ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र—16
कलालों
वाली गली, देहरादून
दिनांकः
13-2-96
प्रिय
भाई श्री कँवल भारती जी,
आपका
पत्र 6-2-96 मिला. कुछ कहानियां इससे पूर्व आपको भेज दी थीं. मिल गयी होंगी. उस
लिफाफे में भय, बिरम की बहू, कुचक्र, सपना, और बैल की खाल थीं. सलाम, कहाँ जाये
सतीश, गौहत्या, पच्चीस चौका डेढ़ सौ, भेज रहा हूँ.
कल
12-2-96 के ‘राष्ट्रीय सहारा’ में नैमिशराय जी का आलेख है, दलित अस्मिता और
पत्रकारिता पर. देख लें. लेख अच्छा बना है.
25-2-96
को कार्यक्रम प्रेसक्लब, परेड ग्राउंड, देहरादून में तीन बजे से है. संगोष्ठी का
विषय है—‘हिंदी क्षेत्रों में दलित चिंतन एवं लेखन की चुनौतियाँ एवं सीमाएँ’.
26-2-96
को भी आपको रुकना है. अस्मिता अध्ययन केंद्र के कार्यकर्ताओं से कुछ चर्चा रख
देंगे.
बस,
शेष कुशल, सानन्द होंगे.
आपका,
ह०
(ओमप्रकाश वाल्मीकि)
ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र—17
कलालों
वाली गली, देहरादून
दिनांकः
2-3-96
प्रिय
भाई कँवल भारती जी,
आपके
दोनों पत्र मिले. एक, जो आपने शांति यादव जी के हाथ भेजा था, दूसरा पोस्टकार्ड.
भाभी जी का स्वास्थ्य कैसा है? लिखें. मैं स्वयं भी आजकल इन्हीं हालात से गुजर रहा
हूँ. इसीलिए 21 जनवरी के कवि-सम्मेलन के लिए दिल्ली नहीं जा पाया था, जिसके लिए
दिल्ली के साथी मुझसे नाराज हैं. लेकिन मेरी जिम्मेदारियां जितनी सामाजिक हैं,
उतनी ही पारिवारिक भी हैं.
इसलिए
आपके न आने से मैंने कमी महसूस तो की, लेकिन नाराजगी कुछ नहीं.
कार्यक्रम
उत्तेजक रहा. बहस भी जोरदार थी. लेकिन दलित साहित्य के पक्ष में बोलने वाले मात्र
हम दो थे और वे पूरे दल-ब-दल थे. मंच भी उनके ही हाथ में था. लेकिन इस बहस को हमने
उनके बीच उतार कर एक ऐसा काम कर दिया है कि इसके परिणाम दिखायी देंगे.
दूसरे
रोज ‘अस्मिता अध्ययन केंद्र’ का कार्यक्रम था. कुछ अख़बारों की फोटो प्रति भेज रहा
हूँ. देख लें.
रामपुर
के मलखान सिंह आये थे, जो दलित हैं, लेकिन वामपंथी विचारों से प्रभावित. उनसे भी
चर्चा हुई है. उनकी पुस्तक ‘सुनो ब्राह्मण’ का लोकार्पण भी हुआ था. (वे) दलित
साहित्य से लगभग अपरिचित हैं. आपका प्रसंग आने पर भी चुप ही रहे. वैसे तो मैंने
अपनी ओर से ऐसा बीज उनके विचारों में रोप दिया है कि वे जल्दी ही दलित चेतना की ओर
मुड़ेंगे. फिर भी यदि आपसे मिलें, उनसे विमर्श जारी रखें. ‘सुनो ब्राह्मण’ भी वे
आपको देंगे.
यहाँ
बहस उत्तेजक रही. कार्यक्रम तो सफल था. लेकिन मीडिया ने वही छापा, जो उन्हें छापना
है. आप स्वयं ही देख लेंगे. मैंने बहस की रपट तैयार की है, जो मैं श्योराज सिंह
बेचैन को भेज रहा हूँ.
कहानियों
पर आलेख की प्रतीक्षा है. आपके आलेख (अमर उजाला) की काफी चर्चा है. दोनों कविताओं
की तुलना करके दिखाने पर लोगों का ध्यान गया है.
दिनेश
मानव की पत्रकारिता से मैं हतप्रभ हूँ. उसका यह हश्र देख कर मन दुखी है. क्या आपसे
संवाद नहीं होता? उससे संवाद बनाइए, ताकि वह कुछ सार्थक काम करे. ‘मूकरागनी’ के
बाद ‘वाल्मीकि प्रकाश’ आखिर वह करना क्या चाह रहा है? उम्मीद है, इस विषय उससे बात
करेंगे और दलित-चेतना के संघर्षशील स्वरूप से उसे अवगत भी करेंगे. वह एक
प्रतिभा-संपन्न व्यक्ति है, जो वैचारिकता के अभाव में उलझ गया है.
