शनिवार, 18 मई 2013


बौद्धधर्म और दलित
(कँवल भारती)
      इतिहास के लेखन में इतिहास-लेखक के भीतर भी एक इतिहास चलता रहता है और इतिहास-लेखक की हरगिज यह कोशिश रहती है कि वह इतिहास को अपने हिसाब से चलाये. कहना न होगा कि हमारे बहुत से इतिहास लेखकों ने यही किया है. इतिहास में बहुत सारे सवालों के जवाब नहीं मिलते, जिसकी पूर्ति इतिहास-लेखकों ने काल्पनिक तथ्यों से करने की कोशिश की है. परिणाम यह हुआ कि काल्पनिक तथ्यों ने शोध की स्वाभाविक गति को अवरुद्ध कर दिया. यह गलती किसी एकाध इतिहास-लेखक ने नहीं की है, वरन लगभग सभी इतिहासकारों ने की है. कहा जाता है कि उर्दू-पर्सियन में यह गलती सबसे कम हुई है, यह हो सकता है, मैं उर्दू-पर्सियन इतिहास से वाकिफ नहीं हूँ. मगर यह सच है कि यह गलती सबसे ज्यादा हिंदी में हुई है.
       इस लेख में मेरा फोकस दलित के सन्दर्भ में बौद्धधर्म के इतिहास पर है. मेरी तीन किताबें---(१)‘दलितधर्म की अवधारणा और बौद्धधर्म’, (२) ‘संत रैदास : एक विश्लेषण’, और (३) ‘आजीवक परंपरा और कबीर’--- इसी इतिहास की खोज पर हैं. इन तीनों किताबों में मेरे बहुत से निष्कर्ष अनुमान पर आधारित हैं, यह मैं स्वीकार करता हूँ. इसका कारण है, जिस दिन डा. बाबासाहेब आंबेडकर ने बौद्धधर्म ग्रहण किया, उसी दिन से बौद्धधर्म दलितों का धर्म बन गया और दलितों में बौद्धधर्म के इतिहास का लेखन भावुकता का शिकार हो गया. इसका परिणाम यह हुआ कि वर्णव्यवस्था के विरोध की हर धारा बुद्ध से जुड़ गयी. जहाँ कड़ियाँ नहीं मिलती या जुड़ती थीं, वहाँ कल्पना ने तथ्य खड़े कर दिए. कुछ मामलों में और कुछ सीमा तक कल्पना की भूमिका महत्वपूर्ण भी होती है. इसके बिना काम नहीं चल सकता. लेकिन इसके बावजूद दलित के सन्दर्भ में बौद्धधर्म को लेकर कुछ सवालों के जवाब अभी भी नहीं मिलते, वे अनसुलझे ही रह गए हैं. मिसाल के तौर पर मैंने ‘दलितधर्म की अवधारणा और बौद्धधर्म’ में यह सवाल उठाया है कि अगर डा. आंबेडकर ने बौद्धधर्म न अपनाकर इस्लाम या ईसाईयत को अपनाया होता, तो क्या तब भी दलित उसी जूनून के साथ मुस्लिम या ईसाई बनते, जिस जूनून से बौद्ध बने और बन रहे हैं? इसका जवाब इस कल्पना के साथ देने की कोशिश की गयी है कि जो जूनून बौद्धधर्म के साथ दलितों का है, वह इस्लाम या ईसाईयत के साथ इसलिए नहीं हो सकता, क्योंकि बौद्धधर्म दलित चिंतन-परम्परा से जुड़ा है, इस्लाम और ईसाईयत नहीं जुड़ा है. अब सवाल यह विचारणीय है कि बौद्धधर्म दलित चिंतन-परम्परा से किस आधार पर जुड़ा है? यही वह गुत्थी है, जो अनसुलझी है.
