सोमवार, 27 मई 2013

 नेतृत्व पर संकट
(कँवल भारती)

 इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी की हत्या के बाद शायद यह पहला अवसर है, जब राजनीतिक नेतृत्व पर इतना बड़ा हमला हुआ है. इस हमले से जातीय नेतृत्व को अब सावधान हो जाना चाहिए. आदिवासियों के नेता को आदिवासियों ने ही मारा, कुछ तो बात होगी. कार्य है, तो उसका कारण भी होना ही चाहिए. जो खबरें आ रही हैं, वो तो यही बता रही हैं कि महेन्द्र कर्मा शांति-मार्च की आड़ में आदिवासियों को ही हमेशा के लिए शांत करने में लगे हुए थे--घर के घर जला कर, उनकी लाशें बिछा कर. वह सत्ता की मदद से पूंजीपतियों के लिए रास्ता बना रहे थे. आदिवासियों को उनसे इस कदर नफरत थी कि उनकी हत्या करने के बाद उन्होंने उनकी लाश पर नाच कर हर्ष मनाना भी जरूरी समझा.  
     अब सरकार क्या करेगी? खबरें आ रही हैं कि वह बदला लेगी. देश के बड़े नेता, पत्रकार और बुद्धिजीवी भी नक्सलवाद से सख्ती से निपटने की नसीहतें दे रहे हैं. अब जो भी हो. ताकतवर को कौन रोक सकता है. मगर मेरी नजर में अब विचार का मुद्दा यह है कि इस घटना ने अब नेतृत्व के सवाल को नया मोड़ दे दिया है. नेतृत्व और प्रतिनिधित्व दोनों अलग शब्द होते हुए भी एक दूसरे से गहरा संबंध रखते हैं. प्रतिनिधित्व की राजनीति ने ही संसद और विधान मंडलों में दलितो, पिछडों और आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करने वाला नेतृत्व दिया. लगभग हर पार्टी ने  अपना जातीय और वर्गीय नेतृत्व तैयार किया. लेकिन इसकी जो भूमिका और पटकथा कांग्रेस ने लिखी थी, अन्य पार्टियों ने भी उसी का अनुसरण किया. कांग्रेस की पटकथा में प्रतिनिधियों की जो भूमिका थी, उसमे उसे कांग्रेस का प्रतिनिधित्व करना था. उसे अपने वर्ग या जाति को या समुदाय को कांग्रेस का पिछलग्गू बनाना था और कांग्रेस के हित में ही उनका उपयोग करना था. कोई कोई प्रतिनिधि अपने आका के निहित स्वार्थों को पूरा करने के लिए इस स्तर तक चला गया कि वह अपनी जाति, वर्ग और समुदाय का दुश्मन ही बन गया. सभी दलों के प्रतिनिधि सत्ता में आने के बाद यही भूमिका निभाते हैं. इससे हालत यह पैदा हो गयी है कि कोई भी जाति, वर्ग या समुदाय अपने नेतृत्व और प्रतिनिधित्व से खुश नहीं है. दलितो का शोषण दलित नेता ही कर रहे हैं, आदिवासियों पर जुल्म उन्हीं के नेता करा रहे हैं, आदिवासियों के कल्याण के लिए बने झारखंड और छत्तीसगढ़ राज्य में सबसे ज्यादा शोषण आदिवासियों का ही हो रहा है. मुसलमान भी अपने ही नेतृत्व/प्रतिनिधित्व के खिलाफ आवाज़ उठा रहे हैं. क्यों?
        क्या प्रतिनिधित्व की राजनीति असफल हो गयी? या यह प्रतिनिधित्व ही झूठा और मक्कार है? सच तो यह है कि हमारा लोकतंत्र ही प्रतिनिधित्व-विहीन है. और सारे प्रतिनिधि पूजीपति शोषक वर्गों की ही दलाली कर रहे हैं. अब जनता के सारे प्रतिनिधियों के सामने यह गंभीर सवाल है कि क्या  वे अपनी भूमिका को ठीक से निभा रहे हैं? भोले भाले आदिवासियों ने हथियार कैसे उठा लिए? यह मत कहिये कि उन्हें बरगलाया गया. पानी वहीँ भरता है, जहाँ गड्ढे होते हैं. हमारे नेता और प्रतिनिधि मंथन करें कि उन्हें उन गड्ढों को पाटना  है या गृह-युद्ध की लपटों को फैलने देना है.
मई 27, 2013
        
      

    

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