-सत्ता सौंप दी। शायद धनिकों के वर्ग से आये वे समाजवादी भी यही चाहते थे। इसलिये कहना न होगा कि जिस स्वतन्त्र भारत का प्रथम नागरिक 108 ब्राह्मणों के पैर धोकर राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठा हो, उस देश का लोकतन्त्र असाम्प्रदायिक और जातिविहीन चरित्र का हो भी नहीं सकता था।
भारत में जाति और धर्म की साम्प्रदायिक राजनीति की शुरुआत यहीं से होती है। आंबेडकर का दलित आन्दोलन जाति का आन्दोलन नहीं था, बल्कि मानवीय गौरव और अधिकारों से वंचित अस्पृश्य जातियों की आजादी का आन्दोलन था। इसे समझने की कोशिश न समाजवादियों ने की और न ब्राह्मणवादियों ने। इसलिये यह आन्दोलन शीघ्र ही जातिवादी आन्दोलन में बदल गया और नवें तथा दशवें दशकों में और भी उग्र हो गया, जब पिछड़े वर्गों ने मण्डल कमीशन को लागू करने के लिये आन्दोलन चलाया। इसे व्यापक बनाने का काम किया कांशीराम की बहुजन राजनीति और उसकी प्रतिक्रान्ति में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की रामरथ यात्रा ने। हालांकि यह आन्दोलन भी जन्म नहीं ले पाता, अगर कांग्रेस सरकार ने काका कालेलकर आयोग की सिफारिशों को लागू कर दिया होता। लेकिन तत्कालीन गृहमंत्री गोबिन्दबल्लभ पन्त ने इन सिफारिशों को यह कह कर खारिज कर दिया कि इनके आधार पर तो पूरा देश ही पिछड़ा हुआ है। वे यह नहीं समझ सके कि अगर वंचित वर्गों को आजादी में भागीदारी नहीं मिलेगी, तो उनके लिये गणतन्त्र का कोई भी अर्थ नहीं रह जायेगा। इस प्रकार कांग्रेस की ब्राह्मणवादी और पॅूंजीवादी ताकतों ने भारत में जातिवादी राजनीति का मार्ग प्रशस्त किया। परिणामत: विश्वनाथप्रताप सिंह ने देर से ही सही मण्डल आयोग को लागू किया, जिसके रथ पर सवार होकर सामाजिक न्याय और हिन्दूगर्व की राजनीति ने एक साथ देश की राजीनति में प्रवेश किया। इसने पूरे देश को गरमा दिया। फलतः,  जहाँ सामाजिक न्याय की राजनीति के तमाम नायक और पुरौधा पैदा हो गये, वहीं रातों-रात हिन्दुत्व की भी तमाम रक्षा-वाहिनियां पैदा हो गयीं। उत्तर प्रदेश में मण्डल-समर्थक मुलायमसिंह यादव और हिन्दुत्व-समर्थक कल्याण सिंह इसी राजनीतिक बवण्डर की देन हैं। इसमें सबसे बड़ा विद्रूप यह है कि कांग्रेस ने भी इस साम्प्रदायिक राजनीति में खूब हिन्दुत्व का कार्ड खेला। 1992 में कल्याण सिंह के नेतृत्व में अयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़ी गयी, और केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने उसमें पूरी मदद की। उसकी प्रतिक्रिया में देश भर में दंगे हुए और उसने उत्तर प्रदेश में भारतीय राजनीति का इतिहास बदल दिया। परिणामतः दशकों से कांग्रेस के मजबूत पाये ऐसे भरभरा कर टूटे कि वह आज तक अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो पा रही है। भारतीय राजनीति के इतिहास का यह वह महत्वपूर्ण दौर है, जिसमें राजनीति के कई मिथक टूटे हैं और कई नये मिथक बने हैं। जो सबसे बड़ा मिथक टूटा, वह यह था कि दलित जातियों के लोग सरकारी ब्राह्मण कहे जाते थे और उन्हें कांग्रेस का जरखरीद गुलाम समझा जाता था। पर इसी दौर में कांशीराम के आन्दोलन ने इस मिथक को तोड़ दिया। वे न केवल कांग्रेस से अलग हुए, बल्कि उन्हें यह भी अहसास हो गया कि कांग्रेस उनकी ही जमीन पर खड़ी हुई थी। यह जादुई काम कांशीराम के वोट हमारा राज तुम्हारा नहीं चलेगाके नारे ने किया; और यह नारा लोकतन्त्र में बहुत महत्व रखता है। फलतः एक इंडिपेंडेन्ट बहुजन राजनीति अस्तित्व में आयी, जिसके गर्भ से कई जातिवादी राजनीतिक धारायें निकलीं। अब यहाँ  सवाल यह पैदा होता है कि लोकतन्त्र में इस जातिवादी और साम्प्रदायिक राजनीति की भूमिका रचनात्मक है या विनाशकारी? मतलब, तीन सवाल इस सन्दर्भ में उठाये जाते हैं-
1- इस राजनीति ने दलित जातियों का कितना भला किया?
