गुरुवार, 19 जनवरी 2017

माताप्रसाद
लखनऊ में माताप्रसाद नाम राशि के तीन व्यक्ति थे, जिनमें एक आईएएस अधिकारी थे,  दूसरे राजवैद्य थे और तीसरे राजनेता और लेखक.
आईएएस माताप्रसाद से मैं एक दफा उनके ऑफिस में मिला था. निहायत ही सहयोगी प्रकृति के थे. शेष दोनों--राजवैद्य और राजनेता-लेखक माताप्रसाद से मेरे सम्बन्ध काफी पारिवारिक रहे. राजवैद्य माताप्रसाद के घर तो मैं अक्सर पड़ा ही रहता था. आज वह जीवित नहीं है. पर, उनकी भी बहुत सारी यादें स्मृति में हैं, जिन पर बाद में लिखूंगा.
आज मैं राजनेता और लेखक माताप्रसाद जी के बारे में अपनी कुछ यादें साझा करना चाहता हूँ, जो आज 91 साल की अवस्था में भी लेखन और सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय हैं. उनके साथ मेरा सम्बन्ध ऐसा बना, कि भुलाए नहीं भूलता. उनसे पहली मुलाकात कब हुई, इसकी याद नहीं है. पर यह याद है कि यह मुलाकात लखनऊ में ही राजवैद्य माताप्रसाद के घर पर हुई थी. उसके बाद उनसे अक्सर ही मिलना होता रहा था-- वह जब विधान परिषद के सदस्य थे,  तब भी, और जब कांग्रेस की सरकार में राजस्व मंत्री बने थे, तब भी. इसी समय की बात है. एक बार मैं जनपथ के सामने के विधायक निवास में उनसे मिलने गया था. उस दिन छोटी दिवाली थी, और शायद अमीनाबाद पार्क में दिवाली का मेला लगा हुआ था. उसी दिन उन्हें जौनपुर जाना था और बच्चों तथा घर के लिए दिवाली का कुछ सामान खरीद कर लेकर जाना था. मुझसे बोले, चलो, जरा बाजार घूम कर आते हैं. हम दोनों एक रिक्शे में बैठकर मेले में गए. आज एक छुटभैया नेता भी सफारी में चलता है. उन दिनों भी नेताओं के पास अपनी कारें होती थीं. पर माताप्रसाद जी के पास कोई गाड़ी नहीं थी. वह पैदल ही विधान भवन में और जहाँ जाना होता था, जाते थे. उनकी इसी आम आदमी की छवि ने मुझे प्रभावित किया था. उन्होंने मेले से मिटटी के कुछ दिए, कुछ खिलोने और चीनी के खाने वाले खिलोने लिए. और रिक्शे में ही बैठ कर वापिस आये. इसके बाद एक लंबे समय तक उनसे मिलना नहीं हो सका. इसी बीच वह अरुणाचल के राज्यपाल बनकर ईटानगर चले गए थे. 
उनके राज्यपाल काल की एक घटना मुझे याद आ रही है, जो अविस्मरणीय है और उसका मेरे जीवन पर अमिट प्रभाव पड़ा है. 1999  की बात है. मेरे विभाग ने मेरा स्थानान्तरण जौनपुर कर दिया था. रामपुर से रिलीविंग आर्डर लेकर मैं बस से जौनपुर पहुँचा और रोडवेज पर सुलभ शौचालय में ही फ्रेश होकर मैंने ऑफिस में ज्वाइन किया, और फिर एक हफ्ते की छुट्टी लेकर रामपुर आ गया. एक हफ्ते बाद जब मैं जौनपुर गया, तो बड़े बाबू ने मुझे बताया कि आपके कोई रिश्तेदार आये थे भारती, आपका सामान पूछ रहे थे, कहाँ है? मेरा दिमाग चकरा गया. मैंने कहा, जौनपुर में तो मेरा कोई भारती रिश्तेदार नहीं है, अलबत्ता मेरे शहर का एक दोस्त यहाँ जरूर है, यूनियन बैंक में काम करता है, पर वह भारती नहीं है, और न मैंने उसे यहाँ आने के बारे में बताया है, और मैं यह भी नहीं जानता कि वह कहाँ रहता है. फिर यह कौन भारती है? फिर बड़े बाबू ने जेब में से एक पुर्जा निकाल कर दिया,  जिस पर उनका नाम, पता और फोन नम्बर लिखा था. नाम था कर्मवीर भारती, पता था हुसैनाबाद, कचहरी रोड. उन दिनों मोबाइल फोन आ तो गए थे, पर बहुत कम लोगों के पास थे. पूरे ऑफिस में किसी के पास मोबाइल फोन नहीं था. ऑफिस में लेंडलाइन फोन था, पर वह साहेब के कमरे में था. मैं नजदीक के पीसीओ पर जाने लगा, क्योंकि पीसीओ हर शहर में हर जगह उपलब्ध थे, और वह दौर ही पीसीओ का था. मैं ऑफिस से निकलने ही वाला था कि कर्मवीर भारती परगट हो गए. वह बड़े बाबू से मुखातिब हुए, यह पूछने के लिए कि मैं आया हूँ कि नहीं? बड़े बाबू मेरी तरफ इशारा करके बोले, ये हैं कँवल भारती. मुझे देखकर वह बोले, आपको एक हफ्ते से तलाश कर रहा हूँ,  मैंने कहा, क्यों भाई? वह बोले,  ईटानगर से रोज बाबू जी का फोन आ रहा है कि कँवल भारती को लाए कि नहीं? अब मेरी समझ में सारा माजरा आ गया था. कर्मवीर भारती माताप्रसाद के सबसे छोटे सुपुत्र थे, जो जौनपुर में ही रहते थे, उनके बड़े बेटे दिल्ली में इनकमटैक्स कमिश्नर थे, और बीच के बेटे लखनऊ में सीएमओ थे. भारती ने बताया, कि एक दिन बाबू जी का फोन आया कि कँवल भारती का जौनपुर में समाज कल्याण में अधीक्षक पद पर ट्रान्सफर हुआ है, उनको अपने घर लेकर आओ, और जब तक भी वह जौनपुर में रहें, हमारे घर में ही रहेंगे. अंधे को क्या चाहिए थीं-- दो आँखें. यह मेरे लिए बड़ी राहत भरी खबर थी, वर्ना तो मकान तलाशने में न जाने मुझे कितने जातीय दंश झेलने पड़ते. पर मैं विस्मित था कि मेरे ट्रान्सफर की खबर उन्हें कहाँ से मिली? और अगर मिली भी तो, इतनी उदारता कौन दिखाता है? इस घटना ने मुझे उनका कायल बना दिया, और उस दिन से मैं भी उन्हें बाबू जी कहने लगा.
