गुरुवार, 30 मई 2013

लोकतंत्र में हिंसा
(कँवल भारती)
क्या लोकतंत्र में हिंसा उचित है? शायद ही कोई इसका जवाब हाँ में देना चाहेगा. लेकिन फिर भी हिंसा लगातार जारी है. भारत का कोई भी राज्य हिंसा से अछूता नहीं है. यह अब आम समस्या हो गयी है. लेकिन लोकतंत्र के प्रहरियों ने कभी भी इस पर कारगर तरीके से विचार नहीं किया. यह विषय मुख्य रूप से चर्चा के केन्द्र में तभी आता है, जब हिंसा के शिकार बड़े नेता होते हैं. हालाँकि अब तक यह हिंसा लाखों निर्दोष लोगों की जान ले चुकी है, कभी गोलियों से तो कभी बम-विस्फोट से, कभी धर्म के नाम पर, कभी भाषा के नाम पर और कभी जाति के नाम पर गुमराह लोगों की हिंसा से तो कभी उसके विरोध में सरकार की प्रतिहिंसा से. इस हिंसा की कुछ दिन चर्चा होती है, फिर सब शांत. किन्तु, अब जब शांति मार्च (सलवा जुडूम) के अगुआ कांग्रेसी नेता महेन्द्र कर्मा और अन्य प्रतिनिधि नेताओं की माओवादियों ने हत्या कर दी, तो पूरा सत्तातन्त्र विचलित नजर आने लगा है. सारी राजनीतिक पार्टियां नक्सलवाद और माओवादियों के खिलाफ लामबंद हो गयी हैं कि बस अब वे उनका खात्मा करके ही रहेंगे. विडम्बना यह है कि उनकी यह खात्मा-योजना भी प्रतिहिंसा के सिवा कुछ नहीं है.
आइये, कुछ सवालों पर विचार करें. राजनीतिक पार्टियां कह रही हैं कि छत्तीसगढ़ में माओवादियों का हमला लोकतंत्र पर प्रहार है. केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश कह रहे हैं कि वे आतंकवादी हैं और उनके विरुद्ध वैसी ही कार्यवाही होनी चाहिए, जैसी आतंकवादियों के साथ की जाती है, क्योंकि वे संविधान, लोकतंत्र और लोकतान्त्रिक संस्थाओं में कोई आस्था नहीं रखते हैं. उधर माओवादियों का कहना है कि लोकतंत्र और संविधान के नाम पर चलाया जा रहा महेन्द्र कर्मा का (सलवा जुडूम) शांति मार्च आदिवासियों की तबाही का मार्च था. गांव के गांव पुलिस ने जलाकर रख कर दिए थे, हजारों लोग घर से बेघर हो गये, पुलिस वाले लड़कियों और औरतों को घरों से खींचकर ले जाते थे, उनके साथ बलात्कार करके उनकी हत्याएं कर देते थे, बर्बरता की सारी हदें पार करते हुए पुलिस ने एक डेढ़ साल के बच्चे का हाथ काट दिया था और एक महिला के गुप्तांग में पत्थर भर दिए थे. क्या यह किसी आतंक से काम था? क्या इसी को लोकतंत्र कहते हैं? यह सब किस संविधान और लोकतंत्र के तहत किया गया था? यह कैसा शांति मार्च (सलवा जुडूम) था, जो आदिवासियों पर कहर ढा रहा था? कल्याण और योजनाओं के नाम पर वहाँ शोषण और लूट का धंधा चल रहा था. महेन्द्र कर्मा आदिवासी जनता के नहीं, पूंजीपतियों के हितैषी थे और उन्हीं के लिए आदिवासियों को जंगल-जमीन से बेदखल करने का काम कर रहे थे. और यह कैसा सलवा जुडूम था? यह सलवा जुडूम आदिवासियों के लिए आतंक का पर्याय बन गया था. कहते हैं कि महेन्द्र कर्मा से थर्राते थे लोग. उसी के इशारे पर लोग पुलिस की हैवानियत का शिकार होते थे. जब कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सारे सुबूत एकत्र करके सलवा जुडूम के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाया और सुप्रीम कोर्ट ने हकीकत जानने के बाद जब सरकार को फटकार लगाई, तब जाकर सलवा जुडूम बंद हुआ, पर पुलिस के आदिवासियों पर अत्याचार फिर भी बंद नहीं हुए. यह कहानी है, महेन्द्र कर्मा और उनके सलवा जुडूम की. क्या इसे जायज ठहराया जा सकता है?