2- इसने जातिवाद को कितना उभारा? और,
3- इस राजनीति ने लोकतन्त्र को मजबूत किया या कमजोर?
पहले सवाल के सन्दर्भ में मुझे लगता है कि अगर नवें दशक के बाद दलित या बहुजन राजनीति का उभार न होता, तो दलित कभी भी कांग्रेस को चुनौती देने की स्थिति में नहीं होते। इस चुनौती से ही यह मिथक टूटा कि कांग्रेस हमेशा सत्ता में बनी रहने वाली अजरामर पार्टी है। यहाँ सवाल दलितों के आर्थिक लाभ का नहीं है, वरन् उस राजनीतिक स्वतन्त्रता का है, जिसे इस आन्दोलन के जरिये उन्होंने हासिल किया है। उनके लिये यह प्राप्ति एक बड़ी क्रान्ति है। इसे अगर कोई जातिवाद कहता है, तो वह हजारों साल से सत्ता में मौजूद ब्राह्मणवाद को नकारने का अपराध करता है, जिससे लड़े बिना जातिवाद को खत्म किया ही नहीं जा सकता। दलित-पिछड़ी जातियों का सत्ता के केन्द्र में आना, उनमें नेतृत्व का उभरना, मण्डल कमीशन का लागू होना, जिसके कारण पिछड़े वर्गों को शिक्षा, चिकित्सा और अन्य संस्थानों में कानूनन प्रवेश मिलना, बड़ी संख्या में दलित वर्गों का प्रशासनिक और शिक्षा के केन्द्रों में नौकरियों में आना और राज्यों में अपने नेतृत्व में सरकारें बनाना दलित-पिछड़ी जातियों के लिये बहुत बड़ा राजनीतिक लाभ है। यह कोई कम बड़ा परिवर्तन नहीं है कि अनेक राज्यों में ब्राह्मण सत्ता से बेदखल हो गया है और दलित-पिछड़ी जातियों के हाथों में सत्ता का सूत्र आ गया है।
क्या इसने जातिवाद को उभारा? मेरी दृष्टि में यह सवाल कम और आरोप ज्यादा है। जातिवाद कब नहीं था, जो जाति की राजनीति ने उसे उभारा? जब जाति की राजनीति नहीं थी, तब भी जातिवाद था और ज्यादा भयानक था। दलितों पर अत्याचार के लोमहर्षक काण्ड सबसे ज्यादा इसी दौर में हुए। तब दलित अगर थोड़ा भी सिर उठाकर चलने और सवर्णों के खिलाफ जाने का साहस करते थे, तो तुरन्त उन्हें उनकी औकात दिखा दी जाती थी। अगर यह जातिवाद नहीं था, तो क्या था? आज भी जिन राज्यों में दलित राजनीति का उभार नहीं है,  वहाँ उन पर सबसे ज्यादा जुल्म होते हैं। लेकिन शायद ही वहाँ की राजनीति को जातिवादी कहा जाता हो। लेकिन उत्तर प्रदेश में दलित-पिछड़ों की राजनीति को जातिवादी कहा जाता है। ऐसा क्यों?  मुझे इसका एक ही कारण नजर आता है और वह यह है कि यहाँ दलित-पिछड़ी जातियां अपने सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर ज्यादा जागरूक और मुखर हो गयी हैं। वर्गीय राजनीति के पैरोकार उत्तर प्रदेश में दलित-पिछड़ों की इसी जागरूकता को जातिवाद का उभार समझने की भूल कर रहे हैं । यह भूल इसलिये है, क्योंकि वे यहाँ मार्क्सवाद की सैद्धान्तिकी से समाजवाद का अध्ययन करने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि भारत में उपेक्षित जातियों के उत्थान के मुद्दे ही लोकतन्त्र में कल्याण के अनिवार्य मुद्दे हैं।
