मंगलवार, 24 जुलाई 2012

waah ree janta waah re neta


वाह री जनता, वाह रे नेता 
कँवल भारती 

मुलायम सिंह यादव और मायावती में केवल एक बिंदु पर अंतर है, बाकी भ्रष्टाचार, निजीकरण और अवसरवाद में दोनों में कोई 
अंतर नहीं है. अंतर वाला बिंदु है सामाजिक चेतना का. जहाँ मुलायम सिंह में कोई सामाजिक चेतना नहीं है, वहाँ मायावती में
 सामाजिक परिवर्तन के अग्रदूतों के प्रति सम्मान की चेतना है. मुलायम सिंह किसी सामाजिक आन्दोलन का हिस्सा नहीं रहे. 
किन्तु मायावती का उभार सामाजिक आन्दोलन के बीच से ही हुआ है. इसीलिए उत्तर प्रदेश में जब वो शासक बनीं, तो उन्होंने 
जो नये जिले बनाये, उनके नामकरण  उन्होंने  दलित और पिछड़े वर्गों के नायकों के नाम पर किये. इस नामकरण का मुलायम
सिंह यादव ने तब भी विरोध किया था  और कहा था कि जब वो सत्ता में आएंगे तो ये नाम हटा देंगे.  मुलायम की पार्टी सत्ता 
में आ गयी और उसने नाम हटा दिए. यह अप्रत्याशित बिलकुल नहीं था. 
           अब रह गयी बात अखिलेश यादव की, तो वो हैं तो सामाजिक चेतना विहीन मुलायम सिंह यादव के ही पुत्र. वो तो अपने
 पिता की तरह  संघर्ष करके भी राजनीति में नहीं आये. वो मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए. राजसी वैभव और ठाठ बाट
उन्हें बचपन से ही मिला है. गरीबी उन्होंने देखी नहीं, इसलिए सामाजिक सरोकार भी उनके कुछ नहीं हैं. उनकी समझ की बानगी 
इसी बात से मिल जाती है कि लखनऊ के  जिस किंग जार्ज मेडिकल विश्व विद्यालय  का नाम मायावती ने छत्रपति शाहूजी 
विश्व विद्यालय कर दिया था, उसे अखिलेश यादव ने पुन: किंग जार्ज कर दिया है. उन्हें अंग्रेज किंग पसंद है, भारत का राजा
पसंद नहीं है. इस समझ को क्या कहा जाय? यदि उन्हें मायावती का दिया गया नाम बुरा लग रहा था, तो कोई और भारतीय 
नाम उसका रख देते. जिस मुस्लिम भक्ति के लिए वो और उनके पिता जाने जाते हैं, वहीं से कोई नाम ले लेते. आम्बेडकर और 
कांशीराम के प्रति उनकी नफरत तो जग जाहिर है ही, इसलिए भीम नगर, कांशीराम नगर और रमाबाई नगर के नामों का बदला
 जाना समझ में आता है. लेकिन ज्योतिबा फुले से उनको क्या चिढ है? वो तो दलित नहीं थे, पिछड़ों के नायक थे. प्रबुद्ध नगर,
पंचशील नगर और महामाया नगर बौद्ध धर्म की ओर संकेत करते हैं और  यह भी डा. आम्बेडकर से जुड़ गया है, इसलिए 
उनका नाम भी बदलना लाजमी था. 
        संकेत मिल रहे हैं कि अभी कुछ और नाम भी बदले जाने हैं. ये नाम नगरों के नहीं, बल्कि संस्थानों के हैं. कुछ विश्व 
विद्यालयों और सस्थानों के नाम भी मायावती दलित और पिछड़े वर्गों के महापुरुषों के नाम पर रख कर गयीं हैं. पिछले दिनों 
प्रदेश के नगर विकास मंत्री आजम खां ने बयाँ दिया था कि रामपुर में जो डा. आम्बेडकर नक्षत्र शाला है, उसका नाम बदला 
जाएगा. हो सकता है कुछ विश्व विद्यालय भी इस राजनीति के शिकार हो जाएँ. 
        दरअसल यह वह राजनीति है, जिसका जनता के दुःख-दर्द, उनकी रोजी-रोटी और उनके विकास से कोई लेना-देना नहीं 
है. जब मायावती ये नामकरण कर रहीं थीं, तब वो भी यही राजनीति खेल रहीं थीं. विडंबना यह है कि ये सब जनता के नाम 
पर किया जाता है. मायावती ने भी जनता की मांग पर नामकरण किया था और अखिलेश भी कह रहे हैं कि उन्होंने जनता की 
मांग  पर नाम बदले हैं. अंग्रेजों के क़ानून भी जनता के नाम पर ही बनते थे. भारत की सरकार भी  निजीकरण की नीतियां
 जनता के ही हित में बना रही है. और बेचारी जनता को ही नहीं मालूम कि उसके नेता क्या कर रहे हैं?  जनता के नाम पर 
एक सामाजिक तनाव मायावती ने पैदा किया और जनता के नाम पर ही एक और तनाव अखिलेश पैदा कर रहे हैं. वाह री जनता, 
वाह रे नेता.

