शनिवार, 16 अगस्त 2014

ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र


ओमप्रकाश वाल्मीकि का पहला पत्र- (1)
वाल्मीकि जी के जो पत्र मुझे मिले हैं, उनमें पहला पत्र 20-2-1993 का है, जो उन्होंने मुझे अपने लेटरहेड पर लिखा था. यह पत्र उन्होंने देहरादून से लिखा था, जो इस प्रकार है—
                                                   4, न्यू रोड स्ट्रीट, कलालों वाली गली,
                                                           देहरादून- 248001
                                                           दिनांकः 20-2-93
प्रिय भाई कँवल भारती जी,
आपका लेख ‘दलित साहित्य और बौद्धधर्म’ (18-2-93) को मिल गया था. सहयोग और तत्परता के लिए आभार. लेख वापिस भेज रहा हूँ. आपका लेख ‘दलित साहित्यकार की पहचान’ रख लिया है. मेरे विचार से वह लेख अधिक समसामयिक होगा, एक विचार— जिस पर चर्चा ज्यादा जरूरी है, उस लेख में है.
सामग्री मैंने प्रकाशनार्थ डाक से भेज दी है. मैं अधिक संतुष्ट नहीं हूँ. एक कमजोरी बार-बार जो उभर कर आ रही है, वह है रचनात्मक गम्भीर रचनाओं का अभाव. हमारे बीच कितने कहानीकार हैं, कितने कवि. मैं समझता हूँ, डा. आंबेडकर-दर्शन, विचार को भावित या विश्लेषित, व्याख्यायित करने वाले आलोचक, समालोचक अधिक नहीं हैं.
ब्राह्मणवादी साहित्य से किस दंभ और साहस से लड़ा जायेगा. किस आधार पर हिंदी दलित साहित्य उभर कर अपना स्थान बनायेगा. कहानी के नाम पर रत्नकुमार सांभरिया (जयपुर), प्रेम कपाड़िया (नयी दिल्ली), कमलकांत (नयी दिल्ली) की साधारण रचनाएँ मिलीं, जबकि मैंने कम से कम 50 रचनाकारों को कविता/कहानियां भेजने के लिए लिखा था. रचनाएँ मिलीं लेकिन स्तर (?)...... ऐसे में अच्छी पत्रिका शुरू करें भी तो कैसे?
शायद कारण दलित रचनाकारों का स्वाध्याय है, जो लिखना तो चाहते हैं, दूसरों को पढ़ना नहीं चाहते हैं. गहन अध्ययन की आदत नहीं है, जिसके बिना अच्छा लिखना संभव नहीं है. हमें इस विषय में गंभीरता से विचार करना होगा.
आशा है, सानन्द होंगे.
‘हंस’ की कहानी पढ़ ली होगी—‘बैल की खाल’
सहयोग के लिए एक बार फिर आभार. पत्र दें.
                                                                  आपका ही
                                                           (ह.) ओमप्रकाश वाल्मीकि



ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र--2
      वाल्मीकि जी का दूसरा पत्र 23-4-1993 का है. यह पत्र दलित साहित्य के संघर्ष को भी रेखांकित करता है. पत्र इस प्रकार है—
                                                   4, न्यू रोड स्ट्रीट, कलालों वाली गली,
                                                                देहरादून
                                                            दिनांकः 23-4-93
प्रिय भाई कँवल भारती जी,   
आपका पोस्टकार्ड मिला, घर पहुँचते ही आपने पत्र लिखा, अच्छा लगा. आपके नुकसान की भरपाई न कर पाने का अफ़सोस है. आशा है, अन्यथा न लेंगे. फिर कभी अवसर आयेगा. यही क्या कम है कि डा. अम्बेडकर जयंती पर हम लोग, थोड़ी ही सही, सार्थक बात कर सके. फिर भी आपको जो असुविधाएं हुईं, मैं व्यक्तिगत तौर पर क्षमा चाहूँगा.
‘दर्द के दस्तावेज’ पर मैं डा. एन. सिंह से लम्बा पत्र-व्यवहार कर चुका हूँ. मैंने अपनी राय स्पष्ट शब्दों में लिख दी थी. शायद आपके सामने भी मैंने बार-बार दलित-चेतना की बात उठाई थी. उनकी भूमिका की प्रशंसा करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. इसलिए मैं यह कह सकता हूँ कि आपके विचार से सहमत हूँ. किसी भी रचना के मूल्यांकन का मापदंड परम्परावादी ढंग से नहीं हो सकता.
दिल्ली में मैंने यादव जी (राजेन्द्र यादव) से चर्चा की थी. उन्होंने आपकी कविताओं पर अभी तक कोई निर्णय नहीं लिया है. जल्दी ही आपको सूचित करेंगे. दिल्ली कार्यक्रम सफल रहा. सूरजपाल चौहान मेरे साथ थे.
डा. सुमनाक्षर ने अपनी लिस्ट में मेरा नाम जोड़ने की कोशिश की है. इस वर्ष के डा. अम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कारों में मेरा नाम भी शामिल है. ‘न्याय चक्र’ (यह रामविलास पासवान की पत्रिका थी) के अगले अंक में मेरा लेख आ रहा है—‘बेगार-प्रथा : एक सामाजिक अपराध’.
इस बार दिल्ली में कई लोगों से सम्पर्क बना. ‘हम दलित’ (यह ISI, दिल्ली की पत्रिका थी) के संपादक श्री प्रेम कपाड़िया जी से काफी लम्बी बातचीत हुई. आप उन्हें कुछ अवश्य भेजें. संतोषी जी भी मिले. (यह संभवतः हरिकिशन संतोषी थे.)
‘हंस’ कार्यालय में श्री शैलेश मटियानी जी मिल गये थे. सूरजपाल चौहान ने दलित साहित्य पर छपे (राष्ट्रीय सहारा में) लेख की चर्चा छेड़ दी. काफी लम्बी बहस हुई. गर्मागर्म भी. शायद किसी बड़े लेखक को इस तरह का सामना पहली बार करना पड़ा. वे थोड़े अव्यवस्थित लगे.
बस, शेष फिर! एक बार फिर, घाटा पूरा न कर पाने तथा 15-4-93 की सुबह न मिल पाने का दुःख है. अगले रोज दिल्ली जाना था. इसीलिए सारा कार्यक्रम गड़बड़ा गया. वैसे भी मैं जयपुर का प्रोग्राम छोड़ चुका था.
पत्र दें. शुभकामनाओं सहित,
                                                                   आपका,
                                                            ह. (ओमप्रकाश वाल्मीकि)


ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र--3
वाल्मीकि जी का तीसरा पत्र एक पोस्टकार्ड है, जो उन्होंने 25 अक्टूबर 1993 को मुझे लिखा था. यह पत्र इस प्रकार है—
                                             देहरादून
                                             25-10-93
      प्रिय भाई कँवल भारती जी,
आपका पत्र मिला. व्यस्तता के कारण पत्र-व्यवहार में विघ्न पड़ा. ‘हंस’ के कार्यक्रमों में व्यस्त था ही. फिर हिन्दी-सप्ताह और उसके बाद महामहिम सुमनाक्षर जी का आदेश कि वे ‘डा. अम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार’ से मुझे नवाज रहे हैं. सो काफी जद्दोजहद के....मैं 23 सित. से 26 सित. तक दिल्ली में रहा. फिर 2-3 अक्टू. को कानपूर में नवें दशक के कथाकारों का सम्मेलन था, उसमें जाना पड़ा. 21-22 अक्टू. को नागपुर में हिन्दी दलित साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता करने का निमंत्रण मिला. वहां से कल ही लौटा हूँ. उम्मीद थी, वहां आपसे मुलाकात होगी. लेकिन निराशा ही हाथ लगी. कार्यक्रम एक सार्थक शुरुआत थी. डा. महीप सिंह, मोहनदास नैमिशराय, डा. दयानन्द बटोही. डा. अनिल गजभिय आदि के साथ कई जाने-माने नाम थे. चर्चाओं के कई सत्र हुए. ‘दलित’ शब्द पर लम्बी चर्चाएँ हुईं.
‘नागसेन’ का अंक आपके निवास के पते पर भेजा था. क्या पता बदल गया है? यदि अंक इस पत्र के मिलने तक न मिला हो, तो लिखना. एक प्रति और भेज दूंगा. आपका लेख उसमें छपा है. ‘सलाम’ पर आपकी टिप्पणी ने मेरा हौसला बढ़ाया है. ‘लोकमत’ के दीवाली विशेषांक में भी एक कहानी आ रही है, जो दलित समस्या को एक अलग कोण से उठाती है. ‘इंद्रप्रस्थ भारती’ के ताज़ा अंक में तीन कविताएँ हैं. मिले तो देख लें. पत्र दें.
                                                  आपका,
                                            ह.(ओमप्रकाश वाल्मीकि)
प्रतिष्ठा में,
श्री कँवल भारती
द्वारा,सैयद कादरी साहब
सदिया मंजिल, सिरवारा रोड, सुल्तानपुर, (उ.प्र.)
      एक पोस्टकार्ड में इतनी ढेर सी बातें लिखना और वह भी बड़े अक्षरों में, काबिले तारीफ तो है ही. पोस्टकार्ड पर लिखा मेरा पता बताता है कि उस वक्त मेरा ठिकाना सुल्तानपुर में था.


ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र—4
      वाल्मीकि जी ने अपना चौथा पत्र भी मुझे पोस्टकार्ड पर लिखा था, जिसमें नये वर्ष की शुभकामनाओं के साथ यह चिंता व्यक्त की थी मेरी तरफ से एकदम सन्नाटा क्यों हो गया था? पोस्टकार्ड पर उन्होंने सबसे ऊपर लाल स्केच पेन से नव वर्ष के आगमन पर हार्दिक शुभकामनाएं लिखा है, बाकी पूरा पत्र, जो काफी संक्षिप्त है, हरे स्केच पेन से लिखा गया है. पत्र इस प्रकार है—
प्रिय भाई कँवल भारती जी,
कैसे हो?
एकदम सन्नाटा ! आखिर क्या बात है? समाचारों से अवगत करें.
‘नागसेन’ पर आपकी टिप्पणी का इंतज़ार था. प्रति मिल गयी होगी.
सानन्द होंगे.
                                                           आपका,
                                       ह.(ओमप्रकाश वाल्मीकि)


ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र—5

      वाल्मीकि जी का पांचवा पत्र लैटर हेड पर ही है और महत्वपूर्ण भी है. यह पत्र उन्होंने 11 जून 1993 को लिखा था. अवलोकन करें—

                                                   4, न्यू रोड स्ट्रीट, कलालों वाली गली,
                                                           देहरादून- 248001
                                                           दिनांकः 11-6-93
प्रिय भाई कँवल भारती जी,
अचानक चुप्पी.... कोई विशेष बात है क्या? समय निकाल कर पत्र लिखिए. भाई श्री रत्नकुमार सांभरिया जी, जयपुर के एक लेख की फोटो प्रति भेज रहा हूँ. यदि उनसे आप सहमत हैं, तब तो कोई बात नहीं. हाँ, यदि असहमत हैं, तो सांभरिया जी को असहमति अवश्य जतायें.
जब अम्बेडकरवादी साहित्यकारों की ऐसी सोच है, तो फिर बाकी से किस स्तर पर लड़ा जायेगा. मैं समझता हूँ, दलित आन्दोलन को कमजोर करने के ये षड्यंत्र हैं.
मैंने संपादक, लोकशासन ( शायद यह ‘लोक-सूचक’ पत्रिका का जिक्र है, जिसे कानपुर से बी.एल, नैयर निकलते थे) को भी पत्र लिखा है. साथ ही एक एक लेख ‘दलित साहित्य : सामाजिक सन्दर्भ’ भी भेजा है. देखिए छापते हैं या नहीं.
सांभरिया जी ने ‘दलित’ का अर्थ ‘दबा हुआ’ लगाया है, जबकि ‘दलित’ का सीधा और सहज अर्थ है ‘दबाया हुआ’, जिसकी एक गहन अभिव्यंजना है, जो शोषण की पीड़ा को व्यक्त करता है, संघर्ष की भावना को जन्म देता है.
बस, शेष फिर. पत्र दें.
                                                                  आपका ही
                                                           (ह.) ओमप्रकाश वाल्मीकि


ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र—6
देहरादून
दिनांकः 3-2-94
प्रिय भाई कँवल भारती जी,
आपका [पत्र दिनांक 10-1-94 मिला. ‘नागसेन’ की छपाई ने वाकई सारी मेहनत पर पानी फेर दिया. मैं स्वयं निराश हुआ हूँ. ‘सावित्री’ आपको पसंद आयी, आभार. आपका लेख ‘सरस सलिल’ में तथ्यपूर्ण है. बधाई.
‘अंगुत्तर’ का अंक मिला है या नहीं. दलित साहित्य की एक सशक्त पत्रिका शुरू हुई है. आप भी उसमें रचनाएं भेजिए. मैंने यहाँ मजदूरों के बीच एक अध्ययन केंद्र प्रारंभ किया है, जिसमें एक पुस्तकालय की स्थापना की है, तथा संगोष्ठियाँ, परिचर्चाएं आदि भी आयोजित भी की जायेंगी, ताकि जनचेतना का काम शुरू किया जा सके.
इसी पुस्तकालय में हिंदी में प्रकाशित श्रेष्ठ रचनाकारों का संग्रह भी किया जायेगा. आप अपनी पुस्तकों की एक-एक प्रति भिजवा दें. मूल्य भेज दिया जायेगा. अप्रेल में एक परिचर्चा करने की योजना है, क्या समय दे पाओगे? लिखें. आने-जाने के मार्ग-व्यय की व्यवस्था कर दी जायेगी.
बस, शेष कुशल, सानन्द होंगे. पत्र दें. शुभकामनाओं सहित,
                                                                   आपका,
                                                           (ह.) ओमप्रकाश वाल्मीकि

ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र- 7

देहरादून
दिनांकः 12-2-94
प्रिय भाई कँवल भारती,
आपका पत्र दिनांक 8-2-94 मिला. अप्रेल का कार्यक्रम तय होते ही आपको पत्र लिखूंगा. उज्जैन जाने का कोई औचित्य समझ में नहीं आ रहा है. तमाम चीजें बेहद दिशाहीन हैं. ‘सारस्वत’ शब्द ही अपने आप में ब्राह्मणवादी शब्द है. ऊपर से बाबू जगजीवन राम के नाम पर ‘डा. अम्बेडकर राष्ट्रीय अस्मितादर्शी साहित्य अकादमी’ उपाधि दे तो बात गले नहीं उतरती. पता नहीं, आपकी राय इस विषय में क्या है? लेकिन मेरा मत है कि आयोजन की दिशा का निर्धारण आवश्यक है. डा. सत्यप्रेमी विद्वान् हैं, लेकिन उनके आलोचनात्मक लेख, कविताएँ दलित चेतना की प्रखरता से अछूती हैं.
जाने का फिलहाल तय नहीं है. आगे कार्यक्रम क्या रूप लेता है, इस पर निर्भर करेगा. मैंने अपनी वैचारिक शंकाएं डा. सत्यप्रेमी को स्पष्ट लिख दी हैं.  
बस, शेष कुशल. आशा है, सानन्द होंगे. पत्र दें. शुभकामनाओं सहित,
                                                                   आपका,
                                                           (ह.) ओमप्रकाश वाल्मीकि

ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र- 8

देहरादून
दिनांकः 6-4-94
प्रिय भाई श्री कँवल भारती जी,
आपके पत्र (3-3-94) का उत्तर विलम्ब से दे रहा हूँ. व्यस्तता थी. सांभरिया जी को लेख भेज दिया था, शायद छापें.
आपने स्थानान्तरण के विषय में लिखा था, क्या रहा? देहरादून आ जाइये. अच्छा रहेगा. मुझे ख़ुशी भी होगी. मिलकर शायद कुछ बेहतर कर पायें.
डा. एन. सिंह ‘दलित साहित्य : चिंतन के विविध आयाम’ पुस्तक का संपादन कर रहे हैं. शायद आपको लिखा हो. आपका लेख वे शामिल कर रहे हैं. उनके द्वारा सम्पादित कहानी-संग्रह आने ही वाला है.
नया क्या लिख रहे हैं?
बस, शेष कुशल, सानन्द होंगे. पत्र दें. शुभकामनाओं सहित,
                                                                   आपका,
                                                           (ह.) ओमप्रकाश वाल्मीकि
                                                                 

ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र- 9

देहरादून
दिनांकः 22 जून, 1994
प्रिय भाई श्री कँवल भारती जी,
आपका पत्र दिनांक 13-6-94 मिला. आपके पत्र का मैं इंतज़ार कर रहा था. मुझे उम्मीद है अब तक अप रामपुर में सुव्यवस्थित हो चुके होंगे.
जानकार ख़ुशी हुई कि आप ‘अंगुत्तर’ की दस प्रतियाँ रामपुर में लगायेंगे. नया अंक आने वाला है. हो सकता है आपको यह पत्र मिलने तक अंक आ जाये. आप डा. विमल कीर्ति जी को अंक मंगाने के लिए लिख देंगे तो बेहतर होगा, क्योंकि हो सकता है उनके पास आपका नया पता (रामपुर का ) ना  हो.
योगेन्द्र यादव/मोहनदास नैमिशराय से क्या बातचीत हो गयी है, विस्तार से लिखें. नैमिशराय जी के बारे में आपकी ही नहीं और भी कई लोगों की राय इसी तरह की है.
श्योराज सिंह बेचैन से आपका परिचय है या नहीं? उनकी पत्नी JNU से M.Phil कर रही हैं दलित कहानियों पर. वे अक्सर मुरादाबाद और बरेली आते रहते हैं.
‘दलित चेतना’ की वैचारिक गोष्ठियां करने की योजना है. आपसे सम्पर्क हो तो विस्तार से बातचीत करके कोई कार्यक्रम निर्धारित कीजिये.
‘हंस’ में मेरी कहानी की घोषणा नहीं हुई है. शायद अगले किसी अंक में घोषणा हो. वैसे जुलाई में आना लगभग तय था.
‘कहाँ जाये सतीश?’ की फोटो प्रति भेज रहा हूँ. क्या आप ‘सलाम’, ‘बैल की खाल’, ‘कहाँ जाये सतीश?’ या और भी जो कहानियाँ आपके पास हों, पर कोई समीक्षात्मक लेख लिख सकते हैं. ‘अंगुत्तर’ या और किसी पत्र-पत्रिका को भेजा जा सकता है.
‘हरिजन से दलित’ (संपादक राजकिशोर) में प्रकाशित ‘आत्मकथा के अंश’ पर आपकी टिप्पणी ने मुझे हौसला दिया है. कुछ साथी निरुत्साहित तथा भयभीत करने की कोशिश कर रहे थे. भविष्य में ‘आत्मकथा’ पर काम करने की योजना है. रामपुर के लोगों में यदि मेरे शब्दों ने थोड़ी भी चेतना जगाने का काम किया तो मैं अपने लिखने को सार्थक समझूंगा. यहाँ भी लोगों में तीखी प्रतिक्रिया हुई है. लोगों ने किताब से फोटोकॉपी कर के एक-दूसरे तक पहुंचायी है. कई कम्युनिस्ट साथियों को इस अंश ने विचलित किया है, क्योंकि उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों की तमाम यातनाएं, दमन भ्रम के पीछे छिपे पड़े हैं. दु:खी और पीड़ित भी स्वयं को दु:खी और पीड़ित नहीं मानता, या कहिये एहसास नहीं है. इसी कारण बदलाव की प्रक्रिया शुरू ही नहीं होती. नियति और भाग्य के भरोसे स्वयं को छोड़कर ‘जड़-व्यवस्था’ में पहुँच जाते हैं. (इसे) यथास्थितिवाद कहना बेहतर होगा.
आपके लेख ‘मंदिर में क्या रखा है?’ (दे. ‘हरिजन से दलित’, संपादक : राजकिशोर) का शीर्षक ही अपने आप में व्यंजना पैदा करता है. समसामयिक मुद्दे पर दलितों के पक्ष की प्रतिबद्धता के साथ प्रस्तुत करता है. इसी कड़ी में डा. मस्तराम (कपूर) जी का लेख भी है. दोनों को एक साथ पढ़ा जाये तो समस्या को ठीक से समझा जा सकता है. इस लेख में आपकी प्रतिबद्धता का एक आयाम खुलकर आया है, जो इस दौर के लिए जरूरी है. BJP वाल्मीकियों में घुसपैठ कर रही है. कुंठित, अपरिपक्व, अवसरवादी छुटभैये नेताओं को अपने खेमे में ला रही है, जिसका असर यह होगा कि बदलाव के रास्ते से भटक कर वे हिंदुत्व की दलदल में फंसे रह जायेंगे. इसलिए जरूरी है नयी पीढ़ी तक अम्बेडकर, फूले-विचार-दर्शन का क्रन्तिकारी रूप पहुँचाया जाये, वर्ना आप जैसे अनेक दलित लेखकों का श्रम व्यर्थ चला जायेगा. मेरी यह लगातार कोशिश है कि मैं वैचारिक स्तर पर लोगों में एक सोच की प्रक्रिया शुरू करूँ.
‘अस्मिता अध्ययन केंद्र’ की बुनियाद भी इस (इसी) विचार पर रखी गयी है. यह सब तभी संभव है जब हम एकजुट होकर सामूहिक लड़ाई लड़ें, एक योजना के तहत.
खैर, शेष फिर, सानन्द होंगे.
शुभकामनाओं सहित,
                                                                   आपका,
                                                           (ह.) ओमप्रकाश वाल्मीकि


ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र- 10

देहरादून
8/94 (यह 8-6-94 होना चाहिए)
प्रिय भाई श्री कँवल भारती जी,
‘रामपुर’ पहुँचने पर हार्दिक शुभकामनाएं.
आपके लिए यह जगह नहीं है, इसलिए उतनी असुविधाएं आप महसूस नहीं करेंगे, जितनी नयी जगह स्थानांतरित होने पर होती हैं. फिर भी कुछ अड़चनें तो होंगी ही.
डा. विमल कीर्ति का पत्र आया था, ‘अंगुत्तर’ का अच्छा रिस्पांस मिल रहा है—उन्होंने इस बात का जिक्र अपने पत्र में किया है. यदि संभव हो, तो रामपुर में ‘अंगुत्तर’ के पाठक जुटाइए, ताकि पत्रिका की बिक्री भी हो. कुछ आर्थिक मदद भी कहीं से दिलवाइए उन्हें. यहाँ अभी दस अंक खप्प रहे हैं, लेकिन उम्मीद है शीघ्र ही संख्या बढ़ेगी.
28-4-94 को दिल्ली में ‘लोकायन’ के सौजन्य से मोहनदास नैमिशराय ने ‘दलित साहित्य की बाधाएं और संभावनाएं’ विषय पर संगोष्ठी की थी. मैं भी गया था. उस गोष्ठी में राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, महीप सिंह, धर्मवीर तथा रमणिका गुप्ता (बिहार) आदि उपस्थित थे. अच्छा कार्यक्रम रहा. इस तरह के अधिक से अधिक कार्यक्रम होने चाहिए, दलित साहित्य को लेकर. दशहरे के आसपास एक कार्यक्रम रखने की योजना है, देहरादून में. आप कुछ सशक्त, अच्छे तेवर की कविताएँ मेरे पास भेज दीजिए, ताकि कहीं उनका उपयोग (अवसर मिलते ही) कर सकूँ.
रामपुर में भाई दिनेश मानव के क्या समाचार हैं? गत वर्ष उन्होंने एक कार्यक्रम किया था, लेकिन मैं उसमें शामिल नहीं हो पाया था. आजकल उनकी क्या गतिविधियाँ हैं?
‘हंस’ (जुलाई, 94) में एक ताज़ा कहानी आने की सम्भावना है. वाल्मीकि समाज की एक खास मानसिक दबाव की यंत्रणा की कहानी है. शायद आपको पसंद आये. यहाँ ‘संवेदना’ द्वारा आयोजित एक गोष्ठी में मैंने इस कहानी का पाठ किया था, जिस पर एक लम्बी चर्चा हुई थी. संगोष्ठी में कई वरिष्ठ रचनाकार उपस्थित थे. एक नये परिवेश की कहानी माना है सभी ने. ऐसे परिवेश की जो हिंदी कथाकारों / रचनाकारों के अनुभव से अछूता था. देखिये छपने पर पाठकों की क्या राय बनती है. ‘बैल की खाल’, ‘सलाम’ के बाद ‘चिरागंध’ क्या उन्हें कुछ नया दे पाती है या नहीं. मेरे लिए आपकी राय और प्रतिक्रिया विशेष महत्व रखती है. हाल ही में प्रकाशित ‘कहाँ जाये सतीश’ कहानी को भी पाठकों ने पसंद किया है.
अपने समाचारों से अवगत करें.
शुभ कामनाओं सहित,
                                                                           आपका
                                                                   ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)


ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र—11


कलालों वाली गली, देहरादून
20-1-95
प्रिय भाई,
पत्र मिला. ‘अधिसंख्य भारत’ के प्रकाशन पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं.
‘अंगुत्तर’ में आप(का) लेख पसंद आया. ख़ुशी हुई. सही रास्ता यही है. चलते रहो. कारवाँ बन जायेगा.
‘प्रज्ञा’ के लिए शीघ्र कुछ भेज दो मेरे पते पर. कविता, लेख या जो चाहो. लेकिन कुछ ऐसा जिसमें दलित अनुभवों की दाहक अभिव्यक्ति हो, जो स्थापित साहित्य पर गहरी पीड़ा की खरोंच डाल सके, जो सिर्फ अपना हो.
शीघ्र भेजें सामग्री. इन्तजार रहेगा. किसी साथी से अंगुत्तर की समीक्षात्मक टिप्पणी भी भिजवा सकते हैं.
बस, शेष कुशल.
कविताएँ प्रेषित हैं.
ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)

ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र—12


देहरादून
5-2-95
प्रिय भाई श्री कँवल भारती जी,
‘रैदास जयंती’ की गोष्ठी में पहुँच पाना संभव नहीं. कार्यालय के अति आवश्यक उत्पादन कार्यों में उलझा हूँ. छुट्टी नहीं मिल पा रही है. आशा है, फिलहाल क्षमा करेंगे. आपके निमंत्रण को टाल पाना मेरे लिये कष्टदायी है. मैं जानता हूँ आपके विश्वास को ठेस पहुंचेगी. लेकिन भाई जीविका के लिए नौकरी भी जरूरी है. इस एहसास के साथ न आ पाने के दंश से मुक्त करेंगे.
‘कविताएँ’ रख ली हैं, और भी कुछ भेज सको तो ख़ुशी होगी. दिनेश मानव जी की ‘अंगुत्तर’ पर समीक्षात्मक टिप्पणी आ सके, तो नि:संदेह मुझे व्यक्तिगत ख़ुशी होगी.
बस, शेष कुशल. ‘जनमत’ में लम्बे समय से प्रेमचंद की ‘कफन’ पर बहस चल रही है. शायद देख पाए हों. डा. मस्तराम कपूर जी ने भी मेरी बात पर सहमति व्यक्त की है कि ‘कफन’ ‘दलित-विरोधी’ है.
‘अधिसंख्य भारत’ का प्रवेशांक कब तक? पत्र दें.
शुभकामनाओं सहित,
आपका,
ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)

ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र—13

देहरादून, दिनांकः 22-1-96
प्रिय भाई कँवल भारती जी,
सम्पर्क-सूत्र कुछ टूटे से लग रहे हैं. इन्हें जोड़कर रखिए. नववर्ष की कविता कुछ विलम्ब से मिली. ‘अमर उजाला’ (19-1-96) के लेख के लिए बधाई. एक अति महत्वपूर्ण कार्य आपने किया है. दलित साहित्य को इस तरह रेखांकित किया जाना नि:संदेह आपकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है. यह काम आप ही कर सकते थे.
‘सुमन लिपि’ (बम्बई, अ. संपादक- डा. एन. सिंह) का ही द. सा. विशेषांक आया है. परिवेश पत्रिका (चंदौसी) का ‘परिवेश-सम्मान-1195’ दलित साहित्य के लिए मुझे दिया गया है. 25 फर. को एक आयोजन (जो वे देहरादून में ही करेंगे) होगा, जिसमें हिंदी क्षेत्रों में ‘दलित-चिंतन एवं लेखन की सम्भावना तथा दिशा’ विषय पर संगोष्ठी भी होगी. शायद मूलचंद गौतम जी का पत्र भी आपको मिला होगा. इस कार्यक्रम में आपकी उपस्थिति एवं सक्रियता अति आवश्यक है, ताकि विचार-गोष्ठी में एक सम्वाद बन सके. (इसी सम्मान समारोह और गोष्ठी में मलखान सिंह की कविता-पुस्तक सुनो ब्राह्मण का भी लोकार्पण हुआ था— क. भा.)
बाकी सब ठीक है. आपके पत्र की प्रतीक्षा रहेगी.
शुभकामनाओं सहित,
आपका,
ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)


ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र—14

देहरादून, 30-1-96
प्रिय भाई श्री कँवल भारती जी,
आपका पत्र 25-1-96 मिला. आभार. दिल्ली कार्यक्रम में पहुंचना नहीं हो पाया. विमल थोरात से JNU में मुलाक़ात हुई थी डा. श्योराजसिंह बेचैन जी के निवास पर. वहीँ उन्होंने पुस्तक दी थी. मुझे लगता है दलित-साहित्य की बढ़ती सुगबुगाहट को ध्यान में रखकर यह पुस्तक (उनकी पीएचडी थीसिस) लिखवाई गयी है. एक तरह से प्रायोजित है. मराठी दलित कविता की तुलना हिंदी की साठोत्तरी कविता से करना स्वयं ही इस प्रायोजन का भेद खोल रहा है. यह सोची-समझी बात है. आपके वक्तव्य से मैं सहमत हूँ.
मैं कहानियां भेज दूंगा. कुछ कहानियां तो आपके पास होंगी ही. मैं नाम लिख रहा हूँ. इनमें से जो न हो, वह बता दें, भेज दूंगा. बैल की खाल, सलाम, भय, ग्रहण, बिराम की बहू, कुचक्र, कहाँ जाये सतीश, सपना, गौहत्या, पच्चीस चौका डेढ़ सौ. लौटती डाक से लिखें. फोटो प्रति तैयार है. बस आपके पत्र का इंतज़ार है.
‘हंस’ में छपे लिम्बाले के साक्षात्कार का पंजाबी अनुवाद कई पंजाबी समाचार-पत्रों में छपा है. अन्य प्रदेश से भी उत्साहवर्धक पत्र आये हैं. दलित रचनाकारों को इससे वैचारिक दृढ़ता मिली है. दिल्ली में लोगों ने फोटोकॉपी कराकर वितरित तक किया है. ये अच्छे लक्षण हैं. दलित-(साहित्य) के प्रति लोगों में रुझान बढ़ा है.
‘समकालीन दलित साहित्य’ पत्रिका कहाँ से शुरू हो रही है? लिखें.
25 फर. को शरणकुमार लिम्बाले जी के भी आने की सम्भावना है. वे 3-6 फर. को विश्व पुस्तक मेले में रहेंगे.
बस, शेष फिर, सानन्द होंगे.
शुभकामनाओं सहित,
आपका,
ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)




ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र—15

कलालों वाली गली, देहरादून
10-2-96
प्रिय भाई श्री कँवल भारती जी,
आपका पत्र दिनांक 6-2-96 मिला.
भय, बिरम की बहू, कुचक्र, सपना, बैल की खाल, कहानियाँ भेज रहा हूँ. गौ हत्या  और पच्चीस चौका डेढ़ सौ, अगले पत्र में भेजूंगा.
शरणकुमार लिम्बाले जी का पता है—यशवंतराव चह्वाण महाराष्ट्र मुक्त विद्यापीठ, ज्ञान गंगोत्री, गंगापुर डैम के पास, नाशिक—422005
लिम्बाले जी 25 फर. के कार्यक्रम में आ रहे हैं. आप चाहें तो पुस्तकें साथ लेते आयें, यहीं दे सकते हैं. मुझे दस प्रतियाँ मिल गयीं थीं. पांच-छह प्रतियाँ निकल गयी हैं. बाकी भी निकल जायेंगी. देहरादून तो आ ही रहे हो. इनके मूल्य का भुगतान तभी कर देंगे. डाक खर्च बच जायेगा.
पुस्तक प्रेरणादायक है. डा. आंबेडकर की अभिव्यक्ति को जिस प्रकार आपने रूपांतरित किया, वह प्रशंसनीय है, अनुकरणीय है. बधाई.
25 फर. 96 को परिवेश सम्मान 3.00 बजे से प्रेस क्लब, परेड ग्राउंड, देहरादून में है. 3.00 बजे संगोष्ठी है—‘हिंदी क्षेत्रों में दलित लेखन और चिंतन की चुनौतियाँ एवं सीमाएं’ विषय पर है. उसके बाद सम्मान कार्यक्रम रात 8.00 बजे, संवाद-सृजन में कवितायेँ और कहानियां पढ़ी जायेंगी. उन पर चर्चा होगी. आप अपनी कुछ कविताएँ लेकर आयें, ताकि दलित कविता की प्रस्तुति हो सके.
विमल थोरात को मैंने अपनी प्रतिक्रिया से अवगत करा दिया है. उनको लिखे पत्र की प्रतिलिपि भी आपको भेजूंगा. यह पुस्तक हिंदी दलित साहित्य की राह में रोड़ा बनने का काम करेगी.
‘अंगुत्तर’ में आपका लेख छपने पर पढ़ूंगा.
‘अमर उजाला’ में ‘वाल्मीकि’ (रामायण के रचयिता) पर आपका लेख पढ़ा. भावाधस (भगवान् वाल्मीकि धर्म समाज) और उससे जुड़े साथियों से मेरा थोड़ा-बहुत सम्पर्क है. कई बार पत्र-व्यवहार भी हुआ है. लेकिन वैचारिक असहमति तथा पूर्वाग्रहों ने (आस्था ने भी) बीच में फासला बना दिया. वाल्मीकि-समाज की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर मैंने कुछ शोध-कार्य शुरू किया था, जो अभी अधूरा है. उसी सिलसिले में भावाधस तथा पंजाब के कई साथियों से बातचीत की, पत्र लिखे. लेकिन उन्होंने स्वयं के ऊपर जो कवच पहन रखा है, उसके बाहर निकल कर वे बात नहीं करते. ‘वाल्मीकि’ फिल्म पर उन्होंने कई बार मुझे भी पत्र लिखे थे.
बस, शेष फिर,
आपका.
ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)    



ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र—16

कलालों वाली गली, देहरादून
दिनांकः 13-2-96
प्रिय भाई श्री कँवल भारती जी,
आपका पत्र 6-2-96 मिला. कुछ कहानियां इससे पूर्व आपको भेज दी थीं. मिल गयी होंगी. उस लिफाफे में भय, बिरम की बहू, कुचक्र, सपना, और बैल की खाल थीं. सलाम, कहाँ जाये सतीश, गौहत्या, पच्चीस चौका डेढ़ सौ, भेज रहा हूँ.
कल 12-2-96 के ‘राष्ट्रीय सहारा’ में नैमिशराय जी का आलेख है, दलित अस्मिता और पत्रकारिता पर. देख लें. लेख अच्छा बना है.
25-2-96 को कार्यक्रम प्रेसक्लब, परेड ग्राउंड, देहरादून में तीन बजे से है. संगोष्ठी का विषय है—‘हिंदी क्षेत्रों में दलित चिंतन एवं लेखन की चुनौतियाँ एवं सीमाएँ’.
26-2-96 को भी आपको रुकना है. अस्मिता अध्ययन केंद्र के कार्यकर्ताओं से कुछ चर्चा रख देंगे.
बस, शेष कुशल, सानन्द होंगे.
आपका,
ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)



ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र—17

कलालों वाली गली, देहरादून
दिनांकः 2-3-96
प्रिय भाई कँवल भारती जी,
आपके दोनों पत्र मिले. एक, जो आपने शांति यादव जी के हाथ भेजा था, दूसरा पोस्टकार्ड. भाभी जी का स्वास्थ्य कैसा है? लिखें. मैं स्वयं भी आजकल इन्हीं हालात से गुजर रहा हूँ. इसीलिए 21 जनवरी के कवि-सम्मेलन के लिए दिल्ली नहीं जा पाया था, जिसके लिए दिल्ली के साथी मुझसे नाराज हैं. लेकिन मेरी जिम्मेदारियां जितनी सामाजिक हैं, उतनी ही पारिवारिक भी हैं.
इसलिए आपके न आने से मैंने कमी महसूस तो की, लेकिन नाराजगी कुछ नहीं.
कार्यक्रम उत्तेजक रहा. बहस भी जोरदार थी. लेकिन दलित साहित्य के पक्ष में बोलने वाले मात्र हम दो थे और वे पूरे दल-ब-दल थे. मंच भी उनके ही हाथ में था. लेकिन इस बहस को हमने उनके बीच उतार कर एक ऐसा काम कर दिया है कि इसके परिणाम दिखायी देंगे.
दूसरे रोज ‘अस्मिता अध्ययन केंद्र’ का कार्यक्रम था. कुछ अख़बारों की फोटो प्रति भेज रहा हूँ. देख लें.
रामपुर के मलखान सिंह आये थे, जो दलित हैं, लेकिन वामपंथी विचारों से प्रभावित. उनसे भी चर्चा हुई है. उनकी पुस्तक ‘सुनो ब्राह्मण’ का लोकार्पण भी हुआ था. (वे) दलित साहित्य से लगभग अपरिचित हैं. आपका प्रसंग आने पर भी चुप ही रहे. वैसे तो मैंने अपनी ओर से ऐसा बीज उनके विचारों में रोप दिया है कि वे जल्दी ही दलित चेतना की ओर मुड़ेंगे. फिर भी यदि आपसे मिलें, उनसे विमर्श जारी रखें. ‘सुनो ब्राह्मण’ भी वे आपको देंगे.
यहाँ बहस उत्तेजक रही. कार्यक्रम तो सफल था. लेकिन मीडिया ने वही छापा, जो उन्हें छापना है. आप स्वयं ही देख लेंगे. मैंने बहस की रपट तैयार की है, जो मैं श्योराज सिंह बेचैन को भेज रहा हूँ.
कहानियों पर आलेख की प्रतीक्षा है. आपके आलेख (अमर उजाला) की काफी चर्चा है. दोनों कविताओं की तुलना करके दिखाने पर लोगों का ध्यान गया है.
दिनेश मानव की पत्रकारिता से मैं हतप्रभ हूँ. उसका यह हश्र देख कर मन दुखी है. क्या आपसे संवाद नहीं होता? उससे संवाद बनाइए, ताकि वह कुछ सार्थक काम करे. ‘मूकरागनी’ के बाद ‘वाल्मीकि प्रकाश’ आखिर वह करना क्या चाह रहा है? उम्मीद है, इस विषय उससे बात करेंगे और दलित-चेतना के संघर्षशील स्वरूप से उसे अवगत भी करेंगे. वह एक प्रतिभा-संपन्न व्यक्ति है, जो वैचारिकता के अभाव में उलझ गया है.
बस, शेष फिर,
भाभी जी कैसी हैं? शीघ्र लिखें.
आपका,
ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)
  


ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र—18

कलालों वाली गली, देहरादून
दिनांकः 9 मार्च, 1996
प्रिय भाई श्री कँवल भारती जी,
आपका पत्र एवं लेख मिले. आभार.
आलेख में आपने मेहनत की है. लगभग सभी कहानियों का विश्लेषण यथार्थपरक है, दलित चेतना के अनुरूप भी आलेख में जो सवाल उठाये गये हैं, उनसे दलित साहित्य को रू-ब-रू होना है. 8-3-96 के ‘अमर उजाला’ में छपा मनोज मिश्र या ऐसा ही कोई नाम (भूल रहा हूँ) का दलित साहित्य के विरोध में लेख देख ही लिया होगा. बिना तर्क के लेखक ने अपनी भड़ास निकाली है. कोई तथ्यपूर्ण तर्क लेखक के पास नहीं है. न ही लेखक ने दलित रचनाएँ पढ़ी हैं. सुनी-सुनायी तर्कहीन, पूर्वाग्रही आक्षेप लगाये हैं. अकेले मिश्र को ही नहीं, सवर्ण लेखकों के उस तबके को भी राजेन्द्र यादव फूटी आँख नहीं सुहाता है, जो प्रगतिशील, जनवादी और वामपंथी हैं.
खैर, आप लेख छपने भेजिए. लेकिन यदि उचित समझें, तो आलेख की भाषा को और अधिक गंभीर और तर्कपूर्ण बनाइये, क्योंकि यह आलेख दलित आलोचना का आधार बनेगा. अत: उत्तरदायित्व बढ़ जाता है. इसे विद्वानजन पढ़ेंगे. आलोचना की भाषा के प्रति दलित-समीक्षकों को सचेत होना पड़ेगा. मैं एक आलेख भेज रहा हूँ, जो ‘आजकल’ (युवा रचनाकार विशेषांक) में छपा था. कहानियों पर ही है. इस आलेख की चर्चा भी हुई है. पढ़ कर देख लें. भाषा पर विशेष ध्यान दें. आशा है, इस साथी की सलाह को अपनेपन के साथ लेंगे, बिना किसी आक्षेप या आग्रह के, क्योंकि दलित साहित्य की इस जद्दोजहद में हमें हर प्रकार के मुकाबले में उतरने की तैयारी करना है. एक-दूसरे के विमर्श के साथ चलना है.
कुछ अख़बारों की फोटोप्रतियाँ भेजी थीं, मिल गयी होंगी.
कल 8-3-96 को 95/-+5/- (डाकखर्च)=100 रु. का M.O. किया था. मिलते ही सूचना दें.
बस, शेष कुशल.
सानन्द होंगे.
आपका.
ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)
पुनश्च:
कहानियों के इस आलेख के शीर्षक पर भी पुनर्विचार करें—‘दलित अस्मिता और मुक्ति-संघर्ष की कहानियां’ या ऐसा ही कुछ हो तो मेरे विचार से सार्थक होगा.
‘अंगुत्तर’, ‘पूर्वदेवा’ (उज्जैन), ‘प्रज्ञा-साहित्य’ (फरुक्खाबाद), ‘न्याय चक्र’, ‘अमर उजाला’, ‘आम आदमी’ (युद्धरत आम आदमी), ‘दलित टुडे’ आदि को यह आलेख भेज सकते हैं. ‘परिवेश’ को भी एक प्रति भेज दीजिये.



ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र—19
(पोस्ट कार्ड)

देहरादून
10-3-96
प्रिय भाई श्री कँवल भारती जी,
आपका पत्र दिनांक 4-3-96 मिला. आपका लेख मिल गया है. उस पर प्रतिक्रिया और राय मैंने कल ही डाक में छोड़ी है. इस पत्र से पहले मिल चुका होगा. लेख कुछ विलम्ब से मिला. मलखान सिंह ने रामपुर पहुँच कर अभी कोई पत्र नहीं लिखा है. इंतज़ार है.
विमल थोरात के लेख पर मैंने आपकी प्रतिक्रिया भेजी थी. लेख अच्छा था. लोगों में गजब की सुगबुगाहट पैदा की है उस लेख ने. समीक्षक/साहित्यकारों को ही नहीं, पाठकों को भी प्रभावित किया है आपके विश्लेषणों ने. रघुवीर सहाय की कविता के साथ ‘दीया’ को आमने-सामने रखकर जो तर्क दिया (है), वह लोगों को झनझना देने के लिए काफी (हैं). यह काम आप ही कर सकते थे. बधाई.
समय आने दीजिये, मैं दि. मा. (दिनेश मानव) से बात करूँगा. उम्मीद है, एक और साथी को हम इस कारवां में जोड़ सकेंगे. ‘बैंडिट क्वीन’ वाला लेख पढ़ा था. लेकिन ‘वाल्मीकि’ (फिल्म) वाली टिप्पणी न जाने क्यों कुछ निरर्थक थी. हो सकता है, इस विषय पर हमें दलित-चेतना के विस्तार से अपने आप को जोड़कर देखने (की) जरूरत है. खैर, कभी मिल बैठकर चर्चा होगी. भावाधस के अनेक सदस्यों से चर्चा हुई, लेकिन वे चर्चा से बचते हैं. उनके पास प्रमाणिकता के स्थान पर केवल आस्था है. मैं आस्था को भटकाव मानता हूँ, जो विवेक और बदलाव को रोकती है.
शेष फिर, पत्र दें. सानन्द होंगे. आपकी पत्नी अब ठीक होंगी. उन्हें मेरी ओर से शुभकामनाएं दें.
ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)


ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र—20


कलालों वाली गली, देहरादून
दिनांकः 15-3-96
प्रिय भाई श्री कँवल भारती जी,
आपका पत्र दिनांक 9-3-96 तथा कहानियों पर लेख की कार्बन प्रति कल मिले. इससे पूर्व इस लेख की मूल प्रति मिल चुकी थी तथा उस पर मैंने अपनी राय भी लिख दी थी. उम्मीद है, वह पत्र अब तक आपको मिल चुका होगा. कार्बन प्रति वापस भेज रहा हूँ.
मनोज कुमार मिश्र के लेख पर मैंने अपनी प्रतिक्रिया टिप्पणी सहित ‘अमर उजाला’ को भेज दी है. लेकिन ‘अमर उजाला’ मेरे लेख या अन्य सामग्री छापता नहीं नही. इसलिए आप अपनी ओर से सटीक लेख उन्हें भेज दें. ’हिमालय-दर्पण’ भी अन्य अख़बारों से भिन्न नहीं है. वहां त्रिनेत्र जोशी जैसे तथाकथित वामपंथी (?) बैठे हैं, साथ में अवधेश कुमार भी हैं, जो दलित चेतना के घोर विरोधी हैं. ‘परिवेश-सम्मान-समारोह की गोष्ठी में मैंने त्रिनेत्र जोशी के वक्तव्य को ही आधार बनाकर अपने तर्क दिए थे. वे सब यथास्थितिवादी हैं.
मलखान सिंह की प्रतिबद्धता का रुख वामपंथी है. दलित-चेतना के प्रति अभी उनमें हिचकिचाहट है. शायद डर भी, जो उन्हें खुलने नहीं देता. गोष्ठी में भी वे दलित-चेतना के नकारात्मक पहलुओं को ही देख रहे थे. उन्हें इस ओर मोड़ना जरूरी है. इतने लम्बे समय में भी वे इस विचार(धारा) से तटस्थ रहे हैं. बाबा साहेब (डा. आंबेडकर) के प्रति भी उनका नजरिया वामपंथियों जैसा ही है. नि:संदेह (उनकी) कविताओं में तल्ख अनुभव है, लेकिन वर्गीय विषमता की अभिव्यक्ति हावी है, जबकि दलित साहित्य वर्णव्यवस्था पर टूट पड़ना चाहता है. वर्ग-विहीन समाज से ज्यादा उसकी प्राथमिकता वर्ण-विहीन समाज की है. यही प्रमुख अंतर है वामपंथी सोच और दलित-चेतना में.
खैर, आप जब उनसे मिलें, तो अपने अनुभवों से मुझे भी अवगत करें. मैं स्वयं चाहता हूँ, वे दलित-आन्दोलन के वैचारिक विमर्श से जुड़ें.
पत्र दें !
सानन्द होंगे. शुभकामनाएं.
आपका,
ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)   





     



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