कर्मवीर भारती अपनी लाल रंग की मोटर साइकिल से मुझे अपने घर ले आये, जहां से विकास भवन और छात्रावास दस मिनट में ही पैदल चलकर आया जा सकता था. मुख्य गेट से घुसते ही बायीं तरफ एक कमरा खोल कर बोले, यह आपका कमरा है, आप इसी में रहेंगे. कमरे में सब कुछ था, दो बेड थे, उन पर बिस्तर था, सीलिंग फेन था, और उसी से लगा लैट्रिन-बाथरुम था. शानदार व्यवस्था थी. मैंने उनका धन्यवाद अदा किया और अगले ट्रांसफर तक उसमें अपना सामान जमा दिया.
मैं पूरे तीन साल तक माताप्रसाद जी के मकान में उनके घर का सदस्य बनकर रहा. कर्मवीर भारती वकील थे, शाम को अक्सर हम साहित्य और राजनीति पर चर्चा करते थे. उनके अनुभव बड़े काम के होते थे. माताप्रसाद जी हर रविवार को ईटानगर से फोन पर मेरा हालचाल लेते थे, पूछते थे कि कोई तकलीफ तो नहीं है? बहतरीन व्यंजन भी भारती ने खूब खिलाए. उनकी बेटी चिंकी अक्सर मेरे पास ही खेलती थी, उससे मेरा मन बहुत लग गया था. उस समय वह शायद फर्स्ट में पढ़ती थी. माताप्रसाद जी के उस मकान में मैंने बहुत सारा लेखन किया. "दलित साहित्य की भूमिका" किताब मैंने उसी मकान में रहकर लिखी थी, जिसमे कर्मवीर भारती का भी बहुत योगदान था. उसी कमरे में एक दिन डा. एन. सिंह भी नमूदार हुए, जौनपुर के कुछ लेखक और पत्रकार भी मुझसे वहीँ मिलते थे. अयोध्या से रोशन प्रेमयोगी भी उसी कमरे में मुझसे पहली दफा मिले थे, और रात को वहीँ रुके थे. वहीँ उन्होंने अपने पहले उपन्यास की पांडुलिपि भी पढ़ने और उस पर कुछ शब्द लिखने के लिए दी थी, जो मेरे लिए एक दुष्कर कार्य था और नहीं कर सका था, जिसका आज तक खेद है.
माताप्रसाद जी ईटानगर से जब भी जौनपुर आते थे, तो अक्सर हमारे बीच साहित्य पर ढेरों बातें होती थीं. वह दो-तीन दिन रूककर वापिस जाते थे. मैंने देखा, अगर कोई बाहर का काम न हो, तो वह दिनभर लिखते रह सकते थे. एक दिन मैंने सुबह चार बजे उनके कुल्ला करने की आवाज सुनी. कर्मवीर भारती ने बताया कि बाबू जी रोज ही सुबह चार बजे उठ कर लिखने बैठ जाते हैं. बाबू जी का विशेष काम नाटक विधा में है, जो हमेशा रेखांकित किया जायेगा.
वर्ष 2001 में मैं जौनपुर से ट्रांसफर होकर रामपुर आ गया था. पर जौनपुर आज भी मुझसे छूटा नहीं है, मेरे अंदर कहीं गहरा बसा हुआ है. जौनपुर छोड़ने के कोई दस साल बाद एक कार्यक्रम में मेरा जौनपुर जाना हुआ तो देखा कि शहर बहुत बदल चुका था, अगर नहीं बदला था तो माताप्रसाद जी का स्नेह और कर्मवीर भारती का व्यवहार. चिंकी हाईस्कूल में आ गयी थी, और मुझे भूल गयी थी, ठीक ‘काबुलीवाला’ की मिनी की तरह.
