बुधवार, 20 अगस्त 2014

ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र—31
(पोस्ट कार्ड)

देहरादून
17-1-97

प्रिय भाई कँवल भारती जी,
आपकी सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘डा. आंबेडकर को नकारे जाने की साजिश’ प्राप्त हुई. इस पुस्तक में संकलित चारों लेख दलित-चिंतन के गहन विश्लेषण एवं व्यापक परिप्रेक्ष्य में डा. आंबेडकर के जीवन-दर्शन को प्रस्तुत करते हैं. आपका कार्य दलित आन्दोलन में अपनी एक विशिष्ट भूमिका निभा रहा है. मुझे व्यक्तिगत स्तर पर बेहद ख़ुशी है कि आप इस दिशा में सक्रिय हैं. मेरी हार्दिक बधाई स्वीकारें. ‘कांशीराम’ जी वाली पुस्तक भी भेजें. देखना चाहता हूँ.
15-16 फर. के आसपास दिल्ली में रहूँगा. उम्मीद है सभी साथियों से भेंट होगी.
कुछ विशिष्ट एवं दलित कविताएँ चयनित करके दस-बारह कवियों का एक संकलन निकालने की योजना बनाइये, ताकि प्रतिनिधि दलित कविताएँ पाठकों एवं समीक्षकों के हाथ में दी जाये. जरूरी नहीं कि पुस्तक भारीभरकम हो. इसे सहयोगी प्रकाशन भी कर सकते हैं या व्यक्तिगत स्तर पर भी. लेकिन ऐसी पुस्तकें आना चाहिए. कविताओं के चयन में भी कुछ स्तरीयता अपनानी होगी. चूँकि अब हम ऐसे दौर में हैं, जहाँ अपने कार्यों को दस्तावेजी रूप देना जरूरी है, ताकि आने वाले रचनाकारों को सही दिशा मिले. यह एक प्रक्रिया है, जो सतत चलती रहे. यह मेरा एक प्रस्ताव है. इस पर और बातचीत की जा सकती है. यदि सही लगे तो इस (पर) विचार करें.
आपका,
ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)
नोट—(वाल्मीकि जी के प्रस्ताव को पंख लगने में कई वर्ष लगे. मैंने पांच सौ पृष्ठों का एक भारीभरकम संग्रह सभी भारतीय भाषाओँ के कवियों को लेकर तैयार किया, जिसे विकास राय जी ने दलित निर्वाचित कविताएँ नाम से 2006 में ‘इतिहास बोध प्रकाशन’ इलाहाबाद से प्रकाशित किया. पर विकास जी ने इसमें से अनेक कवियों को निकाल दिया और अंत में परिशिष्ट में दिए गये अतिथि कवियों को भी हटा दिया, जिससे संग्रह की पृष्ठ संख्या 392, रह गयी. लेकिन इसे उन्होंने बहुत ही सस्ते में मात्र रु. 100.00 में पाठकों को उपलब्ध कराया. आज दलित साहित्य के विद्यार्थियों में यह संग्रह बहुत ही लोकप्रिय है.)






ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र- 32

कलालों वाली गली,
देहरादून
30-1-97

प्रिय भाई श्री कँवल भारती जी,
आपका पत्र मिल गया था.
‘राष्ट्रीय सहारा’ के 18-1-97 एवं 25-1-97 ‘हस्तक्षेप’ अंक देख लिए होंगे.
‘राजस्थान पत्रिका’, जयपुर की ‘इतवारी पत्रिका’ में प्रकाशित ‘रिहाई’ कहानी की फोटो प्रति भेज रहा हूँ. अपनी राय से अवगत करें.
शेष कुशल. सानन्द होंगे.
शुभकामनाओं सहित,
आपका,
ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)


  


ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र- 33


कलालों वाली गली,
देहरादून
1-3-97

प्रिय भाई श्री कँवल भारती जी,
आपका लेख ‘रा. सहारा’ में पढ़ा. कहानियों पर आपने अच्छा लिखा है. लेख गंभीर एवं विश्लेषणात्मक है. बधाई स्वीकारें.
‘जूठन’ की प्रति भेज रहा हूँ. समीक्षात्मक आलेख शीघ्र ही लिखकर मेरा हौसला बढ़ायेंगे. साथ में पुस्तक में रह गयीं कमियों की ओर भी ध्यान दिलायेंगे, ताकि उस तरफ मेरा ध्यान जाये. शेष जो आप उचित समझें. आलेख की एक प्रति मुझे अवश्य भेज दें. हंस, जनसत्ता, अमर उजाला, रा. सहारा, इतवारी पत्रिका, इंडिया टुडे, आदि में से किसी एक में आपकी समीक्षा आएगी, तो बेहतर होगा. शेष कुशल. ‘बस्स, बहुत हो चुका’ कविता-संग्रह भी इसी माह आ जाने की उम्मीद है.
आपका,
ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)