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

शनिवार, 14 जुलाई 2012

nastik ke viruddh ghrina


नास्तिक के खिलाफ घृणा  
कँवल भारती 

          फेसबुक पर सिराज फैसल खान ने अपनी वाल पर लिखा है कि नास्तिक जब मरें, तो उनकी लाश सडक  के किनारे या नाले में फेंक  देनी चाहिए, ताकि जानवर उन्हें खा सकें. यह उनकी नास्तिकों के प्रति घृणा है, जो उनकी एक कट्टर तालिबानी छवि बनाती है. सिराज अभी युवा हैं, और इतिहास और दर्शन की कोई समझ भी उन्हें नहीं है. उन्हें यह भी नहीं मालूम कि सूफीवाद के मूल में नास्तिकता थी. ये सूफी रोज़ा, नमाज और हज से कोसों दूर थे. उनका दर्शन 'मै अल्लाह हूँ' पर जोर देता था. बादशाह ने इसी बिना पर सरमद सूफी को मरवा डाला था. इसलिए बहुत से सूफी सत्ता के खौफ से अल्लाह- अल्लाह बोलने लगे थे. कई सूफियों का कलाम मेरे पास है, जिसमें रोज़ा और नमाज का खंडन किया गया है. इस्लाम के पैगम्बर मुहम्मद के समय में मक्का- मदीना में आस्तिकों से ज्यादा नास्तिक लोग थे, जो आस्तिकों से पूछते थे कि बताओ, अगर इन्सान को अल्लाह ने बनाया है, तो अल्लाह को किसने बनाया है? आस्तिकों के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं होता था और आज भी नहीं है. सिराज के पास भी नहीं है. इस्लाम ने इन नास्तिकों को 'शैतान' का नाम दिया और कहा-- शैतान से दूर रहो.  मुहम्मद ने कहा कि अगर कोई यह पूछे कि अल्लाह को किसने पैदा किया, तो बाई ओर तीन बार थूको और दूर हट जाओ. यह तर्क और विज्ञानं से भागना है, और इस्लाम ने यही शिक्षा मुसलमानों को दी है. हिन्दू दर्शन भी आस्तिक है, पर नास्तिकता के सवालों को वह ख़ारिज नहीं करता है. हिन्दुओं के छह  दर्शनों में एक दर्शन पूरा नास्तिक है. दर्शन की यह उदारता अन्य किसी धर्म में नहीं है. ग्यारहवीं सदी में मुहम्मद गजाली तेहरान में एक महान इस्लामिक दार्शनिक हुआ था, जो मुल्लाओं को शैतान कहता था. वो नास्तिक था. पर सुल्तान के खौफ से वह सूफी बन गया था. 
        सिराज को यह नहीं मालूम कि आस्तिक होना हिम्मत की बात नहीं है, हिम्मत की बात है नास्तिक होना. नास्तिक होने के लिए तर्क और विज्ञानं से जुड़ना पड़ता है, जबकि आस्तिक होने का मतलब ही है धर्म की किताब को सर पर लादना. आस्तिक होने के लिए न पढाई- लिखाई  की जरूरत होती है और न दिमाग की. एक जाहिल भी आस्तिक होता है, पर नास्तिक जाहिल नहीं हो सकता. आस्तिक पुस्तकवादी होता है, पर नास्तिक पुस्तकवादी नहीं होता, मनुष्यवादी होता है. 
        और सिराज यह तुमसे किसने कह दिया कि जलाना और दफनाना धर्म की क्रियाएँ हैं? जब कोई भी धर्म नहीं था, तब भी मरने वालों को जलाया या दफनाया ही जाता था. धर्म तो बाद में आया. कुरान में इस क्रिया का जिक्र कहाँ है?  आपके पैगम्बरेइस्लाम ने तो यहाँ कहा है कि मरने वाला अगर विधर्मी भी है, तो उसकी मैयत का एहतराम करो. और तुम विधर्मी या नास्तिक की लाश को नाले में फेंकने की बात कह कर इस्लाम की तौहीन कर रहे हो.  तुम फतवा तो ऐसे दे रहे हो, जैसे दारुल उलूम के मुफ्ती हो. तुम्हें मालूम नहीं कि मानव गरिमा का हनन करने वाली इस  हरकत के लिए  तुम्हारे खिलाफ  फिर दर्ज कराई जा सकती है. तुम अगर मुसलमान हो, तो कुरान की यह सीख गाँठ बाँध लो कि दूसरे लोगों की आस्थाओं पर चोट मत करो, वरना वे तुम्हारी आस्थाओं पर चोट करना शुरू कर देंगे.
Kanwal Bharti
C - 260\6, Aavas Vikas Colony,