शाही शादी :
रामपुर आने के बाद एक दिन शादी का एक खूबसूरत निमंत्रण पत्र डाक में आया. खोलकर देखा तो पता चला कि इनकमटैक्स कमिशनर केशव की बेटी की शादी है, स्थान लखनऊ राजभवन के पास था. केशव माताप्रसाद जी के बड़े सुपुत्र हैं, यानी यह शादी उनकी पोती की थी. जाना जरूरी था. शाही शादी थी, जिसमें दो राज्यों के मुख्यमंत्री शामिल हो रहे थे, दो राज्यपाल थे, एक स्वयं माताप्रसाद जी और दूसरे उत्तर प्रदेश के राज्यपाल, तमाम नेता और उच्च अधिकारी अलग. मैंने विमला से कहा कि लखनऊ चलना है, माताप्रसाद जी की पोती की शादी है. वह बोली, ‘मेरे पास शादी में पहिनने लायक न जेवर हैं और न कोई साड़ी है. तुम ही चले जाओ’. मैंने कहा, ‘कोई हर्ज नहीं है, मैं जा सकता हूँ. पर मैं चाहता हूँ कि तुम भी साथ चलो, जीवन का दूसरा पक्ष भी देखो कि अवसर मिलता है, तो दलित कितना वैभव दिखाता है. रहा सवाल, जेवर और कीमती साड़ी का, तो इसके लिए हमारी पैदाइश कहाँ हुई है? फिर मैंने कबीर की एक साखी सुनाई कि ‘हड्डी रोटी कारने गला कटाये कौन?’ इधर दस साल का छोटा बेटा मिलिंद ने लखनऊ जाने की जिद कर ली, और इस तरह हम दो बच्चों को घर छोड़कर मिलिंद को साथ लेकर शादी में शामिल होने के लिए लखनऊ चले गए. सुबह लखनऊ पहुंचे. अमीनाबाद में गुलमर्ग होटल में कमरा लिया, वहाँ फ्रेश हुए, खाना खाया और कुछ घंटे सोने के बाद हम शाम को शादी वाली जगह पर पहुचे. उस स्थान पर रिक्शे से उतरने वाले हम अकेले थे. माताप्रसाद जी हमें गेट पर ही मिल गए थे, हमें देखकर बहुत खुश हुए, मैंने उन्हें लिफाफा दिया, जो उन्होंने बहुत मुश्किल से लिया, फिर मिलिंद के सिर पर हाथ फेरा. और हम अंदर चले गए. अंदर का सारा माहौल शाही था. अरुणाचल के मुख्यमंत्री और अन्य मंत्री, उत्तर प्रदेश के राज्यपाल, मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायक, सांसद और तमाम अधिकारी चारों ओर नजर आ रहे थे. मुझे गोपालदास नीरज की ‘भावनगर से अर्थ नगर में आने’ वाला गीत याद आ गया. वह सचमुच दूसरी ही दुनिया थी, जिसमें कोई हमारी दुनिया का नहीं था. वहाँ कोई अगर हमें जानता था तो वह माताप्रसाद जी का परिवार ही था.
वहाँ खाना खाने के बाद जब हम बाहर निकले तो रात के बारह बज गए थे. माताप्रसाद जी ने पूछा, ‘कैसे जाओगे?’ मैंने कहा, ‘कोई न कोई रिक्शा मिल ही जायेगी.’ बोले, ‘नहीं, बैठो, किसी से छुड़वाता हूँ.’ फिर बोले, ‘कहाँ जाओगे?’ मैंने कहा, ‘अमीनाबाद में गुलमर्ग में ठहरा हूँ.’ कुछ देर के बाद एक अधिकारी की गाड़ी से उन्होंने हमें गुलमर्ग छुड़वाया.’ वह अधिकारी आर. डी. आर्या थे. 1987 में जब मैं ललितपुर में था, तो वह वहाँ बचत अधिकारी थे, और तब हम अक्सर मिला करते थे. वह ललितपुर से लखनऊ आ गए थे, और मैं सुल्तानपुर चला गया था. कोई पन्द्रह साल के बाद उनसे यह मुलाकात हुई थी.
अरुणाचल भवन में 
एक बार माताप्रसाद जी ने मुझे किसी विषय पर बात करने के लिए दिल्ली बुलाया. वह ईटानगर से दिल्ली आये हुए थे और अरुणाचल भवन में ठहरे थे. मैं उस समय रामपुर आया हुआ था, वहीँ से मैंने दिल्ली की ट्रेन पकड़ी, और सुबह ही दिल्ली स्टेशन पर पहुँच गया. मैंने उन्हें फोन पर आने का समय बता दिया था. जब स्टेशन से बाहर निकला, तो देखा कि बाहर एक सफ़ेद एम्बेसडर कार खड़ी है और ड्राईवर के हाथ में मेरे नाम की तख्ती है. मैं उस गाड़ी में बैठा, और वह मुझे सीधे अरुणाचल भवन ले गयी. वहाँ ओएसडी ने मुझे एक आलीशान कमरे में ठहरा दिया. मैंने इधर-उधर नजर दौड़ाकर देखा कि वह राज्यपाल का सुइट था, जिसमें कई अतिथि रूम थे. फ्रेश होने के बाद माताप्रसाद जी ने मुझे अपने कमरे में बुलवाया. उस दिन का ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर उनके साथ ही किया. उन्होंने अपना बेड रूम दिखाया, जो हर तरफ से लक्जरी था. इस लक्जरी को मैं वर्ष 2000 में लखनऊ के राजभवन में भी देख चुका था, जब राज्यपाल सूरज भान जी ने मेरा एक लेख पढ़कर मुझे बुलाया था. मैंने माताप्रसाद जी से कहा, ‘बाऊ जी, लोकतंत्र ने दलित वर्गों को जो अवसर दिया है, उसी के कारण कुछ लक्जरी को भोगने का सुख उन्हें भी मिल गया है, वर्ना तो ये सारी सुख-सुविधाएँ शासक वर्ग ने अपने लिए ही बनायीं हैं. ये लक्जरी ही तो नेताओं को भ्रष्ट बनाती है, और इसी को हासिल करने के लिए वे किसी भी कीमत पर और किसी भी रास्ते से सांसद और विधायक बनने को व्याकुल रहते हैं. उन्होंने कहा, बात तो सही है.