(वाल्मीकि जी को यह गलतफहमी थी कि मेरा लिखा किसी भी पत्र-पत्रिका में छप सकता है.)
ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र- 34



कलालों वाली गली,
देहरादून
22-5-97

प्रिय भाई श्री कँवल भारती जी,
सानन्द होंगे.
रामपुर पहुंचकर कोई खैर-खबर नहीं. क्या कुछ नाराजगी है? 14 अप्रैल के कार्यक्रम के बाद मुझे लखनऊ जाना था. इसीलिए अगले रोज आपसे मिल नहीं पाया.
‘दूसरा शनिवार’ में ‘जूठन’ पर आपकी समीक्षा देख ली थी. ‘हंस’ (जून) में भी है. आपने ‘जूठन’ पर गंभीरता से जो टिप्पणियां की हैं, उनसे मुझे मदद मिलेगी. शायद ‘जूठन’ का अगला हिस्सा कभी लिख पाऊं.
‘बस्स ! बहुत हो चुका’ (कविता-संग्रह) की प्रति आपके लिए अवलोकनार्थ/समीक्षार्थ प्रेषित है.
पत्र की प्रतीक्षा रहेगी. शुभकामनाओं सहित,
आपका,
ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)



ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र- 35
(पोस्ट कार्ड)


देहरादून
26-12-78
प्रिय भाई श्री कँवल भारती जी,
नया वर्ष आप (का) पथ प्रशस्त करे, यही कामना है.
मेरा तबादला जबलपुर हो गया है. १०-1-99 को जबलपुर स्थायी रूप से पहुँच जाऊंगा. नया पता लिख रहा हूँ. उसी पर संपर्क करें.
नयी पुस्तक कब तक आ रही है? प्रतीक्षा है. बस, शेष फिर!
सानन्द होंगे.
आपका,
ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)
मेरा नया पता—ओमप्रकाश वाल्मीकि, 521/4, टाइप- 3, न्यू कालोनी, जी. सी. एफ.,
जबलपुर (म.प्र.)

ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र- 36
(पोस्ट कार्ड)


जबलपुर
26 दिस. 1999

प्रिय भाई श्री कँवल भारती जी,
नया वर्ष, नयी सदी नये संघर्ष और नयी चेतना लेकर आये, यही कामना है.
स्वस्थ और सानन्द होंगे.
नयी पुस्तक आने वाली थी, क्या रहा?
‘दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र’ की पाण्डुलिपि प्रकाशक को दे दी है. ‘जूठन’ का पेपर बैक संस्करण भी आ चुका है. इंदिरागाँधी खुला वि. वि. (IGNU) नयी दिल्ली के पाठ्यक्रम में ‘जूठन’ लग गयी है.
शेष कुशल. पत्र दें.
आपका,
ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)




ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र- 37
(पोस्ट कार्ड)


जबलपुर
13-3-2000

प्रिय श्री कँवल भारती जी,
आपका पत्र मिला. आभार.
‘बस्स! बहुत हो चुका’ की फोटो प्रति के लिए आपने लिखा है. मैं प्रयासरत हूँ. अगले सप्ताह देहरादून जा रहा हूँ. एक दिन दिल्ली रुकने की योजना है. प्रकाशक से भी मिलना है. कोशिश करूँगा आपके लिए एक प्रति भिजवाने की. यदि प्रति प्रकाशक से नहीं मिली, तो फिर फोटो प्रति ही कराकर भेजने की व्यवस्था करता हूँ.
कहानी-संग्रह ‘सलाम’ की घोषणा हो चुकी थी दिल्ली पुस्तक मेले में उपलब्ध होने की. लेकिन प्रकाशक की अपनी किसी विवशता के कारण संभव नहीं हुआ. अब शायद अप्रैल में आये. कहने को तो प्रकाशक मिल गया है. लेकिन बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ती है. समय पर पुस्तक न आ पाने से बहुत कुछ सहना पड़ता है.
खैर, आपकी रचनाशीलता से हम सभी आश्वस्त हैं. आपकी पुस्तकों की प्रतीक्षा तो रहती है.
बस, शेष फिर. सानन्द होंगे. आदर सहित,
आपका,
ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)



ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र- 38
(पोस्ट कार्ड)


