रविवार, 22 जुलाई 2018


देवनागरी लिपि का आन्दोलन
(कँवल भारती)
    रामनिरंजन परिमलेंदु की किताब ‘देवनागरी लिपि आन्दोलन का इतिहास’ को पढ़कर पहली प्रतिक्रिया यही हुई कि लेखक ने कमाल का काम किया है. यह महत्वपूर्ण अनुसंधान है, जो देवनागरी लिपि और हिंदी भाषा के आन्दोलन के क्रमिक विकास दर्शाता है. यद्यपि, लेखक के अनुसार, सबसे पहले ईस्ट इंडिया कम्पनी ने कानून बनाकर, जो 1 मई 1793 को लागू हुआ था, देवनागरी लिपि को सरकारी स्वीकृति प्रदान कर दी थी और 1809 में उसने सरकारी सिक्कों पर भी फ़ारसी के साथ-साथ देवनागरी लिपि भी लिखवाने का काम किया था. किन्तु लेखक आगे बताता है कि इसके 26 साल बाद 1835 में उसने सिक्कों से देवनागरी को हटा दिया था. [पृष्ठ 21] किन्तु गदर के बाद, जब भारत का शासन महारानी विक्टोरिया के हाथों में आया, तो उसने 1867 के क़ानून से देवनागरी को बिलकुल हटा दिया, और उसके स्थान पर उर्दू को स्थान दिया. अब फ़ारसी का स्थान अंग्रेजी ने और देवनागरी का स्थान उर्दू ने ले लिया था. लेखक ने यहाँ एक महत्वपूर्ण जानकारी दी है कि अनेक अंग्रेज विद्वानों ने फ़ारसी लिपि की त्रुटियों की ओर ध्यान दिलाया था. इनमें एक प्रोफेसर मोनियर विलियम्स थे, जिन्होंने लन्दन के ‘टाइम्स’ में 31 दिसम्बर 1858 को लिखा था कि भारतीय मुसलमान फ़ारसीपूरित अरबी तालिक का इस्तेमाल करता है, जो टूटी लेखन पद्धति है. उसने अपने लेख में इस बात का भी उल्लेख किया कि ‘देवनागरी लिपि में दो अक्षरों, जिनका प्रतिनिधित्व रोमन लिपि में ‘ज़ेड’ और ‘एफ़’ से किया जाता है, के अभाव के बावजूद यह संसार की सभी ज्ञात वर्णमालाओं में सर्वाधिक श्रेष्ठ, पूर्ण और अनुशासित है.’ [पृष्ठ 40-41]
    उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में, लेखक बताता है कि, देवनागरी लिपि के आन्दोलन को आगे बढ़ाने का पहला काम जिस व्यक्ति ने किया था, वह गैरहिंदी क्षेत्र कलकत्ता के डा. राजेन्द्र लाल मित्रा [1824-1892] थे. वह पहले भारतीय थे, जिन्होंने 1864 में बंगाल के एशियाटिक जर्नल में ‘ऑन दि ऑरीजिन ऑफ दि हिन्दवी लेंग्वेज एंड इट्स रिलेशन टू दि उर्दू’ लेख लिखकर ‘देवनागरी लिपि को हिन्दवी और उर्दू भाषाओं की लिपि के रूप में अपनाए जाने की आवश्यकता पर बल दिया था.’ [पृष्ठ 54] इसके बाद हिंदी क्षेत्र से सर्वप्रथम हिंदी साहित्यकार राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद [1823-1895] का योगदान उल्लेखनीय है, जिन्होंने सरकारी स्तर पर देवनागरी लिपि के प्रचलन के लिए सरकार को ज्ञापन दिया था. वह इस बात से क्षुब्ध थे कि ब्रिटिश सरकार भारतीय जनता पर फ़ारसी लिपि के रूप में उर्दू को लाद रही थी. उन्होंने अपने ज्ञापन में लिखा था कि हम फ़ारसी के अध्ययन से फ़ारसीदां हो जाते हैं, हमारे सभी विचार भ्रष्ट हो जाते हैं और हमारी राष्ट्रीयता विलुप्त हो जाती है. वह फ़ारसी-उर्दू को हिन्दुओं को अर्द्ध-मुसलमान बनाने और हिन्दू राष्ट्रीयता को नष्ट करने वाली भाषा के रूप में देखते थे. [पृष्ठ 57]