मुझे दूसरे दिन काशी विश्वनाथ ट्रेन से वापिस जाना था. रात को रुककर जब मैं चलने को हुआ, तो उन्होंने अपने ओएसडी को बुलाया और उसे कुछ धीरे से कहा. कुछ ही देर में ओएसडी ने मुझे एक लिफाफा दिया. मैंने पूछा, ‘यह क्या है?’ तो बाबू जी बोले, ‘कुछ नहीं, यह कुछ खर्चापानी है.मैंने कहा, ‘बाऊ जी, इसकी जरूरत नहीं है.पर वह बोले, ‘जरूरत है, रख लो.फिर बोले, ‘यह फण्ड हर राज्यपाल को मिलता है.उन्होंने उसी गाड़ी से मुझे स्टेशन भिजवाया. मैंने ट्रेन में बैठने के बाद लिफ़ाफ़े को खोलकर देखा. उसमें सौ-सौ के कुछ नोट दिखाई दे रहे थे.
शिमला में माल रोड पर :
राज्यपाल का कार्यकाल पूरा करने के बाद वह इंदिरा नगर, लखनऊ में अपने मंझले बेटे डाक्टर भाष्कर के साथ रहने लगे थे. इसी समय की दो स्मृतियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं, जिनमें एक शिमला की है, और दूसरी रांची की. शिमला में भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, में नाटकों पर एक सेमीनार था, जिसमें मैं भी आमंत्रित था और माताप्रसाद जी भी. संस्थान के सेमीनार हाल में उनसे भेंट हुई, हमेशा सफेद कुरता, धोती या पैजामा पहिनने वाले माताप्रसाद जी वहाँ बंद गले के सूट में थे. मोहनदास नेमिशराय वहाँ फैलो थे, उन्होंने मुझसे अपने ही आवास पर ठहरने का आग्रह किया, वजह शाम को खाना-पीना और बातचीत करना था. हालांकि अधिकांश वक्ता, जो बाहर से आये थे, संस्थान के परिसर में ही स्थित गेस्टहाउस में ठहरे , पर माताप्रसाद जी को वीआईपी सुइट में ठहराया गया था, जो परिसर से कुछ दूर था. सेमिनार के बाद माताप्रसाद मुझसे बोले, तुम कहाँ ठहरे हो? मैंने कहा, नेमिशराय जी ने अपने रूम में मेरा सामान रखवा लिया है. मुझसे बोले, वहाँ से सामान लेकर मेरे साथ चलो, मैं वहाँ अकेला हूँ, कोई बोलने-बतियाने के लिए नहीं है. अब मुझे दुविधा हो गयी थी, मना कर नहीं सकता था, और नेमिशराय का आग्रह भी टालना मुश्किल था, थोड़ा सोचने के बाद मैंने इस दुविधा का हल निकाल लिया. डिनर और ड्रिंक नेमिशराय के साथ और ठहरना माताप्रसाद जी के साथ. मैंने माताप्रसाद जी को कहा, बाबू जी, नेमिशराय जी के यहाँ मेरा खाना है, मैं उससे निबटकर रात को दस बजे तक आपके सुइट में आ जाऊंगा. वह समझ तो गए थे, पर सिर्फ इतना ही कहा कि ठीक है. नेमिशराय जी मुझे अपने रूम पर ले गए. वहाँ उनका बेटा भी था, जो उस समय अमरीका से आया हुआ था. जानीवाकर की बोतल खुली, और हम सबने कुछ पैग पिए. याद आता है, के. नाथ और उनकी पत्नी रानी भी मौजूद थीं, रानी ने तो नहीं पी थी, पर के. नाथ टुन्न होने वालों में थे, पर नेमिशराय जी ने वह नौबत नहीं आने दी. ड्रिंक के बाद खाना लगा--चिकन करी, रोटियां और चावल. वहाँ से निबटकर मैं अपने सामान सहित वीआईपी सुइट में गया, और उन्हें कुछ भी एहसास कराये बिना, मैं बेड पर औंधेमुंह गिरकर ढेर हो गया. कोई दो घंटे के बाद मेरी आँख खुली, तो देखा कि बाबू जी अपने बेड पर नहीं थे. मैंने डायनिंग रूम में देखा, वहाँ वह जग से पानी निकालकर पी रहे थे. मुझे देखकर बोले, पानी पीना है, वह गिलास रखा है. फिर बोले, मैं रात में जितनी बार भी उठता हूँ, पानी पीता हूँ. यह पुरानी आदत है. फिर वह पानी पीकर रूम में चले गए. मैंने मन में कहा, क्या गजब समानता है, यही आदत तो अपनी भी है, रात में तीन-चार बार उठकर पेशाब करना और हर बार पानी पीना है. मैं भी पेशाब करके, और पानी पीककर सो गया. कमरे में हीटर जल रहा था, फिर भी ठंडक थी. बाबू जी ने सिर तक कम्बल ओढ़ा हुआ था. 
सुबह बाबू जी जल्दी उठे, और मैं कुछ देर के बाद. फ्रेश होने के बाद हमने कार्नफ्लेक्स, दूध और सेब का नाश्ता किया. उसी समय उन्होंने जेब से एक डिबिया निकाली, और उसमें से एक बड़ी सी गोल टिकिया खाई और फिर एक और खाई. मैंने कहा, ‘बाऊ जी यह क्या है? मैं तो इसे नसवार या सुरती की डिबिया समझ रहा था, जैसे पूर्वांचल के कुछ लोग अपनी जेब में रखते हैं. हंसकर बोले, ‘यह बादाम की मेडिकेटेड बर्फी है, हार्ट में फायदा करती है. तब मुझे याद आया कि उन्होंने बनारस में जवाहरलाल कौल के घर पर बताया था, कि उनकी बाई-पास सर्जरी हुई है और उन्हें पेसमेकर लगा हुआ है. 