क्या यह कहा जा सकता है कि दलित राजनीति ने लोकतन्त्र को कमजोर किया है? मुझे लगता है कि ऐसा बिल्कुल भी नहीं हुआ है। सच तो यह हैं कि सामाजिक न्याय की राजनीति ने लोकतन्त्र को और भी मजबूत किया है, क्योंकि जिस लोकतन्त्र में देश की विशाल आबादी की भागीदारी उपेक्षित रहती है, वहाँ लोकतन्त्र हमेशा कमजोर रहता है और देश की सीमायें भी। दलित राजनीति के विरोधियों को इतिहास से यह समझना चाहिए कि वह देश हमेशा अराजकता से ग्रस्त रहता है, जिसमें सत्ता पर अल्पसंख्यक वर्ग का वर्चस्व होता है और बहुसंख्यक वर्ग हाशिये पर रहता है।

24 जनवरी 2014

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

सब मदमाते कोई न जाग
(कँवल भारती)
      हमने रोम के शासक नीरो के बारे में सुना था कि रोम जल रहा था और नीरो बांसुरी बजा रहा था. कहानी कुछ इस तरह है कि राजमहल में पार्टी का आयोजन था, जिसमे रौशनी करने के लिए जेलों से कैदियों को निकाल कर उन्हें खंबों पर लटकाकर उनमें आग लगा दी गयी थी. लोग आग की लपटों में जल रहे थे, चीख रहे थे और राजमहल के लोग उसी आग की रौशनी में जश्न मना रहे थे. अखिलेश यादव का ‘सैफई महोत्सव’ भी ऐसा ही जश्न है, जो मुजफ्फरनगर दंगों की लपटों की रौशनी में मनाया गया है. जी-भर कर नाच-गाना हुआ, सरकारी खजाने से करोड़ों रूपये इस नाच-गाने पर उड़ाये गये, और करोड़ों रूपये बख्शीस में दिए गये. जैसे कोई बदचलन औलाद अपने बाप की दौलत को बरबाद करती है, वैसे ही नाच-गाने के शौक़ीन अखिलेश यादव और उनके मंत्री जनता के पैसे को अपने बाप का माल समझकर उड़ा रहे हैं. अफ़सोस कि जनता विरोध नहीं करती, और इसका कारण यही है कि तमाम सामाजिक आन्दोलन भी जनता को जागरूक नहीं कर पा रहे हैं. जनता सिर्फ वोट के समय जागती है और अगले चुनाव तक फिर सो जाती है. इस दौरान भी वह या तो जाति के नाम पर जागती है या धर्म के नाम पर; और यहाँ भी वह ऐसा जागती है कि एक-दूसरे के खून की प्यासी हो जाती है और इस जागरण में शासकों पर जरा भी आंच नहीं आती. लेकिन यह जाग भी उसकी अपनी नहीं है, शासक वर्ग की है. इसलिए शासक वर्ग वह अच्छी तरह जानता है कि जनता को कब जगाना है और कब सुलाना है. और उसे जगाने और सुलाने के लिए उसके पास जाति और धर्म ही सबसे बड़े अस्त्र हैं.