निस्संदेह, हिंसा का रास्ता गलत है. हिंसा में अक्सर निर्दोष लोग ही मारे जाते हैं, दोषी और अपराधी लोग बहुत कम इसके शिकार होते हैं. इसलिए हिंसा का समर्थन कभी नहीं किया जा सकता. माओवादी भी एकदम हिंसा के रास्ते पर नहीं आये होंगे. नक्सलवादी भी शुरू में अहिंसक ही थे. हिंसा का रास्ता उन्होंने बाद में अपनाया होगा, जब वे मजबूर हुए होंगे. सवाल यह है कि लोग अहिंसक क्यों नहीं बने रह सकते? उन्हें कौन मजबूर करता है हिंसा के लिए? इसका मेरे पास तो एक ही जवाब है कि उन्हें हिंसा के लिए राज्य मजबूर करता है. राज्य से मेरा मतलब सरकार से है. हमारे भारतीय लोकतंत्र में सरकार भले ही जनता के द्वारा जनता के लिये चुनी जाती है और कहा भी उसे जनता की सरकार ही जाता है. पर जनता सबसे ज्यादा असंतुष्ट अपनी इसी सरकार से होती है. गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, अशिक्षा, आवास, बिजली, पानी और चिकित्सा आदि न जाने कितनी ढेर सारी समस्याएं हैं, जिनसे जनता बराबर जूझ रही है और अभी तक किसी भी समस्या का पूरी तरह हल नहीं हुआ है. दूसरी तरफ जनता का खून चूसने वाले पूंजीपति, शोषक, दलाल, ठेकेदार और हर क्षेत्र के माफिया दिन दूनी-रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ते जा रहे हैं. जब जनता अपनी समस्या के समाधान के लिए लोकतान्त्रिक तरीके से मांग करती है, शांतिपूर्ण प्रदर्शन करती है, तो पुलिस उन्हें रोकती है, उन्हें सरकार के मुखिया से नहीं मिलने देती और जब जनता मुखिया तक पहुँचने के लिए आगे बढ़ती है, तो पुलिस उन पर बल-प्रयोग करती है, उन पर लाठियां बरसाती है, जरूरत पड़ती है तो गोलियाँ भी चलाती है, जिसमें जनता के हाथ-पैर टूटते हैं, सिर भी फूटते हैं और वे मरते भी हैं. तब जनता को पता चलता है कि उसने जो सरकार चुनी है, वह जनता के लिए काम ही नहीं करती, वह तो उनका खून चूसने वाले पूंजीपतियों, बड़े व्यापारियों, दलालों और माफियायों के लिए काम करती है. तभी उसे यह भी पता चलता है कि पुलिस भी जनता की नहीं, उसी सरकार की रक्षा करती है, जो उसका शोषण करती है. यहाँ हिंसा की शुरुआत किसने की? स्पष्ट है कि सरकार ने की. अब जनता को लगता है कि वह ठगी गयी है. सरकार और जनता की समस्यायों के बीच में पुलिस, पीएसी, सीआरपीएफ और फ़ौज खड़ी है. वह हरचंद जनता को सरकार तक नहीं पहुँचने देगी. अगर यह न रहे, तो जनता एक मिनट में सरकार से निपट ले, पर जनता डरती है, पुलिस-पलटन से, जो उसकी लाशें बिछा देगी. इसलिए यह सच है कि जनता की हिंसा में इतने लोग नहीं मरते हैं, जितने ज्यादा लोग राज्य की हिंसा में मरते हैं. 1987 में पीएसी ने मेरठ में 27 लोगों को हिंडन नदी के किनारे ले जाकर गोलियों से भून दिया था. उनका क्या कुसूर था? राज्य की ऐसी दरिंदगी की प्रतिक्रिया में लोगों को हिंसक होने से कैसे रोका जा सकता है? 
राज्य की हिंसा का एक और खतरनाक रूप है, सिविलियन जनता को आत्मरक्षा के नाम पर निजी हथियार रखने का अधिकार (यानी लाइसेंस) देना. इस अधिकार के तहत धनाढ्य और दबंग वर्ग को कमजोरों को दबा कर रखने का लाइसेंस मिल गया. इसी ने सत्ता पक्ष के लिये  वैकल्पिक पुलिस का भी काम किया. चुनावों के समय यह वैकल्पिक पुलिस क्या नहीं करती? बूथ कैप्चरिंग से लेकर, अपहरण और हत्याएं तक करती है.  सरकार के इसी सामंती निर्णय से गांव-गांव में पक्ष-प्रतिपक्ष में खून की होली खेली जाने लगी. इससे आतंकित जनता भेंड़ की तरह सत्ता-पक्ष के दबंगों के पीछे चलती है और उनको आश्रय देने वाले नेता उनके बल पर अपना किला मजबूत करते हैं. बहुत से लोगों ने तो शौकिया ही बंदूकें ले ली हैं, जिनकी जरूरत उन्हें कभी नहीं पड़ती. वे घर में पड़े-पड़े जंग खाती हैं या शादी-खुशी के मौकों पर ‘हर्ष-फायरिंग’ में चलती हैं, जहां कभी-कभी निशाना चूकने पर यह फायरिंग भी निर्दोष लोगों की जानें ले लेती है.