    किन्तु लेखक के अनुसार यह दिलचस्प है कि सम्पूर्ण भारत में मध्यप्रदेश पहला प्रांत था, जहाँ न्यायिक विभाग में देवनागरी लिपि ही नहीं, बल्कि हिंदी भाषा को भी स्वीकृति प्राप्त हुई थी. [पृष्ठ 59]
    परिमलेंदु लिखते हैं कि देवनागरी लिपि और हिंदी के आन्दोलन ने तीव्र गति, तब पकड़ी, जब 1882 में शिक्षा-सुधारों के लिए, डब्लू. डब्लू. हंटर की अध्यक्षता में गठित शिक्षा आयोग ने महत्वपूर्ण लोगों से साक्ष्य लेने शुरू किए. इस आयोग के गठन के बाद लोगों में हिंदी भाषा और लिपि के प्रति नया जागरण और उत्साह पैदा हुआ. लेखक के अनुसार, इलाहाबाद से चार हजार व्यक्तियों के हस्ताक्षरित ज्ञापन आयोग को दिए गए. लाहौर में साठ हजार लोगों ने ज्ञापन दिए, लेकिन पंजाब से हिंदी के विरोध में पचास हजार ज्ञापन आयोग को सौंपे गए. कलकत्ता से प्रकाशित ‘सारसुधानिधि’ ने 4 सितम्बर 1882 को हिंदी के पक्ष में सम्पादकीय लिखा कि कम-से-कम दो लाख लोगों के हस्ताक्षरयुक्त ज्ञापन आयोग को दिए जाएँ. भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने अपने विशेष साक्ष्य में आयोग को बताया कि इंग्लॅण्ड और अन्य यूरोपीय देशों की तरह भारत में भी प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य कर दी जाए, और जनता की भाषा को ही अदालती भाषा बना दिया जाए. किन्तु ये सारे प्रयास निष्फल हुए. 1884 में प्रकाशित आयोग की रिपोर्ट में हिंदी लिपि और भाषा की सिफारिशें स्वीकार नहीं की गयीं. पंडित राधाचरण गोस्वामी ने अपने मासिक पत्र ‘भारतेंदु’ में लिखा कि ‘यह शिक्षा कमिशन नहीं था, बल्कि हिंदी के लिए कोर्ट मार्शल लॉ था.’ हिंदी जगत में इसी तरह की प्रतिक्रियाएं सब तरफ से आयीं. इलाहाबाद के कवि पंडित शिवराम पंड्या ने लावनी में लिखा--
हंटर ने जो हिंदी को हंटर मारा.
बस टूट गया दिल टुकड़े हुआ हमारा.
                  [पृष्ठ 64-78]
    लेखक ने ठीक ही लिखा है कि देवनागरी लिपि आन्दोलन में कायस्थों की भागीदारी नहीं थी, जिसके कारण इस आन्दोलन को भरपूर गति नहीं मिल पा रही थी. हिन्दुओं में कायस्थ समुदाय अपनी परम्परागत शिक्षा में उर्दू-फ़ारसी पढ़ने-लिखने का अभ्यस्त था, इसलिए वह हिंदी के आन्दोलन में तटस्थ था. इस तरह भाषा का आन्दोलन हिंदी और उर्दू के संघर्ष में विभाजित हो गया था. हिंदी वाले उर्दू का विरोध उसे त्रुटिपूर्ण और अदालती कामकाज के लिए अयोग्य बताकर करते थे. [पृष्ठ 80] किन्तु मुसलमान और कायस्थ कर्मचारीगण अदालतों में देवनागरी के पक्ष में बिलकुल नहीं थे. वे नौकरियों में बने रहने के लिए सत्ता की भाषा जल्दी सीख लेते थे, क्योंकि वह रोजगार से जुड़ी भाषा थी. इसलिए वे ब्रिटिश काल में भी अंग्रेजी पढ़कर उन्नति कर रहे थे.