       डा. आंबेडकर ने बौद्ध परम्परा की खोज में इस कल्पना का सहारा लिया है कि दलित (अछूत जातियां) एक समय बौद्ध थीं, जो गोमांस खाती थीं, इसी आधार पर ब्राह्मणों ने उनका सामाजिक बहिष्कार किया और उन्हें अस्पृश्य घोषित किया. इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण शोध-कार्य, डा. विलक्षण रविदास ने किया है, जो ‘अछूत जातियां और बौद्धधर्म’ नाम से अभी हाल में (2009) में प्रकाशित हुआ है. उन्होंने डा. आंबेडकर की कल्पना का खंडन किया है. उनके अनुसार अछूत जनजातीय कबीलों के लोग थे, जो गाँव के बाहर रहते थे. उनका धर्म और दर्शन वैदिक धर्म-दर्शन से भिन्न था, जो ईश्वर और परलोक को नहीं मानता था. इसी आधार पर ब्राह्मणों ने उनका बहिष्कार किया था और उन्हें अछूत घोषित किया था. ये आजीवक, चार्वाक और लोकायतिक परम्परा में आते थे. (पृष्ठ 46-47 और 57-58) यहाँ तक सब ठीक है, अनीश्वरवाद और अनात्मवाद के अपने दर्शन की वजह से बुद्ध इस परम्परा से जुड़ भी जाते हैं. लेकिन डा. रविदास ने यहाँ एक और सवाल उठाया है कि ‘प्राचीन भारत में अस्पृश्यता का उन्मूलन बौद्धधर्म द्वारा क्यों नहीं किया जा सका?’ सवाल महत्वपूर्ण है. जब बुद्ध वर्णव्यस्था और जातिभेद के विरोधी थे, और उनके द्वार सबके लिए खुले थे, तो अस्पृश्यता को मिट जाना चाहिए था. अगर बुद्ध के समय में नहीं, तो बौद्ध राजाओं के काल में उसे जरूर मिट जाना चाहिए था. लेकिन न अस्पृश्यता का उन्मूलन हुआ और न जाति-मुक्त समाज बन सका. इस सवाल का जवाब डा. रविदास भी नहीं दे सके हैं कि ऐसा क्योंकर नहीं हो सका? वे इसके जवाब में केवल बुद्ध के धार्मिक सिद्धांतों की व्याख्या में ही उलझ कर रह गए हैं. इसी क्रम में वे एक जगह लिखते हैं- ‘बौद्ध धर्म द्वारा अस्पृश्यता के विरुद्ध किये गए व्यावहारिक प्रयास बड़े ही मौलिक और महत्वपूर्ण थे. ...(उसने) इस अमानवीय नियम एवं व्यवस्था का सिर्फ वैचारिक स्तर पर ही विरोध नहीं किया, वरन अपने धर्म और संघ का द्वार अछूत जातियों के लिए भी खुला रखा’. वे यहाँ तक कहते हैं- ‘बुद्ध संघ और धर्म में अछूत जातियों के लोगों को भिक्षु बना कर बौद्धधर्म ने न सिर्फ अछूतों के ज्ञान, अध्यात्म एवं जीवन के विकास का एक रास्ता दिया, बल्कि उन्हें स्पृश्य जातियों के बीच स्पृश्य और श्रेष्ठ बनाकर भेजा, जो उन्हें अछूत मानते थे, हीन और नीच कहते थे’. (पृष्ठ 146-47)