बस,
शेष फिर,
भाभी
जी कैसी हैं? शीघ्र लिखें.
आपका,
ह०
(ओमप्रकाश वाल्मीकि)
ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र—18
कलालों वाली गली,
देहरादून
दिनांकः 9 मार्च, 1996
प्रिय भाई श्री कँवल
भारती जी,
आपका
पत्र एवं लेख मिले. आभार.
आलेख
में आपने मेहनत की है. लगभग सभी कहानियों का विश्लेषण यथार्थपरक है, दलित चेतना के
अनुरूप भी आलेख में जो सवाल उठाये गये हैं, उनसे दलित साहित्य को रू-ब-रू होना है.
8-3-96 के ‘अमर उजाला’ में छपा मनोज मिश्र या ऐसा ही कोई नाम (भूल रहा हूँ) का
दलित साहित्य के विरोध में लेख देख ही लिया होगा. बिना तर्क के लेखक ने अपनी भड़ास
निकाली है. कोई तथ्यपूर्ण तर्क लेखक के पास नहीं है. न ही लेखक ने दलित रचनाएँ पढ़ी
हैं. सुनी-सुनायी तर्कहीन, पूर्वाग्रही आक्षेप लगाये हैं. अकेले मिश्र को ही नहीं,
सवर्ण लेखकों के उस तबके को भी राजेन्द्र यादव फूटी आँख नहीं सुहाता है, जो
प्रगतिशील, जनवादी और वामपंथी हैं.
खैर,
आप लेख छपने भेजिए. लेकिन यदि उचित समझें, तो आलेख की भाषा को और अधिक गंभीर और
तर्कपूर्ण बनाइये, क्योंकि यह आलेख दलित आलोचना का आधार बनेगा. अत: उत्तरदायित्व
बढ़ जाता है. इसे विद्वानजन पढ़ेंगे. आलोचना की भाषा के प्रति दलित-समीक्षकों को
सचेत होना पड़ेगा. मैं एक आलेख भेज रहा हूँ, जो ‘आजकल’ (युवा रचनाकार विशेषांक) में
छपा था. कहानियों पर ही है. इस आलेख की चर्चा भी हुई है. पढ़ कर देख लें. भाषा पर
विशेष ध्यान दें. आशा है, इस साथी की सलाह को अपनेपन के साथ लेंगे, बिना किसी
आक्षेप या आग्रह के, क्योंकि दलित साहित्य की इस जद्दोजहद में हमें हर प्रकार के
मुकाबले में उतरने की तैयारी करना है. एक-दूसरे के विमर्श के साथ चलना है.
कुछ
अख़बारों की फोटोप्रतियाँ भेजी थीं, मिल गयी होंगी.
कल
8-3-96 को 95/-+5/- (डाकखर्च)=100 रु. का M.O. किया था. मिलते ही सूचना दें.
बस,
शेष कुशल.
सानन्द
होंगे.
आपका.
ह०
(ओमप्रकाश वाल्मीकि)
पुनश्च:
कहानियों
के इस आलेख के शीर्षक पर भी पुनर्विचार करें—‘दलित अस्मिता और मुक्ति-संघर्ष की
कहानियां’ या ऐसा ही कुछ हो तो
मेरे विचार से सार्थक होगा.
‘अंगुत्तर’, ‘पूर्वदेवा’ (उज्जैन), ‘प्रज्ञा-साहित्य’
(फरुक्खाबाद), ‘न्याय चक्र’, ‘अमर उजाला’, ‘आम आदमी’ (युद्धरत आम आदमी), ‘दलित
टुडे’ आदि को यह आलेख भेज सकते हैं. ‘परिवेश’ को भी एक प्रति भेज दीजिये.
ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र—19
(पोस्ट कार्ड)
देहरादून
10-3-96
प्रिय भाई श्री कँवल
भारती जी,
आपका
पत्र दिनांक 4-3-96 मिला. आपका लेख मिल गया है. उस पर प्रतिक्रिया और राय मैंने कल
ही डाक में छोड़ी है. इस पत्र से पहले मिल चुका होगा. लेख कुछ विलम्ब से मिला.
मलखान सिंह ने रामपुर पहुँच कर अभी कोई पत्र नहीं लिखा है. इंतज़ार है.