    लेखक लिखता है कि ‘सत्य तो यह है कि जन शिक्षा की दृष्टि से उर्दू के विकल्प में सरकारी न्यायालयों में हिंदी और उसकी लिपि की प्रतिष्ठापना ही वास्तविक समस्या थी.’ इस समस्या को हल करने के लिए, 1897 में मदनमोहन मालवीय ने सरकार को ‘हिन्दुस्तानी’ का विकल्प दिया. उन्होंने सरकार को दिए अपने ज्ञापन में कहा कि भाषा हिन्दुस्तान की हिन्दुस्तानी हो, जिसमें प्रतिदिन की बोलचाल की भाषा हो. उसमें न फ़ारसी-अरबी के कठिन शब्द हों, और न संस्कृत के. यह नागरी अक्षरों में लिखी जानी चाहिए. [पृष्ठ 94-97]
    पर, चूँकि सरकारी आदेश से नौकरियों में नियुक्ति के लिए उर्दू अथवा फ़ारसी का ज्ञान आवश्यक था, इसलिए इस स्थिति में परिवर्तन करने की सरकार की कोई इच्छा नहीं थी. इससे हिंदी भाषी लोगों के लिए सरकार में रोजगार से वंचित रहना पड़ता था, जबकि उर्दू पढ़े-लिखे लोग आसानी से सरकारी नौकरी पा जाते थे.
    लेखक एक महत्वपूर्ण जानकारी यह देता है कि ‘1891 की जनगणना में पश्चिमोत्तर प्रदेशों में नियुक्त परिगणकों में से 80,118 ने देवनागरी और हिंदी, 40,197 ने देवनागरी लिपि का रूपान्तर कैथी लिपि अर्थात 1,20,315 ने हिंदी भाषा और मूलतः नागरी लिपि और 54,244 ने फ़ारसी लिपि में कार्य-निष्पादन किए. जब वहां गांवों में पाठशालाओं का आरम्भ हुआ, तो देवनागरी लिपि में हिंदी के छात्रों की संख्या उर्दू के छात्रों की अपेक्षा छह गुनी अधिक थी.’ [पृष्ठ 102]
    लेखक के अनुसार, उन्नीसवीं शताब्दी में नगरपालिकाओं में हिंदी का प्रवेश नहीं था. इसके विरुद्ध, पहली आवाज़ हिंदी के पक्ष में 1883 में साहित्यकार पंडित राधाचरण गोस्वामी ने उठाई थी. उन्होंने अपने पत्र ‘भारतेंदु’ में इस सम्बन्ध में जोरदार सम्पादकीय लिखा था. लेखक ने बड़ी मेहनत से इस सदी की कविताओं, व्यंग्यपूर्ण लेखों, निबन्धों, व्यंग्यचित्रों और सम्पादक के नाम पाठकों के पत्रों में देवनागरी की गूँज-अनुगूंज का अध्ययन किया है और देवनागरी बनाम फ़ारसी लिपि के संघर्ष को दिखाया है. बानगी के तौर पर ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं, जो लेखक ने रामवचन द्विवेदी ‘अरविन्द’ की कविता ‘उर्दू लिपि और नागरी’ से ली हैं—
अब देखिए उर्दू इधर
जिसका सुभग श्रृंगार है.
लिखते ‘दुआ’ पढ़ते ‘दगा’
कहते ‘सुनार’ ‘सितार’ है.
    बांचे ‘कबाब’ ‘किताब’ को,
    ‘किस्ती’ कहें ‘कस्वी’ अहा.
    ‘चाची’ बनी ‘हाजी’ कहो,
    अब और क्या बाकी रहा.’
             [पृष्ठ 116]
    इस कविता में उर्दू की त्रुटियाँ दिखाने वाले कवि को संभवत: उर्दू का ज्ञान नहीं था. क्योंकि, इसमें कही बातें सही नहीं हैं—न दुआ को दगा पढ़ा जायेगा, न सुनार को सितार, कबाब भी किताब नहीं बन सकता, क्योंकि ‘बे’ को ‘ते’ पढ़ना मूर्खता ही होगी. इसी तरह ‘किस्ती’ को भी ‘कस्वी’ नहीं पढ़ा जा सकता है. इसमें ‘ते’ को ‘वाव’ तो उर्दू से अनभिज्ञ ही समझ सकता है.
