सोमवार, 18 अगस्त 2014

ओमप्रकाश वाल्मीकि के कुछ और पत्र
पत्र—21
(पोस्टकार्ड)

देहरादून
16-3-96
प्रिय भाई श्री कँवल भारती जी,
आपका पत्र दिनांक 13-3-96 मिला. इससे पूर्व कल ही मैंने आपके लेख की कार्बन प्रति तथा साथ में एक पत्र डाक में छोड़े थे, मिल गये होंगे. आपका लेख पसंद न आने का कोई कारण नहीं है, बल्कि मैं तो आपका आभारी हूँ कि आपने इन कहानियों को इस तल्लीनता से पढ़ा, एक सटीक टिप्पणी की. मेरा आशय सिर्फ इतना ही था कि भाषा में थोड़ा-बहुत काम आप कर सकते तो लेख का स्तर उठ जाता, क्योंकि यह लेख एक दस्तावेज की तरह आने वाले समीक्षकों को एक दृष्टि, एक सोच देगा, जिसकी इस वक्त आवश्यकता है. जिस तरह लेख आपने तैयार किया है, वह अपने आप में एक विश्लेषणात्मक दृष्टि देने में सक्षम है, बल्कि दलित कहानियों पर एक साथ इतना बड़ा, विस्तृत लेख अभी सामने भी नहीं आया है. आपके काम के प्रति मेरे मन में गहरा आदर है. इसमें कोई लागलपेट नहीं है. क्योंकि हमारे बीच औपचारिकता को कोई गुंजाईश नहीं है, बल्कि आन्दोलन की सक्रियता बढ़ाने के लिए परस्पर सहयोग और संवाद की महत्ता है. मैंने जो कुछ भी पत्र में लिखा, इसी नजरिये से लिखा. लेख पसंद है, बल्कि कुछ मुद्दे तो आपने ऐसे भी उठाये हैं, जिन पर पाठकों का अभी ध्यान भी नहीं गया है, जो दलित सौन्दर्यशास्त्र के लिए भूमि बन रहे हैं. मैं मानता हूँ आप जितना लिखते हैं, उसके लिए समय कम पड़ता है. लेकिन भाई, कुछ कार्य, जिनका सम्बन्ध भविष्य के लिए मार्ग बनाना है, उन पर अतिरिक्त ध्यान देना और सजग (रहना) भी तो जरूरी है. खैर, पुस्तक के लिए तो आप रखें ही, लेकिन ‘पूर्वदेवा’ (उज्जैन) को भी दें. शायद ‘अंगुत्तर’ भी छापे. ‘हंस’ या ‘अमर उजाला’ न भी छापे तो कोई बात नहीं. लड़ाई हमें अपने ही ढंग से लड़ना है. लड़ भी रहे हैं. मेरे विचार से ‘पूर्वदेवा’ को यह लेख भेज ही दें.
बस, शेष फिर. सानन्द होंगे.
आपका,
ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)   


     

पत्र—22
(पोस्टकार्ड)

देहरादून
20-3-96
प्रिय भाई श्री कँवल भारती जी,
आपके कविता संग्रह का प्रूफ मिला. भूमिका लिखने के लिए आपने समय बांध दिया है, क्योंकि लिखने में मेरी गति बहुत धीमी है. लम्बी प्रक्रिया. अपने ही लिखे को कई दफा ख़ारिज कर देता हूँ. ऊपर से मार्च का महीना, कारखाने में काम करने वालों के लिए थका देने वाला होता है. लगभग सभी रविवार, शनिवार कारखाने में ही बीत रहे हैं. रात 8-9 बजे से पहले घर भी नहीं पहुचते हैं. जो लिखना-पढ़ना छुट्टी के रोज होता था, वह भी छूट जाता है. इसलिए अप्रैल के प्रथम सप्ताह तक भूमिका लिखना, वह भी विस्तार से संभव नहीं हो पायेगा. इस तारीख को थोड़ा आगे बढ़ाइए....मैं पूरी कोशिश करूँगा कि जल्दी-से-जल्दी भूमिका लिखकर आपके पास भेज सकूँ. संग्रह का शीर्षक क्या है? लिखें.
बस, शेष कुशल. सानन्द होंगे. शीर्षक से शीघ्र अवगत करें.
आपका,
ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)