      पूरे उत्तर प्रदेश में कहीं भी विकास नहीं हो रहा है. मैं इस एक साल में बीसियो जिलों में गया हूँ, लखनऊ, इलाहबाद, गोरखपुर और बनारस जैसे नगरों में मैं पैदल और रिक्शों से घूमा हूँ, कहीं भी विकास दिखायी नहीं दिया. सड़कें इतनी खराब कि पैदल चलने में भी दिक्कत हो रही थी. जब बड़े शहरों का यह हाल है, तो छोटे शहरों का हाल कितना खस्ता होगा? मेरे अपने शहर में सड़कों में इतने गड्ढे हैं कि रिक्शे तक पलट जाते हैं. पर अखिलेश और उनके मंत्रियों को तो उन सड़कों पर चलना नहीं है, फिर क्यों बनवाएं वो सड़कें? उन्हें तो हवा में चलना है. आम आदमी पार्टी ने भले ही राजनीति को आम आदमी की सेवा का नाम दिया हो, पर अपने आप को आम आदमी से ऊपर मानने वाले उत्तर प्रदेश के मदमाते मंत्रियों पर इसका कुछ भी असर पड़ने वाला नहीं है. वे मोटी चमड़ी वाले इतने विशिष्ट श्रेणी के लोग हैं कि सरकारी खजाने से उनकी सुख-सुविधाओं और निजी यात्राओं पर एक वर्ष में लगभग एक हजार करोड़ रुपये से भी ज्यादा का खर्च होता है. क्या इसे विशिष्ट लोगों से यह उम्मीद की जा सकती है कि वे राजनीति को बदलेंगे?
      क्या सैफई महोत्सव मनाने वाले अखिलेश यादव और जनता के पैसे से पांच देशों में सैर-सपाटा करने के लिए विदेश जाने वाले मंत्रियों और विधायकों के चेहरों पर मुजफ्फरनगर दंगों में मारे गये बेकसूरों, टेंटों में ठंड से मरने वाले मासूम बच्चों और विस्थापितों का कोई रंजोगम दिखायी देता है? क्या दर्द की हल्की सी भी कोई शिकन है आज़म खां के माथे पर? अगर होती तो पूरे साल मातम मनाते और सारे महोत्सव और सैर-सपाटे स्थगित कर देते. पर ये तो नीरो हैं, मौतों पर जश्न मनाने का हक बनता ही है. विदेश यात्रा का औचित्य साबित करने वाला तर्क तो देखिये, कहा जा रहा है कि इस यात्रा का उद्देश्य, (जिस पर कम से कम 50 लाख रुपया रोजाना खर्च आयेगा,) दूसरे देशों में यह जाकर देखना है कि वहां लोकतान्त्रिक संस्थाएं किस तरह काम करती हैं? कुछ तो शर्म करो अखिलेश यादव ! जो आपके मंत्री अपने जिलों में लोकतंत्र की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं, जो अपनी तानाशाही के आगे किसी नियम-कानून को नहीं मानते, जिनके लिए उनका हुक्म ही लोकतंत्र है, वे दूसरे देशों में जाकर लोकतंत्र सीखेंगे? किसे बेवकूफ बना रहे हैं आप? इस विदेश-यात्रा में वे क्या करने गये हैं यह अखिलेश जी आप अच्छी तरह जानते हैं. पर इस सैर-सपाटे को स्टडीज-टूर का नाम तो मत दीजिये.