    लेखक ने आगे एक महत्वपूर्ण जानकारी दी है कि 2 मार्च 1898 को राजभवन, इलाहाबाद में पश्चिमोत्तर प्रदेश के लेफ्टिनेंट गवर्नर और मुख्य आयुक्त सर एंटोनी मैकडानेल से सत्रह प्रमुख व्यक्तियों का एक शिष्टमंडल मिला, जिसमें पंडित सुंदर लाल और पंडित मदनमोहन मालवीय भी शामिल थे. इस शिष्टमंडल ने देवनागरी के पक्ष में जो मांगपत्र दिया था, जाहिर है कि उर्दू वालों ने उसका विरोध किया था. किन्तु इसके बाद भी हिंदी के पक्ष में लगातार ज्ञापन दिए जाते रहे. अन्तत: 18 अप्रेल 1900 को सरकार को देवनागरी के पक्ष में राज्याज्ञा जारी करनी पड़ी. राज्याज्ञा में कहा गया कि सरकारी कार्यालयों और अदालतों में फ़ारसी के साथ-साथ देवनागरी में भी प्रार्थना-पत्र दिए जा सकते हैं, और सरकारी प्रपत्र भी फ़ारसी और देवनागरी दोनों लिपियों में छापे जायेंगे. [पृष्ठ 126]
    लेखक बताता है कि इस अल्प सफलता के लिए हिंदी जगत के मूर्धन्य लोगों के द्वारा रानी विक्टोरिया और गवर्नर की प्रशंसा में कसीदे काड़े गए. बाबू राधाकृष्ण दास ने ‘नगरीप्रचारिणी पत्रिका’ में लिखा—‘हमारी प्रजावत्सला महारानी ही का राजत्व था कि तीन सौ वर्षों के पीछे हिंदी ने राजकाज में आदर पाया.’ [पृष्ठ 132]
    किताब के तीसरे अध्याय में राष्ट्रलिपि आन्दोलन पर चर्चा की गई है. इस विषय के अध्ययन में, जैसा कि लेखक ने स्पष्ट किया है, अत्यंत दुर्लभ सामग्री को आधार बनाया गया है. लेखक का विचार है कि हिंदी को सम्पूर्ण भारतव्यापिनी राष्ट्रभाषा का गौरवपूर्ण पद प्रदान किए जाने का भव्य स्वप्न सर्वप्रथम राधालाल माथुर ने देखा था, जो हिंदी के सर्वप्रथम शब्दकोशकार थे. लेकिन राष्ट्रलिपि देवनागरी के प्रथम मन्त्रद्रष्टा उनके विचार से ‘हिंदी प्रदीप’ के सम्पादक बालकृष्ण भट्ट ही थे. [पृष्ठ 188-89]
    इस धारा में उन्होंने पंडित बलभद्र मिश्र, सर गुरुदास बनर्जी, रामकृष्ण शर्मा, पंडित केशववामन पेठे, सर जान वुडवर्न, बालमुकुन्द गुप्त, श्यामसुंदर दास, महावीरप्रसाद द्विवेदी, पंडित सतीशचन्द्र विद्याभूषण, न्यायमूर्ति शारदाचरण मित्र, एडविन ग्रीव्ज, लोकमान्य तिलक, रमेशचंद्र दत्त, माधव राजाराम बोडस, वी. कृष्णास्वामी अय्यर, पंडित माधो राम, भदन्त आनंद कौसल्यायन, माखनलाल चतुर्वेदी, ठाकुर राम सिंह, भीमसेन विद्यालंकार, राहुल सांकृत्यायन, सेठ गोविन्द दास आदि विद्वानों के विचारों को प्रस्तुत किया है, जो वास्तव में श्रमसाध्य कार्य है. लेखक ने इन विद्वानों के विचारों के क्रम में इतिहास की गति का बहुत ध्यान रखा है. इतिहास तारीखों का ही खेल है. अकादमिक कार्य में अगर इसका अनुपालन न किया जाए, तो वह एक भावुक रिपोर्ट तो हो सकती है, इतिहास नहीं हो सकता.