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

aarakchhan aur dharm


आरक्षण और धर्म 
 कँवल भारती 

         2004 में  प्रशांत भूषण द्वारा सुप्रीम कोर्ट में संविधान की धारा 32 के अन्तर्गत  दलित ईसाईयों के पक्ष में यह याचिका  डाली गयी कि  दलित ईसाईयों को अनुसूचित जाति में शामिल किया जाये और उन्हें वे सारे लाभ दिए  जाएँ,  जो अनुसूचित  जाति के लोगों को मिल रहे हैं. बाद में  दलित  मुसलमानों की ओर से भी इसी धारा में  यही मांग  की गयी. इस मामले में अनुसूचित जातिओं की ओर से उत्तर  प्रदेश के पूर्व IPS अधिकारी  श्री चमन लाल ने पक्षकार बनते हुए  याचिका दायर करके दलित ईसाईयों और दलित मुसलमानों की मांग का विरोध किया है। कोर्ट का जो फैसला होगा, वह बाद का विषय है. पर इस मुद्दे ने आरक्षण की नीति पर एक बहस जरूर छेड़ दी है.
        आइये पहले यह देखें कि दलित ईसाईयों का तर्क क्या है?  उनका कहना है कि वे हिन्दुओं से धर्मान्तरित ईसाई हैं. पर ईसाई बनने के बाद भी उनकी हालत पहले जैसी ही है. छुआछूत के शिकार वे अब भी पहले जैसे ही होते हैं. उनके चर्च तक अलग हैं. उनका सामाजिक अलगाव और भेदभाव सब पहले जैसा ही है. वे पहले भी दलित थे और अब भी दलित हैं. लगभग यही तर्क दलित मुसलमानों के हैं. उनके साथ भी अशराफ (उच्च) मुसलमान वही व्यवहार करते हैं, जैसा उच्च हिन्दू दलितों के साथ करते हैं.  मस्जिद में वे जरूर पांच मिनट के लिए बराबरी अनुभव करते हैं, पर मस्जिद से बाहर आते ही वे फिर दलित हो  जाते हें.  
        अगर हम कानून की बात करें, तो दलित ईसाईयों और दलित मुसलमानों की अनुसूचित जाति में शामिल होने की मांग गलत भी  नहीं है, क्योंकि  इसी आधार पर 1956 में दलित सिखों को और 1990 में नव बौद्धों को, जो  दलितों से धर्मान्तरित हुए हैं, अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जा चुका है.  धर्म की दृष्टि से न दलित सिख अपने को हिन्दू मानते हैं और न  नव बौद्ध.  फिर भी वे अनुसूचित वर्ग में आते हैं, जबकि नियम यह कहता है कि  हिन्दू धर्म में शामिल अछूत जातियां ही अनुसूचित जातियां हैं.  इसीलिए अनुसूचित जाति के प्रमाण पत्र में व्यक्ति के हिन्दू होने का भी उल्लेख रहता है.  नव बौद्ध के प्रमाण पत्र में भी पूर्व धर्म 'हिन्दू' लिखना आवश्यक होता है. चूँकि नव बौद्धों ने पूर्व धर्म हिन्दू लिखने की शर्त को स्वीकार किया, इसलिए उन्हें अनुसूचित जाति का दर्जा दिया गया. इस नियम के तहत क्या दलित ईसाई और दलित मुसलमान  अपना पूर्व धर्म 'हिन्दू' लिखना पसंद करेंगे?  मुझे नहीं लगता कि वे ऐसा करेंगे.  शायद दलित ईसाई ऐसा करने को  तैयार  हो  भी जाएँ, पर दलित मुसलमान कभी भी अपना पूर्व धर्म 'हिन्दू' लिखने को तैयार नहीं होंगे.  