      कबीर ने ऐसे ही लोगों के लिए कहा है—‘सब मदमाते कोई न जाग. ताथे संग ही चोर घर मुंसन लाग,’
(9 जनवरी 2013)



बुधवार, 1 जनवरी 2014

नयी राजनीति की सम्भावनाएॅं-
‘आप’ को जनता पार्टी बनने से रोकना होगा।
कॅंवल भारती
भारतीय राजनीति का इतिहास बताता है कि जनता ने हमेशा नयी राजनीति के विकल्प को पसन्द किया है। हम काॅंगे्रस से ही बात करें, तो लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद इन्दिरा गाॅंधी जब प्रधानमन्त्री बनीं, तो उन्होंने 1969 में पूॅंजीवादी अर्थव्यवस्था के ढाॅंचे को तोड़ते हुए 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और 1970 में राजघरानों की सुविधाएॅं खत्म कर ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया। इससे काॅंगे्रस की पूॅंजीवादी ताकतें नाराज हो गयीं और काॅंगे्रस के दो टुकड़े हो गये। सरकार गिरी और मध्यावधि चुनाव हुए। पर दलित और गरीब वर्ग ने इन्दिरा गाॅंधी की काॅंगे्रस का साथ दिया और परिणामतः 1971 में वे पुनः प्रधानमन्त्री बन गयीं। इसी अवधि में उन्होंने बीमा का राष्ट्रीयकरण किया, भूमि सुधारों को लागू कर भूमिहीनों को जमीनें बाॅंटीं और गरीबों के उत्थान के लिये बीस सूत्री कार्यक्रम बनाया। तब राजनीति में इस समाजवादी ढाॅंचा खड़ा करने की उनकी कोशिश को वंचित वर्ग ने बहुत सराहा था और वह उसका वोट बैंक बन गया था।
पर, 1975 में देश में आपातकाल लगाने के बाद इन्दिरा गाॅंधी का एक दूसरा ही चेहरा सामने आया, जो गरीब-विरोधी, लोकतन्त्र-विरोधी, फासीवादी और दमनकारी था। इसके विरुद्ध लोकतन्त्र की बहाली के लिये जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक देश-व्यापी आन्दोलन चला, जिसे उन्होंने ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ का नाम दिया। इसी आन्दोलन के गर्भ से ‘जनता पार्टी’ का जन्म हुआ, जिसमें इन्दिरा-काॅंगे्रस से अलग हुए धड़ों के साथ-साथ जनसंघ भी शामिल थी। चूॅंकि यह पार्टी गैर-काॅंगे्रसवाद के विकल्प के तौर पर अस्तित्व में आयी थी, इसलिये जनता ने इस नये विकल्प को अपना भरपूर समर्थन दिया। जनता पार्टी की सरकार बनी और मोरारजी देसाई प्रधानमन्त्री बने। पर जनसंघ की दोहरी सदस्यता को लेकर विवाद हुआ और दो साल बाद ही जनता सरकार का पतन हो गया। जनसंघ ने अलग होकर ‘भारतीय जनता पार्टी’ बना ली और जनता पार्टी भी खण्ड-खण्ड हो गयी। इसके बाद ‘समाजवादी पार्टी’ और ‘बहुजन समाज पार्टी’ के विकल्पों ने जन्म लिया। लेकिन इन सारे विकल्पों के नेता धर्म और जाति की राजनीति करने वाले ही नहीं थे, बल्कि तानाशाह और भ्रष्ट भी थे। इसलिये इनमें से एक भी जनता की आकांक्षा पर खरा नहीं उतर सका। साधारण परिवारों से आये ये नेता करोड़ों नहीं, अरबों रुपयों की सम्पत्ति के मालिक बन गये। और जनता बेरोजगारी, गरीबी और मॅंहगाई से त्रस्त होकर त्राहि-त्राहि कर उठी। ऊपर से निरंकुश शासकों ने जनता के प्रतिरोध को उभरने ही नहीं दिया। जो भी उसके खिलाफ बोला, उसे कुचल दिया गया।