    किन्तु, यह देखना दिलचस्प है कि देवनागरी लिपि का आन्दोलन स्वतंत्रता के बाद भी जारी रहता है. दिसम्बर 1947 में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का 35वां अधिवेशन बम्बई में हुआ था, जिसमें अध्यक्ष पद से महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने राष्ट्रलिपि के रूप में देवनागरी की वकालत करते हुए उसे रोमन के मुकाबले दुनिया की सबसे अधिक वैज्ञानिक लिपि बताया था. [पृष्ठ 248-49]
     लेखक ने रेखांकित किया है कि 1961 में मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में तत्कालीन प्रधानमन्त्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में राष्ट्र लिपि की दिशा में एक बहुत ही सकारात्मक प्रस्ताव पास हुआ था, जिसमें कहा गया था कि भारत की सब भाषाओं के लिए एक मात्र लिपि देवनागरी ही हो सकती है, और इसके लिए कार्य योजना बनानी चाहिए. किन्तु भारत सरकार ने इस प्रस्ताव पर अम्ल नहीं किया. [पृष्ठ 255-56]
    लेखक ने उद्घाटित किया है कि लेखकों के साथ-साथ राजनीतिकों ने भी देवनागरी के पक्ष में वक्तव्य दिए थे, जिनमें ज्ञानी जैल सिंह और आर, वेंकटरामन मुख्य थे. किन्तु आर. वेंकटरामन का मत था कि कुछ दिनों के लिए हिंदी को कई लिपियों में लिखा जाए. लेखक ने वेंकटरामन के इस मत की ठीक ही आलोचना की है कि उनका मत ‘भाषा के क्षेत्र में अराजकता उत्पन्न करने वाला था.’ वह लिखते हैं कि ‘राजभाषा हिंदी की एकमात्र लिपि देवनागरी है. इसे अनेक लिपियों में लिखने की अनुमति भारत का संविधान नहीं देता है.’ [पृष्ठ 259]
    रामनिरंजन परिमलेंदु ने चौथे अध्याय में देवनागरी लिपि के आन्दोलन में देशी रजवाड़ों के योगदान पर चर्चा की है. इसमें अयोध्या नरेश प्रतापनारायण सिंह ने 1900 में और अलवर राज्य ने 1909 में राज्य में नागरी प्रचार का आदेश जारी किया था. सबसे ज्यादा योगदान इंदौर के होलकर राज्य का है. लेखक के अनुसार 17वीं सदी तक मराठा राज्य के सभी शासकीय कार्य मराठी भाषा में होते थे. किन्तु उसके बाद 18वीं सदी के पूर्वार्द्ध्य में उसने हिंदी को सम्पर्क भाषा बनाया. होलकर राज्य के अधिकांश ताम्रलेख देवनागरी लिपि में ही हैं. इस राज्य की राजकीय मुद्राएँ भी देवनागरी में थीं. कोटा, ग्वालियर और छतरपुर के रजवाड़ों  ने भी देवनागरी को आगे बढ़ाया था. जयपुर, झालावाड़, देवास, पन्ना, बनारस, बड़ोदरा, बीकानेर, भरतपुर, रीवा, सीतापुर, रामपुर और मथुरा, मारवाड़ और संबलपुर रियासतों के योगदान को भी लेखक ने रेखांकित किया है. [पृष्ठ 284-308]
    पांचवां अध्याय बिहार के लिपि आन्दोलन पर है, जिसकी शुरुआत लेखक ने 1873 ई. में प्रकाशित बिहार के पहले हिंदी साप्ताहिक पत्र ‘बिहार बन्धु’ से की है. लेखक ने इस पत्र के 27 दिसम्बर 1883 के सम्पादकीय से एक अंश उद्धृत किया है, जिसमें एक जगह आया है—‘दस बरस पहले एक समन पढ़ने के लिए देहात में लोगों को हैरान होना पड़ता था. खोजते-ढूंढ़ते अगर कोई उर्दू-फ़ारसी के मौलवी मिल गए, तो क्या मजाल कि मौलाना उस शिकस्त और फेंक-फांक वाली नामी कचहरिया उर्दू पढ़लें, लाचार होकर रह जाते थे.’ लेखक ने इन पंक्तियों को बिहार के लिपि आन्दोलन की पृष्ठभूमि की संक्षिप्त झांकी कहा है. उसके अनुसार, ‘बिहार की कचहरियों में देवनागरी लिपि की मान्यता के लिए सर्वाधिक प्रभावकारी आन्दोलन ‘बिहार बन्धु’ ने ही किया और इसमें उसे सफलता भी मिली थी.’ [पृष्ठ 319]