         न्यायिक विवाद में मूल अधिकारों का हनन  मुख्य 'पेच' बना रहेगा.  इसलिए इसमें बहस भी दिलचस्प होगी और फैसला भी. लेकिन मै दलित ईसाईयों और दलित मुसलमानों से यह जरूर कहना चाहूँगा कि  उन्हें अपने-अपने धर्मों में भी जाति के आधार पर अपने शोषण तथा असमानता के खिलाफ लड़ाई लड़नी चाहिए. चूंकि ईसाइयत और इस्लाम दोनों धर्मों में जातिवाद नहीं है, इसलिए इस लड़ाई में उनका धर्म भी उनका साथ देगा. हिन्दू धर्म जातिवाद को मानता है, इसलिए जब दलित हिन्दुओं ने जातिवाद के खिलाफ विगुल बजाया, तो हिन्दू धर्म ने उनका साथ नहीं दिया. लेकिन दलितों ने हिन्दू धर्म और उसके ठेकेदार ब्राह्मणों के विरुद्ध अपनी लड़ाई जारी रखी. इधर लोकतंत्र ने उनका साथ दिया और उन्हें कामयाबी मिली. दलित ईसाईयों और दलित मुसलमानों को भी अपने धर्मों में अपने अधिकारों की लोकतान्त्रिक लड़ाई लड़नी होगी. यदि उनकी इस लड़ाई में उनके धर्मों के ठेकेदार और नेता बाधक बनते हैं, तो उन्हें उनके खिलाफ भी आवाज उठानी होगी.  क्योंकि यदि आरक्षण मिल भी गया, तो, इससे कुछ लोगों को नौकरी तो मिल जायगी, पर वे अपने समाजों में वह परिवर्तन नहीं ला पाएंगे, जिसकी उन्हें जरूरत है. 
        इसमें संदेह नहीं कि दलितों ने सम्मान के लिए धर्मान्तरण किया था. वे सम्मान के लिए मुसलमान बने, सम्मान के लिए ईसाई बने, सम्मान के लिए सिख बने और सम्मान के लिए बौद्ध बने. पर, हिन्दू धर्म छोड़ने के बाद भी उनकी सामाजिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया. जो काम वे हिन्दू रहकर कर रहे थे, वही पुस्तैनी काम उन्हें ईसाई, मुसलमान और सिख बनकर  भी करना पड़ा. नव बौद्ध अपवाद इसलिए हैं, क्योंकि उनका धर्मान्तरण बाबा साहेब डा. आंबेडकर के आन्दोलन का परिणाम है, जिसने उन्हें  गुलामी का एहसास और उससे मुक्ति का बोध कराया था. दलित ईसाईयों और दलित मुसलमानों में ऐसा कोई आन्दोलन और नेतृत्व  नहीं उभर सका, जो उन्हें उनकी गुलामी का एहसास और उससे मुक्ति का बोध कराता. 
        दलित ईसाईयों और दलित मुसलमानों को चाहिए कि वे अपने मूल धर्मों में वापस आ जाएँ और अनुसूचित जाति का स्वाभाविक लाभ पायें. और यदि पूर्ण मानवीय गरिमा के साथ स्वतंत्र मनुष्य की हैसियत से जीना चाहते हैं तो बौद्ध धर्म का विकल्प भी उनके लिए खुला है, जहाँ उन्हें आरक्षण का लाभ भी स्वत: मिल जायगा. 
 ( 13 जुलाई 2012 )