दूसरे दिन सेमिनार का पहला सत्र खत्म होने बाद माताप्रसाद जी ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा, ‘चलो, माल रोड घूमकर आते हैं.मैंने कहा, ‘चलिए.संस्थान की ओर से गाड़ी तैयार थी. वह हमें लिफ्ट तक ले गयी. ड्राईवर बोला, ‘गाड़ी यही तक आती है. वह ऊपर लिफ्ट है, उससे आप माल रोड पर चले जाएँ, और इसी लिफ्ट से यहाँ वापिस आयें, मैं यही मिलूँगाहम ऊपर लिफ्ट पर गए, वहाँ पर टिकट लगता था. टिकट लेकर हम लिफ्ट में गए. उस लिफ्ट ने जहाँ हमें उतारा, वहाँ से फिर हमें दूसरी लिफ्ट लेनी थी. शायद उसका भी टिकट था. खैर, जब हम माल रोड पर पहुँच गए, तो बाबू जी बोले, ‘पहले एक बेल्ट खरीदनी है.मैंने कहा, ‘किस के लिए?’ उन्होंने अपनी पेंट को दिखाते हुए कहा, ‘इसकी बेल्ट घर पर ही रह गयी. इसमें डालना है.मैंने देखा, उसमें पैजामे का नाड़ा बंधा हुआ था. नाड़ा देखकर मैं जोर से हंसा. वह भी हँसे. मैंने अपने मन में कहा, इतना साधारण जीवन एक ऐसे व्यक्ति का, जो मिनिस्टर और गवर्नर रह चुका है, कैसे हो सकता है? कौन विश्वास करेगा कि मैं शिमला में माल रोड पर एक पूर्व गवर्नर के साथ टहल रहा हूँ. मैंने कहा, ‘बाऊ जी, यहाँ बेल्ट मंहगी मिलेगी, और मैं समझता हूँ कि अब इसकी कोई ख़ास जरूरत भी नहीं है. कल यहाँ से चले ही जाना है, और कौन आपको रोज पेंट पहननी है. घर पर बेल्ट है ही, अगर लेना ही है, तो जौनपुर या लखनऊ से ले लीजिएगा. उन्हें मेरी बात सही लगी. बोले, ‘चलो, कुछ और खरीदते हैं, कुछ तो यहाँ की चीज लेकर जाएँ. मुझे याद आता है, उन्होंने बच्चों के कुछ कपड़े, जो शायद चंडीगढ़ में रह रहे अपने परपोते या परपोती के लिए थे, और बादाम के कुछ पैकेट ख़रीदे थे. एक किलो वाला एक पैकेट मैंने भी खरीद लिया था. फिर नगर निगम से आगे तक घूम कर हम वापिस आ गए थे, लिफ्ट के नीचे ड्राईवर हमारा इंतज़ार कर रहा था. संस्थान में जाकर हमने रात का खाना साथ-साथ खाया. 
सुबह हम दोनों को ही शिमला से जाना था. उनको चंडीगढ़ जाना था. मेरा रिजर्वेशन शिमला से कालका तक जाने वाली ट्रेन में था. और फिर अम्बाला से शहीद एक्सप्रेस से मुझे रामपुर तक जाना था. पर उस दिन मेरे साथ बुरा ही बुरा होना था. संस्थान में ही खबर मिल गयी थी कि उस दिन शिमला-कालका ट्रेन निरस्त कर दी गयी थी. संस्थान ने माताप्रसाद जी के चंडीगढ़ के लिए टैक्सी का इंतजाम किया हुआ था. माताप्रसाद जी ने मुझे भी साथ ले लिया. यहाँ भी उनके साथ कुछ घंटे बिताने का समय मिला. जब सोलन आया, तो वहाँ सड़क के किनारे सेब का बाज़ार लगा हुआ था. गाड़ी रुकवाकर बाबू जी ने हरे सेब ख़रीदे. बोले, ‘ये यहाँ के सबसे अच्छे सेब होते हैं.यह सुनकर मैंने भी दो किलो सेब खरीद लिए. (पर जब वे घर पर खाए गए, तो सभी खट्टे निकले) जब कालका आया, तो मैं उतर गया, बाबू जी चंडीगढ़ चले गए. कालका से मैं बस से अम्बाला छावनी पहुंचा, जहाँ से मुझे रामपुर के लिए ट्रेन पकडनी थी, जो रात में नौ बजे के करीब थी. वहाँ जाकर पता चला कि वेटिंग अभी कन्फर्म ही नहीं हुई है. अब बड़ी समस्या पैदा हो गयी थी. क्योंकि एसी कोच में वोटिंग अलाउ नहीं है. तभी मेरा ध्यान विकास राय जी की तरफ गया, जो हरियाणा में पुलिस महानिदेशक थे. मैंने सोचा, उनके पास जरूर कोई स्रोत होगा. मैंने उन्हें फोन करके अपनी समस्या बताई. उन्होंने तुरंत कहा, ‘परेशान न होँ.उन्होंने रेलवे के एसपी को फोन किया, एसपी ने किसी और को, किसी और ने किसी और को, और इस तरह ट्रेन आने से आधा घंटे पहले एक इंस्पेक्टर ने मुझसे संपर्क किया और जब ट्रेन आ गयी, तो एक सिपाही से मेरा सामान उठवा कर प्लेटफार्म पर उसने टीटी से कहा, यह हमारे सबसे बड़े आफीसर के दोस्त हैं, इन्हें रामपुर तक लेकर जाना है, चाहे जैसे भी. बहरहाल, काम बन गया, टीटी ने दिल्ली तक मुझे अपनी बर्थ दे दी और दिल्ली से दूसरा टीटी भी मुझे उसी बर्थ पर रामपुर तक ले गया. सच सम्बन्ध बहुत काम आते हैं.