एक लम्बे समय के बाद एक बार फिर जेपी की तर्ज पर अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बड़े देश-व्यापी जन-आन्दोलन को खड़ा किया, जिसके गर्भ से अरविन्द केजरीवाल निकले और ‘आम आदमी पार्टी’ का जन्म हुआ। राजनीति को उन्होंने एक नयी ‘चाल’ दी। हालाॅंकि उन्होंने अपनी चिन्ता के केन्द्र में मध्यवर्गीय समाज को रखा। मध्यवर्गीय समाज की समस्या रोजी-रोटी की नहीं है, बल्कि बिजली-पानी की है। उन्होंने उसे भरोसा दिलाया कि वे सत्ता में आने पर बिजली का बिल आधा कर देंगे और हर महीने 700 लीटर पानी मुफ्त देंगे। इन्हीं दो मुद्दों पर वे सत्ता में आ गये और उन्होंने यह साबित करके भी दिखा दिया। वे जानते हैं कि समस्याएॅं भ्रष्टाचार से पैदा होती हैं, और जब भ्रष्टाचार नहीं रहेगा, तो जनता की कोई भी समस्या ऐसी नहीं है, जो स्वतः हल न हो जाये। अगर केन्द्र की मनमोहन सरकार ने शरद पवार को हटा दिया होता, तो मॅंहगाई पर कभी का काबू पा लिया होता। पर उसने उन्हंे नहीं हटाया और वह बाकायदा घोषणा करके मॅंहगाई बढ़ाते रहे। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि काॅंगे्रस सरकार की इच्छा-शक्ति ही मॅंहगाई कम करने की नहीं थी? अब भी अगर काॅंगे्रस यह नहीं सोच रही है कि इसी मॅंहगाई ने उसका दिल्ली, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में सफाया किया है, तो इसका मतलब यही है कि वह अब भी जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी को नहीं समझ रही है।
केजरीवाल की चिन्ता में अभी निम्नवर्ग नहीं है, जिसकी समस्या बिजली-पानी से ज्यादा रोजगार की है। इसलिये अभी उनके एजेण्डे में भी रोजगार नहीं आया है। लेकिन उसे आना ही होगा, क्योंकि निम्नवर्ग भी एक बेहतर विकल्प की तलाश में ‘आम आदमी पार्टी’ से ही आशा लगाये बैठा है। क्या उसकी वह आशा पूरी होगी? यह एक बड़ा सवाल है, लेकिन असम्भव बिल्कुल भी नहीं है। पर चिन्ता इस बात की है कि ‘आम आदमी पार्टी’ कहीं ‘जनता पार्टी’ न बन जाये और इतिहास की पुनरावृत्ति न हो जाये। इसकी सम्भावना इसलिये ज्यादा लगती है, क्योंकि स्थापित पार्टियों के शातिर लोग भी ‘आम आदमी पार्टी’ की पूॅंछ पकड़ कर लोकसभा चुनाव जीतने की इच्छा से उसमें शामिल होने की हर जुगत भिड़ाने में लग गये हैं। कुछ तो उसमें शामिल भी हो गये हैं और काफी संख्या में ऐसे लोग अरविन्द केजरीवाल के सम्पर्क में भी हैं। यह भी विद्रूप ही है कि कई भाजपाई नेता ‘आप’ के टिकट पर दिल्ली में चुनाव लड़े है और बरेली के तौकीर रजा जैसे घोर साम्प्रदायिक नेता को भी ‘आप’ से जोड़ने के लिये केजरीवाल ने उनसे मुलाकात की है। हो सकता है कि ‘आप’ में शामिल होने के लिये ही तौकीर रजा ने सपा से इस्तीफा दिया है। अगर केजरीवाल अपनी पार्टी में काॅंगे्रस, भाजपा, सपा, बसपा आदि पार्टियों से आने वाले लोगों के प्रवेश पर पाबन्दी लगाते हैं, तब तो आशा की जा सकती है कि वे भारत की राजनीति को नयी चाल में ढाल सकेंगे और यदि वे ऐसा नहीं कर सके तो ‘आप’ के भविष्य के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
(1 जनवरी 2014)