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

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kabir aur bhakti


कबीर और भक्ति
कँवल भारती
हजारी प्रसाद दिवेदी   के बाद कबीर को विकृत  करने का आपराधिक  काम पुरुषोत्तम अग्रवाल 
ने किया है. दलित मूल्यांकन के विरोध में उन्होंने कबीर को सगुण रंग में इस क़दर रंग दिया  है
कि उनकी सारी  क्रांति चेतना  नष्ट कर दी है. क्या कबीर भक्त थेआइये यह जानने के लिए
उनके अध्यात्म को समझें.
कबीर  तीन कारणों से भक्त नहीं हो सकते. पहला कारण -- भक्ति के लिए ईश्वर की मूर्ति चाहिए.
कबीर के राम निर्गुण हैंजिनकी मूर्ति  नहीं बनाई जा सकती. दूसरा कारण -- भक्ति के पीछे 
भक्त की मोक्ष, अर्थात पापों से  मुक्ति की कामना होती है. उसकी परलोक सुधर जाने  और स्वर्ग
में जाने की भावना होती है.  कबीर का विश्वास न मोक्ष में है, न स्वर्ग में है,  न परलोक में है 
और न मुक्ति  में है. उनके यहाँ लोक ही सत्य है और कर्म (जीवन संघर्ष ) ही सहज समाधि है.
तीसरा मुख्य कारण यह है कि भक्ति के लिए 'भक्त' और 'ईश्वर' इन दो का अस्तित्व होना
जरुरी है. लेकिन कबीर के यहाँ दो यानि द्वैत  की अवधारणा ही नहीं है. वे साफ़ कहते हैं--
'राम कबीरा एक हैं दूजा कबहूँ न होए'. वर्ण व्यवस्था, जातिभेद और ऊँचनीच का सारा दर्शन
जाल इसी द्वैत से पैदा हुआ है.
वास्तव में कबीर के निर्गुण दर्शन से ब्राहमणवाद इसलिए  भयभीत है, क्योंकि उसकी विशेषताएं 
(स्थापनाएं ) ब्राहमणवाद  के लिए घातक हैं. ये विशेषताएं चार हैं-- (१) निर्वैर, (२) सबकी सामान
उत्पत्ति का सिद्धांत; (३) विवेकवाद, और (४) प्रेम.
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बुधवार, 11 जुलाई 2012

mayawati aur dalit


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