    लेखक ने एक महत्वपूर्ण जानकारी यह दी है कि डा. जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने अपने भारतीय भाषा सर्वेक्षण के खंड 1 भाग 1 में कहा था कि सम्पूर्ण बिहार में जो लिपि लिखी जाती है, वह ‘कैथी’ है. उनका सुझाव था कि बिहार की कचहरियों में मैथिलि, भोजपुरी, या मगही, में से कोई एक बोली जारी होनी चाहिए. यह सुझाव अच्छा था. इससे इन बोलियों का विकास होता. पर लेखक के अनुसार ‘बिहार बन्धु’ ने इस सुझाव का विरोध किया. उसने लिखा कि ग्रियर्सन साहब हमारी प्यारी जुबान को मुल्क से निकालकर उसकी जगह पर गँवारी और भद्दी मगही, मैथिलि या भोजपुरी को कायम करना चाहते हैं. [पृष्ठ 329-331]
    लेखक लिखता है कि ‘बिहार बन्धु’ के विरोध का सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा. और सरकार ने देवनागरी अक्षरों का परिवर्तन कैथी लिपि के रूप में कर दिया. इसी कैथी में बिहार का गजट छापा गया, जो बकलम ‘बिहार बन्धु’, भद्दा, कुरूप और संदिग्ध था, और बड़ी-बड़ी मुश्किलों से भी नहीं पढ़ा जाता था.
    लेखक के अनुसार, 1880 के दशक में बिहार में कैथी लिपि में विद्यालयों की पाठ्य-पुस्तकों का प्रकाशन शुरू हो गया था. 1885 में कैथी में छपी ‘प्रथम भूगोल’ की आलोचना ‘बिहार बन्धु’ ने की थी, जिसमें उसने कहा था— ‘पृथ्वी की जगह पिरथिवी, समुद्र की जगह समुन्दर, दक्खिन की जगह दखिन, ध्रुव की जगह धुरब, वृतांत की जगह विरतानत छपा है. हाय हमने क्या अपने लड़कों को स्कूल में इसी वास्ते भेजा था कि अपनी अच्छी बोलचाल भी बिगाड़ आवें?’ [पृष्ठ 335]
    कैथी के विरोध का असर हुआ. और परिणामत: 1893 में सरकार ने व्यापक विचार-विमर्श के बाद बिहार की सरकारी कचहरियों में देवनागरी लिपि के प्रयोग की आज्ञा मिल गई. [पृष्ठ 339] लेकिन कैथी लिपि बनी रही, क्योंकि कैथी लिपि की अपेक्षा नागरी हिंदी सीखने के प्रति जनता में उदासीनता थी. एक तरह से यह कहा जा सकता है कि कैथी साधारण लोगों की लिपि थी और देवनागरी भद्र लोगों की.
    स्थिति तब और भी बिगड़ गयी, जब 1937 में बिहार में अंतरिम सरकार का गठन हुआ, और उसने बिहार की अदालतों में वैकल्पिक रूप से फ़ारसी लिपि का व्यवहार किए जाने की आज्ञा दे दी. जातीय दृष्टि से बिहार की स्थिति जटिल थी. उसमें आदिवासीजातियां भी थीं, जिनकी भाषा अलग थी. उनकी लिपि का भी प्रश्न सरकार के समक्ष विचारणीय था. 1940 में पटना विश्वविद्यालय ने आदिवासी भाषा संथाली को भी मान्यता दे दी. इसके लिए देवनागरी लिपि को ही स्वीकृत किया गया, जिससे देवनागरी के प्रचार को बल मिला. लेखक लिखता है कि स्वतंत्र भारत में हिंदी राजभाषा हुई और उसकी एकमात्र लिपि देवनागरी हो गई. किन्तु वोट की राजनीति के कारण 1976 के बाद बिहार सरकार ने उर्दू को दूसरी राजभाषा घोषित कर दिया, जबकि इसके लिए कहीं से आवाज़ नहीं उठाई गई थी. [पृष्ठ 352-53]
    छठे अध्याय में लेखक ने भारतेंदु काल की प्रमुख पत्रिकाओं और देवनागरी लिपि आन्दोलन पर प्रकाश डाला है. इसमें कुछ पत्रिकाओं के सम्पादकीय लेखों के अंश और कुछ कवियों की कविताओं के उद्धरण दिए गए हैं. उदाहरण के लिए कालाकांकर, जिला प्रतापगढ़ से प्रकाशित ‘दैनिक हिन्दोस्थान’ में छपी राधाचरण गोस्वामी की कविता की ये पंक्तियाँ—
हुआ कोई नहीं हिंदी का मददगार कभी.