रांची की सड़कों पर

      दूसरी बार माताप्रसाद जी के साथ से घूमने का अवसर रांची में मिला था. वहाँ 25, 26, 27 मार्च 2012 को एक तीन दिवसीय सेमीनार  दलित-आदिवासी विषय पर अश्वनी कुमार पंकज जी ने कराया था, जिसमें मैं और वह दोनों आमंत्रित थे. बाबू जी 24 को सुबह की फ्लाइट से रांची पहुच गए थे. और मैं दिल्ली से शाम 5 बजे की फ्लाइट से रात को सात बजे रांची पहुंचा था. पंकज जी मुझे एअरपोर्ट से सीधे होटल ले गए. वहाँ चलकर मुझसे बोले, ‘आपको माताप्रसाद जी के साथ रखा गया है. आपको कोई एतराज तो नहीं है.’ मैंने कहा, ‘अरे, बिल्कुल नहीं. यह तो मेरा सौभाग्य है.’ और इस प्रकार मुझे बाबू जी के साथ रांची में भी तीन दिन बिताने का अवसर मिल गया. होटल बहुत शानदार था, ‘थ्री स्टार’ था. मुझे उसका नाम याद नहीं आ रहा है, पर इतना याद है कि होटल से निकल कर बाएं हाथ पर दो मिनट की पैदल की दूरी पर कचहरी चौक था. होटल में सुबह का नाश्ता कोम्पलीमेंटरी था. कमरे में माताप्रसाद जी पहले से मौजूद थे. मुझे देखकर बहुत खुश हुए. नमस्कार के बाद मैंने दूसरे खाली पड़े बेड पर अपने को जमा लिया. उस होटल में हमारे बगल के कमरे में डा. वीरभारत तलवार थे, पर वे वहाँ सिर्फ एक ही बार दिखाई दिए, उसके बाद सेमिनार में ही मिले. पता चला कि रांची उनकी कर्मभूमि रही है, इसलिए सेमिनार के बाद वह अपने दोस्तों के यहाँ चले जाते हैं. उसी समय वहाँ राजेन्द्र प्रसाद सिंह जी आये, जो प्रखर भाषाविद हैं. उनसे पहली बार मिलना हो रहा था.
बाबू जी की आदत जल्दी खाना खाकर जल्दी सोने और जल्दी उठने की थी, यह मैं जानता था. इसलिए मैंने कहा, ‘बाबू जी, आठ बज रहे हैं. खाना कितने बजे खायेंगे?’ बोले, ‘अभी रुक जाओ, शायद कोई मिलने आये.’ मैने कहा, ‘ठीक है.’ मैंने सोचा, अपना काम निबटा लिया जाय. पर कैसे? बाबू जी के रहते, संभव ही नहीं था. मुद्रा राक्षस जी की तरह मैं बाथरूम में जाना उचित नहीं समझता. मैंने मन में कहा, आज बिल्कुल नहीं. और हम नौ बजे खाना खाकर, कुछ देर बाहर जाकर टहले, और आकर सो गए.
सुबह छह बजे उठे. उन दिनों मैं चालीस मिनट मोर्निंग वाक किया करता था. मैंने बाबू जी से कहा, ‘टहलने चलेंगे.’ वह तैयार हो गए. हम काफी दूर तक मेन रोड पर टहले और सात बजे तक वापिस लौट कर आ गए. तीन दिन तक हम लगातार टहले, इस बीच साहित्य और राजनीति पर ढेर सारी बातें भी हुईं, हंसी-मजाक भी हुए, और निजी बातें भी घर-गृहस्थी को लेकर हुईं. उन तीन दिनों की सुबह की सैर में यह लगा ही नहीं कि हम रांची में हैं, क्योंकि आसपास का सारा इलाका अपना लगने लगा था.
सेमिनार के पहले सत्र में माताप्रसाद जी मंच पर थे. उन्होंने अपने भाषण में दलित साहित्य और नाटकों पर चर्चा की और अंत में अपना लिखा एक गीत सुनाया, जो मुसहर जाति की दयनीय स्थिति पर बहुत ही मर्मस्पर्शी था. उसकी कुछ पंक्तियाँ इस तरह थीं—
नाम मुसहरवा है, कवनउ सहरवा ना.
कैसे बीते जिनगी हमार.
रहै के जगह नाहीं, जोतइ के जमीन कहाँ,
कहैं देवे गांव से निकार.
घरवा के नमवां पै एकही मडैया में
ससुई पतोहु परिवार.
      इस गीत की अंतिम पंक्तियाँ हैं--
देशवा आज़ाद अहै हम तो गुलमवां,
हमरे लिए न सरकार,
ऐसन कौनउ जुगुति लगावा भइया ‘मितई’
हमरउ करावा उद्धार.
      लोकगीतों में माताप्रसाद जी का उपनाम ‘मितई’ है. ‘मितई’ का अर्थ मित्र होता है. वह सचमुच सबके मित्र हैं, किसी से उनका वैर नहीं है.