 किसी भी नेता ने यह सवाल नहीं उठाया कि सिविलियन को हथियार देने की क्या जरूरत है? वे क्यों उठायें? सबसे ज्यादा जरूरत तो उन्हीं को पड़ती है. विधायक-सांसद को तो छोड़िये, छुटभैय्ये नेता तक हथियारों से लैस रहते हैं और मंत्रियों का तो कहना ही क्या? वे तो सशस्त्र कमांडो के घेरे में ही चलते हैं. यह सारा उपक्रम इसलिए है कि जनता का प्रतिनिधि जनता से दूर रहें. जब प्रतिनिधि ही जनता से दूरी बनाकर रहेंगे, तो फिर सवाल है कि लोकतंत्र में वे किस का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं? तब क्या वे जन-आक्रोश और हिंसा को रोक पायेंगें? और रोकेंगे, तो हिंसा से ही.
मैं यहाँ एक उदाहरण अपने शहर का देता हूँ. पिछले पचास सालों में हमारी जनसंख्या में इस कदर वृद्धि हुई है कि छोटे शहरों में भी घनी आबादी हो गयी है. चप्पे-चप्पे पर मकान बन गये हैं. जहां खेत हुआ करते थे, वहाँ भी इमारतें खड़ी हो गयी हैं. फुटपाथों पर सब्जियाँ बिकती हैं, अब से नहीं, 25-30 साल से बिकती हैं. दस साल पहले नगर पालिका परिषद ने नाले पर 22 दुकानें बनवा दीं थीं, हालाँकि नाला पाटा नहीं गया था, उस पर स्लेब डाला गया था. अब सत्ता-पलट में समाजवादी पार्टी की सरकार बन गयी. शहर के एक विधायक सरकार में दूसरे दर्जे के कद्दावर मंत्री बन गये. मंत्री बनते ही उन्हें शहर को खूबसूरत स्वर्ग बनाने की सनक सवार हो गयी. सो शहर में तोड़-फोड़ शुरू हो गयी. अवैध कब्जों के नाम पर तमाम गरीबों के मकान तोड़ दिए गये, नाले पर बनीं 22 दुकानें तोड़ दी गयीं, और 25-30 साल पुरानी सब्जी मण्डी उजाड़ दी गयी. रोती आँखों से वे गरीब, असहाय, मजलूम लोग अपने आशियाने, अपने रोजगार उजड़ते हुए देखते रहे, वे विरोध में कुछ कर नहीं सकते थे, क्योंकि उनकी लाशें बिछाने के लिए वहाँ सरकार की सशस्त्र पुलिस मौजूद थी. मजलूमों की उस भीड़ में क्या किसी का भी मन बगावत करने का न हुआ होगा? जरूर हुआ होगा. पर पुलिस बल के डर ने उसे चुप करा दिया होगा. क्या यही लोकतंत्र है? यही समाजवाद है? एक समाजवादी सरकार का यही काम है कि वह लोगों के घर और रोजगार उजाड़े? सरकार की तरफ से तो हिंसा हो ही गयी, जिसे ‘अतिक्रमण ऑपरेशन’ का वैधानिक नाम भी दे दिया गया. पर यदि इस तथाकथित ऑपरेशन के वक्त कोई मजलूम एक पत्थर भी हाथ में उठा लेता, तो क्या होता? सरकार की हिंसा इस कदर भयानक हो जाती कि पता नहीं कितने मजलूम उसकी गिरफ्त में आते और पता नहीं वे कितनी संगीन धाराओं में जेल में सड़ रहे होते. सरकार की हिंसा के खिलाफ जनता का उठाया गया पत्थर ही तो नक्सलवाद जैसे हिंसक आंदोलनों की आधारशिला रखता है.
डा. आंबेडकर ने इस हिंसा को बहुत पहले ही भांप लिया था. 1950 में उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था कि हमने सिर्फ राजनीतिक लोकतंत्र हासिल किया है. अभी सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र हासिल करना बाकी है. इस विरोधाभास को अगर जल्दी नहीं मिटाया गया, तो जनता चुप नहीं बैठेगी. वह इस लोकतंत्र के मन्दिर को, जिसे इतनी मेहनत से बनाया गया है,  ध्वस्त कर सकती है.
( 30 मई 2013 )




      

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