(स्थान का उल्लेख नहीं है)
16-8-2000

आदरणीय भाई श्री कँवल भारती जी,
इन्तजार के बाद पत्र मिला. अप्रैल माह में ‘बस्स ! बहुत हो चुका’ की प्रति भेजी थी. उसकी प्राप्ति-सूचना भी आपकी ओर से आज तक नहीं आयी. (फोटो प्रति मुझे मिली ही नहीं थी. इन्तजार के बाद दिल्ली में मैंने उसे मई में खरीद लिया था- क. भा.)
कविता आपको अच्छी लगी, जानकार ख़ुशी हुई. ‘माझी जनता’ के कई लोगों ने कहा कि उन्होंने M.O. कर दिया है, लेकिन आपके पत्र से ज्ञात होता है कि किसी का भी M.O. नहीं मिला. यह तो काफी निराशाजनक है. खैर मैं दुबारा उन लोगों से सम्पर्क करूँगा. आप अखबार की एक मेरी प्रति ही भेजें, क्योंकि मैं प्रति लोगों को अब बाँट पाने की स्थिति में नहीं हूँ. हाँ, सदस्य बनाने के लिए प्रयास जारी रखूँगा. आशा है, मेरी व्यस्तता को ध्यान में रखते हुए अन्यथा न लेंगे. (माझी जनता के स्वामी नागपुर के ढोरे साहब द्वारा रखे गये कर्मचारी के जिम्मे यह व्यवस्था थी—क. भा.)
शेष कुशल. सानन्द होंगे. अंक अच्छे आ रहे हैं. बधाई. प्रगति बनाये रखिए. पत्रों की संख्या बढ़ाइए. भले ही सम्पादित करने पड़ें.
पत्र की प्रतीक्षा तो रहेगी ही.
आपका,
ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)






ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र- 39
                                      (पोस्ट कार्ड)   

जबलपुर
19-9-2000

आदरणीय भाई श्री कँवल भारती जी,
‘सलाम’ कहानी-संग्रह अंततः प्रकाशक की गिरफ्त से मुक्त हुआ. पहली प्रति आज ही आपको पंजीकृत डाक से भेजी है. प्राप्ति सूचना दें. अप्रैल माह में ‘बस्स ! बहुत हो चुका’ की प्रति भेजी थी. उसकी भी कोई सूचना नहीं मिली.
कहानी-संग्रह पर आपकी समीक्षा की प्रतीक्षा तो रहेगी ही. ‘राष्ट्रीय सहारा’ के 10-9-2000 अंक में ‘मैं ब्राह्मण नहीं हूँ’ शीर्षक से कहानी आई है. समय मिले तो देख लें. पाठकों में इस कहानी को लेकर काफी चर्चा है. काफी पत्र आये हैं. शेष कुशल. जबलपुर से श्री चोह्टेल का सदस्य-शुल्क मिला होगा. साथ ही देवेश चौधरी का भी. पत्र द्वारा confirm करें.
शुभकामनाओं सहित,
आपका,
ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)





ओमप्रकाश वाल्मीकि के पत्र- 40
                                      (पोस्ट कार्ड)   



जबलपुर
3-10-2000
आदरणीय भाई श्री कँवल भारती जी,
आपका पत्र मिला. ‘सलाम’ की प्रति आपको मिल गयी है, जानकर ख़ुशी हुई. ‘मैं ब्राह्मण हूँ’ कहानी पर आपने जो प्रतिक्रिया व्यक्त की है, उससे मुझे बल मिला है. समय मिले तो ‘सलाम’ पर आप समीक्षा जल्दी लिखकर किसी बड़ी पत्रिका या अख़बार को अवश्य भेजें. ‘जनसत्ता’ को प्रति प्रकाशक ने भेज दी है. जब आप ‘जनसत्ता’ को आलेख भेजें, मुझे भी सूचित अवश्य कर दें.
लखनऊ का निमंत्रण मिला है. लेकिन अभी तय नहीं कर पाया हूँ. आप जा रहे हैं, तो मैं भी मन बना लूँगा. दिक्कत यह है कि मैं नौकरी के ऐसे झमेले में फंसा हूँ कि बार-बार छुट्टी नहीं ले सकता हूँ. 21-10-2000 को देहरादून भी जाना है. वहां से एक या दो नवम्बर को लौटना होगा. यदि सब सामान्य रहा तो मैं आऊंगा. लेकिन शैलेन्द्र सागर जी ने सिर्फ औपचारिक पत्र ही भेजा है. इसीलिए थोड़ी शंकाएं भी हैं. फिर भी मैं प्रयास करूँगा. आप जरूर शामिल हों.
जो रसीदें आपने भेजी हैं, वे उन लोगों तक मैं पहुंचा दूंगा. चोह्टेल मेरे ही संस्थान में हैं. जब तक वे पता नहीं भेजते, तब तक उनकी प्रति मेरे पते पर भेज दें. जगदीश जटिया जी (शायद असंग घोष) की प्रति देवेश चौधरी के पते पर भेज सकते हैं. वे दोनों प्रतिदिन एक-दूसरे से मिलते हैं.
बस शेष कुशल.
ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)



























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