       इससे बिलकुल इंकार नहीं है कि बुद्ध ने अछूत जातियों के लोगों को अपने संघ में दीक्षित किया था, पर मूल सवाल तो अभी भी अपनी जगह है कि जाति-व्यवस्था और अस्पृश्यता का उन्मूलन क्यों नहीं हो सका? यदि बौद्धधर्म सामाजिक क्रान्ति की एक बड़ी घटना थी, जो वास्तव में थी भी, तो अछूत जातियां उस क्रान्ति से अछूती क्यों रहीं? वह क्रान्ति उन् तक क्यों नहीं पहुंची? मैंने अपनी किताब ‘संत रैदास : एक विश्लेषण’ में कबीर-रैदास आदि दलित संतों को बौद्ध परम्परा से जोड़ने के लिए एक ऐतिहासिक तथ्य की कल्पना की है. हाँ, वह एक कल्पना ही है, पर असंभावित नहीं है. मैंने लिखा है कि बौद्धधर्म के पतन के बाद बहुत से बौद्ध भिक्षु, जो विदेश नहीं भाग सके थे, गृहस्थ बनकर दलित बस्तियों में जाकर रहने लगे थे, क्योंकि वहीँ उन्हें शरण मिल सकती थी. वहीँ उन्होंने शादियाँ कर लीं और फिर वे वहीँ के होकर रह गए. पीढ़ियाँ गुजर गयीं, बुद्ध तो खत्म हो गए, पर उनकी विचारधारा बची रह गयी. इन्हीं पीढ़ियों में कबीर और रैदास जैसे क्रान्तिकारी कवि हुए. यह कल्पना ही है और इसकी ऐतिहासिकता पर सवाल उठाया जा सकता है, क्योंकि इस कल्पना से भी हमें अपने मूल सवाल का जवाब नहीं मिलता कि अछूत जातियां बौद्ध क्रान्ति से अछूती क्यों रहीं?
डा. विलक्षण रविदास तो इस सवाल का जवाब ही नहीं दे सके हैं. वे सत्य के करीब से गुजर कर भी वहाँ से भटक गए हैं. वे अन्त तक बुद्ध के धर्म और दर्शन में दलित और पीड़ित जनों के लिए मुक्ति की किरण ही देखते रह गए हैं, जबकि यह दर्शन का सवाल ही नहीं है. उन्होंने एच. ओल्डन वर्ग का भी खंडन किया है, जिन्होंने सही सवाल उठाया है कि बौद्धधर्म पर ब्राह्मणों और कुलीनों का प्रभाव था, जिन्होंने निर्धन और अभागे (अछूत) लोगों की उपेक्षा की थी. अगर बौद्धधर्म ने दलितों को आकर्षित किया था, तो कम-से-कम उन् क्षेत्रों के दलित तो बुद्ध की शरण में चले ही जाते, और पूरे उत्साह से झुण्ड के झुण्ड जाते, जहां बुद्ध ने चारिका (धर्मोपदेश) करते हुए चालीस साल बिताए थे. इस तरह पूरे बिहार और पूर्बी उत्तर प्रदेश में वह दलित क्रान्ति, जो 1956 में डा. बाबासाहेब आंबेडकर ने की थी, ढाई हजार वर्ष पहले बुद्ध के समय में ही हो गयी होती. यह क्रान्ति अगर नहीं हुई, तो इसके दो ही कारण हैं. या तो बौद्धधर्म ने दलितों को आकर्षित नहीं किया या बुद्ध के ब्राह्मण और कुलीन शिष्यों ने उन्हें ‘धम्म’ में घुसने नहीं दिया. सम्भावनाएं दोनों ही हो सकती हैं.
       इस सन्दर्भ में सबसे आधारभूत सवाल यह विचारणीय है कि जिस ब्राह्मणवाद ने बौद्धधर्म के मठ, विहार, स्तूप और ग्रन्थ नष्ट कर दिए और उसे भारत से निर्वासित कर दिया, वह ब्राह्मणवाद कबीर और रैदास को क्यों नहीं उखाड़ सका? इस सवाल का जवाब यही हो सकता है कि बौद्धधर्म की जड़ें दलित जातियों में नहीं थीं, जबकि कबीर और रैदास के पीछे उनका विशाल जन-समूह खड़ा था, वहाँ उनकी गहरी जड़ें थीं. आज यदि दलित जातियों में बौद्धधर्म प्रतिष्ठित हुआ है, तो यह फल तो डा. आंबेडकर की क्रान्ति का ही है.
(16 मई 2013)

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