      दूसरे दिन, शाम को नाटकों के मंचन का कार्यक्रम था. स्थान शायद सेंट जेवियर कालेज के पास था, या उसी में था, ठीक-ठीक नहीं कह सकता. माताप्रसाद जी यहाँ मुख्य अतिथि थे, और अग्रिम पंक्ति में बैठे हुए थे. उसी वक्त मुझे वासवी जी का फोन आ रहा था कि आप कहाँ हैं. जब मैंने उन्हें जगह बताई तो बोलीं कि मैं आ रही हूँ. मैंने कहा, आइये, मैं बाहर ही मिलूँगा. अंदर अरविन्द गौड़ के निर्देशन में स्वदेश दीपक के नाटक ‘कोर्ट मार्शल’ का मंचन होने वाला था. उसे देखना मेरे लिए जरूरी था, क्योंकि वह बहुत मशहूर नाटक था, जिसमे एक दलित सैनिक का विद्रोह था, और जिसे मैं हैदराबाद के एशिया फोरम में देखने से वंचित रह गया था. मैं नाटक देखने बैठ गया, और उस रौ में वासवी जी कब आकर चली गयीं, पता ही नहीं चल सका. वासवी जी उस समय झारखण्ड महिला आयोग की सदस्य थीं. जाहिर है कि उनके पास व्यस्तता ज्यादा थी. नाटक देखने के बाद जब बाहर निकल कर मैंने मोबाइल देखा, तो उसमे दो मिसकाल वासवी जी की थीं. अंदर जाकर एक-दो नाटक मैंने दक्षिण के भी देखे, लेकिन उनकी भाषा को समझना मुश्किल था. अभी संध्या के छह बजे थे और कार्यक्रम अभी दो-तीन घंटे और चलने की संभावना थी. मैं माताप्रसाद जी को वहीँ छोड़कर होटल वापिस आ गया.
      कमरे में जाकर चाय मंगाई. चाय लेकर जो वेटर आया, वह आदिवासी था, और बेहद स्मार्ट था. चाय रखने के बाद उसने पूछा, ‘सर, कोई और सेवा?’ मैंने उसे गौर से देखा और उसने मुझे. मैं उसका मतलब समझ गया था. मैंने पूछा, ‘यहाँ क्या-क्या मिल सकता है?’ उसने कहा, ‘उबले अंडे, फिश, फिंगर चिप्स, पनीर पकौड़ा, सोडा, कोल्ड ड्रिंक्स. और वह बाहर से लानी पड़ेगी.’ मैंने उसे अपनी ब्रांड के लिए पांच सौ का नोट दिया और सोडा और फ्रेश पनीर के साथ सात बजे आने को कहा. 
जब तक माताप्रसाद जी कमरे में आये, मैं अपने काम से निबट चुका था. नौ बजे हमने खाना खाया और थोड़ा टहलने के बाद सो गए.
दूसरे दिन सरहुल था--झारखण्ड का ऐतिहासिक प्राकृतिक पर्व. यहाँ आने से पहले हम सरहुल के बारे में कुछ नहीं जानते थे. हमने उसके महत्व को रांची में आकर ही जाना. यह फागुनी रंगों से लदे सखुआ का त्यौहार है. चैत के महीने में सखुआ के वृक्ष फूलों से लद जाते हैं और प्रकृति प्रेमी तथा पर्यावरण के स्वाभाविक रक्षक आदिवासियों का अंतर्मन रोमांचित हो उठता है. सखुआ के फूलों की भीनी-भीनी सुगंध सारे वातावरण को सुरभित कर सरहुल के आगमन का संकेत दे जाती है. सरहुल का पर्व चैत महीने के पांचवें दिन मनाया जाता है. सरहूल पर्व में सखूआ के फूलों का प्रयोग अपने में चिंतन का विषय है. आदिवासी जन-जीवन में सखुए पेड़ की अति महत्ता है| सखुए की पत्ती, टहनी, डालियाँ, तने, छाल, फल आदि सब कुछ प्रयोग में लाये जाते है. पत्तियों का प्रयोग पत्तल दोना, पोटली आदि बनाने में होता है. दतवन, जलावन, छमड़ा बैठक, सगुन निकालने, भाग्य देखने आदि में भी सखुए की डाली, टहनी, लकड़ी का प्रयोग किया जाता है. सखुए की पत्ती, डाली लकड़ी आदि के बिना आदिवासी जन-जीवन की कल्पना करना असम्भव-सा है. जन्म से लेकर मृत्यु तक सखुए वृक्ष का विशेष स्थान है.
उस दिन हमें पंकज जी ने सरहुल के एक भव्य कार्यक्रम का भी साक्षी बनाया, जहां हमने आदिवासी नृत्य और वादन का आनन्द लिया. उस स्थान का नाम याद नहीं आ रहा है, जहां यह कार्यक्रम हुआ था, पर वहाँ सखुए का विशाल वृक्ष था, और उसी की परिक्रमा करते हुए वहाँ सजी-धजी आदिवासी युवतियों ने मनमोहक नृत्य किया था. मैं, माताप्रसाद जी और वीरभारत तलवार आगे की कुर्सियों पर बैठे हुए थे. कुछ लोग हाथों में सखुए के फूल और टहनियाँ लिए हुए उसे हरेक के कान में लगा रहे थे. हमारे कानों में भी लगाया गया गया. वीरभारत जी ने बताया कि सरहुल ‘सरना’ से जुड़ा त्यौहार है, जो आदिवासियों का धर्म है. उस कार्यक्रम में झारखण्ड के राज्यपाल और मुख्यमंत्री भी उपस्थित थे. जब झारखण्ड के राज्यपाल को यह पता चला कि अरुणाचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल माताप्रसाद जी भी यहाँ मौजूद हैं, तो उन्होंने उनको भी, आदर के साथ अपने पास बैठाया. आदिवासी नृत्य के बाद वहाँ राज्यपाल और मुख्यमंत्री ने पारम्परिक ढोल को अपने गले में डालकर बजाया.