छुटेगा दोस्तों इसका भी ये आजार कभी.
जबां उर्दू का अब रुतबा बढ़ा इतना अफ़सोस,
वो पायेगी अदालत से भला फिटकार कभी.
                 [पृष्ठ 400]
इसी तरह, कानपुर से प्रकाशित ‘ब्राह्मण’ पत्र के 15 अप्रेल 1884 के सम्पादकीय लेख का यह अंश—
    ‘हमारे देश भक्तों को श्रम साहस और विश्वास चाहिए, हम निश्चयपूर्वक कहते हैं कि यदि हमारे आर्य भाई अधीर्य न होंगे, तो एक दिन अवश्य होगा कि भारतबर्ष भर में नागरी देवी राज्य करैंगी और उर्दू बीबी अपने सगों के घर में बैठी कोदो दरैंगी.’ [पृष्ठ 406]
    यहाँ देख सकते हैं कि हिंदी का प्रश्न आर्यत्व और हिंदुत्व का भी प्रश्न भी  बन गया था.
    पुस्तक का सातवाँ महत्वपूर्ण अध्याय देवनागरी लिपि आन्दोलन में हिंदी नाटकों के योगदान पर है. इसमें संदेह नहीं कि लोकरंग और नाटक भाषा के स्तर पर सीधा प्रभाव डालते हैं. लेखक ने लिखा है कि देवनागरी सम्बन्धी नाटकों की रचना भारतेंदु हरिश्चन्द्र के जीवनकाल में और उनके निधन के बाद हुई थी. लेखक ने इस अध्याय में पंडित रविदत्त शुक्ल कृत नाटक ‘देवाक्षर चरित्र’ [1884], सोहनलाल मुदर्रिस कृत ‘हिंदी और उर्दू की लड़ाई’ [1885], रामगरीब चतुर्वेदी कृत ‘नागरी विलाप’ [1885], पंडित गौरीदत्त कृत ‘सर्राफी नाटक’ [1890], रतनचन्द्र वकील कृत ‘हिंदी-उर्दू का मुकदमा’ [1890], तथा पंडित देवकी नन्दन त्रिपाठी कृत दो एकांकियों— ‘हाकिम का सुन्याव’ और ‘मार्ग में दो विदेशी और एक प्रयागवासी’ [1894] का अध्ययन किया है. साहित्य-रस की दृष्टि से यह अध्याय बेहद पठनीय है.
    आठवें अध्याय में लेखक ने मोहनदास करमचन्द गाँधी के विचारों से लिपि आन्दोलन को देखने का प्रयास किया है, तो नवें अध्याय में काका कालेलकर के अवदान का उल्लेख किया है. अंतिम दसवें अध्याय में जवाहरलाल नेहरू, डा. राजेन्द्र प्रसाद, किशोरलाल घनश्याम मशरूवाला और विनोबा भावे के विचारों के आलोक में देवनागरी लिपि आन्दोलन पर वृहद प्रकाश डाला है.
    परिशिष्ट में दुर्लभ अभिलेखों को भी लेखक ने सुलभ अवलोकनीय बना दिया है. हिंदी में संभवत: यह पहला कार्य है, जिसमें लेखक का श्रम सराहनीय है.
9412871013

   

  
         
      

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