पत्र—23

कलालों वाली गली, देहरादून
दिनांकः 30 मार्च, 1996
प्रिय भाई श्री कँवल भारती जी,
आलेख जैसा भी बन पड़ा, भेज रहा हूँ. समय कम दिया है आपने. इसलिए हो सकता है, आपकी आशा के अनुरूप न हो. फिर भी, देख लें. यदि उपयोगी लगे, तो रख लें, वरना वापिस कर दें. फिर कुछ नये सिरे से सोचा जायेगा. मात्र आपके संग्रह पर ही बात करने के बजाय समूची दलित-कविता पर एक दृष्टि डालने का प्रयास किया है, वह भी संक्षेप में. क्योंकि आपने पृष्ठ संख्या भी सीमित कर दी थी.
जल्दी से अपनी राय से अवगत करें. पृष्ठ- 4 की प्रथम पंक्ति में ‘संग्रह’ के आगे ....... में अपने संग्रह का नाम लिख दें. (यह आलेख मेरे एकमात्र कविता-संग्रह ‘तब तुम्हारी निष्ठा क्या होती?’ में भूमिका के रूप में मौजूद है.)
बस, शेष फिर.
‘पश्यन्ति’ (जन.-मार्च- 96) अंक में मेरी कहानी ‘खानाबदोश’ छपी है. ईंट-भट्टों के मजदूरों की पृष्ठभूमि पर है. मिले तो देख लें.
पत्र शीघ्र दें.
आपका, ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)




पत्र—24
(पोस्टकार्ड)

देहरादून
27-5-96
प्रिय भाई कँवल भारती जी,
आपके पत्र की प्रतीक्षा करके ही लिख रहा हूँ? आपकी पुस्तक की भूमिका के लिए एक आलेख भेजा था, उसकी प्राप्ति-सूचना भी आपने नहीं दी. न लेख पर कोई प्रतिक्रिया ही. यदि लेख उपयोगी नहीं था, तो छोड़ सकते थे या लिख देते.....पर चुप्पी का कारण समझ में नहीं आ रहा है. कोई नाराजगी है तो बता सकते हैं, ताकि समाधान हो सके. (प्राप्ति-सूचना और लेख पर प्रतिक्रिया वाला मेरा पत्र उन्हें डाक की गड़बड़ी से मिल नहीं सका था.)
भाभी जी के स्वास्थ्य के विषय में श्योराजसिंह बेचैन ने लिखा था. आशा है, सुधार हुआ होगा. अब ठीक होंगी.
आपकी पुस्तकें कब तक आ रही हैं? प्रतीक्षा है. ‘जनमत’ के ‘वेदना और विद्रोह’ अंक में आपका आलेख पढ़ा. एक सशक्त लेख के लिए बधाई स्वीकारें.
बस, शेष कुशल. सानन्द होंगे.
पत्र शीघ्र दें. इंतज़ार है. शुभकामनाओं सहित,
आपका,
ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)



पत्र—25


कलालों वाली गली,
देहरादून
दिनांकः 2 जुलाई 1996

प्रिय भाई श्री कँवल भारती जी,

सानन्द होंगे. भाभी जी का स्वास्थ्य कैसा है?
आपकी पुस्तकें कब तक आ रही हैं?
‘बसुधा’ के कहानी विशेषांक में ‘अम्मा’ शीर्षक से मेरी एक कहानी छपी है. आपके अवलोकनार्थ कहानी की फोटो प्रति भेज रहा हूँ. आपकी प्रतिक्रिया जानना चाहूँगा,
‘बसुधा’ रीवा से निकलती है. हरिशंकर परसाई जी इसके संस्थापक, संपादक थे. आजकल कमला प्रसाद जी संपादक हैं. कहानी विशेषांक में चालीस कहानियां हैं, आठ-दस लेख, चर्चा, पत्र आदि हैं. लगभग 500 पृष्ठों का यह विशेषांक कई अर्थों में विशिष्ट है. अतिथि संपादक हैं महेश कटारे.
‘बस्स ! बहुत हो चुका’ (काव्य-संग्रह) की पाण्डुलिपि वाणी प्रकाशन को दी है. उम्मीद है वे इसे जल्दी ही छापेंगे, 1996 में ही.
बस, शेष फिर. पत्र दें.
शुभकामनाओं के सहित,
आपका,
ह० (ओमप्रकाश वाल्मीकि)






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