कार्यक्रम के बाद जब हम वापिस चले, तो रास्ते में पंकज जी ने बताया कि गाँवों से आदिवासी लोग जुलुस की शक्ल में निकलते हैं, पूरा शहर ‘सरना’ झंडों से पट जाता है. विभिन्न सरना समितियों और अखाड़ों की सरहुल झांकियां आज आपको दिनभर देखने को मिल जाएँगी.  लोग रात-भर नाचेंगे, नेता, अफसर, कर्मचारी, बच्चे, स्त्रियां, नौजवान और बूढ़े सब नाचते हुए मिलेंगे. और सचमुच, जब मैं शाम को, अपनी अस्थमा की दवाई लेने के लिए मेडिकल स्टोर पर गया, तो भीड़ देखकर हैरान रह गया. कचहरी चौक पर हर तरफ से लोगों के नाचते-गाते जुलुस आ रहे थे. किसी तरह मैं भीड़ के बीच से मेडिकल तक पहुंचा, दवाई लेकर होटल आया और बाबू जी कहा, ‘क्या सरहुल देखने चलेंगे?’ वह तैयार हो गए और हम दोनों ने कचहरी चौक और मेन रोड के आसपास के क्षेत्र में सरहुल को देखने का सुख लिया. पता चला, सारे जुलुस अल्वर्ट एक्का चौक जा रहे हैं. पर हम अल्वर्ट एक्का चौक नहीं गए. हमने देखा, जुलुस में सचमुच सब नाच रहे थे, ढोल, ताशा और बेन्जों की धुन पर आदिवासी युवक-युवतियों के झुण्ड झूमते-नाचते गाते चल रहे थे. स्त्रियों ने लाल पाड़ की साड़ी पहिन रखी थी और बुजुर्ग धोती-कुर्ते में थे. हमने यह भी देखा कि अधिकाँश युवक और बुजुर्ग नशे में थे. लेकिन जिस चीज का हमने ज्यादा नोटिस लिया, वह यह थी कि उनके जुलुस हिन्दुओं और मुसलमानों के धार्मिक जुलूसों की तरह साम्प्रदायिक नहीं थे.
27 मार्च को रांची में हमारा आखिरी दिन था. बाबू जी की फ्लाईट सवेरे आठ बजे की थी, और मेरी बारह बजे के बाद की. सेमीनार से निबटकर बाबू जी ने कहा, ‘कँवल, कल चले जायेंगे, यहाँ आये हैं, तो झारखण्ड की कुछ कलाकृतियां लेते चलें, यादगार के लिए.’ मैंने कहा, ‘जी, बिल्कुल, चलिए. पता करते हैं, कहाँ मिलती हैं?’ असल में यहाँ हमें पंकज जी से बात करनी चाहिए थी, पर यह बात उस समय हमारे जहन से उतर गयी थी. हमने किसी सड़क चलते व्यक्ति से उस जगह के बारे में पूछा. पर वह ह्मारी बात समझ नहीं पाया, और उसने हमें न जाने कौन से बाजार में भेज दिया, जहां हम भटकते ही रहे और मिला कुछ नहीं. फिर वहीँ पर एक व्यक्ति ने हमें झारखंड हस्तशिल्प भंडार का पता दिया, और हम फिर से रिक्शा करके उस बाजार में पहुंचे. वह एक मॉल टाइप का बाज़ार था. उसमें हम लिफ्ट से ऊपर गए, शायद दूसरी मंजिल पर झारखंड सरकार का हस्तशिल्प और ग्रामोद्योग केन्द्र था, जैसा दिल्ली के कनाटप्लेस में गाँधी भण्डार है. वहाँ एक से एक अद्भुत चीजें थीं. एक-दो आइटम्स उन्होंने ख़रीदे और एक छोटी सी पेंटिंग मैंने भी ली, जो अभी भी मेरे बेडरूम में दीवाल पर लगी है. बिल्डिंग से निकलकर हम लोग कुछ देर तक बाहर के बाज़ार में घूमे. उन्होंने एक ठेले पर सेब ख़रीदे. आगे कुछ ठेले चाट और भूजे के थे. वहाँ से उन्होंने भूजा लिया, और उसे खाते हुए हमने वापिस जाने के लिए फिर रिक्शा पकड़ा. माताप्रसाद जी के साथ रिक्शे पर बैठकर घूमने का यह मेरा दूसरा अवसर था. रास्ते में मैंने मजाक में पूछा, ‘बाबू जी, मेरे दांत तो भूजा खाने लायक भी नहीं रहे. कुछ दांत बनवाए हुए हैं, जिन्हें लगाकर खाना खाता हूँ. आपके इस उमर में भी सारे दांत कैसे काम कर रहे हैं?’ पहले तो वह हँसे, फिर नीचे की एक बत्तीसी निकाल कर दिखाई, और कहा, ‘देखो, मैंने भी कुछ दांत बनवाए हुए हैं.’
28 की सुबह हम मोर्निंग वाक पर नहीं जा पाए. बाबू जी छह बजे ही नहा-धोकर जाने के लिए तैयार हो गए थे. कारण, एअरपोर्ट दूर था, और फ्लाईट से घंटा-दो-घंटा पहले भी पहुंचना होता है. मैंने उन्हें नमस्कार कर विदा करते हुए कहा, ‘आपके साथ रांची में यादगार समय बिताया. अब पता नहीं, कब मिलना होगा.’
15 October 2016





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