विमल
थोरात के लेख पर मैंने आपकी प्रतिक्रिया भेजी थी. लेख अच्छा था. लोगों में गजब की
सुगबुगाहट पैदा की है उस लेख ने. समीक्षक/साहित्यकारों को ही नहीं, पाठकों को भी
प्रभावित किया है आपके विश्लेषणों ने. रघुवीर सहाय की कविता के साथ ‘दीया’ को
आमने-सामने रखकर जो तर्क दिया (है), वह लोगों को झनझना देने के लिए काफी (हैं). यह
काम आप ही कर सकते थे. बधाई.
समय
आने दीजिये, मैं दि. मा. (दिनेश मानव) से बात करूँगा. उम्मीद है, एक और साथी को हम
इस कारवां में जोड़ सकेंगे. ‘बैंडिट क्वीन’ वाला लेख पढ़ा था. लेकिन ‘वाल्मीकि’
(फिल्म) वाली टिप्पणी न जाने क्यों कुछ निरर्थक थी. हो सकता है, इस विषय पर हमें
दलित-चेतना के विस्तार से अपने आप को जोड़कर देखने (की) जरूरत है. खैर, कभी मिल
बैठकर चर्चा होगी. भावाधस के अनेक सदस्यों से चर्चा हुई, लेकिन वे चर्चा से बचते
हैं. उनके पास प्रमाणिकता के स्थान पर केवल आस्था है. मैं आस्था को भटकाव मानता
हूँ, जो विवेक और बदलाव को रोकती है.
शेष
फिर, पत्र दें. सानन्द होंगे. आपकी पत्नी अब ठीक होंगी. उन्हें मेरी ओर से शुभकामनाएं
दें.
ह०
(ओमप्रकाश वाल्मीकि)
ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र—20
कलालों वाली गली,
देहरादून
दिनांकः 15-3-96
प्रिय भाई श्री कँवल
भारती जी,
आपका
पत्र दिनांक 9-3-96 तथा कहानियों पर लेख की कार्बन प्रति कल मिले. इससे पूर्व इस
लेख की मूल प्रति मिल चुकी थी तथा उस पर मैंने अपनी राय भी लिख दी थी. उम्मीद है,
वह पत्र अब तक आपको मिल चुका होगा. कार्बन प्रति वापस भेज रहा हूँ.
मनोज
कुमार मिश्र के लेख पर मैंने अपनी प्रतिक्रिया टिप्पणी सहित ‘अमर उजाला’ को भेज दी
है. लेकिन ‘अमर उजाला’ मेरे लेख या अन्य सामग्री छापता नहीं नही. इसलिए आप अपनी ओर
से सटीक लेख उन्हें भेज दें. ’हिमालय-दर्पण’ भी अन्य अख़बारों से भिन्न नहीं है. वहां
त्रिनेत्र जोशी जैसे तथाकथित वामपंथी (?) बैठे हैं, साथ में अवधेश कुमार भी हैं,
जो दलित चेतना के घोर विरोधी हैं. ‘परिवेश-सम्मान-समारोह की गोष्ठी में मैंने
त्रिनेत्र जोशी के वक्तव्य को ही आधार बनाकर अपने तर्क दिए थे. वे सब
यथास्थितिवादी हैं.
मलखान
सिंह की प्रतिबद्धता का रुख वामपंथी है. दलित-चेतना के प्रति अभी उनमें हिचकिचाहट
है. शायद डर भी, जो उन्हें खुलने नहीं देता. गोष्ठी में भी वे दलित-चेतना के
नकारात्मक पहलुओं को ही देख रहे थे. उन्हें इस ओर मोड़ना जरूरी है. इतने लम्बे समय
में भी वे इस विचार(धारा) से तटस्थ रहे हैं. बाबा साहेब (डा. आंबेडकर) के प्रति भी
उनका नजरिया वामपंथियों जैसा ही है. नि:संदेह (उनकी) कविताओं में तल्ख अनुभव है,
लेकिन वर्गीय विषमता की अभिव्यक्ति हावी है, जबकि दलित साहित्य वर्णव्यवस्था पर
टूट पड़ना चाहता है. वर्ग-विहीन समाज से ज्यादा उसकी प्राथमिकता वर्ण-विहीन समाज की
है. यही प्रमुख अंतर है वामपंथी सोच और दलित-चेतना में.
खैर,
आप जब उनसे मिलें, तो अपने अनुभवों से मुझे भी अवगत करें. मैं स्वयं चाहता हूँ, वे
दलित-आन्दोलन के वैचारिक विमर्श से जुड़ें.
पत्र
दें !
सानन्द
होंगे. शुभकामनाएं.
आपका,
ह०
(ओमप्रकाश वाल्मीकि)
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